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जनवरी 2017

समकालीन अप्रसांगिकता

जीतेन्द्र गुप्ता

विमर्श/एक






'समकालीनता' एक जटिल शब्द है। प्राय: इस शब्द का प्रयोग प्रासांगिकता के अर्थ में होता है। 'समकालीनता' के साथ प्रासांगिकता का प्रश्न इसमें शामिल है कि यह शब्द निश्चित काल-बोध-समय-बोध को नहीं व्यक्त कर पाता है। साहित्य के साथ 'समकालीनता' का प्रश्न इस तरह से जुड़ा हुआ है कि साहित्य-मीमांसा और आलोचना विधा के जन्म के साथ ही 'साहित्य की समकालीनता' के प्रश्न का जन्म मान सकते हैं।
बौद्धिक स्तर पर 'समकालीनता' का प्रश्न इसलिए महत्वपूर्ण है कि क्योंकि इससे साहित्य या ज्ञान के व्यवस्थित अध्ययन को वैधता प्राप्त होती है। 'समकालीनता' के साथ 'प्रासांगिकता' के जुड़ाव के बावजूद व्यवहारिक स्तर पर 'समकालीनता' की अर्थव्युत्पत्तियों में जटिलता का कारण यह है कि 'प्रासांगिकता' एक दृष्टिकोणगत आयाम है या अधिक स्पष्ट शब्दों में कहें, तो प्रासांगिकता का निर्धारण एक निश्चित दर्शनसरणी के आधार पर होता है। इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्य की दार्शनिक वृत्ति और 'विश्वबोध' के आधार पर ही प्रासांगिकता का निर्धारण होता है; और यही प्रासांगिकता समकालीनता के निर्धारण में अनिवार्य तत्व है।
इस सबके परे एक अन्य दृष्टिकोण भी बौद्धिक कार्य-व्यापार का हिस्सा है, जहाँ समकालीनता का तात्पर्य केवल 'काल' से है। समकालीनता के निर्धारण में समय को वरीयता देने का अर्थ बौद्धिक स्तर पर दार्शनिक-आयाम या विश्वबोध के साथ इतिहासबोध की स्वायत्तता को कम से कम स्वीकारना और समाज में विद्यमान विचारों (सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक) के लिए भौतिक परिस्थितियों या अधिक रूढ़ शब्दों में 'आधार' को जिम्मेदार मानना है; इसी धारणा को दार्शनिक शब्दावली में यांत्रिक भौतिकवाद की संज्ञा दी जाती है। सरल शब्दों में इसका तात्पर्य यह है कि एक ही समय में जन्में और काम कर रहे व्यक्तियों में वैचारिक साम्यता की धारणा पर विश्वास करना। लेकिन 'समकालीनता' के इस अर्थ के साथ 'प्रासंगिकता' का जुड़ाव किसी भी स्तर पर नहीं है।
'प्रासांगिकता' की अर्थछवि को शामिल करते हुए 'समकालीनता' को परिभाषित करने का सामान्य आधार 'मनुष्य जीवन को प्रभावित करने वाले विचारों की अग्रिमता' है। साहित्य के स्तर पर (और दूसरे भी बौद्धिक अनुशासनों के मामले में) समकालीनता के निर्धारण के लिए आसानी से इस विचार पर सहमत हो सकते हैं। उदाहरण के लिए यदि कबीर और जायसी आज भी 'समकालीन' प्रतीत होते हैं, तो केवल इस कारण से कि आज भी हमारा समाज भयावह किस्म के धार्मिक पाखंडों का शिकार है; अतार्किक किस्म की सामाजिक संस्थाओं को वरीयता देता है। धर्म के पक्ष-विपक्ष में होना मनुष्य के 'विश्वबोध' का परिणाम है; बावजूद इसके कबीर या जायसी की समकालीनता को निर्धारित करने में 'धर्म जैसी संस्था समाज को प्रभावित कर रही है' जैसी स्थापना को मूल्य के रूप में मौजूद होती है। यहां स्मरण रखना चाहिए कि 'धर्म' के विषय में मनुष्य के जो भी विचार होते हैं, उनका एक दार्शनिक उत्स होता है- भले ही मनुष्य सचेत रूप से उनसे परिचित न हो।
साहित्य के स्तर पर समकालीनता का प्रश्न कुछ और अधिक उलझनों को समेटे हुए हैं। कथ्य या विषय के स्तर पर साहित्य मनुष्य के जन्म के साथ पैदा हुए कुछ आस्तित्विक प्रश्नों पर विचार करता है। उदाहरण के लिए जीवन-जगत की सत्यता और मृत्यु संबंधी भय। सकारात्मक रूप में देखें तो साहित्य लेखक या सृजक को मृत्यु से परे ले जाने का लौकिक उद्यम करता है; लेकिन मूल तथ्य यही है कि साहित्य अपने प्राथमिक ज्ञानमीमांसक स्वरूप में मनुष्य जीवन के उन शाश्वत सत्यों की ओर उन्मुख होता है, जो जिस तरह से पुराकाल के मनुष्य के लिए महत्वपूर्ण थे, बिलकुल उसी रूप में आज के मनुष्य के लिए भी महत्वपूर्ण है। जीवन-मृत्यु की सत्यता से लेकर प्रकृति से संघर्ष ऐसे ही शाश्वत सत्य हैं। पुराणकालीन कहानियों से लेकर ग्रीक त्रासदियों तक में यही जद्दोजहद मौजूद है।
ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या पुराणकालीन कहानियां-मिथक और ग्रीक त्रासदियां हमारे लिए वैसे ही प्रसांगिक है, जैसे आज से 400 वर्ष पूर्व के कवि कबीर? इस मामले में चाहे विकासात्मक-दृष्टिकोण अपनाएं या सापेक्षित दृष्टिकोण अपनाएं; दोनों ही स्थितियों में यह उत्तर कबीर ही होगा। इस उत्तर का कारण भी बहुत सहज व स्पष्ट है कि सोफोक्लीज जिस रूप में मनुष्य के आस्तित्विक प्रश्नों पर विचार कर रहे थे, अब उसी रूप (दृष्टिकोण) में इन प्रश्नों पर विचार नहीं हो सकता है; हाँलाकि प्रश्न की संरचना में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। लेकिन पूर्वोत्तर प्रश्न अर्थात पुराण-कथाओं और कबीर की प्रासांगिकता के प्रश्न में यदि 'अधिक' शब्द हटा दें, तो उत्तर कबीर न होकर 'दोनों' ही होगा।
इस समस्या पर किंचित थोड़ी और अधिक गंभीरता से विचार करें, तो हम यह कहने की स्थिति में होंगे कि मनुष्य मात्र के आस्तित्विक प्रश्न समकालीनता का पर्याय नहीं होते हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल कविता को परिभाषित करने के क्रम में जिसे 'सभ्यता के आवरण' कहते हैं, मनुष्य के आस्तित्विक प्रश्नों के साथ उन्हीं 'सभ्यता के आवरणों' को हटाने का उद्यम कवि-साहित्यकार की समकालीनता की कसौटी में तब्दील होता है। इस तथ्य पर इसलिए जोर देना आवश्यक है कि क्योंकि कवियों की एक प्रजाति केवल 'दर्शन' पर ही विचार करती है और 'दार्शनिक कवि' की उपाधि उसके लिए सर्वाधिक वरणीय होती है।
ज्ञानमीमांसा के स्तर पर देखें, तो इस सृष्टि के हर एक मनुष्य के पास जीवन-मृत्यु संबंधी आस्तित्विक प्रश्न मौजूद होता है (लेकिन कोई कवि मात्र 'जीवन-मृत्यु' संबंधी चिंतन से अपनी मौलिकता नहीं स्थापित कर सकता है!) कवि की विशिष्टता तभी स्थापित होती है, जब वह जीवन-मृत्यु को 'सभ्यतागत आवरणों' के अंतर्गत देखने-समझने का उद्यम करता है। यह तथ्य इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह तथ्य साहित्य और दर्शन जैसे दो अनुशासनों में अंतर स्थापित करता है। एक स्वप्रमाणित तथ्य के रूप में (जिसे महान साहित्यकारों की रचनाएं प्रमाणित करती हैं) कहा जा सकता है कि 'समयक्रम में अप्रसांगिक होता जाता साहित्य ही महान साहित्य हैं'। यह 'महान साहित्य' समकालीनता से परे, यानि अप्रसांगिक होने पर साहित्य परंपरा का हिस्सा हो जाता है। उदाहरण के लिए देवीप्रसाद मिश्र की कविता 'मुसलमान' (1992) को लेते हैं। इस कविता का कुछ हिस्सा यहां उद्धृत है:

कहते हैं वे विपत्ति की तरह आए
कहते हैं वे प्रदूषण की तरह फैले
वे व्याधि थे

ब्राह्मण कहते थे वे मलेच्छ थे

वे मुसलमान थे
* * *
वे मुसलमान थे कि या खुदा उनकी शक्लें
आदमियों से मिलती थीं हूबहू
हूबहू

वे महत्वपूर्ण अप्रवासी थे
क्योंकि उनके पास दुख की स्मृतियां थीं
* * *
वे न होते तो उपमहाद्वीप के संगीत को सुननेवाला खुसरो न होता
वे न होते तो पूरे देश के गुस्से से बेचैन होनेवाला कबीर न होता
वे न होते तो भारतीय उपमहाद्वीप के दुख को कहनेवाला ग़ालिब न होता
मुसलमान न होते तो अठारह सौ सत्तावन न होता

यह कविता महान इन अर्थों में है कि इस समय जब पूरी विश्व सभ्यता के नकली-पाखंडी प्रतिनिधियों ने मनुष्यों के खास समुदाय (एक खास धर्म को मानने वाले/जन्म लेने वाले मनुष्यों) को सभ्यतागत रूप में पूंजीवाद के कारण उत्पन्न हुई भीषण समस्याओं-प्रवृत्तियों के लिए दोषी सिद्ध करने में कोई-कसर नहीं छोड़ी है; वहां यह कविता इन समस्त वैचारिक विभ्रमों के साथ झूठे, नकली और द्वैषी मनुष्यों, समुदायों व शासन व्यवस्थाओं की वैचारिक दरिद्रताओं को सामने लाती है। कविता अपनी समस्त तेजस्विता से स्पष्ट कर देती है कि उसे राई के बराबर भी 'महान कविता'  होने की चाहत नहीं है। इस कविता में हमारी मौजूदा सभ्यता के विरुद्ध रचे गए प्रत्याखान का मूल स्वर यह है कि यह कविता जल्दी से जल्दी अप्रसांगिक हो जाना चाहती है; एक ऐसे अतीत में खो जाना चाहती है, जहां इसे आगामी पीढिय़ां केवल इतिहास जानने के लिए पढ़े (इसलिए कि भविष्य की पीढ़ी यह जान सके कि एक ऐसा भी विद्रूप समय था कि पूंजी की स्वार्थपूर्ण आत्महीन व्यवस्था पूरे समुदाय को कलंकित करने जैसा मनुष्यद्रोही कार्य कर सकती थी)।
संदर्भित कविता के बहाने यह स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है कि इस कविता में भी मनुष्य के आस्तित्विक प्रश्नों पर विचार किया गया है, लेकिन 'सभ्यता के आवरणों' को हटाए (उल्लेख किए) बिना ऐसा संभव ही नहीं था। तात्पर्य यह कि अपने समय के परिदृश्य को अनदेखा कर उस विषय पर भी साहित्य की रचना संभव नहीं, जिस पर एक समय हमारे पूर्वज साहित्य सृजन करते थे।
साहित्य अनुशासन के ज्ञानमीमांसक स्वरूप पर ध्यान दें, तो पाएंगे कि साहित्य ठोस रुप से तीन तरह के विषयों को अपनी विष्यवस्तु या सृजन का हिस्सा बनाता है- (1) जीवन-मृत्यु संबंधी प्रश्न (2) मनुष्य की संवेगात्मक अवस्था और (3) सभ्यतागत आवरणों से आर-पार देखने का उद्यम। जीवन-मृत्यु संबंधी प्रश्नों की स्थिति पर विचार किया जा चुका है। मनुष्य की संवेगात्मक-अवस्था का प्रश्न भी महत्वपूर्ण है। मनुष्य की संवेगात्मक वृत्तियाँ दो श्रेणियों में विभाजित हैं। इसमें पहला विभाजन स्वाभाविक वृत्तियों का हैं, जिनके बारे में कह सकते हैं कि वे मनुष्य जन्म के साथ सहजात होती है, जैसे नींद, भूख और काम। बिल्कुल इसी तरह से कुछ अन्य संवेगात्मक वृत्तियों को चिन्हित कर सकते हैं, जो परिस्थितिजन्य होती हैं; जैसे क्रोध, भय, घृणा, वितृष्णा। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि साहित्य में संवेगात्मक वृत्तियों को एकांकी रूप में दर्ज नहीं किया जा सकता है। मनुष्य जीवन की परिस्थितियों का जिक्र किए बगैर इन संवेगात्मक वृत्तियों की स्थिति का रेखांकन बिल्कुल असंभव है। उदाहरणस्वरूप कामपरक संवेदन को लेते हैं। परिस्थितियों (सभ्यतागत आवरण) के चित्रण के बिना इस संवेदन के विभिन्न आयामों को रेखांकित करना संभव ही नहीं। हाँ, इस चित्रण के लिए संवेदन और परिस्थिति के बीच संतुलन सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है। संवेगों को ही साध्य मानने की स्थिति में परिस्थिति के न्यूनतम चित्रण से बहुत सारे लेखक काम चलाने की कोशिश कर लेते हैं। स्त्री और पुरुष का एक साथ होना इस न्यूनतम परिस्थिति को उत्पन्न कर देता है। ऐसे में एमिली जोला का उदाहरण सबसे उत्कृष्ट है। लेकिन यह स्थिति न तो साहित्य में किसी वरीयता को जन्म देती है, न ही समकालीन होने का उद्यम करती हैं। ओडिपस जैसे चरित्र के बाद हरिप्रसन्न या हरीश जैसे किरदार बहुत बौने और बहुत हद तक विद्रूप प्रतीत होते हैं। सोफोक्लीज शाप-वरदान की युक्ति के प्रयोग में माँ-बेटे के मात्र स्त्री-पुरुष में तब्दील होने के लिए तार्किकता जुटा लेता है और उसे बहुत वैध रूप में दर्ज करता है। लेकिन बिना परिस्थितियों के दबाव के एक पुरुष की संवेदनात्मक कुंंठा का चित्रण न तो कहीं से भी आत्मीय हो सकता है और न ही किसी किस्म की वैधता को ही दर्ज कर सकता है।
मनुष्य की संवेगात्मक अवस्था के विस्तृत आयाम पर गौर करें तो पाएंगे कि राष्ट्रवाद जैसी ठोस आर्थिक संरचना एक सीमा तक अपना विकास करने के बाद (यानि जब उसे अप्रसांगिक हो जाना चाहिए) मनुष्य की संवेगात्मक भावना में तब्दील हो जाती है। भारत का ही उदाहरण लें तो 1947 के पहले एक मनुष्य जीवन को नष्ट करना हत्या की श्रेणी में शामिल था; लेकिन 1947 में एक कल्पित सीमा निर्धारण के बाद वही हत्या 'देशभक्ति' के पर्याय में तब्दील हो जाती है!
इन उदाहरणों और तर्कों का सीधा अभिप्राय यह है कि मनुष्य समाज की स्थितियों से निष्पक्ष रहकर समकालीनता को अर्जित करना असंभव है। मनुष्य के संवेदनों की उत्पत्ति और स्वाभाविक वृत्तियों के विपरीत एक या किसी खास परिस्थिति में संवेदनों की सामाजिक स्वीकृति-अस्वीकृति को दर्ज करके संदर्भित समाज के विश्वबोध को समझाया जा सकता है। मनुष्य के आस्तित्विक प्रश्नों और सभ्यतागत आवरणों के आर-पार देखने की सृजनात्मकता के साथ संतुलन स्थापित करते हुए मनुष्य के संवेग और उसके संवेगात्मक आचरण को दर्ज करता साहित्य भी अपनी आंतरिकता में दीर्घजीवी और महान बनने की चाहत के प्रतिकार को समेटे हुए होता है। ऐसा साहित्य चाहता है कि जल्द से जल्द एक ऐसे समाज का निर्माण हो, जहां मनुष्य में किसी किस्म की कोई भी कुंठा शेष न रहे; बल्कि मनुष्य को अपनी आंतरिकता के विकास के लिए सर्वोत्तम स्थितियां प्राप्त हों। अग्रोल्लेखित उदाहरण द्वारा इस तथ्य को अधिक स्पष्टता से व्यक्त किया जा सकता है। यहां रवींद्रनाथ टैगोर की कविता 'जहां चित्त भय-शून्य' (1901) की कुछ पंक्तियां उद्धत हैं:
जहां चित्त भय शून्य, जहां सिर उन्नत
ज्ञान मुक्त; प्राचीन गृहों के, अक्षत
वसुधा का जहां न करके खंड विभाजन
दिन-रात बनाते छोटे-छोटे आंगन
प्रति हृदय-उत्स से वाक्य उच्व्छासित होते
हो जहां, जहां कि अजस्त्र कर्म के सोते
सामान्य रूप से प्रश्न किया जाए कि उस समाज में, जहां मनुष्य को सच्ची स्वतंत्रता प्राप्त हो, वहां टैगोर की इस कविता का क्या कोई अर्थ होगा? बिल्कुल नहीं होगा। उस समाज में इस कविता का अर्थ मात्र इतना होगा कि उस समाज के लोग इस कविता के जरिए यह जान पाने की स्थिति में होंगे कि अतीत में कहीं ऐसा भी समाज था, जहां मनुष्य इतना अधिक भयग्रस्त रहता था। स्वाभाविक तौर पर यह कविता अपने वर्तमान का प्रतिकार तो कर ही रही है, साथ ही अपने वर्तमान से परे होते हुए एक असाधारण भविष्य की परिकल्पना भी कर रही है, जहां वह स्वयं को विलीन-अर्थहीन कर देना चाहती है। यही साहित्य की मर्यादा और उच्चता है।
अनुशासन के स्तर पर देखें, तो साहित्य में वर्णित एक तीसरा विषय (आयाम) सभ्यतागत आवरणों के आर-पार देखने का उद्यम है। इस श्रेणी/आयाम में लेखक की सामाजिकी, लेखक का विश्वबोध, लेखक का इतिहासबोध शामिल होता है। लेकिन साहित्य की विषय-वस्तु के स्तर पर मौजूद इस तीसरे आयाम की नियति और सीमाबद्धता वही है, जो पूर्वोल्लेखित आयामों की है। सीधे शब्दों में इसका तात्पर्य यह है कि विषयवस्तु के स्तर पर साहित्य का यह आयाम मनुष्य समाज की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक स्थितियों या वृत्तियों का है। आवरणों से परे देखना और मनुष्य के हित-अहित पर समष्टि के स्तर पर विचार करना इसका सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है। लेकिन 'सभ्यतागत आवरणों' का एकपक्षीय स्वरूप भी मनुष्य सभ्यता के मूलगामी समष्टि पक्ष को निर्धारित करने में सक्षम नहीं होता है।
एक ही तरह के दार्शनिक प्रश्न का सामना कर रहे दो कवियों की अभिव्यक्तियों को समानांतर रखकर संदर्भित आयाम को आसानी से समझा जा सकता है:
केंद्रीय कारागार
प्राचीन मिट्टी की दीवारों के पीछे
आज भी एक कैदी है,
सरहदों के उस पार, अब भी
एक बोझ ढोने वाला है,
मेरे मित्रो महारानी की सभी पर कृपा है...
'द हेड ऑफ द डिस्ट्रिक्ट' (1891) शीर्षक कहानी की अग्रिम पंक्तियों के रुप में लिखी इस कविता के लेखक अंग्रेजी साम्राज्य के 'राजकवि' रुडयार्ड किपलिंग हैं। यह कविता इस पूरी कायनात के बारे में विचार करती है; यह कविता समष्टि चिंतन में कहीं से कोई फांक नहीं उत्पन्न होने देती! लेकिन सभ्यतागत आवरणों में यह कविता मनुष्य जाति के साथ द्रोह का भयावह इतिहास रचती है। यह कविता कही से भी अतीत नहीं होना चाहती, इसके बजाए 'महारानी की कृपा' के साथ 'तीसरी दुनिया' के जो कैदी हैं, उन्हें 'कैद' से मुक्त करके 'महारानी की कृपा' के दायरे में लाना चाहती है! इस दृष्टिकोण को राजनीति की भाषा में 'व्हाइट मैन बर्डन' की संज्ञा दी जाती है। इसके विपरीत हमारे समय के असाधारण कवि असद जैदी की कविता 'पौर्वात्य निरंकुशता' (1986-88) पर गौर कीििजए:
जो गरीब है उसे अपने गाँव से आगे कुछ पता नहीं
कम गरीब है जो उसने देखा है पूरा ज़िला
सिर्फ अनाचारी ज़ालिमों ने देखे हैं राष्ट्र और राज्य
लाये हैं वे ही देशभक्ति की नयी तरकीब जो
लोगों को गाजर और मूली में बदलती है
बदलती है गरीब को सूखे अचार में
अंग्रेज़ों को भी भारत बड़ा भारतीय नजर आया था
नज़र आने लगा है जैसा अचानक
अब हिन्दी के कुछ अखबारनवीसों को
असद जैदी की यह कविता कवि के अपने 'इतिहासबोध' की समकालीनता और तात्कालिक समय की तात्कालिकता के बीच अंतर्संबंधों की जटिल पड़ताल को आत्मसात किए है। इसके साथ यह कविता उस स्थिति के प्रतिकार को शामिल किए है कि जहां शासक वर्ग गैर-वाजिब तरीके से जनता पर शासन करने के लिए बेहूदे और अमानवीय तर्कों-वाक्जाल का सहारा लेता है। तुलनात्मक रूप से देखें तो '$गरीब' इन दोनों ही कविताओं का मूल विषय है, लेकिन दृष्टिकोण (विचारधारागत) विभेद दोनों ही कविताओं के स्वर को भिन्न कर देते हैं। दोहराने की जरूरत है कि 'पौर्वात्य निरंकुशता' भी कविता के स्तर पर अपनी मुक्ति स्वयं को अप्रसांगिक होने में मानती है; यह कविता स्वयं को तभी अप्रसांगिक घोषित करेगी, जब मनुष्य मुक्ति के सबसे शानदार दस्तावेजों को यथार्थ कर लिया जाएगा।
असल में साहित्य के स्तर पर इस विवशता को समझना चाहिए कि न्यूनतम परिस्थितियों के साथ मनुष्य और मनुष्य समाज की संवेदनात्मकता को दर्ज करना (यानि उन्मादी संवेगात्मक अवस्था) 'राष्ट्रवाद' का ही पर्याय है। यहां इस निबंध में जो लगातार 'सभ्यता के आवरण' पदबंध का इस्तेमाल किया जा रहा है, वह केवल इसी कारण कि आधुनिक युग में सभ्यता का सबसे बड़ा आवरण 'राष्ट्रवाद' ही है। महान (आधुनिक ) साहित्य हमेशा इस 'आवरण' के आर-पार ही देखने का उद्यम करता है और सफल होता है। हिन्दी में प्रेमचंद का ही उदाहरण लें, तो उनकी महानता इन अर्थों में भी है कि उन्होंने कभी भी उन्मादी संवेगात्मकता को वरीयता नहीं दी; इसी कारण वह लगातार 'सुराज' के स्वरूप और इसके भविष्य को लेकर प्रश्न करते रहे। भारतीय साहित्य में रवींद्रनाथ टैगोर इस तथ्य के सबसे शानदार उदाहरण है।
वास्तविकता यह है कि हर एक साहित्यकार अपने स्तर पर राष्ट्रवाद के इस 'आवरण' या 'छद्म' का सामना ज़रूर करता है। रुडयार्ड किपलिंग इस प्रश्न का सामना बिल्कुल सीमित संदर्भों में करते हैं। रवीन्द्रनाथ टैगोर सबसे अधिक विस्तारित रुप में। वैसे यहां मूल प्रश्न 'राष्ट्रवाद' का भी नहीं है; इसके बजाए प्रश्न सीमित समय के लिए मनुष्य निर्मित संस्थाओं, सीमाओं से परे जाने का है। यदि इन संस्थाओं के आर-पार साहित्यकार अपनी 'सामाजिक परिकल्पना' का विस्तार कर पाता है, निश्चित रुप से वह समकालीनता का तो सृजन करता ही है, साथ ही अपनी रचना के अप्रसांगिक होने की शर्त पर सामाजिक विकास की अपरिहार्य शर्त का निर्माण भी करता है। साहित्यकार द्वारा प्रस्तावित इस 'सामाजिक विकास' को प्रेमचंद के हवाले से 'राजनीति के आगे मशाल दिखाती सच्चाई' भी कह सकते हैं।
'राष्ट्र' का ही उदाहरण लें, तो सही मायनों में यह कोई संवेदनात्मक विषय नहीं है; इसके बजाए इनका एक गंभीर सामाजिक पक्ष है। भारतीय ओज को व्यक्त करने वाले कवि रामधारी सिंह 'दिनकर' 'सिंहासन' खाली करने का आव्हान इसलिए करते हैं कि उनके लिए राष्ट्र का तात्पर्य 'जनता' है, और यह 'जनता' अमूर्त नहीं, बल्कि इसमें शोषित, वंचित सर्वहारा वर्ग शामिल है:
सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तैयार करो
अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।
(सिंहासन खाली करो कि जनता आती है, 1947)
हिन्दी कविता के इतिहास के नज़रिए से भी दिनकर की यह कविता एक महत्वपूर्ण समयसंधि का उल्लेख करती है। हालांकि जैसे पहले कहा गया कि भारतीय इतिहास में टैगोर से लेकर प्रेमचंद का नाम इस संदर्भ में लिया जा सकता है कि साम्राज्यवादी शोषण की स्थिति में भी वे भारत के भावी स्वरूप के विषय में चिंता व्यक्त करते रहे; लेकिन दिनकर अपनी इस कविता के जरिए आजादी के समय 'राष्ट्र' के प्रस्तावित-इच्छित स्वरूप की प्रस्तावना लिख रहे थे। लेकिन अफसोस किया जा सकता है, ये आकांक्षाएं दिन-ब-दिन धूमिल होती गई और नई रोशनी की अतृप्त तलाश तीव्र से तीव्र होती गई। यह दौर ऐसा रहा, जहां समकालीनता सबसे उपेक्षित रही। इस दौर में नयी कविता (1954) का प्रकाशन इसी तथ्य की गवाही देता है। आधुनिक समय में साहित्य में रहस्यवाद आधुनिकता के आरंभ से ही एक समस्या के रूप में ही मौजूद रहा है। चमत्कृत करने वाली भाषा, कथा या काव्य संयोजन का अथाह विस्तार और समाज के मूलगामी तथ्यों की अनदेखी इस बीमारी के लक्षण मात्र हैं। यह समस्या असल में कवि या साहित्यकार के सामाजिक सरोकारों की अवस्थिति से जन्मती है। साहित्य में दार्शनिकता का 'पिष्ट-पेषण' या रहस्यवाद के प्रति आग्रह साहित्य को उसकी युगीन भूमिका से वंचित करता है। जाहिर सी बात है कि ऐसे में कॉल की दृष्टि से 'समकालीन' होते हुए भी ऐसा साहित्य समकालीनता अर्जित नहीं कर पाता है। अपनी तिक्तता को बिना किसी आवरण के दर्ज करने वाले कवि सुदामा पांडे 'धूमिल' ने भाषा के स्तर पर समकालीनता की पहचान को जबरदस्त अंतर्दृष्टि के साथ दर्ज किया था:
छायावाद के कवि शब्दों को तोलकर रखते थे,
प्रयोगवाद के कवि शब्दों को टटोलकर रखते थे,
नयी कविता के कवि शब्दों को गोलकर रखते थे,
सन् साठ के बाद के कवि शब्दों को खोलकर रखते हैं
पिछले साहित्यिक/काव्य आंदोलनों की भाषा के स्तर पर धूमिल द्वारा रेखांकित की गई विशेषताओं को एक-दो अपवाद, जैसे नयी कविता में मुक्तिबोध, को छोड़ दें तो आमतौर पर सहमत हो सकते हैं।
असल में धूमिल का पर्यवेक्षण इस तथ्य को समझने में मदद देता है कि नयी-कविता के बाद क्यों हिन्दी या दूसरी भारतीय भाषाओं में साहित्यिक आंदोलन देखने को नहीं मिलते। नयी कविता के बाद साहित्यिक वृत्तियों की पहचान अमूमन दशक के आधार पर यथा साठोत्तरी, सत्तर-अस्सी-नब्बे की कविता के रुप में होती रही है। असल में साहित्य आंदोलनों का न होना और परिणामस्वरूप सामूहिकता के आधार पर साहित्यिक मिज़ाज में परिवर्तन न होना भारतीय लोकतंत्र और इस लोकतंत्र से जुड़ी आशाओं की गतिरुद्धता (Stagnation) को गहराई से व्यक्त करता है। यहां स्पष्टता के लिए उल्लेख करना ज़रूरी है कि लोकतंत्र की गतिरुद्धता से आशय लोकतांत्रिक अधिकारों और सामाजिक संपत्ति का वर्ग-विशेष (उच्च वर्ग-मध्यम वर्ग) में संकेंद्रण से ही है। 90 के बाद इस प्रक्रिया की अधिकाधिक तीव्र होती आक्रामकता को अब तो आसानी से महसूस किया जा सकता है।
सातवें दशक से इस तथ्य को आसानी से चिंह्नित किया जा सकता है कि भ्रष्टाचार, सामाजिक संपत्ति का असमान वितरण, राजनीतिक और आर्थिक परिदृश्य में लंपट (Lumpen) समूह के जन्म ने सामाजिक स्तर पर जहां एक ओर राज्य की लोकतांत्रिक भावना पर गहरी चोट की, वहीं 'ईमानदारी की सामूहिकता' के विचार पर मरणांतक आघात किया। थोड़ी परिष्कृत शब्दावली में कहें तो यह वहीं समय है, जब 'भारतीय पूंजीवाद' का लंपट चरित्र धीरे-धीरे उजागर होने लगा था। इस तथ्य का सबसे मौजू सबूत यह है कि इस दौर के बाद समाज में सामूहिकता के जो भी उद्यम सामने आए, उन सभी की प्राथमिक और अंतिम नियति उनके 'दबाव समूह' में तब्दील होते जाने की रही। स्पष्टता के लिए यहां रेखांकित करने की ज़रूरत है कि भारतीय समाज में अस्मिताधर्मी आंदोलनों ने भी स्वयं को दबाव समूह के रूप में ही व्यक्त किया है।
भारतीय समाज और राजनीति की स्थिति ने साहित्य पर भी गहरे स्तर पर प्रभाव डाला। जैसा पहले कहा गया कि इन स्थितियों ने साहित्यिक आंदोलन की संभावनाओं को शून्य किया। ऐसे में वैयक्तिक स्तर पर ईमानदारी, जनपक्षधरता के लिए ही विकलता व्यक्त करने की संभावना शेष रही। मुक्तिबोध के आत्मसंघर्ष को इसी स्तर पर समझा जा सकता है। कई बार इसे अस्तित्ववादी विचलन भी समझा गया; परन्तु मूल तथ्य यही है कि इस दौर के बाद मुक्ति और स्वतंत्रता की सामूहिकता ने नहीं, बल्कि इसकी वैयक्तिक्ता का ही विकल्प शेष था! मुक्तिबोध की महान कविताओं में एक 'भूल गलती' का मिजाज पूर्वोक्त स्थापनाओं के लिए पुष्टि स्वरूप है। इस कविता में एक व्यक्ति इस शोषक व्यवस्था से निकल दूर चला जाता है (इतने में, हमीं में से/अजीब कराह-सा कोई निकल भागा) और कहीं दूर इस क्रूर व्यवस्था से संघर्ष की तैयारी करता है (बेमालूम दरों के इलाके में (सच्चाई के सुनहरे तेज़ अक्सो के धुंधलके में)/मुहैया कर रहा लश्कर;)। यही 'व्यक्ति' 'हमारी हार का बदला चुकाने आएगा'।
मुक्तिबोध मार्क्सवादी दर्शनपद्धति से प्रतिबद्ध कवि हैं। मार्क्सवाद परिवर्तन (क्रांति) के लिए सामूहिकता की अवधारणा पर बल देता है और मुक्तिबोध का वैचारिक गद्य इस विचार पर विश्वास भी करता है। बावजूद इसके 'भूल-गलती' की गाथा वैयक्तिक शौर्य में तब्दील हो जाती है! (मैं यहाँ ज़रूर कहना चाहूंगा कि 'भूल-गलती' मुक्तिबोध की महानतम् कविताओं में एक है और इस कविता का मैंने जिस तरह पाठ किया है वह बहुत सीमित है। इस कविता की अर्थ-व्यंजकता असाधारण है। इसी कविता को लेकर डॉ. रामविलास शर्मा का पर्यवेक्षण था कि 'स्पष्ट ही यहां छापामार दस्तों का चित्र खींचा गया है')। इस संदर्भ का उद्देश्य केवल इतना ही रेखांकित करने का है कि किस प्रकार 70 के दशक से ही व्यापक सामाजिक स्तर पर सामूहिकता के स्वप्न का पतन लगातार हो रहा था; हालांकि यह बहुत धीमी व क्रमिक प्रक्रिया की शुरूआत मात्र थी।
हिन्दी साहित्य की परंपरा पर ध्यान दें, तो पाएंगे कि 70 के दशक में मूल संकट यह रहा कि किसी भी साहित्यिक आंदोलन (और आधार रुप में मूलगामी परिवर्तन के लिए प्रतिबद्ध किसी भी 'सामूहिकता') के लिए सामाजिक आधार नहीं उपस्थित था। साहित्य में भी कवि 'केवल' स्वयं की प्रतिबद्धता और ईमानदारी की प्रतिश्रुति कर सकता था; और प्रतिबद्ध साहित्यकारों/कवियों ने यही किया। लेकिन इसके साथ बुर्जआ दृष्टिकोण के लिहाज से साहित्यकारों के लिए इससे बेहतर स्थिति कोई नहीं हो सकती थी, जहां चेतना (साहित्य के अप्रसांगिक होने की शर्त तक उद्दात्त) की अनदेखी करते हुए केवल (कवि) व्यक्तित्व/भाषा/संवेदना के आधार पर कविता की पहचान के आग्रहों को निर्मित किया जाए और ऐसा ही किया गया।
इस स्थिति का सीधा प्रभाव साहित्य की विषम वस्तु पर भी पड़ा। पूर्व में जिसे 'सभ्यता के आवरण' के स्तर पर एकआयामिता के दृष्टिकोण के रुप में चिन्हित किया गया था; उसे अब 'समकालीनता' अर्जित करने के प्रयास के रूप में देखा जा सकता है। यह बहुत व्यापक परिवर्तन है, जो रचनात्मकता के स्तर पर अधिक संघर्षपूर्ण स्थितियों को निर्मित करता है। साहित्य के मानक के रूप में जिन साहित्यकारों ने 'जनता' का चुनाव किया, उन्होंने 'समकालीनता' को अर्जित करने के लिए भीषण आत्मसंघर्ष किया और जिन्होंने यह चुनाव नहीं किया, उन्होंने 'समकालीनता' को अर्जित करने से परे 'सौंदर्य' को ही कविता/साहित्य के मानक के रूप में स्थापित किया।
इस समय इतिहास के जिस दौर से समाज गुजर रहा है, वहां कई सारे परिवर्तनों के साथ इस परिवर्तन को भी रेखांकित करने की ज़रूरत है कि समाज में 'तर्क' की प्रभाविकता, या और अधिक स्पष्ट शब्दों में कहें तो तर्क के लिए पूर्व में जिस प्रकार का बौद्धिक आधार मौजूद था, यह पूरी तरह से लुप्त हो गया है। इसे समझने के लिए कई सारे बौद्धिक आयाम मौजूद है; आधुनिकता की आलोचना, उत्तर-आधुनिकता विचार, विज्ञान के उद्देश्य से परिवर्तन और विज्ञान के आंतरिक ज्ञानमीमांसक स्वरूप का विखंडन। इस सभी बौद्धिक आयामों को भले ही श्रेणीक्रम में विभाजित कर लिया जाए, परन्तु इन सभी (और तार्किकता के पतन में) के मूल में 'उद्देश्यहीनता' मौजूद है। यहां उद्देश्यहीनता में 'साधन' का 'साध्य' में तब्दील होना शामिल है। उदाहरण के लिए पूर्व में विज्ञान का उद्देश्य 'मनुष्य की मुक्ति' यानि मनुष्य को स्वतंत्रता अर्जित करने में सहायता करना था। लेकिन अब विज्ञान का उद्देश्य यह नहीं रह गया है; विज्ञान को अब तकनालॉजी की संज्ञा दी जाती है! यह विज्ञान (बल्कि तकनालॉजी) मनुष्य की स्वतंत्रता नहीं, बल्कि उसकी परतंत्रता के उद्देश्य के लिए काम कर रही है।
स्वाभाविक तौर पर ऐसी स्थितियों में साहित्य की जिम्मेदारी अधिक बढ़ जाती है। सामान्य तौर पर साहित्य का संबंध मनुष्य के 'हृदय' पक्ष में माना जाता है। हालांकि हृदय जैसी कोई चीज नहीं होती है। इसलिए आसानी से हृदय का अर्थ मनुष्य की कोमल, भ्रातत्वपूर्ण व उद्दात्त भावनाएं या विचार कह सकते हैं। आधुनिक समय में विचारों की कसौटी केवल तर्क है। हालांकि पिछले शताब्दी के आठवें दशक से तर्क की वैधता संदिग्ध होती गई है।
संवेदना का चित्रण साहित्य की आधारभूत विषय-वस्तु है। लेकिन यह समझना बहुत ज़रूरी है कि संवेदना की चालक शक्ति तर्क है। यहां समकालीन साहित्य के ही एक असाधारण उदाहरण को रेखांकित करके इस तथ्य को और अधिक स्पष्ट करने की कोशिश की गई है। 'मदरसा' (2014) मंजूर एहतेशाम की एक औपन्यासिक कृति है। इस कृति के कथा-विस्तार में साबिर और पिंकी का प्रेम-संबंंध मौजूद है। लेकिन इस संबंध में धर्म जैसी सामाजिक संस्था के साथ कई अन्य बाधाएं मौजूद हैं। इन स्थितियों में साबिर की इच्छा है कि 'पिंकी-पिंकी रहे आरै साबिर-साबिर, और दोनों पति-पत्नी भी बन जाए।' यहां साबिर इस उदात्तता के साथ जीना चाहता है कि दो व्यक्तियों के संबंध में धर्म संस्था की कोई भूमिका नहीं हो। हालांकि कथा-विस्तार हमारे वर्तमान की भीषण विद्रूपता और विध्वंस को रेखांकित करता है। लेकिन यहां रेखांकित करने का प्रयास यह है कि प्रेम संवेदना का तो विषय है, परन्तु उसकी चालक शक्ति तर्क (और वह 'तर्क' जिसका उत्स 'मनुष्य की समानता' की बुनियाद से है) है।
यहां इस उदाहरण के प्रतिपक्ष पर भी विचार करना अंतर्दृष्टिपूर्ण है। पिंकी का 'धर्मपरिवर्तन' भी तार्किक कहा जा सकता है क्योंकि इसका भी एक 'औचित्य' है। परन्तु इस 'तर्क' और 'औचित्य विचार' की बुनियाद 'मनुष्य की समानता' नहीं है, उसके बजाए इस कथित तर्क के मूल में धर्म जैसी संस्था की सर्वोच्यता है। यह तार्किकता जिस संवेदनात्मकता को जन्म देती है, उसे ही पूर्व में 'उन्मादी संवेगात्मकता' कहा गया है।
तात्पर्य यह कि हमारे समाज में साहित्य ही ऐसे पक्ष के रुप में मौजूद है, जहां संवेदनात्मकता और उन्मादी संवेदनात्मकता में अंतर किया जा सकता है। मनुष्य की वैयक्तिक रुचियों से लेकर धर्म और राष्ट्र जैसी संस्थाओं को इस मानक पर परखा जा सकता है। यदि यह मानक न हो तो किपलिंग की रचनाओं के मनुष्यविरोधी चरित्र को समझना नामुमकिन होगा। इसीलिए हमें अंबर्तो इको की चेतावनी, जो वास्तविकता में तब्दील होती जा रही है, को ध्यान से सुनने की ज़रुरत है, 'उर फासिस्ज्म (Ur-Fascism) (आंतरिक फासीवाद) लगातार हमारे आस-पास है, कई बार तो बिल्कुल ही सादे कपड़ों में। यह हमारे लिए बहुत ही सामान्य बात होगी कि कोई व्यक्ति इस परिदृश्य में हमारे सामने आए और कहे, 'मैं आस्ट्रोविच को फिर से खोलना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ कि इटली के चौराहों पर काली $कमीज वाले लोग परेड करें।' जीवन सरल नहीं रहा है। फासीवाद की बीमारी बहुत ही मासूम तरीके से हमारे सामने आ सकती है। हमारा दायित्व यह है कि हम इसे बेनकाब करें और दैन्नदिन की घटनाओं से लेकर दुनिया के किसी भी कोने में होने वाली उस हर एक घटना की ओर इशारा करें, जो इसकी वापसी का संकेत देती है।'
धर्म की ही तरह राष्ट्र जैसी संस्था को भी पवित्रता और प्रतिबद्धता के दायरे में ही सीमित किया जाता है। यहां दो तथ्यों के सामने रखने की जरूरत है। पहला यह कि 'राष्ट्र' और 'देस' (देश!)  में अंतर होता है; राष्ट्र जैसी संस्था को प्रश्नांकित करने का तात्पर्य कभी भी जातीय बोध और जातीयता को अस्वीकार करना नहीं होता है। दूसरे, इस संदर्भ में रवींद्रनाथ टैगोर को कभी भी विस्मृत नहीं करना चाहिए क्योंकि उन्होंने अपनी इस असाधारण समझदारी से हमें समृद्ध किया है कि साम्राज्यवाद और राष्ट्रवाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों के लिए यह समझदारी ज्यादा ही मायने रखती है क्योंकि औपनिवेशिक शोषण के बड़े ही क्रूर इतिहास के हम भोक्ता रहे हैं।
इस संदर्भ पर बलाघात करते हुए यदि साहित्य के ज्ञानमीमांसक स्वरुप पर गंभीरता से विचार करें, तो राष्ट्रीयता को परिभाषित करने का हर एक उद्यम अंतत: 'काली कमीज़ों' को जन्म देता है। किपलिंग ने किस प्रकार 'इंग्लिश' चरित्र को गढ़ा और 'श्वेतपुरुष दायित्व' के विचार को जन्म दिया, इसका जिक्र पूर्व में और कई अन्य स्थानों पर स्पष्ट रुप से किया जा चुका है। इसी तरह का एक अन्य प्रतिनिधि उदाहरण मौक क्रॉकर का उपन्यास 'डायना बैटिंगटन : ए रोमांस ऑफ सेंट्रल एशिया' भी है। यह उदाहरण साहित्य और राष्ट्र-राज्य संबंधों के नज़रिए से बहुत महत्वपूर्ण है। इस उपन्यास की पात्र डायना बैटिंगटन इस कृति में एक स्थान पर अपने आदर्श पति-प्रेमी के विषय में बात करते कुछ इस तरह की भावनाओं को व्यक्त करती है, 'मैं उस व्यक्ति से घृणा करती हूं जो अपनी टाई बांधने में ही एक घण्टा गवां देता है, सोफे पर लेटकर कविता पढ़ता है या मेरे हाथों को पकड़कर एक साथ बैठकर चाँद को निहारता रहता है तथा एक नारी वस्त्र विशेषज्ञ की भांति मेरे वस्त्रों की आलोचना करता है। मुझे अपने पति के रुप में पुरुष पसंद है, न कि कोई बूढ़ी औरत।'
यह आवश्यक है कि इस तथ्य को भी रेखांकित किया जाए कि मनुष्य चित्रण की इसी प्रविधि की पुनरावृत्ति अस्मिताधर्मी साहित्य में है। सैद्धांतिक स्तर पर इस चित्रण की मूल आत्मा यह है कि यह पूर्व-निर्धारित विचारों के आधार पर मनुष्य की खोज करता है, उसके चरित्र का निर्धारण करता है।
हमारे समाज और लगभग सभी समाजों की अभिशप्तता यह रही है कि 'स्वतंत्रता' के लिए कोई उद्यम नहीं किया जाता है। आधुनिकता को उसी स्तर पर स्वीकार किया जाता है, जहां स्कर्ट या जीन्स पहनने की 'सुविधा' प्राप्त हो पाए, बिल्कुल उस विज्ञान की तरह जिसकी उपलब्धियों यानि फ्रिज, टी.वी. या सेलफोन को स्वीकारने या बरतने में कोई संकोच नहीं होता, लेकिन इस वैज्ञानिकता (तार्किकता) का कतई स्वीकार नहीं होता कि ईश्वर के अस्तित्व का कोई प्रमाण नहीं। इन विद्रूपताओं के बीच साहित्यकार की 'वैयक्तिकता की बुनियाद प्रश्न के दायरे में है, और पाठकों और साहित्य मीमांसकों को इसका अधिकार है।
इतने विस्तारित विश्लेषण के बाद यह कहना संभव है कि समकालीनता, जो किसी भी साहित्य की वैधता का एकमात्र मानक है, समाज के अग्रगामी विचारों के आधार पर ही निर्धारित होती है। अग्रगामी विचार कभी भी किसी किस्म की संकीर्णता को नहीं व्यक्त करते, बल्कि मनुष्य की स्वतंत्रता के परिक्षेत्र को विस्तारित करने की चालक शक्ति होते हैं। इन अग्रगामी विचारों का वाहक साहित्य संकीर्णता का स्वयं (संरचना) के स्तर पर भी प्रतिकार करता है; इसीलिए वह अपने लिए सबसे बड़ा लक्ष्य स्वयं के अप्रासंगिक होने का रखता है। महान साहित्य ऐतिहासिक युगांत के बाद आप्रसांगिक हो जाता है। और यह कि महान साहित्य 'उन्मादी संवेदनाओं' के प्रतिकार को हर पल, हर रुप में आत्मसात किए रहता है। यही साहित्य की महानता है।


संपर्क - जितेन्द्र गुप्ता (गुवाहाटी)-09420732622


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