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नवम्बर 2016

हो सकता है

रमाकांत श्रीवास्तव





यह कहानी एक ऐसे शहर की है जहां एक अजीब घटना घटी। शहर के मुख्य चौराहे पर लगी आदमकद मूर्ति एक रात रहस्यमय ढंग से गायब हो गई!
सारा शहर भौंचक्का था! ऐसा कैसे हो गया!!
पांच फुट ऊंचे पेडेस्टल पर स्थापित की गई पत्थर की मूर्ति को ना तो आसानी से चुराया जा सकता था और ना ही तोड़ा जा सकता था। यदि मूर्ति को तोड़कर कहीं ले जाया गया होता तो उसका एकाध टुकड़ा तो आसपास पड़ा मिलता। पेडेस्टल के निकट ना तो किसी वाहन के निशान थे और ना ही कोई पद चिन्ह! पुराने लोग बतलाते हैं कि वह प्रतिमा क्रेन की सहायता से पेडेस्टल पर स्थापित की गई थी।
अब पुलिस फोर्स के लिए एक साथ दो सिर दर्द थे। शहर में तो पहले से ही आंदोलन चल रहा था। वह भी ऐसा कि पुलिसवाले हैरान थे। सीमित तोड़-फोड़ थी लेकिन ना तो हिंसा। ना आगजनी। घिटे-पिटे उत्पाती राजनेता और खडूस अफसर परेशान थे। उन्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि किसे भिड़ाएं-पटाएं या धमकाएं। कोई छोर पकड़ में नहीं आ रहा था। इस तरह के झमेले की कोई कुंडली किसी के पास नहीं थी। कुछ सयाने लोगों का यह कहना था कि मुख्य मुद्दे से ध्यान भटकाने के लिए यह काम खुद सरकार ने किया होगा। ऐसी सफाई से घपला भला और कौन कर सकता है। लेकिन अपने को खोजी पत्रकार कहने वाले सबसे शातिर रिपोर्टर के माध्यम से यह तथ्य सामने आया था कि यह काम सरकार का नहीं था। गृहमंत्री खुद परेशान थे। उन्होंने ईमानदारी से पुलिस को निर्देश दिये थे कि इस अजीबोगरीब मामले को जल्दी से जल्दी निपटाया जाए। सरकार का सिरदर्द यह था कि मूर्ति, जिसे लोग 'जन नायक' की प्रतिमा कहते थे उस व्यक्ति की थी जो कुछ दशकों पहले हुए किसान आंदोलन में शहीद हुआ था। लोगों को ठीक से याद भी न था कि उसका नाम क्या था और वह किस गांव, कस्बे या शहर का था। लेकिन लोगों को यह मालूम था कि वह पिछड़ी जाति का था। तो, कुछ नेतागण अपनी राजनीति भी पेल रहे थे।
मूर्ति पच्चीस साल के नौजवान की थी जो अपने समय के किसान संगठन से जुड़ा था। वह खुद भी किसान था। वर्षों पहले शहर से कुछ मील की दूरी के गांव की पूरी जमीन आर्डिनेंस फैक्ट्री बनाने के लिये ले ली गई थी। खेती की सिंचित जमीन ही किसानों की ज़िन्दगी थी इसलिए किसानों ने विरोध किया था लेकिन वह असफल रहा। फिर किसानों ने मांग की थी कि उन्हें कम से कम अच्छा मुआवजा तो मिले क्योंकि खेती ही उनकी आजीविका का साधन थी। लेकिन सरकारें हमेशा ही मानती हैं कि वे सही होती हैं और उनके हर काम जनता के हित में होते हैं। तत्कालीन रक्षामंत्री का कहना था कि हथियार अनाज से ज्यादा जरूरी होते हैं। प्राचीन काल से ही माना जाता रहा है कि किसी भी देश की सामरिक ताकत ही देश की सबसे बड़ी जरुरत होती है। अगर दुश्मन आक्रमण करें तो आलू और प्याज फेंककर तो उसे मारोगे नहीं और यदि दुश्मन पर चढ़ाई करनी हो तो मटर के दाने या अरहर की दाल तो उस पर दागोगे नहीं। फिर, इस ऐतिहासिक सत्य से भला कौन इंकार कर सकता है कि दुश्मन तो होते हैं और कभी कभी जरूरत के हिसाब से बनाने भी पड़ते हैं। किसानों को यह बात समझ में नहीं आयी थी और वे आंदोलन करने पर उतारू हो गये। सरकार को लगा था कि यह राजद्रोह है। उसी दौर में विराट जुलूस निकला था जिसका नेतृत्व 'जन नायक' ने किया था। पुलिस को गोली चलानी पड़ी थी जिसमें नौजवान जन नायक शहीद हो गया था। उसके बाद सरकार और किसान संगठनों के बीच वार्ताओं का लंबा दौर चला था। कुछ अधिकारी सस्पेंड किये गये और एस.पी. का तबादला कर दिया गया था। सरकार के ना चाहते हुए भी जनता ने अपने साधनों से जन नायक की मूर्ति नगर के चौराहे पर स्थापित की थी।
... और वही मूर्ति गायब हो गई!
* * *

शहर के पश्चिमी छोर पर बसे टिकरापारा के एक सामान्य से कच्चे-पक्के घर के चबूतरे पर किस्सागोई में प्रवीण लोक कलाकार नकुल राम यादव से उसके पोते ने पूछा - 'बबा, इतनी बड़ी मूर्ति भला कैसे गायब हो गई?'
'कभी-कभी ऐसा हो जाता है बेटा।' नकुल राम ने कहा - 'गोपाल राय बिंझवार की मूर्ति का किस्सा मैंने एक दो बार गायक से सुना था।'
'बबा वो किस्सा सुनाओ ना।'
चबूतरे पर बैठे नकुलराम ने अपना वाद्य बांस उठाया और उसमें फूंक मारी तो अगल-बगल के लोग भी आकर सामने बैठ गये।
...तो भैया किस्सा है बहुत पुराना। छत्तीसगढ़ की राजधानी थी रतनपुर। वहाँ थे भैय्या चौदह सौ तालाब। बहुत सुंदर था रतनपुर। दूर से दिखता था कुमही फूल जैसा। कहते हैं कि चारों युग में था रतनपुर। सतयुग में उसे कहते थे मणिपुर, त्रेता में मानिकपुर, द्वापर में हीरापुर और भैय्या, कलयुग में नाम हुआ रतनपुर। लोग रतनपुर को कहते थे लहुरी काशी। रतनपुर के राजा था कल्यान साय जिन पर दिल्ली के बादशाह ने लगाया जुर्माना। कहते हैं कि दर्ज है बादशाह जहांगीर की किताब में कि उसने अपने शाहजादे को भेजकर कल्याण साय को जबरन बुलवाया दिल्ली। रतनपुर के राजा को बहुत दिनों शहंशाह की मुलाजमत में दिल्ली में रहना पड़ा। गोपालराय बिंझवार, जिन्हें रतनपुर के निवासी गोपल्लावीर के नाम से भी पुकारते थे राजा कल्यान साय के पहलवान थे। मल्ल गोपालराय की भुजाओं में बसते थे कुल्हरिया देव और आंखों में खर्राघाट की जोगिन। तो भैय्या, गोपल्लावीर अपने साथियों के साथ पहुंचे दिल्ली दरबार। अपने करतबों से खुश किया शहंशाह को और इनाम में मांगी अपने राजा कल्यान साय की आजादी। कल्यान साय को गोपल्ला वीर वापस ले आये रतनपुर। पर क्या किया जाय जलनखोरों का। उन्होंने भरे राजा के कान कि गोपालराय तो राजा को मारकर खुद बनना चाहता है राजा। अब इसका भी कोई क्या करें कि राजा तो होता है राजा। कान का कच्चा और मन का शक्की। उसने गोपल्ला को धोखे में रखकर करवा दी उसकी हत्या। राजा की मां को बहुत दुख हुआ। वह तो गोपालराय को भी मानती थी अपना बेटा। इस नाते तो गोपल्ला था राजा का दूधभाई लेकिन राजा का क्या तो भाई और क्या दूधभाई। क्या तो बेटा। उसके लिए तो बस उसकी गद्दी। राजा की मां ने कहा राजा से कि गोपालराय की मूर्ति बनवाओं। बनाई गई पत्थर की मूर्ति और भैय्या जब राजा गया मूर्ति को देखने तो मूर्ति में हुआ कंपन! डर गया राजा, जैसे डरता है हर राजा। उसने तुड़वा दी मूर्ति। पुराने लोग कहते हैं कि मूर्ति का सिर तो रह गया रतनपुर में लेकिन भैय्या धड़ उड़ा और जाकर गिरा मल्हार शहर में।
'बबा, भला ऐसा कैसे हो सकता है?'
नकुल कुछ क्षणों तक चुप रहा फिर बोला - 'बेटा, मैंने तो जैसा सुना वैसा सुना दिया। लेकिन मुझे लगता है कि यदि राग में सिद्धि हो और दिल में आग हो तो पत्थर में भी हलचल पैदा हो जाती है।
कुछ दिनों पहले ही आई.पी.एस. में चयनित पुलिस अधिकारी दिनेश कुमार देवांगन किसी शोधकर्ता की तरह चीजों को जांचने-परखने की गंभीर कोशिश कर रहा ता। दोनों ही वारदातें अद्भुत-अपूर्व थीं। मूर्ति का गायब हो जाना और सरकार का सपनों पर बंदिश लगाना! इस कानून पर माहौल गर्म हो गया कि सरकार सपने क्यों छीनना चाहती है। विरोध ने जन आंदोलन का रुप ले लिया था। देवांगन महसूस कर रहा था कि उस पर गंभीर जिम्मेदारी आ पड़ी है। उसे ए.एस.पी. के पद पर कुछ महीने पहले ही शहर के पुलिस थाने में नियुक्त किया गया था। डेढ़ माह तक देवांगन स्टेशन आफीसर टी.के. ठाकुर की मातहती में थाने के काम की ट्रेनिंग लेता रहा फिर स्वतंत्र रूप में स्टेशन आफीसर के पद पर आसीन था। ठाकुर ने प्रारंभ में ही बातों को घुमा-फिरा कर देवांगन को बतलाया था कि आई.पी.एस. की ट्रेनिंग एक अलग बात है और जमीनी काम अलग। इस जमीनी प्रशिक्षण के समय ही उसने कहा था - 'सर, आपको मां-बहन की ठांयदार गालियां बकने का अभ्यास करना जरूरी है। आपको ना आती हों तो, वैसे सर, आपके सामने तो बकना नहीं सिखा सकता पर आप अनुमति दें तो बगल में कमरे में जाकर जोर-जोर से बोलकर बतला सकता हूं्। मुझे तो इस मामले में विशेषज्ञ माना जाता है।'
देवांगन ने इस कर्मकांड से मना कर दिया था। ठाकुर ने उसे यह भी बतलाया था कि पब्लिक को कभी कभार बेवजह ठोकने का अभ्यास करना भी उचित है वर्ना कानून व्यवस्था कायम नहीं रखी जा सकती। देवांगन उसकी बातों को हंस कर उड़ा देता था, कोई ऐसी बात बोल देता जो ठाकुर के सिर के ऊपर से गुजर जाती। उसे लगता था कि देवांगन जे.एन.यू. में पढ़ कर बिगड़ गया है। उसके जोश और आदर्श को देखकर ठाकुर को उस पर गुस्सा आता और कभी दया आती। जहां डंडा फटकारना चाहिए वहां यह बंदा लोगों से बातें करके उन्हें समझाने लगता। यह भी लगता था कि भविष्य में थपेड़े खाकर वह सीख जाएगा। अभी तो दबंग और सिंघम जैसी फिल्मों का दिमाग पर असर है। ठाकुर का मानना था कि सोचना-विचारना उनका काम नहीं है। कभी-कभी उसे गुस्सा आता कि समझाओ तो, कल का लौंडा भोसड़ी का फिलासफी झाडऩे लगता है।
अब अगर सरकार ने नियम बना दिया है तो बना दिया है। अरे बेवकूफ, यदि दिमाग से काम लोगे तब तो हो गया कर्तव्य-निर्वाह। ठाकुर को लगता कि उसकी गति तो सांप छुछूदंर जैसी हो गई। सरकार ने कुछ सोचकर ही सपनों पर बंदिश लगाई। सरकार ने अपने पक्ष में कहा था कि उसने वैधानिक प्रक्रिया का पूरी तरह पालन करते हुए कानून बनाया था कि सपने देखने पर प्रतिबंध होगा। जब सरकार सब कुछ कर ही रही है तो जनता को सोचने की जरूरत क्या है? सपनों की कोई सीमा नहीं होती और सभी के सपने भी अलग अलग होते हैं। इससे समाज में संघर्ष पैदा होता है जो समाज के हित में नहीं है। सरकार का दायित्व है कि वह जनता के उस हित के विषय में भी सोचे जिसे जनता स्वयं नहीं सोच पाती। कानून खासे बहुमत से पारित हुआ था। सत्ता दल और प्रमुख विपक्षी दल दोनों ही सहमत थे कि शासन करने के लिए जरूरी है कि व्यवस्था बनी रहनी चाहिए। सपने व्यवस्था को भंग करने में सहायक होते हैं। विपक्षी दल को मालूम था कि जब वे सरकार बनायेंगे तो प्रजातंत्र की रक्षा उन्हें भी करनी होगी।
* * *

समस्या की शुरुआत एक किसान की आत्महत्या से हुई थी। पहले तो कृषि मंत्री ने वक्तव्य दिया था कि किसान का पत्नी से झगड़ा हुआ था इसी कारण उसने आत्महत्या की थी। लेकिन जब किसान के शव का पोस्ट मार्टम किया गया तो रिपोर्ट में एक अजीब सी बात दर्ज की गई थी। उसमें लिखा था कि मृतक की अधखुली आंखों में धान के लहलहाते खेत के सपने थे जो क्रम से किसी वीडियो की तरह निरंतर जारी थे। ऐसी घटना इसके पहले कभी देखी-सुनी नहीं गई थी। चिकित्सा शास्त्र में शायद इसका कोई उत्तर नहीं था। ऐसा क्यों हुआ कि आदमी तो मर गया था पर उसका कोई सपना नहीं मरा था। मृतक की आंखों में दृश्यों की एक श्रृंखला थी। एक डाक्टर ने अपने मोबाइल के कैमरे पर उसे खींचा और वह वायरल हो गया।
...तो, जैसा रिवाज है, सारे टी.वी. चैनल्स यह खबर ले उड़े। हर चैनल पर मृतक किसान की आंखों के सपनों का वीडियो कई-कई बार दिखलाया जाने लगा। एक दृश्य में धान के हरे पौधे लहरा रहे थे। हरे पानी की लहरें जैसे। दूसरे दृश्य में धान की फसल काटते हुए स्त्री-पुरुष दहरिया गा रहे थे। फिर देवारी मनाने का दृश्य था। गांव के देवी चौरा के सामने गोबर से गोवर्धन बनाया गया था और गाय-बैलों को उस रास्ते पर लाकर उसे खुदवाया जा रहा था। उसके बाद बिटिया की शादी का दृश्य था। गांव के तालाब के पास बरात परघाई जा रही थी। धमाल था। गुदुमबाजा बज रहा था और बाराती नाच रहे थे। फिर कुछ सेकंड का 'कट' हुआ। उसके बाद बेमौसम की बारिश और ओलों के गिरने का दृश्य था। पुन: छोटे-छोटे कट। बर्बाद फसल। उदास चेहरे। एक बैंक की बिल्डिंग। फिर अंधेरा छा गया।
चैनल्स किसान का गांव, उसका घर दिखला रहे थे और उसके परिजनों से बातचीत कर रहे थे। अपने को सबसे तेज मानने वाले चैनल ने किसान के लड़के से बातचीत की, कुछ उस तरह -
- आपके पिता ने आत्महत्या कर ली। आपको कैसा लग रहा है?
- आपका क्या विचार है कि मुझे कैसा लग रहा होगा। आपके हिसाब से क्या मुझे खुशी से नाचना चाहिए?
- नहीं...नहीं.. मेरा मतलब वह नहीं है
- हा, आप लोगों का यह पेटेन्ट सवाल है।
- दरअसल मैं यह जानना चाहता हूं कि मृतक की आंखों में एक फिल्म चल रही है। उस विषय में आपकी क्या राय है?
- वह फिल्म नहीं है। हर किसान की आंखों में अच्छी फसल के सपने होते हैं।
- पर यह बात क्या अज़ीब नहीं लगती?
- नहीं बिलकुल नहीं। बतलायें या छिपाएं लेकिन सपने सभी की आंखों में होते हैं। आपकी आंखों में भी भविष्य में होने वाली भीषण दुर्घटनाओं और स्केन्डल्स के सपने होंगे जिन्हें आप शूट करने की इच्छा रखते हैं।
- आपके पिता ने बैंक का कर्ज ना पटा पाने के कारण आत्महत्या की। आप बुरा मत मानिये। कर्ज तो और लोग भी लेते हैं। अपने ही देश के विजय मालवीय की कंपनी डूब गई लेकिन उन्होंने तो आत्महत्या नहीं की।
- अगर मेरे पिता को भी विजय मालवीय की तरह दस हजार करोड़ का बैंक लोन पटाये बगैर विदेश भाग जाने की हैसियत और सुविधा होती तो वे भी आत्महत्या नहीं करते।
- फिर भी, आत्महत्या तो कायरता है ना। आपको नहीं लगता कि आपके पिता को परिस्थितियों से लडऩा चाहिए था।
- मेरे पिता ने बहुत संघर्ष किया था। वे कायर नहीं थे। उन्हें कायर कहने वाले को तो मेरा मन चार जूते लगाने का होता है।
सरकार हिल गई थी। अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने ऐसी की तैसी कर रखी थी। भारतीय मीडिया की तो बल्ले-बल्ले थी। एक चैनल ने इस प्रकरण को महाभारत में वर्णित संजय की दिव्य दृष्टि का हवाला देते हुए, पुराणों की कथाओं को जोड़-जाड़ कर 'दिव्य दृष्टि' शीर्षक से एक कार्यक्रम प्रसारित करके उच्चतम टी.आर.पी. हासिल की। एक दूसरे चैनल ने आशंका व्यक्त की कि यह कोई प्रेतबाधा हो सकती है। चैनल के पार्टनर एक प्रांत के शिक्षामंत्री थे जो भारतीय संस्कृति की रहस्यमयता और महानता के प्रशंसक थे। वे मानते थे कि पहला टी.वी., पहला रिमोट प्लेन और पहला राकेट त्रेता और द्वापर में बने थे।
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चिंता ग्रस्त सरकार ने मृत किसान के पोस्ट मार्टम रिपोर्ट में जब अव्याख्येय किस्म का रहस्य देखा, वह भी ऐसा जो सरकारी कानून को ध्वस्त करनेवाला था, तो लाश उसके परिवार को यह कहकर नहीं सौंपी गई कि लाश में होने वाली रहस्यमय गतिविधियों की जांच जरूरी है। जांच के बाद लाश सुरक्षित परिवार को सौंप दी जाएगी। सरकार ने युद्ध स्तर पर देश विदेश के नामी नेत्र और मस्तिष्क विशेषज्ञों-वैज्ञानिकों को एकत्र कर काम सौंपा था कि इस रहस्यमय घटना का विश्लेषण किया जाय।
सारे विशेषज्ञ लाश की आंखों और दिमाग के एक-एक रेशे और नस की पड़ताल में जुटे थे। मृतक की पलकों में कोई माइक्रोचिप्स तो नहीं लगी है? कहीं मस्तिष्क में कुछ ऐसा वैसा तो नहीं है? आशंका यह भी थी कि किसी शत्रु देश की गुप्तचरी से जुड़ा कोई वैज्ञानिक प्रयोग तो नहीं जो देश में अशांति फैलाने के लिए किया गया है। पूरी कोशिश की गई थी कि इस जांच की प्रक्रिया गुप्त रखी जाये लेकिन खबर लीक हो गई और वह भी दूसरे देश में। मतलब साफ था कि जांच में लगे विशेषज्ञों में कोई था जो विदेश की जासूसी एजेंसी के लिए काम करता था। नतीजा यह हुआ कि सूचनाओं ने चित्र-विचित्र रूप धारण किया और चारों तरफ अफवाहों का बाजार गर्म हो गया।
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पोस्टर विचित्र से थे। समझ से बाहर। किसी 'स्वप्नदर्शी' संगठन ने दो दिनों बाद की तारीख देकर रविवार को दिन के ग्यारह बजे शहर के सीमांत पर अमराई से लगे खुले मैदान में जनता को जनसभा में आने का निमंत्रण दिया था। शहर और आस-पास के गांवों में, रात के समय पोस्टर लगाये गये थे कि ऐसे तमाम लोग आमंत्रित हैं जो स्वप्न देखते हैं या देखने में विश्वास रखते हैं। पोस्टर की भाषा विनम्रता भरी थी। उसमें कोई क्रांतिकारी अभिवादन और जिन्दाबाद-मुर्दाबाद जैसा कुछ नहीं था। तो, यह नक्सली वगैरह जैसा मामला नहीं था। फिर भी पुलिस और खुफिया विभाग को जिम्मेदारी सौंपी गई थी कि इस हरकत से संबंधित सारी जानकारी एकत्र की जाये। पोस्टर में एक विचित्र बात यह भी थी कि राजनैतिक पार्टियों और नेताओं तथा उनके अनुगामियों से आग्रह किया गया था कि वे सभा में आने का कष्ट ना करें क्योंकि सभा को विशुद्ध रूप से जनता की सभा बनाये रखना जरूरी है। पुलिस और खुफिया विभाग ने जनसभा करने की पद्धति को टटोलने का अचूक तरीका अपनाया। किराये पर भीड़ जुटाने वाली एजेंसियों से, लोगों को ढोने के लिए बसों, ट्रकों, ट्रेक्टरों के मालिकों से पक्की जानकारी ली गई कि क्या किसी संगठन या पार्टी ने इस तरह के इंतजाम किये हैं। ऐसा कुछ भी नहीं था। व्यापारियों से भी चंदा नहीं लिया गया था। तो फिर, यह किसी का मजाक भर हो सकता है।
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रात को सितारा होटालों के खास कमरों में राजनैतिक दलों के सदस्य, जो प्रतिनिधि सभाओं, अखबारों और टी.वी. चैनल्स पर एक-दूसरे की ऐसी-तैसी किये रहते हैं, एक-दूसरे का हाल-चाल जानने, सॉरी कहने और पीने-पिलाने के लिये मिले तो आपस में पूछ-ताछ करने लगे कि उक्त आयोजन के पीछे कौन है। फाइनेंस कौन कर रहा है? वगैरह, वगैरह। जब उन्हें पता चल गया कि उन टुच्चों को किसी ने चंदा नहीं दिया तो वे देर तक हँसते रहे। मस्ती में 'आनंद' मनाते हुए वे आश्वस्त थे कि उनकी सहायता के बिना कोई भी बड़ी सभा नहीं हो सकती। इस तरह की मिलनी में वे आपसी रिश्तों का निर्वाह करते हुए सच बोलने के लिये प्रतिबद्ध होते थे। वे कई कंपनियों में पार्टनर थे। कई तो मामा-भांजे, समधी साले, ससुर-दामाद, मौसी, बहनों-भांजियों के रिश्तों में भी थे। चूमा-चाटी के उस माहौल में प्रजातंत्र मूर्तिमान होकर मुस्कुरा रहा था। चुनाव नजदीक थे इसलिए जल्दी ही गंभीर विचार-विमर्श होने लगा कि कौन कहां और कब किसके साथ या विरोध में रहेगा।
शहर की सात सितारा होटल में कान्फ्रेंस के लिये एकत्र हुए उद्योगपतियों को पहले ही उनके कुशल मैनेजरों ने जानकारियां लेकर सूचित कर दिया था कि 'स्वप्नदर्शी' जैसी किसी संस्था को न तो किसी ने चंदा दिया था और ना ही किसी पार्टी का कोई नेता रैली के पीछे है। वे आश्वस्त होकर व्यापार संगठन के तत्वावधान में वैश्विक मंदी के गंभीर विषय पर विमर्श में शामिल हुए थे। वित्त मंत्री मुस्कुरा कर उन्हें आश्वस्त कर रहे थे कि हम लोग सुरक्षित हैं। उनके ऐसा कहने पर उद्योगपति कुछ चिंचित हुए क्योंकि वे जानते थे कि जब वित्तमंत्री मुस्कुरा कर अधिक आश्वासन दे तो समझो कि संकट आसन्न है। वे सभी अभिनय में पटु थे इसलिए चेहरों पर सौम्य श्रद्धाभाव लिये वे वित्त मंत्री की शानदार शब्दावलियों पर मोहित होने की मुद्रा में थे।
उन्हीं मुग्ध मुद्राओं से प्रेरित वित्तमंत्री का वक्तव्य लय पकड़ रहा था कि थोड़ा सा व्यवधान आ गया। वित्त मंत्री के सेक्रेटरी ने धीरे से एक स्लिप उनके हाथ में थमाई जिसे पढ़कर उनके चेहरे पर व्यग्रता दिखलाई दी। उनकी मुस्कुराहट तो कायम रही लेकिन अगले दस मिनट में ही उन्होंने अपना वक्तव्य समेट लिया। एक जरूरी मीटिंग में जाने की मजबूरी बतलाकर और क्षमा मांग कर वे कार्यक्रम को अधूरा छोड़कर चले गये। उनके इस कदर चले जाने से हॉल में कुछ देर के लिए सन्नाटा छा गया। फिर लोग धीरे धीरे बातें करने लगे।
हॉल में लगे एक बड़े कमरे में किसी ने टीवी आन किया। उस कमरे में उपस्थित लोगों का समवेत स्वर उभरा - 'अरे ऽऽ! ये क्या हुआ।' आवाज सुनकर हॉल में बैठे लोग भी उसी कमरे में आने लगे।
दीवार पर लगे टीवी के बड़े स्क्रीन पर विराट जनसभा का दृश्य दिखलाया जा रहा था।
आश्चर्य से लोगों की आंखों फैल गई थी। क्या किसी अनजानी ऐरी-गैरी संस्था के आमंत्रण पर ऐसा जनसमूह उमड़ सकता है! ऐसा तो हिन्दी फिल्मों में होता है। पूरे मैदान और बगल की अमराई में लोग ठसाठस भरे हुए थे। टीवी चैनल्स की सूंघने की क्षमता तो अद्भुत होती ही है। गंध पाते ही कई चैनल्स वहां पहुंच चुके थे। वे लगभग पांच किलोमीटर का क्षेत्र कवर कर रहे थे। चारों तरफ से लोग चले आ रहे थे। हर रास्ते पर जाम लगने जैसी स्थिति थी। चैनल के नुमाइंदे भी बेहद आश्चर्य चकित थे। वे जिससे भी पूछते कि उन्हें सभा की जानकारी या सूचना कैसे मिली वही उत्तर देता कि किसी से पता चला तो आ गये। कुछ लोगों ने कहा कि उन्होंने कहीं पोस्टर देखा था। टी.वी. वाले पूछ रहे थे - क्या आप सपने देखते हैं? अधिकांश लोगों का उत्तर था कि वे ना केवल देखते हैं बल्कि चाहते हैं कि उनके लड़के-बच्चे भी सपने देखें।
विचित्र सभा थी जिसमें एक ही लग्जरी थी। दूर-दूर तक लगे लाउड स्पीकर और माइक। मंच तो एकदम साधारण था। मैदान के छोर पर बने पक्के चबूतरे पर, चार तखत जोड़कर उस पर एक दरी बिछाई गई थी। एक लकड़ी का पोडियम था जिस पर माइक। कोई अध्यक्ष नहीं। ना दीप प्रज्वलन, ना बुके। एक अधेड़ होता हुआ आदमी और एक नौजवान उस बीहड़ सभा का संचालन कर रहे थे। अजीब टेढ़े-मेढ़े से वक्ता थे जिनकी पहले से बनी कोई सूची नहीं थी। एक किसान के अलावा आटोवाले, पान ठेला वाले, चाट की दुकान लगाने वाले, मॉल के फर्श पर पोछा लगानेवाले, शिक्षाकर्मी, संविदा कर्मचारी, घरेलू नौकरानी, चौकीदार जैसे लगभग बीस-बाइस लोगों ने कुछ ना कुछ कहा। उनके अटपटे से बोल थे लेकिन मन्तव्य साफ थे। इस श्रीहीन सभा में लोग आते जा रहे थे। समुद्र की लहरों की तरह। धीरे-धीरे छात्र, विश्व विद्यालयों के प्रोफेसर और लेखक भी सभा में शामिल हुए। जब एक विश्वविद्यालय के छात्र नेता ने माइक संभाला तो पूरी सभा में सन्नाटा खिंच गया। नौजवान लड़के ने बुलंद आवाज में कहा - दोस्तों, इसके पहले कि हमारी सभा को भंग करने के लिए कोई फोर्स आ जाए मैं केवल दो-तीन बातें आपके सामने रख रहा हूं। पहली बात यह समझिये कि सरकार ने नया शब्दकोश तैयार किया है उसमें 'गरीब' शब्द का अर्थ है 'संतोषी'। जनआक्रोश को देखते हुए सरकार कानून में कुछ ढील दे रही है। नियम बनाया जा रहा है कि वार्षिक आय के आधार पर तीन प्रवर्ग होंगे जिनके सपने देखने की सीमा तय की जा रही है। संतोष सीमा के व्यक्ति के सपने की सीमा खैराती अस्पताल और स्कूल होंगे। भव्य स्कूल और अस्पताल का सपना देखना उनका राजद्रोह माना जाएगा। आप इसका  मतलब समझें। अन्य धर्माविलंबी और प्रवर्ग के व्यक्ति से प्रेम या विवाह के स्वप्न देखना युवाओं के लिये दण्डनीय होगा।
तभी दूर से पुलिस फोर्स की गाडिय़ों के साइरन की आवाजें आने लगी। युवक वक्ता ने बात खत्म करते हुए कहा हम तय करें कि अब कानून के नाम पर हम पिटेंगे नहीं। कल से हर दिन दस जगहों पर छोटी सभाएं होंगी। यही हमारा विरोध होगा। आज की तरह ही हमारी छोटी सभाएं अचानक होंगी। लोग आपस में चुपचाप तरीके से यह करें। गेदें के दो फूल हमारे संदेश के प्रतीक होंगे। अभी यहां से हटने का आदेश दिया जायेगा और हम शांति पूर्वक हट भी जायेंगे।
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वित्त मंत्री के जाने के बाद टीवी स्क्रीन पर आंखें गड़ाये हुए बिजनेस मैग्नेट्स के चेहरों पर छाई चिंता की परछाई, फोर्स की गाडिय़ों की कतारें देखकर मिटीं। एक हर्ष मिश्रित हल्का समवेत स्वर गूंजा - वाओ ऽऽ...! अब वे कुर्सियों पर इत्मीनान से बैठ गये। सिनेमा देखने के अंदाज़ में! टीवी चैनल्स की टीमें पूरी कुशलता से आंखों देखा हाल पेश कर रही थीं। जैसे ही वक्ता मंच से उतरा पुलिस की घोषणा हुई - ये सभा गैर कानूनी है। आप लोग जल्दी ही यह जगह खाली कर दें। भीड़ खामोशी से छंटने लगी। लाखों की संख्या में लोग थे। ठीक बीस मिनट बाद बिना कुछ बतायें पुलिस ने लाठी चार्ज किया।
धारा 144 लगा दी गई थी और बस, उसी रात चौराहे पर लगी मूर्ति गायब हो गई थी!!
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शहर उद्वेलित था। धारा 144 के बावजूद दिन में दस सभाएं हुई। पुलिस हैरान थी  कि जगह और समय लोग कैसे तय कर रहे थे कि पहले पता नहीं चल पाता। पुलिस बल की एक मनोवैज्ञानिक परेशानी भी थी। अधिकांश पुलिसवालों को शक था कि उनके जवान बेटे-बेटियां उन सभाओं में जाते हैं। तीसरे दिन पुलिस को एक सभा की भनक लग गई और वहां लाठी चार्ज किया गया। गांव की एक औरत और कॉलेज की एक छात्रा घायल हुई। छात्रा एक पुलिस इंस्पेक्टर की लड़की थी।
हर तरफ पुलिस बल तैनात था। इंस्पेक्टर ठाकुर ए.एस.पी. देवांगन के साथ गश्ती की ड्यूटी पर था। ठाकुर पर घटना का कोई असर नहीं था। वह पहले भी पब्लिक से निपटा था। उसके कैरियर में चार लाठी चार्ज बायो डाटा में थे। लेकिन देवांगन परेशान था। उसकी पढ़ाई-लिखाई और सामाजिक सिद्धांतों में ये बातें फिट नहीं हो रही थीं। उसे लग रहा था कि जनता की मांग सही है लेकिन उसे शांति भी कायम रखनी थी। नागरिकों ने धारा 144 की धज्जियां उड़ा दी थी।
लोग नगर के किसी हिस्से में अचानक प्रगट होते। नुक्कड़ सभा करते। नारे लगाते और कुछ तोड़-फोड़ करके इधर-उधर गायब हो जाते। सरकारी कार्यालय और कंपनियों के आफिस को पत्थरबाजी का प्रमुख लक्ष्य बनाया गया था। फिर अचानक ही शहर के किसी दूसरे हिस्से में ऐसा ही होता जहां कुछ देर पहले एकदम शांति दिखलाई दे रही थी। एकदम छापामार आंदोलन था।
गश्त लगाते हुए देवांगन ने चौराहे पर गाड़ी रुकवाई और इंस्पेक्टर के साथ उतरकर मूर्ति के खाली पेडेस्टल को देखा और फिर चारों तरफ नजर दौड़ाई। एकदम सन्नाटा था। दुकानें बंद थीं। स्कूटर पर इक्के-दुक्के लोग आ-जा रहे थे। देवांगन ने ठाकुर से कुछ कहने के लिए मुंह घुमाया कि चौराहे के उस पार की सड़क पर इधर-उधर से अचानक आये लोग एकत्र हुए। नारे लगाये, कुछ पत्थर फेंके और उनसे विपरीत दिशा की ओर, कचहरी रोड की तरफ दौड़ पड़े। देवांगन भौचक्का रह गया। तभी ठाकुर आश्चर्य मिश्रित भय से चिल्ला कर बोला सर...सर... वो... वो... देखिये।
ए.एस.पी. ने देखा कि भीड़ की पिछली पंक्ति के एक आदमी ने मुड़कर उनकी तरफ देखा और झुककर पत्थर उठाया।
ठाकुर ने उत्तेजित स्वर में फिर कहा - सर....सर... सर वो तो मूर्ति....
देवांगन ने गौर से उस आदमी को देखा जो पत्थर फेंकने ही वाला था। वाकई... उसे भी लगा कि वह तो मूर्ति ही जैसे सजीव हो गई थी। उसका फेंका हुआ पत्थर कार के बोनेट पर आकर गिरा.. ठनाक!
इंस्पेक्टर भय से कांप रहा था। उसकी गर्दन से उतरकर पसीना एड़ी तक आ गया था। ए.एस.पी. कुछ कह पाता उसके पहले ही वह आदमी भीड़ में शामिल हो गया।



जाने माने कथाकार। खैरागढ़ और रीवा विश्वविद्यालयों से सम्बद्ध रहे। पहल में रमाकांत जी की प्रकाशित कई कहानियां चर्चित हुई। प्रगतिशील लेखक संघ से सम्बद्ध रहे। दिन दिनों भोपाल में रहते हैं।


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