मुखपृष्ठ पिछले अंक आलोचना/विमर्श/डायरी भूमण्डलीकरण में भाषा
नवम्बर 2016

भूमण्डलीकरण में भाषा

अरुण कुमार

आलेख



सत्तर साल में हलाक हुईं तीन सौ ज़ुबानें
एक सौ छियानबे बोलियों पर सधे हैं निशाने


प्रकाश चंद्रायन की कविता का एक अंश




हमारे जीवन में भाषा की भूमिका द्विआयामी है। वह लोकव्यवहार का भी माध्यम है और हमारे अभ्यन्तर व्यापार का भी। बाहर का संसार सागर हो या मन के भीतर का सरोवर हो, दोनों जगहों के कारोबार के लिए भाषा का होना जरूरी है। भाषा मनुष्य जाति का सामूहिक उत्पाद है। इसे उसने अपने जीवन-संघर्ष के दौरान अनेक पीढिय़ों के अनवरत प्रयत्न से लाखों वर्ष पूर्व सृजित किया था। भाषा समय के साथ सक्षम होती रही और फिर यह भू-मण्डल के प्राणिजगत् में मनुष्य नामक जीवधारी की पहचान बन गई।
भाषा व्यक्ति के बाहर-भीतर की दोनों दुनिया पर छायी रहती है। उसके इस स्वभाव का कारण यह है कि 'भाषिक ध्वनियों का समुच्चय शब्द' कोई चिह्न नहीं बल्कि एक प्रतीक होता है। इसे यों देखा - समझा जा सकता है कि चौराहों पर यातायात के संचालन के लिए लगे लाल-पीले-हरे संकेतक सिर्फ चिह्न हैं जो रुकने, चलने को तत्पर होने एवं चल देने के सूचनार्थ प्रयुक्त होते हैं जबकि बरसात में आकाश में दिखाई पड़ जाने वाला अद्र्धवृत्त 'इन्द्रधनुष' को देखकर प्रसन्नता की प्रतीति में या किसी अन्य प्रतीति में या इससे उदासीनता में उस समाज की संस्कृति होती है जिसमें व्यक्ति रहता है। इसीलिए हर भाषा में हर शब्द की अर्थछवि का एक परिप्रेक्ष्य होता है।
भाषा ध्वनिप्रतीकों की सहजविकसित व्यवस्था है इसलिए प्रत्येक भाषा एक पृथक सांस्कृतिक वायुमण्डल की तरह होती है। अपनी भाषा के वायुमण्डल में व्यक्ति सांस लेता है और यह उसके भीतर भी उतनी ही परिव्याप्त होती है जितनी उसके बाहर किन्तु भूमण्डलीकरण में व्यक्ति और भाषा के बीच का रिश्ता दरक गया है। दुनिया को एक जैसा बना देने की प्रक्रिया अपनी भाषा से प्रीति की प्रवृति को संकुचित कर रही है और ऐसी स्थितियाँ पैदा कर रही है जिससे व्यावहारिक प्रयोजन के लिए रूपरेखाबद्ध कर दी गई किसी एक भाषा से पूरी सृष्टि का कामकाज चल सके।
आज अर्थ-व्यवस्थाओं के अन्तर्राष्ट्रीयकरण, प्रौद्योगिकी के नवीनीकरण एवं संस्कृतियों के विलीनीकरण के द्वारा विश्व को नए ढंग से नया रूप दिया जा रहा है। भूमण्डलीकरण में दुनिया को ज्यादा सरल, ज्यादा सुविधासम्पन्न और ज्यादा मुक्त बनाने के लिए भाषा और संस्कृति की बहुलता जैसे अवरोधों को दूर किया जा रहा है। भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया इस अवधारणा पर टिकी हुई है कि स्थानीयता एवं भाषिक-सांस्कृतिक बहुलता मनुष्य की आदिम सभ्यता के ऐसे अवशेष हैं जो नई निर्मित हो रही विश्व सभ्यता के मार्ग में बाधाएं खड़ी कर रहे हैं।
भूमण्डलीकरण में भाषा एवं संस्कृति की विविधता को बोझ समझा जा रहा है इसलिए हर प्रकार की विविधता को विदाई दे कर दुनिया को एकरूप बनाने की कोशिशें हो रही हैं। यह कहा जाता रहा है कि व्यक्ति किसी देश में नहीं बल्कि अपनी भाषा के घर में रहता है लेकिन आज बहुत सारे भाषाघरों पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं। हजारों भाषाघर तो मिट गए हैं।
भूमण्डलीकरण दुनिया को बाजार में बदल देने की प्रक्रिया है इसलिए इसका लक्ष्य पृथ्वी के प्रत्येक व्यक्ति को निरा उपभोक्ता के रूप में ढाल देना है। बाजार जहां एक ओर अपने सम्मोहन से हर व्यक्ति को किसी न किसी प्रकार अपनी क्रयशक्ति बढ़ाने के लिए व्याकुल बनाए रखता है वहीं वह दूसरी ओर अपने को उपभोक्ता के पक्ष में पेश करते हुए उत्पादों की कीमत कम रखने का उत्पादकों पर दबाव बनाता है। कोई उत्पाद चाहे वह विनिर्माण क्षेत्र का हो या सेवा क्षेत्र का तभी कम कीमत पर उपलब्ध हो सकता है जब उसकी उत्पादन-लागत में कमी आए। किसी वस्तु की लागत कम करने का कारगर तरीका यह है कि उका उत्पादन विशाल स्तर पर हो। भूमण्डलीकरण में इसीलिए लोगों के रहने का तौर-तरीका, उनकी खाने-पीने की रुचियाँ, उनकी जीवन-शैली और अन्तत: उनकी जीवन-दृष्टि एक जैसी कर देने की कोशिश है। एक ही तरह का उत्पाद सबकी पसंद बन जाए तो लागत का कम होना तय है।
खान-पान, वेश-भूषा और चाल-ढाल की समानता लाने के प्रयत्न में भाषा-संस्कृति आड़े न आए इसलिए भाषाओं और संस्कृतियों की व्यापक बहुलता पर योजनाबद्ध ढंग से आघात किया जा रहा है। छोटे-बड़े सारे बगियों को मिलाकर एक बाग बना देने की कोशिश में हजारों परिंदे अपनी बगिया में ही बेगाने बनते जा रहे हैं। उनकी जुबानें मर रही हैं, उनका परिवेश बदल रहा है लेकिन कहा जा रहा है कि अब पूरा बाग उनका है और उन्हें एक ऐसी जबान मयस्सर हो जाएगी जिसमें वे सम्पूर्ण बाग में किसी के साथ कहीं भी चहचहा सकेंगे।
भूमण्डल की प्राकृतिक संरचना ही विविधतापूर्ण है। यहां जंगल, पहाड़, घाटियां, मैदान, मरुस्थल, नदियां, सागर भिन्न-भिन्न प्रकार की जलवायु निर्मित करते हैं। हजारों प्रकार की वनस्पतियों और जन्तु पृथ्वी पर जन्म पाते हैं और पलते हैं। आज इस भूमण्डल पर कोई सात अरब मनुष्य निवास कर रहे हैं। इन सात अरब मनुष्यों में लगभग सात हजार बोलियां-भाषाएं प्रचलित हैं। ये बोलियां और भाषाएँ अपने प्राकृतिक और सामाजिक परिवेश का अविच्छिन्न हिस्सा हैं। ये जीवन की पाठशालाएं हैं। हर बोली और भाषा अपने शब्दों की अर्थछवियों और अपनी कहावतों से तर्क और राग का अलग संसार रचती है। एस्किमो भाषा में गिरती हुई बरफ, अभी-अभी गिरी बरफ और धरती को आच्छादित कर चुकी बरफ की विभिन्न छवियों के लिए पचास से अधिक शब्द हैं। वास्तव में, हर भाषा अपने परिवेश का जीवंत दस्तावेज होती है।
भूमण्डलीकरण पृथ्वी की विशालता और विविधता को एक विश्वग्राम का रूप दे रहा है। प्रौद्योगिकी इस विश्वग्राम की प्राणवायु है। यह प्रयत्न है कि सूचना-प्रौद्योगिकी एवं दो-तीन भाषाओं के जरिये इस विश्वग्राम के सभी नागरिक एक दूसरे से सम्पर्क करने की क्षमता प्राप्त कर लें। इसका नतीजा यह है कि बहुत सारी बोलियां और भाषाएं दुर्बल होते-होते दिवंगत होती जा रही हैं। अनुमान है कि औसतन हर महीने दो बोलियां-भाषाएं निष्प्राण हो जाती हैं।
भूमण्डलीकरण में अधिकतर बोलियां नगरीकरण की तीव्र रफ्तार के साथ अपना जनाधार खोती जा रही हैं जबकि अधिकतर भाषाएं शिक्षा के माध्यमों से, व्यावसायिक संस्थानों के पत्राचार से, पेशेवर क्षेत्रों के क्रियाकलाप से और निजी निमन्त्रणपत्रों से नदारद हो रही हैं। बोली और भाषा में अन्तर संरचना का नहीं बल्कि स्तर का होता है। जो बोली अपने भौगोलिक क्षेत्र के पार भी आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक कारणों से बोली जाने लगती है वह भाषा का रूप ले लेती है। एक भाषा क्षेत्र में बोली जाने वाली विभिन्न बोलियां उस भाषा की बोलियां कहलाने लगती है। बोलियों का क्षेत्र छोटा होता है और वे अपनी मिट्टी से ज्यादा मजबूती से जुड़ी होती हैं इसलिए उनमें एक गमक होती है। भाषाओं का क्षेत्र विस्तृत होता है और व्यापक क्षेत्र में बोलेजाने के कारण उनकी ग्रहणशीलता बढ़ जाती है। भाषाएँ बोलने के अलावा लिखी भी जाती हैं और औपचारिक कार्यों में भी उनका प्रयोग होता है इसलिए उनमें एक ठसक आ जाती है लेकिन आज बोली जाने वाली बोलियों-भाषाओं में से कुछ को छोड़ दें तो बाकी की गमक-ठसक पर ग्लोबलाइजेशन का ग्रहण लग गया है। कई भाषा वैज्ञानिकों को आशंका है कि बाईसवीं सदी प्रारम्भ होने के पूर्व ही इन बोलियों-भाषाओं में से लगभग तीन हजार भूमण्डल पर अपनी उम्र पूरी कर चुकी होंगी।
लुप्त हो रही बोलियों में से कुछ सौ बोलियाँ वे हैं जिनके बोलने वाले ही बहुत कम बचे हैं। ये दुनियाभर की उन जनजातियों की बोलियां हैं जो अपनी अल्पसंख्या के साथ अन्य जनसमुदायों से पूरी तरह कटी हुई जंगलों के भीतरी भागों में रहती आई हैं लेकिन प्राकृतिक आपदाओं के कारण उनकी संख्या ऊंगलियों पर गिनी जाने लायक बची या फिर रक्तसम्बन्धियों में विवाह के कारण उनमें जीन सम्बन्धी विकार आ गया और उनकी प्रजनन क्षमता ही जाती रही। भारत में अण्डमान निकोबार द्वीप समूह की 'बो' बोली को बोलने वाला अब कोई नहीं बचा है।
बहुत सी जनजातियां ऐसी हैं जो जंगलों के अन्दरूनी हिस्सों से बाहर आकर वनग्रामों के निकट बस गई थीं। ऐसी जनजातियों की नई पीढ़ी ने नए इलाके की बोलियां अपना लीं। पुरानी पीढ़ी के लोगों के साथ वे बोलियां भी खत्म हो गई या हो रही हैं। भारत में असम की देवरी, मिसिंग, कछारी जैसी बोलियों को भी इस श्रेणी में रखा जा सकता है क्योंकि नई पीढ़ी उसे बोलना लगभग छोड़ चुकी है।
वे जनजातीय समुदाय जो शेष संसार से पूर्णतया पृथक बसे होते हैं, उनकी बोलियों की सामान्य विशेषता होती है कि उनमें शब्द कम रहते हैं परन्तु उन थोड़े से शब्दों में उनका पूरा संसार समाया रहता है। इनमें परम्परा से प्राप्त ज्ञान और कथा-आस्था सभी कुछ मौजूद होते हैं। यदि किसी जनजातीय समूह को संकट के कारण नए निर्जन क्षेत्र में जाकर बसना पड़ता है तो वे इन्हीं थोड़े से शब्दों से नए परिवेश की हर काम की चीज का नामकरण कर लेते हैं। ऐसी हर बोली के लोप से एक प्रकार की जीवनप्रणाली और जीवन दृष्टिका लोप हो जाता है।
भूमण्डलीकरण का प्रत्यक्ष प्रभाव बड़े इलाके में बोली जानेवाली हजारों बोलियों और भाषाओं पर पड़ रहा है। दुनिया की आठ सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषाएं हैं - चीनी, अंग्रेजी, हिन्दी, स्पेनिश, रुसी, अरबी, बांग्ला और पुर्तगाली लेकिन आज महत्व की दृष्टि से अंग्रेजी का स्थान सर्वापरि है। भाषाओं में सिरमौर बनी अंग्रेजी अन्य सभी-भाषाओं को दबाती जा रही है।
अंग्रेजी न केवल विश्व सम्पर्क भाषा है बल्कि वह लगभग पांच दर्जन सम्प्रभु राष्ट्रों की सरकारी भाषा भी है। अन्य बड़ी भाषाओं के बोलने वाले एक या कुछ देशों में ही सघन रूप से आबाद हैं जबकि जिनकी प्रथम भाषा अंग्रेजी है वे भूमण्डल के विशाल क्षेत्र में फैले हुए हैं। व्यापकता के कारण और सम्पर्क भाषा के रूप में प्रवाह के कारण अंग्रेजी में कई खूबियां आ गई हैं। उसमें दूसरी भाषाओं से शब्दों को लेने और पचाने की शक्ति बढ़ी है तथा अपनी भाषा के कठिन शब्दों को प्रचलन से दूर रखने की प्रवृत्ति पैदा हुई है। अंग्रेजी को लेकर कठिनाई यह हो गई है कि वह सम्पर्क भाषा की अपनी भूमिका में सीमित न रहकर अन्तर्देशीय भाषाओं के रूप और प्रतिष्ठा पर अपनी लम्बी होती छाया डालने लगी है।
भारत में भाषाओं की बहुलता पर आधुनिकता की आंच को आसानी से अनुभव किया जा सकता है। यह 'कोस-कोस पर बदले पानी, चार कोस पर बदले बानी' का देश है लेकिन नगरों के विस्तार और गांवों से निकल कर नगरों में अपना ठौर-ठिकाना ढूंढऩेवालों की बढ़ती संख्या से बोलियों की संख्या तेजी से घटती जा रही है। सैकड़ों बोलियां अपने से ज्यादा बड़े इलाके में बोली जाने वाली निकट की बोलियों में समा गई हैं। मैदानी इलाकों में यह प्रक्रिया ज्यादा तेज है जबकि वन्य और पर्वतीय क्षेत्रों में धीमी है। अरुणाचल प्रदेश में और छत्तीसगढ़ के बस्तर जैसे इलाकों में थोड़ी-थोड़ी दूर पर बदलती बोलियों को उनकी बदलती ध्वन्यात्मकता के साथ सुना जा सकता है। अरुणाचल प्रदेश में अभी नब्बे बोलियां प्रचलन में हैं जबकि बस्तर के छोटे से इलाके में आधे दर्जन से अधिक बोलियां आबाद हैं लेकिन इस स्थिति का बहुत समय तक कायम रह पाना मुश्किल लगता है। सच तो यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों में भी बोलियों का प्रयोग घरों तक सीमित होकर रह गया है और इसे बाहर बोलना प्रतिष्ठा के नए मान-मूल्य के अनुसार पिछड़ेपन की निशानी मान लिया गया है। बोलियां तो बोलियां व्यापक क्षेत्रों में बोली जाने वाली प्रभुतासम्पन्न भाषाएं भी भीतर से खोखली होती जा रही हैं। ये अपने अनौपचारिक प्रयोग में जहां अंग्रेजी शब्दों की अधिकता से आक्रांत हो रही हैं वहीं इनका औपचारिक प्रयोग घटता ही जा रहा है। शिक्षण माध्यम के रूप में भारतीय भाषाएं हाशिए पर चली गई हैं। वाणिज्य-व्यवसाय और विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में इनका प्रचलन न केवल कम हुआ है बल्कि वह अंग्रेजी के अनुवाद पर आश्रित हो गया है। हिन्दी, बांग्ला, तेलुगू, मराठी तमिल सभी भारतीय भाषाओं की कमोबेश यही स्थिति है।
भारत में आजादी मिलने के बाद औद्योगीकरण ने गति पकड़ी तो ग्रामीण क्षेत्रों से नगरीय क्षेत्रों में जनसंख्या का व्यापक स्थानान्तरण शुरू हुआ। इसका बोलियों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा जबकि नई-नई जनमी जागरूकता से भाषाओं में एक नया तेज आ गया। स्कूलों की संख्या तेजी से बढ़ी और विविध पाठ्यक्रमों के लिए पाठ्यपुस्तकों के प्रकाशन ने जोर पकड़ा। क्षेत्रीय भाषाओं में पत्र-पत्रिकाओं और समाचार पत्रों का प्रकाशन भी बढ़ा। इन सबसे व्याकरण सम्मत एवं प्रवाहपूर्ण भाषा के प्रचलन का मार्ग प्रशस्त हुआ। प्रयोग की प्रचुरता से सभी भाषाओं में गद्य का अधिक दृढ़बंध तथा पद्य का अधिक लयात्मक रूप प्रकट हुआ। इन भाषाओं की जमीन में मजबूत जड़ें थीं। नए वातावरण में ये भाषाएं और संवरी और सक्षम हुईं। सबसे बड़ी बात यह हुई कि इन भाषाओं के जरिये उन लाखों बच्चों का स्कूलों से नाता जुड़ा जिनके परिवारों में अभी तक किसी ने 'मसिकागद' नहीं छुआ था।
भूमण्डलीकरण के कारण पिछले दो दशकों में जो फिजा बनी है उसमें मातृभाषाओं के माध्यम से बच्चों को शिक्षा देने की बात करना वक्त को पीछे लौटाना जैसा माना जा रहा है। हिन्दी जो इस देश के 41 प्रतिशत से अधिक लोगों की मातृभाषा और दुनिया के विशालतम गणतंत्र की सम्पर्क भाषा एवं राजभाषा है उसकी भी स्थिति बेहतर नहीं है। पिछले दस सालों में हिन्दीभाषी प्रदेशों में भी निजी क्षेत्र में शायद ही हिन्दी माध्यम का कोई नया विद्यालय खुला हो। सुदूर गांवों तक में 'इंग्लिश मीडियम स्कूल' छाए हुए हैं और हिन्दी माध्यम के विद्यार्थियों को हिकारत की नजर से देखा जा रहा है। इन स्कूलों के स्तर की बात नजरअंदाज भी कर दें तो स्थिति यह है कि मातृभाषा में बच्चों की जो सृजनात्मकता और कल्पनाशीलता विकसित होती है वह प्रारम्भ में ही मुरझा जा रही है। अंग्रेजी से खौफजदा बच्चे न कक्षा में कोई प्रश्न कर पाते हैं न विषय को समझ पाते हैं। फिर कोचिंग और प्रश्नों के उत्तर रटने का जो दौर शुरू होता है वह उनकी सारी सम्भावना को लगभग समाप्त कर देता है।
भारत में विद्यार्थी जीवन की अवधि दीर्घ से दीर्घतर होती जा रही है। एकल परिवारों में दम्पतियों के पास छोटे बच्चे से बोलने-बतियाने की फुरसत ही नहीं रहती इसलिए बच्चे को बोलना सिखाने के लिए 'प्ले नर्सरी' में भेजना पड़ता है। प्ले नर्सरी से फिर नर्सरी इसके बाद लोअर केजी फिर अपर केजी यानी पहली कक्षा में पहुंचते-पहुंचते बच्चा चार वर्ष पुराना विद्यार्थी हो चुका होता है लेकिन उसकी उत्फुल्लता और मौलिकता तब तक लुप्त हो गई होती है। बच्चों को प्रारम्भिक शिक्षा मातृभाषा में दिए जाने की पैरवी दुनिया भर में हो रही है किन्तु इसे कोई दार्शनिक बात मान कर दफा कर दिया जाता है। इसका नतीजा यह हुआ है कि बच्चों की शिक्षा के लिए परिवार का पैसा पानी की तरह बह जाता है परन्तु परिणाम प्राय: नकारात्मक रहता है। कभी हिन्दी भाषी इलाकों के मेडिकल कालेजों में एक सूक्ति प्रचलित थी कि हिन्दी माध्यम के विद्यार्थी डाक्टर बनते हैं और इंग्लिश मीडियम के स्टूडेंट मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव। आज इस सूक्ति का निहितार्थ समझने की सबसे ज्यादा जरूरत है।
अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय भी विद्यार्थियों को अंग्रेजी नहीं सिखा पा रहे हैं और उनमें रोजगार बाजार में खड़े होने के लिए आत्मविश्वास नहीं पैदा कर पा रहे हैं तो अंग्रेजी सिखाने वाली और विद्यार्थियों की देहभाषा में आत्मविश्वास की मुद्रा का रंग भरने का दावा करने वाली संस्थाओं का मजमा लग गया है। आज अंग्रेजी  सिखाने और देहभाषा दुरुस्त करने वाले शिक्षकों योग एवं अध्यात्म का अभ्यास कराने वाले गुरुओं, जड़ी-बूटी की दुकान सजा कर आरोग्य बेचने वाले आचार्यों, औषधियों, प्रसाधनों और शल्य से 'लुक चेंज' करने वाले सौन्दर्य चिकित्सकों और जंतर-मंतर तथा ताबीज से हर आफत को चुटकियों से भगा देने वाले बाबाओं की बाढ़ आ गई है। भूमण्डलीकरण दुनिया को मेले में तब्दील कर भाँति-भाँति के उद्यमियों को रोजगार मुहैया कर रहा है। इन दिनों भारतीय भाषाओं में जो पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं और दुकानों से तथा 'आन लाइन आर्डर' पर पाठकों के हाथों तक पहुँच रही हैं उनमें से अधिकतर इन्हीं विषयों की हैं।
भूमण्डलीकरण व्यक्ति को खुला और विचारशील बनाने की जगह केवल ऐसी नवीनता के प्रति लालायित कर रहा है जिसमें सुविधा और जगमगाहट है। आज व्यक्ति बाजार की ओर आँखें गड़ाए हुए हैं लेकिन अपनी भाषा और संस्कृति की अनमोल विरासत से आंखें मूंदे हुए हैं। वास्तव में, आधुनिकता एक चेतना है जो अपनी परम्परा का मूल्यांकन करते हुए उसे प्रगतिशील विचारों से जीवंत बनाए रखती है किन्तु आज आधुनिकता का अर्थ नवीन उत्पादों के उपयोग तक सीमित होता जा रहा है। आधुनिकता मन का मामला है लेकिन 'मन न रंगाए रंगाए जोगी कपड़ा' जैसी हालत हो गई है। कपड़ा रंगाने के भूमण्डलीय बाजार में उन बोली-बानियों का कोई मोल नहीं है जो लोगों के दिलोदिमाग में छाई रही हैं। वहाँ मोल उस बोली का भाषा का है जो दुनिया की ज्यादा से ज्यादा आबादी के बीच सम्पर्क भाषा का काम करते हुए बाजार की ताकत और चमक बढ़ा सकती है। इसीलिए दुनिया भर में देशी भाषाओं का न केवल गौरवहरण हो रहा है बल्कि वे विश्व सम्पर्क भाषा के शब्दों से लदती हुई हीनतर स्थिति में पहुँचती जा रही है।
हिन्दी 'भारतमाता के माथे की बिन्दी' है लेकिन इस बिन्दी की हालत कैसी होती जा रही है। 'मार्निग बस मिस हो जाने से दिन भर मूड आफ रहा।' ... 'डाटा तो अवेनेबल है, प्राब्लम इन्टरनेट लिंक की है।' ...ऐसे वाक्यों का प्रयोग अब बोलचाल तक सीमित नहीं रह गया है। कभी बीएसएनएल में अपनी फोन सेवा की शिकायत फोन से दर्ज कराते हुए उसके मशीनी सम्वाद पर गौर करें। आपको पहले हिन्दी या अंग्रेजी भाषा का विकल्प दिया जाता है। आपने यदि हिन्दी चुना तो आपसे अपने 'एरिया' का एसटीडी कोड 'एन्टर' करने के लिए कहा जाता है। जब आप यह कर लेंगे तो आपको सुनाई पड़ेगा, 'आपका एसटीडी कोड है... 'कन्फर्म' करने के लिए 1 दबाएं, दुबारा 'एन्टर' करने के लिए 2 दबाएं। लम्बे सम्वाद के बाद आप जानेंगे कि 'आपकी कम्प्लेन्ट ले ली गई है।' बीएसएनएल उन संस्थाओं में से है जहां हिन्दी के प्रयोग को बढ़ावा देने के लिए कोष का मुँह खोल दिया गया है।
किसी भी बोली भाषा की पहचान उसकी क्रियाएं और उसके सर्वनाम होते हैं। ये किसी भाषा से किसी दूसरी भाषा में नहीं जा सकते। संज्ञाएं एक बोली - भाषा से दूसरी बोली - भाषा में आवश्यकतानुसार आवाजाही करती रही हैं लेकिन अब तो अंग्रेजी संज्ञाएं हिन्दी वाक्य संरचना को यों आच्छादित कर लें रही हैं कि हिन्दी अदृश्य होती जा रही है। इस स्थिति से अप्रत्यक्ष रूप से यह धारणा बनती है कि हिन्दी इस युग में अभिव्यक्ति-सक्षम नहीं रही। सर्वेक्षण बताते हैं कि ब्राजील, मेक्सिको, आस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया, नाइजीरिया, पापुआ न्यू गुएना और कैमरून जैसे भू-भागों में बोलियां-भाषाएं बड़ी भाषाओं के प्रभाव से अपनी पहचान खोती जा रही हैं। अपनी बोली-भाषा के प्रति स्वाभिमान का बोध और कला, साहित्य विज्ञान प्रौद्योगिकी आदि क्षेत्रों में उस भाषा के बोलनेवालों के तात्विक योगदान से ही भाषा में सामथ्र्य आती है। यदि अन्य भाषा-भाषियों के द्वारा ही मौलिक कार्य होंगे तो उनके शब्दों को अपनी भाषा में लेना ही पड़ेगा। कहते हैं कि किसी भाषा के बदलने की ठीक माप उस भाषा के गानों के शब्दों और किसानों की बोली से होती है क्योंकि ये सबसे बाद में बदलते हैं। हिन्दी को इस पैमाने पर मापा जाना चाहिए।
भूमण्डलीकरण प्रारम्भ होने के पूर्व भी विस्तृत क्षेत्र में बोली जाने वाली बोलियाँ और भाषाएं उन निकटवर्ती बोलियों और भाषाओं को दबा सी देती थीं जो छोटे क्षेत्रों में बोली जाती हैं। इसके अलावा अभिजनों द्वारा अंग्रेजी के जरिए अपना वैशिष्ट् बनाए रखने की कोशिशें भी जारी रहती थीं। इन सबहके बावजूद हर बोली और हर भाषा की अपनी हैसियत थी। भूमण्डलीकरण शुरू होते ही अपनी बोली और भाषा से विमुख होकर अंग्रेजी की ऊंगली पकड़कर चलने की वृत्ति ने इतना जोर पकड़ा कि भाषा और समाज के रिश्ते की नाव ही डगमगा गई। लोगों को अपनी बोली-भाषा की ओर उन्मुख करने के लिए वैश्विक स्तर पर प्रयत्न भी प्रारम्भ हुए लेकिन वे दिवसों, उत्सवों, संगोष्ठियों और परामर्शों तक सीमित होकर रह गए। संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था यूनेस्को ने काल के गाल में समाती जा रही बोलियों-भाषाओं के अभिलेखन का कार्य शुरू किया ताकि सनद रहे कि कभी ये जीवित थीं। कोशिशें जारी हैं किन्तु वे यह एहसास कराने में विफल हैं कि हमारी भाषा हमारे अस्तित्व की शर्त है।
कुछ लोगों का मानना है कि भूमण्डलीकरण ने संचार और यातायात की जो विकसित प्रौद्योगिकी जनसुलभ की है उससे तीव्रगति से विदेशों में प्रवासियों की संख्या बढ़ी है और इन प्रवासियों के द्वारा वे भाषाएं भी सुदूर इलाकों में फैल रही हैं जिनके बारे में पहले ऐसा सोचा नहीं जा सकता था। यह भी कहा जा रहा है कि अपने उत्पादों को उपभोक्ता तक पहुंचाने के लिये हर उत्पादक को उपभोक्ता की भाषा का सहारा लेना पड़ता है इसलिए बहुराष्ट्रीय कम्पनियां भी अपने माल के विक्रय में उठान के लिए लोकभाषाओं का सहारा लेती हैं। निश्चय ही आज ऐसा बहुत कुछ दिखाई दे जाता है जिससे यह लगता है कि भूमण्डलीकरण ने भाषाओं के फलने-फूलने के अवसर पर भी पैदा किए हैं लेकिन अभी दृश्य में जो भाषाएं दृढ़तापूर्वक खड़ी दिखाई पड़ रही हैं, अगली पीढ़ी आने तक उनके भी लडख़ड़ा जाने का भूमण्डलीकरण ने आधार निर्मित कर दिया है।
भूमण्डलीकरण ने अपनी भाषा से परहेज करने की जो प्रवृत्ति पैदा कर दी है उसका असर सभी माषिक कलारुपों पर पड़ा है। हिन्दी सिनेमा जिसे बोलचाल की हिन्दी को पूरे देश में प्रचलित करने का श्रेय है, वह भी भूमण्डलीकरण के दौर में हिन्दी की जमीन से दूर से दूर होती जा रही है। यही नहीं कि हिन्दी सिनेमा का व्यवसाय आज जिनके हाथों में है उनकी दुनिया अंग्रेजी की दुनिया है बल्कि यह कि हिन्दी फिल्मों का निर्माण ही अंग्रेजी पर आधारित हो गया है। फिल्म की कहानी अंग्रेजी में लिखी जाती है और बाद में जो विस्तृत पटकथा तैयार होती है वह भी अंग्रेजी में होती है। हिन्दी फिल्मों में संवाद और गीत के लिए हिन्दी जानने वाले की जरूरत पड़ती है। ये गीत और संवाद भी अक्सर देवनागरी लिपि में नहीं बल्कि रोमन लिपि में लिखे जाते हैं। तभी आज के जमाने के गायक और अभिनेता उसे पढ़ पाते हैं।
निर्माताओं, निर्देशकों की नजर में हिन्दी अब केवल झोपड़पट्टी में बोली जाती है या जरायमपेशा लोगों के बीच। मध्यम या उच्चवर्ग के चरित्र जो हिन्दी बोलते हैं वह हिंग्लिश है। बार-बार ऐसी कथाओं का ताना-बना बुना जाता है जिसमें हिन्दी के ऐसे ही रंग हों। हिन्दी फिल्म निर्माण में अब ठेठ हिन्दी के लोगों पर यह समझ कर भरोसा नहीं किया जाता कि हिन्दी का आदमी क्या कर पाएगा।
भूमण्डलीकरण में हिन्दी फिल्मों का समुद्रपारीय व्यवसाय कई गुना बढ़ा है। हिन्दी फिल्मों के कुछ अभिनेता-अभिनेत्रियों द्वारा अंग्रेजी फिल्म व्यवसाय के दरवाजे पर दी जा रही दस्तक भी फली है पर हिन्दी फिल्मों का कथाफलक दिन-ब-दिन संकुचित,  तकनीकआश्रित और एकरस हुआ जा रहा है। हिन्दी फिल्मों के व्यावसायिक पक्ष और तकनीकी पक्ष में चाहे अद्वितीय विकास हुआ हो लेकिन उसमें हिन्दी की स्थिति द्वितीय श्रेणी की भी नहीं रही। नतीजा यह है कि लोगों के दिलों में उतर जाने वाली हिन्दी फिल्में अब कभी-कभार ही बन पाती हैं। अच्छा से अच्छा व्यवसाय करनेवाली फिल्मों की उम्र भी कुछ सप्ताहों की ही रहती है।
भूमण्डलीकरण में हिन्दी समाचारपत्रों के रूप और अन्तर्वस्तु में भारी बदलाव आया है। इसे खास तौर पर उन पृष्ठों पर देखा जा सकता है जो युवाओं से सम्बन्धित होते हैं। इन पृष्ठों की भाषा न केवल  'हिंग्लिश' हो गई है बल्कि इन पर मुद्रित शब्द कम होते जा रहे हैं और छायाचित्र बढ़ते जा रहे हैं। यह सम्भवत: इसीलिए हो रहा है कि शिक्षा के महंगे होते जाने और उसके स्तर के घटते जाने से, रोजगार के अवसरों के न बढऩे से और हर ओर व्याप्त भ्रष्टाचार से युवाओं में अवसाद पैदा हो तो ये छायाचित्र उमें जीवनेच्छा उत्पन्न करते रहें।
भाषा कोई पहनावा, व्यंजन या रीतिरिवाज नहीं है जिसे सुविधा, पसंद या दबाव के कारण बदल दिया जाए। हमारी भाषा हमारे मस्तिष्क और ध्वनियंत्र तथा हमारे सामाजिक परिवेश और ऐतिहासिक परम्परा का सघन और जटिल ढंग से गुथा हुआ रूप है। हम दूसरी भाषाएं सीख कर अपनी समझ और सक्रियता का विस्तार तो करते रह सकते हैं पर हमारी प्रथम भाषा का कोई भाषा स्थानापन्न नहीं हो सकती।
कभी मनुष्य जाति ने आह्लाद की स्थिति में, आपात परिस्थिति में, शत्रु को ललकारते हुए, शिशु को दुलारते हुए, क्रोध में बेचैन होते हुए, प्रकृति की लीला से विस्मित होते हुए मुंह से निकलने वाली ध्वनियों को अर्थ की एक प्रणाली में विकसित करने की शुरुआत की थी। इससे उसके मस्तिष्क में इस अभिव्यक्ति प्रणाली के लिए जगह बनी और निर्धारित रूप में ध्वनि उच्चार के लिए श्वसनतंत्र और मुखविर से मिलकर ध्वनियंत्र विकसित हुआ। धीरे-धीरे मानवमुख से निकलनेवाली ध्वनियों की विविधता बढ़ती गई और उनका अर्थ निर्धारित होता गया। हर कबीले के अपने ध्वनि उच्चार थे और इन ध्वनि उच्चारों के अपने अर्थ थे। इस प्रक्रिया में मनुष्य जाति ने भाषा जैसी चीज हासिल की।
बच्चा जब पैदा होता है तो उसके मुँह से केवल रोने की आवाज आती है फिर बच्चा अपने आस पास की ध्वनियों का सुनता है और भाषिक-ध्वनियों पर गौर करता है। धीरे-धीरे वह ध्वनियों के अर्थ को समझता है, उन ध्वनियों को उच्चारने की कोशिश करता है। एक दिन उसके मुंह से 'म्मा' 'आई' या 'मम्म' जैसी कोई ध्वनि उसके लिए निकलती है जो प्राय: उसके साथ रहती है और उसका ध्यान और दुलार करती है। उसी 'म्मा' के साथ बच्चा पहली भाषा सीखता है और वह उसकी मातृभाषा होती है। इस मातृभाषा को प्रारम्भ में ही दूसरी भाषा से मिलाना बच्चे के मनोमस्तिष्क को अनिश्चितता में डालना है।
भूमण्डलीकरण में मातृभाषा के अवमूल्यन से न केवल व्यक्ति की भाषा सामथ्र्य का ह्रास हुआ है बल्कि भाषा मात्र की सामथ्र्य घटी है। पिछले बीस वर्षों में एक ऐसी पीढ़ी आ गई है जिसके लिए उसकी मातृभाषा एक अपरिचित या अल्पपरिचित भाषा बन गई है। भूमण्डलीकरण में मातृभाषा से दूर होते जाने वालों की संख्या बढ़ रही है और उनकी भी जो अपनी मातृभूमि से कहीं दूर बस गए हैं या बसना चाहते हैं। आर्थिक सुधारों के समर्थक दोनों ही प्रवृतियों को भूमण्डलीकरण का सकारात्मक पक्ष समझते हैं। वे मानते हैं कि अपनी भाषा से और अपनी जमीन से जुड़ाव बीते जमाने से जुड़े रहने जैसा व्यामोह है। उनके अनुसार इस वैश्विक युग में कोई भी कार्यकुशल और महत्वाकांक्षी व्यक्ति विश्वभाषा के ज्ञान के सहारे कहीं भी अर्जन के अवसर प्राप्त कर सकता है। लेकिन क्या अपना देश छोडऩे की प्रवृत्ति सिर्फ एक आर्थिक परिघटना है?
भूमण्डलीकरण में व्यक्ति वैश्विक के स्थान पर और अधिक व्यक्तिवादी और आत्मकेन्द्रित होता जा रहा है। उसमें प्रारम्भ से ही यह समझ आ जाती है कि प्रगति की उड़ान में मातृभाषा गुरुत्वाकर्षण की तरह पृथ्वी पर पटक देने वाली चीज है। इसलिए वह अपनी मातृभाषा से दूरी बनाता है। यह दूरी उसे अपने लोगों से भी दूर करती जाती है और वह अपनों में बेगाना होने लगता है। यह कहा ही जाता है कि अपने लोगों के बीच में अजनबियों की तरह रहने से अच्छा है कि अजनबियों के बीच में अजनबियों की तरह रहा जाए।
भूमण्डलीकरण हमें हमारी मिट्टी और हमारी भाषा से ही नहीं बल्कि उन सब जगहों से दूर ले जा रहा है जहां जिन्दगी होती है। अनन्त सम्भावनाओं से भरा यह भूमण्डल प्रौद्योगिकी के प्रदर्शन-प्रांगण में लगे माया बाजार में बदलता जा रहा है। खुली आँखों, मजबूत मन और जीवन तथा जगत् के प्रति उत्साह से ही इस स्थिति का सामने सा सामना किया जा सकता है।





प्राय: भूमंडलीकरण की तीव्र प्रक्रिया और उसके परिणामों के बारे में अध्ययन करते हुए आर्थिक पहलू तो बार-बार उभरता है पर हमारी भाषाओं पर उसका जैसा बर्बर हमला है उसे नज़र में नहीं रखा जाता। अरुण कुमार ने भूमंडलीकरण में भाषाओं के साथ होने वाली त्रासदी का विशद विवेचन किया है।


Login