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नवम्बर 2016

दूधनाथ सिंह की डायरियाँ

नेमिचंद्र जैन

डायरी





एक अधम पछतावे में डूबा हुआ हूँ। अभी (पाँच बजे शाम) पं. जगन्नाथ पाठक को फ़ोन किया तो उन्होंने ख़बर दी, 'नेमिचन्द्र जी नहीं रहे। आज सुबह देहावसान हो गया।' जैसे किसी ने लोहे की जलती सलाख़ छाती में घुसा दी हो।
मैंने पिछले साल जाड़े में शिमला से उन्हें फ़ोन किया था। रेखा जी ने उठाया। नेमि जी को दिया। वैसे ही प्रसन्नचित्त, हल्के-फुल्के। मैं कल्पना कर रहा था, चेहरे पर वही हल्की-सी मुस्कुराहट तैर रही होगी। मैंने अपने काम के बारे में बताया। बहुत खुश। मैंने कहा, मैं दिसम्बर में आऊंगा। मेरी बहुत सारी 'क्वैरीज़' हैं। आपसे पूछना है। उन्होंने वैसे ही प्रसन्नचित्त भाव से कहा, 'आओ-आओ'। मैंने उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछा। उन्होंने कहा, 'अब जिस उम्र में हैं, उसमें क्या अच्छा, क्या बुरा।' कहकर वे फ़ोन पर हँसे।
मुक्तिबोध पर जो 'नोट्स' मैंने लिए हैं - ख़ासकर भाग-6 के पत्रों के बारे में, अधिकांशत: जिज्ञासाएँ उन्हीं के बारे में थीं। 'क्वैरीज़' के बगल में घसड़-पसड़ 'स्टार' बनाकर पृष्ठ के पीछे लिखा है, 'नेमि जी से पूछना है।' फिर मैं फरवरी में दिल्ली गया। फ़ोन किया तो उनकी बहू ने उठाया। जितनी बार फ़ोन किया नेमि जी या रेखा जी से बात न हो सकी। वे लोक आराम कर रहे थे - ख़ासकर सुबह। रश्मि जी को फ़ोन किया, 'नटरंग प्रतिष्ठान' का पता और फ़ोन लिया। नेमि जी के बारे में पूछा। रश्मि ने बताया, 'कमजोरी है'। वह तो होगी। मुझे शिमला में ही पता चल गया था। अशोक को फ़ोन किया तो बताया, 'सांस लेने में तकलीफ़ हो रही थी, नर्सिंग होम में भर्ती हैं।' बाद में पता चला हल्का हार्ट अटैक था। मैंने माथा पकड़ लिया। मान लो मैं गया होता, और जैसी कि फ़ोन पर योजना बनी थी, मैं एकाध हफ़्ते उनके साथ, उनके घर पर ही रहूंगा। बातें होंगी। बिना किसी प्रसंग के और उस प्रसंगांतर में से ही बहुत सारी बातें निकलेंगी। मैं नोट करता जाऊँगा। कभी स्मृति से, कभी सामने... जैसा भी बन पड़ेगा। फिर मैंने सोचा कि उससे अच्छा होगा, अपनी 'क्वैरीज़' के इर्द-गिर्द मैं कुछ सवाल बनाऊँ और उन्हें 'टेप' कर लूँ। क्योंकि हिन्दी वालों में नेमि जी मात्र एक ऐसे आदमी थे, जो बेलाग, अटूट 'सच' बोलते थे - न ज़्यादा, न कम। न कल्पना का अंश, न कोई संरचनागत हेर-फेर। ना, बिल्कुल नहीं। निख़ालिस, ठांठ, तथ्यपरक सच। बढ़ाने-घटाने में उनका कतई विश्वास नहीं था। अन्दर से बहुत कोमल - सरल, सौम्य - सामान्य, बिना लाग-लपेट, दुनिया देखे हुए, अनुभव सम्पन्न मुस्कुराते हुए चुप, लेकिन अपनी बात कहने में सख़्त, कठोर, निर्भीक, निद्र्वन्द्व। 'तार सप्तक' के आन्तरिक तथ्यों के बारे में जो उन्होंने लिखा, 'कविता के नये प्रतिमान' की जो उन्होंने पहली समीक्षा लिखी, उपन्यासों के बारे में उनके लेख, पत्रोत्तरों में मुक्तिबोध की छटपट और उनकी सख़्त-नर्म चुप्पी - ये सारी बातें उनके बारे में एक ऐसे पेचीदा, अहम्मन्य आदमी का चित्र खींचती थीं, जैसे वे बहुत रुक्ष, निष्करुण और आत्म-ग्रस्त हों। जबकि ऐसा बिलकुल नहीं था। कारण था कि वे दिखावा बिल्कुल नहीं करते थे। उनकी चुप्पी और आन्तरिक कोलाहल-भरी प्रशान्ति कुछ-कुछ वात्स्यायन की याद दिलाती थी। लेकिन वे बिल्कुल ऐसे नहीं थे। लोगों का संग-साथ उन्हें पसन्द था, लेकिन बहुत ज़्यादा नहीं। जब मुझे आज उनके न रहने की ख़बर मिली, और उसके पहले जब उनके 'हार्ट-अटैक' की ख़बर मिली थी तो मुझे लगा था, मैं बाल-बाल बचा। मान लो 'हॉर्ट अटैक' के पहले मैं गया होता, उन्हें बोलने और बात करने के लिए उकसाता, बाध्य करता (गप्प तो उनसे लड़ाई नहीं जा सकती थी।) साक्षात्कार लेता, उनकी स्मृतियों को कुरेदने और घायल करने की कोशिश करता - और उसके बाद वे बीमार पड़ जाते तो? तब तो यह अधम पछतावा अधमाधम हो जाता। क्योंकि यह पछतावा क्यों है? क्या अपने स्वार्थ के कारण? क्या इसलिए कि मैं अपनी परियोजना की 'क्वैरीज़' को पूछ-पाछ नहीं सका?
नहीं। वह काम तो मैं ऐसे भी कर सकता था, कर सकता हूं। अधम पछतावा इसलिए है कि फ़रवरी में अपने दिल्ली प्रवास के दौरान मैं जा सकता था। लेकिन अब तो मैं भी बूढ़ा हो रहा हूँ। मेरे पास दिल्ली में कोई वाहन नहीं होता, कोई 'लिफ़्ट' नहीं मिलती। दूरियाँ और हड़बोंग और शोर और पुरानी दिल्ली और जमुना-पार की कमर तोड़ सड़कें, भीड़ का वीरानपन, भौंचकपन, मेरे जैसे आदमी के हाथ-पाँव फूलने लगते हैं। लेकिन फिर भी मैं ऑटो लेकर जा सकता था। अन्त में मैंने मुरली बाबू और रेखाजी से कहा कि 'रात आप लोगों के यहां बिताऊंगा, वहां से प्रीत विहार (नेमि जी का घर) नजदीक है, आप लोग मुझे छोड़ देंगे। यह मानकर चल रहा था कि 'क्वैरीज़' जॉय भाड़ में, उन्हें एक बार देखने ज़रूर जाना चाहिए। फिर मैं 16 फ़रवरी के बाद अपने बड़े बेटे के पास डी.एल.एफ. (गुडग़ांव) चला गया। वहाँ से जाना और दूभर। इसमें दो कारण थे - सघन आलस्य और हृदयहीनता और अपने बड़े पोते के प्रति गहन आसक्ति। वह मिनट भर को भी छोडऩा नहीं चाहता था। कुल मिलाकर यह मेरी क्षुद्रता है, जिससे मैं नहीं जा सका। अब क्या है, जिसे स्वीकार करने में संकोच हो।
वे बड़े आदमी थे। उन्होंने हमारी पीढ़ी से ज़्यादा संघर्ष किया था। मुक्तिबोध के पत्रों से उनके संघर्ष, उनकी भटकन, उनके चुप और निर्णयों का पता चलता है। वे कम्यूनिस्ट रहे तो पूरी तरह कम्यूनिस्ट रहे। नहीं रहे तो कभी उसके बारे में बात नहीं की। वे बिना आस्था के कोई काम नहीं करते थे। संकोच और मजबूरी को उन्होंने कभी अपने पास फटकने नहीं दिया। जब मैंने 'यमगाथा' नाटक लिखा और जब वह 'संगीत नाटक एकेडमी' की तरफ़ से 'मेघदूत' में खेला गया तो उन्हीं दिनों मैं उनके पास (जंगपुरा एक्सटेंशन वाले घर में) गया। मुझे उनके अध्ययन कक्ष बैठक में बैठा दिया गया। मैं उनके काम करने का सलीका, ढंग-ढंगार देखकर दंग रह गया। इतना चुस्त-दुरुस्त कमरा। हर चीज़ साफ़-सुथरी। करीने से लगी हुई। वे नहा-धोकर कमरे में आये। कोई सहायक काम कर रहा था। मैंने सोचा, जो आदमी अब नौकरी में नहीं है, कविता लिखना बन्द कर चुका - केवल 'नटरंग प्रतिष्ठान' - उसके पास इतना काम, इतनी व्यस्तता। और फिर छोटों के लिए इतना समय, और प्रेम और नर्म दिली। ...वे आकर बैठे, मुस्कुराये और फिर मेरे नाटक को लेकर बड़ी सख़्त भाषा में मुझे डांटना-समझाना, उसकी कमियां निकालनी शुरू कीं। 'कोष्टकों में इतना ज़्यादा 'निर्देशन' लिखने की क्या ज़रूरत थी? तुम क्या समझते हो, निर्देशक और अभिनेताओं को कुछ नहीं आता? वे अपने 'कोष्टकों' पर चलेंगे, तुम्हारे नहीं। और फिर प्रवचन देने की आदत तुमने कब से सीख ली? नाटक में क्षिप्रता ग़ायब है। चरित्र हैं। गति के बिना कुछ नहीं होगा। लेकिन फिर भी। कुछ ऐसा ही कहा। ठीक ठीक कुछ याद नहीं। मैं लगातार नाट्य-संरचना के बारे में उनकी कही गयी बातों को डायरी में घसीटता रहा। फिर उन्होंने कहा, 'अपना नाटक रोज-रोज़ देखो, क्योंकि वही नाटक रोज-रोज मंच पर बदल जाता है।'
कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनका न होना गड़ता है। एक फाँस की तरह। वे ऐसे होते हैं जिनके न होने से ऐसा लगता है, अब वैसा कोई और नहीं होगा।
मुझे न मिल पाने के इस पाप से कौन क्षमा करेगा?
और क्यों करेगा?


24.03.2005
                                                                फिर शिमला

आज बेटिना बुमर का जन्म दिन था। गेस्ट हाउस के लॉन पर 'हाइ-टी' और फिर मेरे अध्ययन-कक्ष (110) के बगल वाली बड़ी बैठक में बाँसुरी-वादन, गायन और कत्थक का कार्यक्रम। बाँसुरी-वादन कदम्ब के वन में नहीं, देवदारु-वन में था। कमरे के अर्ध-चन्द्राकार के बाहर एक देवदारु हवा में हिल रहा था। उसके बगल में सोडियम लाइट थी। जब अंधेरा हो गया तो सिर्फ सोडियम लाइट दिखती रही, देवदारु, सप्तपर्णी और बांज और बुंरुश के लाल फूलों वाले पेड़- वन- अंधेरे की धुंध में खो गये।.... मैं एक बजे तक क्रिकेट मैच देखता रहा। मुझे लगा कि तेंदुलकर को अब नहीं खेलना चाहिए। हालांकि उसने शतक बनाया। फिर उसने बायें हाथ का दस्ताना निकाला। उसकी उंगलियां ऐंठ गयी थी। वह उन्हें झटके देता रहा। फिर उसकी जांघों में, घुटनों में हर तरह 'क्रैम्प्रस' पडऩे लगे। वह लंगड़ाने लगा। वह झुककर, पोज़िशन लेकर, आगे बढ़कर, घुटनों के बल बैठकर-यानी जैसी कि अद्भुत उनकी खेलने की कला है - नहीं खेल सकता था। फिर उसने 'रनर' लिया। वह खड़े-खड़े खेलता रहा और फिर 'आउट' हो गया। फिर मैं संस्थान गया। वहां अपनी कहानी 'शव परीक्षा' में हेर-फेर करता रहा। आत्मघात के तर्क को मज़बूत करता रहा। वह दो युवकों (लड़का-लड़की) की प्रेम कथा है। लेकिन सिर्फ इतना ही नहीं है। मैं 'डिप्टी-कलक्टरी' के आगे की दुनिया के बारे में कुछ कहना चाहता था। फिर मैं कॉफ़ी पीने नीचे रेस्त्रां तक गया। वहां से बाबू (जयप्रकाश) को फ़ोन किया कि किताबें भिजवायी या नहीं। तभी उसने बताया - 'राम कमल राय नहीं रहे'।
बेटिना का जन्म-दिन। उत्सव। राग-रंग। खान-पान। देवदारु की घाटियां। राष्ट्रपति निवास। संध्या। सन्नाटा, राम कमल जी का मृत्यु-दिन। रवीन्द्रनाथ कहते हैं:
आमार जन्म-दिन
आर मृत्यु दिन
मुखो-मुखी...।
याद नहीं आ रही है पूरी कविता।
ठीक है, ठीक है, याद आने की बहुत ज़रूरत भी नहीं।
जैसे पाले में फसलें नष्ट होती हैं, उसी तरह इलाहाबाद में हमारे मित्र-गण पटापट, एक के बाद एक मर रहे हैं। कॉफ़ी हाउस का समाज नष्ट हो गया। अब केवल हम तीन - चार लोग बचे हैं - मार्कडेय, सत्यप्रकाश, नीलाभ और मैं। छोड़ो यार!
12.04.2005

                                                  वुड-फील्ड

आज शाम को टहलकर लौटते हुए 'उच्च अध्ययन संस्थान' के फाटक से थोड़ी दूर पर बांयें हाथ उतरने वाली सड़क पर हो लिया। उस पर 'दीपक कैंटीन' है; आगे चलकर 'पेंट हाउस' है; कोई 'मुसाफिर' है, जो इस वक्त विधानसभा के स्पीकर हैं, उनका बंगला है। लेकिन उससे थोड़ा पहले मोड़ के पास एक बड़ी-सी लोहे की प्लेट लगी हुई है। उस पर हिन्दी और अंग्रेज़ी में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के यहाँ निवास करने के बारे में लिखा है। थोड़ा नीचे वह जर्जर, गिरता-पड़ता कॉटेज है, जिसमें गुरुदेव 1893 में अक्टूबर-नवम्बर दो महीने रहे। फिर उनके बड़े भाई सत्येन्द्रनाथ टैगोर ने आठ महीने के लिए 'वुड-फ़ील्ड' को किराये पर लिया। ज्योतिरिन्द्रनाथ ठाकुर भी रहे। रवीन्द्रनाथ ने 'सोनार तरी' की आठ कविताएं यहीं लिखीं। सड़क से कॉटेज तक जाने के लिए ऊबड़-खाबड़ सीढिय़ां उतरती हैं। मैं नीचे उतरा। ऊपर से ही घर की जर्जर हालत का पता चल रहा था। छत की टिन में सैकड़ों टिन के पैबन्द लगे हैं। टिन मोर्चा खाये हुए हैं, और लगता है, जब से गुरुदेव गये उस पर रंग-रोगन नहीं हुआ, उसकी मरम्मत नहीं हुई। सीढिय़ों से उतरते वक्त पीछे की खिड़कियाँ दिखाई दीं। खिड़कियों के समानान्तर लगे एक तार पर कुछ साधारण-सामान्य ढंग के उल्टे-सीधे कपड़े सूख रहे थे। नीचे उतरने पर थोड़ी चौरस जगह थी। पीछे यानी पच्छिम की ओर एक ख़ूबसूरत, लिपा-पुता, चमकता दोतल्ला काटेज था। उसमें जीवन था। मुझ अजनबी को नीचे उधर-उधर झांकता देख उस कॉटेज का दरवाजा खुला और दो छोकरे ज़ोर से हँसे। मैंने 'वुड फ़ील्ड' को ध्यान से देखना शुरू किया। दीवारों के पलस्तर खिरे हुए और भहरा कर गिरने को थे। दक्खिनी दीवार की नींव की सीमेंट से ताजा-ताज़ा मरम्मत हुई थी। उस दीवार के बाद जो बड़ा-सा हरे रंग से पुता फाटक था, वह बन्द था और उस पर दो सफ़ेद-चमकते हुए, बड़े-बड़े ताले  लगे थे। आगे बढऩे पर कॉटेज का जो सामने वाला लम्बा चौड़ा बरामदा था, उसके शुरू में ही टिन और झकाड़-कबाड़ से घेर रखा गया था। इसका मतलब कि उधर प्रवेश मना था। बरामदा साफ़-सुथरा, चिकना था। कहीं-कहीं पलस्तर उखड़ गया था या उसमें दरारें पड़ गयी थीं। बरामदे में दो बजे तक धूप रहती होगी और गुरुदेव अपना लम्बा झंगूला पहने हुए वहां बैठते होंगे।
उन लड़कों ने अपनी कॉटेज का दरवाज़ा फिर खोला और हँसे। 'वुड फील्ड' के बरामदे या परिसर में भी कोई आदमी नहीं दिखाई दिया। हां, बरामदे में भी तार पर कपड़े फैले थे। जब मैं लौटकर सीढिय़ां चढऩे लगा तो पीछे की खिड़कियों में से किसी कूकर की सीटी की आवाज़ सुनाई दी। इस बीच उन लड़कों ने अपनी कॉटेज से अल्शेसियन छोड़ दिया। वह सीढिय़ों के नीचे तक भौंकता हुआ आया। बाद में मैं जब उस कॉटेज के बगल से बालूगंज की ओर जा रहा था तो वह कॉटेज के ऊपर वाले तल्ले से मुझे देखकर भौंक रहा था। वे दोनों लड़के 'वुड फील्ड' के उस बरामदे के छोर तक गये, जहां मैं खड़ा होकर बरामदे की ओर झांक रहा था। वे सम्भवत: किसी को आवाज़ दे रहे होंगे। उन्हें यह बताना होगा कि 'कुर्ता-पायजामा पहने, सफ़ेद दाढ़ी वाला एक बूढ़ा आदमी यहां आया था और झांक रहा था।' काश, कि वह गुरुदेव का भूत होता।
मैं टहलता हुआ निकल आया।
हम अपनी विरासत के प्रति अभी भी सचेत नहीं हैं। ठीक है भई, लमही वाला प्रेमचन्द का घर ढह जाने दो, लेकिन 'जोड़ा-सॉको' तो सुरक्षित है। पता नहीं, सियालदह वाला गुरुदेव का घर सुरक्षित है अथवा नहीं, लेकिन 'शान्ति निकेतन' तो अभी बचा हुआ है। ए.एस.आई. के लोग 'राष्ट्रपति निवास' के पीछे तो बहुत पड़े हुए हैं, 'वुड फील्ड' के बारे में कुछ नहीं जानते। हिमाचल के लिए यह गर्व की बात है - यह जर्जर-गिरता-पड़ता, ध्वस्त-प्राय 'वुड-फ़ील्ड', जिसमें न जाने कौन लोग डेरा जमाये हुए हैं। कोई भी हो, सरकार तो इसका अधिग्रहण कर सकती है। यहां इतनी बड़ी काली बाड़ी है। मॉल जाते हुए बंगाली सड़क से लगी उसकी दीवार छू-छू कर प्रणाम करते हैं, लेकिन 'वुड फील्ड' के बारे में कोई नहीं सोचता।
यहां सब कुछ विनाशशील है।
स्मृति को भी संजोकर रखने की कोई ज़रूरत नहीं।
स्मृति-चिन्ह भी निरर्थक हैं।
सबकुछ नाशवान और सब कुछ अनन्त। सब कुछ एक क्षण और सब कुछ शाश्वत।
01.05.2005

                                                  एकेडमिक ब्यूरोकेसी

हिन्दी में इसके लिए क्या शब्द होगा? 'बुद्धिजीवियों की नौकरशाही'? नहीं ठीक लगता। मैंने बहुत सोचा। 'बुद्धिजीवी नौकरशाही' - बिल्कुल नहीं। बहरहाल, आज़ादी के पहले ऐसा नहीं था। आज़ादी के पहले भारतीय भाषाओं का साहित्य, अमृता शेरेगिल, नंदलाल बोस, राम किंकर, यामिनी राय के चित्र, मूर्तियाँ - सब प्रतिपक्ष की कलाएँ थी। लेकिन आज़ादी के बाद, सत्ता, संसद और संस्थानों के संग-संग एक 'एकेडमिक ब्यूरोक्रेसी' का नया तबका भी धीरे-धीरे विकसित हुआ। 'शांति निकेतन' एक प्रतिपक्ष का संस्थान था। 'हिन्दी साहित्य सम्मेलन' एक प्रतिपक्ष था। लेकिन आज़ादी के बाद जितने संस्थान बने - ललित कला अकादमी, साहित्य अकादेमी, आई.सी.एच.आर., आई.सी.पी.आर., नेशनल बुक ट्रस्ट, केन्द्रीय हिन्दी कला, साहित्य धर्म, सम्प्रदाय, भाषा, समाज-विज्ञान, विज्ञान-केन्द्रीय या प्रांतीय-सारी संस्थाएं, सारे संस्थानों ने इस 'एकेडमिक ब्यूरोक्रेसी' को जन्म दिया। इनमें भर्ती होने वाले, काम करने वाले वे लोग थे जो सत्ता की नज़र में अपने-अपने क्षेत्रों के उच्चकोटि के विद्वान, जाने-माने लोग थे। उनको भारतीय बौद्धिक उच्चताओं के अध्ययन संग्रह, सम्पादन में कार्यरत किया गया। शुरू में एक माहौल बना, एक उत्साह, एक समर्पण इन 'एकेडमिक ब्यूरोक्रेट्स' में भी था। ...लेकिन फिर धीरे-धीरे इस 'ऐकेडमिक ब्यूरोक्रेसी' का पतन और क्षय होना शुरू हो गया। अब इन संस्थानों में वे लोग भर्ती किये जाने लगे जिनका मानसिक स्तर कामचलाऊ था और  जो राजनीतिज्ञों के चमचे या चिपक्कू लोग थे। ये लोग सारी पार्टियों में थे (और हैं) और वे लोग अपनी बुद्धि के बल पर नहीं, बल्कि राजनीतिज्ञों की चमचागिरी और उनके पार्टी कैलेण्डर के अनुसार काम करते हैं। सत्ता और संसद में बदलाव आते ही यह 'एकेडमिक ब्यूरोक्रेसी' भी आमूल चूल बदल जाती है, पुराने चमचों की जगह नये चमचे स्थापित हो जाते हैं और पिछले गर्हित (या अगर्हित) कार्यों की निंदा करते हुए वे नयी पंचवर्षीय, त्रिवर्षीय योजनाएं बनाते हैं। उनके नीचे और भी घटिया, कमीने, स्वार्थी, हीनतर लोगों का एक झुंड इकट्ठा हो जाता है, जो उनका समर्थन करते हैं और बदले में पोषण पाते हैं। ...इस तरह अन्तत: कुछ घटित नहीं होता। गिरावट को उसी तरह पिछली 'एकेडमिक ब्यूरोक्रेसी' पर थोप दिया जाता है, जैसे कि नई सरकारें पिछले राजनैतिक दुष्कर्मों को पिछली सरकारों के मत्थे मढ़ कर मुक्त हो जाती हैं। इस तरह गिरावट, पतन का यह सिलसिला लगातार जारी रहता है। सब कुछ क्षयिष्णु और पतन की ओर उन्मुख हैं। कुछ भी महत्वपूर्ण और स्थायी काम का घटित नहीं होता। साहित्य और कलाओं की दुनिया का एक भीड़-भरा साप्ताहित बाज़ार है, जिसमें ख़रीद-फ़रोख़्त, भाव-ताव, गर्जन तर्जन, अच्छाई-बुराई का धकापेल शोर गुंजार है। इसमें कुछ भी सुनाई नहीं पड़ता। अच्छे लोग जो बाहर हैं, वे अनाम और तिरोहित हैं या उन्हें भुला दिया जाता है, या उनका कोई अर्थ नहीं है। ऐसे लोग या तो उदासीन निरपेक्ष, चुप है या गुस्से से तपड़ते हुए आत्म-निर्वासन या मृत्यु के पंजे में है। अगर कोई जीना चाहता है और बाज़ार में बैठता है तो उसकी हालत वही है जिसके लिए ग़ालिब ने कहा था, ''मैं यूसुफ़े ब-कीमते-अव्वल ख़रीदा हूं।'' ऐसे लोग पहली बोली पर बिकने के लिए तैयार हैं क्योंकि ज़िन्दा रहने का सवाल है। वे अपनी 'बिडिंग का इंदजार नहीं करते-नहीं कर सकते, क्योंकि जीवन-मरण का सवाल है। हमारे सामने ही हज़ारों लोग ऐसे हैं, जिनके दाँत गिने जाते हैं, पसलियों और घुटने टोये जाते हैं, फ़र्माबरदारी की परीक्षा ली जाती है, उसकी स्वतंत्र चेतना और अन्तर्मेधा को निर्ममतापूर्वक कुचल दिया जाता है और उनके ऊपर यह निर्मम, क्रूर, उजड्ड लेकिन ऊपर से सुसंस्कृत, महान 'एकेडमिक ब्यूरोक्रेसी' राज करती है। क्या मैं उन्हीं पहली बोली पर बिक जाने वाले 'यूसुफ़' की तरह बाज़ार में नहीं बैठा हूँ? मेरे होने का कोई अर्थ नहीं है। मेरे सोचने, लिखने की खिल्ली उड़ाई जाती है। कोई अदना-सा 'एकेडमिक ब्यूरोक्रेट' भी अपने नाख़ूनों और दाँतों से मेरी हत्या कर सकता है। मैं जीने के लिए इस नयी गुलामी को इस वृद्धावस्था में स्वीकार कर रहा हूं। मैं अब अन्तत: एक नीचे, पतित, गिरा हुआ, परतंत्र और परोपजीवी हूं। मेरे किसी भी उस काम का क्या अर्थ है, जिसको करते हुए मैं स्वाधीन और मुक्त नहीं महसूस कर सकता?
लेकिन उन लोगों के चेहरे देखिये और उनकी बातें और उनके रखरखाव! उनके दुष्लाप, उनकी बहसें, उनके चेहरों पर आत्मविश्वास, उनकी दैनिक निश्चिंतताएं, उनके रोग-शोक, उनकी चाल, उनकी नौ मन की धोबिनें, उनके शिकार करने के ढंग, उनके निर्णयों और निष्कर्षों के विष-बुझे तीर-कमान - यानी उनकी दिल दहला देने वाली हैसियत। उनकी चुप-चुप कारगुज़ारियां, उनकी निश्चिन्त नींद, उनके अस्पताल, उनकी जेबों में आराम से पड़े हवाई जहाजों के टिकट, उनके चिकने-चमकते ललाट - उनका ईश्वरीय आत्मविश्वास...।
इस तरह शब्दों और रंगों और छेनी-हथौड़ी के क्षेत्र में एक धूसर चिंचियाहट का विकास पिछले दिनों हुआ है। जो कल तक 'अपनी धार' का ऐलान करता था, वह आज का हँसता हुआ, चिकना चुपड़ा, कोमल शब्दों में अपनी कोमल आवाज़ का विकास करता हुआ 'एकेडमिक ब्यूरोक्रेसी' का एक सदस्य है - सुखी और निश्चिन्त। और अपनी शर्तें डिक्टेट करता हुआ। ऐसे लोगों के सामने अगर अब तुम चुप भी रहो, तब भी कोई फ़र्क उनके लिए नहीं पड़ता। क्योंकि पहले तुम अपना अकड़ूखौपन प्रदर्शित कर चुके हो। तुम अब संदेहास्पद पात्र हो। तुमसे घरेलूपन, मित्रता विकसित नहीं की जा सकती। तुमसे मात्र औपचारिकता बरती जा सकती है और तुम्हें सलीके और सुसंस्कृत ढंग से मारने का इंतज़ाम और इंतज़ार किया जा सकता है। इससे ज़्यादा कुछ भी नहीं।
धीरे-धीरे इस साप्ताहिक बाज़ार में भीड़ बढ़ रही है। कनफोड़ू शोर है। घंटियों की आवाज़ सुनाई नहीं पड़ती। षडज़ का कहीं पता नहीं। लूटपाट का माहौल है। और फिर रात, सन्नाटा, संस्कृति का कूड़ा-कचरा जो अंधेरे और धुंध में पैरों के नीचे अपना अहसास कराता है। कचर-कचर, कुचलते हुए तुम किसी साफ-सुथरी पगडंडी, किसी सर्पीली पगडंडी की खोज में हो, जो भोले-भाले लोगों के चलने से बनी हो। जिस पर सिर्फ महकती हुई धूल हो और पैरों के धंसे हुए निशान और आजू-बाजू घास और पेड़ और हवा और जीवन। तो चलो उधर ही कहीं चलते हैं।
19.05.2006

                                       अनूप सेठी और डायरेक्टर के घर की सड़क

आज फिर उस पतली-सी सड़क से गुज़रे। अनूप न होता तो शायद उधर जाना न होता। नीचे गहरी हरीतिमा से भरी... शायद पाताल लोक तक जाती वह घाटी। और बायीं तरफ़ ऊपर भी उसी तरह की घनी हरियाली। हल्की-हल्की बूंदाबांदी थी। और घाटी से हरहराती आवाज़ में चलती हुई ठण्डी, पारदर्शी हवा। हमने अपने छाते खोल लिये थे और कुछ इधर-उधर का बातें करते चले जा रहे थे। इक्के-दुक्के लड़के-लड़कियों के जोड़े - उस एकान्त सड़क पर टहलते हुए। वे एकान्त और निरापदता के कारण इधर आते हैं। क्या इतनी स्वच्छ, चमकती हुई हवा की कल्पना दिल्ली या इलाहाबाद - या किसी भी नीचे के शहर, गांव या कस्बे या मैदान या जंगल में की जा सकती है? नहीं। यह दुर्लभ है, अलभ्य है, अकल्पनीय है। और इतनी सघन हरियाली और झूमते हुए वृक्ष... ओह्, स्वर्ग की इससे बेहतर कोई कल्पना नहीं की जा सकती। दिल्ली का कोई खरबपति भी ऐसे नहीं रहता, जैसे यहाँ राष्ट्रपति निवास, शिमला के इस परिसर में हम रहते हैं। अकबर, अशोक और औरंगज़ेब ने इसकी कल्पना तक नहीं की होगी। हम आजकल बादशाहों के बादशाह हैं। हम कुछ नहीं करते, सिर्फ गप्प लड़ाते हैं, घूमते-फिरते और सोते हैं। िफलहाल हमारे ऊपर किसी का भी शासन नहीं है और हम किसी के भी मोहताज नहीं हैं। कुछ दिनों बाद मुंनेकर हमसे हमारी बादशाह छीन लेगा और फिर हमें हिन्दुस्तान के उसी गर्द-गुबार, दैन्य और चिलचिलाती धूप और भड़भड़ के नरक में डाल देगा। एक कागज़ की एक लात और नारकीय गर्म खड्ड में नीचे की ओर धप्प से, बिना किसी सहारे के। ....मैं सोचता हूं कि जब मैं यहाँ से जाऊँगा तो मेरी लिखी उस अन्तिम डायरी का शीर्षक होगा - 'स्वर्ग थेके विदाय' हो सकता है विदा लेते वक्त मैं कुछ भी न लिखूं।
अनूप (अनूप सेठी) से मेरी मुम्बई में 1996 में मुलाकात हुई थी। वह किसी बैंक में था। हम 'कफ़ परेड' के 'लॉर्ड-बी' के चौथे माले पर रहते थे। मेरा बेटा उन दिनों आईटीसी में था और उसको यह घर मिला था। बाकी तो वहाँ करोड़पति लोग रहते थे। टाटा, बिरला, अम्बानी... सभी वहाँ समुद्र के किनारे। मैं रोज़ शाम को समुद्र के किनारे 'कोलाबा गार्डेन्स' में घूमने जाता था। वहाँ मेरीन ड्राइव की बत्तियाँ और चँदोवे की तरह घूमता और चीख़ता समुद्र। सभी-कभी उसमें सूरज की टूटी हुई आईने की झलमलाती चँर्दिम्ली किर्चें। कभी-कभी लाल ख़ून। कभी-कभी बुद्ध का चीवर। और कभी-कभी खूंखार भगवा रंग। फिर रात और अंधेरा और गरजता हुआ समुद्र। 'ब्रीच कैंडी' में उन्हीं दिनों छोटू (पलाश) पैदा (31.1.96) हुआ था और अस्पताल के टेरेस से समुद्र की काली चट्टानों के छोर पर बैठे हुए एक आदमी को मैंने पहली बार मोबाइल फ़ोन से बात करते हुए देखा था। एक बड़ा-सा मोबाइल। मैंने आश्चर्य से सोचा था कि यह कैसे सम्भव है कि एक आदमी काली चट्टानों के आखिरी छोर, जहाँ से समुद्र शुरू होता था, वहाँ बैठकर दुनियां के किसी घर में बैठे (या बैठी) किसी दूसरे से बात कर सकता है? लेकिन कुछ ही वर्षों में सैम पित्रोदा ने क्या कमाल कर दिखाया। आज सब्जी के ठेले पर भी सब्जीवाला मोबाइल लापरवाही से डाले रहता है। चौबीसवें माले पर रहने वाली औरत से वह फ़ोन पर आर्डर लेता है और लिफ़्ट से सब्ज़ी डिलिवर करने जाता है।
बैंक के ऑफिस में ही अनूप से मिलने मैं दो-चार बार गया था। मेरे साथ कौन होता था, मुझे याद नहीं। अनूप उन दिनों क्लीन-शेव्ड होता था। कुर्सी पर बैठे उसकी लम्बाई का अन्दाज़ा नहीं होता था। लेकिन वह एक गोरा, ख़ूबसूरत नौजवान था। वहीं बैठे-बैठे एक बार पीछे से झूमते हुए, लम्बे-घने काले केशों वाले सुरेन्द्र वर्मा को मैंने देखा। सुरेन्द्र से मेरी वह पहली भेंट थी। हालाँकि मैं उसका फ़ैन था। 'आठवां सर्ग, नायक खलनायक' विदूषक, मैं पढ़ चुका था। वह मार्कण्डेय से मिलने कभी-कभी इलाहाबाद आता था। वह यूनिवर्सिटी (इलाहाबाद) में मेरी पत्नी का सहपाठी था। सुरेन्द्र की आवाज़ उन दिनों बिल्कुल पतली हो गयी थी। कोई गले का ऑपरेशन हुआ था। वह अकेले (या शायद अपनी माँ के साथ) रहता था। मैं उसके चिड़चिड़ेपन, उसकी घायल आवाज़ और उसके तीखे, उपहास करने वाले, कटखौने अंदाज़ से डर गया। न जाने वह कब, क्या बोल दे। हम दोनों बाहर निकले तो सुरेन्द्र ने चर्च गेट के पीछे वाले रेस्त्रां में चाय पीने का प्रस्ताव किया। हम दोनों फ़ुटपाथ पर चलने लगे। बहुत कम बोलते हुए। तभी अपनी सुइयों जैसी आवाज़्ा में सुरेन्द्र ने अपने गले के ऑपरेशन के बारे में बताया। मैं जानता था कि रवीन्द्र वर्मा उसके बड़े भाई हैं। अचानक मैंने रवीन्द्र के बारे में पूछा। सुरेन्द्र वर्मा ने पलटकर गुस्से से मुझे देखा, फिर बोला, 'जाइए मैं आपके साथ चाय नहीं पिऊंगा- जाइए।' और वह ख़ुद पलटकर दूसरी ओर चला गया। मुझे कुछ समझ नहीं आया। मैं भौंचक फ़ुटपाथ पर खड़ा। फिर मैंने एक टैक्सी को इशारा किया और 'कफ़ परेड' लौट गया।
अनूप सेठी से मिलने की और उसके ऑिफस की यह एक विचित्र-सी ऐब्सर्ड याद है। फिर उससे कभी भेंट नहीं हुई। उसके अनुवादों के माध्यम से उससे भेंट होती रही। फिर अचानक पता चला कि वह वहाँ, शिमला आया हुआ है। अनूप अगर अलग से मिलता तो, शायद मैं पहचानता भी नहीं अनूप ने अब दाढ़ी रख ली है, खसखसी और सुफ़ेद। बाल अभी भरे-भरे और लगभग काले हैं। तिकोना, ख़ूबसूरत गोरा चेहरा-भव्य। लम्बी और तगड़ी कद-काठी - लेकिन कोमलता और सहृदयता का आभास देती हुई। कुछ ऐसा व्यक्तित्व, जो किसी को नुकसान नहीं पहुंचा सकता, किसी पर रौब नहीं गाँठ सकता। निरापद और शान्त और निश्चिन्त-सा। कहीं थकान, घबराहट या जल्दीबाजी का आभास भी नहीं। कुछ-कुछ आनंद-प्रकाश की तरह का बोलना और हरकतें और पवित्र हँसी।
मैं उस रूपवती पतली, बल खाती सड़क से उसे छोडऩे डाइरेक्टर के घर तक गया। दो-तल्ला, खूबसूरत सन्नाटे से सन् सन् करता बंगला। फाटक बन्द था। िफलहाल उसमें कोई नहीं रह रहा। वह इतनी सुन्दर जगह है कि मन करता है कि इसमें अमर होकर रहें। पिछले साल डाइरेक्टर के साथ मशोबरा राणा साहब के महल में हम लंच के लिए गये थे। मैं और अफांसो। सुधीर भी था उस दिन 17 अक्टूबर, मेरा जन्मदिन था। मैंने सुधीर को बोल रखा था कि वह किसी से बताये नहीं। राणा साहब के यहाँ बहुत सारे अतिथि थे। महल के सामने वाले लॉन पर लोग इधर-उधर घेरा बनाकर बैठे पी रहे थे। उनमें राणा साहब के वह रिश्तेदार भी थे जिनकी लड़की के कारण नैपाल के राजा वीरेन्द्र के पूरे परिवार की हत्या हुई थी। हमारे लिए अपने आप में लड़की के उस पिता को देखना एक सनसनीख़ेज़ घटना की तरह था। वे बहुत सुन्दर थे, और बड़ी अच्छी अंग्रेजी बोल रहे थे। बिल्कुल किंग्ज़ इंग्लिश। राणा साहब के यहां चिकेन ख़ासतौर पर (सूखा चिकेन) बहुत अच्छा खाने को मिलता है। सारा ख़ाना ही बहुत अच्छा होता है। स्वादिष्ट भोजन किसे कहते हैं, यह देखना हो तो कभी राणा साहब के यहाँ खाकर देखो। उस बार सुरेशचन्द्र पांडे को भी डाइरेक्टर अपने साथ ले गयीं थीं। वे एक पवित्र शाकाहारी पंडित हैं। राणा साहब के यहां हर तरह का भोजन बनता है। वे अपने को शरणार्थी कहते हैं। राणाशाही और लोकशाही (कोइराला परिवार) की लड़ाई प्रसिद्ध है, जिसमें जनता ने अत्याचारी राणाओं को मार भगाया था। उस लड़ाई में हमारे प्रसिद्ध लेखक फ़णीश्वरनाथ रेणु भी पीठ पर वायरलेस सेट बाँधकर कोइराला परिवार के साथ लड़े, बीमार हुए और मरते-मरते लतिका जी द्वारा बचा लिये गये थे। राणा शमशेर जंगबहादुर कलकत्ते में रहते हैं और राणा जगदीश जंगबहादुर मशोबरा के इस जंगल वाले महल में। वहां से खा-पीकर हम लौटे तो पहले डायरेक्टर के साथ इस अपरूप घर में गये। जन्मदिन होने के कारण मुझे बार-बार बधाई के फ़ोन आ रहे थे। मैं ज़्यादातर 'शुक्रिया-शुक्रिया' बोलता या हंसता रहता। डाइरेक्टर के घर में जब एक ऐसा ही फ़ोन आया और मैं बात करने के लिए सामने लॉन में निकल गया तो अफ़ांसो ने सुधीर से पूछा। सुधीर ने संकोच में बता दिया। तब इस घर में मेरा उनहत्तरवां  जन्मदिन मना।
चलते-चलते बूंदाबांदी बन्द हो गयी तो हमने अपने छाते बन्द कर लिए। फाटक से बायीं और मुड़कर वह सड़क नीचे समरहिल और यूनिवर्सिटी की ओर उतर जाती होगी। वहां दो खम्बों में जड़ी एक मोटी-सी जंजीर लगी थी। यानी कि यह आम रास्ता नहीं है, और यहां से कोई गाड़ी ऊपर नहीं आ सकतीं। यह राष्ट्रपति भवन का इलाका है। हम दोनों (मैं और अनूप) वहीं खड़े हो गये और बातें करने लगे। मतलब अब मैं नीचे नहीं जाऊँगा। अनूप को समरहिल से भी नीचे की ओर फिर अपने घर- 'फ़ेलोज़ हाउस'। तभी पीछे से अफ़ांसे आ गया। उसने वहां से नीचे अपना घर 'रेड-स्टोन हाउस' दिखाया। अभी-अभी हम लोग अफांसो की स्टडी से कॉफ़ी पीकर निकले थे, अत: परिचय कराने की ज़रूरत नहीं थी।
लेकिन वह सन्नाटा खींचे बंगला, वह नीचे को जाती सड़क। एक ओर अतल तक जाती घाटियां, दूसरी ओर ऊंचे हरे पहाड़, उसके ऊपर कहीं बहुत ऊपर 'राष्ट्रपति निवास'। देवदारु और बॉज 'स्वर्ग थेके विदाय'- कब?
31.05.2006

                                                      बुडेलिया

कॉफ़ी बार के आगे की खुली पक्की जगह में, जहां मेज़-कुर्सियां और बड़े-बड़े रंगीन छाते लगे होते हैं, और जहाँ बैठकर हम कॉफ़ी पीते और गप्पें मारते हैं, वहीं एक गोल कच्चे थाले में वह बुडेलिया की झाड़ी उगी हुई हैं। उसमें जड़ से ही अनेक कंछे हैं, जैसे कई पौधे एक साथ झुंड बनाकर, गले लगे हुए उगे हों और ऊपर की ओर जा रहे हों। उसके बगल में लगी मेज़-कुर्सियों और ऊपर फैले रंगीन छाते के नीचे जाने और बैठने में वह झाड़ी अक्सर असुविधा भी पैदा करती है। उसे हाथों से हटाकर उसके नीचे घुसना पड़ता है। उसकी पत्तियां अरहर की पत्तियों की तरह लम्बान में पतली कोनदार होती हैं। कभी-कभी चिढ़ लगती थी कि यह झाड़ी यहाँ क्यों है? वहाँ बैठो और कॉफ़ी का सिप् लो तो ठीक उसके नीचे गहरी घाटी है। बचने के लिए एक जाली लगी है। घाटी में बायीं तरफ़ एक सप्तपर्णी का विशाल पेड़ है, जिसकी डालियों पर बैठे लंगूर हमें देखते रहते हैं। घाटी हरियाली का एक कटोरा है जिसमें एक इंच भी ख़ाली जगह कहीं नहीं दिखती। घाटी के एक ओर जो सड़क 'ग्रास-शेड' की तरफ़ जाती है, उसके किनारे-किनारे एक दूसरे से लगभग सटे हुए घने ऊंचे 'देवदारु-वृक्ष हैं। घाटी से हरहराती हुई, झकोरे लेती तेज़ हवा हमेशा चलती रहती है। हवा की वैसी सांगीतिक आवाज़ पर्वती घाटियों के अलावा और कहीं नहीं सुनाई पड़ती। मैदानों में तो धूल भरी, मार-काट करती, पेड़ों की उखाड़ती-ढहाती काल-बैसाखियां (रवीन्द्रनाथ टैगोर का शब्द) चलती हैं। हम अक्सर हवा की उस पारदर्शी हरहराहट को सुनने के लिए कॉफ़ी पीने का बहाना लेते हैं।
लेकिन उस झाड़ी को विशेष रूप से दिखाने का काम मेरी पत्नी ने किया। उसने कहा, 'देखो, कितने फूल। वह पहाड़ी सौन्दर्य को देखने और पीने के लिए जैसे हमेशा व्याकुल रहती है। वह पहाड़ों, देवदारुओं के जंगलों की असली प्रेमिका है। मैंने आंख उठाकर देखा -अरे! सारी झाड़ी फूलों से भरी हुई। और फूल भी क्या। लम्बे-लम्बे भुट्टे के आकार के। अगर भुट्टे का दाना निकाल लो, निकिया लो तो जो सफ़ेद ठठरी बचती है, बिल्कुल उसी तरह के फूल। श्वेत शिवलिंग की तरह। लेकिन पत्थर या भुट्टे की ठठरी की तरह कड़े और कठोर नहीं। मैंने कॉफ़ी लाने वाले आदमी से पूछा - 'इस फूल को क्या कहते हैं।' उसने कहा, 'बुडेलिया।' मैंने पूछा, 'क्या इनमें मँहक होती है?' उसने कहा, 'नहीं'। और वे ठीक मेरे ऊपर थे - हल्की हवा में अजीब ढंग से लिंगनुमा हिलते हुए। मैं उठा और मैंने एक डाल झुकाकर एक फूल को छुआ। वह बहुत नर्म, कोमल और छोटी-छोटी लम्बी-सफ़ेद बुंदकियों से बना हुआ था। बाद में मैंने गौर किया - बहुत सारे फूल हरे थे। हरे क्यों थे? मैंने एक और डाली झुकाई और उस हरे फूल को छुआ। तब मालूम हुआ। दरअसल कोई फूल हरा नहीं होता। पहले जब फूल निकलता है तो वह छोटी-छोटी हरी चिन्दियों से पूरा का पूरा ढंका होता है। लेकिन जब फूल पूरी तरह आकार और अवस्था में खिल जाता है तो वह हरी फुसफुसी चादर धीरे-धीरे काली पड़ती है और फिर झर जाती है। अब फूल अपने पूरे सौन्दर्य में हरी झाड़ी के ऊपर श्वेत शिव-लिंग की तरह हिलता हुआ दिख पड़ता है। वह फूल नहीं, जैसे भुट्टे की एक दाना निकाली ठठरी हो, लेकिन नर्म और ज़रा-सा हाथ लगाने पर झर जाने वाली।
मैंने एक डाल को फूल सहित झुकाकर सूंघा। ओह, कितनी भीनी, हल्की लेकिन अद्भुत ख़ुशबू यह 'बुडेलिया' की अपनी निजी ख़ुशबू है। यह सारे जंगलों-पहाड़ों में अपनी इस मौलिक, भीनी-भीनी ख़ुशबू लिए अकेली है। ऐसे ही एक कलाकार को होना चाहिए- मैं बराबर यह बात कहता हूँ। मैंने पत्नी से कहा, 'देखो, वह लड़का कह रहा था, इस फूल में ख़ुशबू नहीं होती, लेकिन आओ, सूंघों कैसी अपरुप ख़ुशबू है।' पत्नी उठी और उसने फूल को सूँघा। उसके मुँह से निकला - 'वाह' मैंने एक फूल को थोड़े लम्बे डंठल सहित तोड़ा। पत्नी मना करती रही, लेकिन मैं कहां मानने वाला। इस वक्त इस राष्ट्रपति निवास के हम औलिया हैं। हमें कौन रोकता है? उसे लिये-लिये हम अपने आवास पर लौटे। चलते वक्त हमने फिर वहाँ कॉफ़ी-बार के लोगों से सुनिश्चित किया। इसका नाम? इस फूल का नाम?
'बुडेलिया।'
पत्नी ने कहा, 'तुम डेहलिया याद रखो तो तुम्हें 'बुडेलिया' याद रहेगा।
दूसरे दिन जब हम लोग आवास जाते हुए उस अपनी प्यारी, देवताओं और घाटियों से चलती हवा की झरझराहट वाली सड़क पर चले रहे थे तो कॉफ़ी बार से महज़ दस-पन्द्रह कदमों की दूरी पर 'जूस बार' के बगल में 'बुडेलिया' की एक और झाड़ी दिखी। उसमें भी उसी तरह के लम्बे फूल लहरा रहे थे। लेकिन उनका रंग हल्का बैंगनी था। वाह्। तो इसका मतलब कि 'बुडेलिया' कई रंगों का होता होगा। मैंने डालें झुकाकर टहनी सहित दो बैंजनी फूल तोड़े। उनमें भी वैसे ही हल्की, अनहोनी ख़ुशबू थी। मैंने घर ले जाकर डाइनिंग टेबिल पर रखे शीशे के गिलास में, जिसमें पानी भरा था, और जिसमें पिछली शाम से वह सफ़ेद 'बुडेलिया' लगा हुआ था, उसी के बगल में उन दोनों बैंजनी रंग के फूलों को भी लगा दिया।
रात को मैं उठा तो अँधेरे में पूरे ड्राइंग रूम में 'बुडेलिया' के उन तीनों फूलों की ख़ुशबू भरी हुई थी।
वे दो-तीन दिनों तक ख़ुशबुओं से भरे वहाँ गिलास में पड़े रहे। फिर वे मुरझाने और कण-कण झरने लगे। गिलास का पानी धीरे-धीरे मटमैला हो गया।
तब मैंने उन्हें उठाया और कूड़े की टोकरी में डाल दिया।
हर चीज़ का हश्र एक ही होता है।
हर चीज़ की नियति वही होती है।
12.07.2006

                                                एक सुर्रियलिस्ट प्रस्थान

तीन बजे भोर में नींद खुली। उमस, पसीना, सूजी हुई आँखें, दाढ़ में दर्द। बगल में बीमार बीवी। नीचे फ़र्श पर गहरी नींद में एक $गैबी फ़रिश्ता, जिसे अभी थोड़ी देर बाद उठना है और हैदराबाद की फ्लाइट पकडऩी है। फिर एक दबी-दबी खड़मड़। छोटे बच्चे का उठना, जैसे वह कभी सोया ही न हों। तरोताज़ा और फ्रेश बातों से भरपूर। उसकी कुछ आवाज़ें। अनंत में पत्थर की तरह भारी नींद की ठोकर मारता एक क्रमहीन वाक्यपदीयं। वह मां या कोई आधुनिक कपड़ों की डिजाइन का ज़ेब्रा-घिस कर छोटा होता हुआ एक तहलाने वाला काला-हंसता नरक-गर्जन। गर्भ की ओर ढकेला जाता हुआ एक वृत्त, एक आविष्कार, कपड़ों और पहनावे के वैश्वीकरण का एक घिनौना, स्मार्ट आश्चर्य। 1929 की टैक्सी। ऊपर एयर-टेल का विज्ञापन। एक पिता का स्थूल ढाँचा। कॉरपोरेट दुनिया का एक आश्वस्त, सीझा हुआ स्वर। अपनी ही एक चंडूल। एक फ़ासिस्ट अंधे के भीतर धड़कता हुआ दिल और दिल के बीच में एक दर्द की अन्तहीन चीख़।
फरिश्ते की पीठ पर एक वैश्वीकरण का झोला। उसमें ज्ञानतंतु। उसमें पैंसिलें और सी.डी. उसमें विश्व संगीत का शोर। उसमें नींद. उसमें जाना और जाना और जाना। उसमें आद्र्रता। उसमें एक अन्यमनस्क धूप। उसमें उगता हुआ ग्रीष्म। उसमें बुढ़ापे की ओर प्रस्थान। उसमें उमंग का धड़कता हुआ दिल। उसमें जीवित समय के चिथड़े। उसमें ज्ञान की उदासी और निरर्थकता का विरह। उसमें ब्रह्मांड के ऊपर छोर पर बजता हुआ। भविष्य। उसें वित्त। कानून। 'कीर्ति के भारी नितम्ब'- शायद।
तुम उसे क्या नाम दोगे? तुम उसे कहाँ ढूंढ़ोगे? तुम उस छवि की खोज में पागल हो जाओगे। दाढ़ों में दर्द लिए, कराहते हुए, अचिंत्य, अव्यवस्थित, झुके हुए, अपदार्थ, रहस्य की खुली हुई गांठ-तुम्हें सिर्फ मिलेंगे झरे हुए उजले केश, पका हुआ स्वार्थी ऊबड़-खाबड़ चेहरा। औरतों के गरुर, उदासीन मुस्कुराहट, आदिम-सी धुंध- तुम्हारी मृत्यु के चारों ओर घुमड़ती हुई एक मौन चीत्कार। एक सुख। एक हंसी। एक हड़बड़े। स्टियरिंग पर बैठी हुई आत्मा की पों-पों। जीवन एक धूल में से उठी हुई धूल की सुगन्ध है। जीवन एक पुराने पर्दे पर किया गया पेशाब, जिसको मारने के लिए कन्नोज और ग़ाज़ीपुर में इत्र का आविष्कार हुआ था। जीवन और चैम्बर-पॉट पर बैठा हुआ सम्राट हैं जो खलास हो रहा है। आ: आ:।
अब तुम उसे पाओगे नहीं। वह उसका अन्तिम अभेद्य, अविश्वसनीय दर्शन था।
अब तुम हर बार ढूंढोगे और हर बार अधमरे हो जाआगे।
अब वह गया कि गया।
अब वह हर बार भेस बदलकर लौटेगा-शायद अधिक उदास, गम्भीर, आत्मविश्वास से भरा हुआ - उल्लुओं की फडफ़ड़ाहट के बीच - चौकन्ना हुआ।
और चौकन्ना।
दुनिया सल्फ़र के गर्म जल में डूबा हुआ, उठता हुआ धुआं है
जहां उसका बसेरा है।
तुमने एक और रत्न खो दिया। निर्धन। कंगाल। जीवित लोगों के बीच में धीरे-धीरे डग भरते एक मुर्दे,... तुम कौन हो?
27.06.2006 (गुडग़ांव, पांच बजे सुबह)
(जारी..)

सातवें दशक के सर्वाधिक प्रतिभाशाली कथाकार दूधनाथ सिंह अपनी अकादमिक सक्रियताओं में भी असाधारण काम करने वाले लेखक हैं। निराला, मुक्तिबोध, पंत पर उल्लेखनीय कृतियां दी हैं। 'आखिरी कलाम' उपन्यास और 'यमगाथा' नाटक के रचयिता दूधनाथ सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्राध्यापक रहने के बाद सेवानिवृत्त होकर वहीं रह रहे हैं। इसी अक्टूबर 2016 को वे जीवन के 80 वर्ष पूरा कर चुके हैं।


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