मुखपृष्ठ पिछले अंक आलोचना/विमर्श/डायरी मलयज का महत्व
नवम्बर 2016

मलयज का महत्व

रवि भूषण




''पन्द्रह अगस्त!/मना रहे हो आज तुम मुक्ति का त्योहार!/स्वतंत्रता की छठी वर्षगाँठ!/.... उड़ाते तुम तिरंगा चक्र मंडित/और चिल्लाते 'किसी' की जय के नारे/खूब यूँ उत्साह तुम दरसा रहे/पर ध्येय क्या इन उत्सवों का?/ ...क्यों 'मजे में' एक है जब दूसरा रोटी न पाता?/ क्यो तड़पते भूख से मजदूर-बालक और नारी?/...करो संकल्प/जिससे देश का तम दूर हो;/रहे न कोई दीन/मलीन, बेकार/सुख-समृद्धि का हो 'सुराज'
(15 अगस्त 53, मलज की डायरी-1, पृ. 113-15)

''मार्क्सवाद का भारतीयकरण आवश्यक है, तभी वह तड़प प्राप्त करेगा। अगर भारतीय चिंतन में द्वन्द्वात्मकता के तत्व हैं तो उसे मार्क्सवाद के द्वन्द्व से जुडऩे में आसानी होगी - उस द्वन्द्वात्मकता को इस द्वन्द्वात्मकता से ढूँढ़ निकालना सहज होगा।''
(20 जनवरी 76, मलज की डायरी-3, पृ. 86)

''समाज-व्यवस्था को सिर्फ गरीब बदल सकता है- इस बदलाव में सिर्फ उसी की दिलचस्पी है-अमीर केवल यथास्थिति बनाए रखना चाहता है... गरीब स्वभावत: क्रान्तिकारी होता है क्योंकि भूखे पेट और एक लंगोटी के सिवा उसके पास कुछ नहीं होता... जो गरीब के साथ नहीं है वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर अमीर के साथ है... अमीर बनने की चेष्टा गरीब के बृहत समूह से कटते जाने की चेष्टा है। अपने को बंद करने की चेष्टा है... एक व्यक्ति भी अपने निर्णय से - अपने अमीर बनने के निर्णय से - कई कई गरीब पैदा करता है... अमीर बनने की कोशिश जन-समूह का रास्ता छोड़कर अपनी अलग पगडंडी पर चलने लगना है। सबका, बहुसंख्यक का साथ छोड़ देना है, देश का साथ छोड़ देना है। क्योंकि देश उन लोगों से बना है, जो ज्यादातर गरीब हैं, गरीबी की रेखा के नीचे जी रहे हैं। आज अमीर होना एक अराष्ट्रीय कर्म है।''
(7 अगस्त 80, मलयज की डायरी-4, पृ. 263-64)
''कविता मेरे लिए एक आत्मसाक्षात्कार है और आलोचना उसी कविता से साक्षात्कार... आलोचना का संसार कविता के संसार का विरोधी, उसका विलोम या उसका प्रतिद्वन्द्वी संसार नहीं है, बल्कि वह कविता के संसार से लगा हुआ समानान्तर संसार है। ये दोनों संसार अपनी-अपनी जगह पर स्वतंत्र सर्वप्रभुता सम्पन्न संसार है, पर दोनों के बीच एक मित्रता की सन्धि है। दोनों एक दूसरे पर अपनी शर्तें और प्रतिज्ञाएं, आरोपित नहीं करते, पर उनकी एक दूसरे के हितों में आपसी दिलचस्पी है। कविता कुछ भी सिद्ध नहीं करती सिवाय एक अनुभव को रचने के। आलोचना कुछ भी प्रमाणित नहीं करती सिवाय उस रचे हुए अनुभव को व्यापक अर्थ-विस्तार देने के... अनुभव ही कविता को आलोचना से जोड़ता है, पर कविता में इस जुडऩे की भाषा अनुभूति है और आलोचना में विचार।''
('कविता से साक्षात्कार', 1979, पृष्ठ 9)

''मलयज (1935-1982) िफलहाल कहीं से भी साहित्यिक-वैचारिक परिदृश्य में नहीं हैं। संभव है, कवियों, आलोचकों, गंभीर पाठकों और सुधरे जनों को उन पर कुछ भी लिखना आज के समय में बहुत अटपटा और बेसुरा लगे क्योंकि कविता में सब कुछ 'शुभम् शुभम्' है और आलोचना में शिखर आलोचक पर लिखे जा रहे संस्मरणों का अंबार है। हिन्दी साहित्य और समाज का परिदृश्य बहुत बदल चुका है। सुधीजन पूछ सकते हैं कि आज मलयज को याद करना क्यों ज़रूरी है? रमेशचन्द्र शाह की बात छोड़ें, जो उनके बड़े गहरे मित्र रहे। मलयज को याद करना उनके लिए स्वाभाविक है ('मलयज: मेरे हथियार कुछ दूसरे हैं', कथादेश, जुलाई 2016) पर नामवर, विष्णु खरे, अशोक वाजपेयी, दूधनाथ, काशीनाथ, अजय-शोभा, विश्वनाथ त्रिपाठी और अन्य कई कवि-लेखक, आलोचक-सम्पादक मलयज को क्यों याद नहीं कर रहे? 'आलोचना की पहली किताब' विष्णु खरे ने इस 'बेहतर आलोचक और बेहतर इन्सान' को समर्पित की थी और हमारा समय 'बेहतर आलोचक और बेहतर इन्सान' की पहचान का, उसके साथ चलने और रहने का नहीं है। क्या सचमुच नहीं होना चाहिए?
मलयज ने ज्यादा नहीं लिखा। वे कुछ भी लिखने के पक्ष में कभी नहीं रहे। 1981-82 में 'दिनमान' उनका कुछ भी लिखा छापने को तैयार था। लेखन उनके लिए सामान्य कर्म नहीं था। ''लिखो तभी जब संकट में हो/चीजें जब सब हिली हुई हों/जमीन सरकी हुई थिर कुछ भी नहीं/एक साँस भीतर एक बाहर बीच में/हलचल जिसमें कोई तरतीब नहीं/... संकट में होना धार में होना है/किनारा है उथलापन'' डायरी 3, पृ. 306) उनके जीवन-काल में केवल चार पुस्तकें प्रकाशित हुईं - दो कविता-संग्रह 'ज$ख्म पर धूल' (1971) और 'अपने होने को अप्रकाशित करता हुआ' (1980), एक पुस्तक सर्वेश्वर के साथ सम्पादित 'शमशेर' (1971) और एक आलोचना-पुस्तक 'कविता से साक्षात्कार' (1979)। 'हँसते हुए मेरा अकेलापन' (1982), 'संवाद और एकालाप' (1984), 'रामचन्द्र शुक्ल' (1987) और तीन खण्डों में प्रकाशित 'मलयज की डायरी' (2000) बाद की पुस्तकें हैं। छात्र-जीवन में उन्होंने या तो डायरी लिखी या कविताएँ। पन्द्रह वर्ष की अवस्था (1950) में उन्होंने हाई स्कूल पास किया। 15 जनवरी 1951 में उनका डायरी-लेखन आरंभ हुआ और इसी वर्ष से डायरी में ही वे गीत-कविता लिखने लगे। यह पचास का दशक था। मलयज का निर्माण-दशक।
'नयी कविता' पत्रिका के प्रकाशन और 'नयी कहानी' आन्दोलन के बाद पचास के दशक में ही 'नवगीत' और 'नयी समीक्षा' की चर्चा आरंभ हुई थी। साहित्य में नयेपन के प्रति इस आग्रह का नेहरू के नये भारत के स्वप्न और उसकी योजना से संबंध नहीं था। स्वाधीनता आन्दोलन के दौर में निराला में 'नवता' के प्रति जो विशेष आग्रह था, उसका पचास के दशक के साहित्य नवान्दोलन से कोई संबंध नहीं था। पचास के दशक के कवियों-कहानीकारों का लेखकों का अनुभव-संसार भिन्न था। नयेपन के प्रति उनका आग्रह भिन्न था। बहुत कम लेखकों के यहाँ नये भारत का कोई स्वप्न था। नेहरू जिस नये भारत के निर्माण के आकांक्षी थे, उसका पहले के भारत और गांधी के सपने से कोई संबंध नहीं था। बीसवीं सदी के तीस के दशक के आरंभ से ही भावी भारत का एक चित्र स्पष्ट होने लगा था। महात्मा गांधी, भगत सिंह, प्रेमचन्द, गणेश शंकर विद्यार्थी, अशफाक उल्ला खां ने जिस 'स्वराज्य' की बात की थी, उससे सर्वथा भिन्न थी 15 अगस्त 1947 की आज़ादी। गांधी के सपनों का स्वराज्य 'गरीबों का स्वराज्य' था। 1930 में 'आहुति' कहानी में प्रेमचन्द साफ सब्दों में यह कह रहे थे ''मेरे लिए स्वराज्य का यह अर्थ नहीं है कि जॉन की जगह गोविन्द बैठ जाए। ''भगतसिंह ने भी इसी समय यह लिखा था कि उन्हें उस स्वराज्य से मतलब नहीं है, जिसमें लॉर्ड इरविन की जगह सर तेजबाहदुर सप्रू आसीन हो जाये। यह खोज की जानी चाहिए कि मलयज से पहले और उनके बाद हिन्दी के किस 'नये' कवि ने अपनी कविता में इतनी अधिक नयेपन की कामना की है। 22 जून 1953 की डायरी में 'कवि का गान' शीर्षक कविता में 'नव गान', 'नव भाव' 'नव चेतना रसधार' 'नव प्रगति' के स्वर सुनाई पड़े। 'निकष' (1955) में प्रकाशित 'स्वप्नदर्शी' कविता में उन्होंने अपने को 'स्वप्नदर्शी' के साथ 'जीवनदर्शी' भी कहा। हिन्दी आलोचना में स्वतंत्र भारत के आरंभिक एक दशक में जिन कवियों, कहानीकारों, उपन्यासकारों ने 'व्यवस्था' का जो चित्र-चरित्र प्रस्तुत किया था उस पर विस्तार से अभी तक विचार नहीं हुआ है। मुक्तिबोध ने स्वाधीनता प्राप्ति के बाद 'अवसरवाद की बाढ़' देखी। अमरकान्त ने कई कहानियों में और नागार्जुन दिनकर ने अपनी कई कविताओं में स्वतंत्र भारत के जो चित्र प्रस्तुत किए, उनका पहले के स्वप्न से कोई संबंध नहीं था। संविधान लागू हो चुका था। संसदीय लोकतंत्र का मार्ग चुन लिया गया था। पचास के दशक में लोकसभा के दो चुनाव (1952, 1957) सम्पन्न हुए। योजना आयोग बना, पंचवर्षीय योजनाएं लागू हुईं, नयी संस्थाओं का निर्माण हुआ। पटेल के निधन के बाद नेहरू कांग्रेस में सर्वोपरि रहे। साहित्य में यह दशक अज्ञेय का था। 1951 में 'दूसरा सप्तक' और 1959 में 'तीसरा सप्तक' प्रकाशित हुआ। 'कृति' का प्रकाशन दशक के अन्तिम वर्षों में हुआ। इस दशक में नागार्जुन, शमशेर, मुक्तिबोध, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन, अमरकान्त, शेखर जोशी केन्द्र में नहीं थे। 'परिन्दे' की लतिका की प्रतीक्षा को नामवर ने व्यापक अर्थ दिया। इस दशक पर मुकम्मल और सुसंगत ढंग से विचार की अब भी प्रतीक्षा है। इसी दशक में अवसरवाद की 'जोरदार लहरें' उठी। स्वतंत्र भारत में ये लहरें गिरने के बजाय बढ़ती गयी हैं। 'राहों के अन्वेषी' 'आत्मान्वेषण' में लगे। मुक्तिबोध ने 'नयी कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध' में ''भ्रष्टाचार, अवसरवाद स्वार्थपरता की पाश्र्वभूमि में, नयी कविता के क्षेत्र में पुराने प्रगतिवाद पर जोरदार हमले के साथ 'लंदन और वाशिंगटन से' लिये गये सिद्धान्तों का जिक्र किया है। इस दशक में आरंभ से ही मलयज में एक गहरी बेचैनी, प्रश्नाकुलता और छटपटाहट दिखाई देती है, जो उस समय बहुत कम कवियों-लेखकों में थी।
अठारह वर्ष की अवस्था में मलयज की चिन्ता 'नवराष्ट्र सर्जन' और 'समता की प्रतिष्ठा' की थी। 'सुराज' की थी जो नहीं मिला था। देश-विभाजन की घटना को उन्होंने 'टूट का आरम्भिक बिन्दु' माना है और इस 'टूट' को उन्होंने 'इस समाज से जुड़ी देखा, ''जिसका दो तिहाई निरक्षर है और जो $गरीब है'' ('संवाद और एकालाप; पृ. 50) पचास के दशक के आरम्भ में ही 'विषमता की प्रखर आँधी' चलने की ओर उन्होंने हमारा ध्यान दिलाया। 'स्वप्न' उनकी आरंभिक कविताओं में कई बार आया है, मात्र सत्रह वर्ष की अवस्था में उन्होंने 'झंकार' पत्रिका निकाली। माँ सरस्वती के 'दिव्य संदेश' सुने और एक वर्ष बाद 1953 में उस संदेश को 'नव सौन्दर्य नवगति और नव्य स्वर' में वे फिर सुन रहे थे। 22 जनवरी 1955 की कविता 'महाकवि निराला के प्रति' में उन्होंने निराला को 'प्रलय-प्रभंजन बीच जल रहे दीप', 'ज्योति के शुभ्र पुंज', 'अवरोध, यातना, कटु यथार्थ के सर्प-शीर्ष पर/नरवत-किरण से भी उज्जवल माणि!' 'समता, ममता, करुणा की सरस त्रिवेणी के प्रतीक', 'राग शुद्ध', 'वाणी-मन्दिर के कलश-चूड़' और 'कविता का अभिनव सुराग' कहा। क्यों कहा? यह विश्वास प्रकट किया ''संसति के अनगिनत पल कितने आते जाते/पर तेरे गीतों का यौवन-मधुमास/कभी न जाएगा।'' 'नयी कविता' के किन कवियों ने निराला पर कविताएं लिखी हैं? मलयज ने क्यों लिखी? क्यों पचास के दशक का एक युवा छात्र कवि, अपने को अपने समय के कवियों से न जोड़कर निराला से जोड़ रहा था? निराला से अधिसंख्य नये कवियों ने अपने को अलग किया था। निराला ने बाद के दिनों में अपने को अकेला पाया- ''मैं अकेला/देखता हूँ, आ रही मेरे गगऩ की सांध्य बेला' मलजय हमेशा अकेलेपन में जीते रहे। पचास के दशक में 'नये' साहित्यक आन्दोलनों से सर्वथा भिन्न है मलजय की 'नव' चिन्ता, नव्य दृष्टि और नवता-नूतनता के प्रति आग्रह। यह निराला के यहाँ जो 'नव' है, उससे जुड़ा है। नये भारत के निर्माण से इसका संबंध है। मलयज किसी भी साहित्यिक आन्दोलन से नहीं जुड़े। वे इलाहाबाद में रहकर भी, हंगामे से दूर रहे। साहित्यिक आन्दोलन हो या राजनीतिक आन्दोलन, (नक्सलवाड़ी, सम्पूर्ण क्रान्ति) उन्होंने किसी पर अधिक टिप्पणी नहीं की।
आजमगढ़ के महुई गाँव में जन्मे मलजय महुई को कभी नहीं भूले। महुई को न भूलना सामान्य जन और साधारण मनुष्य को नहीं भूलना था। शिक्षित हुए, पले-बढ़े इलाहाबाद में। फिर इलाहाबाद से दिल्ली, दिल्ली के विश्वपुस्तक मेला (1978) में बुढ़ापे के कदम रखने वाले उस अधेड़ ग्रामीण व्यक्ति पर उनकी नजर टिकी, जो ''फटा-पुराना कोट, घुटने तक धोती और चमरौधा पहने, एक मटमैली खेस को सिर से लेकर अपने चारों ओर लपेटे बड़े मनोयोग से किताबें उठाता, उसके पन्ने पलटता और करीने से यथास्थान रख देता था'' (11 मार्च 78, डायरी -3/98) मलयज की निगाह बड़ी तेज थी। वह बाहर जितना देखती थी, उससे कहीं अधिक भीतर। जीवन, समय और रचना के बहुत भीतर। वे सम्पादक, चित्रकार, पत्र-लेखक, कवि, कहानीकार, आलोचक, डायरी लेखक और निबंधकार हैं - मुख्यत: कवि-आलोचक, पर उनके रचना-संसार और चिन्तन-संसार के सवाल एक विधा विशेष के प्रमुख सवाल होने के बाद भी मात्र उस विधा-विशेष में सीमित नहीं है। उनके यहाँ 'साक्षात्कार' महत्वपूर्ण है - रचना से, स्वयं से और समय से 'साक्षात्कार'। उन्होंने पहली बार 'साक्षात्कार' का अर्थ-विस्तार किया। स्वतंत्र भारत में 'संघर्ष' से कहीं अधिक समझौते किये गए। राजनीति में, साहित्य में सर्वत्र। भारतीय शिक्षित मध्यवर्ग क्रमश: संघर्ष विमुख और समझौता परस्त होता गया। कवि, लेखक, बुद्धिजीवी सब। उन्होंने अपनी रीढ़ के साथ देश की रीढ़ भी कमजोर की। मलयज इससे अलग रहे। उनका समस्त जीवन समझौता विहीन रहा। मुक्तिबोध की तरह। उन्होंने सर्वाधिक अपने से संघर्ष किया। आत्मचिन्तन, आत्ममंथन, आत्म साक्षात्कार किया। वे तैराक नहीं, गोताखोर थे। उन्होंने हमेशा डुबकी लगायी। क्या सचमुच हमने उन मोतियों की पहचान कर ली है, जो उन्होंने हमें दिए - स्वतंत्र भारत के आरंभिक तीन दशकों में 1952-53 से 1982 तक? क्या केवल आलोचक के रूप में उन्हें देखना संगत है? या कवि-रूप में? या डायरी-लेखक के रूप में? साहित्यरूपों को एक दूसरे से सर्वथा अलग कर आलोचना कर हमने जो एक सुविधाजनक स्थिति पैदा कर ली है, क्या वह सही है?
कवि-आलोचक, सर्जक-चिन्तक मलयज के विकास के तीन चरण हैं - 57-58 से 1966 तक, 1967 से 1975 और 1975-76 से 1982 तक। यह सहज विकास है, जिसमें कहीं कोई छलाँग नहीं है। सन 57 में रानीखेत से लौटकर उन्होंने 'अगले वर्ष यूनिवर्सिटी में नाम लिखाया था।' (डायरी-3/119) इसके पहले 50-57 तक के छह वर्ष तक उनका जीवन 'स्थगित रहा'। ''मेरा वह कैशोर्य जो हाईस्कूल तक पूरा खिल भी न पाया था, राजयोग की आग में झुलस गया। छह वर्षों तक झुलसता रहा। उन वर्षों की कुछ तीखी रेखाएँ और बिम्ब ही मेरे पास बचे हैं। पूरा नैरेटिव समय की रगड़ में घिस गया... छह वर्षों के वनवास में तपने, झुलसने के बाद मेरे कैशोर्य में नए-नए कल्ले फूट रहे थे - मैंने उन दिनों का कोई भावनात्मक लेखा-जोखा भी नहीं रखा।'' (डायरी 3/118) 1957 तक उनकी कविताएँ 'निकष', 'राष्ट्रवाणी', 'वसुधा', 'युग चेतना' 'आधार' और 'कल्पना' में प्रकाशित हो चुकी थीं: 1957 के पहले के मलयज और उनके बाद के मलयज में एक स्पष्ट अन्तर दिखाई देता है। वेल्लूर में उनका क्षयग्रस्त फेफड़ा 1955 में काटकर निकाल दिया गया था। 1956 की डायरी वेल्लूर और रानीखेत में अधिक लिखी गयी। वेल्लूर के एकान्त में वे सजग चिन्तन की ओर उन्मुख हुए-1951 से 1956-57 तक की डायरी से उनकी चिंताओं का पता चलता है। ''सेनेटोरियम का जीवन मलयज ने आत्मपीड़ा से ग्रस्त होकर नहीं जिया, बल्कि वहाँ मानव-जीवन के तमाम मूल्यवान पहलू खोज लिए... उनके सजग चिन्तन का रूप पनपता गया। साथ ही भाषा का भी मार्जन होता गया। मलजय, जैसे एकान्त में ही, अपने जीवित रहने की ऊर्जा इकट्ठी करते थे।'' (प्रेमलता वर्मा, 'स्मृतियों में पिन्हा छवियाँ', समास 11 पृ. 235) 1957-58 तक वे अपनी कविताओं और डायरी में बड़े सवालों से टकराने लगे थे। मकड़ी का 'अर्पूव रचना-कौशल' 1951 में ही उन्होंने देखा था। 'शक्तियों की सत्ता का भीषण उपहास', 'शुष्क-दुर्गम बुद्धि-मार्ग', 'आद्र्र-सुगमन हृदय', 'अनुभव और कल्पना', 'कर्म और विचार', 'मन और बुद्धि', 'संगीत के स्वरों में आत्मा का साक्षात्कार', 'विचारों की परम्परागत कलुषित रूढिय़ां', 'रागात्मक-विरागात्मक मानव-प्रवृत्ति', 'सत्य-असत्य', 'सच्ची शिक्षा', सामान्य अनुभव और कलात्मक अनुभव', 'काव्य-व्यक्तित्व', 'समीक्षा के मायने', 'ईमानदार लेखक', 'यथार्थ और रचना', 'काव्य भाषा संस्कृति' आदि पर उनके विचार-चिंतन से यह स्पष्ट होता है कि वे कैसे सवालों से जूझ रहे थे। ''मैं अपने युग के समूचे दायित्व को महसूस करता हूँ, उसकी कमजोरी को यथाशक्ति अपनी मानता हूँ, उससे जुड़ा हूँ - चाहे वह और मैं दोनों टूट चुके हों'' (30 अक्टूबर 1957 की डायरी) उस समय कितने कवि-आलोचक 'युग के समूचे दायित्व' से अपने को जोड़ रहे थे? कविता लिखने के साथ-साथ वे अपनी कविता को भी देख समझ रहे थे। उनकी जैसी गहरी रचनात्मक प्रश्नाकुलता उस समय बहुत कम कवियों-अलोचकों में थी। हिन्दी में उस समय बहुत कम कवि ऐसे थे, जो काव्य-रचना के साथ ही अपनी कविता पर भी गंभीर विचार-चिन्तन करते रहे हों। 29 दिसम्बर 57 और 15 जून 59 की डायरी में वे अपनी कविताओं पर विचार करते हैं - ''मेरी कविता एक पूर्व निश्चित फॉर्म लेकर आती है। तो इससे क्या होता है? क्या खतरे में हैं?... शायद यह कि कविता में mannerism की संभावना बढ़ जाती है, भाव बोध सीमित हो जाता है, विकास की दिशा रुक जाती है, आदि आदि'' (डायरी1/354) वे कविता को एक सचेतन प्रक्रिया द्वारा perfect देखना चाहते थे। ''अनगढ़ रूप से कोई भाव सत्य-संवेदना रखने में मुझे लगता है कि मेरी एक काव्य-वस्तु की हत्या हो जाएगी।'' (वही) पचास के दशक में मलयज कवि और आलोचक किसी भी रूप में 'सीन' में नहीं थे। आज के पुरस्कृत, सम्मानित, विभूषित अलंकृत कितने कवियों में अपनी काव्य-रचना के प्रति ऐसी बेचैनी है? मलयज के यहां सवाल से सवाल निकलते हैं, एक दूसरे से आपस में जुड़े हुए, गुँथे हुए। एक बड़ी प्रश्न-श्रृंखला हम उनके यहाँ देख सकते हैं। प्रश्नों के निदान-समाधान में उनकी आस्था नहीं थी। निर्ममतापूर्वक मलयज अपने को छीलते हैं। वे अपनी कविताओं के स्वयं निर्मम आलोचक थे। ''मेरी चीजों में सतहीपन, क्या यह इसलिए होता है कि मैं Egoist हूँ... अपनी संवेदना में रंगकर ही सब कुछ देखता हूँ'' (वही पृष्ठ 354-55) निजी जीवन उनके लिए कभी महत्वपूर्ण नहीं रहा। कभी उन्होंने 'आसपास के यथार्थ' से अपने को दूर नहीं रखा। चुनौतियों को झेलने के लिए वे 'यथार्थ जीवन में पैठ, निरीक्षण तथा प्रेरणा के स्रोत हासिल' करना आवश्यक मानते थे। ''काव्य को अधिक सजीव और Real बनाने का यही एक उपाय है, उसकी संभावना बढ़ाने का यही एक संकेत। अपने को विकसित होते देने का सबल कारण'' (वही पृष्ठ 354) 1959 तक के समय को मलयज ने अपनी प्रतिभा का Plateau of learning  का काल कहा है: केवल अपने पर नजर नहीं थी, नये कवियों पर भी उनकी पैनी नज़र थी। अपनी कविताओं के साथ अन्य कवियों पर भी वे अपनी डायरी में लिखते रहे। क्या उनसे आज के कवियों को कुछ सीखने-समझने की ज़रूरत नहीं है? 1954-55 में उनका जो वैचारिक चिन्तन-मंथन आरंभ हुआ था, वह 1959-60 तक अपने सघन, सुचिन्तित रूप में स्पष्ट दिखाई पड़ता है। कविता पर लेख लिखने से पहले वे कविता और कवि से जुड़े कई बड़े सवालों पर विचार कर रहे थे। कवि के व्यक्तित्व और बाह्य जगत के बीच की रगड़ (घर्षण) को वे literary Complex की विवशता या सीमा मान रहे थे। उनकी वैचारिक गंभीरता का पता इससे चलता है कि वे डायरी में तीन प्रकार के काव्य-व्यक्तित्व पर विचार कर रहे थे - ''बदलते युग के मानव-मूल्यों से अपने विकास की संगति बिठाने वाला सम्पूर्ण रूप में अपने को आगे ले चलने में अशक्य और समय के आगे नहीं बढऩे वाले अर्थात रुद्ध'' (वही, पृष्ठ 375-76) मलजय हिन्दी के अकेले आलोचक हैं, जिन्होंने कविता पर लेख लिखने से पूर्व कवि और उसके रचना-कर्म पर, कविता पर इतनी गंभीरता से विचार किया। उनकी डायरी सामान्य डायरी नहीं है। वहाँ एक खजाना है, जहाँ जाकर आज भी कवि-आलोचक बहुत कुछ प्राप्त कर सकते हैं। उस समय के नये कवियों की 'रचना-प्रक्रिया में एक स्थिर दृष्टिकोण' उन्होंने देखा। ''नये और ताजे शब्द, प्रकृति-बिम्ब, जनपदीय भाषा के साथ ही 'आंचलिकता' उनके लिए 'माध्यम' भर था। ''असल चीज तो व्यक्ति के वे ही संघर्ष, अनुभव और संवेदनाएं हैं, मानवीयता।'' (वही, पृष्ठ 369) नयी कविता पहले की कविता से जिन स्तरों पर भिन्न थी, उस भिन्नता को, उसके डिपार्चर को वे गंभीरता से रेखांकित कर रहे थे। नयी कविता के पौराणिक प्रतीकों और उसके पूर्व की कविताओं के पौराणिक प्रतीकों का अंतर वे स्पष्ट कर रहे थे - ''नई कविता के पूर्व पौराणिक प्रतीकों की एक शुद्ध मानवीय स्तर पर प्रतिष्ठा हुई ही नहीं। नई कविता के पौराणिक प्रतीक देवता थे, जिन्हें काव्य-मंदिर में प्रतिष्ठित कर मनौतियों मानी जाती थीं और आत्र्तवचन सुनाए जाते थे।'' (वही, पृष्ठ 472) लिखने से पहले अध्ययन, चिन्तन, मनन कितना आवश्यक है, इसे आज भी उनसे जाना, समझा और सीखा जा सकता है। पचास के दशक की कई कविताओं के शीर्षक - 'मिथ', 'रचना-प्रक्रिया', 'कविता आई हैं', 'रचना', 'भाषा', 'आधी कविता', 'रस बोध', पुस्तक समीक्षा' और 'कहानी' ही यह बताने को काफी हैं कि उनके भीतर कितनी अशान्ति, खलबली, चिंताएँ और रचनात्मकता मौजूद थीं। निरन्तर चिन्तन-मनन से उन्होंने अपने को समृद्ध किया। समीक्षा उनके लिए 'बहुत ऊँचे दर्जे की चीज' थी। आज की तुलना में पचास के दशक में पुस्तक-समीक्षा कहीं अधिक बेहतर थी, पर उन पुस्तक-समीक्षाओं से वे अप्रसन्न थे। एक नव प्रकाशित कविता-संग्रह पढऩे के बाद उन्होंने डायरी में लिखा - ''अगर मुझे इस पुस्तक की समीक्षा करने को कहा जाये तो? अर्थात् प्रश्न समीक्षा का है। समीक्षा के क्या मायने होते हैं? क्या तथाकथित पुस्तक समीक्षा करने वाला शुरू से ही यह मानकर चलता है कि वह एक ऊँचे आसन पर विराजमान है और प्रस्तुत पुस्तक पर verdict देने, भला-बुरा करने या अधिक हुआ तो critical appreciation करने की उन्हें स्वतंत्रता है? आजकल पत्र-पत्रिकाओं में अधिकांश यही तो होता है, कितना गलत मतलब है समीक्षा का, मैं पूछता हूँ, इससे क्या फायदा? समीक्षा के सृजनात्मक इतिहास में (और मैं समीक्षा को सृजनात्मक चीज मानता हूँ) इन सबका क्या योग है?'' (31 जनवरी 58, डायरी 1/368) इस समय तक मलयज ने कोई समीक्षा नहीं लिखी थी। समीक्षा लिखने से पहले वे उसे 'सृजनात्मक' मान रहे थे और 'सृजनात्मक' लेखन सामान्य लेखन से अलग होता है। सृजनात्मक लेखन सदैव संभव नहीं होता। मलयज का सारा लेखन 'सृजनात्मक' है। पचास वर्ष बाद आगे के पुस्तक समीक्षक क्या अपने लेखन को 'सृजनात्मक' कह सकते हैं? 31 जनवरी के पहले 4 जनवरी 58 को मलयज ने डायरी में  'पुस्तक-समीक्षा के मानी' पर विचार किया - ''हमें शुरू से आ$खीर तक समीक्षा के मानों में परिवर्तन करना होगा।'' (डायरी 1/359) पुस्तक-समीक्षा का उनके लिए यह अर्थ था कि ''समीक्षक कृतिकार के साथ मिलकर कृति के आन्तरिक मूल्य और उन मूल्यों की ओर इंगित करने वाली दिशा का अध्ययन करें।'' (वही) 'आन्तरिक मूल्य और उन मूल्यों की ओर इंगित करने वाली दिशा' अब पुस्तक-समीक्षा से लगभग गायब है। मलयज 'आंचलिकता' को 'कविता की उपलब्धि' न मानकर मात्र एक 'माध्यम' मानते थे। 'आंचलिक उपादानों के बल पर पैदा की गयी ताजगी' संघर्ष, अनुभव, संवेदना और मानवीयता के अभाव में कभी भी 'घिस सकती है?' ताजगी नए मानव-संदर्भों के नए सामंजस्यों में होती है और इसमें 'आंचलिकता' एक बहुत शक्तिशाली माध्यम हो सकता है।'' (21 जनवरी 58, वही, पृ. 369-70) मलयज के लिए 'माध्यम' से कहीं अधिक प्रमुख था मानव-संदर्भ माध्यम बाद में इतना महत्वपूर्ण हुआ कि 'माध्यम' पत्रिका भी निकली।
मलयज का पहला लेख 1960 के आसपास 'लहर' में शमशेर पर प्रकाशित हुआ था। ''आलोचनात्मक गद्य के क्षेत्र, में जहाँ तक मैं जानता हूँ, यह उनका प्रथम प्रवेश था।'' (शमशेर बहादुर सिंह : 'एक प्रतिभा के विकास का परिवेश', 'पूर्वग्रह', जुलाई-अक्टूबर 1982, संयुक्तांक 51-52 पृष्ठ - 97) शमशेर से उनका परिचय 'बी.ए. फाइनल या बी.ए. आरंभ के समय' से था। शमशेर को आरंभ से ही वे 'रुखे' लगे थे ''तर्कपूर्ण जिरह का एक प्रश्न-पत्र.... कोई हार्दिकता नहीं'' (वहीं पृष्ठ 95) शमशेर पर लेख लिखने के पहले वे डायरी में इन पर लिख रहे थे। शमशेर से उनकी शिकायत यह थी कि उनका सारा 'द्वन्द्वात्मक संघर्ष', 'फॉर्म' और 'टेकनीक' के 'समाधान और परिष्कार' तक था। 29 जुलाई 59 की डायरी में उन्होंने लिखा - ''...कितने तटस्थ हैं... पलायन कर लिया है उन्होंने - और भी क्या कर सकते हैं इस उम्र में? मेरे संघर्ष को वे नहीं पहचान पाते। उनकी बातें मेरे लिए कोई नया प्रेरक बिन्दु नहीं रखतीं... उनका अपना तर्क है जो इधर मेरे लिए घातक हो सकता है... मेरे संघर्ष की आग पर पानी डालेगा और आग बुझेगी तो नहीं लेकिन धुआं उठेगा कड़ुवा और दमघोंटू 'धुआँ' '' (डायरी 1/483) मलयज के संघर्ष की यह आग कभी नहीं बुझी। केवल शमशेर ने ही उनके संघर्ष को नहीं समझा। किसी हिन्दी कवि-लेखक, आलोचक ने भी उनके संघर्ष को ठीक-ठीक नहीं समझा। उनका संघर्ष 'रचनात्मक-आलोचनात्मक था। वह जीवन और समय से भी था। यह संघर्ष दो स्तरों पर था - पारिवारिक और रचनात्मक संघर्ष। संघर्ष की यह आग उनकी कविताओं, आलोचनाओं और डायरी में है। प्रेमलता वर्मा ने उनकी कहानियों पर विचार करते हुए उन्हें एक प्रकार से 'काफ्का, दॉस्तोयवस्की और चेखव का मिश्रित रूप' कहा है और उन्हें काफ्का के अधिक निकट माना है। ''दोनों जीनियस रचनाकार टी वी के मरीज, दोनों का जीवन संत्रास, पीड़ा तथा पारिवारिक असन्तोष से भरा और दोनों अपने संघर्ष से हार न मानने वाले, दोनों का ही कम उम्र में निधन। काफ्का 44 साल में और मलयज 46 साल में पृथ्वी रूपी इस नीले ग्रह से विदा लेने को मजबूर हुए।'' (समास 11, वही, पृष्ठ 277) मलयज की पीड़ा और व्यथा केवल उनकी निजी ही नहीं थी। अभी तक इस पीड़ा और व्यथा को युग की पीड़ा और व्यथा से जोड़कर देखा नहीं गया है। मलयज में इस व्यवस्था को बदलने की चाह थी, जो हमें उनकी आरंभिक कविताओं से लेकर रामचन्द्र शुक्ल और मुक्तिबोध पर लिखे गये निबंधों में दिखाई देती है। साधारण मनुष्य उनकी चिन्ता के केन्द्र में रहा है। संवाद और एकालाप में संकलित रमेशचन्द्र शाह के नाम जो 'एक और $खत, जो शायद अभी भी अधूरा है' में उन्होंने लिखा ''हमने उस 'व्यवस्था' को बदलना नहीं चाहा, जो हमें अपने शिकंजे में निरन्तर पीसती रही। उस व्यवस्था' को अपने अनुरूप बदलना नहीं चाहा, जो हमारे तेज को खा-खाकर मुटाती रही। वह 'व्यवस्था' हमारे लिए ज्यादातर अमूर्त रही, उसकी ठोस शक्ल अपनी आँखों के सामने हम खींच नहीं पाये। अत: जब भी हमने आक्रोश में उस 'व्यवस्था' के खिलाफ मुट्ठियाँ बाँधीं, वे सिर्फ हवा में तैर कर रह गयीं। हमने जब-जब लड़ाई का निश्चय किया, तब-तब हमारे हाथों में गलत हथियार थे... हम न स्वयं बदल सके न, व्यवस्था को बदल पाये। कारण वही रहा - हमने 'व्यवस्था' को बदलकर स्वयं को बदलने के बजाय स्वयं को बदलकर 'व्यवस्था' को बदलना चाहा।'' (संवाद और एकालाप, 1984, पृष्ठ 69) इस उद्धरण में 'व्यवस्था' का सात बार उल्लेख क्या व्यवस्था के समर्थन में है? हिन्दी के किस आलोचक ने 'व्यवस्था' पर ऐसा लिखा। बेशक, यह पत्र में लिखा गया, पर मलयज की आलोचना में 1975-77 के बाद इसे सही ढंग से लक्षित किया जा सकता है। किया जाना चाहिए। रमेशचन्द्र शाह ने अपनी 'डेढ़ कविताओं' पर उनकी राय माँगी थी। मलयज ने उनमें 'अमूर्तन करने की प्रवृत्ति' देखी, 'अपनी आत्मा में झाँकने' की बात की और 'निष्क्रिय-सक्रिय द्वन्द्ववाद' की बात कही - ''निष्क्रिय द्वन्द्ववाद वह जो सक्रिय द्वन्द्ववाद नहीं है और सक्रिय द्वन्द्ववाद वह जो सिर्फ दिमागी और भावनात्मक न होकर कुछ कर गुजरने और कुछ कर गुजरने वाला द्वन्द्ववाद वह जो सिर्फ दिमागी और भावनात्मक न होकर कुछ कर गुजरने और कुछ कर गुजरनेवाला द्वन्द्ववाद है। इस सक्रिय द्वन्द्ववाद का आधार क्या है? इसका सैद्धान्तिक आधार? मार्क्सवाद?'' (वही, पृष्ठ 67) मलयज मार्क्सवादी नहीं थे, पर क्या मार्क्सवाद में उनकी आस्था भी नहीं थी? क्या प्रगतिशील आलोचना के अंतर्गत हमने उन्हें रखा है? व्यवस्था को बदलने की चाह और चिन्ता उनकी बहुत गहरी थी। सवाल यह था कि 'रचनात्मक कर्म' के जरिए वह कैसे संभव हो? ''वह रचनात्मक 'कर्म' क्या हो? वह सिर्फ अपनी सूक्ष्म भाव-संवेदना नहीं, अपने बाहर की ठोस व्यवस्था को बदलने वाला कर्म?... मुझे लगता है कि सिर्फ मैं ही नहीं, मेरे साथ आज का सारा रचनात्मक परिदृश्य ठिठका हुआ है - उस जवाब को पाने के लिए, उस जवाब की खोज करने के लिए।'' (वही, पृ. 70) आज के किस रचनाकार में 'रचनात्मक कर्म' को लेकर ऐसी बेचैनी है? क्या आज का 'रचनात्मक परिदृश्य' सुहाना-सुहाना है? मलयज की यह आवाज़ हमने क्यों नहीं सुनी?
मलयज शुद्ध 'साहित्यिक' नहीं थे। मार्क्सवादी नहीं थे, पर मार्क्सवाद में आस्था थी। आज ऐसे मार्क्सवादी कम नहीं है, जिनमें 'मार्क्स' और 'मार्क्सवाद' के प्रति आस्था नहीं है। मलयज मार्क्सवाद का भारतीय संस्करण चाहते थे। क्या अभी तक मार्क्सवाद का कोई भारतीय संस्करण बना? अवसरवादी नहीं, सही और वास्तविक भारतीय संस्करण? अज्ञेय के वामपंथ विरोध पर मलयज ने लिखा भी। 'त्रिशंकु' (1945) के राजनीति-विरोध को उन्होंने 'असल में कम्युनिस्ट-विरोध' कहा है। ''हमारे हिन्दी साहित्य में यह एक अजीब हकीकत रही है कि उसमें राजनीति-विरोध का मतलब लगभग हमेशा वामपंथी राजनीति का विरोध रहा है साहित्य को सिद्धान्तत: राजनीति से उपर रखने वाले - 'शुद्ध' साहित्यिकों ने भी यदि कभी राजनीति-विरोध की आवाज़ बुलन्द की तो वह ज्यादातर वामपंथी राजनीति के विरोध की ही रही है'' ('संवाद और एकालाप, पृ. 50) मलयज ने 'त्रिशंकु' के अलावा 'दिनमान' के लेख ('एक भारतीय आत्मा', 23 नवम्बर 1975 में) अज्ञेय के वामपंथ विरोधी रुख की चर्चा की। यह बताया कि अज्ञेय 'त्रिशंकु' में कम्युनिस्टों के कर्कश और बलिष्ठ स्वर' की बात कर रहे थे आरै तीस वर्ष बाद 'दिनमान' के लेख में (1975 में) वामपंथी लेखकों से - साहित्य निष्ठा को खतरा' बता रहे थे। यह आपातकाल का समय था। इस समय से वे पहले की तुलना में कहीं अधिक प्रखर रूप में 'साधारण मनुष्य' के साथ खड़े होते हैं। साहित्य के संदर्भ में उन्होंने राजनीति, शब्द को कहीं अधिक 'विस्फोटक' माना, जिसका 'बारुद' अनेक शीतयुद्धों के बावजूद समाप्त नहीं हुआ है। राजनीति और साहित्य उनके लिए 'एक दूसरे का स्थानापन्न' नहीं था। ये दोनों 'मनुष्य की बुनियादी हरकत' हैं और वे 'इन दोनों हरकतों के बीच एक अटूट रिश्ता' देखते थे। ''साहित्य स्वयं को संबोधित नहीं करता, राजनीति स्वयं की अभिव्यक्ति नहीं करती।'' (वही, पृष्ठ 51) वे मानते थे कि साहित्य अपने को संबोधित कर 'पंगु' हो जाता है और गतिहीन, राजनीति स्वयं को व्यक्त कर 'दिशाहीन' हो जाती है। मलयज के लिए अन्य: (मनुष्य) महत्वपूर्ण था और वे गतिहीन साहित्य, और 'दिशाहीन राजनीति' से 'जातीय संस्कृति' को जीवित नहीं देखते थे। उनका 'शब्द-संस्कृति' पर नहीं 'कर्म-संस्कृति' पर विश्वास था, जिसे रामचन्द्र शुक्ल के गंभीर अध्ययन ने और अधिक परिपक्व-परिपुष्ट किया : 'जातीय संस्कृति' उनके अनुसार 'ऐसा संदर्भ' था, जिसमें साहित्य और राजनीति दोनों 'स्वयं पर्याप्त' नहीं हैं। साहित्य और राजनीति के बीच जिस जरूरी संवाद पर उनका बल था, वह स्वाधीनता-आन्दोलन के अन्तिम दिनों में ही कमजोर हो गया था। आज स्थिति यह है कि साहित्य के भीतर ही संवादहीनता है। जिस समय बौने नेता और उनके चेले कवियों-लेखकों पर आक्रमण करते हों, उस समय चन्द अपवादों को छोड़कर कवियों-लेखकों के बीच की संवादहीनता कितनी घातक है, इसे अब भी समझा नहीं जा रहा है। मलयज की चिन्ता यह भी थी कि ''संस्कृति जैसे गहन विषय पर विचार-मंथन करने वाले मनीषी लोग अक्सर अपनी निष्पत्तियों में यथास्थितिवाद के गर्त में जा गिरते हैं और ''यथास्थितिवादी सामान्यत: राजनीति विरोधी और विशेषत: वामपन्थ विरोधी होता है।'' (वही, पृष्ठ 52)
पचास के दशक का इलाहाबाद साहित्यिक हलचलों और गतिविधियों का केन्द्र था। 'नयी कविता' और 'नयी कहानी' आन्दोलन यहीं जन्में थे। 'परिमल' यहीं था। मलयज सब कुछ देख-समझ रहे थे। उनका व्यक्तित्व गंभीर और अन्तर्मुखी था। वे इस समय पर एक साथ 'भावना-प्रवाह' और 'विचार-प्रवाह' पर चिन्तन कर रहे थे। 'परिमल' के कवियों-लेखकों के साथ रहते हुए भी न वे 'समाजवादी' थे, न 'लोहियावादी'। पचास के दशक में प्रगतिशीलों और परिमलियों के बीच जो भिड़न्त और वैचारिक लड़ाई थी, उसमें वे शामिल नहीं थे। आरंभ से ही उनमें एक प्रकार की तटस्थता थी, वैचारिक तटस्थता, जिससे उन्होंने अपने चिन्तन का एक सर्वथा भिन्न नवीन रूप-स्वरूप निर्मित-विकसित किया। वे सबसे भिन्न और मौलिक थे। पचास के दशक के अंतिम तीन वर्षों में उनकी वैचारिक गतिशीलता, यथार्थ, वस्तु, तथ्यादि की जो गहरी मौलिक पहचान उनकी डायरी में दिखाई देती है, वह चमत्कृत करने वाली है। यथार्थ पहले की तुलना में अधिक जटिल और संश्लिष्ट था। आज़ादी का एक दशक बीत चुका था। नयी कविता स्थापित हो चुकी थी। नयी कविता और नयी कहानी के आलोचक भी स्थापित हो रहे थे। आजाद भारत में आम आदमी अपने को ठगा हुआ महसूस करने लगा था, वे इलाहाबाद में थे, जहाँ साहित्यिक बहसें और गोष्ठियाँ जारी थीं। नये कवियों के समक्ष कोई परम्परा नहीं थी। अज्ञेय की 'आधुनिकता' का दामन सब थाम नहीं सकते थे। कवियों के बीच एक प्रकार की प्रतिद्वन्द्विता थी। मलयज पास रहकर भी इस सबसे दूर थे। वे किसी के प्रभामण्डल के साथ नहीं रहे। उनका विश्वास ईमानदारी से किये गये रचना-कर्म में था और इसी 'कर्म' में वे 'अर्थ की निष्पत्ति' देखते थे। तभी ''लेखक के लिए देश, समाज, परिवेश का यथार्थ रचना का यथार्थ बनता है। अच्छे लेखक का काम पटाखे छोड़कर गडग़ड़ाहट पैदा करना नहीं है।'' (डायरी 1/261) इलाहाबाद के जिन साहित्यकारों के निकट वे हुए, उनमें साही, रघुवंश आदि थे। बाहर उनकी जितनी बहसें होती थीं, उससे कहीं अधिक उनके मानस में विचार घुमड़ते रहते थे, जो डायरी के पृष्ठों में दर्ज होते जाते थे। वे 'परिमल' से जुड़े थे। 'परिमल' की 'आधुनिकता' पर संगोष्ठी उनके संयोजकत्व में हुई थी। 'परिमल' की गोष्ठियों में विभिन्न वक्ताओं द्वारा व्यक्त विचारों पर उनके अपने विचार उनकी डायरी में दर्ज़ है। 'मानव-मूल्य और साहित्य' विषय पर हुई परिचर्चा गोष्ठी में जगदीश गुप्त, साही, ज्योतिस्वरूप सक्सेना, लक्ष्मीकान्त वर्मा, भारती सबके विचारों पर अज्ञेय और रघुवीर सहाय की कविताओं के साथ उन्होंने विचार किया। किसी से प्रभावित-अप्रभावित होने का प्रश्न नहीं था। उनकी अपनी निजी, खुली, व्यापक दृष्टि थी। वे सबके वक्तव्यों में 'अपनी पूर्व निश्चित धारणाओं की गूंज' देख-सुन रहे थे। मलयज की यह विशेषता है कि उनके पास ऐसी कोई 'निश्चित धारणा' नहीं थी। प्रश्न थे, उत्तर नहीं थे। विचार थे, हल और समाधान नहीं थे। उनकी रचना-आलोचना निष्कर्षपरक नहीं है। दर्शन, राजनीति और विज्ञान की तुलना में 'कला' को वे 'विश्लेषणात्मक' न मानकर 'संश्लेषणात्मक' मानते थे और कला द्वारा स्थापित मानव-मूल्य को - 'दर्शन, राजनीति, विज्ञान आदि द्वारा स्थापित मानव-मूल्य से अधिक महान और शाश्वत' समझते थे।
लक्ष्मीकान्त वर्मा ने जिस 'लघुमानव' की बात की थी और साही ने 'लघु मानव के बहाने हिन्दी कविता पर बहस' की जो शुरूआत की थी, वह 'लघुमानव' मलयज के विचार-चिन्तन में कई दिनों तक उपस्थित रहा था। 'संवाद और एकालाप' के 'गोष्ठी-प्रसंग' में 'लघु मानव का प्रश्न' पर उनके विचार दर्ज़ है। 27 अगस्त 59, 3 सितम्बर 59, 9 सितम्बर 59, 10 सितम्बर 59, 12 सितम्बर 59 और 15 सितम्बर 59 की डायरी में 'लघु मानव' पर विस्तार से चर्चा है। वे 'लघुमानव की कल्पना और उसके स्वरूप पर विचार, जिन दो दृष्टियों - सैद्धान्तिक और साहित्यिक से कर रहे थे, उनमें मात्र साहित्यिक संदर्भ में देखने से उत्पन्न समस्याओं की ओर भी उन्होंने हमारा ध्यान दिलाया। वे पचास के दशक के मनुष्य को पहले के मनुष्य से 'बदला हुआ' देख रहे थे। ''सन 50 के बाद से जो जीवन इस देश में आया, वह स्वतंत्रता-पूर्व के जीवन से निश्चय ही भिन्न था। यह जीवन मूल्य-संक्रमण से उत्पन्न अव्यवस्था का जीवन था। इस जीवन से जूझना ही नयी पीढ़ी की नियति थी... एक विराट अनुभूत अनुभव के आगे जैसे उसे झोंक दिया गया था, और इसीलिए एक अर्थ में यह कहना शायद अधिक संगत होगा - और शायद अधिक अर्थपूर्ण भी - कि वह उस जीवन को जी नहीं रहा था, वह जीवन ही उसे जी रहा था, वह स्थिति बहुत कुछ आज भी वैसी ही बनी हुई है।'' (वहीं, पृष्ठ 151) इस बदले हुए मानव को 'लघु मानव', 'नव मानव', 'सहज मानव', 'सामान्य मानव', 'पवित्र मानव' जो भी कहें, 'साहित्य में अपनी प्रतिष्ठा के लिए पहले से कुछ सर्वथा भिन्न और नयी माँगे' रखने  की बात मलयज ने तब कही थी, जब उन्होने एक लेख भी नहीं लिखा था। वे 'सामान्य व्यक्तित्व' से अलग-रचनाकार के विशिष्ट व्यक्तित्व को रेखांकित कर रहे थे और 'रचना-प्रक्रिया' को 'अनुभव-प्रक्रिया' से भिन्न मान रहे थे। 'अनुभूति का सत्य' और 'रचना का सत्य' में अंतर है। मलयज की निगाह सदैव अपने समय पर रही है। पहले के समय से, स्वाधीनता पूर्व के समय से, अपने समय, स्वाधीन भारत के समय के अंतर को व स्पष्ट करते हैं। पहले जहाँ व्यक्ति और व्यक्ति तथा व्यक्ति और समाज को जोडऩे वाले 'मूल्य-सूत्र' थे, वे बाद में कमजोर और झूठे हुए। सम्पूर्णता और अखंडता (इंटेग्रिटी) की बात उन्होंने डायरी में कई बार की है, जिसका अपने में वे अभाव देखते थे। यह अभाव उनके अनुसार 'आज के मनोवैज्ञानिक युग की ट्रेजिडी' है। पहले के साहित्य में स्रष्टा के सामान्य और विशिष्ट व्यक्तित्व के बीच जो 'इंटेग्रिटी' थी, उसका स्वतंत्र भारत में अभाव रहा। इन दोनों पक्षों (सामान्य और विशिष्ट व्यक्तित्व) के बीच आरंभ में जो कम खाई थी, वह बाद में बढ़ती गयी। ''आज न केवल वह खाई काफी चौड़ी है, वरन् दोनों ही पक्षों का विरोध एक दूसरे के व्यंग्य को निर्ममतापूर्वक उभारता भी है।'' (वही, पृष्ठ 141)
आलोचनात्मक लेखन से पहले मलयज ने जो तैयारी की थी, वह अद्भुत है। पचास के दशक के अंतिम वर्षों में किया गया उनका वैचारिक चिन्तन कहीं अधिक नवीन, गंभीर, मौलिक और विचारोत्तेजक है: कला और साहित्य का प्रश्न उनके लिए रचना और विधा-विशेष तक सीमित नहीं था। लक्ष्मीकान्त वर्मा और साही ने 'लघु मानव' को जिस रूप में देखा था, उसे मलयज ने भिन्न दृष्टि से देखा। विजयदेव नारायण साही और ज्योतिस्वरूप सक्सेना उनके अध्यापक थे, जिनको उन्होंने 'कविता के साक्षात्कार' (1979) पुस्तक अपने युनिवर्सिटी के दिनों की याद में सादर समर्पित की है। मलयज की दृष्टि आरंभ से अलग और सबसे भिन्न थी। वे किसी से प्रभावित, नहीं थे। आक्रान्त होने का सवाल ही नहीं था। गंभीर अध्ययन, चिन्तन-मनन और लगभग एकान्त साधना से उन्होंने अपनी दृष्टि निर्मित की थी - समय, समाज और रचना-सापेक्ष। उन्होंने सर्वथा भिन्न रूप में 'लघु मानव' को देखा। ''औसत आदमी + क्षण-क्षण का यथार्थ+ बाह्यारोपित विचारधारा या दर्शन का विरोध के रूप में। उसे वे उसी कारखाने से निर्मित दखे रहे थे, ''जहाँ से 'नयी कविता' की सैद्धान्तिक मान्यताएं अक्सर आकार पाती रही हैं। एक संक्रान्तिकालीन परिवेश में व्यक्ति की स्वानुभूति'' (वही, पृष्ठ 43) वे रचनाकार के 'विशिष्ट व्यक्ति' के साथ उसके 'सामान्य व्यक्तित्व' को भी देखते हैं। 'लघु मानव' की स्थापना को उन्होंने ''रचनाकार के विशिष्ट व्यक्तित्व के दायित्व पर यथार्थ के सीधे संवेदनात्मक अनुभवों से घिरे उसके सामान्य व्यक्तित्व के दायित्व की मांग'' माना। साहित्यिक संदर्भ में ही 'लघुमानव' की चर्चा और बहस होती रही थी। मलयज का ध्यान केवल साहित्यिक संदर्भ पर नहीं रहा है। सामाजिक संदर्भ भी उनके ध्यान में रहा था। इसीसे उनके चिन्तन में न तो संकीर्णता है, न मात्र साहित्यिकता। 'साहित्यिक संदर्भ में लघु मानव की विचारधारा का आधारभूत सत्य' उन्हें 'उस सामान्य मानव के प्रति आग्रह का दृष्टिकोण ही प्रतीत' (वही, पृ. 143) हुआ। मलयज की रचना-आलोचना के केन्द्र में यह 'सामान्य मनुष्य' प्रत्यक्ष रूप में न सही, परोक्ष रूप में ही सही दिखाई देगा। नामवर सिंह ने अपने लेख 'मलयज की संघर्ष-मीमांसा' में साहित्य में सामान्य मनुष्य की खोज नयी नहीं माना है। लिखा है ''60-61 के दिनों में मलयज के विधागुरु विजय देव नारायण साही ने भी 'लघु मानव के बहाने हिन्दी कविता पर एक बहस के दौरान साधारण परिवेश में साधारण मनुष्य की खोज की थी... शुक्ल जी के सामान्य मनुष्य की प्रतिमा गढ़ते समय मलयज को अपने गुरु के 'साधारण मनुष्य' की याद थी या नहीं, नहीं पता... उन्हीं दिनों जब मलयज शुक्ल जी के सामान्य मनुष्य की खोज में प्रवृत्त थे, 'सामान्तर' कहानी वाले 'आम आदमी' का नारा लगा रहे थे। क्या मलयज के ध्यान में यह आदमी भी था?' (रामचन्द्र शुक्ल: मलयज, सम्पादक नामवर सिंह, 1987, पृष्ठ 17) मलयज बहुत पहले से सामान्य आदमी से जुड़े थे, उस समय से जब 'लघु मानव' और 'आम आदमी' का कविता-कहानी में कोई शोर नहीं था। उन्होंने सामान्य मनुष्य से अपने को जोड़ रखा था। इस लेख के आरंभ में 1953 की उनकी कविता का उद्धृत अंश यह समझने के लिये काफी हैं। आज़ादी इस सामान्य-साधारण आदमी के लिए नहीं आई थी।
मलयज के आलोचनात्मक लेखन का आरंभ साठ के दशक से हुआ। इस दशक पर उनका अधिक ध्यान रहा है। साहित्य और साहित्य से बाहर इस दशक में कई बदलाव हुए। 'कविता से साक्षात्कार' में संकलित अठारह निबंधों में से दस निबंध इस दशक के हैं। दशक की समाप्ति पर 1970 में उन्होंने एक दशक के युवा लेखन पर बातें की थीं - 'पिछले दशक के युवा लेखन के बारे में' पचास के दशक  से साठ का दशक भिन्न था। चीनी आक्रमण, नेहरू-मुक्तिबोध के निधन (1964) कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन (1964) इंदिरा गांधी के शासन (1966) के बाद स्थितियां पूर्ववत न रहीं। 'नयी कहानी' और 'नयी कविता' का दौर समाप्त हुआ। अकविता और अकहानी चर्चा में रही। 'किसिम किसिम की कविता' लिखी जाने लगी। साठोत्तरी कहानी और युवा कविता, लेखन का दौर आरंभ हुआ। लक्ष्मीकांत वर्मा की निबंधमाला 'कल्पना' में आजादी के बाद के बीस वर्ष के साहित्य पर प्रकाशित हुई। चौथे आम चुनाव (1967) ने कांग्रेस को झटका दिया। कई राज्यों में संविद सरकारें बनी। नक्सलवाड़ी में 'वसंत का वज्रनाद' हुआ। एक नयी राजनीतिक विचारधारा सामने आई। इस दशक में साहित्य-रचना में कई नये परिवर्तन दिखाई पड़े। नामवर 'आलोचना' के सम्पादक हुए। नेहरू का जादू उतर चुका था। कांग्रेस नये रूप में अवतरित हो रही थी। फ्रांस में 1968 में छात्र-आंदोलन की धमक पूरे विश्व में सुनाई पड़ी। राममनोहर लोहिया दिवंगत हुए। मलयज ने इस दशक के लेखन पर अधिक ध्यान दिया। यह केवल समय का बदलना और नये दशक का आगमन नहीं था। ''केवल समय बदलते जाने से - सन साठ के बाद सन सत्तर और उसके बाद सन अस्सी-नब्बे के आते जाने से 'अन्तर' घटित नहीं हो जाता। 'अन्तर' तभी आयेगा, जब उसे लाया जाय और वह सिर्फ दरवाजे पर खड़े होकर चिल्लाने मात्र से नहीं होगा।'' ('संवाद और एकालाप', पृष्ठ 93) चिल्लाना बाद में अधिक हुआ। राजनीति बदली और साहित्य भी बदला। इस दशक के अपने पहले निबंध 'नया रचनाकार: अभिव्यक्ति की समस्या' (1963) में उन्होंने नये कवियों के समक्ष मौजूद 'एक विचित्र-सी स्थिति' की बात कही। नये कवियों में 'यथार्थ के अनुभूत पक्ष और उसके चिन्तन-पक्ष में एक गहरी खाई' देखी। इस दशक की कविता को उन्होंने 'अमूर्तन की ओर झुकते या फिर एक आवेश- जनित बौखलाहट के रूप में व्यक्त' होते देखा। उनकी चिन्ता में आधुनिक रचना थी। वे बाहर और भीतर को एक दूसरे से अलग नहीं देखते थे - रचना के संदर्भ में। कविता की रचना बाहर और भीतर दोनों प्रमुख हैं। ''भीतर का बहुत कुछ सिर्फ बाहर के आलोक में ही छुआ जा सकता है, कि कैसे बाहर भी बिना भीतर की आग के महज एक संदिग्ध सत्य बनकर रह जाता है।'' ('कविता से साक्षात्कार', पृष्ठ 10) साठ के दशक के युवा लेखन ने जो अपेक्षाएँ जगायी थीं, वे उन्हें उन अपेक्षाओं को 'पूरा न कर पाने का लेखन' कहते हैं। इसके पीछे उन्होंने दो कारण देखे - ''जीवन-प्रक्रिया और सृजन-प्रक्रिया के बीच का कोई अन्तर्विरोध' या 'रचनाकार की असामथ्र्य।'' (वही, पृ. 164) आज जब लगभग एक दशक से हिन्दी में युवा लेखन, युवा कविता, युवा कहानी पर विचार हो रहा है, हमें साठ के दशक के युवा लेखन और उस पर हुई बहसों पर ध्यान देना चाहिए। 'कल्पना' के जनवरी-फरवरी 1967 के संयुक्तांक में 'हिन्दी साहित्य के पिछले बीस वर्ष' पर लक्ष्मीकान्त वर्मा ने विचार किया था और एक वर्ष बाद नामवर सिंह ने 'आलोचना 4' (जनवरी-मार्च 1968) में 'युवा लेखन पर बहस', आयोजित की थी। मलयज इस बहस में शामिल नहीं थे, पर वे इसे देख-समझ रहे थे। उनके सामने नेहरू-युग की समाप्ति के बाद बदलती स्थितियाँ थीं। इस समय की प्रक्रिया को उन्होंने 'व्यक्ति के निर्वासन की प्रक्रिया' कहा। नामवर ने 'युवा लेखन पर बहस' में 'व्यक्ति के निर्वासन' की मार्क्सीय व्याख्या की थी। वे व्यक्ति को 'बाहर' ('निर्वासित') किये जाने के पीछे 'समसामयिक परिवेश से संसक्ति' देख रहे थे। मलयज ने 'व्यक्ति के निर्वासन की धारणा' को 'समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र के चश्मे' से न देखकर 'सर्जनात्मकता के संदर्भ' में देखा। वे 'विज्ञान के साथ अधूरा साक्षात्कार' को नेहरू-युग के निर्वासन का कारण कह रहे थे। साठ के दशक की मुख्य समस्या उनके अनुसार 'अन्तत: निवार्सित 'भीतर' की रचना करने की समस्या थी।' यह समस्या नेहरू-युग की समस्या से भिन्न थी, उन्होंने नेहरू युग और उसके बाद के 'निर्वासन' में अंतर किया। ''पहले निर्वासन की परिणति मोहभंग में हुई थी, जबकि दूसरे निर्वासन की परिणति एक महान सांसत की स्थिति में'' (वही, पृष्ठ 166-167) नामवर ने निराला की काव्य-पंक्ति 'बाहर मैं कर दिया गया हूँ, भीतर से भर दिया गया हूँ' उद्धृत करते हुए युवा पीढ़ी के भीतर से भर दिए जाने की जो बात कही थी, उसे मलयज ने 'उत्साहवश कथन' कहा। नामवर के आधार लेख में उन्हें ''युवा पीढ़ी की आन्तरिक सम्पन्नता और भराव का कोई विवेचन-विश्लेषण' नहीं मिला।'' (वही, पृष्ठ 169) नामवर के लेख में 'युवा पीढ़ी' के 'बाहर' से निर्वासन की क्रूर विडम्बना का न तो स्पष्ट चित्र' उन्होंने बनते देखा और न 'खून से लथपथ भीतर' की अनिवार्य ट्रेजेडी के मर्म को उघरते' देखा। उन्होंने इस प्रकार की 'वकालत' को 'उस रक्त-रंजित भीतर' को छिपाने का एक 'डिफेन्स मैकेनि•म' माना, जिसमें कवियों-लेखकों के साथ कुछ आलोचक-समीक्षक भी शामिल हैं' (वही) मलयज ने 'भीतर' से 'बाहर' जाने की क्रिया को 'एक प्रकार का माइग्रेशन' कहा। वे साठ के दशक की रचना को सर्वथा भिन्न दृष्टि से देख रहे थे। मुख्य समस्या इस दौर की राजनीति को समझने की थी। नेहरू युग की राजनीति को उन्होंने 'आदर्शवाद की राजनीति' कहा है और उसके बाद के दौर की राजनीति को 'सिद्धान्तहीन राजनीति' मानकर दोनो की तुलना की है। उन्होंने इस पर विचार नहीं किया कि हमारे देश में इस 'सिद्धान्तहीन राजनीति' का जन्म और विकास कब, कैसे और क्यों हुआ? यह उनके लिए आवश्यक भी नहीं था। मलयज नेहरू-युग की आदर्शवादी राजनीति का अन्त मोहभंग में होने पर आश्चर्य नहीं करते क्योंकि इसके पैर यथार्थ पर कम स्वर्णिम मानव-भविष्य के स्वप्न पर अधिक टिके थे'' इस राजनीति को उन्होंने - राजनेताओं की राजनीति' - 'विशिष्ट राजनेताओं की राजनीति' कहा है, जो ''प्रतिभा के गौरव से सम्पन्न थी और ऐसी राजनीति के कारण हुए मोहभंग में भी एक प्रकार की ट्रैजिक शान थी'' (वही, पृष्ठ 165) आज हमारे सामने भारतीय लोकतन्त्र का जो चेहरा है, वह अचानक नहीं बना है। साठ के दशक की राजनीति को मलयज 'एक ऐसा प्रजातन्त्र' कहते हैं, ''जो व्यक्ति के मूल अधिकारों और विकास की संभावनाओं की चेतना को जाग्रत करता है और फिर एक सुस्त व्यवस्था और अकल्पनाशील प्रतिष्ठान द्वारा उन अधिकारों के हनन का अनुभव भी देता है।'' (वही) आज जब भारतीय राजनीति में लुम्पेनों की भरमार है, मलयज की उस समय की राजनीतिक दृष्टि और समझ की प्रशंसा की जानी चाहिए। उन्होंने 'चार आम चुनावों (1952, 1957, 1962, 1967) के माहौल में पली-पुसी पीढ़ी' देखी थी। वे स्वयं भी उस पीढ़ी में थे। उस समय उनकी दृष्टि जितनी सजग, सतर्क, चौकन्नी और विवेकवान थी, आज क्या हमारी दृष्टि उसी तरह है? मलयज ने बार-बार द्वन्द्वात्मक रिश्तों की बात की है। उन्होंने 'विज्ञान के साथ नेहरू-युग की व्यक्ति-चेतना का कोई द्वन्द्वात्मक रिश्ता' नहीं देखा और परम्परा के आकर्षक बिम्ब के साथ एक समझौता' कहा। मलयज के ध्यान में वह समय था, जहाँ से रचना जन्म लेती है। कविता और युवा लेखन को बहुत भीतर से खंगालते हुए उन्होंने अपने समय की सार्थक, सटीक और सही आलोचना की। नेहरू ने भाखड़ा नंगल को 'आधुनिक युग का तीर्थ' कहा था। उनके इस कथन में उन्होंने 'परम्परा के साथ समझौते' से उत्पन्न 'छद्म आधुनिकता की भाषा का इस्तेमाल देखा। वे एक साथ रचना, रचना की भाषा, समय और समय से जुड़ी राजनीति को देख रहे थे। आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र होने की दृष्टि का उन्होंने 'विज्ञान से सीधा ताल्लुक' देखा। 'इस दीर्घसूत्री वैज्ञानिक भविष्यवाद' में ही सामान्यजन की आवश्यकताओं और उनको 'आधार प्रदान करने वाले बुनियादी अर्थतंत्र' को छिपा देखा। ''औद्योगिक समाज की नींव तब तक कायम नहीं हो सकती थी, जब तक बुनियादी अर्थतंत्र के उपलब्ध साधनों का विकास कर एक सुदृढ़ इन्फ्रास्ट्रक्चर निर्मित करने की कोशिश नहीं की जाती।'' (वही, पृष्ठ 166) आधुनिकता से परम्परा का यह समझौता ही है, जिससे नरेन्द्र मोदी भारतीय संविधान को धर्मग्रन्थ कहते हैं।
साठ के दशक की 'सर्जनात्मकता' अखंडित न होकर खंडित थी। पुराने काव्य-प्रतिमान व्यर्थ सिद्ध हो रहे थे। प्रतिमानों की इस व्यर्थता और अनुपस्थिति को मलयज ने 'व्यर्थ' नहीं माना। कवि और आलोचक एक साथ प्रतिमानों की तलाश कर रहे थे। प्रतिमान के न होने को मलयज ने 'स्थिति' कहा है और उसकी तलाश को 'संभावना'। अपने लेख 'खण्ड-खण्ड की सर्जनात्मकता' (1968) में उन्होंने प्रतिमान के अभाव में उस 'स्थिति' को कवियों द्वारा 'एक सुरक्षात्मक कवच' की तरह इस्तेमाल करते देखा है। कविता में 'वियतनाम' और 'अकाल' के साथ 'संत्रास' और 'संभोग' भी था। इन दोनों प्रकार की भाषाओं में मलयज ने कोई अंतर नहीं देखा। दोनों प्रतिमान के न होने की स्थिति का लाभ अपने पक्ष में उठा रहे थे। अपने समय की रचनाशीलता को मलयज ने बड़ी गहराई से देखा। जीवन और कविता को उन्होंने कभी एक दूसरे से विलग नहीं किया। उनका बल इन दोनों की सर्जनात्मकता पर था। कविता के सृजन को जीवन के सृजन से अलग करके देखने का सिलसिला आज भी कायम है। शायद कहीं अधिक कायम है। हिन्दी के किसी भी आलोचक ने 'सर्जनात्मकता' पर उतना अधिक बल नहीं दिया, जितना मलयज ने, 'सृजनात्मक शब्द', 'सृजनात्मक अर्थ', 'सृजनात्मक आयाम', 'सृजनात्मक अभिव्यक्ति', 'आधुनिक सर्जनात्मकता' सर्जनात्मक लेखन' (निबंध का शीर्षक भी), 'सर्जनात्मक संकट बोध', 'सर्जनात्मक भाषा' (सृजन की भाषा से अलग), 'सर्जनात्मक चेतना', 'रचनात्मक स्तर', 'रचनात्मक प्रतिभा', 'सृजन-संदर्भ', 'सर्जनात्मक संक्रान्ति', 'रचनात्मक संदर्भ', 'सृजनात्मक अनुभव', 'एकालाप की सर्जनात्मक प्रक्रिया', 'एकतरफा सर्जनात्मकता', 'दो तरफा सर्जनात्मकता', 'सृजनात्मक स्तर', 'अवरुद्ध रचनात्मकता', 'सर्जनात्मक मान्यता', 'सृजन प्रक्रिया', 'सर्जनात्मक लेखन', 'प्रयोगकर्ता की सर्जनात्मकता', 'खण्ड-खण्ड की सर्जनात्मकता', 'सर्जनात्मक प्रेरणा', 'सर्जनात्मक तनाव', 'रचना की बुनियादी सर्जनात्मकता', 'सर्जनात्मक प्रतिफलन', 'स्पृहणीय सृजन-मूल्य', 'सर्जनात्मक परिणति', 'गहरी सर्जनात्मकता', 'सर्जनात्मक कल्पना', 'बाह्य सर्जनात्मकता' आदि पद उनकी आलोचना में भरे पड़े हैं। मलयज की सबसे बड़ी चिन्ता में यह 'सृजन' है - रचना और जीवन का सृजन। अपने समय की कविता में 'समग्रता और निरन्तरता' की मांग को उन्होंने एक प्रकार से 'यथास्थिति की मांग' कहा है और ''सब कुछ को खण्ड-खण्ड कर रखने के पीछे इस यथास्थिति को तोडऩे की सर्जनात्मक चेष्टा' माना है। 'कविता से साक्षात्कार' के तीन निबंध सीधे सर्जनात्मकता से जुड़े हैं - 'सर्जनात्मक लेखन में भाषा का तनाव' (1964), 'खण्ड-खण्ड की सर्जनात्मकता' (1968), और 'सर्जनात्मक तनाव और अन्तर्निष्ठा' (1969) 'संवाद और एकालाप' के दो निबंधों में उन्होंने 'रचनात्मक भाषा का सवाल'  और 'सृजन और चिन्तन' पर विचार किया है। अपने पत्रों और डायरी में भी वे 'रचनात्मक' और 'सृजनात्मक' भाषा पर विचार करते रहे थे। विपिन कुमार अग्रवाल के नाटक 'तीन अपाहिज' की 'दिनमान' में प्रकाशित समीक्षा पढ़कर उन्होंने 'दिनमान' सम्पादक को पत्र लिखा कि ये नाटक 'नाटक की भाषा की खोज करने में लिखे गये नाटक' हैं और भाषा विपिन कुमार अग्रवाल के लिए 'अभिव्यक्ति' का नहीं, 'सृजन' का माध्यम है। भाषा उनके लिए 'सृजन कर्म का साधन मात्र' न होकर 'सृजनकर्म की सहकत्र्री' और कभी-कभी 'सृजन का पर्याय' भी है। क्या स्वतंत्र भारत में क्रमश: सृजन कर्म अवरूद्ध होता नहीं गया, जो मलयज के लिए गहरी चिन्ता का विषय था। उन्होंने 'सृजन की भाषा' और 'सर्जनात्मक भाषा' में अंतर किया। इन दोनों में वे 'सूक्ष्म अंतर' देखते हैं। 'सर्जनात्मक लेखन की भाषा की सूक्ष्म तहों को उलटना-पुलटना' उनके लिए 'श्रेयस्कर' था। भाषा-पक्ष के अध्ययन से कवि का जीवन-बोध भी ज्ञात होता है। संभवत: वे हिन्दी के अकेले आलोचक हैं, जो 'भाषा के आचरण' की बात करते हैं। 'भाषा के आचरण' की उनकी परिकल्पना 'भाषा के प्रयोगकर्ता के रचनाकार-व्यक्तित्व तथा उसके परिवेश के बीच स्थित संबंध' से है। उनके लिए 'परिवेश' कम महत्वपूर्ण नहीं था। द्विवेदी युगीन भाषा को उन्होंने 'सामाजिक आचरण' और छायावाद-युग की भाषा को 'व्यक्तिवादी आचरण' की भाषा कहा है। द्विवेदी युग के उदाहरण से उन्होंने यह बताया कि ''यहाँ भाषा रचनाकार और उसके संबंध की साक्षी मात्र है।'' (वही, पृष्ठ 143) भाषा का यह रूप उनकी दृष्टि में 'रचनात्मक स्तर पर पराश्रित' है, जिससे भाषा और परिवेश का संबंध 'दो स्वतंत्र गतिशील इकाइयों का संबंध', नहीं रह पाता। यह संबंध उनके अनुसार 'आश्रयदाता और आश्रित का संबंध' है। द्विवेदी-युग की काव्य-भाषा पर ऐसा मौलिक विचार उनके पहले दिखाई नहीं देता। 'भाषा का वर्जनात्मक ढाँचा' 'गद्य के होने की शर्त' है और काव्य-भाषा को वर्जनात्मक ढाँचे से वे अलग करते हैं। भाषा पर विचार करते हुए वे उन 'ऐतिहासिक शक्ति-चक्र' पर भी ध्यान देते हैं, जिसकी गति सदैव समान नहीं रहती।
हिन्दी में 'सर्जनात्मक भाषा' का प्रयोग धड़ल्ले से किया जाता है। उसको पहचानने,परिभाषित विवेचित-विश्लेषित करने के उदाहरण कम हैं। 'सर्जनात्मक भाषा' में वे रचनाकार को 'भाषा की इकाई के रूप में शब्द के अस्तित्व के प्रति अधिक सचेत' देखा है। शब्द-प्रत्यय और अलोचनात्मक पद अचानक निर्मित नहीं होते। सर्जनात्मक लेखन में भाषा के बदलते रूपों पर उनका ध्यान आरंभ से ही था। नेहरू मुक्तिबोध के निधन वर्ष (1964) में 'सर्जनात्मक लेखन में भाषा का बदलता हुआ रूप' निबंध प्रकाशित हुआ था। उस समय भारतीय समाज पहले की तरह 'सर्जनात्मक' नहीं रह गया था। राजनीति कहीं से भी सर्जनात्मक नहीं रही। 'सर्जनात्मक भाषा' ''रचनाकार की अनुभूतियों के दीपक से दीपक जलाने की क्रिया से पैदा नहीं होती, चाहे रचनाकार की वे भावानुभूतियां कितने ही वेग और तीव्रता से भाषा की सीमा से टकराएँ'' (वहीं, पृष्ठ-143)
काव्य-भाषा पर मलयज के विचार उनके आरंभिक लेखन से दिखाई देते हैं। 'भाषा की आन्तरिक संरचना', उसकी 'शक्तिमत्ता', 'भाषा का व्यक्तित्व', 'भाषा का यांत्रिक पक्ष', 'भाषा का मैकेनिज्म', 'भाषा का नियम-विधान' 'विविध भाषा-प्रयोग' 'भाषा के रुप' 'भाषा का व्यक्तिवादी और सामाजिक आचरण', 'भाषिक संवेदना', 'भाषागत खोज', 'भाषा का अर्थ-विस्तार' उसकी 'अर्थ-सम्पन्नता', 'शब्द की शब्दहीनता' और 'अर्थहीनता' 'भाषा-उदात्त उपक्रम', 'सौन्दर्यभाषा', 'वाकभाषा का इकहरापन', 'सपाट बयानी', 'भाषा का छायावादी संस्कार' 'शब्द प्रत्यय' आदि पर उनके गंभीर मौलिक विचारों से यह स्पष्ट है कि भाषा और रचनात्मक भाषा को वे कितनी गंभीरता से देख रहे थे। उनके लिए 'कविता का काम', 'भाषा में यथार्थ की रचना' करना है। यथार्थ की अभिव्यक्ति नहीं, यथार्थ की रचना, जो ''यथार्थ को शब्दों के भीतर बाँधने से नहीं, उसे शब्दों के बाहर ले जाने से होता है, भाषा में होते हुए भी - भाषा से बाहर, यह है आधुनिक रचना की नियति।'' (वही, पृष्ठ 83) इस कसौटी पर भाषा में यथार्थ को रचने की कसौटी पर बहुत कम कविताएं कविताएं सिद्ध होंगी। मलयज के यहाँ 'यथार्थ' के कई स्तर हैं, जिनमें से एक है 'रचनात्मक यथार्थ'। सामान्य व्यक्ति और कवि-कलाकार में यह अन्तर है कि साधारण व्यक्ति जहाँ यथार्थ के सभी स्तरों से गुजरता है, वहाँ कवि कलाकार केवल 'रचनात्मक यथार्थ' का चयन करता है। कविता और आलोचना में वे 'अनुभव' और 'अनुभव संसार' को केन्द्र में रखते हैं। कविता जहाँ सिर्फ एक अनुभव को रचती है वहाँ आलोचना उस अनुभव को व्यापक अर्थ-विस्तार देती है। नयी कविता में ध्वनि-चिन्हों (कोलन, डैश, शब्दों को टुकड़े-टुकड़े करके रखने के क्रम आदि) के प्रयोग से उन्होंने अर्थ के एक नये आयाम के उभरने की बात कही। यह उनके अनुसार 'भाषा का आन्तरिक नियम-विधान' (मैकेनिज्म) था, जो 'काव्य की नयी दिशा का निर्णायक सूत्र' नहीं था। काव्य का निर्णायक सूत्र है ''यथार्थ अनुभव की व्यापकता मार्मिकता उसकी संरचना और तीव्रता' वे 'यथार्थ' 'अनुभव' और 'अनुभूति' के साथ काव्य-भाषा पर कई कोणों से विचार करते हैं। 1964 में वे - 'सर्जनात्मक लेखन में भाषा का बदलता हुआ रूप' देख रहे थे और एक दशक बाद 1974 में 'काव्य भाषा का इकहरापन' पर विचार करते हैं। अनुभूति के बावजूद काव्य-भाषा 'इकहरी' हो सकती है। केवल 'अनुभूति' काव्य भाषा के इकहरेपन की जिम्मेदार नहीं है। जिम्मेदारी अनुभूति के साथ कवि के रिश्ते की है। 'अनुभूति का सत्य' 'रचना का सत्य' इस रिश्ते से ही बनता है। क्या हमारे समय के कवि-रचनाकार उनके इस कथन पर ध्यान देंगे- ''रचना अनुभव में धँसने, डूबने और तडफ़ड़ाकर कुछ पा लेने की एक जटिल प्रक्रिया' है। इस 'जटिल प्रक्रिया' को त्याग देने पर ही 'काव्य-भाषा इकहरी हो जाती है। 1964 से उनके बीच यह जिस मात्रा में हुआ, उससे कहीं अधिक यह विगत तीन दशकों में दिखाई देता है। मलयज के लिए केवल समय की पहचान प्रमुख नहीं थी, उस समय को पूरी 'भाव-ऊर्जा' और 'बुद्धि-ऊर्जा' के साथ जीने की थी। भाषा के इकहरेपन को वे 'जातीय संसार की यादों से रहित' होने से न जोड़कर भाव-ऊर्जा और बुद्धि-ऊर्जा से जोड़ते हैं। इकहरी काव्य-भाषा उनके लिए 'अर्थ-ग्रहण की भाषा' हैं और यह अर्थ 'ठहरा हुआ अर्थ' है। अर्थ के तीन आयामों-समझने, महसूसने और आचरण की बात उन्होंने एक दशक पहले 1964 में कही थी। बाद में उन्होंने 'अनुभूति' को जानने और महसूस करने में विभाजित देखा। कवि का सबकुछ या तो 'भीतर' होता है या 'बाहर'। 'एकालाप' भीतर जुड़ा है और 'संवाद' बाहर से जहाँ तक 'अनुभूति' और 'शब्द' के बीच का है, इसके कई स्तर हैं। 'अनुभूति' को उन्होंने 'भीतर' और 'बाहर' के बीच 'एक तरह का खुलेवाला किवाड़' कहा है। 'अनुभव' के जिस 'संघटित संसार' की बात उन्होंने की है, वह 'चीजों को, चीजों से व्यक्ति को व्यक्ति से और व्यक्ति को चीजों से जोड़कर बनता है। अपनी आलोचना में उन्होंने एक 'रचनात्मक लड़ाई' लड़ी है, जिसके बिना आलोचना को दिशा-दृष्टि नहीं मिलती। 'सपाट बयानी' की चर्चा साठ के दशक में खूब हुई थी। इस समय नामवरसिंह 'सपाट बयानी', 'काव्य-भाषा की सृजनशीलता' 'विसंगति और विडम्बना', 'अनुभूति की जटिलता', और 'तनाव', 'ईमानदारी और प्रामाणिक अनुभूति' पर 'कविता के नये प्रतिमान' (1968) में विस्तार से विचार कर रहे थे। नामवर और मलयज के विचारों पर अलग से विचार किये जाने की आवश्यकता है। मलयज का यकीन पुराने हथियारों से आज की लड़ाई लडऩे में नहीं था। उन्होंने कुँवरनारायण की 'आत्मजयी' और अज्ञेय की 'असाध्यवीणा' की आलोचना की थी। साफ-साफ कहा था ''अपने समय की चुनौतियों से निबटने के लिए अतीत-समय की प्रेरणाभूमियों में जाना आज के अन्त: संघर्ष को मन्द और गुमराह करना है।'' जिस 'आम आदमी' की चर्चा हो रही थी, उसे वे मात्र एक 'अवधारणा' के रूप में देख रहे थे 'संघर्षरत मनुष्य' के रूप में नहीं। उनके लिए-अवधारणा से महत्वपूर्ण संघर्ष था यह 'आम आदमी' 'सतह के तनाव' तक सीमित था और मलयज की चिन्ता में 'सतह' नहीं 'तह' थी। आपातकाल घोषित होने से पहले वे 'दिशा' को 'खोजने' और 'पाने' की बात कर रहे थे। कवि-विशेष पर लिखते हुए भी उनकी चिन्ता में कविता समय, अनुभूति और यथार्थ प्रमुख था। जीवन प्रमुख था और प्रमुख थी उसे दी जाने वाली रचनात्मक दिशा। राजनीति रचनात्मक दिशा प्रदान करने में असमर्थ हो चुकी थी। कवि को भी इसकी अधिक चिंता नहीं थी। मलयज की आलोचना रचनात्मक इस अर्थ में भी है कि वे रचना की रचनात्मक दिशा के लिए बेचैन हैं। शमशेर, अज्ञेय, त्रिलोचन ही नहीं 'पहचान' के चार कवियों - आग्नेय, शिवकुटीलाल वर्मा, सोमदत्त और विष्णु नागर पर भी लिखते हुए उनकी गहरी और व्यापक चिंताओं को समझा जा सकता है। 'भाव-ऊर्जा' और 'बुद्धि-ऊर्जा' के अभाव में सर्जनात्मकता संभव नहीं है। केवल 'साहित्यिक परम्परा से प्राप्त संवेदन' ही सबकुछ नहीं है। 'यथार्थ के संवेदन पक्ष' भी प्रमुख हैं।
'नयी कविता' में 'यथार्थ' किस रूप में व्यक्त हुआ था? क्या उस पर 'छायावाद' की कोई छाया नहीं थी? वह एक बदले हुए परिवेश से उत्पन्न था और मलयज ने 'परिवेश को बदलने' में उसकी भूमिका नहीं देखी। ''नयी कविता परम्परा के प्रति विद्रोह करते हुए भी उस परम्परा को ज़रूरत से ज्यादा नष्ट होने देना नहीं चाहती थी। उसकी चेतना में निर्माण से कहीं ज्यादा रक्षा का भाव निहित था। ''मलयज में निर्माण की, बदलने की जितनी अधिक बेचैनी थी, उतनी अधिक उस समय किस आलोचक में थी? क्या वह बेचैनी नामवर में थी। नामवर निरन्तर सफल, चर्चित और शीर्षस्थ होते गये। मलयज 'निर्माण' के इच्छुक थे। स्वतंत्र भारत 'निर्माण' की दिशा में कहाँ - कितना अग्रसर हुआ? मलयज ने इसे 'यथार्थ से आधी मुठभेड़ कहा है। वे यथार्थ से पूरी मुठभेड़ कर रहे थे। नयी कविता, साठ के बाद की कविता, जनवादी और क्रान्तिकारी कविता के संबंध में उनके विचारों को आज कहीं अधिक देखने, समझने, महसूसने की ज़रूरत है, जिससे आज आगे बढ़ा जा सके। पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित अधिकतर समीक्षाओं से वे अप्रसन्न थे। साठ के बाद की कविता 'साठोत्तरी' को 'नारे से अधिक महत्व' नहीं दिया। पहले की कविता से इस कविता का एक 'अन्तर' अवश्य था, पर यह मात्र एक 'प्रवृत्ति' थी। दिशा को वहन करने वाला कोई कवि उन्होंने इस समय नहीं देखा। उनके लिए यह महत्वपूर्ण नहीं था कि पूर्व पीढ़ी के समक्ष 'अपनी अस्तित्व-सिद्धि' के लिए कोई 'जिहादी रूप' धरा जाए। ''यदि आज सचमुच ही किसी जिहादी या युद्ध की जरूरत है तो हमारे परिवेश में व्याप्त झूठ, दगाबाजी, क्रूरता और अमानवीय शोषण के खिलाफ, जिससे राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्तरों पर हमारी चेतना बिधी हुई है... यह काम शायद कविता के क्षेत्र के बाहर का है, पर कविता में अन्तर इस बाहर में अपने को झोंके बगैर सिर्फ नारे बुलन्द करने से नहीं आ सकता, यह विश्वास मेरा दिनोंदिन पुष्ट होता जाता है।'' (वही, पृष्ठ 92)  वेणुगोपाल ने 1972 में उन्हें अपनी कुछ कविताएं सुनाई थी। मलयज ने 'क्रान्तिकारी सामाजिक परिवर्तन' लानेवाली कविताओं को 'अपने प्रयत्न में ज्यादा से ज्यादा अवधानाश्रित' होते देखा। अवधानाश्रित होने के कारण वामपंथी क्रांतिकारी कविताओं को अपनी संरचना में अमूर्तता की ओर बढ़ते जाने को उन्होंने रेखांकित किया और यह लिखा कि उनमें 'एलिगरी और फैंटेसी' का इस्तेमाल हो रहा है। वे सोच रहे थे कि क्या सैकड़ों कवियों द्वारा एक ही कविता का लिखना सही है। आलोचना लिखना उनके लिए सामान्य कर्म नहीं था। वे पीठ थपथपाने वाले, एक की तुलना में दूसरे को ऊँचा सिद्ध करने वाले, नामोल्लेख कर अपनी 'कंस्टिच्यूएंसी' बनाने वाले आलोचक नहीं थे। ''आलोचना लिखना मेरे लिए उतना ही जिन्दा काम है, जितना कविता लिखना और आलोचना भी यथासंभव उसी कविता के बारे में लिखने की कोशिश करता हूँ, जो मुझे रचनाृकर्म की तरह ही अपने जिन्दा होने का अहसास दिलाये।' (वही, पृष्ठ 65) उनकी नज़र अपने समय के सभी कवियों पर थी। डायरी और आलोचनात्मक निबंधों में उनके समय का शायद ही कोई प्रमुख कवि हो (नवोदित चर्चित कवि तक), जिसकी उन्होंने चर्चा नहीं की हो। चर्चा करना एक बात है और पुस्तक समीक्षा या लेख लिखना दूसरी बात है। अपने मित्र रमेशचन्द्र शाह की कुछ कविताएँ पढ़कर 'असमय ही पकाकर तोड़ लेने' की बात उन्होंने कही। उन्हें 'स्वभाव' से कवि माना, 'कर्म' से नहीं। लीलाधर जगूड़ी के 'नाटक' से ग्रस्त मानकर उनसे अपनी अरुचि प्रकट की। वे व्यवस्था को रचनात्मक रूप से बदलने के आकांक्षी थे। 'रचनात्मक तनाव' में इसी कारण वे सदैव रहे। किसी भी समाजवादी और मार्क्सवादी से उनका सामाजिक ढाँचे और सत्ता-व्यवस्था से विरोध कम नहीं था।
द्विवेदी युग, छायावाद, उत्तर छायावाद, प्रगतिवाद नयी कविता और उसके बाद की कविता पर उनके विचार कहीं अधिक नवीन और दृष्टि-सम्पन्न हैं। प्रगतिवाद को उन्होंने द्विवेदी युग से जोड़ा है। उसकी 'आवश्यक पृष्ठभूमि' को वे 'द्विवेदी-युग की वस्तुवादी चेतना से निर्मित' मानते हैं, प्रयोगवाद तथा आरंभिक नयी कविता की - विशेषत: शमशेर की भाषा में - छायावादी काव्य-भाषा के विशिष्ट तत्वों' को छने रूप में 'परवर्ती साहित्य-चेतना में संक्रमित' देखते हैं। प्रगतिवाद में 'द्वन्द्वात्मकता' को वे 'विचार-प्रत्यय' के स्तर पर देखते हैं। वहां- मानव अनुभूतियों की वास्तविकता का सृजन-संदर्भ' उन्होंने देखा। उनके लिए 'विचार-प्रत्यय' से अधिक महत्व 'सृजन' और 'सृजन-संदर्भ' का है। मानव-यथार्थ की वास्तविकता से साहित्य रूपों के संबंध में या तो नजदीकी होगी या दूरी। इस दूरी को प्रगतिवादी ने उनके अनुसार 'घटाने के बजाय बढ़ाया' जबकि उत्तर छायावादियों ने इसे कमजोर करने के प्रयत्न किए। क्या इसी कारण उत्तर छायावाद का कोई आन्दोलन नहीं चला। जैसा प्रगतिवाद का? मलयज के लिए किसी भी काव्यान्दोलन या साहित्यिक आन्दोलन का महत्व नहीं था। युग-संदर्भों से उत्पन्न मानव अनुभूतियाँ तथा उन्हें वहन करने वाली भाषा पर उनका ध्यान था। इन दोनों के बीच के व्यवधान पर उनकी दृष्टि थी। इस व्यवधान के कारण ही 'यथार्थोन्मुख वस्तुवाद की ओर प्रेरित करने का प्रयास' उनके अनुसार विफल रहा। मलयज का चिन्तन कृति, रचनाकार, विधा-विशेष तक सीमित न रहकर युग-संदर्भ तक चला है। कविता और काव्य-भाषा पर लिखते हुए वे प्रेमचन्द को याद करते हैं। प्रगतिवादियों ने जो भूलें की, वे प्रेमचंद ने नहीं की थीं। प्रेमचन्द ने 'प्रगतिवाद के द्वन्द्ववाद को राष्ट्रीय चेतना की भूमि में प्रतिष्ठित कर उस अन्तर्विरोध में पडऩे की भूल नहीं की।'' (वही, पृष्ठ 148) हिन्दी कविता को उन्होंने छायावाद से ही आत्मदया और उससे उबरने के संघर्ष की कविता कहा है। आत्मदया से महान कविता का जन्म नहीं होता। निराला में 'आत्मदया' के प्रति उन्होंने 'जबर्दस्त संघर्ष' देखा इस 'आत्मदया' को उखाड़ फेंकने की कम कोशिशें हुई। 'अनुभूति के काव्यशास्त्र' से कहीं अधिक उनका ध्यान अनुभूति के समाजशास्त्र पर था। पहले में जहाँ संकीर्ण दृष्टि है, वहां दूसरे में व्यापक दृष्टि है। कविता और साहित्य के विवेचन में काव्येत्तर और साहित्येत्तर अनुशासनों से प्रत्यय लेने की बात पर कभी-कभार आज भी चर्चा की जाती है। मलयज सभी अनुशासनों से प्रत्ययों को लेने के पक्ष में थे ''क्योंकि साहित्य और कला भी अन्य शास्त्रों-अनुशासनों की तरह एक व्यापक सांस्कृतिक प्रक्रिया के ही अंग हैं।'' (वही, पृष्ठ 130)
मलयज कविता को 'एक आर्गेनिक कविता' बनने की चिंता में थे। एक वृहत् और गहरे सांस्कृतिक अर्थ संदर्भ से वे कविता के जुडऩे के पक्ष में थे। ''एक ऐसे अर्थ-संदर्भ से जो राजनीति, समाज, कर्म, दर्शन सभी के वृत्तों को काटता हुआ एक सामूहिक इकाई बनता है... क्या इस प्रकार की संभावना के बीज हमारे यहाँ नहीं है - क्या उन बीजों को खोजा-परखा नहीं जा सकता? क्या उसे खोजने के क्रम में कविता को समझने की एक नयी दृष्टि विकसित नहीं की जा सकती?'' (संवाद और एंकालाप, पृष्ठ 95-96) क्या मलयज ने अपनी आलोचना से कविता को समझने और आलोचना को एक सही मार्ग, नवीन मार्ग देने की दृष्टि विकसित नहीं की? अगर की तो आज इस दृष्टि का महत्व है या नहीं? क्या आज हिन्दी के कवि और आलोचक मलयज को दृष्टिहीन आलोचक कहने की जुर्रत करेंगे? मलयज ने हिन्दी आलोचना में जो नये बीज बोये, अगर उन पर ध्यान दिया गया होता तो आज कविता और आलोचना की दशा-दिशा भी भिन्न होती। उन्होंने 'जिम्मेदार और गैर जिम्मेदार' लेखन के साथ 'गैर जिम्मेदार और छद्म लेखन' में फर्क किया है। जिस लेखन में जीवनानुभवों का दबाव नहीं है, वह उनके अनुसार लेखन नहीं है। गैर जिम्मेदार लेखन 'अप्रासंगिक' होने के बाद भी 'अप्रामाणिक' नहीं है। छद्म लेखन 'जीवनानुभूतियों का लेखन' न होकर 'जीवन की मुद्राओं का लेखन' है। क्या आज ज़िम्मेदार, गैर जिम्मेदार और छद्म लेखन में, अंतर करने की, उन्हें चिन्हित करने की कोई आवश्यकता नहीं रही? प्रतिबद्ध और जनवादी कवियों में से धूमिल को उन्होंने एक भिन्न दृष्टि से देखा। वे उन्हें 'समर्थ जनवादी कवि' कहने के बाद भी 'संघर्ष की आग को कविता में बाँधने की उनकी सामथ्र्य' को अन्य आलोचकों की तरह 'शक्ति' न मानकर 'संघर्ष का तिरस्कार' कहते हैं क्योंकि संघर्ष 'कविता के बाहर की कविता' में है। मलयज का आशय बाहर के उस संघर्ष से है, जिसकी अपनी एक सृजन-प्रक्रिया है। वे कविता को 'संघर्ष का पर्याय' नहीं मानते। उनका ध्यान 'संघर्ष के विस्तार' पर है। ''धूमिल की कविता में संघर्ष और क्रान्ति से हमारी चमड़ी छिलती नहीं, उल्टे हम उससे प्रेम करने लगते हैं।'' कविता और संघर्ष को लेकर उनकी दृष्टि भिन्न है। ''संघर्ष का काम कविता की तेजस्विता और सक्रियता को पैदा करना है, कविता से एकात्म हो जाना नहीं... संघर्ष कविता को तपाए, झुलसाए, जलाए और एक नये मनुष्य में आकार दे, इसके लिए कवि को क्रांतिकारी कविता के पास नहीं, क्रांतिकारी संघर्ष के पास जाने की ज़रूरत है, तभी कविता का वह प्रभामण्डल टूटेगा'' (कविता से साक्षात्कार, पृष्ठ 107) मलयज अकेले आलोचक हैं जो कवि को 1975 में 'क्रान्तिकारी संघर्ष' से जोड़ रहे थे, जबकि उसके बाद नामी-गिरामी आलोचक ने कवि को अवसरवादी समझौते से जोड़ दिया। ऐसे कवि और आलोचक अपने समय में जितने पूजे जायें, उनका वास्तविक मूल्यांकन आज नहीं तो कल अवश्य होगा। मलयज को याद करना इसलिए भी जरूरी है।
मलयज ने केवल एक कविता 'सरोज-स्मृति' पर विस्तार से विचार किया है। इस कविता में वे 'एक स्मरण के भीतर कई स्मरण' देखते हैं।  इस कविता में 'छोटी-सी दुनिया में छोटी-बड़ी कई दुनियाओं की समाई' है। उनके पहले यह 'चीख' किसी आलोचक ने नहीं सुनी थी। यह छायावादी दुख की स्वनिर्भर दुनिया से बाहर आने की चीख हैं। दुख की यह अनुभूति जिस 'ठोस भूमि' से उत्पन्न हैं, उसे वे कविता के केन्द्र में देखते हैं। पहली बार दुख - 'सौन्दर्यानुभूति के स्तर से अलग एक कठोर वास्तविकता के रूप में व्यक्त' हुआ है। मलयज ने सरोज को मात्र पुत्री रूप में न देखकर 'कवि के रचना-सामथ्र्य को ललकारने वाले यथार्थ' के रूप में देखा है। ऐसी आलोचना रचना को नये सिरे से अन्वेषित करती है। मलयज ने सरोज को खोने में कवि द्वारा अपनी 'प्रिया' मनोहरा देवी को 'दुबारा' खोने की बात कही है, जिसे वे 'एक पूरे रचना-संसार के खोने' के रूप में देखते हैं।
मलयज ने बहुत कम कवियों की कविताओं पर विचार किया है। अज्ञेय और शमशेर की षष्ठिपूर्ति (1971) पर उन्होंने लेख लिखे। 'दिगन्त' पढऩे के बाद त्रिलोचन की कविता पर प्रतिक्रिया व्यक्त की, केदार नाथ सिंह, कुंवरनारायण, प्रभाकर माचवे, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर, विजयदेव नारायण साही, मदन वात्स्यायन, रमेशचन्द्र शाह, अशोक वाजपेयी, विनोद कुमार शुक्ल, राजकमल चौधरी, धूमिल, लीलाधर जगूड़ी विपिनकुमार अग्रवाल, वेणुगोपाल, श्रीकान्त वर्मा, श्रीराम वर्मा, लक्ष्मीकान्त वर्मा, आग्नेय, शिवकुटीलाल वर्मा, सोमदत्त, विष्णुनागर पर उनके विचार उनके लेखों और डायरियों में मौजूद हैं। मुक्तिबोध पर उनका अंतिम लेख है। शमशेर और अज्ञेय की जन्मशती बीत चुकी है। मलयज को इन दोनों कवियों की शतवार्षिकी पर किसी ने याद नहीं किया। मुक्तिबोध और त्रिलोचन की जन्मशती आरंभ हो चुकी है। मालूम नहीं, इन दोनों कवियों पर मुक्तिबोध के विचारों की चर्चा होती है या नहीं? अज्ञेय को उन्होंने पूर्व और उत्तर अज्ञेय के रूप में देखा है और उस 'तीसरे अज्ञेय की तलाश' (1971) की है, जिसमें पूर्व और उत्तर अज्ञेय के  प्रतिबिम्ब अलग-अलग न दीखे। पूर्व और उत्तर अज्ञेय में 'प्रबल कंट्रास्ट', है। पूर्व अज्ञेय में प्रवेश कठिन है, उत्तर अज्ञेय में सुगम। अज्ञेय की काव्य-चेतना के दो मूल पक्षों- 'आत्मरक्षा' और 'आत्मविस्तार' के साथ वे इन दोनों के बीच 'आत्म-निर्माण' का तत्व भी देखते हैं। वे अन्य आलोचकों की तरह अज्ञेय के 'परम्परा-द्रोह' का समर्थन न कर उनमें  'परम्परा से अपने को जोडऩे की ललक' देखते हैं अज्ञेय की दो दुनियाओं की परतें उन्होंने विस्तार से उधेड़ी है। उनमें आरंभ से ही एक 'प्रतिरक्षात्मक ग्रंथि' देखी है, जिसमें वे 'कोई बुनियादी रद्दोबदल नहीं कर पाये' अज्ञेय में 'भाव-चर्या' से कहीं अधिक 'चिन्तन-चर्या' है। वहाँ दो मध्यान्तर है - ''कितनी नावों में कितनी बार' के बाद 'सागर-मुद्रा' में। वे अज्ञेय के अनुभूति और वैचारिक स्तर में 'बुनियादी संघर्ष' न देखकर 'एक तनावपूर्ण सन्तुलन' देखते हैं, एक बड़े संदर्भ में मलयज ने अज्ञेय को नेहरू से जोड़ा है'' नेहरू ने भारत के सांस्कृतिक पुनरुत्थान के लिए 'विज्ञान' को चुना, अज्ञेय ने 'आलोचना' को।'' (वही, पृष्ठ 40) नेहरू और अज्ञेय के 'स्वप्न-दर्शन के अंत' की उन्होंने बात कही - ''नेहरू के स्वप्न-दर्शन के अंत में स्वप्न-भंग से उत्पन्न स्थितियां दी अनस्थिरता और विघटन असंतोष और आक्रमकता... अज्ञेय के स्वप्न-दर्शन के अंत ने हमें आज की युवा कविता दी।'' (वही) यह सब साठ के दशक में हुआ - स्वप्न का अंत।
''मलयज का पहला लेख शमशेर पर है - 'शमशेर और आधुनिक कविता'। इसी वर्ष 1960 में - शमशेर ने अपने लेख 'मेरी पसंद के कुछ आधुनिक कवि: एक पर्सनल एसे' में मलयज की रचना के एक महत्वपूर्ण केन्द्रीय विषय 'कलात्मक रचना-प्रक्रिया' का उल्लेख किया था। शमशेर पर मलयज ने 27 फरवरी 1959 से 25 सितम्बर 1980 तक के कुल 56 दिनों की डायरी में लिखा है। शमशेर जैसा निकट सम्पर्क उनका किसी और कवि से नहीं था। शमशेर उन्हें अपनी कविता के 'मर्मी पाठक' ही नहीं 'निर्मम और विश्वसनीय आलोचक' भी मानते हैं। स्वीकारते हैं ''मेरी अनेक सीमाओं और दोषों को उन्होंने सही-सही लक्षित किया। सचमुच मैं आज उनका कृतज्ञ हूँ'' (पूर्वग्रह, जुलाई-अक्टूबर 1982, पृष्ठ 101) नेमिचन्द्र जैन के साथ मलयज ने शमशेर से बात की थी। (पूर्वग्रह, का शमशेर विशेषांक 12-13, 1976) केवल आलोचकों द्वारा ही नहीं, स्वयं शमशेर के द्वारा भी अपने को दो सांचों - 'उत्कृष्ट शिल्प-तंत्र' और 'सामाजिक यथार्थवाद' में फिट किये जाने की बात मलयज ने कही है। इन दो सांचों में एक साथ फिट होने को उन्होंने 'असंभव आदर्शवाद' कहकर शमशेर को 'असंभव आदर्शवादी' कहा है। ''एक सांचे का आग्रह भीतरी बनावट की विवशता है, दूसरे का अपने व्यक्ति की पुकारती हुई-सी मांग - अपने 'स्वयं' को वृहत्तर 'पर' से जोडऩे की अनिवार्य सजगता''। (वही, पृष्ठ 23-24) यह कवि होने के साथ साथ नागरिक भी होना था। शमशेर की भाषा, उनके 'मौन', 'शब्दों के बीच के अन्तराल' उनकी काव्य-कला, काव्य-विवेक, मन:स्थिति, यथार्थ से साक्षात्कार, कवि-स्वभाव सब पर मलयज ने विचार किया है। वे उनके यथार्थ-बोध को 'उनकी मनोरचना के आंतरिक ताप से परिशुद्ध किया हुआ (कंडीशंड) मानते हैं। कला की उच्चतम शर्तों से समझौते किये बगैर शमशेर की आकांक्षा 'जनता के कवि' बनने की थी। मलयज के अनुसार 'जनता का कवि' वह है ''जो जनता की भाषा में - उसकी बोलचाल के सहज सरल, प्रवाह-युक्त मुहावरोंवाली भाषा में अपने मर्म की बात रखे'' (वही, पृष्ठ 26) शमशेर ने अपने भीतर को नष्ट नहीं होने दिया। मलयज उन्हें 'भीतर' के कारण 'जीवित' मानते हैं और 'बाहर' के कारण 'पराजित'। उन्होंने शमशेर की मन:स्थिति को जिस तरह पकड़ा और समझा है, उसका शमशेर के मूल्यांकन में एक स्थान है।
मुक्तिबोध पर लिखने के पहले मलयज रामचन्द्र शुक्ल का गंभीर अध्ययन कर रहे थे। उनका पहला लेख शमशेर पर था और अंतिम लेख मुक्तिबोध पर है (पूर्वग्रह के अंक 43, मार्च-अप्रैल 1981, 'संवाद और एकालाप' में संकलित) इलाहाबाद में मुक्तिबोध से मिलकर, उन्हें सुनकर मलयज को एक साथ यह अनुभव हुआ था कि वे 'बहुत साधारण और बहुत बड़े हैं'' (15 फरवरी 1959 डायरी 1/454-55) मुक्तिबोध की 'जलना' कहानी का कथानायक हिन्दुस्तान का 'सामान्यजन' है जो आरंभ से मलयज की चिन्ता में मौजूद रहा है - उनकी रचना में और आलोचना में भी। इस कहानी का कथानायक अपने बच्चों को 'क्रान्तिकारी' बनाने, उन्हें 'समाज की तलछट बनने के लिए प्रेरित' करने की बात करता है। मुक्तिबोध में मलयज ने 'सतह की संस्कृति' को रेखांकित किया, उनकी कविता में 'भड़कीली संस्कृति' को 'ड्राइंग रूम संस्कृति' और 'उठाईगीर संस्कृति' के रूप में देखा। 'सतह के बोध' को मलयज ने 'हिन्दुस्तान के मर्मस्थल का बोध' कहा है। ''सतह का आदमी ही हिन्दुस्तान का औसत आदमी है'' ('संवाद और एकालाप : पृष्ठ 78) वर्ग-बोध, वर्ग-दृष्टि, वर्ग-चेतना, वर्ग-संस्कार की बात कम नहीं हुई है, पर मलयज 'वर्ग समय' पर भी विचार करते हैं ''हम ऐसे वर्ग-समय में रह रहे हैं, जिसमें अकेले बहना एक अमानवीय कर्म है'' (वही, पृष्ठ 80)।  इसके एक वर्ष पहले अपनी डायरी में वे लिख चुके थे ''आज अमीर होना एक अराष्ट्रीय कर्म है''। मलयज सदैव 'अमानवीय' और 'अराष्ट्रीय कर्म' के खिलाफ रहे। आपातकाल से, 1975 से उनका विचार-चिंतन प्रवाह जिस गति से चलता है, उसे समझने के लिए रामचन्द्र शुक्ल पर उनके लेखों और मुक्तिबोध पर लिखे लेख को पढऩा जरूरी है। 'सतह की संस्कृति' उनके लिए 'औसत की बिरादरी' है। ''इस संस्कृति में रहना अपने मूल में रहना है, उससे बाहर जाने की चेष्टा छिन्नमूल हो जाना है।'' इस संस्कृति में रहना अपने मूल में रहने है, उससे बाहर जाने की चेष्टा छिन्नमूल हो जाना है'' (वही, पृष्ठ 79) सतह के इस आदमी को उन्होंने 'हिन्दुस्तान का सबसे पुराना आदमी' कहा है। अपने वर्ग-समय में प्रत्येक सफलता के पीछे उन्होंने एक हत्या देखी। मुक्तिबोध की कविताओं में 'रंग' पर मौलिक ढंग से विचार करने वाले वे पहले और अंतिम आलोचक हैं। मुक्तिबोध के यहां जो संवलाया, नीला और उदास रंग है, उसे मलयज 'सतह के आदमी का बुनियादी रंग' मानते हैं। इस नीले-सांवले रंग को वे 'आत्मा के अन्तर्मन' और 'आत्मा के लैंड स्केप का रंग' कहते हैं, 'भूरे खाक रंग' में 'आत्मा की उदासी का बोध' पाते हैं, पर यह 'कठिन चट्टानी कर्म का रंग' भी है। नीले-साँवले और भूरे रंग से अलग है लाल रंग। 'भूरा रंग' उबलकर ही 'लाल रंग' बनता है, जिससे ''आत्मा के अन्तर्गत और बहिर्मन दोनों के लैंड स्केप बदल जाते हैं। नीला जैसे ठहरी हुई रात है और लाल जैसे दिन में उगता हुआ अरुण कमल। लाल एक लक्ष्मोन्मुख रंग है, तीर की मानिन्द दिशा की तरफ बढ़ता हुआ।'' (वही, पृष्ठ 80) मलयज ने इस 'लाल रंग' को 'लालसा का रंग' कहा है। ''आदमी के गुहान्धकारों, यातनाओं से कैथार्सिस का रंग है, मुक्ति का रंग... चीजों में जो हरकत है, प्रण और संकल्प है, वह जैसे इसी रंग की बदौलत।'' (वही) लाल रंग 'विचार का रंग' भी है। मलयज का सवाल है ''क्या इस हिन्दुस्तान के स्वभाव में है?'' मलयज औसत आदमी के पास 'इतिहास देखते हैं, 'स्मृति' नहीं। उनके लिए स्मृति से कहीं अधिक 'इतिहास' महत्वपूर्ण है क्योंकि वहाँ कर्म-प्रेरणा है। मलयज ने 'औसत' को कभी ओझल नहीं किया। वे मानते हैं कि मुक्तिबोध की कविता में ''प्रस्तुत अप्रस्तुत की तरह आचरण करने लगता है और अप्रस्तुत प्रस्तुत की तरह। जब प्रस्तुत अप्रस्तुत बनता है, तब प्रतीक की रचना होती है, जब अप्रस्तुत प्रस्तुत बनता है, तब बिम्ब की''।

रविभूषण एक प्रतिष्ठित मार्क्सवादी आलोचक हैं। उनकी आलोचना की पहली किताब शीघ्र राजकमल प्रकाशन में आने वाली है।


Login