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जुलाई 2016

धर्माधंता के संधिकाल में

जितेन्द्र भाटिया

बस्ती बस्ती, परबत परबत...../एक




 
‘इक्कीसवीं सदी की लड़ाइयां’ के चौदह वर्ष लंबे सिलसिले को (जिसमें ‘पहल’ का चार वर्षों का विराम भी शामिल है) आखिरकार किसी न किसी मोड़ पर आकर थमना ही था। कॉलम की ज़बान में कहें तो कमबख्त-
                                                  ये शाम भी कहां हुई!
सदी को अभी आगे एक लम्बा सफर तय करना है और लड़ाइयों के सिलसिले में किसी तरह की कमी ढूंढ पाना मुश्किल है। कभी-कभी लगता है कि हम खुश्किस्मत थे जो हमारा समय देर-सबेर गुज़र गया। लेकिन अपने बच्चों के लिए हम अपराधी भाव से सिर्फ  यह दुआ ही कर सकते हैं कि वक्त उन्हें हमारे द्वारा छोड़े गए भयावह सलीबों को उठाने की शक्ति, सूझबूझ और दूरदर्शिता दे!
इस कॉलम को बहुत से दोस्तों और चाहने वालों का मनोबल और प्यार मिला। उनमें से कुछ आज हमारे बीच नहीं हैं। धरती के जादुई किस्सागो विजयदान देथा और मानवतावाद में रचे-बसे शायर निदा फ़ाज़ली के नाम सहज ही याद आते हैं। ‘फैज़’ अहमद ‘फैज़’ किसी रहबर की तरह इस सफ़र में हमारे साथ चले हैं। जाते-जाते भी  उनका दामन छोड़ पाना मुश्किल है-
अभी  गिरानी-ए-शब  में कमी  नहीं   आई
नजात-ए-दीदा-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई
चले  चलो  कि  वो  मंज़िल अभी नहीं आई
लिहाजा लड़ाइयों के पुराने सिलसिले का थमना एक नई शुरूआत का आगाज़ भी है! आमीन!!
इस नयी तरतीब का तआल्लुक किसी खानाबदोश की सी बेचैनी से जन्मी यात्राओं से है। लिहाजा ‘साहिर’ की ज़बान में-
बस्ती-बस्ती, परबत-परबत
गाता जाए बनजारा,
लेकर दिल का इकतारा.....
ये यात्राएं किसी देश या राष्ट्र तक महदूद नहीं हैं। यूं भी राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद के गंभीर खतरों से आजकल हम बखूबी वाकिफ़ कराए जा रहे हैं। यहां यात्राओं का रिश्ता स्थलों से ज़्यादा उन बस्तियों, परबतों और जंगलों से होगा, जिनसे जुड़ी लड़ाइयां अब भी किसी दु:स्वप्न की तरह लगातार हमारे साथ चल रही हैं....
यूं तो मैंने जीवन का एक बड़ा हिस्सा यात्राओं में गुज़ारा है, लेकिन कामकाजी यात्राओं को किसी शुमार में शामिल करना मुश्किल है क्योंकि इन यात्राओं के दौरान आप दुनिया को अपनी नहीं, बल्कि किसी दूसरे के चश्मे की इकहरी ‘मोनोक्रोमैटिक’ निगाहों से देख रहे होते हैं। और इस इकरंगी व्यस्तता के बीच यदि आपको थोड़ी सी फुर्सत मिल भी जाती है तो आप झट एक खालिस पर्यटक बन जाते हैं जिसे अगले दिन की दोपहर या शाम तक शहर या कि प्रदेश या देश के दो या चार या सात सबसे महत्वपूर्ण स्थलों के ‘प्रोफॉर्मा’ पर अपनी उपस्थिति का ‘टिक मार्क’ भर लगा देना होता है। कमोबेश यहीं स्थिति किसी प्रतिनिधि-मंडल का सदस्य बनने पर भी होती है। दुनिया, या कि इसके शहरों और जंगलों, यहां तक कि  कारखानों को देखने की यह औपचारिक रस्म-अदायगी ले-देकर कोई मायने नहीं रखती। इन यात्राओं के बाद चंद रंगीन चित्रों, एक अदद ‘टूर रिपोर्ट’ और यात्रा भत्ते के अतिरिक्त कुछ खास हासिल नहीं होता। अपनी यात्राओं के दौरान मैंने देश-विदेश में न जाने कितने स्टील प्लांट देखे होंगे और इनमें से हर एक की उत्पादन क्षमता, यहां से निकलने वाले उत्पादों का विस्तृत ब्यौरा और इसमें इस्तेमाल की जाने वाली मशीनों का विस्तृत ब्यौरा कहीं न कहीं दर्ज भी होगा। लेकिन यदि आप मुझसे जानना चाहें कि जर्मनी या हंगरी या बर्मिंघम या हमारे अपने विशाखापटनम के इन कारखानों में काम करने वालों की समस्याएं या कि आकांक्षाएं क्या हैं तो आपको निराश होना पड़ेगा। बहुत साल पहले स्पेन के वैलेंसिया में स्थानीय स्टील प्लांट को दिखाने की जिम्मेदारी जिस स्पेनिष मेज़बान पर थी उसका नाम अल्बर्तो मस्कारो था, जो अपने मसखरे से मिलते जुलते नाम के अनुरूप स्वभाव से भी काफी मज़ाहिया था। स्टील प्लांट के दफ्तर में घुसते ही उसने सबसे पहले हमसे कहा, ‘‘ देखिए यहां यह कॉफी मशीन है और वहां वह फोटो कॉपियर-- बस इन दोनों के अलावा आप सारे कारखाने को समंदर में फेंक सकते हैं!’’
मस्कारो के कथन का मर्म हमें देर तक सालता रहा। दरअसल एक तरह से मैं अपनी चालीस वर्षों की तमाम व्यावसायिक यात्राओं को एकमुश्त समंदर में फेंक दूं तो भी शायद कोई खास नुक्सान नहीं होगा!
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पिछले दस वर्षों से मैं फिर से सफर में हूं, और कई बार मैं उन्हीं ठिकानों पर फिर से भी लौटा हूं जहां बरसों पहले मैं महज़ कॉफी वेंडिंग मशीन और फोटो कॉपियर से आगे नहीं बढ़ पाया था। लेकिन आप इस मुगालते में न रहें कि इस बार मैं वहां से सारे प्रश्नों के सही उत्तर लेकर लौटा हूं। कोई शहर, या कि मोहल्ला या बस्ती या किसी जंगल का छोटा सा झुरमुट भी इतनी आसानी से अपने भीतर का अंदरूनी राज़ आपके साथ नहीं बांटता। इसमें बहुत वक्त लगता है और इसमें अपना बहुत कुछ दांव पर लगाना पड़ता है। इसके बावजूद कई बार लंबे असंवाद के अतिरिक्त कुछ हाथ नहीं लगता। कहीं कोई ऐसी  चमत्कारी चाबी नहीं है जिसके लगाते ही सारे दरवाज़े एक साथ खुल जाएं।
वही मस्कारो मुझसे मिलने से कई साल पहले भारत की यात्रा पर आया था। मैंने जब यूं ही जानना चाहा था कि उसकी यात्रा का सबसे पुरअसरार पड़ाव कौनसा था, तो उसने आंखों में एक अभूतपूर्व चमक पैदा करते हुए झट कहा था--वाराणसी के जलते घाट, जिनके सामने इंसान बहुत छोटा हो जाता है!
‘और यहां का सबसे तकलीफ़देह अनुभव?’ पूछने पर उसने व्यंग भरी मुसकराहट भरकर कहा था, ‘जैसलमेर में सरहद के पास तीस किलोमीटर की ऊंट की सवारी! .....हिंदुस्तान आने से पहले मुझे मालूम नहीं था कि खुशी क्या होती है!....उस यात्रा के बाद मैंने जाना कि खुशी होती है--ऊंट की पीठ से नीचे उतरना!’
इतालो कैल्विनो की ‘इनविज़िबल सिटीज़’ में यात्री मार्कोपोलो अपने राजा कुबला खान को ताउम्र दुनिया भर के शहरों की विलक्षण यात्राओं के बारे में बताता रहा, लेकिन यह राज़ अंत में जाकर खुला कि इन तमाम यात्राओं में  वह  दरअसल राजा को अपने पसंदीदा शहर वेनिस का विवरण बार-बार सुना रहा था। कुछ इसी अंदाज़ में अपने बचपन के शहर कलकत्ता में गुज़रे समय को शब्दों में ढालने में मुझे कई दशक लग गए। और चेन्नई, जहां मैं कई वर्षों से हर महीने दस-पंद्रह दिन गुज़ारता हूं, फिलहाल अभी तक मेरे रेडार की पकड़ में नहीं आया है....
लेकिन शहरों, या कि जगहों का धीरे-धीरे, लगभग निश्चल गति से खुलना एक रोमांचकारी अनुभव है। इसमें आप भूत, वर्तमान और कभी-कभी भविष्य में एक साथ चल रहे होते हैं। ऐसा अक्सर नहीं होता, पर  जब होता है तब आप कैल्विनो की तरह चीज़ों के अंदरूनी निहितार्थ की खोज लेकर ही वापस लौटते हैं।
‘‘मार्को पोलो एक पुल का विवरण देता है, पत्थर-दर-पत्थर!’’
‘‘लेकिन वह कौनसा पत्थर है, जिसपर यह पुल टिका है?’’ कुबला खान जानना चाहता है।
‘‘यह पुल किसी एक, या दूसरे पत्थर पर नहीं,’’ मार्को जवाब देता है, ‘‘बल्कि उनसे बनने वाली मेहराब की रेखा पर टिका है!’’
कुबला खान चुपचाप, कुछ सोचता रह जाता है। फिर कहता है, ‘‘तब तुम मुझे पत्थरों के बारे में क्यों बता  रहे हो? मेरा वास्ता तो केवल उस मेहराब से है!’’
‘‘लेकिन,’’ पोलो उत्तर देता है, ‘‘उन पत्थरों के बगैर उस मेहराब का कोई वजूद नहीं है!’’ 
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मेहराब और पत्थरों का यह अंत:संबंध कुल मिलाकर राष्ट्रवाद की स्थूल, जड़ परिभाषा के मुकाबिल  अपनी धरती, अपने परिवेश और अपने लोगों के सुख-दुख की व्यापक अनुभूति से जुडऩे जैसा है। इन व्यापक पत्थरों और इनसे जुड़ी अनुभूति को छुए और महसूस किए बगैर आप उस मेहराब तक नहीं पहुंच सकते जिस पर यह पुल टिका है।
दक्षिणी अफ्रीका से भारत लौटने के बाद मोहनदास करमचंद गांधी ने एक महीने तक लगातार थर्ड क्लास के डिब्बे में रेल की यात्रा की थी, यह समझने के लिए, कि वह चीज़ क्या है,  जिसे देशभक्ति की शक्ल में आने वाले दिनों में अपने साथ रख सकते थे। तब कहीं जाकर वे महात्मा का खिताब अर्जित कर पाए थे। 
मार्केटिंग के इस युग में ज़हर बांटने वालों ने देशभक्ति को भी वरक चढ़ी इलाइची और मनोज वाजपेयी द्वारा एक सांस में रक्तदान देने और दूसरी में स्वास्थ्य के लिए हानिकारक पान मसाले की सिफारिश करने का दोधारी विज्ञापन बनाकर रख दिया है।
देशभक्ति वह अमूर्त लेकिन जीती-जागती व्यापक अनुभूति है जिसे गांधी बाबा ने लोगों के सुख-दुख में जीते हुए,  लंबी मशक्कत के बाद अपने सारे परिधान को त्याग कर एक अदद लंगोटी में देखा था। गला फाडक़र ‘भारतमाता’ का नारा लगाने से आपका देशप्रेम सिद्ध नहीं हो जाता, और न ही नारा लगाने से इंकार करते ही आप देशद्रोही साबित हो जाते हैं!
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मैं मयनमार की यात्रा के लिए कोलकाता हवाई अड्डे पर था जब ‘टेलिग्राफ’ की सुर्खियों में सूचना थी कि ‘इस देश में कुछ बहुत असामान्य घटित हो रहा है....!’ ‘फ्रंटलाइन’ ने अपनी रिपोर्ट में लिखा-
‘‘उमर खालिद, अनिर्बान भट्टाचार्य और जे एन यू स्टूडेंट यूनियन के प्रमुख नेता कन्हैया कुमार को ‘देश विरोधी’ नारे लगाने के अपराध में गिरफ्तार कर लिया गया। तीन अन्य आशुतोश कुमार, अनंत प्रकाश नारायण और रमा नागा पर भी इसी तरह के आरोप लगाए गए। ....जे एन यू के विद्यार्थियों और जे एन यू पर देशद्रोह का आरोप मंढ़ा गया। देश भर के शैक्षिक समुदाय, लेखक वर्ग, कलाकारों और दुनिया भर में अलग अलग तबकों के लोगों ने इस कदम की  भत्र्सना करने हुए कहा कि एन डी ए सरकार अपने अधिकारों का दुरुपयोग कर युनिवर्सिटी प्रांगणों में जिज्ञासु युवा वर्ग को जान बूझकर सताने का प्रयास कर रही है! ...जे एन यू पर हुए हमले पिछले महीनों में हुए विभिन्न विश्वविद्यालयों पर हुए हस्तक्षेप का ही हिस्सा है और इनमें से अधिकांश का सीधा संबंध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ी संस्था अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से है। ... बहुत से शिक्षा-विशेषज्ञों का मानना है कि इस संघर्ष का मूल मुद्दा यह है कि जहां शैक्षिक समुदाय और अधिकांश विद्यार्थी शिक्षा को समाज में परिवर्तन लाने का साधन मानते हैं, वहीं संघ परिवार इसे हिंदू राष्ट्रवाद का जामा पहनाने पर तुला है....’’
जब 1947 में देश का बंटवारा हुआ था तो हमने पाकिस्तान के इस्लामी जनतांत्रिक राज्य के मुकाबिल एक धर्मनिरपेक्ष जनतांत्रिक देश बनने का फैसला लिया था। दलित समाज के पुरोधा बी आर आम्बेडकर ने हमें एक गौरवशाली संविधान समर्पित किया था, जिसमें सभी धर्मों और समुदायों के लिए समान स्वतंत्रता, समान अवसर और जीवन यापन के समान अधिकार निहित थे। लेकिन जे एन यू संघर्ष के संदर्भ में  उस समय को याद करते हुए ‘फ्रंटलाइन’ लिखता है-
‘‘उस समय आर एस एस ही था जिसने तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज बनाए जाने का जमकर विरोध किया था।  तब उसके मुखपत्र ‘ऑर्गनाइज़र’ ने अपने 14 अगस्त 1947 के अंक में लिखा था- ‘भाग्यवश सत्ता में आए लोग हमारे हाथ में तिरंगा थमाना चाहते हैं, लेकिन देश के हिंदू इसे कभी स्वीकार नहीं करेंगे। तीन का शब्द ही अपने आपमें ही बुरा है और झंडे के ये तीन रंग देश के लिए अशुभ होंगे....’ बाद में संघियों द्वारा सार्वजनिक रूप से राष्ट्रीय ध्वज के अपमान की घटनाओं का हवाला देते हुए हुए नेहरू ने 24 फरवरी, 1948 के अपने भाषण में कहा था ‘आर एस एस के सदस्यों ने कुछ स्थानों पर राष्ट्रीय ध्वज का अपमान किया है। उन्हें पता होना चाहिए कि राष्ट्रध्वज का अपमान कर वे अपने आपको देशद्रोही (गद्दार) साबित कर रहे हैं!’
इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है कि उसी विचारधारा के उत्तराधिकारी आज अपने से असहमत हर व्यक्ति को ‘राष्ट्रविरोधी’ घोषित करने के हिंसात्मक फतवे बांट रहे हैं।
‘‘यह आकस्मिक नहीं है कि जिस आर एस एस ने स्वतंत्रता आंदोलन में कोई हिस्सा नहीं लिया, वही स्वतंत्रता के बाद भी लंबे समय तक अपने संस्थानों पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने से कतराता रहा है और उसके नागपुर स्थित मुख्यालय पर तो 52 वर्षों तक तिरंगा दिखाई नहीं दिया, क्योंकि संघ का सपना भगवे को अपना राष्ट्रीय ध्वज बनाने का था। तिरंगे में उसे हिंदुओं के भगवे के साथ-साथ नीचे के हिस्से में मुसलमानों का हरा रंग दिखाई दे रहा था और गांधीजी ने इन दोनों को देश की दो आंखें बताया था।’’   (शशि कुमार-‘फ्रंटलाइन’)
इधर बी जे पी द्वारा नियंत्रित कई प्रदेशों में स्कूलों की पाठ्य पुस्तकों से नेहरू सहित कई धर्मनिरपेक्ष व्यक्तित्वों की रचनाओं और उनके संदर्भों को विधिवत हटाया जा रहा है। ‘टाइम्स ऑफ  इंडिया’ के हवाले से जयपुर में भूतपूर्व पाठ्यपुस्तक पुनर्विचार समिति के सदस्यों ने बताया कि-
‘उन्हें इन पुस्तकों से ‘मुसलमान लेखकों द्वारा लिखी रचनाओं और मुस्लिम किरदारों वाले अध्यायों को हटाने के निर्देश दिए गए थे।’ 
इस परिवर्तन के परिणामस्वरूप अब इन पाठ्यपुस्तकों में कृष्णा सोबती, प्रसिद्ध चित्रकार सैयद हैदर रज़ा और मकबूल फिदा हुसैन, इस्मत चुगताई आदि की रचनाएं नहीं दिखेंगी। यही नहीं, देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से जुड़े सारे संदर्भों को भी यहां से हटा दिया गया है। इन सबके स्थान पर अब इन पुस्तकों में आर एस एस के प्रमुख के सी सुदर्शन और आर एस एस के राज्य सभा सदस्य तरुण विजय आपको नए साहित्यकारों/विचारकों के रूप में दिखाई देंगे!  (टाइम्स ऑफ  इंडिया)
 इतिहास और विचार को बदलने का यह अभियान हमें ब्रे ब्रैडबरी के उपन्यास ‘फॉरेनहाइट 451’ की याद दिलाता है जिसमें विचारों की हत्या के लिए तत्कालीन सत्ता दुनिया की तमाम किताबों को जलाकर राख कर देने का मुहिम छेड़ती है और पुस्तकों के साथ पाया जाने वाला हर व्यक्ति मृत्युदंड का भागी घोषित कर दिया जाता है। तब इस मुहिम के विरुद्ध छिडऩे वाले अंडरग्राउंड अभियान का हर सदस्य एक एक पुस्तक को कंठस्थ कर याद रखने की कसम खाता है, ताकि साहित्य और विचार को किसी भी सूरत में मिटने से बचाया जा सके। आज का समय शायद ऐसे ही किसी दृढ़ और अद्भुत संकल्प की मांग करता है।
पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट से हैदराबाद, इलाहाबाद, श्रीनगर, जादवपुर और दिल्ली के जे एन यू तक देश के श्रेष्ठतम और विशिष्ट शैक्षिक संस्थानों में विद्यार्थियों का एक ऐसा संवेदनात्मक और निर्भीक युवा वर्ग है  जिससे देश को उम्मीदें हैं कि ये आगे चलकर देश की सामाजिक विषमताओं को तोडऩे का बीड़ा उठाएंगे। जे एन यू इसकी सबसे बड़ी मिसाल है जहां हमेशा से विमर्श, संवाद और विभिन्न विचारों के आदान प्रदान का मुक्त वातावरण रहा है। आर एस एस की संकुचित हिंदू विचारधारा प्रारंभ से ऐसे मूल्यों के खिलाफ  रही है। ऐसे में सरकार द्वारा संघी राष्ट्रवाद के नाम पर असहमति के स्वरों को देशद्रोही घोषित करना देश और समाज दोनों के लिए एक गंभीर चुनौती है।
‘फ्रंटलाइन’ के अनुसार जे एन यू के प्रकरण के बाद आर एस एस ने दक्षिणी दिल्ली के कई इलाकों में  ‘जे एन यू गद्दारों’ के विरुद्ध लाउडस्पीकर अभियान चलाए। संघ के एक प्रचारक ने ‘फ्रंटलाइन’ से कहा- ‘‘दिल्ली में संघ की सभी शाखाओं से कहा गया है कि आवश्यकता पडऩे पर उन्हें जबरन जे एन यू में घुसने के लिए तैयार रहना है। जे एन यू कई सालों से देश-विरोधी गतिविधियों का गढ़ रहा है। अब इसे बंद करने का समय आ गया है!’’  
जे एन यू के अगले प्रकरण में दिल्ली की एक अदालत में भगवा छाप ‘देशभक्त’ काले कोट वाले गुंडों ने (उन्हें वकील कहना शायद उस व्यवसाय का अपमान होगा) कन्हैया और उनके समर्थकों को बुरी तरह पीटा था और इस साज़िश में शामिल पुलिस चुपचाप तमाशा देखती रही। शशि कुमार (फ्रंटलाइन) ने ‘इंडिया टुडे’ द्वारा की गयी एक ‘स्टिंग पड़ताल’ के आधार पर लिखा-
‘‘ अब (इस पड़ताल से) स्पष्ट है कि पटियाला हाउस न्यायालय परिसर में पुलिस हिरासत में कन्हैया पर वकीलों द्वारा हुआ हमला पूरी तरह पूर्वनियोजित और वहां खड़ी पुलिस के सहयोग से अंजाम दिया गया था और इसके लिए परिसर के बाहर से भी लोगों (गुंडों) को वहां लाया गया था।’’
वर्दी वालों की यह तटस्थ ‘संलग्नता’ उतनी ही हैरतअंगेज़ थी जितनी पिछले साल गांव दादरी में सत्तर साल से रहने वाले मुसलमान परिवार के एक सदस्य के धर्मांध भीड़ द्वारा बेरहमी से मारे जाने की वह घटना, जिसके एक घंटे बाद घटनास्थल पर पहुंची पुलिस ने दरिंदों की धड़-पकड़ करने से भी पहले पीडि़त परिवार के रेफ्रिजरेटर की तलाशी करना ज़रूरी समझा था कि वहां रखा मांस कहीं गोमांस तो नहीं है! प्रयोगशाला की जांच में जब मांस ‘मटन’ निकला था तो भीड़ की आक्रमकता को एक झूठी अफवाह कहकर खारिज कर दिया गया था। लेकिन ज़ाहिर है कि यदि वहां सचमुच गोमांस होता, तो सत्ता ने उस धर्मांध भीड़ के हाथों हुई  निर्मम हत्या को पूरी तरह जायज़ ठहरा दिया होता। यदि हमारी याददाश्त धोखा नहीं खाती तो कुछ वर्ष पहले लगभग इसी अंदाज़ में गुजरात  के मुख्यमंत्री ने अहमदाबाद में भडक़ी हिंसा को गोधरा कांड की स्वाभाविक प्रतिक्रिया बताते हुए जायज़ ठहराने की कोशिश की थी। चेहरे अब भी वही हैं और फर्क है तो सिर्फ  इतना कि उस समय गुजरात में जो कुछ हुआ, वही अब राष्ट्रीय पटल पर घटित हो रहा है। शायद इसी का दूसरा नाम गुजरात मॉडल है। दुखद सिर्फ  यह नहीं है कि दादरी जैसी भयावह सांप्रदायिक घटना को पुलिस और सत्तादल के विधायक बार-बार एक गलतफ़हमी के कारण हुई दुर्घटना का जामा पहनाते रहे, त्रासद यह भी है कि दुनिया के सबसे बड़े जनतंत्र के अगुआ और देश के अति वाचाल प्रधानमंत्री को इस भयानक घटना पर ‘दुखद’ का इकलौता शब्द उच्चारित करने में भी सत्रह दिनों का लंबा वक्फ़ा लग गया। और उनके समर्थकों ने तो यहां तक कह डाला कि यदि सडक़ पर कुत्ता भी मरे तो क्या हम प्रधानमंत्री से उस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने की उम्मीद रखें?
अब इसके बाद देश में क्या सुनना और देखना बाकी रह गया है? शायद सन्नाटे के ऐसे ही किन्हीं क्षणों में  मियां ग़ालिब के मुंह से निकला होगा कि-
पहले आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी
अब  किसी   बात  पर  नहीं  आती!
अभी कुछ समय पहले दिल्ली पुलिस ने ऐसी ही असाधारण और अवैध तत्परता किसी निक्करधारी की मौखिक शिकायत या शरारत के आधार पर केरल भवन की रसोई में घुसकर वहां गोमांस तलाशने में  दिखायी थी। पुलिस अगर इससे आधी तत्परता भी शहर के वास्तविक अराजक तत्वों को पकडऩे में लगाती तो दिल्ली शहर में अपराधों का ग्राफ  ऊपर उठने की जगह तेज़ी से नीचे गिर गया होता। लेकिन सवाल प्राथमिकताओं का है। आज जब समूचा देश पानी, जंगली आग, भुखमरी, बदहाली और आत्महत्याओं जैसी संगीन विभीशिकाओं से बेतरह घिरा है, वहां सत्ता द्वारा इन समस्याओं को अनदेखा कर ‘गौहत्या करने वालों को फाँसी दो!’, और ‘भारतमाता की जय!’ जैसे जुमलों का बार-बार उछाला जाना और इससे भी आगे मानसिक एवं बौद्धिक स्तर पर आंबेडकर और भगतसिंह के नकली मुखौटों के पीछे से  ‘देशभक्ति’ और ‘देशद्रोह’ की सुविधाजनक नई परिभाषाएं गढ़ा जाना और असहमति की सारी आवाज़ों को साम-दाम-दंड-भेद से अवरुद्ध करने का प्रयास सहज ही दर्शाता है कि वे हमें किस ओर ले जाना चाह रहे हैं। दुष्यंत कुमार के शब्दों में--
तेरा निज़ाम है सिल दे ज़बान शायर की
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए!
समाचारपत्र ‘हिंदू’ के अपने लेख  ‘जब राज्य ही देश बन जाता है!’ में जी सम्पत लिखते हैं-
‘‘स्वतंत्रता के अड़़सठ वर्ष बाद भारत में एकाएक राष्ट्रवाद की पुनर्खोज हुई है।  अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की हाल ही की बैठक में भारतीय जनता पार्टी ने ऐलान किया है कि अब  राष्ट्रवाद ही उसका मूल दिशा-मंत्र होगा! उसके उत्साही नेताओं ने घोषणा की कि ‘भारतमाता की जय’ का नारा लगाने से इंकार करना देश के संविधान को अपमानित करने जैसा है।
यदि आप रिप वैन विंकल की तरह किसी लंबी सुप्तावस्था से अचानक जागे हों तो जान लें कि इस वक्त हम सीरिया जैसे देश की तरह युद्धकाल में नहीं हैं। ईराक की तरह किसी साम्राज्यवादी ताकत ने हम पर हमला भी नहीं किया है। लडख़ड़ाती अर्थव्यवस्था, सर्वव्याप्त बेरोज़गारी, कृषि के भयावह संकट, और कुपोषण, निरक्षरता, और पर्यावरण के विनाश से जूझते इस देश ने तय किया है कि अब उसकी राष्ट्रीय प्राथमिकता यह निर्धारित करना होगी कि हममें से कौन राष्ट्रद्रोही है और कौन नहीं।
एन डी ए सरकार ने देशद्रोहियों की शिनाख्त के लिए जिस तरह के राष्ट्रवाद का परचम फहराया है, उसे संसद और उससे बाहर राष्ट्रवाद पर चलने वाली बहसों में अक्सर ‘सूडो-राष्ट्रवाद’, ‘आक्रामक राष्ट्रवाद’, ‘हिंदू राष्ट्रवाद’, ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’, ‘अंध या उग्र राष्ट्रवाद’, ‘अति-राष्ट्रवाद’ और ‘संगठित राष्ट्रवाद’ आदि विशेषणों से नवाज़ा गया है। लेकिन बहुत कम लोगों ने इसके लिए सीधे-सीधे ‘फासीवाद’ शब्द का प्रयोग किया है; जो स्वयं एक और प्रकार का राष्ट्रवाद ही है। 
किसी जनतांत्रिक तरीके से चुनकर आयी सरकार को फासीवादी कहना अतिशयोक्ति और सत्ताधारी सरकार के नैतिक अधिकार को चुनौती देने जैसा कुप्रयास लग सकता है, हालांकि इतिहास बताता है कि एक फासी सरकार भी चुनावों के ज़रिए सत्ता में आ सकती है। यही नहीं, किसी भी संवैधानिक जनतांत्रिक सरकार और इसके संचालन में जनतांत्रिक मूल्यों के प्रमाण ढूंढना कभी मुश्किल नहीं होता।
राष्ट्रवाद पर होने वाली बहस में सवाल यह नहीं है कि देश फासीवाद की कगार पर है या नहीं, बल्कि यह जानना महत्वपूर्ण है कि वर्तमान सरकार जिस तरह की राष्ट्रवादी विचारधारा अपना रही है, उसमें और फासीवाद में कोई साम्य है या नहीं! और इस सवाल तक पहुंचने के लिए हमें फासीवाद के पितामह बेनितो मुसोलिनी के 1935 में प्रकाशित बीजग्रंथ ‘फासीवाद के मूल सिद्धांत’ की ओर लौटना होगा।  
मुसोलिनी पांच सिद्धांतों को फासी विचारधारा का मूल आधार मानते हैं। पहला और सबसे आधारभूत सिद्धांत यह है कि राज्य के अधिकार किसी भी व्यक्ति के अधिकारों से अधिक महत्वपूर्ण होते हैं। ‘‘फासीवादी जीवनधारा राज्य के महत्व पर ज़ोर देती है और इसमें व्यक्ति का महत्व वहीं तक होता है जहां तक उसके विचार राज्य के अधिकारों से मेल खाते हैं!’’
दूसरा सिद्धांत यह है कि राज्य किसी भी देश से ऊपर होता है। ‘‘कोई देश, राज्य को नहीं बनाता... बल्कि राज्य ही देश को जन्म देता है।’’
तीसरा है लोकतंत्र का अस्वीकार! ‘‘फासीवाद लोकतंत्र और इसकी बेतुकी, पारंपरिक राजनीति समानता को खारिज करता है!’’
चौथा सिद्धांत है राज्य की धर्मसापेक्षता! ‘‘फासी राज्य धर्म को संस्कृति का सबसे गहनतम स्वरूप मानता है और इसीलिए वह धर्म का सम्मान ही नहीं करता बल्कि उसका बचाव और उसकी रक्षा भी करता है।’’ इतालवी फासी के रूप में वे ‘‘रोमन कैथोलिज़्म को इतालियनों का सबसे विशेष और सकारात्मक धर्म मानते हैं!’’ कहने की ज़रूरत नहीं कि हमारे देश के फासिस्टों के संदर्भ में वह ‘विशेष’ और ‘सकारात्मक’ धर्म कौन सा होगा!
और पांचवां सिद्धांत, जिसमें एक तरह से पहले चारों सिद्धांत समाहित हैं, यह है कि राज्य ही सारे सद्गुणों का अक्षयपात्र है। राज्य ही ‘‘देश की आत्मा है!’’
क्या यह आकस्मिक है कि राष्ट्रवाद की जो लहर हमारे देश की सांस्कृतिक और राजनीतिक ज़मीन पर कब्ज़ा करने एवं ‘देशद्रोह’ की परिभाषा तय करने में जुटी है उसके मूल स्वर मुसोलिनी के पांच सिद्धांतों से पूरी तरह मेल खाते हैं? और इस बहस को और भी मुखर बना रहा है वह कानूनी प्रावधान जिसके तहत वर्तमान सत्ता के विरुद्ध राज्यद्रोह को देशद्रोह का पर्याय बनाकर पेश किया जा रहा है।   
भारतीय दंड संहिता की धारा 124 A अंग्रेज़ों के समय से चली आ रही है। अंग्रेज़ों के ज़माने में गांधी, भगतसिंह, बाल गंगाधर तिलक और दूसरे देशभक्तों की असहमति के दौरान इसी धारा का प्रयोग किया गया था। इन सभी को भारतीय दंड धारा 124 A के तहत अंग्रेज़ी हुकूमत का विरोध करने का दोषी पाया गया था। याद रहे कि लॉर्ड थॉमस मेकॉले द्वारा प्रतिपादित भारतीय दंड संहिता में 1860 तक यह धारा नहीं थी, लेकिन देश में स्वतंत्रता की प्रचंड लहरों के उठने के साथ-साथ सन 1870 में इसे भारतीय दंड संहिता में जगह दी गयी थी और तबसे यह धारा हमारी दंड संहिता का हिस्सा बनी चली आ रही है। देश के कई कानूनविदों का कहना है कि स्वतंत्र जनतांत्रिक देश में इस तरह की धारा का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि ले देकर इसका इस्तेमाल सरकार से असहमत होने वालों के विरुद्ध किया जाता रहा है, हालांकि यह धारा अपने वर्तमान स्वरूप में भी साफ तौर पर कहती है कि- ‘‘सरकार के राजकीय और दूसरे कार्यकाज से तीखा विरोध करने वाले उन सभी विचारों को, जिनसे दूसरों को उत्तेजित करने या द्वेष फैलाने का भाव सिद्ध नहीं होता, इस धारा के अंतर्गत अपराध नहीं समझा जाएगा।’’ (इंडिया टुडे)
ज़ाहिर है कि कन्हैया और उनके साथियों के खिलाफ  कानूनी लड़ाई भी इसी धारा और उसके औचित्य के इर्द गिर्द चलेगी। स्वतंत्रता के बाद इस धारा पर विचार व्यक्त करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने दो टूक शब्दों में कहा था कि ‘‘यह एक बेहद आपत्तिजनक और घृणित धारा है, और व्यावहारिक एवं ऐतिहासिक कारणों से हमारी संहिता में इसके लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। हम इससे जितनी जल्दी मुक्ति पा लें, उतना ही अच्छा!’’ लेकिन सच यह भी है कि नेहरू और उनके बाद की तमाम सरकारें अपने-अपने निजी कारणों और स्वार्थों के तहत इस धारा को संहिता से हटाने में विफल रही हैं।
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एक वक्त था जब दक्षिण एशिया प्रदेश में तानाशाहियों और संघर्षपूर्ण धार्मिक समुदायों के बीच स्थित भारत को अपनी सारी समस्याओं के बावजूद पड़ोसियों से बेहतर एक स्थिर और मज़बूत गणतंत्र की ईष्र्यापूर्ण नज़रों से देखा जाता था। आज ऐसा नहीं है। समूचे प्रदेश के साथ आज भारत भी उसी धर्मांध जुनून मे जकड़ा दिखाई देता है जिससे लडऩे के लिए गांधीजी ने बरसों पहले स्वतंत्रता की लड़ाई का आगाज़ किया था। भारत के संदर्भ में नेट पर अत्यधिक प्रचारित चर्चित पाकिस्तानी कवियत्री फ़हमीदा रियाज़ की पंक्तियां हैं-
तुम बिल्कुल हम जैसे निकले
अब तक कहां छिपे थे भाई
वो मूरखता, वो घामड़पन
जिसमें हमने सदी गंवाई
अर्रे, भाई बहुत बधाई!
हमारे पड़ोसी देश बंगलादेश में जहां एक तरफ  स्वतंत्रता युद्ध के अपराधियों को सज़ा दिए जाने का सिलसिला चल रहा है, वहीं धर्मनिरपेक्ष आवाज़ों के लिए एक गंभीर खतरा भी उगता दिखाई दे रहा है। पिछले दो वर्षों में वहां धर्मांधता के विरुद्ध बोलने वालों की निर्मम हत्याएं बेरोकटोक जारी हैं। धार्मिक कट्टरता का विरोध करने वाले लेखक अहमद राजिब हैदर की गंड़ासे से निर्मम हत्या के बाद आतंकवादी दल अंसार बांग्ला ने पिछले साल स्वतंत्र विचारक अविजित राय को मांस काटने वाली छुरी से मारा था और लगभग इसी समय एक अन्य लेखक वषीकुर रहमान बाबू की हत्या भी इन्हीं लोगों ने इसी अंदाज़ में की थी। अनंत विजस दास, निलय चट्टोपाध्याय के कत्ल की जिम्मेदारी अल कायदा और अंसारुल्लाह बांग्ला के आतंकियों ने ली। पिछले ही साल इटैलियन सिज़ेर टैवेला, जापानी कुनियो होशी और प्रगतिशील पुस्तकों के प्रकाशक फैसल आरेफिन दीपन को भी आई एस और आतंकवादी संगठनों ने मार डाला। और अब इसी वर्ष कुछ समय पहले उत्तरी बांग्लादेश में एक मंदिर के पुजारी को बंदूक से मार दिया गया एवं धर्मनिरपेक्षता के हक में बोलने वाले छात्र नज़ीमुद्दीन समद को भी गोली से खत्म कर दिया गया। और अभी कुछ ही दिन पहले राजशाही विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी प्रोफेसर रेज़ाउल करीम सिद्दीकी को अपने आस्तिक विचारों के लिए गला काटकर बेरहमी से मार दिया गया और बाद में आई एस ने इस हत्या की जिम्मेदारी भी कुबूल की। दुखद यह भी है कि प्रोफेसर सिद्दीकी अपने विद्यार्थियों को रवींद्रनाथ और काज़ी नज़रुल इस्लाम की कविताओं और संगीत की जानकारी दिया करते थे और ऐसा करना इस्लामी आतंकवादियों को नागवार था। अभी एक वर्ष पहले राजशाही विश्वविद्यालय में ही समाजशास्त्र के प्रोफेसर की हत्या उस समय की गयी थी जब उसने परीेक्षाओं के दौरान छात्राओं को बुर्का न पहनने की सलाह दी थी। पड़ोसी देश की ये हत्याएं जहां प्रदेश में पनपती असहिष्णुता के खतरों पर गंभीर सवाल उठाती हैं, वहीं इन्हें देखकर अपने खालिद, भट्टाचार्य, कन्हैया, शेहला और दूसरे निर्भीक बच्चों की सलामती की फिक्र भी हमें सताती है।
हमारे देश में 2014 में कुछ कश्मीरी छात्रों को उस समय गिरफ्तार किया गया था जब वे भारत-पाकिस्तान के एक क्रिकेट मैच में पाकिस्तान का समर्थन कर रहे थे। सुनने में आया है कि विख्यात क्रिकेट कमेंटर हर्षा भोगले को अपनी नौकरी से इसलिए हाथ धोना पड़ा क्योंकि भारत-बांग्लादेश के एक मैच में उन्होंने भारत से अधिक बांग्लादेश क्रिकेटरों की प्रशंसा कर डाली थी। देखा जाए तो इन वारदातों के पीछे की सोच बांग्लादेश में धार्मिक कट्टरता के कारण हुई निर्मम हत्याओं की मानसिकता से बहुत अलग नहीं है। 
पाकिस्तान और इससे आगे अफगानिस्तान में तालिबान का प्रभाव पुरुषों और स्त्रियों की वैयक्तिक आज़ादी के स$ख्त ख़िलाफ़ है। दिसम्बर 2014 में ‘तहरीक ए तालिबान’ के बंदूकधारी सदस्यों ने पेशावर के एक स्कूल में घुसकर 132 निरीह बच्चों सहित कुल 141 लोगों को मौत के घाट उतार दिया था। बलूचिस्तान में शांति के लिए सक्रिय इरफान अली खुदी को अपने धर्मनिरपेक्ष विचारों के लिए बम से उड़ा दिया गया था। और अभी हाल ही में पाकिस्तान में मानवाधिकारों के लिए लडऩे वाले प्रमुख नेता खुर्रम ज़की को दो अज्ञात मोटरसाइकिल सवारों ने कराची के एक रेस्त्रां में सरे-आम मौत के घाट उतार दिया- हमारे अपने दाभोलकर, पानसरे और कलबुर्गी के ही अंदाज़ में । ‘काफ़िरों’ और अनास्थावादियों के प्रति सदा से चली आ रही आक्रामक मुद्रा के चलते यह कट्टर विचारधारा पिछले दो-तीन वर्षों में कुछ और सख्त बनती चली गयी है। यही नहीं, इसने समय के अधिक महत्वपूर्ण सवालों और पर्यावरण की सबसे गंभीर चुनौतियों को प्राथमिकता की दौड़ से बाहर कर दिया है। पाकिस्तान में पेय जल की घटती आपूर्ति किसी तालिबानी हमले से छोटी  समस्या नहीं है। अपनी प्रसिद्ध पर्यावरण पुस्तक ‘दि स्नो लेपर्ड’ में लेखक पीटर मैथीसन लिखते हैं-
‘‘दक्षिणी एशिया प्रदेश पर्यावरण की सुरक्षा के मामले में पूर्वी अफ्रीका से कम से कम पंद्रह-बीस वर्ष पीछे है और आने वाले दिनों में यह फासला घातक सिद्ध होने वाला है। पश्चिमी भारत से तुर्की और उससे आगे उत्तरी अफ्रीका का बहुत बड़ा प्रदेश ऐतिहासिक समय से रेगिस्तानी रहा है। लेकिन इसके बावजूद पाकिस्तान जैसे देश में, जहां  पूरे क्षेत्रफल का कुल 3 प्रतिशत हिस्सा ही अब जंगलों के लिए बचा  है, इस  सिर पर मंडराती विभीषिका से बचने का कोई प्रयास दिखाई नहीं देता। संयुक्त राष्ट्र अमरीका के सैनिक/ औद्योगिक स्वार्थों और उसकी आर्थिक सहायता से चलने वाली पाकिस्तान की विशालकाय सेना किसी आने वाले युद्ध के इंतज़ार में खाली बैठने की जगह यदि सूखे के मारे देहातों में लाखों नए पेड़ उगाने की जिम्मेदारी संभाल ले तो देश और प्रदेश उसका आभारी हो सकता है!’’
लेकिन यहां सवाल प्राथमिकताओं का है और पाकिस्तान हो या हिंदुस्तान, अंतत: सत्ता का राजनीतिक और सांस्कृतिक एजेंडा किसी भी ज्वलंत समस्या से कहीं अधिक महत्वपूर्ण और ज़रूरी बन जाता है। युद्ध पर होने वाले खर्च/बजट तो खैर हर साल-दर-साल बढ़ते ही हैं, लेकिन दोनों सरकारों की बहुत सारी ऊर्जा आजकल धार्मिक उन्माद बढ़ाने पर खर्च होने लगी है।
जयपुर में कुछ दिन पहले आर्यसमाज की अगुवाई में कारो, झंडों और नारों से भरपूर एक विशाल रैली निकाली गयी। रैली का उद्देश्य गौहत्या और गोमांस के आयात का विरोध करना था। घंटों तक सडक़ों पर बेतरह ट्रैफिक जाम रहा। ले देकर नारे लगाने वाले क्या चाहते थे, यह स्पष्ट नहीं हो पाया क्योंकि प्रदेश में गौहत्या पर पहले से ही प्रतिबंध है और गौमांस का  आयात गौहत्या के बगैर हो नहीं हो सकता। नारे लगाने वालों में कुछ बेहद बूढ़ी महिलाएं भी थी जो शायद गाय की तस्वीर या आर्यसमाज का नाम देखकर रैली में शरीक हुई थी। जयपुर में ही लगभग इसी समय गरीब बच्चों के एक शरणालय में दूषित पानी पीने से बारह बच्चे मारे गए थे। लेकिन ‘ओऽम सर्वे भवन्तु सुखिन: ...’ - सब लोगों का सुख चाहने वाले आर्यसमाज या किस अन्य संस्थान ने शहर में स्वच्छ पीने के पानी की मांग या ऐसे ही किसी ज्वलंत मुद्दे पर रैली निकालना ज़रूरी नहीं समझा। तय है कि  ऐसी कोई रैली अगर निकाली भी जाती तो उसमें दो-चार सिरफिरों को छोडक़र कोई शरीक नहीं होता क्योंकि चंद गरीब बच्चों की मौत के मुकाबिल गौहत्या जैसे मुद्दे में धार्मिक उन्माद खड़ा करने की अपार संभावनाएं हैं। आज देश में बहुत से सांस्कृतिक एवं राजनीतिक कार्यकलाप इसी धार्मिक उन्माद के तहत चलाए और फैलाए जा रहे हैं और ले-देकर इन्हें सत्ता का समर्थन और प्रश्रय भी मिल रहा है क्योंकि ये सामान्य जन की सोच को वास्तविक समस्याओं से दूर ले जाते हैं। यदि गौमांस के आयात को ही लें तो यह अपने आपमें कोई सांस्कृतिक या धार्मिक मुद्दा ही नहीं है। सच यह है कि भारत से दुनिया के किसी भी दूसरे देश से अधिक ‘बीफ’ का आयात होता है। 2015 में यह आयात ब्राज़ील के 20 लाख आयात से भी अधिक 24 लाख टन तक पहुंच गया था। यह आयात भारत को बासमती चावल से भी अधिक विदेशी मुद्रा कमाकर देता है। लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि भारत से आयात होने वाला सारा ‘बीफ’ भैंसे का मांस होता है जिसे अंतर्राष्ट्रीय मंडियों में ‘बीफ’ के ही नाम से जाना और खरीदा जाता है। यूं भी देश में गौमांस के आयात पर प्रतिबंध है, जबकि दुर्गा और काली के मंदिरों में सदियों से भैंसे की बलि देने का रिवाज  है और यह वध हमारे यहां पूरी तरह वैध और धार्मिक दृष्टि से स्वीकार्य और शुभ समझा जाता है । यही नहीं, देश के अधिकांश दूध कोऑपरेटिव मुख्यत: भैंस का दूध बेचते हैं क्योंकि गाय के मुकाबले भैंस का दूध अधिक गाढ़ा होता है और प्रति मवेशी इसका उत्पादन भी अधिक होता है। इन्हीं भैंसों की बदौलत भारत दुनिया का सबसे बड़ा ‘बीफ’ इम्पोर्टर होने के साथ-साथ दुनिया का पहले नंबर का दूध उत्पादक भी है और इसमें 95 प्रतिशत से भी अधिक भैंस का दूध है। कृषि में ट्रैक्टरों की खेती आ जाने से यूं भी बैलों और गायों की संख्या में लगातार गिरावट दर्ज़ की जा रही है। भैंस के मुकाबले गाय का दूध कहीं अधिक पतला, बहुत महंगा और अक्सर अनुपलब्ध देखा गया है। बेशक बहुत से हिंदू परिवार दूध के लिए अपनी स्वयं की गाय पालते हैं। मैंने किसी भी मुसलमान या ईसाई को आज तक गाय पालते नहीं देखा है। गाय पालने वाले परिवार यदि चाहें तो अपने बूढ़े जानवरों को कसाइयों के हाथ बेचने की जगह ताउम्र उनके पालन की जिम्मेदारी ले सकते हैं। ऐसे में बाज़ार से गौमांस का चलन लगभग समाप्त हो जाएगा। वर्तमान में भी बाज़ार में बिकने वाला अधिकांश ‘बीफ’ दरअसल भैंसे का मांस है क्योंकि गौवध पर तो यूं भी कई प्रदेशों में पूरा प्रतिबंध है। तो फिर यदि धार्मिक जिद पर ही उतरें तो कहा जा सकता है कि ‘बीफ’ खाने वाले मुसलमानों, ईसाइयों और गरीबों का  गौमांस के धार्मिक उन्माद से कोई लेना देना नहीं है क्योंकि इनके लिए तो गौमांस और भैंसा-मांस एक बराबर है। गौमांस को बाज़ार में लाने की असली जिम्मेदारी गाय पालने वाले हिंदू परिवारों और गौशालाओं को चलाने वाले ‘भइयों’ की है। ये सब यदि अपने बूढ़े मवेशियों को कसाइयों के हाथों बेचना बंद कर दें तो गौहत्या की समस्या जड़ से समाप्त हो जाएगी। तब सवाल उठता है कि ‘गौहत्या करने वालों को फांसी दो!’ और ‘कटती गउएं करें पुकार, अब तो चेतो मोदी सरकार!’ जैसे झूठे और भडक़ाऊ नारों का उद्देश्य समाज की विभिन्न धार्मिक इकाइयों के बीच द्वेष और दुर्भावना फैलाने के अतिरिक्त और क्या है? और यदि सचमुच ऐसा है तो फिर जे एन यू के मामले में इस्तेमाल की जाने वाली धारा 124 A की व्याख्या के अनुसार पकड़े गए छात्रों के साथ-साथ इन भडक़ाऊ नारे लगाने वाली  समूची बिरादरी को ‘देशद्रोही’ घोषित कर जेल में क्यों नहीं डाला जाता?
देखा जाए तो ज़ेहाद’ के लिए किसी बौद्धिक विचारक का सिर धड़ से अलग कर डालने और गोमांस के लिए घरों में घुसकर रेफ्रिजरेटर की तलाशी करने वाली हिंदू भीड़ की मानसिकता में कोई खास अंतर नहीं है। दुखद यह भी है कि इस मानसिकता को उकसाने और बढ़ावा देने में मीडिया की भी अहम अपराधी भूमिका रही है। जे एन यू कांड के दौरान कुछ टी वी चैनेलों ने झूठ  गढऩे और बाद में उस झूठ को प्रचारित करने में भरपूर मदद की। अंतत: यह सिद्ध भी हो गया कि घटना का प्रचारित वीडियो फर्ज़ी तौर पर गढ़ा गया था, लेकिन इसके बावजूद उसे बनाने या उसे प्रचारित करने वाले वालों या कि न्यायालय में मारपीट करने वालों के विरुद्ध कोई कार्रवाई अब तक नहीं हुई है। पटियाला हाउस के बाहर जे एन यू के एक विद्यार्थी की पिटाई करने वाले बी जे पी विधायक ओ पी शर्मा का कुकृत्य वीडियो पर दिखाई दिया था, लेकिन पुलिस ने उन्हें थाने में बुलाने के बाद तुरंत छोड़ दिया। उधर मुंबई में मालेगांव विस्फोट की मुख्य अभियुक्ता और आर एस एस से जुड़ी साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, जिनके स्कूटर में बम रखकर विस्फोट हुए थे, उसे भी सरकारी पड़ताल संस्था एन आई ए ने अपने पुराने रुख को पलटते हुए सभी अपराधों से बरी कर दिया है। कमोबेश यही अब इस देश का कायदा हो गया है। महाराष्ट्र की अदालत ने पिछले दिनों गोमांस को लेकर अपना महत्वपूर्ण फैसला सुनाया कि गोहत्या पर चाहे प्रतिबंध हो लेकिन घर में गोमांस रखना अपराध नहीं है क्योंकि यह किसी व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता का ही एक हिस्सा है। कई अंग्रेज़ी अखबारों में यह खबर पहले पृष्ठ की सुर्खियों में थी। लेकिन ताज्जुब की बात थी कि जयपुर के दोनों सबसे बड़े हिंदी समाचार पत्रों में यह खबर एक सिरे से नदारद थी। ज़ाहिर है कि मीडिया के भीतर एक और चोर मौकापरस्त मीडिया छिपा बैठा है जो हर खबर का नफा नुकसान तौलने के बाद तय करता है कि किससे सत्ता की कितनी खिदमद की जा सकती है। जे एन यू शिक्षक संघ के सचिव विक्रमादित्य चौधरी कहते हैं-
‘‘यदि सत्ता कोई अत्याचारपूर्ण कदम उठाती है तो मीडिया का कर्तव्य होता है कि वह व्यक्ति और समाज के हितों और उसकी स्वतंत्रता की रक्षा करे। लेकिन यहां मीडिया की विपरीत भूमिका रही है। हमने जे एन यू का नाम बदनाम करने वाली टी वी चैनेलों के विरुद्ध शिकायत दर्ज़ की है। हमने कहा है कि जे एन यू के सम्मान को जो चोट पहुंची है उसके लिए उनसे 500 करोड़ रुपयों का मुआवज़ा वसूल किया जाए। प्रधानमंत्री को हम वोल्टेयर की वह सूक्ति याद दिलाना चाहते हैं कि-
तुम्हें जो कुछ कहना है, मैं उससे सहमत नहीं हूं, लेकिन फिर भी मैं मृत्युपर्यंत तुम्हारे कहने के अधिकार की रक्षा करूंगा!’’            
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हवाईअड्डे पर मुफ्त मिलने वाले अखबार की सुर्खियों में सूचना थी कि ‘इस देश में कुछ बहुत असामान्य घटित हो रहा है....’
मुझे कोलकाता से बमुश्किल एक-डेढ़ घंटे की हवाई यात्रा पर मयनमार जाकर वहां से उस अपरिचित देश के पुलों, मेहराबों और पत्थरों का ब्यौरा आप तक पहुंचाना था। लेकिन उन सुर्खियों में डूबने और उन्हें खंगालने के बाद ही कुछ और कहना या लिखना संभव था। आप आरोप लगा सकते हैं कि-
आए थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास!
लेकिन आप मानेंगे कि इस संधिकाल में धर्म सापेक्ष हरि का भजन करने के मुकाबले कबीर की तरह एक निरपेक्ष कपास को धुनकर रेशे को रेशे से मिलाना कहीं अधिक उपयोगी और सार्थक विकल्प है.....

(अगले अंक में जारी)


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