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जुलाई 2016

धर्म, ईश्वर और वैश्विक आतंकवाद

विनोद शाही

स्तंभ/भूरी खाक़ धूल में दबी चिंगारियां/एक







चेतना के घड़ों के ये कितने कुम्हार!

भव्य और उदात्त ‘गोरी’ चिट्टी इमारतें
तनी हैं आकाश में
उन में चिनी ‘भूरी भूरी’ खाक़ धूल
पूछता है धरती के नीचे दफ़न
‘काली’ दुनियां से-
‘‘तुम कब देखोगी रौशनी?’’
‘‘उस दिन जब दुनियां यह
आकाश की बजाय
जमीन की तरफ देखना सीख लेगी’’
- आता है जवाब

बुनियादी सवाल वहीं का वहीं है... सवाल यह है कि धर्म और उसके केन्द्र में खड़ा ईश्वर क्या है? आधुनिक काल में दूत से इस बारे में गहरा विमर्श पैदा हुआ है, इन सवालों पर ज्यादा रोशनी इस तरह के सोचने के तरीके के जरिए डाली गई है कि धर्म क्या नहीं है, या कि धर्म क्या ‘करता’ है? क्या नहीं है धर्म- इस बाबत सोचने की शुरुआत विज्ञान के कोण से हुई। हम जानते हैं कि जिसे हम मानवजाति का आधुनिक काल कहते हैं, उसकी मूलभूमि वैज्ञानिक विकास के द्वारा रची, गढ़ी और संवारी गई। तो बात यहां से शुरु हुई कि विज्ञान हमें धर्म-केंद्रित मध्यकालीन बोध से बाहर लाता है, और आधुनिक होने के लिए तैयार करता है। यानी धर्म में कुछ ऐसा देखा जो विज्ञान-विरोधी था। सरलीकरण करने वालों ने इसे - यानी धर्म और विज्ञान के विरोध को - ‘नास्तिक’ ही बना डाला, जो कि वह नहीं था। दोनों के केंद्र में ‘अज्ञात को जानने’ की मूल जिज्ञासा मौजूद थी। फर्क इतना था कि विज्ञान अज्ञात में प्रवेश कर, उसका मनुष्य के हित में रूपांतर करने का प्रयास करता था। जबकि धर्म अज्ञात से केवल ‘संपर्क’ बनाता था और फिर उससे ‘मानवीय रिश्ता’ स्थापित करने या उसमें ‘आत्म या अहम् के विलय’ के लिए प्रयास करता था। विज्ञान के लिए अज्ञात भविष्य में खुल सकने वाली रहस्य संभावना का नाम था; जबकि धर्म उसे ‘ईश्वर’ कहकर, उस पर ‘मानवीय भावों के रिश्तों’ का आरोप करता था - जिससे ‘उससे’ हमारी दूरी और हमारी सीमाएं अपना अर्थ खो दें।
अमेरिका में 2011 में उसके आकाश को छूते दो ‘टावर्स’ क्या गिरे, गोया उत्तर-औद्योगिक वित्तीय पंूजी के बाजार के वर्चस्व को दर्शाते प्रतीक अचानक भरभरा कर जमीन पर आ गिरें लेकिन उससे जो धूल उड़ी, वह धर्म व ईश्वर संबंधी इसी चिंतन को दाबारा केंद्र में लाकर खड़ा करने लग पड़ी।
एजाज़ अहमद ने इसे इस नजरिए देखा कि यूरो-अमरीकी नव-साम्राज्यवाद ने 1960 के बाद से जिस तरह मध्य एशिया और अफगानिस्तान में से चुनचुन कर, वहां पनप रहे उस विकल्प को नष्ट किया, जिसका ताल्लुक समाजवादी चेतना के अपनी तरह के रूपों के निर्माण के साथ था - उसी ने वह शून्य पैदा किया, जो धर्म के भीतर से उपजने वाली अमानवीय प्रवृत्तियों व आतंकवादी रुझानों के ताकतवर होकर निरंकुश हो जाने की वजह बना।
यानी, एजाज़ अहमद की सुनें तो कहना होगा कि उन्होंने धर्म व ईश्वर की नयी व्याख्या के लिए दूसरा रास्ता पकड़ा कि धर्म करता क्या है। जैसा कार्ल मार्क्स ने कहा कि धर्म ‘दमित लोगों की आह है’, उनके अमानवीय सत्ताओं के खिलाफ ‘संघर्षों का हमसफर है’, परन्तु इससे उपजने वाली ‘उच्चतर चेतना’ को ‘निष्क्रिय बनाए रखने वाला सत्ता विमर्श’ है, जो ‘अफीम’ के असर की तरह लोगों को झूठे दिलासे दे कर सुला देता है। यह चिंतन-धारा धर्म को ‘प्रच्छन्न राजनीतिक सत्ता विमर्श’ की तरह देखती है। यानी, इस सोच को गहराएंगे तो हम यहां तक पहुंच जाएंगे कि धर्म ‘वैकल्पिक सत्ता व्यवस्था के लिए प्रयास करने वाला दबे कुचले लोगों का अचेतन विमर्श होता है, जिसका सचेतन इस्तेमाल करने का मार्ग धर्म के भीतर से नहीं खुलता; क्योंकि वह सहनशीलता, धैर्य, क्षमा, करुणा, अहिंसा जैसे मानवीय मूल्यों को शाश्वत बना देता है और मनुष्यों को ईश्वर की दी हुई दुनियां के साथ राज़ी हुए रहने के लिए दीक्षित या प्रतिबद्ध करता है।
स्पष्ट है कि, ऊपर जो पुनव्र्याख्या प्रस्तुत की गई है, वह कार्ल मार्क्स के चिंतन का ‘प्रयोजनमूलक’ विस्तार है। इसे निगाह में रखना जरूरी है, क्योंकि ज़्यादातर मार्क्सवादी आलोचक इस चिंतन-पद्धति की मदद से गुत्थियों को सुलझाने की कोशिश किया करते हैं।
तथापि एजाज़ अहमद तथा इस चिंतनधारा से जुड़े विद्वानों के द्वारा इन बुनियादी सवालों की अनदेखी तो की ही जाती है - कि क्या समाजवादी और साम्यवादी व्यवस्था तथा धर्म एक-दूसरे के विरोध में हैं? क्या धर्म मूलत: अमानवीय व आतंकवादी रुझानों की जन्मभूमि होता है, कि जैसे ही लोगों के पास मानवीय समाजवादी इन्कलाब करने के रास्ते बंद हो जाते हैं, तो वे धर्म के अमानवीय रूपों, माध्यम हो जाने से खुद को बचा नहीं पाते? या फिर यह कि धर्म भी एक तरह का प्रच्छन्न समाजवाद ही है। जब तक वास्तविक समाजवाद की स्थापना संभावित रहती है, धर्म अपना अर्थ खो देता है पर जैसे ही उस संभावना का दमन होता है, धर्म प्रतिक्रियावादी होकर जैसे बदला लेने की नीयत से निकल पड़ता है।
स्पष्ट है कि यहां यह जो अंतिम व्याख्या है, वह कार्ल मार्क्स के मत के  ज़्यादा करीब जान पड़ती है। परन्तु समस्या यह है कि जब बात समाजवादी समाज के गठन की होती है, तो उसे अनेक देश ‘सजग प्रयास’ करते हैं - खुद को ‘नास्तिक’ घोषित करने का और धर्म को अपने दुश्मन की तरह ग्रहण और प्रस्तुत करने का।
इस तरह धर्म क्या नहीं है? का जवाब एक तो उसकी विज्ञान से दुश्मनी की तरह सामने आता है, दूसरा समानता से।
फिर एक तीसरा अर्थ भी है। यह अर्थ 1990 के बाद के दौर में अधिक नुमायां हुआ है। इसे हम भूमण्डलवादी सोच के तरह उभरता हुआ देख सकते हैं।
ईगल्टन ने इसे ‘नव-नास्तिकवाद’ कहा है। यह भूमण्डलवादी सोच के भीतर से पनप रहे ‘संस्कृतिवाद’ की उपज है। यह विचार कि धर्म, संस्कृति का एक रूप है - आधुनिक काल में प्रकट होकर खासा लोकप्रिय हुआ है। संस्कृति की विराट-भूमि में धर्म के विलय के प्रयास, आधुनिक-बोध का, प्रगतिशील सेना का, पर्याय माने जाते रहे हैं कहीं न कहीं यहां एक तीसरे विरोध की जमीन खुलती है। वह यह है कि धर्म संकीर्ण है, संस्कृति विराट और व्यापक और विरोध की दूसरी सबसे बड़ी वजह है - संस्कृति का ‘धर्म-निरपेक्ष चरित्र’। जैसे ही मानवजाति आधुनिक दौर में प्रवेश करती है, धर्म को ‘निजी विश्वास’ की भूमि बनाकर, ‘सार्वजनिक क्षेत्र से अलहदा’ करने का प्रयास होने लगता है। इस तरह सार्वजनिक क्षेत्र से लेकर सत्ता और ज्ञान के तमाम वर्चस्वी रूपों के गठन की जमीन, धर्म की बजाय, संस्कृति के द्वारा निर्धारित होने लगती है। यहां भी व्याख्याओं के तल पर सरलीकरण हमारे रास्तों की रुकावट हो जाते हैं। दरअसल गहरे अर्थ में धर्म भी, संस्कृति ही होता है। परन्तु संस्कृति धर्म-मात्र नहीं होती, और यह भी कि संस्कृति का हिस्सा होते वक्त, धर्म, धर्म की तरह नहीं रहता या होता।
और धर्म के विज्ञान, समाजवाद, प्रजातंत्र या संस्कृति का हिस्सा हो जाने के रास्ते की जो सबसे बड़ी रुकावट होती है, वह है - इसमें मौजूद ‘ईश्वर’ की धारणा।
तो, दो तरह का समाधान खोजे गए
एक है फ्रेडरिक नीत्शे का कि ईश्वर को विदा कर दो। तो जो ‘मानवीय’ कोटि का धर्म है, वह खुद व खुद बच जाएगा।
दूसरा समाधान दिया सी.जी. जुंग ने कि धर्म को बिदा कर दो; ईश्वर के बिना गुजारा चलाना कठिन होगा। तो यह जो जुंग की बात थी, उसकी ताकीद दुनिया के सबसे बड़े माने जाने वाले वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने कर दी। उन्होंने माना कि बेशक धर्म, विज्ञान को अंधा बनाता है, पर बगैर ईश्वर के कंधों पर सवार हुए, विज्ञान अपाहिज हो जाता है। यह जो विचार था, उसका संबंध विज्ञान से ज्यादा मनोविज्ञान के साथ था। इस का अर्थ यह था कि एक वैज्ञानिक का मनोविज्ञान भी गहरे में ‘अज्ञात के प्रति आस्था’ के द्वारा उसमें ‘सकारात्मक एवं विश्वसनीय प्रवेश’ की भूमिका लगता है। यानी जिसे धर्म कहते हैं, कि अज्ञात के साथ मानवीय रिश्ते हमारी मदद करते हैं, वह बात यहां एक तरह से चोर-दरवाजे से लौटती हुई मालूम पड़ती है।
सी जी जुंग से बेहतर व अधिक गहरा मनोवैज्ञानिक अभी तक दुनिया के पास नहीं है। वे कहते थे कि ‘धर्म ईश्वर को जानने के रास्ते की रुकावट है’। उनके लिए ईश्वर कोई धार्मिक धारणा की तरह नहीं था। वे उसे मनुष्य के ‘सामूहिक अचेतन’ के उस परम-रुपांतर के प्रतीक की तरह देखते थे। जब वह हमें हमारे अपने सामूहिक सचेतन के रूप में उपलब्ध हो जाता है। यानी ईश्वर को वे ‘स्व’ में प्रवेश के द्वारा की तरह देख रहे थे।
जुंग के इस चिंतन को हमें फ्रेडरिक नीत्शे के ‘ईश्वर के अंत’ की धारणा के बरअक्स रख कर समझना चाहिए। अनंत और अज्ञात को नीत्शे यथार्थ के नीचे छिपी पातालगर्भीय दुनिया से जोड़ते थे। वह भी एक तरह का ‘सुवतां का लोक था, जहां ‘मृत्यु’ बसती है। उनका एक मिथक-पात्र अपनी पत्नी को इस मृत्युलोक में प्रवेश करके, वहां से जीवित वापिस धरती पर ले आने का प्रयत्न करता है, तथापि वहां ‘ईसाई’ या ‘यहूदी’ धार्मिक प्रतीकों के साथ ‘तर्कसंगत’ तरीके से जाना मुमकिन नहीं था। इसलिए वह ‘ईश्वर की मृत्यु’ को ‘एण्टी क्राईस्ट’ की अपनी धारणा का विस्तार बनाता है। तथापि वह दुनियां तो है, जो अज्ञात और अनंत है - तो उसमें प्रवेश के लिए वह एक और रास्ता पकड़ता है।
नीत्शे का रास्ता - धर्म और ईश्वर के विकल्प की खोज से होता हुआ - अंतत: बुद्ध और उसके दर्शन के आसपास आकर ठिठकता है। यहां उसे न धर्म नजर आता है, न ईश्वर यहां तो बस मनुष्य है, अपने स्व की पूर्णता को खोजता-पाता मनुष्य। तो नीत्शे बौद्ध चिंतन को दुनियां का एकमात्र ‘तार्किक धर्म’ कहता है - जो धर्म जैसा कतई नहीं।
और जुंग, अपने तरीके से खोजता हुआ, कुंडलिनी योग के आसपास आ कर ठहरता है। यहां उसे अचेतन में प्रवेश का दुनियां का पहला सुव्यवस्थित ढांचा मिलता है, और यह बात गौरतलब है कि ‘शास्त्रीय’ या मूल रूप से योग का जो ‘राजयोग’ की तरह विकास हुआ था, उसमें ‘ईश्वर’ एकदम ‘नगण्य’ या ‘दोयम’ स्थिति में पड़ा है।
तो, ईगल्टन ने जब ‘9/11’ के अमेरिका पर हुए आतंकवादी हमले तथा 2005 में लंदन पर हुए हमले की प्रतिक्रिया में अमेरिका तथा यूरोप में उभर आए ‘आस्था के ज्वार’ के समानांतर ‘नवनास्तिकवाद’ के उभार की बात की, तो उनके संश्लेषण उन्हें ‘दुनिया में समतामूलक न्यायमूलक सत्ता-व्यवस्था के अभाव’ की स्थिति तक ले गये; जिसकी वजह से यह सब हुआ। एक तरह से वे भी एजाज़ अहमद वाले चिंतन-निष्कर्ष का ही विस्तार कर रहे थे, जो दुनिया से समाजवाद के विकल्प की संभावनाओं को नष्ट कर देने से उपजे संकट से इसे जोड़ता था लेकिन ईगल्टन धर्म की इस राजनीतिक का प्रयोजनवादी व्याख्या से थोड़ा आगे जरूर बढ़े। उन्हें लगा कि धर्म केवल सत्ता व्यवस्था मूलक विकल्प के तौर पर सामान्य भ्रमितजनों की आह पर नहीं होता, अपितु वह गहरे में मनुष्य के ‘अचेतन भाव जगत की अभिव्यक्ति’ भी करता है। वह दुनिया को ‘खाने’ के लिए ‘रचयिता’ वाली जमीन पर इसलिए चला जाता है, क्योंकि धर्म सृष्टि की रचना की बाबत किसी अचेतन अंत: व्यवस्था की बात करते हैं। लेकिन वह वैज्ञानिक नहीं है। नव-नास्तिकवाद को उन्होंने इसलिए आड़े हाथ लिया, क्योंकि वह धर्म की ऐसी नव-विज्ञानवादी पुनव्र्याख्या कर रहा है। इससे धर्म को एक अधूरे या बुरी किस्म के विज्ञान की तरह ही पेश किया जा सकता है, परन्तु वह धर्म की बाबत बुनियादी सवालों से जुड़ी बात नहीं है। ईगल्टन के मुताबिक यह नास्तिकवाद इस्लाम-प्रेरित आतंकवाद का विरोध करने के लिए ‘आस्था’ को ही ‘अंधता’ कहता है। इसलिए वह धर्म में भी बगैर आस्था के यानी वैज्ञानिक तर्क बोध के साथ, प्रवेश की बात करता है।
अगर आप याद कर सकें तो भारत में शुरुआती दौर के अनेक समाजवादी चिंतक धर्म की ऐसी नवविज्ञानवादी दृष्टि वाले पुनव्र्याख्या की बात कर रहे थे। इनमें से एम एन राय एक थे। देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय इसे समाजवैज्ञानिक तरीके से पुनव्र्याख्या प्रदान करने का प्रयास कर रहे थे - जो वर्गीय विभाजन वाली समाज व्यवस्था पर खड़ी थी।
लेकिन अब हम अगर धार्मिक मूलवाद, कट्टरतावाद और उसके सांप्रदायिक आतंकवादी उभार से उबरने की कोशिश सच में करना चाहते हैं तो हमें धर्म की व्याख्या के लिए विरोधमूलक-अंतर्विभाजनमूलक सरलीकरणों का सहारा लेना बंद करना होगा। धर्म को विज्ञान, समाजवाद या संस्कृति के विरोध में एक अपराधी की तरह कटखरे में खड़ा कर देने से ही हम उसके लिए मृत्युदण्ड का प्रावधान नहीं कर सकेंगे। हमें इसके लिए धर्म के उन पक्षों-आयामों की गहरी व्याख्या में उतरना होगा, जिनका समाधान करने से विज्ञान, समाजवाद व संस्कृति संबंधी चिंतनधाराएं अब तक चूकती आई हैं।
सृष्टि रचना के रहस्य में आस्था के जरिए प्रवेश करते हमारी अचेतन की रचनाशीलता, उसी तरह का एक ऐसा पहलू है, जो अभी तक अव्याख्यायित पड़ा है। फिर स्वयं आस्था का सवाल भी है। यह सवाल भी है कि ‘भाषा’ के एकमात्र उपलब्ध विश्लेषण-उपकरण के जरिए हम उस दुनिया की व्याख्या कैसे करेंगे जो अभाषिक या अर्थविहीन ध्वनियों की दुनिया की तरह हमारे आसपास के पूरे भौतिक परिदृश्य को आप्लावित किए हैं। इस संबंध में हमारी चुनौती होगी, मानव के सामान्य या सामूहिक अचेतन में नयी दृष्टि के साथ यानी अब तक के उपलब्ध वैज्ञानिक बोध के साथ प्रवेश।
जैसे कि फ्रेडरिक जेम्सन ने सवाल उठाया है कि ‘विलम्बित पूंजीवाद’ के ‘सांस्कृतिक’ तर्क को समझना हो तो हमें अपने समाज के ‘राजनीतिक अचेतन’ में प्रवेश करना पड़ेगा; उस राजनीतिक अचेतन में, जो सामूहिक और अति-व्याप्त है। यहां वे ‘संस्कृति मूलक तर्क’ की बात उठा रहे हैं, जो गहरे में धर्म से कितनी गुंथी है, कितनी बाहर है, इस का अंदाज़ा तो हमें अपने इस वैश्विक परिदृश्य को देखकर आसानी से ही लग सकता है। 1990 के बाद से हमारी यह दुनियां पूर्व उपनिवेशों के आजाद होने के बाद उत्तर-औपनिवेशिक दौर में प्रवेश कर गई है। परन्तु हालात क्या हैं? अफगानिस्तान, इराक, इरान, और अब सीरिया, तुर्की, सऊदी अरब - सब कहीं क्या हो रहा है? - और वह कितना धर्म से गुंथी है, कितना बाहर है? - इस सब का विश्लेषण होना अभी बाकी है। अफ्रीकी महाद्वीप भी ईसाई और इस्लाम सत्ता समीकरणों के अंदरूनी संघर्षों की भेंट चढ़ रहा है। नव-नास्तिकवाद से जुड़ी महत्वपूर्ण किताबों में से कुछ मुख्य नाम अफ्रीकी लेखकों के हैं तो, यह जो धर्म की जमीन से जुड़ा-गुंथा संकट है, वह मानव जाति को, समाज-राजनीतिक अचेतन में प्रवेश करने के लिए चुनौती दे रहा है। पर उसके लिए अंतर्दृष्टियां कहां से आएंगी? जुंग और नीत्शे तो इस नतीजे पर आ पहुंचे थे कि इस संबंध में उन्हें पूर्व की ओर देखना तो जरूर पड़ेगा। खास तौर पर धर्म माने जाने वाले उन रूपों की तरफ, जो न धर्म हैं और न विधिवत तौर पर ईश्वर-केंद्रित हैं। हालांकि इसमें प्रसन्न होने की भी बहुत बात नहीं है। हमारे कुछ मित्रों का राष्ट्रवादी सीना ऐसी बात सुनकर ही फूलने लगता है, चाहे वह भीतर जाती वायु, प्राण बन कर उनकी आत्मा का संस्पर्श करने की स्थिति में कभी भी नहीं आती हो। ऐसी गहरी बातों में उथले राष्ट्रवाद को कभी कोई दिलचस्पी नहीं होती। इसलिए यहां जुंग की इस बात को उद्धृत कराना भी उचित लगता है कि उन्होंने शिकागो में दिए गए विवेकानंद के प्रभासित करने वाले व्याख्यानों को, अनेकों ‘भोले अमरीकियों को मनोचिकित्सा के लिए अस्पतालों में दाखिल होने की हद तक विज्ञिप्त बनाने का दोषी माना था। इसके बाद पश्चिम में एक बहस खड़ी हो गई कि ज्ञान के जिन रुपों का विकास पूर्व में हुआ, वे पश्चिम के सामूहिक चिंतन के अलग तरह के गठन के कारण, ज्यों की त्यों ग्राहय नहीं हैं। कुछ ने उनके ‘मध्यकालीन’ मान कर ‘आधुनिकबोध से पिछड़ा हुआ’ कहा, तो कुछ ने, जिन में खुद जुंग शामिल थे, उन्हें ‘विषपूर्ण’ तक कह दिया। लेकिन ज्ञान के ये रूप - खास तौर पर जो भारत व चीन में सदियों के सतत प्रयासों से विकसित हुए थे - एकदम नकारने लायक भी प्रतीत नहीं हो रहे थे। इसलिए पश्चिम में इसके प्रति एक और रुख प्रसारित किया गया कि ‘क्या इन पूर्वी ज्ञान रूपों का अलग से नयी तरह का पश्चिमीकृत नवविकास संभव है?’ जुंग ने इस संदर्भ में अपनी यह ख्वाहिश जाहिर की कि वे देखना चाहेंगे कि क्या भारतीय कुंडलिनि योग का ईसाई योग जैसा कोई नया रुप प्रकट हो सकता है या नहीं? तथापि, ऐसा न होने के बावजूद, अनेक पश्चिमी विमर्शकार प्रयास कर रहे हैं कि कैसे इन पंरपरागत विश्लेषण व अनुभवमूलक पद्धतियों के इस्तेमाल से वे मानवजाति के सामूहिक समाज-राजनीतिक अचेतन की व्याख्या करने में सक्षम हो सकते हैं?
यदि हमारे पास आधार पद्धति के तौर पर वह द्वन्द्वात्मक यथार्थवादी दृष्टि है  जो यथार्थ को चेतना के निर्माण व अंतर्विकास के हेतु के तौर पर ग्रहण करती है; तो हमें इसकी व्याख्याओं को चेतना के ‘अचेतनमूलक’ व ‘सामूहिक अचेतनमूलक’ आयामों तक भी तो गहराना पड़ेगा। ऐसा करने पर ही यह मुमकिन हो सकेगा कि हम धर्म से संबंधित सवालों के तर्क-संगत उत्तर खोजने और विकल्पों की तलाश करने का काम अपने हाथों में ले सकेंगे।
यहां इस पृष्ठभूमि को इसलिए प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है, ताकि हम यह समझ सकें कि हमें अपनी ज़मीन के भीतर से विकसित हुए परंपरागत ज्ञान रूपों के प्रति क्या दृष्टिकोण अपनाना चाहिए? वह न तो परंपरा को रद्द करने वाला होना चाहिए और न परंपरा के उस तरह के इस्तेमाल से सहमति जताने वाला होना चाहिए, जो उसके ‘प्राच्यवादी’ अवमूल्यन की वजह बनता हो। परंपरा का पुनरुत्थान हमारे यहां औपनिवेशिक दौर में ही अपनी प्रासंगिकता खोने लगा था। विवेकानंद संबंधी पश्चिमी उत्तर-आकलनों को इसीलिए यहां संकेतिक किया गया है। तथापि हमारे यहां जो हुआ, उसमें नवविकास की संभावनाएं कहां से निकलती हैं, इसे हमसे बेहतर कोई नहीं जान सकता। पश्चिम के पीछे भागते रहने की अपनी प्रवृत्ति का त्याग करके, यह कोशिश करनी होगी कि हम पश्चिम के साथ अपने तरीके के नवविकास के द्वारा कैसे हमकदम और हमसफर हो सकते हैं?
धर्म और ईश्वर की गुत्थी को सुलझाने के लिए हाल ही में पश्चिम ने कुछ ‘अस्मितामूलक विमर्शों’ की ओर उम्मीद की निगाहों से देखा है, जो ‘आस्था के संदर्भ में उपजे विश्वव्यापी संकट’ का अपनी तरह का समाधान कर रहे हैं। इस संदर्भ का जूलिया क्रिस्तेवा ने नवविमर्श को महत्वपूर्ण मानते हुए, हमारे समय के पोप ने, पहली दफा किसी स्त्री को, धर्म के विशेषज्ञ की तरह, अपने यहां आमंत्रित किया और उनसे विमर्श का प्रयास भी किया।
आगे चलकर हम इन सभी विमर्शों की गहराई में उतरने का प्रयास करेंगे।


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