मुखपृष्ठ पिछले अंक पाठ्यालोचन बाबुषा कोहली की कविताएं : युवा कविता के नए रूपाकार
जनवरी 2016

बाबुषा कोहली की कविताएं : युवा कविता के नए रूपाकार

ओम निश्चल

पुस्तक वार्ता


मैं तुम्हारे कंठ में घुटी हुई एक सिसकी हूँ
तुम मेरे श्वास से कलप कर निकली हुई एक आह हो

 



वह कैसा दौर था जब
पांव हृदय बन जाना चाहते थे
हृदय बन जाना चाहते थे आँखें
आंखें बन जाना चाहती थीं स्वप्न
स्वप्न बन जाना चाहते थे पंख (यात्रा/प्रेम गिलहरी दिल अखरोट)

जब अनुभव और संवेदना का अयस्क भाषाई भट्ठी में जल-तप कर निथरे रूप में कवि हृदय से निस्सृत होता है तब ऐसी ही पंक्तियां पैदा होती हैं। सृजन के तमाम संकटों, बाजार, तकनीक और उपभोक्तावाद और निर्लज्ज परिणतियों के बावजूद कवियों में अभी तक अनुभूति का शुद्धता बची है जैसे प्रकृति ने नारियल को शुद्ध जल की सौगात दी है। इन चंद पंक्तियों में ही बाबुषा कोहली ने मानवी ख्वाहिशों की पूरी तासीर ही उकेर कर रख दी है।
निरंतर आधुनिक होते समय और संवेदन के इस दौर में हमारी इंद्रियां हमेशा कुछ नया जानना और पाना चाहती हैं। अनुभव की अगाध गहराई में पहुंच कर हर शब्द हमारे लिए एक नई प्रतीति की आमद बन जाता है। हिंदी के वैविध्यपूर्ण संसार में यों तो कवियों की असंख्य तादाद है पर कुछ ऐसे कवि अवश्य हैं जो कविता का एक नया रूपाकार गढ़ रहे हैं। हर पल कविता में एक नया स्पंदन बो रहे हैं। बाबुषा ऐसी ही कुछ विरल कवियत्रियों में हैं जिनके शब्द-संसार के गवाक्ष से हम कविता के सुदूर भविष्य का नक्शा खोज सकते हैं।
विडंबना है कि कविता के घटते गुणग्राहकों के बावजूद कविताएं अक्सर थोक भाव लिखी जाती हैं, जिनके उत्पादक ज्यादा होते हैं, उपभोक्ता कम। आखिर इसकी वजह क्या है? क्या इसलिए कि कविताएं लोक रुचि से दूर होती जा रही हैं या उनमें छंदों का वह जादू नहीं रहा जो पहले के दौर में बरबस ही ध्यान खींचता था। कारण जो भी हो, कविताओं के अपार उत्पादन के बावजूद स्तरीय कवियों की सूची बनानी बहुत कठिन होती है। पिछले दिनों कविता के लिए भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार की घोषणा के बाद बाबुषा कोहली का नाम खास तौर पर चर्चा में आया जब वे लगभग आहिस्ता-आहिस्ता फेसबुक के रास्ते एक चर्चित कवयित्री में बदल चुकी थीं। यह शोशल मीडिया की ही सिफत है कि आज दमाम कवियत्रियाँ अपनी अभिव्यक्ति के लिए अनुभवों के नए क्षितिज तलाश रही है।
कहने की आवश्यकता नहीं कि नब्बे के बाद का भारत बदला है, विश्व बदला है। उदारवाद और भूमंडलीकरण ने चीजों की शक्ल बदली है। चीजें उतनी सहज नहीं रहीं जैसी दिखाई देती हैं। न जीवन, न समाज, न व्यवस्था, न प्रेम, न संबंध, न मानवीय प्रवृत्तियाँ। कवियों ने समय और मनुष्य के संकटों को सदैव अपनी प्राथमिकता सूची में रखा है। वह बाजार और उपभोक्तावाद की चकाचौंध में ओझल होती मनुष्यता के स्वरूप को यत्नपूर्वक बचाए रखना चाहता है। तभी तो बाबुषा प्रकृति और मनुष्य के रिश्ते को कविता के रूपक में ढालते हुए बरसात के बारे में कहती हैं कि -
यह पक्के तटबंधों की नींव बहा ले जाने वाली एक जोड़ी आँखों की बाढ़ है
भादों, महज़ ऋतु चक्र की करवट नहीं,
यह दुनिया भर के सूखेपन के ख़िलाफ़ क्रान्ति है
पुरवा नक्षत्र के जिगर से जब लहू रिसता है,
तब कहीं जाकर ऐसा पानी बरसता है! (भादों का पानी)
कौन कह सकता है कि यह युवा कवयित्री ऋतुचक्र के आवर्तनों-परिवर्तनों से वाकिफ़ नहीं है या वह प्रकृति के मन को नहीं पहचानती। बल्कि वह तो बरसात को इस रूप में देखती है कि जैसे एक जोड़ी आंखों की बाढ़ हो और भादों सावन के बाद का महीना नहीं, सूखेपन के खिलाफ क्रांति हो। यह कवयित्री वसीयत लिखती है तो जैसे दुनिया जहान की पीड़ा इसकी आंखों के सम्मुख होती है। दुनिया भर के सताए लोग कतार में खड़े दिखते है तो जैसे दुनिया जहान की पीड़ा इसकी आंखों के सम्मुख होती है। दुनिया भर के सताए लोग कतार में खड़े दिखते हैं और यह कवयित्री जैसे उनकी पीठ पर भरोसे का हाथ रख कर कवि होने का हक़ अदा कर रही हो। देखिए 'वसीयत' की पंक्तियां:-
बाँट देना मेरे ठहाके वृद्धाश्रम के उन बूढ़ों में
जिनके बच्चे अमेरिका के जगमगाते शहरों में लापता हो गए हैं

टेबल पर मेरे देखना - कुछ रंग पड़े होंगे
इस रंग से रंग देना उस बेवा की साड़ी
जिसके आदमी के खून से बॉर्डर रंगा हुआ है
तिरंगे में लिपट कर वो कल शाम सो गया है

शोखी मेरी - मस्ती मेरी
भर देना उनकी रग-रग में
झुके हुए हैं कंधे जिनके बस्तों के भारी बोझ से

आंसू मेरे दे देना तमाम शायरों को
हर बूँद से होगी ग़ज़ल पैदा मेरा वादा है!             (वसीयत)

बाबुषा की एक और छोटी सी कविता देखिए!

पहले सात फेरे
तुम उपसर्ग की तरह रहना
दूसरे सात फेरे प्रत्यय-सा चलना
किसी समानार्थी शब्द की तरह जीवन भर रहना।  (समानार्थी)

जिस तरह शब्दों की संरचना उपसर्ग, धातु एवं प्रत्ययों के योग से होती है, बाबुषा कोहली ने व्याकरण के इस सिद्धांत को स्त्री-पुरुष के साहचर्य पर भी लागू किया है। उपसर्ग और प्रत्ययों के मेल से जीवन की क्रियाशीलता को एक सार्थक संज्ञा में बदलना ही जैसे उसका अभीष्ट हो। स्त्री-पुरुष के जीवन की यह एक व्याकरणिक संगति है जिसमें स्त्री पुरुष से यही चाहती है कि वह उपसर्ग और प्रत्ययों के सात फेरे की तरह निभाए और एक समानार्थी शब्द बन कर जीवन भर साथ रहे। शास्त्र में भी कहा गया है, संगच्छध्वं संवदध्वं संवोमनांसि जानताम्। जीवन का जैसे यही फलागम हो। आज जिस तरह समाज में स्त्री विमर्श के नाम पर पश्चिम के नारी मुक्ति आंदोलनों से प्रेरित होकर पुरुष की एक विलोम छवि प्रस्तुत की जा रही है, बाबुषा कोहली इस प्रतिलोम छवि का प्रतिकार करती हैं और वे स्त्री-पुरुष के बीच लेवलप्लेइंग चाहती हैं। स्पष्ट है कि उपसर्ग और प्रत्यय की तरह साथ रहने और चलने का अनुरोध करती हुई कवयित्री पुरुष सत्ता को एक समानार्थी शब्द की तरह जीवन भहर सहेजती हुई पटरी उतरे हुए स्त्री विमर्श को नये स्वर देती है।
*
यों देखने से इस संग्रह की कविताएं प्रेम के धागे से बुनी हुई लगती हैं किन्तु इनमें जीवन की विविधताओं का संगीत गूँजता है, एक ऐसी सिम्फनी गूंजती है जो सुख से आह्लादित और दुख से विगलित कर देती है। ये कविताएं सीधी-सपाट और सरल कहे जाने के अभ्यस्त जुमलों और कविताई की किसी भी प्रविधि के संक्रमण से बचना चाहती हैं। यही वजह है कि बाबूषा की कविता में नए सांचे, नए भाव बोध, नई बिम्बरचना, अनुभूति, कथ्य और संवेदना की ताजगी है जो इधर के युवा कवियों में बहुत कम दीख पड़ती है। वह कवि के उत्तरदायित्व से भी बखूबी वाकिफ हैं और इसी पीड़ा से आक्रांत होकर ही वह कहती है: दुनिया भर के दुख मरोड़ खाते हैं उसके ललाट की अनगिन सलवटों में। सांद्रता, अनुभव की सघनता, भाषाई नवीनता और बांकपन के गुणसूत्रों से संपृक्त बाबुषा कोहली के इस संग्रह के प्रकाशित होने से निश्चिय ही कविता का एक ऐसा संसार दिखाई देगा जो युवा कवयित्रियों में अभी तक अलक्षित रहा है।
कथ्य और संवेदना की जिस नवता की बात ऊपर कही गयी है, उसे बाबुषा किस सीमा तक सत्यापित करती हैं, यह बात गौरतलब है। बाबुषा चीजों को नए ढंग से महसूस करना चाहती हैं पर प्रतिध्वनियां दूर तक उनका पीछा करती हैं यह बात वे छिपाती नहीं। वे कहती हैं, 'अब तक जो रचा गया सब प्रतिध्वनि है।' पर ब्रह्मांड के आर्केस्ट्रा पर बजती हुई आवाजों को संजीदगी से सहेजती हुई वे कहती हैं: ''कोलाहल से भी आंसुओं को सुन सकती हूं। मौन में गुनगुना सकती हूं पीड़ा में छू सकती हूँ आत्मा की ऊपर त्वचा'' (आवाज दृश्य है)- और बाबुषा की इन कविताओं में यह उद्यम प्राय: दीखता है। वे अपने अभिव्यक्ति को रुढ़ होने से बचाती है। कविता में आख्यान और नैरेटिव के चोर दरवाजे न खोज कर सूत्रों में अपनी बात को सहेजती है। यह जोखिम का काम है। सूत्रों की अन्सस्सूत्रता यदि न जुड़े तो कविता का केंद्रीय भाव ओझल ही रहता है। बाबुषा अमूर्तन के जादू से भी परिचालित होती हैं और इस जाल को साथ-साथ भेदती भी रहती हैं। क्योंकि न आज हमारे अनुभव सीधे सपाट रहे न उनकी अभिव्यक्ति- और कवयित्री तो उस सत्य की खोज में है जो असंभव तरीकों से आयत्त होती है। सहजता से लभ्य नहीं। उसका तो मानना ही है: जो असंभव तरीकों से जिया जाता है वही सत्य है/बाकी सब तो सत्यनारायण की पंजीरी (-खबरची)
बाबुषा की ये कविताएं व्यक्तिव्यंजना से लैस हैं। वह एक कवि की नुमाइंदगी-सी करती प्रतीत होती हैं। इस अर्थ में वह जैसे कविर्मनीषी परिभूस्वयंभू की भूमिका में उतर आती हैं। उसका यह कहना किसी तिलिस्म से कम नहीं है कि : मत ढूढो मुझे शब्दों में/मैं मात्राओं में पूरी नहीं/व्याकरण के लिए चुनौती हूं/मत चीरो फाड़ो/कि मेरी नाभि से ही उगते हैं रहस्य/इस सुगंध को पीना ही मुझे पीना है/मुझे पा लेना मुट्ठी भर मिट्टी पाने के बराबर है/मुझमें खोना ही अनंत आकाश को समेट लेना है (-तिलिस्म)। उनकी कविताओं में मनुष्यता को पढऩे की तमाम कोशिशें दिखती हैं। जो चुप चुप-सा है, वह उनकी जद में है। वह उसे ही समझती हुई कहती हैं: 'चुप रहने वाले आदमी की रीढ़ देखना/देखना उसे कितनी बार तोड़ा गया है/जननांगो की अक्षमता नपुसंकता का पैमाना नहीं होना चाहिए।' कथाकार अखिलेश ने आत्मकथ्य लिखते हुए यह चिंता जाहिर की थी कि, मनुष्य खत्म हो रहे हैं, वस्तुएं खिली हुई हैं। बाबुषा भी पृथ्वी की विपल संपदा और सौंदर्य को स्मरण करती हुई उससे अनुनय करती हैं कि वह अपने आंचल के किसी कोने में मनुष्यता के लिए शांति के एक सफेद फूल को खिलने की भी जगह दे:

गर्भ में जन्मे कोयला लोहा बाक्साईट और वक्ष पर लहलहाती गेहूं की सुनहरी बालियां
तुम्हारे ऐश्वर्य की कथा कहते हैं
कमर की एक ओर खोंसी हुई नागफनी
और दूसरी ओर अमलतास तुम्हारे चमत्कारों की व्याख्या हैं
चंपई इच्छाएं नारंगी उम्मीदें चटख फिरोज स्वप्न
और हरे हरे गीत तुम्हारे सोलह श्रृंगार है

ओ पृथ्वी
फैलो कुछ और
मनुष्यता के लिए शांति के एक सफेद फूल को खिलने की जगह दो (-सफेद फूल)

कवयित्री ज्वर में भी होती है तो चंद्रमा की तान पर उफनते ज्वार-सा अनुभव करती है और तब वह चाहती है कि कोई इसके माथे पर ठंडी पट्टियां रखने की बजाय चांद की धुन लीप दे, तपन बुहार दे।
कविता में यह अमूर्तन का दौर है। हमारे समय की अनेक कवयित्रियों ने अमूर्तन की कला को कुशलता से साधा है। यथार्थ को उद्घाटित करने की एक प्रविधि तो यह है कि हम साफ साफ शब्दों में कहें। दूसरे यह कि हम उसे उपमानों और रूपकों में ढालें तथा अमूर्तन के सहारे वह कहें, जो कहना चाहते हैं, उस चरम अनुभूति का अहसास दिलाएं। गगन गिल, तेजी ग्रोवर, सविता सिंह और अनीता वर्मा जैसी कवयित्रियों में यह अमूर्तन रचा बचा है।
बाबुषा की एक कविता देखिए जहाँ सारी बात अमूर्तन के शिल्प में ही कर दी गयी है:-

उसकी कमीज़ से प्रेम करती रही मैं
पसीने की तरह उसकी देह से फूटती रही
बूंद बूंद माथे पर टपकती रही ऐसे जैसे उसकी गाढ़ी मेहनत की कमाई हूं

हम सब जो उसकी पूर्व प्रेमिकाएं हैं हम एक सामूहिक विलाप हैं
हम अपने प्रेम के दाह संस्कार में आई रुदालियां हैं
और मैं उसके प्रेम का अंतिम शोक संदेश हूँ

बाबुषा की कविताएं केवल अमूर्तन के सम्मोहन से ही बंधी बिंधी नहीं रहतीं, उनमें यथार्थ का आवेग भी धड़कता है। दिसंबर 12 के जिस निर्भया कांड ने पूरे देश को जगा दिया, स्त्री हिंसा के विरुद्ध पूरा जन समाज जागा, उसके प्रवाह में सोशल मीडिया पर भी कविताएं जैसे उमड़-घुमड़ कर बह चलीं। उनके प्रवाह को रोकना मुश्किल हो गया। किन्तु जैसे दिसंबर 92 के अयोध्या प्रसंग या गुजरात प्रसंग में बेशक सैकड़ों कविताएं लिखी गयी हों पर कुछ कविताओं को ही हम आज स्मरण करते हैं। बाबुषा की इस प्रसंग में लिखी कविता में एक असर्टिव रुख का इज़हार मिलता है। यह रुख हमें राष्ट्रकवि दिनकर की इस प्रतिश्रुति की याद दिलाता है: जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध। बाबूषा की यह कविता इसी आवेग और प्रत्याख्यान का प्रतिफल है:-

यदि इस घोर विपत्ति काल में मेरे मुंह पर छाले पड़ जाएं
और मैं कुछ कह न सकूं तो तू मुझे दंड देना
मेरे गूंगेपन को इतिहास के चौराहों पर धिक्कारना
ओ मेरी मिट्टी मेरे फेफड़ों में भरी हवाओं
और मुझे सींचने वाले जल
इस कठिन समय में मेरे कंठ की तटस्थता पर थूकना
                      (- दंड-दिसंबर 12, निर्भया प्रसंग)

कवयित्री अपनी कविता में तीसरे विश्वयुद्ध की आहट भी देखती है जब वह कहती है: दुनिया के दो महायुद्ध अनंत पीड़ा की नदी के मुहाने लड़े गए हैं। कभी किसी हिजड़े का रुदन सुना है। (तीसरा विश्वयुद्ध) तथा अपने समय के दहकते यथार्थ को संवेदना की रिफाइनरी में छान कर सलीके से पेश भी करती है तभी तो वह कवि के लिए कहती हैं: दुनिया भर के दुख मरोड खाते हैं उसके ललाट की अनगिन सलवटों में। इस तरह बाबुषा युवा कविता के समूचे तेवर और अभिव्यक्ति की सुघरता के साथ यहां उपस्थित हैं।
जहां तक प्रेम की अभिव्यक्ति का सवाल है, प्रेम गिलहरी दिल अखरोट शीर्षक ही अपने आप में काफी चुलबुला और आकर्षक है। ऊपर से ऐसा लगता है कि यह दिल के उच्छल जलधि तरंग का एक रोमांचक आख्यान है। पर हम देखते हैं कि बाबुषा ने प्रेम की इस रागात्मकता को भी संजीदगी से साधा है। जिसे ज्वर में भी माथे पर ठंडी पट्टियां नहीं, चांद की धुन लीपने को चाहिए, उसकी संवेदना प्रेम  को लेकर कितनी अनिंद्य और अछूती होगी, अनुमान लगाना कठिन नहीं है। इसीलिए बाबुषा को पढ़ते हुए प्रेम की इकहरी कविताएं लिखने वाली तमाम कवयित्रियों को भूला जा सकता है जो केवल रूढिय़ों के आवर्तन में ही निमग्न हैं। प्रेम के बारे में कवयित्री कहती है:

मैंने तन पर केवल प्रेम पहना है
खुरदुरा फिर भी महीन
यह एक टुकड़ा प्रेम
कभी तो फैल कर आकाश ढंक लेता है
कभी इतना सिकुड़ जाता है
कि सरे बाजार निर्वस्त्र कर देता है
    (-एक टुकड़ा प्रेम)
तुम जो सबसे पहले हो मेरे लिए एक कायनात में
तुम्हारे कदमों के नीचे बिछा नीला गलीचा है आसमान
मैं तुम्हारी धरती का आखिरी कोना

अलसुबह का पहला राग हो तुम
मैं तुलसी पे जलता साँझ का दीया
    (-सितार बजाता खुदा और सुबह का राग)

प्रेम को लेकर कवयित्री किसी संशय में नहीं जीती। इस अर्थ में वह ओशो की शिष्या लगती है। मैं तो प्रिय बाँसुरी तुम्हारी की धुन पर उसकी कविताएं नृत्य करती हैं, जीवन की उत्सवता में सांस लेना चाहती हैं। याद रहे यह मीरा और राधा की धरती है जिन्होंने अपने प्रेम का गोकुल ही अलग बसाया और बिना किसी प्रलोभन के अपने आराध्य में सख्य भाव निवेदित किया। पर दोनों प्रेम की अभीप्सा में उम्र भर विकल रहीं। यह कवयित्री भी इसी कुल गोत्र की लगती है जब वह कहती है:

दिन अगर, खोखले बांस हैं
तो मैं चाहती हूं बांसुरी पे तान छेडऩा
मिट्टी में मिलना ही देह की नियति है
तो मिट्टी बनूं मैं उस धरती की
जिसका स्वामी प्रेम हो
    (-सोमवार से शनिवार के बीच कहीं)
यही नहीं, उसका किसी तरह के चमत्कार में यकीन नहीं। उस पर पहुंचने की राहें सन्नाटों से रोशन हैं।

कि मुझसे मिलना हो तो
मेरे चमत्कारों के पार मिलना
मुझ तक पहुंचने की राहें
सन्नाटों से रोशन हैं।
    (-फिर कृष्ण ने कहा)
होना तो यह था कि तुम होते कोई घना बरगद
और तुम्हारी शाखों पर फुदकती फिरती
अपनी टुकुर टुकुर आंखों में भर लेती सब हरियाली
कभी पत्तों में छुपती कभी दिखती तने के पीछे
सारी छांव घूंट घूंट पी लेती
    (-प्रेम गिलहरी दिल अखरोट)

प्रेम गिलहरी दिल अखरोट। अखरोट कुतरती प्रेम की गिलहरी का दृश्य कितना लुभावना है। तभी तो कवयित्री प्रेम में गिलहरी बन जाना चाहती है। पर प्रेम तो किसी असंभवता का नाम है। कभी कभी होता यही है कि लाख प्रिय की पीठ पर नक्काशीदार आयतें लिखा करे कोई, और छाती को सींचती रहे उम्र भर या उस पर उगाए जूठे सेब, पर पीठ से टकरा टकरा कर लौटने वाली चीखों को देर तक अनसुना नहीं किया जा सकता। इसलिए कि बरगद को कहां रही तमी•ा अपने बरगद होने की। न छांव न हरियाली, न ठौर-ठिकाना- कुछ भी तो नहीं। इसीलिए भूखा प्रेम आज तक भटकता हुआ दिल को कुतर ही रहा है। कवयित्री को यह ठीक पता है कि 'प्रेम निर्मम घुड़सवार है। पीठ पर चाबुक मार मार कर उस जगह ले ही आता है सचमुच। बहुत दूर है वो जगह यहां खिलती हैं प्रार्थना की पंखुडिय़ां।' सच कहें तो बाबुषा कोहली की कविता की रेंज व्यापक है, उसके अनुभवों की पृथ्वी विपुल है। ये कविताएं एक स्त्री की आत्मा के साज से निकली हुई ऐसी धुन है जिसे सुनते हुए भी समाज आज तक अनसुना करता है। अनुरक्ति और विरक्ति में ऊभ चूभ होती हुई ये कविताएं नदी में अपनी पतवारें फेंक आई स्त्री की तरह निर्भीक हैं। वह प्रेम के अश्वत्थामाओं के रहस्य से सुपरिचित है जिन्होंने अमरता की घुट्टी पी हुई है। उसके जीवन में भी चंपई इच्छाएं नारंगी उम्मीदों और कुछ चटख फ़िरोज़ी स्वप्न हैं जिन्हें वह उम्र भर संजोये रखना चाहती है और अलस्सुबह के पहले राग-सदृश अपने प्रिय से सिर्फ यह इसरार करना चाहती है कि आखिरी ग़ज़ल हूँ तुम्हारी, आखिरी सांस तक पढऩा। ये कविताएं पढ़ते हुए यही अहसास होता है जैसे अभी अभी किसी शहनाईनवाज़ की महफिल से उठ कर आया हूँ।

प्रेम गिलहरी दिल अखरोट। कविताएं : बाबुषा कोहली। भारतीय ज्ञानपीठ, लोदी रोड, 18 इंस्टीट्यूशन एरिया, नई दिल्ली-110003, संस्करण 2015





आलोचनात्मक लेख प्रमुख पत्रिकाओं में छपते रहते हैं। पहल के लिये पहल सम्मान से सम्मानित ज्ञानेन्द्रपति का लंबा साक्षात्कार ले चुके हैं। मो. 08447289976


Login