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जनवरी 2016

'अंधेरे में' : एक पाठ

रवीन्द्र वर्मा

कविता की अर्ध शताब्दी
कवि की जन्म शताब्दी के अवसर पर



यह एक दिलचस्प इत्तेफ़ाक है कि नेहरू-युग ने जब 1955 में 'समाजवादी संरचना' का प्रस्ताव पास कर (भावड़ी कांग्रेस) एक उच्छवास लिया, लगभग उसी समय मुक्तिबोध की कालजयी कविता 'अंधेरे में' के बीज पड़े। जैसा कि श्रीकांत वर्मा ने 'चांद का मुँह टेढ़ा है' की भूमिका में लिखा, इस कविता का शीर्षक पहले 'आशंका के द्वीप : अँधेरे में' था। फिर मुक्तिबोध ने उन्हें बताया कि यह शीर्षक एक विशेष मन:स्थिति के प्रवाह में दिया गया था। सम्भवत: यह मन:स्थिति उनकी इतिहास-पुस्तक के प्रतिबंध से जुड़ी थी जिसके तहत नए लोकतंत्र में उन्होंने फ़ासीवाद की आहटें सुनीं। वस्तुत: यह भारतीय लोकतंत्र के शैशवकाल में सत्ता-तंत्र और जनवादी मूल्यों का मूलभूत अंतद्र्वद्व था जिसे कवि ने अपने स्नायुओं में झेला। यही द्वंद्व 'अंधेरे में' में हमारे लोकतंत्र की कुण्डली बन गया जिसकी इबारत हम तभी से पढ़ते आ रहे हैं। एक सच्चा कवि भविष्यवक्ता नहीं होता। वह अपने खून से अपने समय को महसूस करता है जो भविष्य की कोख बन जाता हैं।
इस लम्बी कविता का आरम्भ (पहले दो भाग) कवि की उत्कट रचनात्मक बेचैनी से होता है जिसमें 'परम अभिव्यक्ति' एक 'तिलस्मी खोह में गिरफ्तार' है जिसका पहले चेहरा दिखाई देता है और फिर जो कभी-कभी झलक दिखाती रहती है। कवि का इससे आकर्षण-विकर्षण का सम्बन्ध है। आकर्षण इसलिए कि यही उसका अभीष्ट है, उसके रचनात्मक जीवन की चरम सार्थकता है। विकर्षण का कारण यह है कि यही उसका सच्चा आईना भी है जिसमें वह अपनी दोहरी मध्यवर्गीय और बौद्धिक, पतनशीलता देखता है जिसकी हम आगे चर्चा करेंगे। मगर यही उसकी 'पूर्णतम परम अभिव्यक्ति' है अर्थात् उसकी पूर्णता की तलाश है। मध्यकाल में कबीर के लिए यह सम्भव था कि वे 'निज ब्रह्म' को खोज लें और अपने राम को अपने पीछे 'कबीर, कबीर' पुकारता सुनें। आधुनिक कवि की पूर्णता की खोज अपनी भाषा में ही चलती है। रघुवीर सहाय भी कविता के मोर्चे पर ही मरने की बात करते हैं। मुक्तिबोध को शुरू में ही वह 'रहस्य साक्षात्' लगता है जिसे काव्य-यात्रा में खोजा जाएगा। यह 'आत्म सम्भवा... परम अभिव्यक्ति' कवि की पूर्णता है जिसकी सतत खोज पर ही कविता समाप्त होती है। कवि की इसी पूर्णता की खोज के अभियान में अपने समय और अपने से सामना भी अंतर्निहित है। मुक्तिबोध की पारदर्शी काव्य-भाषा इस कविता में यही बयान करती है। जिसे जटिलता कहा जाता है, वह दरअसल उसकी सूक्ष्मता और बारीक बिम्ब-विधान है।
अपने समय के भूगोल की शनाख़्त तीसरे भाग में 'विचित्र प्रोसेशन' से शुरू होती है। यह शहर का सत्ता-तंत्र है जिसमें 'गहन मृतात्माएँ इसी नगर की' हैं जो 'दिन में/बैठती हैं मिल कर करती हुई षड्यंत्र/विभिन्न द$फ्तरों-कार्यालयों, केन्द्रों में, घरों में'। यह सत्ता-तंत्र के अनात्म हो जाने की दास्तान है जिसमें मुख्यत: मध्य-वर्ग की भूमिका है। मुक्तिबोध ने अपनी एक आरम्भिक कहानी 'अंधेरे में' में अपनी जीवन-दृष्टि के मूलाधार-मध्यवर्गीय अपराध-बोध की रचना की थी। इस कहानी में एक बेरोज़गार निम्न मध्यवर्गीय युवक सुबह-सुबह एक अजनबी शहर की सड़क पर चल रहा है जिसके किनारे मज़दूर लेटे हैं। नवयुवक के पैर एक सोए हुए मज़दूर के जिस्म से टकराते हैं और वह अपराध-बोध से भर जाता है। इस बोध के लिए ग्राम्शी का शब्द 'ग्लानि' छोटा लगता है। इसे अपराध-बोध कहना ही ज़्यादा समीचीन होगा क्योंकि यही बोध अंतत: 'मेरी निष्क्रिय संज्ञा ने संकट बुलाया' तक पहुँचता है। यदि इस तीखे मध्यवर्गीय अपराध-बोध को आज के नव-उदारवादी समय में चरम मध्यवर्गीय आत्म-केन्द्रीयता के बरक्स रखा जाय तो एक विस्फोट सा होता लगता है। मध्यवर्ग का मिज़ाज आज की परिस्थिति में कितना निर्णायक है, यह दुहराने की ज़रूरत नहीं है जब इस वर्ग का बड़ा भाग नव-उदारवाद की फ़ौज में बदल गया है। यह बोध की विडम्बना कविता की कुंडली के सच की ताईद करती है।
'अँधेरे में' के वितान में मध्यवर्गीय अपराध-बोध के दो पक्ष उभरते हैं। एक तो मध्य-वर्ग की सामाजिक स्थिति से उद्भूत है जिसे शुरु में ही 'अँधेरे में' कहानी में खोज लिया गया था। दूसरा मध्यवर्गीय बौद्धिक या कवि का अपराध-बोध है जो 'जिन्दगी निष्क्रिय बन गयी तलघर' जैसे पद में व्यक्त होता हैं। यह पद कविता में बरगद के वागल के आत्मालाप में है जो कवि का ही प्रतिरूप लगता है। स्पष्टत: इसके पीछे कवि के सकर्मक होने की ज़िद और न हो पाने की व्यथा है। प्रसंगवश, प्रेमचंद ने सत्याग्रह में जेल जाने को पहले अपना काम नहीं बताया था और फिर न जाने पर अपराध बोध व्यक्त किया था। शायद यह विडम्बना बोध ही रचनात्मक ऊर्जा में तब्दील हो जाता है।
मध्य-वर्ग की यह कैफ़ियत है कि वह सत्ता-तंत्र ('विषपायी वर्ग') से 'नाभि-नाल बद्ध' है। इसीलिए दिन में वह सत्ता-तंत्र के षड्यंत्र में लिप्त रहता है। इस दूरभिसंधि में मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी भी शामिल हैं जिनकी प्रेत-यात्रा को रात में कवि देख लेता है। सत्ता-तंत्र उसे छोड़ेगा नहीं और चक्र-व्यूह में फँसाकर उसकी आस्था को मार डालने की जुगत करेगा - कविता में एक कलाकार के मारे जाने का बिंब है। तभी कवि लगातार 'भागता मैं दम छोड़, घूम गया कई मोड़' दुहराता रहता है जब जन-क्रांति को दबाने के लिए शहर में मॉर्शल लॉ लगा है और सैनिक प्रशासन है। कविता की यह मूल पृष्ठभूमि है जिसके अनन्तर जन और जन-कवि निरंतर अपनी भूमिकाओं में हैं। इस कविता में काव्य नायक जन-कवि ही है जिसके विचार और विवेक के मणि अन्तत: सड़क पर लोगों के हाथों में जगमगाते हैं (राम विलास शर्मा ने निराला को 'अपनी जनता' का कवि कहा है)। यह ऐसा जन-कवि है जिसे जनता पहचान नहीं पाती और जो उन्हें परिवर्तन का सच्चा संदेश देता है। यह जन-कवि न सिर्फ मुक्ति-संदेश देता है, बल्कि उसमें मुक्ति-संघर्ष में सहभागिता की तड़प है और सहभागिता न पाने का अपराध-बोध।
मुक्तिबोध के असंग और अकेले काव्य-नायक की बेचैनी इतनी व्यापक और गहरी है कि वह अपने सपनों में ही सही, एक पूर्ण कवि होना चाहता है जो अपने दमित और विषम समाज की आत्मा हो और उसकी मुक्ति का वाहक भी। कविता के अंत में जब उसके सपनों के अर्थ खुलते हैं तो उसे लगता है कि 'सहसा प्रेम कर लिया हो जीवन-भर के लिए!!' यह एक पूर्ण, संश्लिष्ट काव्य-संवेदना है जो अपनी 'पूर्णतम परम अभिव्यक्ति' ढूंढ़ रही है।
जैसा कि हमने देखा, 'अँधेरे में' का आरम्भ एक गुफ़ा में कैद परम अभिव्यक्ति के मिथक से होता है और अंत तक आते-आते वही खोज पूरी धरती पर फैल जाती है: 'हर एक आत्मा का इतिहास/हर एक देश व राजनीतिक परिस्थिति'। वह 'जगत-समीक्षा' हो जाती है। इस लम्बी कविता का मूल कथ्य भारतीय लोकतंत्र का सत्ता और लोक के बीच अंतद्र्वंद्व ही है जो जन-क्रांति में अभिव्यक्त होता है। ज़ाहिर है, क्रान्ति-स्वप्न पूरा नहीं होता और अन्तिम हिस्से में फिर संकल्प-धारण के लिए पहिए पर लोहे का ज्वलंत टायर चढ़ाने का बिम्ब है।
यह कविता छ:-सात बरस तक लिखी गई, लगातार संशोधित-परिवद्र्धित होती हुई। यह सम्भव है कि कवि ने थककर इसे... पूरा मान लिया हो! दरअसल एक सच्चे लेखक की रचना कभी पूरी नहीं होती। अक्सर वह अपने हताश अधूरेपन में उसे पूरा मान लेता है। मुक्तिबोध की इसी कविता में स्वीकारोक्ति है: 'शब्दाभिव्यक्ति-अभाव का संकेत'। इसीलिए यह कविता 'परम अभिव्यक्ति... आत्म-सम्भवा' की खोज पर समाप्त होती है। यही कवि की पूर्णता की खोज है।
इस कविता के पाठ में अक्सर कवि की बहु-आयामी काव्य-संवेदना के गहरे आत्मिक आयाम को छोड़ दिया जाता है। यह कालजयी कविता कबीर और निराला की सम्पूर्ण दृष्टि की परम्परा में है जिसमें आत्मिक और सामाजिक आयाम एक-दूसरे में समाहित और परस्पर पूरक हैं। 'अंधेरे में' में कवि की पूर्णता की तलाश की अंर्तधारा है। जैसा कि ऊपर कहा गया है, कविता के पहले दो भाग इसी खोज के मिथक को रचते हैं, और कविता उसी खोज पर समाप्त होती है। पर कविता की देह भारतीय लोकतंत्र के मूल अंतद्र्वद्व की जन्म-कुण्डली है जो आज तक पढ़ी जा रही है और पढ़ी जाती रहेगी।
जिसे मैंने पूर्णता की तलाश कहा, उसकी दो और अलग तरह से व्याख्या की गई है : एक, कवि का आत्म-निर्वासन और अस्मिता की खोज; दो, सामाजिक मुक्ति ही 'परम अभिव्यक्ति' का पर्याय। डा. नामवर सिंह* के अनुसार, 'एलिएनेशन' में काव्य-नायक का आत्म-निर्वासन निहित है और अस्मिता की खोज उसी के अतिक्रमण का प्रयास है। नामवर जी इस अस्मिता को 'परम अभिव्यक्ति' मानते हैं जो काव्य-नायक के मध्यवर्गीय अपराध-बोध का सर्वहारा की क्रांतिकारी चेतना में बदलना है। दूसरा मत बिना मार्क्सवादी तर्क का सहारा लिए सीधा 'परम अभिव्यक्ति' को सामाजिक मुक्ति का पर्याय मान लेता है। दोनों मतों में एक बात समान है : कवि की कला-चेतना का नकार-मुक्तिबोध को यहाँ रघुवीर सहाय की तरह कविता का अन्तिम मोर्चा उपलब्ध नहीं है।
कहना न होगा कि मुक्तिबोध जैसे कवि के लिये अंतिम मोर्चा कविता ही है जो उसे परिभाषित करती है। उसे सदा पूर्ण कविता की तलाश है। यही है उसकी परम अभिव्यक्ति :
'वह रहस्यमय व्यक्ति
... अब तक न पायी गयी मेरी अभिव्यक्ति है
पूर्ण अवस्था वह
निज सम्भावनाओं, निहित प्रभावों, प्रतिभाओं की
मेरे परिपूर्ण का अविर्भाव,
हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव वह,
आत्मा की प्रतिमा।'
जैसे रघुवीर सहाय कविता के मोर्चे पर ही मरने की बात करते हैं, मुक्तिबोध परम अभिव्यक्ति की खोज में मुब्तला हैं जिससे 'अँधेरे में' शुरू होती है और समाप्त होती है। शुरू में ही कविता के दूसरे भाग में वे इस परम अभिव्यक्ति के साथ 'घुल जाऊँ, मिल जाँऊ' के भाव को जोड़ते हैं यानी अपनी अस्मिता को 'परम अभिव्यक्ति' में विलयित करने की प्रतिज्ञा करते हैं जैसे कबीर के 'आपा मेटि जीवत मरै, तौ पावै करतार' की अनुगूँज हो। दूसरे शब्दों में, कवि का लक्ष्य अस्मिता पाना नहीं, अपनी अस्मिता को खोना है ताकि वह खुद अपनी मूर्तिमान पूर्ण अभिव्यक्ति हो जाए- आत्मा की प्रतिमा।


* कविता के नए प्रतिमान


रवीन्द्र वर्मा - सातवें दशक के बड़े कथाकार। बुंदेलखण्ड की पृष्ठभूमि लेकर अग्रसर हुए। 'पहल' के पहले अंक में ''किस्सा तोता, सिर्फ तोता'' प्रकाशित हुई थी। अनेक उपन्यासों में 'जवाहर नगर', 'पत्थर ऊपर पानी', 'मैं अपनी झांसी नहीं दूंगा' प्रमुख रूप से चर्चित। सबसे ताज़ा उपन्यास 2015 में ज्ञानपीठ से आया है : ''घास का पुल''। लखनऊ के बाशिंदे। मो. 05222308102


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