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जनवरी 2016

काशी, बनारस और वाराणसी

अरुण कुमार

 


बकौल निदा फाज़ली मुल्के खुदा में सारी जमीनें अब एक सी हैं लिहाजा इस दौर के नसीब में हिजरत नहीं है।
लेकिन इस जग में बनारस नाम की जो जगह है, उसकी बात ही जुदा है। गोपाल की सबै भूमि पर ग्लोबलाइजेशन के चलते चाहे सबकी चालढाल, पसंद और तर्जे जिंदगी एक जैसी होती जा रही हो किन्तु 'गं-गं गच्छति' गंगा के किनारे हजारों साल से बसे बनारस की कथा निराली है। यहाँ सदियाँ एक-एक करके गुजर नहीं जातीं बल्कि एक दूसरे के संग वैसे ही रहती हैं जैसे संयुक्त परिवार में हर उम्र के इन्सान एक छत के नीचे रिश्ते की डोर में बंध कर रहते हैं। यहाँ के लोगों ने खूब वक्त जमा करके अपने पास रख लिया है और अब आराम से उसे खर्च कर रहे हैं। वक् त की तंगी से परेशान दुनिया इनको हैरत से देख रही है।
बनारस का यों जिक्र करने पर नए जमाने के कुछ लोग नाराज हो जाते हैं। वे कहते हैं, यहां का प्रदूषण देखो, कच्चे माल की कमी से बंद होते कुटीर उद्योगों की चर्चा करो, ड्रग्स के नशे में फंसते युवाओं की समस्या पर गौर करो, बार-बार हो जाने वाले ट्रैफिक जाम पर बात करो। यह क्या कि पर्यटकों की दृष्टि से लिखा वृतांत पुन: पुन: दुहराया जाए!
शिकायत बजा है। लेकिन गौर करने की चीज यह भी है कि पर्यटक दूसरी जगह किले, महल, खंडहर देखने जाते हैं या जंगल, पहाड़, समुद्र। कहीं वे रफ्तार और रोमांच की तलाश में पहुँचते हैं। बनारस में तो वे बनारस की जिंदगी को महसूस करने आते हैं। यहां के घाट, मंदिर और गलियाँ यहाँ की जिंदगी का हिस्सा हैं। उनका जिक्र बनारस का जिक्र है।
उन चीजों की फेहरिस्त लम्बी है जिनसे रची बनारस की छवि लोगों के दिलों में बसी हुई है- मोक्षदायिनी गंगा का घाटों से भरा चंद्राकार किनारा, मनोकामना पूरी करने वाले विश्वप्रसिद्ध मन्दिर, मिट्टी की बनी नश्वर काया में अनश्वर आत्मा का दीप जला देने वाला अध्यात्म, दिलों को जोडऩे वाली गंगा-जमुनी संस्कृति, सुकून देने और राह दिखाने वाला साहित्य, विभोर कर देने वाला संगीत, मुँह में पानी ला देनेवाले षडरस व्यंजन। पिछले वर्षों में इस सूची में एक चीज़ जो और जुड़ी है वह है चुनावी राजनीति। इसने पूरी सूची को अपनी हलचल से आच्छादित कर दिया है।
'इतना जान लीजिए बनारस जिसको जिताता है, वह पी.एम. हो जाता है और जिसको हराता है, वह सी.एम. बन जाता है।' मस्त और बेपरवाह बनारस फिलहाल गुरूर की गिरफ्त में है। फिज़ा में तैरते लफ्जों में कभी सियासत झलकती है तो कभी छलकती है। चुनाव बनारस का नया तीर्थ बन गया है। इसके ताप से इस रसभूमि का रसायन खदबदा रहा है।
बनारस फिर भी बनारस है। सुबह सूरज के प्रतिबिम्ब से खेलती गंगा की लहरें घाटों की सीढिय़ों से टकरा कर अदृश्य ऊर्जा तरंगों में बदल जाती हैं और फिर ये ऊपर उठती हुई पूरे शहर में व्याप जाती हैं। यहाँ के मस्जिदों में, कवियों-शायरों की जुबानों में, जुलाहों की उगलियों में, हलवाइयों की कढ़ाइयों में इन्हीं तरंगों से ही आस्वाद का संसार निर्मित होता है। गंगा बनारस को हिन्दू तीर्थ के रूप में सीमित नहीं करती बल्कि हर मजहब के लोग गंगा का दीदार कर उसकी प्राणवत्ता और शक्ति को अपनी आत्मा में महसूस करते हैं। गंगा भले प्रकृति की एक भौतिक रचना हो लेकिन मनुष्य और उसके बीच एक प्रीति का रिश्ता बन गया है। गंगा माँ हो गई है।
और बनारस की गलियाँ! गलियों में ही है बनारस। सड़कें तो सिर्फ इसलिए हैं कि कोई देशी दर्शनार्थी या विदेशी पर्यटक इसकी भूलभुलैया में गुम होने लगे तो बदहवास होने के पहले दाएं-बाएं हो कर सड़क पर निकल आए। इन गलियों से गुजरकर शहर के एक सिरे से दूसरे सिरे पर पहुँचा जा सकता है। लेकिन इनका महत्व केवल इसलिए नहीं है कि वे रेखागणितीय नियमों से शार्टकटों का जाल बुनती हैं। इन गलियों में ही है काशी विश्वनाथ मन्दिर और कबीर मूल गादी, सिल्क की साडिय़ों और अचार-पापड़-मुरब्बे की दुकानें, सोंधी खुशबू से तर खाने-पीने की जगहें। मठ, प्रकाशन, विद्यालय सब इन गलियों में आबाद हैं। गलियों में शायद ही कभी धूप आती हो, साफ-सफाई भी दुरुस्त नहीं रहती, बिजली आने-जाने का समय याद रखना पड़ता है, लेकिन इनमें रहने वाले किसी को बनारस के बाहर जा कर कहीं काम करने का प्रस्ताव देंगे तो सम्भावना इसी की है कि वह कहे, 'बनारस कैसे छोडूँ!' प्रेम अंधा होता है, चाहे वह व्यक्ति के प्रति हो यो या स्थान के प्रति। लेकिन इस अंधत्व से ही दुनिया में उजाला है।
यह जो बनारस है वह धर्म की दृष्टि से भगवान शिव की नगरी है। यह नगरी 'आनन्दवन' भी है और 'महाश्मशान' भी। विचित्र यह है कि यहाँ आनन्दवन और महाश्मशान एक दूसरे के विरोध में नहीं बल्कि जुगलबंदी करते हुए हैं। इसीलिए न तो बनारस की मस्ती पर मरने वालों की तादाद कम हुई है और न ही बनारस में मरने की या मरकर अन्तिम संस्कार के लिए लाए जाने की ख्वाहिश रखनेवालों की। दूर-पास से यहां सैकड़ों शव मणिकर्णिका घाट पर दाह-संस्कार के लिए ले आए जाते हैं। चौबीस घण्टे शहर में शवयात्राएं निकलती रहती हैं जो मणिकर्णिका घाट से ठीक पहले कचौड़ीगली से गुजरती हैं। यह गली अपने जलपानगृहों और मिष्ठान्न भंडारों के कारण जानी जाती है। यहाँ अन्तिम संस्कार में सम्मिलित हो रहे लोगों और जलपान का लुत्फ उठा रहे रसिकों की इतनी भीड़ हो जाती है कि कभी-कभी तो शवयात्रा को जगह देने के लिए जलपान का दोना उठाए व्यक्ति को गली की दीवार से सट जाना पड़ता है। बनारसर ने नश्वरता की नियति से आतंकित होने के बजाय जब तक जिंदगी है, उसे जी लेने का ही सबक सीखा है है। नश्वर जीवन का निर्भय रंग यहां अनेक छटाओं में बिखरा है।
दुनिया की सारी संस्कृतियों में मृत्यु को समझदारी और साहस से स्वीकार करने का संदेश है किन्तु मनुष्य की सहज प्रवृत्ति मृत्यु के अस्वीकार की है। इसीलिए अन्तिम संस्कार करने की जगहें हमेशा आबादी से दूर बनाई जाती हैं और यदि आबादी बढ़ते-बढ़ते वहाँ तक पहुँच गई तो कब्रिस्तान या श्मशान की तरफ खुलने वाली घर की खिड़की बद कर दी जाती है। बच्चों को उस तरफ जाने नहीं दिया जाता। मृत्यु मनुष्य में भय और विचलन पैदा करती है। बनारस से बाहर के लोगों को आबादी से सटे मणिकर्णिका घाट पर चौबीस घन्टे निरन्तर बड़ी संख्या में एक साथ छोटी-छोटी दूरियों पर चिंताओं पर शवदाह होते रहना अजीब लगता है। अब तो पश्चिमी देशों से आनेवाले बहुत सारे सैलानियों के लिए सबसे ज्यादा आकर्षण की जगह मर्णिकर्णिका घाट बन गया है। इन सैलानियों की कोशिश रहती है कि मणिकर्णिका के आस-पास ऐसे होटल में जगह मिल जाए जहाँ की बाल्कनी या छत से शवदाह दिखाई पड़ता हो। वे दृश्य उनमें सनसनाहट पैदा करते हैं। टूर गाइड उन्हें उन मुमुक्षु भवनों को दिखाने की व्यवस्था करते हैं जो काशी में अन्तिम साँसें लेकर मुक्ति पाने की इच्छा रखने वाले बाहरी व्यक्तियों के लिए बने हैं। लगता है कि बनारस में मृत्यु पर्यटन विधिवत् व्यवसाय का रूप ले रहा है।
काशी, वाराणसी और बनारस ये एक ही स्थान के तीन प्रचलित नाम हैं लेकिन तीनों की अर्थ-छवि अलग-अलग है। काशी एक तीर्थस्थल है जहाँ दूर-दूर से श्रद्धालु पुण्य अर्जन की कामना से आते हैं। यह प्राचीन पोथियों के विद्याभ्यासी पण्डितों का निवास भी है और कर्मकाण्ड एवं ज्योतिष वे जरिए आजीविका कमा लेने वालों का गढ़ भी। खोजी विद्वानों का मानना है कि प्राचीनकाल में यह क्षेत्र काश नाम की रुपहली घास से भरा हुआ था इसलिए इसका नाम काशी पड़ा। वैसे काशी तपस्वियों के तेजस् से प्रकाशित क्षेत्र के रूप में जाना जाता रहा है।
कठोपनिषद् में मृत्यु के देवता यम ने शिष्य नचिकेता को मृत्यु के पार हो जाने का रहस्य समझाते हुए बताया है कि शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध से रहित अनादि, अनंत अचल जो तत्व है उसको जानकर मनुष्य मृत्यु के मुख से छूट जाता है। काशी मृत्यु के मुख से छूटने की यानी अपने को विराट अस्तित्व से एकाकार कर लेने की साधना करने वालों का केन्द्र था। आत्मतत्व के पथिकों के कारण ही काशी आनन्दवन बना किन्तु मुक्ति का रास्ता धीरे-धीरे कर्मकाण्ड की दिशा में बढ़ता गया। फिर तो काशी में मरना ही मुक्ति की गारण्टी हो गई।
'वाराणसी' काशी नगरी सहित पूरे जिले का शासकीय नाम है लेकिन प्राचीन भारत में इस नाम से वरुणा नदी और अस्सी नाले से सीमाबद्ध छोटे से क्षेत्र का बोध होता था। 'बनारस' वाराणसी शब्द का हजारों बरसों में परिवर्तित हुआ तद्भव रूप है। यहाँ के लोगों में तत्सम 'वाराणसी' कहने का नहीं बल्कि तद्भव 'बनारस' कहने का चलन है। बनारस में 'कूपजल संस्कृत' को प्राचीन ज्ञानकोष मानकर समादृत तो किया जाता है लेकिन बोली-बानी में  'बहता नीर' ही इस्तेमाल होता है। 'बनारसी' यहाँ की बोली है जो भोजपुरी का क्षेत्रीय रूप है। भाषा वैज्ञानिक इसे 'काशिकी' कहना पसंद करते हैं। नए दौर में भी इस बोली के खुशहाल बने रहने के पीछे यहाँ के लोगों की वह सनकभरी प्रवृत्ति है जो अपने हर तौर-तरीके को सिर्फ यह कर ठीक ठहरा देती है कि 'राजा! ई बनारस हौ'।
गोदौलिया की सड़क पर साइकिल रिश्शा की सवारी से भीड़ का नजारा करते हुए, राह रोककर खड़े निद्र्वंद्व सांड़ को निहारते हुए, आसन लगाकर चिलम खींचते किसी साधु का सत्संग करते हुए, घाटों की सीढिय़ों पर उतरते-चढ़ते हुए विदेशी सैलानियों को किसी और लोक में होने का बोध होता है। ये दृश्य आधुनिकता से चोटिल उनके भग्न मानस पर ठंडा लेप लगाते हैं। इनमें से कुछ जिन्हें बनारस आने की लगत लग गई है वे सस्ता सा रैनबरेसा ढूंढ़ लेते हैं और लुंगी लगाए फुटपाथ पर बैठकर चाय पीते दिखाई देते हैं। लेकिन इन दृश्यों के बावजूद बनारस बदल रहा है। यह बदलाव बाहरी भी है और भीतरी भी।
चना-चबेना, गंगजल के लिए करतार का आभार प्रकट करते हुए जिंदगी बसर कर देना बनारस की संस्कृति रही है। जीवन की तैयारियों में कम जुटना और जीवन का आनन्द ज्यादा लेना यहाँ का जीवनदर्शन रहा है। लेकिन अब यह नगर भी दिखावे की दुनिया में सम्मिलित होते जा रहा है। साइकिल से चलना भी जहाँ की सड़क पर मुश्किल है वहाँ उस पर रोज सैकड़ों नई बाइक और कारों का बोझ बढ़ रहा है। गंगा में तैरनेवालों की संख्या घटती जा रही है, जिम खुलते जा रहे हैं। गैर जरूरी चीजों के लुभावने विज्ञापन विष घोष रहे हैं। सामान्य और स्वाभाविक उपभोग पिछड़ेपन की निशानी हो गई है। संसार की सारी संस्कृतियाँ ही उपभोक्ता संस्कृति के सागर में समाती जा रही हैं।
यह देखना चिलचस्प है कि एक ओर भौतिक वस्तुओं की लालसा बढ़ रही हैं तो दूसरी ओर पूजा-पाठ, व्रत-उपवास, दर्शन-भंडारे के प्रति रुझान भी बढ़ता जा रहा है। बनारस धार्मिक होते हुए भी कभी बाह्याचारों से इतना बंधा हुआ नहीं था। धार्मिक तिथियाँ मेलों-तमाशों के आयोजन के अवसर होते थे - गंगा दशहरा पर तैराकी, नागपंचमी पर कुश्ती, बुद्ध पूर्णिमा पर सारनाथ का मेला, करवा चौथ पर चेतगंज का नकटैया! साल में सौ से ज्यादा आयोजन होते थे और अब भी होते हैं लेकिन पहले उनके मूल में जहाँ उत्सवधर्मिता थी वहीं अब एकजुटता के प्रदर्शन का प्रयत्न भी रहता है। यह 'समझ' हर तरह से बढ़ाई जा रही है कि हमारी विरासत, हमारी पहचान, हमारी जड़ हमारे धर्म में ही निहित है। इसके आधार पर यह सबक तैयार होता है कि काशी नगरी हिन्दू धर्म की राजधानी है। इस नगरी की धर्मनिरपेक्षता का जाप करने वाले अहंकारी अधर्मियों से रक्षा करनी है। अधर्मियों की हमेशा विधर्मियों से सांठगाँठ रही है। देश को दुबारा टूटने से बचाना है।
कबीर यदि आज दशाश्वमेध घाट पर गाते- 'संतों यह जग बौराना! झूठ कहूँ तो जग पतियावै, साँच कहूँ तो मारन धावै' तो इसे प्रयोजित मान लिया जाता। सियासत अपने आप में सामाजिक रूप से परिपूर्ण बनती जा रही है। इसीलिए सियासत के अब अपने साधु-संत हैं। सियासत का अपना सच है। लेकिन इस सच से बनारस की बहुलतावादी संस्कृति पर आँच आ रही है। बनारस हजारों साल में बनते-बनते बना है। इसके बनने में निषाद, किरात, द्रविड़, आर्य सभी संस्कृतियों का योगदान है। यहां सभी मजहबों की मौजूदगी है। बनारस के वैविध्य को पूरे बनारस में देखा जा सकता है। इसका एहसास किया जा सकता है। इस एहसास को बनाए रखने की चुनौती बढ़ रही है। दुनिया भर में वे शक्तियाँ मजबूत हो रही हैं जिनकी कोशिश धर्म को सम्प्रदायगत् पथरीली निष्ठा में तब्दील कर समाज को असहिष्णु समुदायों में बांट देने की है लेकिन इसके साथ ही उन लोगों को संख्या भी बढ़ रही है जो धर्म को सम्प्रदायों से परे जीवन की काव्यात्मक व्याख्या के रूप में देखते हैं। बनारस के वायुमण्डल में कुछ ऐसा है जो इन काव्यरसिकों को आकर्षित करता आया है। साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण विश्वनाथ की नगरी के वैश्विक आकर्षण को कम करेगा। यह शायद ध्यान में नहीं है।
राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों के कारण उत्पन्न मूल्यविहीनता के विरुद्ध बनारस की भूमि में जन सम्बोधनपरक साहित्य की जलधारा फूटती रही है। कबीर, तुलसी, भारतेन्दु, प्रेमचंद नजीर बनारसी, धूमिल जैसे साहित्यकारों का यह नगर है। यहाँ से प्रतिरोध और परिवर्तन की नई आवाज उठने की उम्मीद स्वाभाविक है। लेकिन अभी सन्नाटा है। सर्व विद्या की राजधानी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय सहित यहाँ तीन विश्वविद्यालय है पर उनका भी यहाँ के जीवन पर कोई खास प्रभाव दिखाई नहीं पड़ता। यहाँ के लोगों के लिए जिंदगी ही किताब है।
बनारस की अपनी लय है। अपना रंग है। तरक्की के इस दौर में भी बनारस में रहना नसीब की बात समझी जाती है। देखना यह है कि वक्त के साथ चलने के लिए बनारस जमानेवाला ढंग अपना लेता है या अपनी पहचान बनाए रख पाता है।
बनारस के रस को, काशी की दिव्यता को और वाराणसी की प्राचीनता को सुरक्षित रखते हुए इन्हें समकालीन संसार के स्नायुतंत्र से संयोजित करना आज की सबसे बड़ी चुनौती है। इस चुुनौती का सामना करने के मोदी के उद्घोष पर बनारस ने भरोसा किया है। अब मोदी यहाँ के सांसद और देश के प्रधानमंत्री है। उन्होंने जापान की प्राचीन बौद्धधर्म नगरी क्योटो के सादृश्य पर बनारस को नई तकनीक के सहारे स्वच्छ, सुविधापूर्ण और सुविस्तारित बनाने के कार्यक्रमों की घोषणा की है। ऊर्जा, हस्तकला उद्योग एवं पर्यटन के क्षेत्र में क्रांतिकारी कदम उठाए जाने की बात भी कही जा रही है। वाराणसी को विश्व विरासत के स्थलों की सूची में सम्मिलित कराए जाने के लिए शासन द्वारा उत्साह दिखाया जा रहा है। लोगों की उम्मीदें बढ़ रही हैं और साथ ही उद्घोषणा के अनुरूप बदलाव के इंतजार की अवधि भी बढ़ती जा रही है।
यों तो प्राचीनकाल से निरन्तर बसे किसी भी नगर को उसके वैशिष्ट्य को बनाए रखते हुए आधुनिक टेक्नॉलॉजी के जरिए नए समय के अनुरूप ढालना मुश्किल काम है लेकिन बनारस के मामले में तो कठिनाइयाँ चरम पर हैं। प्राचीन भारत के मानचित्र पर वाराणसी का नगर के रूप में उदय एक सुदीर्घ एवं बहुस्तरीय प्रक्रिया का परिणाम रहा है। गंगा को परिवहन के लिए उपयुक्त पाकर यहाँ आस-पास के स्थानों के अतिशेष कृषि एवं हस्तशिल्प उत्पादों का भण्डारण प्रारम्भ हुआ जिससे कि सड़कमार्ग से ले आए गए इन उत्पादों को गंगा के द्वारा दूर क्षेत्रों में विक्रय के प्रयोजन से भेजा जा सके। सड़क और जलमार्गीय परिवहन की संयुक्त प्रणाली के कारण वाराणसी नगर का विस्तार ठीक घाटों तक हो गया। धीरे-धीरे यह नगर भण्डारण परिवहन, बाजार, व्यवसाय एवं उद्योग के केन्द्र के रूप में विकसित होता चला गया। यहां की जनसंख्या और उसकी विविधता में वृद्धि होती गई। गलियाँ बनती गईं कि सूरज के ताप या तेज बरसात से बचकर अपना काम-धंधा करते हुए एक दूसरे के निकट होने के सुरक्षाबोध के साथ रहा जा सके। ये गलियाँ सामान्यत: एक तरफ सड़क की ओर खुलती थीं तो दूसरी तरफ घाट की ओर।
व्यवसाय केन्द्रित वाराणसी के साथ ही धर्म-अध्यात्म केन्द्रित काशी नगरी का आकर्षण भी बढ़ता गया। काशी गंगातीरी नगरी के रूप में वाराणसी के भीतर और अगल-बगल विकसित-प्रतिष्ठित होती गई। इसे वाराणसी की सुदृढ़ अर्थ-व्यवस्था का आधार प्राप्त हुआ। साधुओं, संन्यासियों, शास्त्रार्थियों और तीर्थ पर्यटकों से काशी गुलजार हुई। काशी और वाराणसी का सहवर्तित्व ऐसी संस्कृति का जनक बना जिसमें जीवन का रस संसार के स्वाद के स्वाभाविक, संयत और संतोषपूर्ण ग्रहण में एवं जीवन की पटकथा का लेखक परमात्मा को मानने के विश्वास में है।
गलियों और घाटों का शहर बनारस धीरे-धीरे हजारों साल से विकसित हुआ है। इसे आज के योजनाबद्ध और द्रुतगामी वाहनों के अनुकूल बन रहे नगरों जैसा रुप देना कठिन है फिर भी रिंग रोड का निर्माण और गंगा में जलमल को पूरी तौर पर सीधे गिरने से रोककर बनारस के लिए कुछ किया जा सकता है। किन्तु गंगा की जगह घाटों की सफाई जैसी प्रतीकात्मकता और योजनाओं के क्रियान्वयन में समाहित नाटकीयता से निजात नहीं पाई गई तो आशाएं, आशाएं ही रह जाएंगी।
आज अर्थलिप्सा की अन्धी और अविराम दौड़ में सम्मिलित हो जाने को जीवन की मुख्यधारा में सम्मिलित होना समझा जा रहा है सात ही हर भौगोलिक क्षेत्र में चाहे वह जिस अक्षांश और देशान्तर पर स्थित हो, खान-पान, बोलना-बतियाना, उठना, बेठना, जीना-मरना एक जैसा हुआ जा रहा है। दुनिया को सिर्फ कारोबार की जगह बना लेने के जुनून में विविधता दीवारों की तरह नज़र आ रही है और जीने की सोच एवं तरीके की एकरूपता दरवाजे की तरह दिखाई पड़ रही है। सांस्कृतिक मूल्यविहीनता को ही नव अर्थसंस्कृति का मूल्य मान लेने के दमघोंटू दौर में बनारस की लोकसंस्कृति खुली बयार की तरह है। बनारस को बनारस बनाए रखने की कोशिश जिंदगी की जड़ों से जुड़े रहने की कोशिश है।






अरुण कुमार स्वतंत्र चेता, मौलिक रुझानों वाले तन मन से बनारसी हैं। लंबे समय तक अध्यापन किया और एक बड़े महाविद्यालय के प्राचार्य भी रहे। प्रभावी वक्ता और कभी कभी लेखन। संवाद और पटकथा लेखन का भी काम किया। जबलपुर में रहते है। मो.नं. 9893452438


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