इन्दु श्रीवास्तव की ग़ज़लें
इन्दु श्रीवास्तव
सुनो ताज़दारे-अलम मेरे आंका न इतने बनो बेरहम मेरे आका
कि हम एक इन्सान हैं, बुत नहीं हैं जो चुटकी में तोड़े भरम मेरे आका
तुम्हारे लिए महफिलें, ताज, तोहफ़े हमारे लिए, बस हुकम मेरे आका
कि सच के सिवा और कुछ न कहेंगे ये सर चाहे कर दो कलम मेरे आका
इधर मुंह से निकला उधर जान हाज़िर कि हममे नहीं अब वो दम मेरे आका
तुम्हारे इशारों पे नाचे मुसलसल बहकने लगे अब कदम मेरे आका
जो मांगा था, रब से वही तो मिला है न क़िस्मत से ज़्यादा न कम मेरे आका
2.
कई मजबूर बैठे हैं, कई लाचार बैठे हैं तुम्हें रंगीनियां सूझी है, सब बेज़ार बैठे हैं
ऊंचाई पर खड़े हो इसलिए, अख़बार में हो तुम यहां तो फ़र्श पे तुमसे बड़े फनकार बैठे हैं
यक़ीनन शक्ल से पहचान पाना है इन्हें मुश्किल यहां झिलमिल लिबासों में छिपे ग़द्दार बैठे है
हमें जैसे भी चाहों आजमाओ या मिटा डालो कि हम हर इम्तिहां के वास्ते तैयार बैठे हैं
ज़रूरत मन्द हैं आख़िर ये ग़ैरतमंद हैं फिर भी मेरी बस्ती में ऐसे भी कई खुद्दार बैठे हैं
3.
यूं नशे की लत हमारी हो गई उम्र कट-कट के सुपारी हो गई
हम मुसलसल ख़्वाब में जीते गए नींद यूं पलकों पे तारी हो गई
फ़ितरतन सागर से जाने क्यूं मिली ये नदी बेवक्त खारी हो गई
कर्ज के छप्पर तले पलते हुए जिन्दगी जैसे उधारी हो गई
खुद ही खुद से मोल लेली दुश्मनी यूं गमो के साथ यारी हो गई |