आया हूँ यही बात मैं सूरज को बताकर इस धूप के टुकड़े को मैं रक्खूंगा बचाकर
मासूम चराग़ों से तू ऐसे न लड़ाकर ऐ तेज़ हवा, थोड़ा सलीके से रहा कर
आंसू की है इक बून्द मेरी हाथ पे यारो लगता है, खड़ा हूँ कोई चट्टान उठाकर
पलभर में चली जाएगी ये आख़री गाड़ी तू बेंच पे बैठा है मगर पीठ टिकाकर
साइकिल भी पुरानी मेरी, पहिए में हवा कम आया हूँ मगर दूर से मैं इसको चलाकर
कुछ और नहीं वो मेरा ईमान था यारो! रखता रहा मैं उम्र तलक सबके छुपाकर
यारो, मेरा दरिया में हुआ ग़र्क सफ़ीना मैं आ गया तूफ़ां से मगर जान बचाकर
मैं शाख से टूटे हुए पत्ते की तरह हूँ आ जाऊं न पैरों के तले इतनी दुआ कर
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मैं इक फ़कीर हूं चाहे कहीं ठहर जाऊं रूके जो रेल तो बेशक यहीं उतर जाऊं
तमाम दोस्तों में पहली जैसी बात नहीं खड़ा हूं सोचता छुट्टी के दिन किधर जाऊं
ऐ ज़िन्दगी! मैं वो पुस्तक हूं जिसकी जिल्द नहीं कि तेरी चूक से गिरकर न मैं बिखर जाऊं
मेरे तमाम खिलौने बने हैं मिट्टी के मगर ये ज़िद है कि मैं इनको बेचकर जाऊं
सड़क पे रात गए घूमना नहीं अच्छा सियाही ने भी कहा है कि अपने घर जाऊं
मैं अपने सारे मुलम्मे उतार आया हूं जो कोई ग़ौर से देखे मुझे तो डर जाऊं
रवानी लेके मैं आया हूं तेज दरिया से ये मेरे बस में नहीं है कि अब ठहर जाऊं
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यहां हर शख़्स के अंदर कोई शीशा-सा लगता है अगर मैं झांककर देखूं तो वो टूटा-सा लगता है
यहां बाज़ार की सारी दुकानें अजनबी-सी हैं जो कोने में खड़ा है नीम वो अपना-सा लगता है यहां पर ज़िन्दगी हर रोज़ तम्बू गाड़ देती है यहां दुख-सुख का रोज़ाना कोई मेला-सा लगता है
दिसंबर का महीना और पटरी पर कई बच्चे वो कुछ कहते नहीं लेकिन उन्हें जाड़ा-सा लगता है
मैं जितनी देर तक बैठा रहूं वो कुछ नहीं कहता मुझे कैफ़े का वेटर इसलिए अच्छा-सा लगता है
तुम्हारे घर में हंसना-गुनगुनाना सब पे बंदिश है तुम्हारा घर मुझे तहज़ीब का मारा-सा लगता है
जो होता दश्त में तो इसके होते और भी साथी ये जुगनू मेरे कमरे में बहुत तन्हा-सा लगता है
सितारे जा चुके हैं आसमां को अलविदा कह के जो बैठा है अभी तक भोर का तारा-सा लगता है
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गिर पड़ा मैं तो मुझे दोस्त उठाने निकले ऐन उस वक़्त मुहब्बत के ज़माने निकले
बाद मुद्दत के जो अब्बा की अटैची खोली छतरियां टूटी हुई, कोट पुराने निकले
मैं तो समझा था भरे होंगे लतीफ़े इसमें तेरी कैसेट में वही दर्द के गाने निकले
कल जो बारूद को आंगन में बिछा आए थे आज वो आग के कालीन सजाने निकले
हाथ में टूटी हुई एक सुराही लेकर कितने विश्वास से वो प्यास बुझाने निकले
इसके पहिए की हवा ख़त्म हुई है फिर भी- ज़िंदगी, हम तेरी साइकिल को चलाने निकले
तौलकर ले गए वो आंख के आंसू मेरे राजधानी के ख़रीदार सयाने निकले
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ज्ञानप्रकाश विवेक - हिन्दी ग़ज़ल के वरिष्ठ कवि और आलोचक। ग़ज़ल के चार संग्रह प्रकाशित। 'हिन्दी ग़ज़ल की विकास यात्रा' आलोचना की कृति। बहादुरगढ़, हरियाणा में स्थायी निवास। मो. 09813491654 |