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अक्टूबर 2015

असाधारणता का तापमान

अविनाश मिश्र

आलोचना की नयी कोपल
अगली बार अष्ठभुजा शुक्ल

 


देवी प्रसाद मिश्र की कविता-सृष्टि पर एकाग्र

देवी प्रसाद मिश्र अब एक वरिष्ठ कवि हैं। वय के आधार से संचालित वर्गीकरणों के प्रकाश में यह एक तथ्य है। लेकिन बहुत सारी वरिष्ठता जब अपनी बहुत सारी सक्रियता के बावजूद बहुत अश्लील और औसत लगती हो, ऐसे में एक ऐसे कवि का वरिष्ठ हो जाना जिसमें औसत से असहमति और विस्वावा शिम्बोर्स्का के शब्दों में कहें तो 'असाधारणता का तापमान' अब तक सुरक्षित हो, एक मौलिक और मूल्यवान सूचना है। देवी एक अप्रत्याशित कवि हैं। वह अगली प्रस्तुतियों में क्या करेंगे, यह अनुमान उनकी गई प्रस्तुतियों को परखकर नहीं लगाया जा सकता। इस अर्थ में वह अपने पूर्वकालीनों और समकालीनों में अकेले हैं। उनकी कविता-सृष्टि के मूल्यांकन की जरूरत और मांग अब तक ध्वस्त होती आई है। इस तरह की कार्रवाइयों के पास खुद को जायज ठहराने के लिए पर्याप्त आधार और औचित्य मौजूद हैं। लेकिन इन कार्रवाइयों, आधारों और औचित्यों के नेपथ्य में उस भय का पूर्वाभ्यास है जो प्रदर्शन के अवसर पर बुरे अभिनय के चलते बार-बार असफल हो जाता है। इस भय का ताल्लुक कवि के अप्रत्याशित होने से है। तीन दशक से भी ज्यादा पुरानी और अव्यवस्थित उसकी कविता-सृष्टि से नजरें न मिला पाने से है।
आलोचना में स्वीकार का साहस प्राय: अनुपस्थित रहता है। उसके इस न स्वीकारने के दंभ के चलते अनालोचित कविता-सृष्टियां और अधिक अव्यवस्थित होती चली जाती हैं। यहां  'दंभ' के स्थान पर कोई अन्य कठोर या अभद्र शब्द होता, तब वह शायद ज्यादा ठीक से अभिव्यक्त कर पाता समकालीन हिंदी आलोचना की जहालत और उसकी गैर-जिम्मेदारी को। देवी ने अपनी नोटबुक में समकालीनता को खोए हुए अवसरों की परिघटना का समुच्चय कहा है।   लेकिन तब एक ऐसी समकालीन कविता-सृष्टि से गुजरने की प्रविधि या तर्कगत तरीका आखिर क्या हो जिसका कोई नक्शा न हो? उसमें यात्राएं कैसे संभव हों? उसमें कहीं पहुंचा कैसे जाए?
मैं बगैर किसी नक्शे, योजना, साधन, रसद और औजार के निर्विधि इसमें से गुजरना चाहता हूं।  मैं बहुत देर में उद्धरणों तक पहुंचना चाहता हूं। जैसे बहुत भटकूं तो एक शब्द मिले, खो जाऊं तो एक वाक्य, न रहूं तो एक कविता...
***
देवी प्रसाद मिश्र की कविता मूलगमिता के धुंधलेपन, विद्रोहशीलता के अवसरवाद में रूपांतरित होने, प्रति-विश्व की अनुपस्थिति वाले एक खतरनाक और पतनशील वक्त में बहुत प्रतिबद्ध ढंग से मूलगामी, विद्रोही और स्वप्नदर्शी है। यह कविता बहुत कुछ खोकर अपनी खुराक जुटाती रही है।
कवि की एक कहानी 'कोई और' को ध्यान में रखते हुए कहें तो कह सकते हैं कि उसने रचना में वह कर दिखाया है, जिसे रचना से बाहर कर सकने की स्थितियां फिलहाल मुश्किल हैं। 
इस रचना-संसार की आलोचना के लिए मौजूदा समय, मौजूदा स्पेस, मौजूदा प्रणालियां, मौजूदा सरणियां, मौजूदा टूल्स पर्याप्त नहीं हैं। इस समस्या पर एक वृद्ध-वाचाल कवि-आलोचक कुछ यूं कहेंगे कि अगर कोई मौजूदा समय, मौजूदा स्पेस, मौजूदा प्रणालियों, मौजूदा सरणियों, मौजूदा टूल्स में कुछ नहीं कर पा रहा है— तब वह नामौजूदा समय, नामौजूदा स्पेस, नामौजूदा प्रणालियों, नामौजूदा सरणियों, नामौजूदा टूल्स की उपलब्धता में भी कुछ नहीं कर पाएगा। वृद्ध कवि-आलोचक का यह वाचाल कथ्य एक वृहत्तर समालोचनात्मक संघर्ष के लिए प्रेरित और उत्साहित भी कर सकता है, अगर इसे सकारात्मकता में समझा जाए... यह अलग तथ्य है कि सकारात्मकता इस कथ्य का लक्ष्य नहीं है।
...मेरे पास नामों से भरी डायरी थी और बातचीत हो भी सकती थी लेकिन संवाद समीकरणों में बदल जाया करते थे और संलाप दुरभिसंधियों में और मिलने की इच्छाएं गिरोहों में। कविता तक में अध:पतन की आवाजें सुनाई नहीं देती थीं। सबसे अच्छे कविता-संग्रह का नाम लिया जाना सबसे अच्छे संबंध का परिणाम था...  
[ वह कोई एक दिन तो जरूर था ]
कविता में अध:पतन की आवाजें दर्ज करने के लिए कवि हाशिए पर चला जाता है :

सहने की जगह ही
कहने की जगह
    [ हर इबारत में रहा बाकी ]

यह 'पोएटिक एलिएनेशन' है। इसके बारे में कवि ने एक साक्षात्कार में स्वीकारा :  ''...रोज यह चुनौती है कि आप चीजों से कितनी दूरी बना पा रहे हैं। दूरी बनाना— यह सूत्र है। मतलब कि आपके और आपके खाने के बीच में भूखे का दृश्य आता है या नहीं। यह दैनिक पश्चाताप है।''
समाज में कविता की जगह कहीं नहीं है... यह बताने के लिए कवि को कविता की विभिन्न शैलियों को बरतते हुए अपनी एक कविता में पच्चीस पृष्ठ खर्च करने पड़ते हैं। कविता के लिए जगह न होने की व्याकुलता और व्यथा व्यापक जगह घेरती है। कवि मितकथन ही नहीं, लगता है कि अपनी इस बेसब्री को भी कहीं पीछे छोड़ देता है:
        पता नहीं कब पड़ी जाएंगी
        और समझी जाएंगी ये लिपियां

        जिनका अधैर्य सैकड़ों वर्ष पुराना है  
        [ लिपि-पाठ ]
वह हाशिए तक फैलता है और त्रिआयामिता में अपनी कविता की अंतर्वस्तु का पुनराविष्कार करता है। यहां एक सिनेमाई विनिर्मिति है। कविता सोचने की जगह है— इस यकीन के साथ इस जगह को बहुत विस्तृत करने की सदिच्छा इस विनिर्मिति में अनुस्यूत है। लेकिन यह प्रयोग कविता के मूल तनाव को अस्त-व्यस्त और विभाजित करता है। यह शिल्प पाठकीय प्रविधि के विवेक में एक विघ्न की तरह है। यह विवेक इस बाधा से बढ़ता नहीं है, बल्कि खीझता है। यहां इस प्रयोग पर कवि के कुछ स्वीकार गौरतलब हैं :

  •     जब पढऩे वाले ही उंगली पर गिने जा सकते हैं तो वो क्यों न किया जाए जिसका मन चाहे। हिंदी       कविता में खोने के लिए केवल जंजीरें हैं। ऐसे में लोकप्रियतावाद से बचा जा सकता है और कविता का थिएटर रचा जा सकता है।
  •     मैं कविता का एक अपने तरह का ऑपेरा रचना चाह रहा हूं। बहुत सारी आवाजों वाला ऑर्केस्ट्रा।

         ये कार्रवाई कविता को सुविधावाद में बदलने के विरुद्ध है।

  •     प्रयोग प्रयोगवादियों और अकविता-भूखी-नंगी-ठोस-नई-फॉर्मलिस्ट कविता की ही बपौती नहीं है। वामपंथ के प्रति प्रतिश्रुत होते हुए भी प्रयोग किए जाने चाहिए।
  •     अगर मौजूदा कविता का फॉर्मेट किसी सर्वानुमति का हिस्सा बनने लगा है, अगर वह किसी सुविधावाद-रीतिवाद में गर्क होने लगा है, अगर संवेदना का सरलीकरण होने लगा है, अगर खोज का संदर्भ बैकबर्नर पर डाल दिया गया हो, अगर कविता-सत्ता के गलियारों में जटिलता को लेकर छि: थू का वातावरण बनने लगा हो तो सबवर्सिव होने की ऐतिहासिक अवस्थिति मौजूद है।
  •     इसे आप एक असहमत का नैतिक उपद्रव समझ लीजिए।
  •     मैं महाकाव्य लिखना चाहता हूं और विफल होना चाहता हूं।

समकालीन हिंदी आलोचना एक सामूहिक प्रभाव में समकालीन हिंदी कविता को यकसां बना देने का उपक्रम रही है। वह बदलते काव्यानुशासनों और काव्यावश्यकताओं को समझने में विफल रही आई है। सार्थकता और विश्वसनीयता उसने साथ-साथ खोई है। इसकी कोशिशें और दिलचस्पियां कवि-व्यक्तित्वों के निर्माण में नहीं, एक जैसी कविता को सतत प्रायोजित और विकसित करने तक सीमित हैं। आठवें दशक से अब तक की हिंदी कविता के 'अंधेरे में' देवी प्रसाद मिश्र की कविता एक केंद्रीय आलोक की तरह है। हाशिए पर चले जाना भी इस केंद्रीय अस्मिता के विस्तार का ही एक अंग है। देवी अपनी दो त्रिआयामी लंबी कविताओं — 'हर इबारत में रहा बाकी' और 'यह एक और आखिरी वाक्य है' — में प्रचलित काव्य-बोध को चुनौती देते हैं। वह विफल हो जाने की आशंकाओं में नष्ट हो जाने के लिए आगे बढ़ते हैं। यह अपने हिस्से की कविता के लिए खुद को बर्बाद कर देने का शिल्प है। वह इस बोध के साथ कानून तोड़ते हैं :
अपना-सा कहने की
फिजां और है
बहुत नई राह की
सजा और है   
    [ हर इबारत में रहा बाकी ]
कवि एक वक्तव्य में कह गया है : ''कविता के स्रोत होते ही नहीं तलाशने भी पड़ते हैं। संवेगों पर इसीलिए बहुत ज्यादा समय तक भरोसा नहीं किया जा सकता। संवेग पर भरोसा आनंद की तानाशाही को जन्म देता है। वह सुख का एकालाप रचता है जबकि हिंदी कविता का सबसे वैध स्रोत सुख और शक्ति के ढांचे को ढहाने में निहित है। इस अर्थ में Deconstruction is Justice जैसी बात बहुत महत्वपूर्ण जान पड़ती है।''
यहां कवि की एक लंबी कहानी का जिक्र भी मौके का जिक्र होगा। इसमें एक पिता है जो कवि है। वह इस बात का उत्तर देने की कोशिश में कि वह कविता की संरचना में बेजा तोड़-फोड़ क्यों कर रहा है, अपमानित हुए आदमी की तरह कुछ बोल नहीं पाता। यह पिता सर्वप्रथम अपनी अभिव्यक्ति के प्रति प्रतिशत है। वह जानता है कि इस अभिव्यक्ति की अनुगूंजें हासिल नहीं होंगी। हिंदी में ये क्रियाएं अभी आचरण में नहीं आई हैं :
मैं चला जा रहा था उस तरफ
कि जैसे उस तरफ थी
कविता की जगह
क्योंकि रेलगाड़ी से स्टेशन पर
उतरने की स्वाभाविक इच्छा-सी थी
सच के पास पहुंचने की इच्छा और
न्याय पाने की जिद और
एक ऐसी दुनिया का सपना
जिसे बदलने का जिम्मा
एन.जी.ओ. के पास न होता
और सौ तरह के सनकियों के पास होतीं
एक हजार तरह की कविताएं जो
जैसे पेज होता आया है उसमें समा न पातीं
और नई कविता के लिए चाहिए होता
नया पेजमेकर और नई स्मृति के लिए
नई हार्ड डिस्क
    [ यह एक और आखिरी वाक्य है ]
एक कथित कलावादी आलोचक अशोक वाजपेयी के शब्दों पर यहां गौर करें :  ''श्रेष्ठता का एक गुण यह भी है कि वह अपने से घोर असहमति उपजाती है।'' हिंदीसाहित्यसंसार का एक दुर्भाग्य यह भी है कि इसमें कई जरूरी और सही बातें अक्सर गैर-जरूरी और गलत तरफ से सुनाई पड़ती हैं। यह संसार अपने कुल असर में किसी क्रांतिकारिता से संचालित नहीं है। उस पर सत्तात्मक संरचनाएं और उनके मंडल काबिज हैं। ऐसे में यह बहुत स्वाभाविक है कि रचना के स्तर पर हो रहे संरचनात्मक परिवर्तनों की प्रतिध्वनियां वहां सुनाई न दें। मौजूदा संरचना के प्रति असंतोष और आक्रोश रखकर खुद को अभिव्यक्त करने के प्राथमिक संघर्ष में संलग्न विद्रोहशीलता देवी प्रसाद मिश्र की कविता-सृष्टि की मूल प्रतिज्ञा है।  
                                                         ***

सबकी तरफ से लिखने का अंजाम देख लो ये
काम कितना बढ़ गया ये काम देख लो
कितना ही कहा कह गए तो कितना कम कहा
कहने को हुआ नाम तो ये नाम देख लो
    [ निजामुद्दीन ]
देवी प्रसाद मिश्र के बहुत सारे कवितांश तुक में तृप्त होना चाहते हैं। ये अंश एक मूर्त लय की प्रदक्षिणा करते हैं। यह इनकी कमनसीबी है कि ये एक ऐसे कालखंड में अभिहित हुए हैं, जब तुक और लय से वंचित एक दृश्य उपस्थित है। इस दृश्य में कवि का उत्तर है: ''छंद पर मैं ध्यान देता हूं। छंद का परिहार कीजिए, लेकिन उसे जानिए तो बेशक। और जब तबीयत आए उसे कविता में ले आइए।''
एक और कथित कलावादी आलोचक वागीश शुक्ल के शब्दों पर यहां गौर करें :  ''कविता में भाषा की रूढिय़ां तोड़ी नहीं जातीं, अपनाई जाती हैं।'' गलत तरफ से आ रहे इन सही शब्दों के उजाले में देखें तो देवी की कविता में मौजूद गद्य की लय भी ध्यानाकर्षी है:
मैं जो हिंदी में ही हिंदी में लिखा करता था। मैं वो हिंदी में ही उर्दू में ही कहना चाहूं। ये मेरा रास्ता है और मेरा वास्ता है। तू मुझे रोकता है क्यों जो मैं सहना चाहूं।
    [ वह कोई एक दिन तो जरूर था ]
देवी प्रसाद मिश्र काव्येतर को भी कविता में ही कहते रहे हैं। उन्होंने सब कुछ लगभग कविता में ही दर्ज किया है, लेकिन इस सब कुछ में मौजूद बहुत कुछ अब भी सही नाम से पुकारे जाने की दुविधा से ग्रस्त है। इस संदर्भ में उनकी एक और कहानी के कथ्य का आश्रय लें तब कह सकते हैं कवि ने अपनी कहानियों में जो लिखा, वह उसकी कविताओं में पहले से ही मौजूद है और कविताओं में वह जो कहानियों में— शायद वह उपन्यास में अपनी कविताओं को शामिल करे... बात को कुछ और आगे बढ़ाऊं तो कहानियों को भी। यह एक के भीतर एक और को देखने का शिल्प है। इसमें पिता की उपस्थिति और अपमान की स्थिति बहुत केंद्रीय है:

हमारे समाज में आदमी को अपमानित करने की
कई हजार तकनीकें विकसित कर ली गई हैं

समाज में इतने सारे लोग इतने सारे तरीकों से
अपमानित किए जा रहे हैं कि लगता है
जो बहुत सम्मानित है, वह संदिग्ध है
    [ अपमान ]

हिंदी की प्रासंगिक और प्रचलित कविता मूलत: विषयाधीन, सूक्तिपरक, विमर्श-केंद्रित और वैचारिकता का छद्म गढ़ते हुए बहुत बकवास और एकरस है। इस प्रासंगिकता और प्रचलन में देवी प्रसाद मिश्र की कविता-सृष्टि शायद-सा शायद रचती है। वह बहुत कुछ को बहुत कुछ से बदल देने की आकांक्षा रखती है। वह कट्टरता और उसकी परिणतियों के पूर्वानुभव को विकसित करते हुए सांप्रदायिकता और अधिनायकता के प्रतिकार के लिए एक नई संरचना की खोज करती है, और इसमें भाषा को न बरत पाने की निराशा या मनुष्य को न बदल पाने की असंभाव्यता का अफसोस करती है। परिवर्तन के लिए बहुत मामूली-सी नजर आती बातों और कार्रवाइयों पर यकीन यहां एक बड़े पोएटिक एजेंडे की तरह खुलता है। इस कविता-सृष्टि में सतत एक अन्यमनस्क परानुभूति का वैचारिक अवसाद है। नैतिक निर्वासन, विफलता का शिल्प, दुस्साहस का साहस और अपने मूल्यांकन की याचना से घनघोर इंकार है। बावजूद इसके :

बस एक ही डर है कि कवि को
उसके बियाबान में निर्वासन का जो
वजनदार पत्थर थमा दिया गया वह
अमरता की विस्मयादिबोधक
भारी
ट्राफी

हो
    [ निर्वासन ] 
                                                             ***

गए दिनों एक लेखक संगठन के एक राष्ट्रीय सम्मेलन में एक कवि ने कहा कि हिंदी पांच सौ वर्षों में खत्म हो जाएगी। इस कवि की कविता हिंदी में शुरू होते ही खत्म मान ली गई। इसलिए इस कथ्य में एक प्रकार का आशावाद नजर आता है जो पलायनवाद जैसा ही है। इस कथ्य को सुनने के बाद देवी प्रसाद मिश्र की एक कविता देर तक याद आती रही। सभागार के बाहर बारिश एक समस्या, एक चेतावनी की तरह हो रही थी। इस पार की सड़क से उस पार की शरण में जाने में भी तमाम दुविधाएं और आशंकाएं थीं। यथार्थ एक समग्रता में संकटग्रस्त था, और भाषा और विवेक और संसार नामालूम कब से व्यक्तित्वों और वक्तव्यों और विश्लेषणों में खत्म हो रहे थे। कोई विस्मय नहीं कि ऐसे में एक ऐसी कविता याद आ रही थी जिसका कथ्य अमरता-विमर्श था :

एक दिन एक आदमी को यह लगा कि जिस भाषा में वह लिख रहा है
वह अगले सौ सालों में शायद न रहे या कि दौ सौ सालों में

थोड़ी देर की घबराहट के बाद उसे यह राहत महसूस हुई कि
चलो, ऐसी भाषा में अमर हो जाने का झंझट भी नहीं है
    [ हिंदी में लिखना ]  

साहित्य जब केवल अमरता तक ले जाने वाले एक सीधे टिकट में तब्दील हो जाता है, तब यह जरूरत बहुत बढ़ जाती है कि खुद के भीतर एक निर्वासन रचा जाए। इस आलेख के लिखे जाने तक देवी प्रसाद मिश्र का केवल एक कविता-संग्रह 'प्रार्थना के शिल्प में नहीं' (1989) प्रकाशित हुआ है, हालांकि वह सतत सृजनशील रहे हैं। संग्रहविमुख होने के बावजूद भी उनकी रचनात्मकता इतनी व्यापक और प्रभूत है कि अपनी विशिष्टता और वैविध्य दोनों में ही हिंदी आलोचना के लिए एक आतंककारी स्थिति उत्पन्न करती आई है। समीक्षा जब रचना को ठिकाने लगाने की माफियागीरी के रूप में स्वीकार्य हो, देवी की कविता आसान नहीं रह जाती है। उठाईगीरी पर इतराने वाली व्यक्तित्ववंचित आलोचना में उसने अपने विषय में कोई राय नहीं बनने दी है। वह अपनी हर अगली कार्रवाई में सबवर्सिव है। उसके भीषण रैडिकलाइजेशन ने हिंदी की मौजूदा आलोचना का बहुत तरीके से रिडिक्यूलसाइजेशन कर दिया है। हिंदी की बहुत सारी ओवररेटेड कविता जो बहुतों की नजर में अपनी इब्तिदा से ही बेनकाब थी, इस तरह की आलोचना को सक्रिय रखती आई। कवियों ने आलोचना से अपने को मुक्त करना शुरू किया। कवि-आलोचक कहलाने में कवियों की दिलचस्पी खत्म हो गई। एक पूरे दशक की कविता न अपने लिए और न अपने भीतर से आलोचक पैदा कर पाई। नई सदी पुराने संकटों को और विकराल करती हुई आगे बढ़ती रही। देवी कविता में सिलसिलेवार धमाके करते रहे। प्रकाशन-तंत्र और कविता के लिए मौजूदा स्पेस को अपने लिए अपर्याप्त मानते हुए एक नायकोचित विद्रोह के साथ वह असहमति की अभिव्यक्ति के लिए ध्वंस को अर्थ देते रहे। आलोचना बहुत दूर कहीं ठहरी हुई थी, देवी प्रसाद मिश्र नाम के कवि तक पहुंचना उसके लिए मुश्किल हो गया था। एक समानांतर एकरूपीकरण बढ़ रहा था। इस अंधेरे में कई कवि जुगनू की तरह चमके, बुझे और चल बसे। हिंदी कविता में दृश्य कुछ यूं था कि कोई भी बेहतर कवि कभी भी कविता से पलायन कर सकता था। हिंदी कविता अपनी सामाजिकता खो चुकी थी। इस दुर्विपाक के तार बहुत पीछे कहीं जाकर जुड़ते थे। स्थितियां ये थीं इन तारों को छेडऩे की हिम्मत किसी में नहीं थी। कटियाबाजी के उजाले से कामचलाऊ सुकून तलाश कर नामालूम कब हिंदी कविता एक द्वीप में परिवर्तित हो गई। लेकिन इस प्रकार का प्रकाश सदा समाज की मुख्यधारा से अलग-थलग होता है। वह अपनी नैतिकता की कितनी भी दुहाई दे, वह असामाजिक दूर से ही नजर आता है।

...कहीं ऐसा तो नहीं कि हम आप
क्रूरताओं को कम करने की इच्छा और
कमतर कला के बीच भी कोई
संबंध देख रहे हों

[ रचना और परिदृश्य के रिश्तों वाले सिद्धांत के बारे में
एक निरुपाय टिप्पणी ]

बाबरी मस्जिद विध्वंस और आवारा पूंजी के प्रभाव के बाद एक नई तरह के युवा उभरने लगे— विचारधारा से विलग, करियरवादी, सुविधाभोगी, लचीले और अगंभीर। साहित्य प्राथमिकताओं से निर्वासित हुआ, महत्वहीन महत्वाकांक्षाएं विस्तृत हुई... और प्रतीत हुआ कि जैसे अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाए जा चुके:

यहां मैं पैदा हुआ
इस पत्थर पर
अपने ही जैसे चेहरे पर
चेहरा रखकर
कई-कई दिनों तक मैं रोया किया

इस जगह मैं सिर पकड़कर बैठा
यहां मेरा खून बहा
यहीं कहीं पृथ्वी के ही एक हिस्से पर
मुझे पृथ्वी से निकल जाने की
धमकी दी गई

आस-पास यहीं कहीं शायद
मेरे बचे होने के भी निशान हों
    [ अवशेष ]

इस भयावह समय में देवी प्रसाद मिश्र का एक कवि के रूप में बचे रह जाना हिंदी में एक परिघटना की तरह है। मुक्तिबोध के बाद देवी हिंदी कविता के लिए सबसे ज्यादा साहसी और मुश्किल कवि बनकर उभरे हैं। लेकिन यह भी एक तथ्य है कि उनके रचना-संसार को बहुतेरे बिंदुओं पर समस्याग्रस्त भी किया जा सकता है।
                                                  ***

यह बाएं होने की मनुष्यता है
यह जनता के साथ खाट पर बैठकर
फोटो खिंचाने की खब्त है यह दिल्ली में रहकर
मध्यवर्ग में होने का पश्चाताप है
तुम्हें तो मार्क्सवाद का सौ डिग्री सतत बुखार है जो
न ज्यादा होता है न कम
    [ वाम अंग फरकन जब लागे ]

वामपंथ के प्रति एक आलोचनात्मक दृष्टिकोण देवी प्रसाद मिश्र के यहां आरंभ से ही है। वह शुद्ध रूप से एक राजनीतिक कवि हैं। उनके यहां जीवन से ज्यादा विचार की सुंदरता है। व्यावहारिक से ज्यादा सैद्धांतिक राजनीति के दृश्य हैं। व्यावहारिक राजनीति उनके यहां प्राय: उपहास का विषय बन जाती है :

अब आपसे क्या छिपाना
मार्क्सवाद से मैं भी निजात पा लेना चाहता हूं

बस, आप मिलिए और
शिनाख्त के लिए बता दूं कि चाय की दुकान में
मैं लाल रंग की पतंग लेकर मिलूंगा जो
इस रंग से मेरा आखिरी नाता होगा

उसके बाद मैं उसे उड़ा दूंगा। हमेशा के लिए।
जाहिर है आसमान में।

लेकिन आपको मैं पहले ही आगाह किए देता हूं
कि आपको मुझे ढंग से समझाना होगा
केवल एक वक्त का दाल-चावल खाकर
मैं आपका होने से रहा 
    [ निजामुद्दीन ]

इस तरह के और भी तमाम उद्धरण देवी प्रसाद मिश्र के रचनालोक में यत्र-तत्र 'स्थापित' हैं। आदमी तक पहुंचने का टिकट भी वह पहले की ही तरह मांग रहे हैं:

मेरा टिकट लेने का नंबर आ गया तो बहुत हड़बड़ाकर
मेरे मुंह से निकला कि एक मोहम्मद अमीन सिद्दीकी
तक का टिकट दे दो।
    [ वह कोई एक दिन तो जरूर था, 2008 ]

मैंने भी कुछ उपाय खोजे मसलन यह कि
आदमी तक पहुंचने का टिकट किस खिड़की से लिया जाए
    [ अमरता, 2015 ]

इन उद्धरणों के उजाले में देखें तो वामपंथ की समस्या कवि की समस्या भी है— मसलन व्हेयर इज द कनेक्ट...
परिवर्तित होते समकाल को देखने-परखने के लिए हिंदी समाज ने जो औजार एक रचनाकार को सौंपे हैं, अब वे सब के सब एक सेट-पैटर्न की पुरातनता में कुंद हो चुके हैं। इस जड़, धारहीन, निष्प्रभ और लगभग असफल प्रतीत होती वैचारिकी में सर्वाधिक समस्या देवी प्रसाद मिश्र जैसे कवियों के साथ पेश आई है। उनके ठीक पहले के कवि इस संदर्भ में बिलकुल भी आलोचनात्मक या संशयग्रस्त नहीं रहे हैं और उनके बाद के कवियों के लिए यह विश्वास की नहीं इस्तेमाल की चीज रही आई है। देवी यहां एक संधि पर हैं। एक तरफ की अच्छाइयों को लेकर वह संशयित हैं और दूसरी तरफ की बुराइयों को लेकर मुखरित। इस संधि की संरचना में बहुत सावधानी के बावजूद भी देवी अक्सर राजनीतिक रूप से गलत हो जाते हैं। समूचे विचार-विमर्श का फरेब जैसे उन्हें इस सबसे अलग और (अ)सावधान करता है।

मैं चाहता हूं मेरा सच तुम्हें चिढ़ा दे बे
मैं चाहता हूं मुझे घेरने का प्लान बने
    [ चाहना ]

कवि वक्तव्य में आगे कहता है: ''कविता के मेरे स्रोत फिलहाल भारतीय पावर स्ट्रक्चर की विसंगतियों और विद्रूपताओं को समझने में हैं जो भारतीय संकट की मूल अंतर्वस्तु भी हैं। मेरे लिए इसकी एक अवधी-स्थानीय-संगति भी है। अवध के शक्ति संबंधों को मैंने बहुत नजदीक से देखा है। मनुष्यों में ही कोई माई-बाप है और दूसरा कोई दास होने के अभिशाप से पराजित। कहना यह है कि अवध मुझमें एक गीतात्मक स्मृत्यात्मकता ही नहीं जगाता, वह मेरे उरों का उत्स है। वह नरक की भी स्मृति है जहां पौरुषेय अधिग्रहण नियम है, स्त्री की दुर-दुर सामाजिक व्यवहार और वर्णीय औद्धत्य सामान्य चरित्र। इस तरह स्थानीयता का स्मरण मुझमें यूटोपिया का प्रतिसंसार नहीं रच पाता। वह मेरी बर्बाद नागरिकता का ही विस्तार होता है।''
अवध की स्थानीयता और सामंती संस्कारों की समझ के बावजूद स्त्रियों, दलितों और इस व्यवस्था में नौकरों के प्रसंग में देवी के यहां आए कुछ सामान्यीकरणों को लेकर प्राय: मौखिक दुष्प्रचार होता रहा है। इस दुष्प्रचार का संघर्ष स्त्रियों को मर्द, दलितों को सवर्ण और मनुष्यता को दास बना देने तक सीमित है। अल्पसंख्यकों और आदिवासियों से इसे अब भी उम्मीदें हैं, लेकिन इन्हें भी वह धीरे-धीरे मुख्यधारा के 'वैभव' में विलय होते देख रहा है। इस दृश्य में मूल उद्देश्य और व्यवहार एक गोरिल्ला उदासी लेकर अरण्य-हास्य में व्यस्त हैं। हाशिए की बसावट को कुचलती हुईं महत्वाकांक्षाएं सब जगह अब पहले से भी ज्यादा क्रूर हैं। वे स्त्रियों को मर्द बनने पर विवश करती हैं, दलितों को सवर्ण और बाकियों को दास। यह सामान्य भाव खो देने और मूल में मौलिक न बने रह पाने का संकट है... जहां स्त्री और दलित-विमर्श के टैग से आने वाली पुस्तकें एक लंपट, क्लीन सेव्ड और अपने यौन-कर्म के लिए प्रख्यात प्रकाशक के गोदाम से निकलकर सीधे एक नए अंधेरे में जा रही हैं— लगभग अपाठ्य और एक निष्कर्षवंचित शोध के लिए प्रस्तुत। यह शोध रोजगार की गारंटी तो दे सकता है, बदलाव की नहीं। बदलाव के लिए लडऩा जिस वामपंथ का आधार है, जमीन पर उसका कोई पूछनहार नहीं रहा। एक नई बनत का प्रतिक्रियावाद, रूपवाद और कट्टरता उसमें घर कर गई है। कुछ सरलीकृत करके कहें तब कह सकते हैं कि वह बस प्रगतिशीलता के टैग के लिए जरूरी है। यह टैग साहित्य-संस्कृति में प्रवेश पाने के लिए जरूरी है। साहित्य-संस्कृति सभ्यता के लिए जरूरी है। सभ्यता हिंसा के लिए जरूरी है और हिंसा अमरता के लिए...।

समाज की जगह जाति बनाई
कितना मसरूफ रहे पुरखे हमारे
    [ हर इबारत में रहा बाकी ]

महाश्वेता देवी के उपन्यास पर आधारित गोविंद निहलानी की फिल्म 'हजार चौरासी की मां' में अभिनेत्री नंदिता दास के बोले कुछ संवाद यहां याद आते हैं:
...उनका भी अपना एक प्लान था— हमारी तरह। जैसे हमारा एक मकसद था, वैसे उनका भी। ...हमें धोखा देकर खत्म करना, यही उनका मकसद था। पैसा, रुतबा, ताकत इन सबकी हमारे लिए कोई अहमियत नहीं। पर यही वो खूबसूरत ईनाम हैं, जिन्होंने उनको फुसला लिया था। उनको जो साथ तो आए, पर सिर्फ दगा देने के इरादे से। ये जो चाह है कुछ पाने की, जल्दी से हासिल कर लेने की इसको पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता। लोग क्यों नहीं आएंगे? लोग दोस्त बनकर आएंगे और वक्त आने पर दगा दे जाएंगे।
...शायद हम क्रांति की रौ में बहे जा रहे थे। हमें असलियत का अंदाजा नहीं रहा। आकाश की तरफ उठी हुईं आंखें नहीं देख पा रही थीं हमारी अपनी ही कमियां, गलतियां, राह से बिछुड़ती-टूटती ये पगडंडियां। मारने वाला पीछा कर रहा था, और उसे इशारा देने वाला वही जिसे हम अपने साथ लिए चल रहे थे...।
इस सब कुछ के बावजूद हिंदी कविता एक बड़ा भाग अब तक एक किस्म के अतिरंजित आदर्शवाद की कैद में है। यह भाग इस कैद में बने रहने के फायदे जानता है। इसके लिए कविता में बने रहना एक चूहा-दौड़ में बने रहना है, और इससे अलग कविता लिखना हर होड़ से बाहर होना है। एक और कथित कलावादी आलोचक मदन सोनी के शब्दों पर यहां गौर करें : ''हमारी बहुत सारी आलोचना वैचारिकी का उपनिवेश है। उसकी अपनी राजनीति नष्ट हो चुकी है, इस हद तक कि हम कह सकते हैं कि हमारी आलोचना एक निरा अराजनैतिक प्रवचन है।''
इस दृश्य में इस दृश्य की आलोचना भी अनुपस्थित है। हुआ यूं है कि हिंदी आलोचना ने इस दृश्य में ही बसे-बने-बचे रहने का हुनर सीख लिया है। प्रचलन से उसका परिचय प्रगाढ़ हो चुका है। इस वजह मौजूदा रचनाशीलता में घालमेल की गाढ़ी बढ़त है। लेकिन कविता एक संवेदनशील विधा है और अन्य साहित्यिक विधाओं की तुलना में नकलीपन यहां सबसे जल्दी पकड़ में आता है। विमर्श-विमर्श चिल्लाने से कविता का गला खराब होता है, लाउडनेस खरखराहट से भर जाती है और तमाम कोशिशों के बावजूद आवाज उठ नहीं पाती। फार्मूलेबाज और फैशनेबल विमर्शों में उलझकर बहुत सारी मौजूदा कविताएं सारी स्वीकृति और प्रशस्ति के बावजूद संदिग्ध हैं। ये एक ऐसे यथार्थ से नावाकिफ हैं, जहां प्रकटीकरण और अर्थ इस कदर बहुस्तरीय हैं कि रचना में आत्म, साहस, सच्चाई, ईमानदारी, विवेक और अपराधबोध जैसे स्थायी मूल्यों को बचा पाना एक युद्ध है। जीवन में इतने सूक्ष्म स्तरों पर संक्रमण जारी है कि प्रकटीकरण के सारे वास्तविक आयामों की पहुंच सीमित हो गई है। बराबर कड़वे और कठिन होते वक्त में ऐसे दृश्य हैं:
कोई वजह रही होगी कि कलाकृतियों के दलालों से वह जिस खूबी से बात करता था उसी खूबी से वह क्रांतिकारियों और कवियों से निपट लेता था।
    [ रेड कॉरीडोर से निकलकर छपाक स्विमिंगपूल में ]
                                                            ***

देखिएगा, एक रोज सारी योग्यताओं को इतनी सामाजिकता हासिल हो जाएगी कि सत्ता-संरचनाएं अपनी केंद्रीयता पर शर्माएंगी। वे डूब मरेंगी अपनी पतनशीलता के जल में और सामूहिकताएं इतनी विवेकवान होंगी कि प्रासंगिक रचनाशीलता के मूल्यांकन की जरूरत नहीं रह जाएगी। सारा औसतपन और अवसरवाद असफल नजर आएगा। भाषा में मरने-मारने के खेल बंद होंगे और दलाल बहसों को भटका नहीं पाएंगे। एक लड़ाई, एक इच्छा और एक स्मृति सारे अन्याय, अपमान और अमरता के विरुद्ध काम आएगी। एक स्वप्न सतत संसार को बदलने के लिए बेताब रखेगा।

...इतनी मर्ममय हैं ये उम्मीदें कि हमबड़ाई-सी लगती हैं।

शासक के कुछ भी कहने से मेरा
भरोसा कम हो जाता था ईंट पर
सिर रख लेने से तनाव
    [ जनगणमन बे-गाना ]
                                                             *** 

देवी प्रसाद मिश्र की कविता-सृष्टि में बगैर किसी नक्शे, योजना, साधन, रसद और औजार के निर्विधि गुजरते हुए मैं बहुत देर में उद्धरणों तक पहुंचा। बहुत भटकने पर शब्द मिले, खो जाने पर वाक्य, अब नहीं हूं तो एक कविता :

मैं
कल
पर
बहुत
कम
काम
छोड़ता
हूं।
                                                            *** 
संदर्भ :
प्रस्तुत आलेख में देवी प्रसाद मिश्र के अब तक प्रकाशित एक और एकमात्र कविता-संग्रह 'प्रार्थना के शिल्प में नहीं' के साथ-साथ पहल-78 में प्रकाशित उनकी नोटबुक, पहल-82 में प्रकाशित उनके साक्षात्कार, उर्वर प्रदेश में प्रकाशित उनके वक्तव्य के अतिरिक्त पहल, आलोचना, हंस, कथादेश, तद्भव, पल-प्रतिपल, वर्तमान साहित्य, वसुधा, दस बरस, जलसा, उर्वर प्रदेश, पक्षधर, समकालीन भारतीय साहित्य, समकालीन तीसरी दुनिया, इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी, रचना समय कविता विशेषांक, समय चेतना, जनसत्ता, लोकमत समाचार दीपावली विशेषांक जैसी पत्र-पत्रिकाओं के विभिन्न अंकों में समय-समय पर प्रकाशित उनकी कविताओं, कहानियों और टिप्पणियों से पर्याप्त मदद ली गई है। 


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