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अक्टूबर 2015

वैश्विक परिदृश्य में इस्लाम

रामचन्द्र ओझा




धर्म सुखमय जीवन और अमरत्व की वैयक्तिक कामना से धारित विचारों, विश्वासों, रिवाज़ों तथा इनके बहुमुखी अलंकरण का एक संकलित रूप है। मनुष्य के व्यक्तिगत और सामूहिक आचरण को दिशा-निर्देशित करने वालों कारकों में धर्म एक महत्वपूर्ण कारक है। तात्पर्य है कि धर्म और इसके इतिहास के अलावा ऐसा कोई विज्ञान नहीं है, जिससे किसी सभ्यता के सामूहिक अवचेतन को समझा जा सके। आज सभ्यताओं के संघर्ष के रूप में विध्वंस के जिस कगार की ओर विश्व अग्रसर है, वह धर्म की सांस्कृतिक अहमियत को नज़रअंदाज करने तथा इसके प्रति बरती गई असावधानी का परिणाम है।
यह अकारण नहीं है कि महज कुछ कर्मकांडों व रूढिय़ों के संकलन को ही हम धर्म समझते हैं। वस्तुत: हम देख नहीं पाते कि जीवन अनुभवों के लिए जिन प्रतिमानों का हम प्रयोग करते हैं, वे नैसर्गिक नहीं होते बल्कि उस समाज से मिलते हैं, जिसमें हम सांस लेते हैं, जिसका स्त्रोत हमारी धार्मिक चेतना है। एक समय खासकर फ्रांस की क्रांति के ठीक पहले धर्म को मानवीय मेधा के उत्कर्ष के बजाय उसकी मूर्खता के रूप में चिन्हित किया गया तथा इसी विरासत को आगे बढ़ाने के प्रति हम प्रयत्नशील हैं। हम भूल जाते हैं कि जिस विज्ञान का सहारा लेकर हम ऐसा कर रहे हैं वह विज्ञान मनुष्य की धार्मिक जिज्ञासाओं से जन्मी सगुनौती, तंत्र-विद्या तथा मिथ इत्यादि विश्वजनीन धार्मिक निर्मितियों का प्रतिरूप है।
जहां तक इस्लाम का प्रश्न है, यह एक ऐसा धर्म है जहां राजनीति और धर्म एक साथ जुड़े हैं। यानी यह मार्क्सवाद की तरह एक राजनीतिक धर्म है। (अपने सिद्धांत के प्रति गहरी आस्था और मानव मुक्ति की चाहत के कारण मार्क्सवाद एक 'धर्म-निरपेक्ष' धर्म है)। ऐसे धर्मों की विशेषता यह होती है कि इन धर्मों का पालन केवल उस समाज और राष्ट्र में ही संभव होता है, जहां शासन व्यवस्था भी इन धर्मों से परिचालित हो। अत: इस्लाम अपने मूल स्वभाव में धर्म-निरपेक्षता विरोधी है। हालांकि मार्क्सवाद, राष्ट्रीयता और जनतंत्र जैसी विचारधाराओं का पालन भी वहीं संभव है, जहां इन विचारधाराओं की सरकारें हों किंतु इस्लाम इस मामले में भिन्न है कि इसकी धार्मिक आस्थाओं में इहलौकिक जीवन में सुख की कामना के साथ-साथ परलोक के सुख की कामना भी निहित है, जबकि शेष राजनैतिक विचारधारायें (धर्म) इस जीवन के अलावा किसी दूसरे जीवन या लोक का अस्तित्व ही नहीं मानती। इस्लाम, सभी विशुद्ध धर्मों की तरह ही मरणोपरांत भी अपने बंदों की खोज़-ख़बर लेता है तथा उनके दोनों जीवन में मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने की आध्यात्मिक और ईश्वरीय भावना से अनुप्रेरित और प्रतिबद्ध है। दरअसल वही आस्था धर्म कहलाती है, जिसमें मनुष्य के लोक-परलोक दोनों जीवन के सुख की कामना हो।
वस्तुत: धर्म का मुखिया (ख़लीफा) केवल धर्म सत्ता का ही नहीं बल्कि राजसत्ता और मिलीटरी मामलों का भी मुखिया हो, यह राजनीतिक धर्म होने के कारण इस्लाम की चारित्रिक विशेषता है। यही कारण है कि शुचितावादी इस्लाम के प्रवत्र्तक व कट्टर अनुयायी सदैव इस्लामिक राज्य की कल्पना करते हैं और जहां शासन व्यवस्था धर्म-निरपेक्ष या दूसरी होती है, वहां वे खुद को असहज महसूस करते हैं। इस्लामिक राष्ट्रों में जहां कहीं भी जनतांत्रिक या धर्म-निरपेक्ष मूल्यों की स्थापना के प्रयोग किये जाते हैं, वे विफल इसलिये होते है कि इस्लाम और जनतंत्र दो विपरीत ध्रुव हैं, जो एक साथ नहीं मिल सकते। जहां इस्लाम है वहां जनतंत्र की कल्पना और जहां जनतंत्र है वहां इस्लाम की कल्पना करना शास्त्र यानी कुरान-सम्मत नहीं है। अगर कहीं अन्यथा दृष्टांत मिलते हैं तो वह इसलिये है कि अधिकांश प्रगतिशील और उदारवादी तबके इस्लाम को इसके ठहरे हुए आद्य रूपों में देखने की बजाय इसे एक गतिमान धर्म के रूप में देखने व प्रतिष्ठित करने के हिमायती हैं। किंतु उनके सामने असाध्य अवरोध यह है कि इस्लाम के मुताबिक कुरान अल्लाह का शब्द और संदेश है जिसमें संशोधन-संवर्धन (नस्ख़) नहीं किया जा सकता या वही कर सकता है जो अल्लाह की परम सत्ता का पूर्णअधिकारी हो।
$गौरतलब है कि इस्लाम में नबी, रसूल यानी ईश्वर के दूत की अवधारणा कोई इस धर्म से ऊपजी अवधारणा नहीं है बल्कि यह यहूदी धर्म के पूर्वविधान अथवा तोरा (यहूदियों के पेन्टॅट्यूक के पहले पांच ग्रंथ) से ली गई अवधारणा है। कुछ विशिष्ट प्रावधानों को अगर छोड़ दें तो कुरान की अधिकांश आयतों के निहितार्थ न केवल पूर्ण विधान और कुछ हद तक नये विधान के आख्यानों से मेल खाते हैं बल्कि ईश्वर के संदेशों की अभिव्यंजना के लिये जो शैली या तेवर अपनाई गई है वह 'तोरा' की शैली व तेवर से प्राय:-प्राय: मेल खाती है। अत: अगर यहुदियों और मुसलमानों के सामूहिक मिज़ाज में कहीं कोई साम्य नज़र आये तो इसमें विस्मय की कोई बात नहीं, क्योंकि यहूदी व इस्लाम का विश्वदृष्टिकोण एक जैसा है तथा जो भिन्नतायें हैं, वे भू-राजनीति जरूरतों, जातिय (एथनिक) संस्कारों एवं कतिपय ऐतिहासिक घटनाक्रमों के नतीजे हो सकते हैं।
वस्तुत: इस्लाम धर्म का इतिहास 609 ई. में मक्का में प्रारंभ हुआ, जब मोहम्मद साहब को इलहाम हुआ था। बहुत लोग यह समझते हैं कि हजरत मोहम्मद को केवल एक ही बार इहलाम हुआ और ईश्वर के सभी संदेश और उपदेश उन्हें एक ही बार उनके दूत 'जिबरिल' (गैब्रियल) दे गये। किंतु ऐसा नहीं है। मोहम्मद साहब का इंतकाल 632 ई. में मदीना में हुआ था और तब तक ईश्वर का संदेश उनके जीवनकाल में बार-बार और अलग-अलग अवसरों पर मिलता रहा। इन 23 वर्षों के लंबे अंतराल में मिले अल्लाह के संदेश-उपदेश कुरान में संकलित हैं, जिनका पालन इसलाम में धर्म और अवहेलना अधर्म कहलाता है। अल्लाह के संदेश हजरत मोहम्मद को अलग-अलग स्थितियों व सामाजिक संदर्भों के लिये अलग-अलग दिशा-निर्देश और हिदायतों के रूप में मिलता रहा। अगर अलग-अलग समय में प्राप्त दिशा-निर्देशों में आपसी संगति का अभाव दिखे तो यह कोई अस्वाभाविक बात नहीं हो सकती। मुश्किलें तो तब आती है जब दो अवसरों पर प्राप्त संदेशों में अन्तर्विरोध उत्पन्न होता है, जिसे स्वीकारने व आत्मसात करने के बजाय इन्हें पाटने और इनके बचाव के लिये अनावश्यक तर्क बुने जाते हैं।
जहां तक राज्य-विस्तार का सवाल है मोहम्मद साहब ने मक्का और मदीना में 630 ई. तक इस्लामी राज्य स्थापित और सुदृढ़ कर लिया था। बेशक इस दरम्यान उन्हें मदीना में यहूदियों की ज़बरदस्त चुनौतियों और विद्रोह का सामना करना पड़ा तथा 'उहुद' में मक्का के मूर्ति पूजको (पगानों) से युद्ध में उन्हें कुछ समय के लिये विफलतायें हासिल हुई, किंतु 630 ई. तक पूरे अरब प्रायद्वीप में इस्लाम के विस्तार में उन्हें मिली सफलता के आगे इनकी कोई अहमियत नहीं है। मध्य एशिया में शेष राज्य विस्तार का कार्य पैगम्बर की मृत्यु के उपरांत 632 ई. से 661 ई. तक पहले चार ख़लीफ़ाओं जिन्हें रशीदुन (जिनकी नियुक्ति धर्मग्रंथ के अनुकूल हो) कहते हैं, के पराक्रम का नतीजा था।
किंतु इस दरम्यान रशीदुन ख़लीफ़ाओं की मुश्किलें कम नहीं थीं बल्कि यह एक गंभीर चुनौतियों का दौर था। अबु बक्र जो पहले रशीदुन खलीफा बनाये गये थे, को छोड़कर इनके तीन ख़लीफ़ाओं की नृशंस हत्या हो गई थी। ख़िलाफ़त के अन्तर्गत उत्पन्न यह कलह और हिंसा उत्तराधिकार को लेकर थी। हज़रत मोहम्मद की मृत्यु के उपरांत उनके दामाद अली जो रिश्ते में चचेरे भाई भी थे, को जब ख़लीफ़ा बनाया जाने लगा तो इसका घोर विरोध हुआ। विरोध व आंतरिक कलह इस हद तक बढ़ा कि इस्लाम एक मुकम्मल इस्लाम नहीं रह सका बल्कि इसमें दरार आ गई। परिणामत: यह सुन्नी तथा शिया दो संप्रदायों में बंट गया। दरअसल अबु बक्र के पक्षधरों का मानना था कि उनकी नियुक्ति सही ओर जायज थी, क्योंकि वे योग्यता के आधार पर ख़लीफ़ा बनाये गये थे। किंतु विरोधी पक्ष का दावा था कि सब प्रकार से योग्य और यहां तक कि पैगम्बर से ख़ून का रिश्ता रहते हुए भी अली को ख़लीफ़ा नहीं बनने देना एक गहरी चाल और षडयंत्र का हिस्सा था। हालांकि इस्लाम के दो फॉकों में बॅटने के कारण मूलत: राजनीतिक थे, किंतु इसका असर दोनों पक्षों के सामाजिक व व्यावहारिक जीवन के हर पहलू पर पड़ा। वे अलग-अलग रीति-रिवाज और धार्मिक आचरण भी अख्तियार करने लगे। फलत: सुन्नी इस्लाम और शिया इस्लाम के रूप में इस्लाम दो संप्रदायों में बंट गया तथा उनकी धार्मिक पहचान भी अलग हो गई मानों ये दोनों एक धर्म की शाखाएं न होकर अलग-अलग धर्म ही हों।
अली और उनके दो बेटे हसन व हुसैन की शहादत के बाद इस्लाम की हुकूमत 'ओमैया' के हाथों तथा इसकी राजधानी 'दमिश्क' हस्तानांतरित हो गई। 661 से लेकर 750 तक ओमैया ख़लीफ़ाओं की सफल हुकूमत के बाद अब्बासी ख़लीफ़ा बने तथा इस्लाम की राजधानी बगदाद चली गई। ओमैया ख़लीफ़ाओं के 89 वर्षों के शासनकाल में युद्ध व ताकत या मर्जी से जो धर्मांतरण या राज्य विस्तार हुआ वह एक मिसाल है। जहाँ एक और मुसलमान सेना मध्य एशिया में आमू-पार (ट्रांसऑस्कियाना) और भारत में सिंध तक अपना आधिपत्य कायम कर सकी वहीं मिस्त्र व बारबैरी तक राज्य विस्तार करते और स्पेन को रौंदते हुए फ्रांस को कब्जे में कर लिया। इस दरम्यान केवल 732 ई. में हुए 'टुयर' के युद्ध में चाल्र्स की ईसाई सेना के सामने ही उसे हार का मुँह देखना पड़ा।
उपर्युक्त घटनाक्रमों से इस बात की पुष्टि होती है कि इस्लाम कोई ऐसा धर्म नहीं जो केवल सामूहिक व सामाजिक एकीकरण के लिये या अल्लाह के संदेशों के प्रचार-प्रसार के लिये नहीं जन्मा था, बल्कि एक राजनीतिक धर्म है, जहां राज-सत्ता और धर्मसत्ता साथ-साथ चलते हैं।
इस्लाम एक एकेश्वरवादी धर्म है (तौहीद)। एकेश्वरवादी धर्मों में एक ऐसे ईश्वर की कल्पना होती है जो सर्वोपरि और परम सत्ता का मालिक हो। किंतु इनमें एक ईश्वर और एक परम सत्य की धारणा इसलिये नहीं होती कि ऐसी परिकल्पना तर्क की कसौटी पर ज्यादा प्रामाणिक और विश्वसनीय लगती है बल्कि स्वयं ईश्वर बन जाने तथा उस परम सत्ता पर एकाधिकार पाने की अंतरात्मा में दबी-छुपी चाहत का यह प्रतिबिंब होता है। चूंकि एक मनुष्य के लिये स्वयं ईश्वर होने का स्वांग रचना बहुत कठिन है और इसकी सामाजिक स्वीकार्यता भी उतनी सहज और स्वाभाविक नहीं है, अत: स्वयं ईश्वर होने के बजाय उस सर्वोपरि ईश्वर की परम सत्ता का पूर्णाधिकारिक दूत (plenipotentiary) होने का चलन ही इन धर्मों में देखने को मिलता है।
धार्मिक अनुशासन का परिचालन एक ही व्यक्ति में केन्द्रित होने के कारण एकेश्वरवादी धर्मों का सामूहिक, सामाजिक और राजनैतिक जीवन मजबूत होता है। इसे बहुईश्वरवादी धर्म के बरअक्स आसानी से समझा जा सकता है। बहुईश्वरवादी धर्म में अनेक देवी-देवताओं की उपासना के कारण समाज अलग-अलग पंथों, मतों और संप्रदायों में विभक्त होता है, फलत: सामूहिक जीवन मजबूत नहीं होता। कोई ऐसी वैचारिक कड़ी नहीं होती, जो इन्हें एक सूत्र में पिरो सके। ऐसे समाज की राजनीतिक और सभ्यतामूलक पहचान टूटने के कगार पर होती है। इस्लाम के प्रादुर्भाव के पहले अरब का समाज कबीलों में बॅटा था। इन कबीलों में आपसी सौहाद्र्र का अभाव था। वे बद्दू जातियां प्राय: मूर्तिपूजक, बर्बर और घुमंतु थीं तथा जीवन यापन के संसाधनों के लिये आपस में लड़ा करती थीं। इन्हें एक सामूहिक धागे में बाँधने के लिए एक ऐसे धर्म की आवश्यकता थी जिसका ईश्वर न केवल इन धर्मों के ईश्वर से बड़ा और श्रेष्ठ हो, बल्कि कुपित व सजा देने वाला भी हो, ताकि लोग डर और भय से उपदेशों को मानने व बताये मार्ग पर चलने के लिये प्रतिबद्ध हो जायें।
कुरान के मुताबिक अल्लाह एक है, जो सर्वशक्तिमान व सर्वज्ञ तथा सभी चीजों का रचयिता है। उसने सृष्टि रची, उसने फ़रिश्ते बनाये। उसने जिन्न, शैतान (इब्लीस), पशु-पक्षी, मनुष्य तथा सभी प्रकार के जानवर, पेड़ पौधों या जिन चीजों का भी अस्तित्व (अलामीन) है उसकी रचना की। अल्लाह ने ही आदम और हौवा भी बनाये, किंतु जो दिशा-निर्देश व उपदेश उसने अपने दूतों (अनबिया) के जरिये सभी देशों में भेजा था उसकी अवज्ञा करने के कारण ही उन्हें (आदम और हौवा को) और उनकी संतानों को अल्लाह द्वारा दंडित किया गया।
कुरान के अनुसार हज़रत मोहम्मद अल्लाह के आखिरी और सबसे परिपूर्ण व श्रेष्ठ रसूल हैं जिनके उपदेश और वर्जनायें अल्लाह के उपदेश व वर्जनायें हैं, जिनका अनुशरण अपरिहार्य है। कुरान में यह भी अभिलिखित है कि नबी के द्वारा नियुक्त ख़लीफ़ाओं द्वारा दिये गये उपदेश भी अल्लाह के उपदेश समझे जायेंगे तथा उनके पालन और विरोध पर क्रमश: वैसा ही पुरस्कार ओर दंड मिलेगा जैसा पुरस्कार व दंड अल्लाह के संदेशों के पालन और विरोध पर मिलता है। इस प्रावधान से स्पष्ट है कि मोहम्मद ईश्वर के उपदेशों व संदेशों के केवल वाहक और प्रतिनिधि भर नहीं है, बल्कि ईश्वरीय परम सत्ता के पूर्णाधिकारी भी हैं। इस तथ्य की पुष्टि इस बात से होती है कि दंड और पुरस्कार के अनुभाजन के लिए कयामत के दिन नबी ही अल्लाह और बंदे के बीच परोक्षत: उपस्थित हो कर उसके कर्मों का लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हैं। कुरान के प्रावधानों के अनुसार जो अल्लाह में विश्वास करते, उसके तथा पैगम्बर के आदेशों (मुनीमुन, मुशीनुन) को मानते हैं या अल्लाह के लिए शहादत देते हैं, वे जन्नत नशीन होते हैं तथा जो अल्लाह में विश्वास नहीं करते तथा उनके या पैगम्बर संदेशों को नहीं मानते व विश्वासघात करते हैं (काफिरून, मुशरीकुन) वे नित्य दोज़ख की आग में जलते रहते है।
इस्लाम एक संश्लिष्ट-निषेधादेशात्मक (सिन्थेटिक इन्जंक्टिव) धर्म है। पहली बात तो यह कि ऐसे धर्म किसी प्रचलित धर्म या धर्मों के काट स्वरूप चलायें जाते हैं, जिसमें प्रचलित धर्मों की मान्यताओं को कुचलने और खारिज करने की मंशा होती है। इनके देवी-देवताओं को शत्रु या अनिष्टकारी शक्तियों के रुप में चिन्हित किया जाता है। निषेधादेशात्मक धर्मों की दूसरी विशेषता यह है कि इनमें सकारात्मक संदेश के साथ-साथ विषेधात्मक उपदेश भी होते हैं। स्पष्टत: इस्लाम में अल्लाह के उपदेशों में केेवल वैसे निर्देश ही नहीं है, जिनका पालन सभी स्त्री-पुरुष का धर्म हो बल्कि इनमें वैसी वर्जनायें भी शामिल हैं, जिनका उल्लंघन उतना ही अधर्म है। इस प्रकार कुरान का इस्लाम एक 'आर-पार' का धर्म है, जिसमें पुरस्कार और सजा तथा राहत और आतंक दोनों साथ-साथ चलते हैं। धर्म-विस्तार के लिये राज्य विस्तार एवं राज्य विस्तार के लिये अनवरत युद्ध जब आवश्यक शर्त हो तो धर्मावलंबिओं को युद्ध की ओर प्रवृत्त किया जाना एक असाध्य कार्य है। ऐसे में 'जिहाद' यानी धर्म युद्ध के दरम्यान शहादत की भरपायी जन्नत जैसे शाश्वत सुख के प्रावधान कारगर सिद्ध हो सकते हैं। किंतु जन्नत शहादत की क्षतिपूर्ति है। जहां जन्नत जिहाद की प्रेरणा के लिये पर्याप्त नहीं, वहाँ धर्म विमुखता के लिये दोज़ख की जिन्दगी का भय एक कारगर प्रावधान है।
धार्मिक आचरणों को सजा के भय से इस हद तक जोड़ा जाना धार्मिक असहिष्णुता का द्योतक है। इसकी गुरुता और गहराई और अनुभूति इसे हिन्दू धार्मिकता के निष्काम सेवा के प्रावधान जहां कर्मफल चिन्हित ही नहीं हैं, के बरअक्स रखने पर आसानी से हो सकती है। अन्य धर्मों के प्रति इस्लाम की सहिष्णुता का अक्सर दावा किया जाता है, किंतु यह दावा कुरान सम्मत नहीं है। स्त्री-पुरुषों को अल्लाह (जिस का कुरान में वर्णन है) के अलावा किसी दूसरे देवी-देवताओं की उपासना नहीं करनी चाहिये, यह प्रावधान केवल मुसलमानों के लिये नहीं बल्कि तमाम स्त्री-पुरुषों और समस्त मानव जाति के लिये एक समान है तथा अल्लाह के संदेशों के केन्द्रीय वर्जनाओं में से एक है।
किंतु किसी धर्म को केवल एक धार्मिक पाठ से जोड़कर नहीं देखा जा सकता। धर्म एक विकासमान संस्थान है और यह सभ्यता के विकास के साथ-साथ अपना नया रुप गढ़ता चलता है। कभी-कभी एक ऐसी भंगिमा अख़ि्तयार कर लेता है जो संबंधित धर्म की मूल भावना के ठीक विपरीत हो। अत: धर्म को उसकी समग्रता में देखना उचित होगा। 'अब्बासी' हुकूमत के प्रारंभिक दौर में उभरा सूफीमत इसका ज्वलंत उदाहरण है। सूफी विचारों का 'कुरान' के उपदेशों और वजनाओं तथा हदीस की परंपराओं से कही कोई साम्य नहीं दिखता। इस्लाम में ईश्वर के उन गुणों की प्रधानता है, जिनसे प्रेम कम, भय अधिक हो। सूफी दृष्टि रहस्यवादी जबकि इस्लाम मूलत: यथार्थवादी और प्रवृत्तिमूलक है। सूफियों ने अल्लाह को प्रेम की प्रतिमूर्ति के रूप में देखा। सूफी विश्वासों में ईश्वर को प्रेमिका मानकर, उसके सौन्दर्य की उपासना की जाती है। 'वहदात-अल-वुजूद' की अवधारणा एक ऐसी सूफी उदार अवधारणा है जो केवल ईश्वर और उसके बंदों को ही नहीं बल्कि समस्त प्राणी जगत को प्रेम संबंधों से जोडऩे की उत्कट अभिलाषा व मीमांसा से अभिप्रेत है। यह विचार सर्वेश्वरवाद के निकट है, जबकि कुरान की आत्मा उसका एकेश्वरवादी स्वरूप है।
कुरान की मान्यताओं से अलग मुद्रा रखने के बावजूद सूफी विचार इस्लाम की कमजोरी सिद्ध नहीं हुआ, बल्कि एक ताकत बनकर उभरा। यह सूफीमतों का ही प्रभाव था, कि जन-साधारण के दिलों में इस्लाम की जगह बनी तथा दूसरे धर्मावलंबी भी इसकी ओर प्रवृत्त हुए। धर्मांतरण जो प्राय: ताकत और भय से हुआ करता था, सूफियों के प्रभाव स्वरूप स्वत: स्फूर्त और सहज होने लगा। ध्यान रहे कि कुरान की आयतें यहूदियों के पंचग्रंथ यानी 'तोरा' तथा अल्लाह के स्वरूप की परिकल्पना यहूदियों के ईश्वर 'जेहोवा' का प्रतिबिंब है। कुपित व ईष्यालु तथा सजा देनेवाले ईश्वर की जैसी प्रतापी व स्वेच्छाचारी छवि 'जेहोवा' की है वही छवि अल्लाह की कुरान में है। किंतु यह अकारण नहीं कि यहूदी धर्म एक अल्पसंख्यक धर्म बन कर रह गया, वहीं इस्लाम विस्तारित होता गया। इस धर्म विस्तार में बेशक सैन्य अभियानों की भूमिका थी, किंतु दूसरी मुफीद वज़ह कुरान के कुपित अल्लाह से अलग-थलग अल्लाह की प्रेम-मोहब्बत व दोस्ताना तस्वीर थी, जो सूफियों ने रची थी। भारत में भी इस्लाम इसलिये ग्राह्य नहीं हुआ कि यहां के राजा मुसलमान थे बल्कि इसलिये कि सूफीमत वैचारिक रुप से हिन्दू धार्मिकता के समीप था। तात्पर्य है कि धार्मिक उत्कृष्टता उसकी राजनीतिक दखलअंदाजी और खून-खराबे से नहीं आँकी जा सकती, बल्कि असली पैमाना उसका उदारवादी, मानवीय और विषय-संगत (रेशॅनल) चरित्र है।
सूफीमत का उद्भव मुस्लिम मूलवाद के विपरीत प्रगतिशील विचारों का महज एक दृष्टांत है। अगर अब्बासी खलिफाओं के शासनकाल (750 ई.-1258 ई.) के दौरान इस्लाम की दुनिया पर नज़र डाले तो इस दौरान गणित, विज्ञान, चिकित्सा, न्याय-शस्त्र तथा कला-साहित्य और दार्शनिक उपलब्धियों के जो नमूने मिलेंगे, उसे जानकर हैरानी होगी। वस्तुत: इस काल को इस्लामी सभ्यता का स्वर्ण युग कहा जाता है। किंतु यह अलंकरण शरियत को तवज्ज़ह देने का नतीजा नहीं था। बल्कि यह चिंतन-मनन और ज्ञान-धर्म की आलोचना-प्रत्यालोचना को हुकूमत से मिली खुली छूट, स्वायत्तता तथा दार्शनिकों को मिले राजकीय संरक्षण और प्रोत्साहन का फलन था।
अब्बासी हुकूमत के दौरान मुस्लिम ख़लीफ़ा अलग-मा'मुन की हुकूमत (813-833) काल में ईसाई चिंतक अल-किंन्दी (पाठख इसे मुस्लिम मशहूर दार्शनिक 'इसाक अल-किंदी' न समझें) और 'अब्दुल्ला' हासमी (एक मुसलमान मोतजली चिंतक) के बीच हुआ बेबाक शास्त्रार्थ जिसे 'रिसाला' कहते हैं, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का नमूना है।
उक्त वाद-विवाद में पैगम्बर मोहम्मद पर ऐसी टिप्पणी की गई जो सीधे ईश-निंदा (ब्लासफेमी) की श्रेणी में आती है। विदित हो कि कुरान की आयत संख्या 21.107 में नबी को दया और कृपा की प्रतिमूर्त कहा गया है। अल-किंदी के द्वारा इस मान्यता को चुनौती दी गई और कहा गया कि जब नबी के द्वारा 'अबु-अफेक' की हत्या करवा दी गई तथा 'बानु कयनुका' यहूदी जन-जातियों को अपनी जमीन से निर्वासित तथा उसकी संपत्ति चुराकर सीरिया भेज दिया गया तो भला कैसे मान लिया जाये कि हजरत मोहम्मद कृपालु रसूल (पैगम्बर) हैं जो मनुष्यों पर दया करते हैं। पाकिस्तान या सउदी अरब में इस तरह की बेबाक टिप्पणी कोई आज करे और इसे सहन कर लिया जाए, कल्पना नहीं की जा सकती। किंतु तब अलव किंदी की यह टिप्पणी कभी वाद का विषय नहीं बनी। क्योंकि तब इस्लाम में अभिव्यक्ति की आजादी पराकाष्ठा पर थी तथा उसमें सच को सच कहने और स्वीकारने की बौद्धिक ताकत थी।
वस्तुत: कुरान की मान्यताओं पर केन्द्रित इस्लाम के लिये उदारता एक अजनबी शब्द है। अत: इस्लामी हुकूमत में ज्ञान-विज्ञान व धार्मिक आलोचना कि प्रति दर्शायी गई उपर्युक्त उदारता गैर-इस्लामी की कही जायेगी। किंतु यह भी तथ्यात्मक रूप से उतना ही सही है कि अब्बासी हुकूमत ने प्रबोधन तार्किकता (रैशॅनलिटी) को ज्ञान-विज्ञान के विकास के लिये जरूरी समझा और इस मामले में वे विश्व इतिहास की किसी भी सभ्यता से पीछे नहीं थे। तात्पर्य है कि एक सभ्यता के रूप में इस्लाम उड़ाने तब भर सका जब बगदाद के अब्बासी ख़लीफ़ाओं में रूढिग़त परंपराओं में कैद उदारता और प्रबोधन के परिंदे को आजाद किया तथा गैर-इसलामी ग्रीक, बाइजेंटाइन, इरान तथा भारतीय ज्ञानधारा के प्रवाह को प्रश्रय दिया।
जब मध्यकालीन योरोप अंधकार में डूबा तथा अपनी उपलब्धियों से भी अनजान बना हुआ था तब प्लेटो तथा अरस्तु की विरासत बगदाद, काहिरा और कुर्तुवा (स्पेन) में सॅवारी जा रही थी। दुनिया भर के विद्वानों की रचनाओं का अनुवाद (तर्जुमा) अरबी में शुरू हुआ। अल-किंदी (इराकी) तथा अल फराबी (कज़ाकिस्तानी) ने क्रमश: प्लेटो तथा अरस्तु पर भाष्य लिखकर ग्रीक की ज्ञान परंपरा को न केवल जीवित रखा बल्कि इस्लाम व शेष दुनिया के लिये सुलभ बनाया। नव-अफलातूनवाद (नियो प्लेटोनिज्म) वास्तव में मिस्त्र में ही पनपा। भारतीय गणितज्ञों द्वारा ईजाद की गई शून्य और दशमलव की अवधारणा मुस्लिम जगत से होता हुआ ही योरोप गया था। शरिया में नई रहस्यवादी आध्यात्मिक चिंतन धारा 'सूफीवाद' को जोडऩे व प्रतिष्ठित करने का काम प्रख्यात दार्शनिक अल गजाली (1051-1112, इरान) ने इसी दौर में किया।
वस्तुत: अब्बासियों की हुकूमत के दौरान बौद्धिक स्पंदन की जो मिसालें मिलती हैं वे तत्कालीन विश्व के किसी हिस्से में नहीं मिलती। इस संबंध में इब्न-सिनावाद तथा इब्न-रुश्दवाद से विख्यात दार्शनिक स्कूलों के नाम आज भी सम्मान से लिये जाते हैं। ये तत्कालीन योरोप के लगभग सभी विश्वविद्यालयों में पढ़ाये जाते थे। अत: योरोप के नवजागरण की चेतना विकसित करने में इन दार्शनिक स्कूलों ने बड़ी भूमिका निभाई। प्रबोधन के लिये योरोप को जिस बौद्धिक शक्ति की जरूरत थी, वह अब्बासी शासनकाल में इस्लामी ज्ञान परंपरा से बलवती हुई। जब कोई गतिमान ज्ञानधारा किसी ठहरी हुई सभ्यता से टकराती है तो इसमें आश्चर्य नहीं कि वह भी तरंगित हो आगे बढ़ती है। आश्चर्य तो तब होता है, जब कोई गतिमान सभ्यता दूसरी सोई सभ्यता को जगाकर स्वयं रूढिग़त हो, सो जाए और अपने अवसान के कारणों की तलाश नहीं करे।
किंतु ऐसा नहीं कहा जा सकता कि इस काल में इस्लामी मूलवाद जड़ से समाप्त हो गया। तब मूलवाद के प्रवत्र्तक भी हुए। इनमें 'अहमद बिन हनबल' का नाम लिया जा सकता है। ऐसे ही कुछ छिट-पुट विचारक और भी हुए जो इस्लामी मूलवाद के समर्थक थे। किंतु तब यह इस्लाम की मूलधारा नहीं थी कि इन विचारकों की पैंठ व साख बन सके। तब मुस्लिम जगत अग्रगामी था। हालांकि यह मूलवादी विचारधाराओं का ही प्रभाव कहा जायेगा जब लाल सागर के पार पूर्वी अफ्रीका तटवर्ती इलाकों से गुलामों के रूप में काले लोगों की सामूहिक तस्करी बगदाद में इस दौरान ही प्रारंभ हुई। स्थानीय तौर पर पर गुलामी प्रथा इस्लाम के पूर्व भी मौजूद थी, किंतु सामूहिक रूप से गुलाम खरीदे व बनाये जाने की विश्व इतिहास की ये पहली घटनायें प्रतीत होती हैं। इसकी पुष्टि उत्पीडऩ के ख़िलाफ 'बसरा' (इराक) में हुए गुलामों के सामूहिक विद्रोह से होती है। 'जंज विद्रोह' के नाम से जाना जानेवाला यह विद्रोह 869 ई. से 883 ई. तक 17 वर्ष चला। योरोप में गुलामी प्रथा का प्रारंभ वास्तव में अरब की ही नकल थी, जहां पुर्तगालियों के द्वारा पश्चिम अफ्रिका के तटवर्ती इलाकों से गुलामों की तस्करी प्रारंभ की गई।
यह जानकर हैरानी होगी कि अब्बसी ख़लीफाओं के स्वर्ण युग में जिन विद्वानों, चिंतकों, कलाकारों और साहित्यकारों की अहम भूमिका थी, वे कुछ अपवादों को छोड़कर अरब मूल के नहीं थे, बल्कि वे 'पर्सिया' 'स्पेन' तथा 'मिस्त्र' मूल के थे। दरअसल अरब की बद्दू जातियों, जिनमें इस्लाम पनपा था, उनकी कोई बौद्धिक पृष्ठभूमि और परंपरा नहीं थी। चूकि 'अरबी' उन दिनों इस्लामी दुनिया की राजकीय भाषा थी, अत: इस्लामी दुनिया में ज्ञान-विज्ञान अरबी भाषा में फैला। यह स्पष्ट होना चाहिये कि अरबी भाषा को यह स्थान उसकी भाषागत श्रेष्ठता के कारण नहीं था, बल्कि यह इस्लाम के फैले हुए शासन का प्रभाव था। ठीक वैसे ही जैसे अंग्रेजी अपनी औपनिवेशित ताकत तथा ताकतवर अमेरिका में बोले जाने के कारण अन्तर्राष्ट्रीय संवाद की राजकीय भाषा बनी हुई है। वास्तव में इस्लाम के स्वर्ण युग का श्रेय अगर किसी को देना उचित है तो वह उन प्रबुद्ध खलीफ़ाओं को देना होगा जिन्होंने धार्मिक दकियानूसी की जगह खुले विमर्श व स्वाधीन चिंतन को बड़े पैमाने पर प्रश्रय दिया, जो आज भी किसी मुस्लिम हुकूमत में देखने को नहीं मिलती है।
वस्तुत: 1258 ई. में मंगोल आतातायियों ने बगदाद को ऐसे तहस-नहस कर दिया कि जैसे बगदाद ख़लीफ़ाओं की ही नहीं बल्कि पुरी इस्लामी सभ्यता की रीढ़ ही टूट गई।। ज्ञान-विज्ञान के सारे वैभव एक-एक कर नष्ट होने लगे। बौद्धिक तथा आध्यात्मिक गतिविधियों का जो अनुदान गूॅजा करता था वह धीरे-धीरे शिथिल और शमित हो गया। इस दरम्यान आशा की किरण के रूप में केवल सूफी संत ही बचे थे। सूफी संतों ने अपने प्रेम और अनुराग के दर्शन से समाज को एकीकृत जरूर किये रखा जिससे इस्लाम दकियानूसी धार्मिकता से दूर रहा, किंतु किसी पतनोन्मुख सभ्यता को अनुप्राणित करने के लिये जिस तार्किकता व गतिमान बौद्धिकता आवश्यक है, वह केवल उनके भक्तिभाव से संभव नहीं था। अत: 1258 ई. के बाद इस्लाम जहां गया, वहां वह नहीं दे सका जो यह अपने सांस्कृतिक उठान के समय दूसरी सभ्यताओं को देने में सक्षम था।
13 वीं सदी में भारत आये तुर्क, अफगान या मुगल हमलेवार एक ऐसी सभ्यता के वाहक बन कर आये जो बौद्धिक ढलान की ओर थी। बेशक इसके साथ सूफीवाद भी आया। किंतु सूफी संतो और सूफीमत की अपनी सीमायें थी। उनसे उम्मीद करना कि वे तत्कालीन मूच्र्छित भारतीय चेतना में वैसी उमंगे भर दें कि कोई आमूल-चूल परिवर्तन हो जाये, यह ना-इंसाफी होगी। अत: भारत के भक्ति आंदोलन व सूफी संतों के सहमेल से एक नई समन्वयवादी धार्मिक व सांस्कृतिक चेतना जरूर जगी किंतु हजार-दो हजार सालों से मंद पड़े भारतीय समाज में नव-जागरण जैसी किसी नई चेतना का उद्भव नहीं हुआ। बल्कि नवजागरण की एक मद्धिम चेतना 19 वीं सदी में जगी, जिसे अन्य सभ्यताओं के जागरण के इतिहास को देखने के बाद, भारी मन से नवजागरण कहना पड़ता है।
इस अवधि में इस्लाम ओर भारतीय सभ्यताओं के पास अपनी विरासत के बखान के अलावा कुछ भी बचा हुआ नहीं था जो इनमें एक संयुक्त बौद्धिक चेतना व जिज्ञासा भर सके; वरना क्या कारण है कि इन आठ-नौ सौ सालों के आपसी निकटतम संबंधों के बावजूद भारत में एक भी वैसा हिन्दू विद्वान या शोधकर्ता पैदा नहीं हुआ जो इसलमी धर्म व दर्शन पर कोई वैसी आधिकारिक रचना जैसी जर्मनी के 'नॉलदेक' (Theodor Noldede) ने दी, भारतीय भाषाओं में नहीं दे सका। न ही ऐसा कोई मुसलमान भारतीय चिंतक या विद्वान हुआ जो भारतीय धर्म और संस्कृति पर 'मैक्समुलर' जैसी आधिकारिक कृति रच सके। ले-देकर भक्ति और सूफी आंदोलन ही है जिससे भारतीय संगीत, कला और साहित्य एक हद तक प्रभावित हुआ किंतु इस प्रभाव से कोई वैश्विक दृष्टिकोण नहीं उपजा जो भारतीय धार्मिकता और संस्कृति को नया मोड़ दे सके।
यह बात खटकती है कि भारतीय दर्शन की आम चर्चाओं में कभी किसी मुसलमान चिंतक या इस्लामी अवधारणा को उद्धृत नहीं किया जाता, जबकि कुछ भारतीय मुसलमान जैसे 'शेख अहमद सरहिन्दी' एवं 'शाह वलीउल्लाह' इस्लामी धार्मिक मामलों के जाने-माने विद्वान हैं। डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की भारतीय दर्शन की पुस्तक में भी कहीं सूफी परंपरा का उल्लेख तक नहीं होना अटपटा लगता है जबकि सूफी मत जब तक रहा भारत में भी लोकप्रिय बना रहा।
13 वीं शताब्दी से लेकर 18 वीं शताब्दी तक का काल इस्लाम के पतन का काल था। वह पतन आज भी थमा नहीं है। इस्लाम कई धर्म युद्ध झेलने के बाद भी उस्मानी, सफावी व मुगल शासकों की बदौलत एक विशाल मुस्लिम साम्राज्य को बचाये रखने में बेशक कामयाब रहा किंतु इसकी जो रौनक और चमक धार्मिक खुलेपन के कारण अब्बासी शासकों के स्वर्ण युग में थी, वह अब मलीन पड़ गई है। इसके विपरीत 6 वीं शताब्दी से ही मंद पड़ी योरोप की बौद्धिक विरासत को 15 वीं और 16 वीं ई. के धार्मिक सुधार और पुनर्जागरण से जो प्राणवायु मिली, उससे उसके बौद्धिक रगो में नई जान आ गई। धार्मिक दकियानूसी को आलोचना के घेरे में लेकर जड़वत भ्रांतियों को दूर किया गया। नई चेतना से अनुप्राणित हो विज्ञान, दर्शन व प्रविधिकी की नई-नई शाखायें फूटीं। विज्ञान से तकनीकी का पल्लवन हुआ जिससे औद्योगिक क्रांति हुई और अंतत: जिस विश्व पर पहले इस्लाम का अधिपत्य था वह विश्व योरोप के प्रभुत्व में आ गया।
दरअसल 13 वीं से 18 वीं शताब्दी तक इस्लाम ही नहीं बल्कि कोई ऐसी एशियाई सभ्यता भी नहीं बची थी, जो जड़ नहीं हो चुकी हो या जड़ता की ओर अग्रसर न हो। इस दरम्यान सूफी विचारधारा ही एक संजीवनी थी जिससे ख़ुराक लेकर इस्लाम की कुछ साख बची रही तथा जिसकी बदौलत इसके पतन की रफ्तार थोड़ी धीमी रही।
18 वीं सदी में सूफीमत और सूफी संत अचानक कैसे गये गायब हो गये, यह एक रहस्य ही है। शाह लतीफ को छोड़कर कोई सूफी संत बचा नहीं रहा। तदोपरांत 'आर-पार' वाले इस्लाम का दौर फिर वापस आने लगा। ख़लीफ़ा और ख़िलाफत परंपरा के हिमायती चिंतकों की बहुतायत होने लगी। मूलवाद के प्रवत्र्तको में दिल्ली के 'शाह वलीउल्लाह' (1703-1762) एवं नज्द के 'अब्दुल वहाब' का नाम प्रमुख हैं। अल:अफगानी और इसके सहयोगी इस्लामी विद्वानों द्वारा प्रचारित मुस्लिम एकता केवल कहने के लिये योरोप के प्रभुत्व व पश्चिम द्वारा पोषित अपसंस्कृति के विरुद्ध मुस्लिम जन-मानस की राजनीतिक गोलबंदी है, वास्तव में यह सरहिन्दी व अब्दुल वहाब के विचारों का क्रियान्वयन और इस्लामी मूलवाद की ओर इस बहाने बढ़ाया गया कदम है। 'मिस्त्र' के 'मुहम्मद अब्दुह' (1849-1905) जैसे मेधावी चिंतक हों या फिर भारतीय मूल के मोहम्मद इकबाल, अपनी वैचारिकता में ये सूफियों की भावधारा के घोर विरोधी और सरहिन्दी व अब्दुल वहाब की वंश परंपरा के कट्टर समर्थक माने जाते हैं।
यह अकारण नहीं है कि अपने ठाट-बाट और वैचारिकता में गैर-इस्लामी होते हुए भी सूफीवाद ने इस्लाम के संरक्षण और प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। दरअसल सूफियों के मनोभाव गैर-इस्लामी जाति-धर्मों के प्रति बेहद सहिष्णु और सद्भावपूर्ण थे। परिणामत: ख़लीफ़ाई बरजोरी कम हुई और सहमेल बढ़ा जिससे गैर-इस्लामी परिवेश में भी इस्लाम फला-फूला और खूब धर्मांतरण भी हुए।
याद रहे कि सूफीवाद कुरान समर्थित इस्लाम की धारा नहीं है। वास्तविक इस्लाम (जो कुरान में है) तो 'कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल' की तरह है। जैसे कोई मार्क्सवादी चाहे भारत, रूस, ब्रिटेन किसी देश का हो, वह 'एक समुदाय है, जिसके लिए अपनी देशीय पहचान कोई महत्व नहीं रखती, उसी प्रकार मुसलमान चाहे जिस देश का हो, वह एक 'धार्मिक समुदाय' (उम्मत) है उसका किसी देशीय या जातीय पहचान से जुडऩा कुरान सम्मत नहीं है। और फिर जैसे कम्युनिस्ट कोई भी हो सकता है चाहे जिस धर्म, जाति (ethnicity) और राष्ट्र का हो, उसी प्रकार इस्लाम किसी जाति (ethnicity) और राष्ट्र की सीमा में बंधना नहीं चाहता।'
इस्लाम एक अन्तर-जातीय एकेश्वरवादी धर्म ही नहीं बल्कि अन्तरजातीय-एकेश्वरवादी-राजनीतिक धर्म है। यह धर्म-निरपेक्ष हो जाय, यह संभव नहीं। अब चाहे आप बहुलतावाद या बहुसंस्कृतिवाद के नारे लगाकर मुस्लिम धर्मावलंबियों को अपनी राष्ट्रीय मुख्यधारा में समायोजित, अनुकूलित और एकीकृत करने के लिये जो भी उदारवादी प्रयत्न कर लें पर यह न भूलें कि बहुसंस्कृतिवाद वाली पदावली न तो कुरान सम्मत हैं और न हीं खलीफ़ा परंपरा के अनुकूल है।
वस्तुत: आइएसआइएस, अलकायदा, बोकोहरम इत्यादि इस्लामिक संगठनों द्वारा चलाई जा रही आतंकवादी गतिविधियां भले हमें सनकी व विकृत मानसिकता की देन लगें किंतु वे अपनी सारी गतिविधियों को कुरान, हदीस और ख़लीफा परंपरा का हवाला देकर जायज ठहरा देते हैं। जब तक हम यह नहीं मानते कि कुरान की सभी मान्यतायें आज प्रासंगिक नहीं, तब तक वैचारिक दृष्टि से वे गलत नहीं ठहराये जा सकते। 'बामिया' में बुद्ध की मूर्तियों के तोड़े जाने की वारदातों की पड़ताल अगर इस्लामी परंपरा में की जाय तो यह कही से भी अनुचित नहीं दिखती। स्वयं हज़रत मोहम्मद के द्वारा मक्का में 'हुबल' देवी-देवताओं की सैकड़ों मूर्तियों को तोड़वा कर इनके पूजा स्थल को अपने पवित्र धार्मिक स्थल में तब्दील कर दिया गया। अगर ये कार्रवाईयां अधार्मिक नहीं तो हजरत के अनुयायियों द्वारा जहां-तहां मूर्तियों व सांस्कृतिक धरोहरों को क्षतिग्रस्त कर देना कैसे अधार्मिक और अनुचित है?
काफिरों को सजा देने की बातें तो कुरान में भी मौजूद हैं किंतु उक्त संगठनों द्वारा चलाया जानेवाला यह एक नया मूलवाद है, जहां इस्लाम अनुयायियों को भी वही सजा मिलती है जो कुरान में काफिरों के लिये मुकर्रर है। 'हदीस' में कई स्थानों पर अभिलिखित है कि जब तक सब मान नहीं लेते कि दुनिया में अल्लाह के सिवा कोई दूसरा ईश्वर तथा मोहम्मद के सिवा कोई दूसरा रसूल नहीं, तब तक 'जिहाद' चलता रहेगा। कुरान में जब यह प्रावधान रहेगा तब भला मुसलमान कैसे कहेंगे कि धार्मिक सहिष्णुता कुरान सम्मत है? उसी प्रकार नबी ने मुसलमानों पर कभी कहर नहीं बरसाया और न ही इसकी उन्होंने इसकी इजाजत दी होगी फिर उपर्युक्त इस्लामिक संगठन किस आधार पर अपनी ही तरह के इस्लाम अनुयायियों को भी गोलियों से छलनी करने से परहेज नहीं करते।
सवाल यह नहीं कि ये गतिविधियां कुरान सम्मत हैं या कुरान विरोधी, सवाल यह है कि क्या आज भी मुस्लिम समाज और सभ्यता वैसी ही है जो 609 ई. में थी जिसे वैसे ही 'आर-पार' वाले एक धर्म और धार्मिकता की आवश्यकता हो? सवाल यह भी है कि अगर हजरत मोहम्मद ने कई-कई विवाह किये, कई-कई परिचारिकायें को रखा तथा कई-कई स्त्रियों को गुलाम बनाया तो क्या इस परिघटना को इसके ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में देखा जाय या उसे पत्थर की लकीर मानकर उसे यूँ ही दोहरायी जाये?
तात्पर्य है कि एक धर्म-विशेष बेशक अपने विश्वासों में दकियानूसी और कट्टरपंथी हो सकता है। उसके धर्म ग्रंथों में दूसरे धर्मों के प्रति असहिष्णु और निंदा भाव हो यह भी संभव है। ईश निंदक का सिर कलम या कठोर सजा देने की हिदायतें भी हो सकती है किंतु न तो आँखें मूदकर इनका अनुपालन उचित है और न ही इसको आधार बनाकर उस धर्म को तथा उसके अनुयायियों की भत्र्सना वांछनीय है। बेशक कोई प्रावधान विशेष ऐतिहासिक काल व संदर्भ में कभी प्रासंगिक रहा हो, किंतु वह आज भी प्रासंगिक है अथवा नहीं, उसे तर्क की कसौटी पर कसा जाना उचित है। किंतु यह कार्य अगर उस धर्म के अनुयायी करें तो और बेहतर होगा।
सवाल है कि क्या कुरान सम्मत नहीं होने के कारण अब्बासी खलीफ़ाओं या इस लिहाजन किसी मुसलमान की धार्मिक उदारता व कुरान की आलोचना अधार्मिक कहलायेगी अथवा वे मुसलमान नहीं कहलायेंगे? उत्तर होगा, नहीं। क्योंकि इस्लाम केवल कुरान में दर्ज चंद रूढिय़ों विश्वासों और कर्मकांडों का संकलन भर नहीं है, बल्कि वह अन्य सभ्यताओं की तरह एक सभ्यता है, जिसकी एक समृद्ध विरासत है जो उसके कला, संगीत, नृत्य, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, न्याय इत्यादि बौद्धिक संस्थानों को सूत्रबद्ध करती है। एक ऐसा सूत्र जो दूसरे धर्मों में व्याप्त सूत्रों से बिल्कुल अलग-थलग और अनोखा होता है।
धर्म का प्रभा-मंडल इतना व्यापक है कि व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन का कोई आयाम इससे अछूता नहीं हो सकता। चाहे हमारा मिथक संसार, पर्व-त्यौहार, तीर्थ, स्मृति चिन्ह, मेले-ठेले व उत्सव हो या फिर हर कदमों पर प्रेरणा और सही राह दिखानेवाले अवतार पुरुष, संतवचन, प्रार्थनायें या नैतिक मूल्य हों, इन सबका उद्गम हमारी धार्मिक-जाति मान्यतायें हैं। व्यक्ति को उसके संसार (आत्मिक-बाह्य, जड़-चेतन, दृश्य-अदृश्य सब) से सुसंगत व अर्थपूर्ण ढंग से जोडऩे वाली कड़ी धर्म है। वस्तुत: धर्म वह ताना-बाना है जिस पर सभ्यता की विराट चादर फैली है और इसे दूसरी सभ्यताओं से अलग पहचान देती है।
भले हम मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारा नहीं जायें, भले अपने को नास्तिक या धर्म निरपेक्ष कह लें किंतु एक सभ्यता और संस्कृति के रूप में हमारी पहचान हमारे धर्म से ही होगी। रक्त में जो भूमिका डीएनए की है वहीं भूमिका हमारे सांस्कृतिक वजूद में धर्म की है। हम जन्म देनेवाले पिता नहीं बदल सकते भले पिता बुरें हों। उनका अस्तित्व हमारे अस्तित्व से सदैव चिपका रहेगा। ठीक उसी प्रकार तमाम रूढिय़ों, अपसिद्धान्तों व बुराइयों के बावजूद हम अपनी धार्मिक पहचान से अलग नहीं हो सकते, बेशक इस पहचान को बनाये रखते हुए इसे सजाने, सँवारने व उम्दा बनाने में हमारी भूमिका हो सकती है।
इस संबंध में टी.एस.एलियट की इस उद्धृत उक्ति से सहमत हुआ जा सकता है कि: 'एक योरोपीय व्यक्ति को ईसाई धर्म व संस्कृति भले मिथ्या लगे किंतु उसकी सभी रचनायें व कृतियां ईसाई धर्म की विरासत से ही ऊपजी रचना व कृति कही जायेंगी और अपनी अर्थवत्ता के लिये हमें उस संस्कृति (ईसाई) का ही मोहताज होना पड़ेगा। वॉलतेयर और नित्से केवल ईसाई संस्कृति में पैदा हो सकते थे। मैं नहीं समझता कि योरोपीय संस्कृति ईसाई आस्था के लुप्त होने के बाद बची रहेगी। ...ईसाइयत के विलुप्त होते ही हमारी पूरी संस्कृति ही विलुप्त हो जायेगी।'
रूमी के साहित्य को अश्लील शिक्षा शास्त्र कहना अथवा ग़ालिब और शराब पीने तथा अपने घर में नियमित जुआ आयोजन के कारण उनकी गतिविधियों को अधार्मिक व गैर-इस्लामी करार कर देना सहज है किंतु रूमी व ग़ालिब को पैदा करना इस्लाम के अलावा किसी दूसरी सभ्यता की कूबत नहीं।
इस्लाम धर्म का राजनैतिक स्वभाव जो मूलत: उग्र और कट्टर था, कालांतर में एक ओर सूफी तथा शिया इमामों के प्रभाव और दूसरी ओर इस्लाम के मूलवादी केन्द्रीय विमर्शों (कलाम) से हटकर सोचने वाले विचारकों के प्रभाव से नरम पड़ गया है। अत: अगर इस्लाम को अपने स्वर्ण युग वाली विरासत पुन: प्रतिष्ठित करनी है तथा एक धर्म और संस्कृति के रूप में सजीव बने रहना है तो धर्म के नाम पर अपनाई जा रही रूढि़ओं व बंदिशों को संशोधित व संवर्द्धित करना होगा।


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