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अक्टूबर 2015

मुर्दा

राजेन्द्र चंद्रकांत राय

आज फिर वही हुआ।
आधी रात का वक़्त था कि दरवाज़े पर दस्तक हुई। पूरा शरीर थरथरा गया। भय की एक लहर छाती से उत्पन्न होकर पेट, जांघों और पैरों से होती हुई बाहर निकली और पूरे कमरे में फैल गयी। मैं उसे याद करना नहीं चाहता। मैं उसे भूल जाना चाहता हूँ। अपनी यादों के दायरे से उसे निकाल फेंकने की कोशिशों में हर दम जुटा रहता हूँ। कुछ-कुछ दिनों के अंतराल से लगता था कि मैं अपनी कोशिशों में सफल हो गया हूँ, मगर फिर कोई न कोई एक ऐसी रात आती जब दरवाज़ों पर फिर से वही दस्तक सुनायी दे जाती।
खास बात यह है कि वह दस्तक सिर्फ एक बार ही होती। सिर्फ मेरे कान ही उसे सुनते। बस। घर के और लोग उससे नावाकि$फ ही थे। जब पहली बार वह दस्तक हुई थी, तो अचरज ने मुझे अपनी गिरफ्त में ले लिया था। मैं सोचने लगा था कि रात के नौ बजते ही, लोहे के गेट पर तो ताला डाल दिया जाता है। उसके बाद पोर्च में कॉल-बेल लगी है, आने वाला उसे बजा सकता है। बजाता ही है। फिर कहीं जाकर, पच्चीस-तीस कदम के फासले पर, हमारे घर का यह दरवाज़ा है। तब बंद गेट को फलांगकर, बिना कॉल-बेल बजाये, सीधे दरवाजे पर आकर आधी रात के वक़्त यह कौन है जो इस तरह दस्तक देता है। चोरों की तरह कोई आता था और चोरी करने की बजाय दस्तक देता था।
जब दस्तक हुई, सब सो रहे थे। बेख़बर। गहरी नींद। पूरा मुहल्ला। पूरा शहर। कहीं कोई आवाज़ न थी। मैं उठकर दरवाज़े तक गया। दस्तक के बारे में, अपने पर ही यकींन न होने के कारण, सरगोशियों में ही पूछा था- कौन...? पर दरवाज़े के उस तरफ से, मेरे सवाल का उत्तर देने कोई भी मौजूद न था। कोई आवाज़ नआयी थी। मैंने लोहे के दरवाज़े के पार, जाली में से अंधेरे में देखने की कोशिश भी की थी, पर कुछ भी दिखायी न दिया था।
मेरे अंदर से किसी ने कहा कि हो सकता है कि किसी ने दस्तक दी ही न हो। भ्रम हो। कानों ने कहा, दस्तक की आवाज़ को साफ-साफ सुना था, फिर भ्रम कैसा? भ्रम मिटाने के लिये मैंने दरवाज़ा खोलकर, बाहर झांखकर भी देखा था। वहां नीम-उजाले और भांय-भांय के सिवा कुछ न था। दरवाज़े लगा दिये। आकर लेट गया। पर नींद उड़ चुकी थी। वह दस्तक, दरवाज़े से चलकर अब मेरे दिल तक पहुंच गयी थी और धड़कन की जगह पर बजने लगी थी- थप्-थप्। थप्-थप्।
थप्-थप् चलती रही। शरीर में लहरें सी उठती रहीं। न जाने कब नींद लग गयी। सबेरे देर से आंखें खुलीं। अब रात वाली दस्तक यादों से जा चुकी थी। पर जब दिन के वक़्त दरवाज़ा खोलकर बाहर जाने के लिये निकला, ताकि अख़बार ले आऊं, तो एक कौंध की तरह वह मेरे कानों में फिर गूंज गयी। एक किलक की तरह। मैंने रात की बातों को याद करते हुए दरवाज़े के पार, ज़मीन पर निशानों को खोजने की कोशिश की। तर्क यह पैदा हुआ कि दस्तक हुई थी, तो कोई आया भी होगा और कोई आया होगा तो उसके पैरों के निशान भी होंगे ही। पर निशान हों तो कहां हों, बाहर का फर्श भी कॉंक्रीट का ही था। वहां कुछ न था। दूर-दूर तक कुछ नहीं।
बाद में हुआ यह कि हर आठ-दस दिनों में वही सब दोहराया जाने लगा। आधी रात होती और वही दस्तक सुनायी पड़ती। थप्-थप्। सिर्फ और सिर्फ मुझे सुनाई देती। मैं कभी दरवाज़े तक जाता हूं और कभी नहीं जाता। अनसुनी कर देता हूँ। हालांकि अनसुनी कर देने से कुछ भी हल नहीं निकलता। कोई आता है, दस्तक देता है, पर दिखाई नहीं देता। दरवाज़ा खुलवाना तो चाहता है, पर मिलना नहीं चाहता, क्यों? मैं खोजता हूं। मिलना भी चाहता हूं, पर मिल नहीं पाता। वह कौन है, यह तक नहीं जानता।
नींद हराम हो गयी है। रातों से डरने लगा हूं। डर वह नहीं है कि कोई मुझे मार डालेगा, बल्कि डर यह कि वह है कौन, जो मुझसे मिलना चाहता है, पर मिलता नहीं। अजब हरकत है। आँख-मिचौली खेलने से क्या तुक है?
दस्तकों से निज़ात पहले ही न थी, कुछ दिनों के बाद एक चीज और बढ़ गयी। वह यह कि मेरे मोबाईल पर मिस्डकॉल आती, पर करने वाले का कोई नंबर न होता। मैं घंटों खोजता रहता, पर नंबर खोज नहीं पाता। पलट कर घंटी करता, पर घंटी न जाती। मिस्डकॉल का कोई वक़्त न था। दो-चार दिनों के अंतर से, किसी भी समय आ जाती। मेरी बेचैनी और बढ़ गयी। मैं आपसे कितना भी कहूं कि मैं डरा नहीं, पर यह पूरा सच नहीं है। हर समय मन में यही सवाल उठते रहते कि कौन है, जो मेरी तलाश में इस तरह से लगा हुआ है? कौन है, जो मुझे इस डरावने तरीके से खोज रहा है? और क्या खोज रहा है? अगर कोई मेरे साथ शरारत कर रहा था, तो उसके खिलाफ मेरे पास कोई सबूत भी न था कि मैं उसके खिलाफ कोई कार्यवाही करूं।
अब मुझे परेशान करने को दो आवाजें हो गयीं।
थप्-थप्।
टिडि़ग।
कुछ महीनों तक यही चलता रहा। पर ऐसा लगातार चलने से अंदर का भय भी जरा कम हुआ। अपने और इस तलाश करने वाले अनजाने के साथ, मैंने इसे एक किस्म का खेल ही मान लिया। इसी में कहानी बुनने लगा, लेखक हूं न इसलिये। अब डर न था, खेल था। कहानी थी। जो धीरे-धीरे खोज में बदलती गयी। मेरी तरफ से होने वाली खोज में। जो मुझे खोज रहा था, मैं उसकी ही खोज में लग गया।
अब दोनों ओर से खोज चलने लगी। और मजे की बात देखिये कि कोई किसी को नहीं मिल रहा था। मुझे इस खेल में मजा आने लगा। कहें तो रस। मैं रास्तों पर चलते हुए शरारत से गाता- जरा सामने तो आ ओ छलिये, छुप-छुप छलने में क्या राज है..? खोज में मैंने राग मिला दी। तलाश में कौतुहल डाल दिया। थोड़ी मसखरी भी।
तभी एक तीसरी बात हो गयी। डाक से एक लिफाफा आया। सो भी खाली। लिफाफे पर मेरा ही पता था। पिनकोड सहित। पर अंदर कुछ न था। मैंने उसे अच्छी तरह खंगाला। उसका मुंह खोलकर, फूंक मारकर झराया भी, पर अंदर से कुछ भी न निकला। फिर मैंने लिफाफे का बारीकी से मुआयना किया। वह चार बाई छह का सफेद लिफाफा था। पता मेरी मातृभाषा में लिखा था। लिखावट जरा टेढ़ी-मेढ़ी थी। बेतरतीब सी, जैसे किसी बच्चे ने लिखी हो। हरी रोशनाई का इस्तेमाल किया गया था। कहीं गहरा रंग उछला था और कहीं थोड़ा फीका। मैंने लिफाफे को सूंघा भी। मुख्य रूप से तो कागज की ही गंध थी। जहां पता लिखा हुआ था, वहां से ज़रूर एक अजब किस्म की गंध आ रही थी। अजानी सी। मैं उसे याद करने से खपता रहा, पर कुछ याद न आया। आखिर में हाथ कुछ न लगा। सारी जासूसी धरी रह गयी।
अगर कह सकें तो इसे एक उपलब्धि कहा जा सकता था कि अब मेरे पास एक सबूत भी आ गया था। यानी कि यह सब मेरी खामखयाली न थी। जो था, वह घट रहा था। साफ-साफ। पर उसमें भी कमी यह थी कि उस लिफाफे पर भेजने वाले का नाम-पता न था। अगर मैं इसे लौटा दूं या लेने से ही इंकार कर दूं तो...?
पोस्टमेन ने बताया कि तब उसे डी एल ओ भेज दिया जायेगा। डेड लेटर ऑफिस। मरी हुई चिट्ठियों में शामिल नहीं होने दे सकता था? आखिर वह कहीं से चलकर मेरे पास आया था। किसी ने उसे भेजा था। कोई उन्हें भेज रहा था। जो भेज रहा था, वह मेरा पता जानता है, फिर मैं उसके भेजे लिफाफे को, मरे हुओं में शामिल होने कैसे देता? वे मेरे पास रहें। जिंदा रहें।
अब उनकी तादाद तीन हो गयी थी- दस्तक, मिस्डकॉल और लिफाफा। उनके आने का कोई क्रम न था। क्रम उलटता-पलटता रहता।
एक बेतरतीबी में तरतीब सी थी।
मैं सड़कों पर चलते हुए, कॉफी-हाऊस में कॉफी पीते हुए, सभागारों में चल रहे कार्यक्रमों में शिरकत करते हुए और थियेटर में ड्रामा देखते हुए भी, अपनी खोजबीन से बाज नहीं आया। उसे जारी रखे रहा। घरों दूकानों और पड़ोस तक को न छोड़ा। आकाश, बादलों और हवाओं की भी शिनाख्त की। फिल्मों, उपन्यासों और कविताओं तक सतर्कता फैला दी।
पर तब भी कहीं कुछ न मिला। एक सुराग तक नहीं।
दस्तकों से कान भर गये, मिस्डकालों से इनबॉक्स और लिफाफों से दराजें।
थकने लगा तो जी आध्यात्मिक होने के लिये कुलबुलाने लगा। थकान और पराजय अध्यात्म में ले जाते हैं। आशंका हुई कि हो सकता है, जवाब वहां हों। शायद कोई संकेत या इशारा ही मिल जाये। ग्रंथों की तलाश की। मजहबी चीजें पढ़ीं। पड़ोसी मजहबों में भी गया। पवित्र किताबों और वाणियों में खोया रहा। खोजता रहा। रमता रहा। निष्फल रहा।
ऐसी ही उहापोह वाली जिंदगी जारी थी। एक दिन आधी रात को थियेटर देखकर लौट रहा था। सर्दियों की रात थी। दस-ग्यारह बजे ही सब सून-सपाट हो गया था। कोहरे की एक झीनी चादर झल-झल करने लगी थी। स्ट्रीट लाईटें मद्धम पडऩे लगी थीं। उनका तेज बुझने लगा था। पुलिसवालों की गश्त उनींदी पडऩे लगी थी। सायरन वाली गाडिय़ों के पहिये ठंडे पड़ गये थे। मांगकर खाने वाले और नींद को खींचकर, अपनी आंखों में भरकर सोने वाले, फुटपाथ पर सिकुड़ गये थे।
तभी मेरे पीछे से वाहनों के आने की ध्वनि उत्पन्न हुई। मैं जरा सा किनारे हो गया। फिर वहां गों-ओं-ओं की कर्कश आवाजों का तूफान बरपा हो गया। मैं ठिठक कर पीछे देखने लगा। वाहनों का काफिला अपनी पूरी रफ्तार के साथ भागा चला आ रहा था। इतने विशाल आकार वाले वाहन मैंने पहले कभी न देखे थे। उनकी हेडलाईट्स में खूंखारपन लपलपा रहा था। रफ्तार में पागलपन था। भागम-भाग थी। धमाचौकड़ी थी। दर्प था। हुंकार थी। मिटा डालने की सुपारी थी। आतंक था। रात, हवा, सर्दी और प्रत्येक बाधा को चीरकर निकल जाने की अंधी आकांक्षा थी।
मैं और किनारे हो गया, ताकि वे निकल जायें। मैं उनकी बाधा न बनूं। वे चले आ रहे थे, नदी की बाढ़ की तरह। बाढ़ में सम्मोहन होता है, जो अपनी तरफ खींचता है। मैं उस तरफ खिंचने लगा। मुझे वहां खड़े नहीं रहना था, पर मैं खड़ा था। खतरे को भांप रहा था, किंतु उससे बचने के उपाय, मेरी जद से बाहर होते जा रहे थे।
अपने विकराल और भयानक आकारों के साथ वे मेरे सामने से होकर गुजरने लगे। उन सबमें ऊपर तक कुछ भरा हुआ था। ठसाठस। क्षमता से ज्यादा। वह क्या था, अंधेरे ने छिपा रखा था। उन वाहनों के पेट से तरल पदार्थ टपक रहा था और ठंडी सड़क को गीला कर रहा था। वे मेरे वजूद को नकारते हुए गुजरते रहे। मैं उन्हें गुजरते हुए देखता रहा। उनके पीछे कोई न कोई सूक्ति लिखी हुई थी। नमामि देवि नर्मदे। नर्मदे हर। जल ही जीवन है। वसुंधरा की रक्षा में ही हमारी रक्षा है।
सूक्तियां पढ़कर मैं चेतना के उच्चतम स्तर में चला गया। मेरी सजगता अहो-अहो होने लगी। मैं इसी कारण से थोड़ा गाफिल भी हो गया। वे गुजरते रहे। एक, दो, तीन, चार, दस बीस...। मैं गिनता रहा। गिनती असहाय होने लगी। आंकड़े फडफ़ड़ाने लगे। पर वे गुजरते रहे। उन्हें किसी की परवाह न थी।
आखिरी वाहन काफिले से जरा पीछे छूट गया था। काफिले में शामिल होने के लिये भागा चला आ रहा था। जैसे पीछे छूटकर डर गया हो। किसी बच्चे की तरह। और अब टेढ़ी-मेढ़ी, मगर जी तोड़ रफ्तार से चला आ रहा था।
वह मेरे करीब आ पहुंचा।
मैं तैयारी में था कि वह भी निकल जाये, तो मैं बढूं।
वह मेरी ही तरफ बढ़ा।
मैं और किनारे सरक गया।
वह और किनारे आया।
मैं फुटपाथ के दूसरे सिरे से चिपक गया।
वह फुटपाथ पर चढ़ आया।
मेरे मुंह से निकला-अरे...फुटपाथ पर...?
तब तक उसने मुझे अपने लपेटे में ले लिया था। पहले उसकी रोशनी ने मुझे अंधा किया। फिर उसके जबड़े ने ठोकर मारी। पहियों ने दबोच लिया। इस पूरी कार्यवाही के दौरान उसका संतुलन भी बिगड़ा। वह दीवार से टकराकर, कुल्हांटी खाता हुआ, मेरे ऊपर उलट गया। कोई भुरभुरी और नम चीज मेरे ऊपर बरसने लगी। मेरी चीत्कारें उसके नीचे दब गयी।
फिर मैं मर गया।
शहर को इस हादसे के बारे में दूसरे दिन पता चला। सबेरे के सूरज ने वाकिफ कराया। सूचनाएं दौड़ीं। क्रेनें आयीं। उसे मेरे ऊपर से हटाया गया। उसके नीचे रेत और पानी पाया गया। रेत के नीचे एक लाश मिली। किसी ने नहीं पहचाना कि वह कौन शख्स है? ड्राइवर फरार हो चुका था।
लोगों ने अफसोस किया- अरे, कोई दबकर मर गया...।
दरोगा ने लाश का मुआइना किया। उसे लाश के एक हाथ में लिफाफा मिला। उस पर हरी रोशनाई से लिखा था- राजेन्द्र चंद्रकांत राय, 'अंकुर'1234, जेपीनगर, अधारताल, जबलपुर- 482004।
लिफाफे में एक पत्ती रखी थी, हरे रंग की। वह चक्रमर्द (चकौड़ा) कही जाने वाली वनस्पति थी। दूसरे हाथ में मोबाइल मिला। उसमें एक मिस्डकॉल था और स्क्रीन पर, मरी हुई पीली तितली चिपकी हुई थी। लाश का पोस्टमार्टम हुआ तो दिल के पास थप्-थप् चिपकी थी और गौरैया का एक डैना वहां पर फंसा हुआ था। धमनियों में खून की जगह पानी बह रहा था। नर्मदा का।


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