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अक्टूबर 2015

प्रभात की कविताएं

प्रभात


लोक गायक

सतही तौर पर उसे किसानों और श्रमिकों का कवि कह सकते हैं
उनके जीवन से जो शब्द बनते हैं
प्राय: उन्हीं को काम में लेता है वह कविता रचने के लिए
धूल की तरह साधारण शब्द
ओस की तरह चमकने लगते हैं उसकी कविता में आने पर
बीजों की तरह अंकुआने लगते हैं गाए जाने पर

उसका विशाल वाद्य घेरा
मृत जानवर की खाल से बनता है
जब वह गूँजता है
पास ही जंगलों में खड़े भैंसे
त्वचा पर स्पर्श का अनुभव करते हैं

खेतों की मेड़ पर खड़े धवल फूलों वाले कांस
कांसों की जड़ों से सटकर बैठे बैल
इधर उधर खड़े तमाम छोटे बड़े पेड़ और झाड़
छोटे और बड़े क़द के पहाड़
कान देते हैं उसकी आवाज पर

यह आवाज जिसमें आँधियाँ हैं
आँधियों की नहीं है
यह आवाज जिसमें बारिशें हैं
बारिशों की नहीं है
पवन झकोरों और बारिश की बौछारों सी
काल से टकराती आती यह आदिम आवाज
पृथ्वी पर आदमी की है

अर्द्धरात्रि में जब वह उठाता है कोई गीत
रात के मायने बदल देता है
अगम अँधेरों में गरजते समुद्रों के मायने बदल देता है
अनादि सृष्टि में चमकते नक्षत्रों के मायने बदल देता है
वह हमें बाहर के भेद देता है
वह हमारे भीतर के भेद देता है
चाहे तो शब्द से
चाहे तो दृष्टि से
चाहे तो हाथ के इंगित से पुकार लेता है
सभा में सत्य को उतार देता है

चाँदनी में बैठे ग्रामीण अलाव तापते हुए सुनते हैं उसे
अलावों के चहुँओर दिपदिप चेहरों पर
रह रह खेलती है आदिम मुस्कान

समाज
साल भर पहले ही जिसने हत्या की है
अभी वह दूसरी क्षुद्रताओं में लिप्त है
समाज में उसके उठने-बैठने की जगह
सीमित नहीं हुई है

औरतों में वह अभी भी
उनका देवर है
जेठ है
पुरूषों में वह अभी भी
उनका भाई है
भतीजा है

जिनकी बेटी को उसने मार दिया
वे अब भी उसे अपना जँवाई मानते हैं
वार-त्यौहार पर बुलाते हैं
विदा में पीले पल्ले की धोती उढ़ाते हैं

ससुर कहते हैं -
होनहार होना था सो हो गया
यों
मन में मलाल मत लाना
सालियाँ कहती हैं- जीजाजी फिर आना

वह जिसकी हत्या उसने कर दी थी
भात-शादियों में अभी भी उसके कपड़े आते हैं
जिन्हें वह ओढ़ती है जो उसकी जगह आयी है
इस तरह वह दो-दो बेस ओढ़ती है
और उसके लिए भी नई-पुरानी दोनों रिश्तेदारियों से
बाजार में चल रही नयी से नयी काट के
धोती-कुर्ता रूमाल पहुँचाए जाते हैं

लोक देवता
गाँव खेत जंगल से दूर निर्जन में
मिट्टी से निकले किसी अनगढ़ भाटे में
धूप धूपाड़ों और अंगारों की राख से अटे पटे
गोबर से लीपे चबूतरे पर
बैठे रहते हैं लोक देवता
नीम के फूल उनके सिर पर झरते हैं
बबूल के फूल उनके सिर पर झरते हैं
अपने होने को लेकर इतने उदासीन
कि नहीं पधरा होता उन्हें पांच आदमियों
और बड़ी बूढिय़ों ने अपने नदी के जल में धोये हाथों से
तो वे मिट्टी में दबे भी उतना ही खुश रहते
दूसरे तमाम अनगढ़ भाटों के साथ मिट्टी में लिपटे

गाय का पेट दुखने का दुख लेकर आते हैं लोग उनके स्थान पर
नवजातों को लेकर आकर आती हैं नई माँए
घुटने का दर्द लेकर आती हैं प्रौढ़ाएँ

कुछ लोग शिकायतें भी लेकर आते हैं
कि भैंस ने दूध देना बंद कर दिया है
कि भैंस दूध तो देती है लेकिन वह फट जाता है
कि ऊँट का आज तीसरे दिन भी कहीं अता पता नहीं है

कुछ लोग वहीं बैठकर उलाहना देते हैं
तेरे यहाँ बैठे रहने का क्या फायदा है
औरत के पेट में कोई आराम नहीं है
कुछ लोग धमकी देते हैं
अगर लड़के का बिच्छू अब के अब नहीं उतरा तो
तू तेरे और हम हमारे

ऋतुएँ बदलती है, फसलें लहलहाती हैं
लोग नवान्न लेकर आते हैं
देवता को मनाते हैं
बैठकर सिर जुड़ाकर
गोठ गाते हैं
देवता के सिर पर गिलहरियाँ खेलती हैं
कान में तोते बोलते हैं
कबूतर सारा नवान्न चुग जाते हैं
दूर कहीं घाटियों में घोड़े हिनहिनाते हैं

लोग कहते हैं-
देखो देखो सफेद बुर्राक धोती कुर्ते में
घोड़े पर सवार, एड़ लगाता
लम्बे काले केश लहराता वह आ रहा है

गड़रिए
वे शर्मीले होते हैं
इतने गरब गुमान रहित
कि कोई उनकी तरफ देखता है
तो वे दूसरी तरफ देखने लगते हैं
गर्दन घुमा लेते हैं, आँखें झुका लेते हैं
जमीन में देखने लगते हैं या आसमान में
वे निर्जन में रहते हैं
इंसानों की संगत के वे उतने अभ्यस्त नहीं है जितना प्रकृति की संगत के
उनका सारा जीवन रुंखों को देखने में गुजरता है
रूंखों पर फूटते गोंद और खिलते फूलों को देखने में
और सुनने में
ये हवा के घासों में चलने की आवाज है
ये हवा के पेड़ों में चलने की आवाज है

गड़रिए
वे शर्मीले होते हैं
वे झाड़ों के सामने खुलते हैं
वे झिट्टियों के लाल पीले बेरों से बतियाते हैं
वे बीहड़ के गड्ढों में पानी पीती हुई अपनी शक्ल से बतियाते है

वे आकाश में पैदल पैदल जा रही बारिश के पीछे पीछे
दूर तक जाते हैं अपने रेवड़ सहित
वे आकाश से पैदल पैदल आ रहे जाड़े के पीछे पीछे
वापस आते हैं अपने रेवड़ सहित

नक्षत्र उनकी भेड़ों को आकाशगंगा कहते हैं
आकाश कहता है-
गड़रिए
चन्द्रमा हैं पृथ्वी पर चलते हुए


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