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जून-जुलाई 2015

बीस युवा असमिया कवियों की कविताएं

अनुवाद - दिनकर कुमार

कविताएं/पूर्वोत्तर




परिवार
कनकचंद्र राय

मेरे पिता के पास था बर्फ का एक घर
जिसके अंदर गणित के सिवा
वर्जित थी कविता

मेरी मां थी उस घर की छाया
जहां पलती थी
मेरी अनगिनत  इच्छाएं

मेरी बहन थी दियासलाई का एक डिब्बा
जिसे मैं दोस्त बनाने नहीं देता था
असमय उभरने वाले फागुन से
मुझे डर लगता था
कहीं इस तरह झुलस न जाए
मेरी बहन

मेरी बहन के सीने की विमूर्त चिंगारी
क्रमश: सहन करने लायक नहीं रह गई थी
और उस दिन सपने के बाजार में
मेरे दूर जाते ही
वह तेजी से जल उठी
और मेरे पिता बन गए पानी
मेरी मां उस पानी की छाया
और मैं उस छाया की
भटकी हुई चीख

देवकन्या-शोककन्या
हिमालय बोरा

आधी रात जोर-जोर से
कौन पुकारता है मुझे

कौन भला बैठा रहता है
बदन पर अंधेरा लपेटकर
कोरस के नीचे

देव कन्या
देव कन्या

कलेजे को छूटकर देखा
फटी सांस के साथ लपेट लिया

परिव्यक्त मार्ग की छाया-रोशनी ने
सीने को दबोच लिया है

दूर वहां टप-टप
गिर रहे हैं किसके आंसू

देवकन्या के
देवकन्या-शोक कन्या

और देव कन्या ने बिछा दी
एक शोक की चादर
सीने में एक दर्द लेकर
मैं हो गया देव कन्या का

देवकन्या
देवकन्या

पिता, तुम क्रमश: गुम होते जा रहे हो
अपराजिता बूढ़ा गोहाईं

ओस की बूंदें गिर रही हैं
सूखे पत्ते के सीने में

ओ पिता
तुम गुम हो रहे हो समय के सीने में
तुम्हारी बेटी तुम्हारे पीछे-पीछे डग बढ़ाती हुई

मेरे बदन पर मत लगाना उड़द-हल्दी का लेप
बीमार मां को छोड़ नहीं सकती
कुछ भी छोड़ नहीं सकती
माया की पृथ्वी
बाड़ी के कोने में भेदाईलता उगी है
तुम कांपते हाथों से पिला नहीं पाओगे मां को उसका रस
बेटी के दिल में एक मंजूषा है
पत्थर की ओ पिता
पत्थर की मंजूषा

बारिश में भीग रही है तुम्हारी बेटी
आंसू की बारिश
मैंने कामना के महल को तोड़ दिया है
नष्ट कर दिया है स्वप्न के स्तंभ को

पिछली रात भी तुम बड़बड़ा रहे थे
तुम गुम हो रहे हो समय के सीने में
तुम्हारे सीने में तुम्हारी बेटी
तुम गुम हो रहे हो समय के सीने में
तुम्हारे सीने में तुम्हारी बेटी
तुम गुम हो रहे हो समय के सीने में
तुम्हारी बेटी तुम्हारे पीछे-पीछे डग बढ़ाती हुई

शनि पूजा
प्रांजल कुमार दास

अंधेरे से घिरी जीवन की राह की
अनजानी दूरी पर एक कुंडली का विलाप

आंखों की पुतलियों में रोशनी खोती है
चेहरे स्याह हो जाते हैं
होठों पर कौंधता है विलाप मुस्कान

आधी खींची गई रेखाएं
जटिल हिसाब
जटिल
जटिल
इस कुंडली के लिये
केले के पत्ते के लंबे निशान
जीवित कबूतर की आंखों की तरह
पत्ते पर यत्न से सजाई गई
मूंग
कुंडली की आयु रेखा
घी के दिए की रोशनी में

देखता हूं
कुंडली के आंसू की दो बूंदें
और सुनता हूं
बदहाल जीवन की भाग्यलिपि
काले कपड़े में देखता हूं
आधी खींची गई रेखाओं की
एक छोटी राह

केले की डोंगी लंबी बनाती है
इस राह को
पागलदिया नदी की तरह

छोड़ता हूं इन रेखाओं को

लंबी हो
लंबी हो
शनिवार की शाम

रेखाओं को देखता हूं
एक दूसरी कुंडली के बीच

विषय - डायन
प्रशांत राभा

एक आधी लिखी कविता ने
कल रात मेरा सपना तोड़ दिया था
एक वृद्ध दंपत्ति मेरी कविता का विषय
जिनकी आंखों की पुतलियों में
झुक गया था जीवन को पीला बनाकर
शाम का सूरज
पगथली में एक शाम बढ़ती जा रही थी अंधेरे की तरफ...
धीरे-धीरे भय-संशय के साथ
बढ़ती जाती है रात की उम्र

बूढ़ा बूढ़ी को छोड़कर
बूढ़ी बूढ़ा को छोड़कर
पार करना नहीं चाहते जीवन की वैतरणी

एक दिन पोते-पोती को
आधी कहानी सुनाते-सुनाते
दोनों ने अपनी आंखों से देखा था
जंगल की जगह गाँव में स्कूल बनते हुए
देखा था लोगों को रोशनी की मदद से रात को दिन बनाते हुए
आकाश से विमान को उड़ते हुए देखा
सचमुच लोग बदल गए

इतनी अधिक प्रज्ञा के बीच भी
डरते-डरते बूढ़ा-बूढ़ी के सीने में
अंकुरित होता रहता है एक संशय

सूखे में अगर बंजर हो जाए खेत
बीमार होकर अगर मर जाए हल  जोतने वाले बैल, नई बीमारी से
अगर गांव तड़पने लगे

पगथली से आते-जाते अगर गांव वाली
कनखियों से देखते हुए आगे बढ़ें
किस तरह दोनों सो पाएंगे किस तरह
इस अंधेरी कोठरी में

मैं कभी-कभी मैं नहीं रह जाता
वैद्य ब्राइट बूढ़ागोहाईं

मैं कभी-कभी मैं नहीं रह जाता
सूखा पत्ता बनकर झांकता रहता हूं
मिट्टी की ऊर्वरता

मकड़ी बनकर डाल बुनता हूं शून्य में
हिलता रहता हूं हवा के झोंके के साथ
महसूस करता हूं
शून्य में शून्य की गहराई

पत्थर बनकर पड़ा रहता हूं
जीवन की किसी फर्श पर
मन ही मन चखकर देखता हूं
पुरातन प्रेम की कठिनता

झिंगुर बनकर पहरा देता हूं
रात की पृथ्वी पर
गिनता रहता हूं खामोश रात का कोलाहल

और कभी-कभी
मिट्टी का एक दिया बनकर जलकर देखता हूं
किस तरह खुद ही जल-जलकर
दूसरे को रोशन रखने की
तीव्र चाह सीने में रखकर
मंत्रणा की धारा में तैरता है
कलेजे में मौन रखकर

एक शाम बनकर
अंदर ही अंदर हिसाब करता हूं
जीवन के गुजरे वक्त में किए गए
इतने सारे कार्यों के भूल सुधार का हिसाब

मरघट
असीम सुतीया

प्रत्येक व्यक्ति के लिए
खुला रहता है मरघट का दरवाजा

जहां फर्क नहीं होता अमीर-गरीब का
जहां देखी नहीं जाती जाति-अजाति

फर्क करना
मरघट का रिवाज नहीं

घास से ओस के लिपटने की तरह
सबको बांहों में भर लेता है मरघट

दर्पणमती...
तुम भी अगर मरघट की तरह होती
मेरे दुख की नाव में सुख का पतवार लेकर
जीवन की राह पर
क्या हम दोनों बढ़ सकते थे?

गांव
नील नयन

चूर्ण-विचूर्ण गांव को हीरा के टुकड़े की तरह सीने में लेकर घूमता हूं
शहरों और महानगरों में
गांव की विनती और गान की गोधूलि अस्त होने के बाद
रात भेंटफूल एक सपना बनकर खिल उठे थे
आकाश खेत फूल चिडिय़ा चरवाहे और नदी को गंवाने के बाद
तन्हाई एक माशूका की तरह आंखों से बहा रही थी सीने की सिसकी
किसान वृद्ध शिशु युवतियां युवक और एक दो
नौकरी के जरिए गांव का नाम रोशन करने वाले नौकरीपेशा

अब एक पुराने बंधु की तरह


बकुल फूल का काव्य
सत्यजीत नाथ

बकुल फूल बटोरते हुए एक दिन
हमने खो दिया था एक दूसरे को

देखा था
अभिशप्त पहाड़ के उस पार
डोर टूटकर गिर पड़ी
एक लाल पतंग को
जो घर लौट रही चिडिय़ा के पंखकी हवा से टूटी नहीं थी

बारिश की नदी में
बहती हुई नाव अचानक ठिठक गई थी

घुटने भर पानी की रोशनी में
छोटी मछलियों को गुजरते हुए देखा था
एक बड़ी मछली के पीछे-पीछे

बकुल फूल खिलने के एक दिन
गीत गाते हुए
आकाश में गुजर गया था
हरे पंछियों का एक झुंड
हरा बनकर सुलग उठा था एक सूरज
बकुल फूल बटोरते हुए आज
दोनों हाथ थरथरा रहे हैं
हड्डियों के बीच खिल उठा है
एक अन्य अनदेखा बकुल

कहीं
आवाज के साथ टूटने वाले
एक सूरज की आवाज सुन रहा हूं

पत्रकार
हिमांग दास

ओला बारिश की रात
एक ओला और
एक बूंद बारिश की
कलम के दैध्र्य के साथ
तंग रास्ते से
बढ़ता हुआ आदमी


ईमानदारी और
साहस की पंखुडिय़ों से
ओले टकराते हैं
धूल में मिला देने के लिए
कागज के एक पन्ने से
ढकते ढकते
बढ़ता हुआ आदमी

दुर्दांत रात की कविता
कौशिक किसलय

दुर्दांत मनुष्यों की तरह ही गहराती है रात
मेरे सीने में दूध की धारा
कूबड़ वाले मनुष्यों की तरह ही दुर्दांत
अथवा वे मृत सिपाही जिनकी पुकार
शाम तक प्रतिध्वनित होती रहती है सीने के दूध में

कोई नारी सहन नहीं कर सकती
उन दुर्दांत रातों और
बूट जूतों की चमक को

अभी सिपाही नहीं हैं
जबकि रातें हैं उतनी ही दुर्दांत

पुल के उस पार हमारा घर
कमल बरूवा

पुल के उस पार हमारा घर
इस पार वैतरणी की राह
टेढ़ी-मेढ़ी लंबी

राह के किनारे सुनता हूं जीवन का
गान और देखता हूं
हसीन जलचित्र का कोलाज
मोड़ पर मुड़कर आहत होता हूं
शोक में खिल उठते हैं
विषाद के बकुल

पुल के उस पार हमारा घर
इस पार से पता नहीं चलता

पगथली में मां का इंतज़ार
और वीरानी में नीली चिडिय़ा की पुकार

जा रहा हूं मैं
इस पार से जीव को बांधकर
सीने एक कोने में
और देखी नहीं है
वापसी की राह में सपने की धरती की छाया

पुल के उस पार हमारा घर
इस पार से सुनाई नहीं देता
मुक्ति से उदासीन है जो...

चुपके से कदम बढ़ाकर
सिर्फ चलता जा रहा हूं मैं
वैतरणी की काली राह पर...

पत्थर का जीवन
मधुमिता महन

पत्थर का भी जीवन है
है आंखों में पानी

पत्थर लहरें उठाता है पानी के संग
पत्थरों के टुकड़े होते हैं

उसकी मर्मवेदना कोई नहीं समझता

पत्थर केवल अपना इम्तहान लेते हैं
पत्थर सुरहीन गीत गाते हैं

पत्थर का मजाक उड़ाकर गुजर जाती हैं
कई नदियों की धाराएं

रात के अंधेरे में गर्भवती होने वाली एक नदी
मणिका दास

एक चट्टान के सीने से बहकर आती है
रात के अंधेरे में गर्भवती होने वाली एक नदी

विदा का गीत गा गाकर चली जाती हैं
उजली पीली मछलियां

शोक से झुक जाते हैं
दो प्राचीन पीपल के पेड़

और एक जाल बुन पाने में नाकाम होकर
छटपटाती हुई मैं पड़ी रहती हूं
दोनों पीपल के बगल में

पिता पत्थर बनकर बैठे रहते हैं
संस्कृत सौरभ बोरा

जंगल को साफ कर दादाजी का बनाया गया लकड़ी का
विशाल बंगला अब धूल में लिपटा हुआ है

पिता की आंखों में मोतियाबिंद हो गया है

खिड़की से पश्चिम की हवा आती है
खिड़की से उत्तर की हवा निकलती है
खिड़की से पूरब की हवा आती है
खिड़की से दक्षिण की हवा निकलती है

पिता के सीने पर बर्फ गिर रही है
पिता पत्थर बनकर बैठे रहते हैं बरामदे में

दरवाजे से कौन निकलता है दरवाजे से कौन घुसता है
दरवाजा कौन खोलता है दरवाजा कौन बंद करता है

आने-जाने और बंद करने-खोलने के बारे में
पूछने के लिए मैं पिता के पास जाता हूं
पिता पत्थर बनकर बैठे रहते हैं बरामदे में

बंगले के अंदर हंसी
बंगले के अंदर थोड़ी सिसकी
बंगले की फर्श पर किसी की पदचाप
बंगले के किसी कमरे में किसी की गुनगुनाहट 
हर दरवाजे पर सीटी

कौंवों के झुंड में से किसी एक कौवे के दांत
टूटते हैं ट्यूबवेल से टकराकर शोर मचता है पड़ोस में

लौटकर मैं पिता को देखने के लिए जाता हूं
सीने का अंधेरा लेकर अंधेरे में ही बैठा रहता है मिट्टी का एक घड़ा

मेरे दोनों हाथ
(नीलमणि फुकन के लिए)
युगज्योति दास

मेरे दोनों हाथों को छू लो
दुख के रंग का नीले मेरे दोनों हाथ

इस उपत्यका के सबसे अधिक शीर्ण हाथ
फैला दिया है
वहीं आंसू गिराओ
सूरज के झुलसाए हुए मेरे दोनों हाथ
हंसी को गंवाकर आए मेरे दोनों हाथ
अत्यंत एकाकी

आओ आंसू के साथ सहारा दो
फैला दिया है

अपने इस विनम्र दोनों हाथ को

खामोश आंधी
गौतम प्रियम महंत

मेरे सर्द आंसू के झरने में चुपचाप थरथराती है तुम्हारी छाया
जाल में सिर उठाकर भोगदै नदी में फंसी हुई एक मछली ने कहा
प्रेम में विरह हकीकत है

पोखर के चपटे पानी पर डाउक चिडिय़ा के पीले कदम
किनारे तक नाचती हुई उठकर आती है खामोश आंधी
एक गाय के जोर से रंभाने पर शून्यता के शून्य का अवसान
कभी किसी समय सुना गया तुम्हारा प्यारा गीत
किस वजह से आज भी लपेट लेता है मेरे लाचार प्राण को

जीवन मरघट में
गोकुल कलिता

वीरान रात
मरघट में सियार बोल रहे हैं
सपने स्मृति में सिर छिपाकर
एक दूसरे से बातें कर रहे हैं
कच्चे खून की गंध ढूंढ़ती हुई
बंजारन रात
अंधेरे के उस पार एक दिया जल रहा है
पलकें झपका कर पुकारता है खाली खेत

एकाकी उदासी को

मायावी रोशनी

सन्नाटे की शून्यता को चीरकर
नंगे पेड़ के पत्तों को
बेरहमी से पीटती हुई
तेज हवा

जीवन ढूंढ़ते हुए बेचैन पत्ते
जीवन को विदा कर सर्दी में बेजान होकर
सोई हुई हैं अस्थियां

विवश-अवचेतन जीव
हाथ फैलाकर हंस रहा है
निर्मम समय

काल का फंदा

टूटे पगहे वाली शाम
मृणाल आकाश मेधी

टूटे पगहे वाली एक शाम
दौड़ती फिर रही है

फेफड़े में सींग को धारदार बनाकर
शाम दौड़ती फिर रही है बाड़ी-बाड़ी

मैं टूटे पगहे को जोड़कर
खदेड़ता फिर रहा हूं शाम को पीछे-पीछे

धीरे-दीरे पगहा
लिपट जाता है मेरे हाथों में
पैरों में

मेरी रफ्तार घट जाती है
कहीं जाकर रुक जाता हूं
और क्रमश: शाम ओझल हो जाती है

मैं जहां हूं
अभी वहां फेफड़ों का ढेर है
और क्रमश: ओझल हो जाता हूं मैं

रात
कविता कर्मकार

रात होते ही
सांस गंवाती है छंद   बढ़ता जाता है एक दर्द
सीने के पुराने जख्म फूल बनकर खिल उठते हैं

रात होते ही
मुखौटे पहनने वाले उतार देते हैं मुखौटे
उनके नाखून लंबे हो जाते हैं
लपलपाने लगती है उनकी कामना की लंबी जुबान

रात होते ही
बौरा उठते हैं अंधेरे
सीने की खस्ता हाल झोपड़ी में
तन्हा जलता रहता है एक दिया

रात होते ही
सुदूर पहाड़ी धारा
हौले-हौले जंगल में उतर आती है
धारा में बह जाती है
चांद की सर्द पीली रोशनी
नदी किनारे बांस झुककर चूमते हैं
लापरवाह लहरों को

रात होते ही
संगी से पिछड़ा एक पंछी रोता रहता है
मेरी खिड़की के सामने

रात होते ही
बढ़ती हुई देखती हूं
दादी की कहानी की अशरीरी छाया को

कवियों का परिचय/पता
1. कनक चन्द्र राय। जन्म: 1963, पेशा : शिक्षक। संपर्क : कंठालगुड़ी, कुंजियापार, छिपन छिला बोंगाई गांव - 783380 (असम)
2. हिमालय बोरा- जन्म: 1993, इतिहास की पढ़ाई कर रहे हैं। संपर्क: गांव, पिपिरा कुछि, पोस्ट दीघिरपार जिला - तरंग, 784144 (असम)
3 अपराजिता बूढ़ागोहाईं- जन्म: 1988, एम.ए. (इतिहास) संपर्क :- गांव काठरबाड़ी, पोस्ट ढकुवारवाना जिला लखीमपुर- 787005 (असम)
4. प्रांजल कुमार दास - जन्म : 1993, शिक्षा- इंजीनियरिंग में डिप्लोमा, असम प्रदेश विद्युत परिषद में नौकरी, संपर्क : गांव उजीरघाट पोस्ट निज धमधमा जिला नलबाड़ी-781349 (असम)
5. प्रशांत राभा - जन्म: 1984, एम.ए. (असमिया) संपर्क - गांव माजगाड़ी, पोस्ट तामुलपुर जिला बागसा - 7813767 (असम)
6. वैध ब्राइट बूढ़ागोहाईं - जन्म : 1992, शिक्षा विज्ञान की पढ़ाई, संपर्क : गांव गोहाईपाम, पोस्ट -सुराही जिला - धेमाजी - 787057 (असम)
7. असीम सुतीया - जन्म : 1987, एम.ए. (असमिया) पेशा - शिक्षक, ंपर्क गांव, चिनाईगांव, पोस्ट धिलामरा, जिला लखीमपुरा - 787053 (असम)
8. नील नयन - जन्म : 1988, एम.एम. आधुनिक भारतीय भाषा की पढ़ाई, संपर्क : गांव- ज्योतिनगर, पोस्ट - पाठशाला, जिला - बरपेटा -7871325 (असम)
9. सत्यजीत नाथ - जन्म : 1988, पत्रकारिता और जनसंचार का अध्ययन, संपर्क : गांव नाथगांव, पोस्ट - जतकीया, जिला - शिवसागर - 785666 (असम)
10. हिमांग दास - जन्म 1988, कला स्नातक, पेशा- शिक्षक, संपर्क : गांव बतियामारी, पोस्ट बाघमारा बाजार, जिला बरपेटा - 781328 (असम)
11. कौशिक किसलय - जन्म - 1988, एम.ए. (संस्कृत), पेशा - शिक्षक, संपर्क :- गांव ज्योतिनगर, पोस्ट पाठशाला, जिला - बरपेटा - 781325 (असम)
12. कमल वसवा - जन्म- 1988, एम.ए. (समाज विज्ञान एवं अंग्रेजी), असम सचिवालय में नौकरी, संपर्क गांव पोस्ट : आरिकुछि, जिला - नलबाड़ी - 781339 (असम)
13. मधुमिता महन - जन्म : 1985, असमिया में स्नातक, पेशा - शिक्षिका, संपर्क : गांव - पाटसांको, जिला - शिवसागर- 785673 (असम)
14. मणिकादास - जन्म : 1982, कला स्नातक, संपर्क गांव - धमधमा, पोस्ट निज धमधमा, जिला - नलबाड़ी 781349 (असम)
15. संस्कृत सौरभ बोरा - जन्म : 1985, अंग्रेजी स्नातक, इलेेक्ट्रोनिक मीडिया में नौकरी, संपर्क : मेरा पात्री, गोलाघाट - 785705 (असम)
16. युगज्योतिदास - जन्म : 1982, अर्थशास्त्र में स्नातक, वित्त विभाग में नौकरी, संपर्क - गांव भुलूकाडोवा, सरभोग, जिला - बरपेटा - 781317 (असम)
17. गौतम प्रियम महंत - जन्म: 1988, इतिहास में स्नातक, डाक विभाग में नौकरी, संपर्क :- गांव- ढंकरगड़ा, जोरहाट - 785015 (असम)
18. गोकुल फलिता - जन्म : 1985, पेशा - पुस्तक प्रकाशक, संपर्क- गांव खरिकादंगा, पोस्ट नबस्ती जिला बागसा - 781344 (असम)
19. मृणाल आकाश मेधी - जन्म: 1984, असमिया में स्नातक, संपर्क - गांव बामुनपारा, पोस्ट साठिसामूका, जिला नलबाड़ी - 781355 (असम)
20. कविता कर्मकार- जन्म : 1987, असमिया में स्नातक, संपर्क - सेपन, शिवसागर (असम)

अनुवादक - दिनकर कुमार, हाउस नं. 66, मुख्यपथ, तरुणनगर - एबीसी, गुवाहाटी - 781005 (असम), फोन : 09435103755


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