मुखपृष्ठ पिछले अंक आलोचना की नई पगडंडियां वास्तविक है जो यहाँ अभिनीत है
जून-जुलाई 2015

वास्तविक है जो यहाँ अभिनीत है

पंकज चतुर्वेदी

 

असद ज़ैदी की कविताओं पर विचार




''वास्तविक है जो यहाँ अभिनीत है
तुम जब इस मंज़िल तक आओगे बरख़ुरदार
एक्टर नहीं रह जाओगे''
अभिनय, यानी कला कवि असद ज़ैदी के यहाँ अस्लीयत का ही दूसरा नाम है। जैसे श्रीकांत वर्मा ने लिखा है कि 'प्रेम अकेले होने का ही एक और ढंग है', कविता उनके लिए वास्तविकता का एक अंदाज़ है। इसी प्रतिश्रुति के साथ पिछले लगभग चालीस बरसों से कविता का उनका सफ़र जारी है, मगर उसमें शब्द उतने नहीं हैं, जितनी ख़ामोशी है। प्यार है, पर उसका दावा नहीं है। सौन्दर्य है, पर अलंकरण नहीं है। भाषा के साथ रहकर भी उससे दूरी बरतने का यह संयम क्या मुख्यधारा के बीचोबीच उनके वैशिष्ट्य की निशानी नहीं -
''मैंने सारे लालच सारे शोर सारे
सामाजिक अकेलेपन के बावजूद केबल कनेक्शन
नहीं लगवाया
चचा के मिसरों को दोहराना नहीं भूला''
निश्चय ही ग़ालिब का एक शे'र वह कभी भूल नहीं पाते-''नश्व-ओ-नुमा है अस्ल से, ग़ालिब फ़ुरुअ को/ख़ामोशी ही से निकले हैं, जो बात चाहिए।'' महज़ यही नहीं कि वह कहते हैं-
''एक ख़ामोश शील की तरह मैं रहना चाहता था
इसका एक ही रास्ता था-भूमिगत पड़े रहना
ख़ामोशी की ज़द में''
बल्कि इससे बढ़कर सचाई और उसके भावक के बीच मौन को भी एक व्यवधान मानते हैं-''ख़ामोशी भी एक पर्दा है हालाँकि।'' इस झिझक से ज़्यादा जीवन का समर्थन संभव नहीं; फिर भी 1988 में उनका दूसरा कविता-संग्रह प्रकाशित होने पर सिर्फ़ उसके नाम 'कविता का जीवन' की परिक्रमा करके किसी-किसी ने यह कटूक्ति की कि लोग जीवन की कविता लिखते हैं, जबकि ये कविता का जीवन लिख रहे हैं। यह जानना मुश्किल है कि ऐसा तंज़ करने के पहले इस संग्रह की आख़िरी कविता की आख़िरी पंक्तियाँ पढऩे की ज़हमत उठायी गयी या नहीं - ''मैं चाहता था कि जब हम जीवन पर बात करें/तो कविता को भूल जाएँ।'' असद ज़ैदी ऐसे कवि हैं कि वह अपने और पाठकों के बीच कोई आवरण या दुराव नहीं रखते। इसलिए न उनके यहाँ पर्दादारी की गुंजाइश है, न आत्म-छल की। जीवन भर बात करते हुए कविता को भूल जाने का यही मतलब है कि वह जीवन-सम्बन्धी संवेदनात्मक विमर्श से अलग कोई शै नहीं। इसमें बनावट नहीं है, क्योंकि वह भूल यह भी जाते हैं कि वह औरों से मुख़ातब हैं या अपने आप से -
''किसी से बात करने लगता हूँ
और भूल जाता हूँ कि फ़ोन पर बात कर रहा हूँ
यह कोई सामने बैठा है या यह महज़
एक भीतरी संवाद है।''
इसी सदाक़त से असद ज़ैदी की कविता अपना औदात्य हासिल करती है। वह दुनियावी अर्थों में सुखी, समृद्ध, सुंदर और ताक़तवर नहीं होना चाहते। अपने विषय में वह दूसरों को किसी संभ्रम में नहीं रखते, क्योंकि इंसान उनकी नज़र में अनिवार्यत: अच्छे और बुरे का समवाय है- ''मैं उजला ही नहीं काला भी हूँ/या इसी बात को उलटी तरह से कह लो।'' अलबत्ता कोशिश उनकी बराबर समुज्जवल रहने की है, पर दिखावे के लिए नहीं, आत्मा के स्तर पर। प्रमाण है इस ख़तरे से उनकी सावधानी कि ''साफ़ कपड़ों के अलावा/जीवन में कुछ नहीं रह जायेगा साफ़।'' कह सकते हैं कि यही ख़ब्त 'एक सफ़ेद पट्टी' की मानिंद उनकी कविता के माथे पर बँधा है, जो उसकी साफ़गोई में मुसल्सल नज़र आता है-
''एक साफ़ शफ़्फ़ाफ़ ज़िन्दगी हम गुज़ारना चाहते थे
जिसकी कोई तस्वीर भी उतारना चाहे
तो फ्ऱेम में सिर्फ़ सफ़ेदी नज़र आये''
ऐसी ज़िन्दगी कम लोग जी पाते हैं, क्योंकि उसके लिए सभ्यता के प्रवाह से अलग-थलग पड़ जाने का जोखिम उठाना और साथ ही उसकी विकृतियों से रक्ताक्त रंजित का चैलेंज स्वीकार करना होता है। इस कठिन राह पर चलते हुए भी असद ज़ैदी किसी भावावेश, आक्रामकता या बिखराव के शिकार नहीं होते। सबब यह है कि उनकी कविता की जड़ें एक गहन मूल्य-बोध में जाती हैं और वह एक ओर लड़ाई की अनिवार्यता के एहसास, तो दूसरी तरफ़ उसकी मुश्किल की समझ के द्वन्द्व में पड़कर रची जाती है। मंगलेश डबराल ने तीस बरस पहले उनके लिए एक कविता लिखी थी, जिसमें कवि 'ख़ुद को लहूलुहान पाता' है। उसकी असहमति, अवसाद और निस्पृहता मिलकर उसे इस मक़ाम पर ले जाते हैं -
''आप दिखते हैं बहुत उदास
आपको इस शहर में क्या काम
आपके भीतर भरा है ग़ुस्सा
आपको इस शहर में क्या काम

आप सफलता नहीं चाहते
नहीं चाहते ताक़त
जो मिल जाये उसे छोड़ कुछ नहीं माँगते
आपको इस शहर में क्या काम''
लालच, उपभोग और हिंसा पर टिकी हुई संरचना, यानी शहर में बक़ौल कवि ''महत्वाकांक्षा के अभाव को/अहंकारी होने का प्रमाण'' मान लिया जाये, तो क्या आश्चर्य? असद ज़ैदी जानते हैं कि इस स्थिति का मुक़ाबला किसी प्रबल शब्दावली, चमकीले मुहावरे या उग्र भंगिमा से नहीं, बल्कि सजग, गंभीर और सशक्त आत्मवत्ता से ही किया जा सकता है -
''इस शहर में मुझे भरोसा है अपनी पवित्रता पर
इस पवित्रता को मैं बनाये रखूँगा''
उनकी कविता इसी आत्मवत्ता को अक्षुण्ण रखने के संकल्प और इसे विघटित करने की व्यवस्था की साज़िश के प्रतिरोध की बदौलत सुंदर है। अपनी पहचान और हस्तक्षेप से अलहदा होना उनके यहाँ बुझ जाना है- ''मैंने स्वयं को छोड़ा तपिश ने आग को छोड़ दिया।'' इसलिए सार्थकता सम्पृक्ति में है और इस सच को कवि ख़ुद से आगे बढ़कर परिवार में अपनी भूमिका के स्तर पर महसूस करता है, क्योंकि वह विश्व के प्रति उसके ईमानदार होने की शुरूआत है-
''उसी क्षण मैंने साफ़ तौर पर देखा
मैं किस हद तक बेहोशी में रहता हूँ
यही समय है अरे यही मेरी ख़ुशी है
यहीं है मेरे जीवन का केन्द्र और पूरे
विश्व की धुरी-और
मैं एक नहीं हूँ: हम तीन हैं
और इस प्रकार मैं एक बहुत बड़े
अनर्थ से बच गया''
इस पृष्ठभूमि में 'प्यार और यातना के मंज़र से गुज़रने' की कवि की आकांक्षा का मर्म समझा जा सकता है। यह नहीं कि ये अलग-अलग कोटियाँ हैं, बल्कि प्यार की सूरत में यातना का सामना करना लाज़िम है। प्यार की असंभवता को निर्मित करती सभ्यता इंसान को निश्चिंत, यानी भीतर से मृत बना देना चाहती है-
''ये जो अफ़सोस-भरा सिर लिये मैं जाता हूँ
जल्दी ही कहा जायेगा इसे फेंको
जीवन को जियो जीवन की तरह
मुझसे कहा जायेगा बेफ़िक्र हो जाओ
यह नहीं कहा जायेगा लोगों की फ्रि़क करो ताकि
वे तुम्हारी फ़िक्र करें''
जड़ता और यथास्थिति असद ज़ैदी के लिए साक्षात् मृत्यु है, जिसका अवसाद कविता के उनके सफ़र में लगातार बढ़ता गया है। ख़ास तौर से विश्व स्तर पर समाजवादी व्यवस्थाओं के बिखराव और पराजय के बाद। एक ओर उन्हें अपने अभ्युदय के समय के रचनाकारों की प्रतिबद्धता और समर्पण की स्मृति उदास कर देती है, क्योंकि वैसा जज़्बा अब रह नहीं गया- ''उस दौर के कवि और थे, लेखक और।'' दूसरी ओर जो व्याकुलता अभी शेष है या जो वहां से यहाँ तक चली आयी है, वह काफ़ी नहीं- ''अब कुछ और ही दुख चाहिए/कुछ और ही बेचैनी।'' मुख्यधारा की संस्कृति जिस तरह की ज़िंदगी को प्रस्तावित करती है, उसके बरअक्स अपने अकेलेपन और असमर्थता, साथ ही व्यर्थता का दंश उनके यहाँ कभी कम नहीं होने पाता; मगर एक नैतिक ज़मीन पर उससे लोहा लेते हुए जैसी ख़ूबसूरत और उदात्त रचना उन्होंने की है, वैसी अन्यत्र अप्राप्य है। इन अभिव्यक्तियों को महज़ करुणा की सचाई नहीं, बल्कि उसके संदर्भ की व्यापकता अंदर और मूल्यवान बनाती है। असद ज़ैदी की अल्पसंख्यकता या कहें कि अद्वितीयता मुख्यधारा और उनकी शख़्सीयत के द्वन्द्व में निहित करुणा और औदात्य की बदौलत है; उस भौतिक अर्थ में नहीं, जिसमें ज़्यादातर कवि-समीक्षक उसकी निशानदेही करते रहे हैं। नज़ीर हैं उनके तीनों कविता-संग्रहों से ये अंश-
''चालाकी ख़ुद एक प्रकार की मूर्खता है यह वाक्य
मैंने ही बोला था मैं ही बदहवास हो गया था
गली में चलते-चलते
मेरा ही गला बन्द हो गया था विश्वास की कमी से।''
('बहनें और अन्य कविताएँ')
* * *
''मरा हुआ जैसा कि मैं हूँ
जीवित बचा हुआ''
* * *
''यह मेरा नसीब रहा
कि पहले तो मैं हुआ सबके बीच एक नाचीज़ रचनाकार
और फिर मेरी आत्मा को संताप ने मारा''
('कविता का जीवन')
* * *
''और मौत को हरदम देखते रहना भी
उबा देता है
अपने को गोश्त और हड्डी
समझते रहने में भी
गिरावट ज़्यादा है होशियारी कम।''
('सामान की तलाश')
सफल तथा समृद्ध होने की चालाकी, होशियारी और अहम्मन्यता से आहत होना मगर कवि की मूल्यनिष्ठता का सुबूत है है, तो उसकी कमज़ोरी सचाई का। मगर उनका सामथ्र्य यह है कि अपनी मूल्य-दृष्टि से अर्जित आत्मविश्वास के बल पर वह प्रतिगामी की क्षुद्रता और खोखलेपन को पहचान और उस पर हँस सकते हैं। इसी के चलते उनकी कविता इकहरी नहीं, द्वंद्वात्मक है और उसमें अनिवार्यत: आदमी की निर्बलता का सम्मान और पक्षधरता है। उसमें शौक़िया नहीं, वस्तु-स्थिति की सीधी मुठभेड़ से उपजी करुणा है- ''मुझे यक़ीन है... क्रोध और सहनशक्ति में/हास्य और करुणा में आदमी की निर्बलता में/...यक़ीन न कर पाने के दुख में/यक़ीन कर लेने की कमज़ोरी में।'' कवि बेशक लड़ाई को अहम मानता है, पर मूल्यों से वंचित जीत को नहीं- ''देखो, हारी हुई लड़ाइयाँ कितना काम आती हैं।'' असद ज़ैदी की रचनात्मकता की बुनियाद में अगर जन-सामान्य से प्रेम है, तो उसकी स्वाभाविक निष्पत्ति के तौर पर उसका दमन और उत्पीडऩ करने वाली ताक़तों से घृणा वहाँ मौजूद है। यह उसकी सतत गतिशील अंतर्धारा है, जो अपनी अपर्याप्तता के एहसास से ख़ुद को विकसित करती है और एक क़िस्म की अदम्यता हासिल करती है-
''वह बहुत असन्तुष्ट थी अपने प्रेम में
अपनी घृणा में भी असन्तुष्ट
उसके बारे में सबसे अच्छी बात यह थी कि उसकी
कोई कथा समाप्त नहीं होती थी
वह समाप्त नहीं हुई।''
गोकि यथार्थ असह्य है, पर उसे एकबारगी बदल देने की ज़मीन तैयार नहीं। इसलिए असद ज़ैदी किसी महायुद्ध या क्रान्ति की तत्काल ज़रूरत का अतिरंजित आख्यान नहीं करते, बल्कि 'सड़क की लड़ाइयों' में अपनी आस्था ज़ाहिर करते हैं। लड़ाई अगर सिर्फ़ सैद्धान्तिक, स्वप्नगत या अब संचार-क्रान्ति के ज़माने में 'वर्चुअल' रह जायेगी, तो उससे क्या नतीजा निकलेगा? उसे निरन्तर और बहुस्तरीय बनाकर ही किसी सच्चे और बड़े बदलाव की उम्मीद की जा सकती है। जब एक कविता में वह अनुमान व्यक्त करते हैं कि 'शेरों के मुद्रित रूपकों पर सर्फ़ हुई स्याही का वज़न असली शेरों से ज़्यादा निकलेगा', तो इस विसंगति में छिपी पीड़ा ग़ौरतलब है। इसलिए कविता से वह अतिरिक्त आश्वासन नहीं चाहते, उस पर मुग्ध नहीं हैं और न उससे औरों को क़ायल कर लेने की ख़ुशफ़हमी में जीते हैं, ''क्योंकि अन्त में लोगों को अपनी ही आवाज़ सुनायी देती है/अफ़लातूनों की नहीं।'' अपनी कविता से ज़्यादा लोगों के विवेक और संवेदना को अहमीयत देने वाली यह वस्तुनिष्ठता कवियों के संसार में ढूँढ़े नहीं मिलेगी। उनकी कविता आत्म-निर्वासन और आत्म-विभाजन के ख़तरों के बरअक्स आत्मवत्ता का इसरार करती है; मगर उससे यह भी जाना जा सकता है कि आत्मवत्ता का आत्म-मुग्धता और आत्मबद्धता से कोई लेना-देना नहीं है। आत्म-मोह और आत्म-हित के विरुद्ध जन-हित को वह अपना सरोकार मानता है, पर यह तस्लीम करते हुए कि उसका ज़िम्मा सबका है, सिर्फ़ उसका नहीं। इसलिए अपनी अच्छाई-बुराई सब समेटकर विदा हो जाने के बाद-अपने न रहने की स्थिति में भी- कवि परिवर्तन और प्रगति को होते देखना चाहता है- ''मैं आगे और पहिये को साथ नहीं ले जाऊँगा।'' इसी मानी में यह 'अपने आप से ग़ाफ़िल' कविता है, जो स्वप्नशीलता की हामी है, क्योंकि उसके ज़रिए कोई नयी राह खुल सकती है- ''और जो ताले पड़े हैं उसकी चाबियाँ भी/कभी नज़र आयेंगी ख़्वाब में।'' उसमें यह कहने की हिम्मत है कि वैचारिक असहमति और कलात्मक सौन्दर्य से डरती और उसे प्रतिबंधित करती जड़े, संकीर्ण और दुराग्राही सत्ता बहुत दिनों तक सलामत नहीं रह सकती -
''जो सभ्यता
तालों की ताक़त पर टिकी है
लटकता है एक रोज़ उस पर
एक बहुत बड़ा ताला''
त्रिलोचन ने कभी विनम्रतावश कहा था- ''महल खड़ा करने की इच्छा है शब्दों का/जिसमें सब रह सकें रम सकें लेकिन साँचा/ईंट बनाने का मिला नहीं है'' और असद ज़ैदी भी बड़ी शाइस्तगी से एक 'मकान' का ख़ाक़ा खींचते हैं, पर ग़ौर से देखिये तो यह उनकी कविता ही है; जो प्रभुता, सत्ताजन्म कट्टरता, व्यावसायिकता, औसतपन और व्यावहारिक का निषेध करती है। उसमें 'सफल', यशस्वी, रोबदार या अगर होने की महत्वाकांक्षा नहीं, बल्कि प्रासंगिक रहने की एक अलग ख़्वाहिश है -
''मैं एक मकान बनवाना चाहता हूँ...
सम्पत्ति के एक टुकड़े की तरह न देखा जाए
जो पास में आये उसे काटने न दौड़े
एक ठिगनी मटमैली मीनार किराए पर न उठाया जा सके जिसे
किसी चीज़ से बदला न जा सके
युगीन सच्चाई की तरह खड़ा रह सके जो चालीस-पचास साल

ऊपर जिसके कुछ पत्ते कभी-कभी दिखाई दें
शांति से हिलते हुए''
अंतिम पंक्तियों से प्रकृति से कवि का लगाव सूचित होता है और उसकी कविता का मिज़ाज, यानी शांति भी। असद ज़ैदी ने भावुकता के अधिकतम अंकुशों को अपनी चेतना से खींचकर निकाल फेंका है और अपनी काव्य-शैली को किसी अलंकृति के प्रलोभन में भी पडऩे नहीं दिया है। उनका यक़ीन है 'एक ठंडी निगाह में', जिसके नेपथ्य में यह इसरार है कि ''सच है जिसे हमेशा साधारण ढंग से बोला जा सकता है।'' यों उन्होंने वह तलस्पर्शी दृष्टि अर्जित की है, जिसके सिरे पर पहुँचकर सारे आलोडऩ, चीत्कार और ठाट-बांट थम जाते हैं और दृश्य-जगत् में निभृत सत्य को एक शांत, स्थिर और सघन आलोक में पहचाना जा सकता है। चूँकि वह बाह्य वास्तविकता के परे उसकी छाया में छिपे 'अभिशाप' को सामने लाना चाहते हैं, इसलिए उसके बयान में किसी मुरव्वत को बाधक नहीं बनने देते। उनमें जो सादगी और वस्तुपरकता है, साथ ही अपने और दूसरों के प्रति इंतिहाई निर्ममता; ïवह सत्य से अविचलित रहने की उनकी काव्य प्रतिश्रुति की परिणति है। मुख्यधारा से किसी भी क़िस्म की दुरभिसंधि में शरीक न होनेवाले कवि की वाणी ही इतनी बेलाग, निर्भीक और निष्कम्प हो सकती है। प्रेम के संदर्भ में भी आत्मगत ईमानदारी की बनिस्बत वस्तुगत समझदारी को वह छोटा नहीं हो जाने देते, इसलिए अपने साथ कोई रिआयत नहीं बरतते- ''अगर मैंने तुम्हें नहीं समझा/तो मैं शत्रु हूँ मुझे भूल जाओ।'' इसी तरह वह अपने प्रिय से यह सीधा-सा असुविधाजनक सवाल बग़ैर किसी तुर्शी या हिचक के पूछ सकते हैं- ''यह प्यार है या नम्रता से लिया जाता/कोई बदला?'' इसके बाद इस सम्बन्ध के तीसरे आयाम, यानी सभ्यता की वृहत्तर पृष्ठभूमि पर उसकी नज़र आती है; जिसे लक्ष्य करते हुए वह बहुत जटिल, बेचैन और मर्मस्पर्शी मन:स्थिति को अनावृत करते हैं- ''तुम्हें न स्वीकार करने दी गयी वास्तविकता हूँ/... आयशा मैं तुम्हारी मौत हूँ रुकी हुई/तुम्हें खोजती हुई तुम्हारी खोज हूँ/एक ठंडी करुणा में सब पर हँसती हुई।'' कहने की ज़रूरत नहीं कि उपर से निरावेग, उदासीन और रूखे-से दिखनेवाले उनके बयान के इस लहज़े में कितना प्यार, करुणा और व्याकुलता समायी हुई है-
''तुम जो हमेशा दूसरी औरतों में छिपी रही हो
मैं तुमसे सम्बोधित हूँ....
... मैं किन-किन से
बोलता रहा हूँ तुमसे बोलने के बहाने
कि मैं तुमसे बोलता था
किसी से भी बातें करते हुए''
अपनी इसी आत्मिक समृद्धि की बदौलत असद ज़ैदी ऐसी कविता लिख सके हैं, जो सहसा हमें विचलित कर जाती है। जितना गहन प्यार होता है, उतनी ही उसमें अपने प्रियजनों के जीवन-दुख को पहचानने की शक्ति निहित रहती है। इसी प्यार और करुणा में डूबी आँखों से असद दारुण यथार्थ को देख पाते हैं और उसकी विडम्बना से हमें आगाह करते हैं -
''कोयला हो चुकी हैं हम
बहनों ने कहा रेत में धँसते हुए
कोयला हो चुकीं
कहा जूतों से पिटते हुए...
एक दिन रास्ते में जब हमारी नाक से ख़ून निकलता होगा
मिट्टी में जाता हुआ
पृथ्वी की सलवटों में खोई बहनों के खारे शरीर जागेंगे
श्रम के कीचड़ से लिथड़े अपने आँचलों से हमें घेरने आयेंगी बहनें
बचा लेना चाहेंगी हमें अपने रूखे हाथों से
बहुत बरस गुज़र जायेंगे
इतने कि हम बच नहीं पायेंगे।''
इस करुणा की असद ज़ैदी ने मुख़्तलिफ़ स्तरों पर शिनाख़्त की है। ख़ास बात यह है कि उस परिस्थिति में पड़े हुए व्यक्तियों और वस्तुओं को वह बेहद ममता से देखते हैं और उनकी पक्षधरता कविता को मूल्यवान बनाती है। इन प्रसंगों में वह कभी विराट् सत्ता-तंत्र की उद्योगशीलता में छिपे अन्याय, तो कभी ज्ञान के अनेक अनुशासकों की धूर्त बनावट को बहुत तीखे और सारभूत ढंग से उजागर करते हैं। उनकी कविता में ऐसे कुछ मार्मिक क्षण द्रष्टव्य हैं-
''मैंने घबराकर खोला उस ग़रीब करुण नल को
और उस बेचारे ने दृश्य को बदल दिया''
* * *
''इतिहास में ग़रीब की आवाज़
सुनाई नहीं देती
तोपों के धमाके उसे दबा लेते हैं''
* * *
''एक ग़रीब का अकेलापन
उसके ख़ाली पेट के सिवा कुछ नहीं
अपनी दार्शनिक चिंता में
दुहराता हूँ मैं यही एक बात''
* * *
''जो ग़रीब है उसे अपने गाँव से आगे कुछ पता नहीं
कम ग़रीब है जो उसने देखा है पूरा ज़िला
सिर्फ़ अनाचारी ज़ालिमों ने देखे हैं राष्ट्र और राज्य''
इन्हीं ग़रीबों में एक ख़ुद कवि है, जो 'बीच के किसी स्टेशन पर होने में पूड़ी-साग खाते हुए अपना रोना छिपाता है' और फिर 'कहीं कोने में अपना दोना छिपाकर फेंक देने' के बाद सोचता है :- ''मुझे एक स्त्री ने जन्म दिया था/मैं यों ही दरवाज़े से निकलकर नहीं चला आया था।'' असद ज़ैदी मनुष्य से एक दरजा नीचे रहने की विवशता और तकलीफ़ और उससे लगी-लिपटी शर्म और अपमान की साझा ज़मीन पर अवाम से अपनी एकता महसूस करते हैं। इसीलिए उनकी कविता में एक व्यापक अपील है, जिसकी असाधारण सार्थकता मानवीय गरिमा के दृष्टि-बिन्दु से अन्याय के बरअक्स उनके शांत, संजीदा और सशक्त प्रतिकार में निहित है। वह कविता को जीवन की विडम्बना से अभिन्न मानते हैं और उसकी स्वायत्त सत्ता को मंज़ूर नहीं करते। इसलिए उसे सवाल, संदेह, बहस और आलोचना के परे रहस्यमय, मिथकीय या पूजन बनाये जाने की मानसिकता के ख़िलाफ़ हैं। यों उनके द्वारा की गयी किसी की सराहना भी उसके अंतर्विरोधों का संज्ञान लेती हुई, वस्तुपरक विश्लेषण की प्रक्रिया से गुज़रकर बड़े आत्मीय और विश्वसनीय अंदाज़ में आती है और उसके संघर्ष के प्रति हमारे भीतर सम्मान का एक दुर्लभ भाव पैदा करती है। गोया वह कहते हैं, कहीं ऐसा न हो कि कविता की अमरता से अभिभूत होकर उसके पीछे छिपी त्रासदी से हम अपनी आँखें मूँद लें-
''सरोज के लिए योग्य वर खोजना आसान नहीं था
ब्राह्मणत्व की आग से भयंकर थी कविता की आग
अन्त में कवि अमर हो जाता है एक पिता रोता पीटता
मर खप जाता है''
असद ज़ैदी बारहा अपनी कविता में साम्यवाद के उस सपने का ज़िक्र करते हैं, जिसके लिए उन्होंने और उनकी पीढ़ी ने आठवें-नवें दशक में काम किया था, मगर जिसका शीराज़ा दुनिया में पूँजीवाद के बढ़ते वर्चस्व के सम्मुख बीसवीं सदी के ठीक से ख़त्म होने के पहले ही बिखर गया। इसके 'ऑबसेशन' या अवसाद से वह उबर नहीं पाते, क्योंकि बदलाव की 'कोई सूरत नज़र नहीं आती!' अब उनके मुताबिक़ उस ज•बे को अपने सीने में सँभाले रखना भी कहां तक मुमकिन है, जब पूँजीवाद की प्रतिनिधि ताक़तें उसे 'इतिहास' की वस्तु बना देने पर आमादा हैं। हालात इतने संगीन हैं कि नयी पीढिय़ों को उस दौर की अहमीयत बतायी चाहे जा सकती हो, पर महसूस नहीं करायी जा सकती- ''ये हमसे क्या क्या पूछ सकेंगे/इन्हें हम क्या समझा सकेंगे!'' सम्प्रति इस राजनीतिक शिकस्त के दुर्भाग्यपूर्ण नतीजे के तौर पर एक साम्प्रदायिक-फ़ासीवादी विचारधारा 'अच्छे दिनों' के वादे के साथ सत्ता पर का़बिज़ होने में कामयाब हो चुकी है, जिससे कवि की ही एक बरसों पुरानी उक्ति बरबस याद आती है - ''परिस्थितियाँ बहुत अच्छी तरह ख़राब हैं...।'' विरोध और संघर्ष को जैसे व्यर्थ और ग़ैर-ज़रूरी मान लिया गया है और स्वाधीनता-आंदोलन से लेकर एक सच्चे समाजवादी और सेक्युलर गणतंत्र के स्वप्न को साकार करने की बड़ी लड़ाइयों तक के तमाम आदर्शों, मूल्यों और बलिदानों पर मनोरंजन विजयी हुआ है-
''अन्त में ज़ुल्म, ख़ुँरेज़ी, ग़ारतगरी, दिलेरी
आज़ादी, क़ुरबानी, आन-बान, शहादत, बेहतरी
और दूसरी फुटकर हिमाक़तों पर
मनोरंजन की जीत हुई''
विडम्बना है कि ऐसे परिदृश्य में साहित्यकारों का एक वर्ग सत्ता के सहयोग में तत्पर और सक्रिय है और इन कोशिशों में अपनी हिफ़ाज़त और साहित्य की तरक़्क़ी के ख़्वाब देख रहा है। दुश्मन की शरण में जाने से बड़ी आत्म-वंचना क्या होगी! असद ज़ैदी ने उसकी शिनाख़्त में कभी चूक नहीं की-
''राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कुछ पट्ठे भी
आ निकले हाथ जोड़कर विनयपूर्वक किया
उन्होंने मुझे नमस्कार-हे ईश्वर कैसे होगा
इस प्रांत में कविता का उद्धार''
उनके यहाँ सत्ता में दाख़िल होने का मतलब है रचनात्मकता से ख़ारिज हो जाना- 'भूतपूर्व कवि' होना! मसलन अमर सिंह, जो विधायक है और कहता है कि बेतहाशा मोटा हो जाने के चलते वह अपने 'बदन में मृत्यु को महसूस भी नहीं कर पाता।' यही हमारे देश का प्रभु-वर्ग है, जो आत्मा के स्तर पर रिक्त और मृत है, जिसके 'अत्याचार की आवाज़ भाषा में संवेदना को मार रही है' और जो अपनी महान् विरासत को न सिर्फ़ बिसरा चुका, बल्कि उस पर ''शर्मिंदा है और माफ़ी माँगता है पूरी दुनिया में/जो एक बेहतर ग़ुलामी के राष्ट्रीय लक्ष्य के लिए कुछ भी/क़ुरबान करने को तैयार है।'' इसकी ही स्वार्थपरता, अवसरवाद और क्रूरता के नतीजे में जाने कितने किसान और बुनकर आत्महत्या करते जाते हैं और जनता 'एक उदास, मटमैले और अराजक जुलूस' में बदल गयी है। वह इतनी अकेली, असहाय और हताश शायद कभी नहीं थी। मुक्तिबोध ने 'अँधेरे में' कविता में जुर्म में शामिल सत्ताधारियों को नंगा देख लेने के कारण एक दहशत और यातना का सामना किया था; लेकिन असद ज़ैदी के यहाँ ''हैबत के ऐसे दौर से गुज़र है'' कि निरीहता की भी इतनी बड़ी सज़ा मिल सकती है-
''1857 में मैला-कुचैलापन
आम इंसान की शायद नियति थी, सभी को मान्य
आज वह भयंकर अपराध है''
'सामान की तलाश' शीर्षक कविता हमारे वक़्त की ट्रेजेडी को अप्रत्याशित पूर्णता और बलाघात के साथ व्यक्त करती है; जिसकी बुनियाद में इस सच की पहचान है कि 1857 के मुक़ाबले लड़ाइयाँ आज बहुत क़रीब आ गयी हैं, मगर जिसके शीर्ष पर इसका विडंबनापूर्ण 'कंट्रास्ट' है- एक सबसे ज़रूरी आरै तीखा सवाल, जिसे 1857 के मृतक मुख्यत: उस भद्रलोक से पूछते हैं, जो उनसे भी ज़्यादा मृत है-
''क्या अब दुनिया में कहीं भी नहीं है अन्याय
या तुम्हें ही नहीं सूझता उसका कोई उपाय।''
इस स्तब्धकारी राष्ट्रीय परिस्थिति के लिए असद ज़ैदी सबसे पहले ख़ुद को ज़िम्मेदार ठहराते हैं- ''ग्लानि और अपराध के इस दौर में जब/हर ग़लती अपनी ही की हुई लगती है'' और मुक्तिबोध की-सी ईमानदार नैतिक आत्मालोचन का स्मरण कराते हैं - ''मानो मेरे कारण ही लग गया/मार्शल लॉ वह/मानो मेरी निष्क्रिय संज्ञा ने संकट बुलाया/मानो मेरे कारण ही दुर्घट/हुई यह घटना।'' फिर वह उस 'अखिल भारतीय भद्रलोक' को अपने व्यंग्य और आलोचना के निशाने पर रखते हैं, जो या तो स्वयं सत्ता का हिस्सा है या उसके द्वारा पोषित है। उसकी ही 'नींद' के दौरान अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढहा दी जाती है, जिसकी 'ख़फ़ीफ़ सी आवाज़' उसके विकट ख़र्राटे की ध्वनि में खो जाती है। असद ज़ैदी निरे मौजूदा दौर में साँस नहीं लोते, वह इतिहास को जीनेवाले कवि हैं। उनके अंदर सिर्फ़ नतीजों को देखकर बिफर पडऩे, उद्वेलित और शिल्पहीन हो जाने की कमज़र्फ़ी नहीं; बल्कि समूची प्रक्रिया पर बारीक नज़र रखने का संवेदनात्मक धीरज और बौद्धिक संजीदगी है। इसलिए उनके यहाँ सहसा कुछ नहीं होता, अचानक कोई कविता नहीं लिखी जाती। मसलन '1857: सामान की तलाश' में भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम की विफलता का जो अवसाद व्यक्त हुआ है, उसकी आहट इसके लगभग बीस बरस पहले लिखी गयी कविता 'दोपहर' में सुनी जा सकती है- ''डामर जो काफ़ी सख़्त था पिलपिलाने लगा/उस पर चलते हुए लगता था आप बहादुरशाह/ज़फ़र के शरीर पर चल रहे हैं।'' 1857 की हार की एक वजह उसका लचर नेतृत्व भी थी, जिसकी उदास स्मृति इस बिम्ब में देखते बनती है।
इतिहास का कैसा न्याय है कि आज भी भारत का भद्रलोक, अमेरिका के नव-उदार आर्थिक सैन्य साम्राज्यवाद के समक्ष निस्तेज और नतमस्तक ऐसे ही राष्ट्रीय नेतृत्व के नक़्शेक़दम पर चल रहा है। वह 'ख़ुद एक बेहतर ग़ुलामी से ज़्यादा कुछ नहीं चाहता।' 1857 में तो फिर भी हिन्दू-मुस्लिम एकता अपने चरम पर थी, जो बाद में अंग्रेज़ों की साज़िश के सम्मुख टूटती और बिखरती चली गयी और जिसकी परिणति आख़िरकार हिन्दुस्तान के बँटवारे में हुई। लेकिन वह भद्रलोक बना रहा, जो अपनी ज़ेहनीयत में साम्प्रदायिक हो चुका था और चीज़ों को इस मक़ाम तक पहुँचाने में जिसकी एक निश्चित भूमिका थी। असद ज़ैदी की कविता से हम जान सकते हैं कि आज हमारा देश जिस फ़ासीवादी उन्माद की चपेट में है, वह यकायक नुमूदार नहीं हो गया। उसके पीछे इसी भद्रलोक की मौक़ापरस्ती, काहिली और अनुदारता है, जिसे असद ज़ैदी कविता की बिम्बधर्मी भाषा में 'समझदारी और पलायन से भरी शर्मीली हँसी' कहते हैं। उसकी आत्महीनता के मद्देनज़र ही शायद वह पूछते हैं- ''तुम जो भी कोई हो- क्या सचमुच हो?'' इसी भद्रलोक का अंग हिन्दी का बुद्धिजीवी साहित्यिक वर्ग है, जो प्रतिगामी सत्ता से लाभ की प्रत्याशा में पाला बदलने को हरदम तैयार रहता है- ''आख़िर हम भी तो ब्राह्मण हैं! और सेक्यूलर हैं तो क्या/हिन्दू नहीं रहे?'' गोकि इस दोहरे चरित्र की भी एक 'हैरान और परेशान अन्तरात्मा' है, पर वह ''पिछली बीवी की तरह/गांव में रहती है!'' ग़ौरतलब है कि असद ज़ैदी किसी विडम्बना को जब मूर्त करते हैं, तो उससे ही वाबस्ता यथार्थ के एक दृश्य-खंड की मार्फ़त। इसलिए इन बयानों में एक नैसर्गिक और अटूट सौन्दर्य है। समस्या को समग्रता में पकडऩे की यह अंतर्दृष्टि उसकी तकलीफ़ को जीकर ही पायी जा सकती है। कवि के शब्दों में - ''अब मेरी परेशानी ख़ुद ही से खोज लाती है मेरा चश्मा।'' उसकी सचाई इस बात में है कि वह भद्रलोक की कारगुज़ारियों से उत्पीडि़त और संतप्त होने के बावजूद उससे अपने को अलग नहीं मानता और सभ्यता को नाकामी के जिस मोड़ पर खड़ा देखता है, उसकी सामूहिक ज़िम्मेदारी से ख़ुद को बरी नहीं करता-
''अरे हमें ख़ुद कभी पता नहीं चल पाया कि हम
एक बेहतर दुनिया के लिए जिये थे''
* * *
''हम नहीं होंगे विकल
धीरज हमें रास आ जायेगा
हम अपने विनाश को कहेंगे ह्रास''
* * *
''सड़कों पर मुझे अत्याचारियों से अधिक
भद्रलोक का सामना करना पड़ा
यों उबाल के दिनों में सज-सँवरकर उन्हीं के साथ
विरोध में चतुराई का समावेश करते हुए
मुझे भी निकलना पड़ा''
अगरचे 1947 में विभाजन के समय बेशुमार अल्पसंख्यकों ने भारत के सेक्युलर स्वरूप के आश्वासन पर पाकिस्तान न जाने का फ़ैसला किया था, मगर फिर भी साम्प्रदायिक विद्वेष और ख़ून-ख़राबे के विषाक्त अनुभव के कारण उन्हें यहाँ अपने निरापद भविष्य को लेकर अंदेशे कम न थे। बीते तीस वर्षों में साम्प्रदायिक वैमनस्य और हिंसा की राजनीति जिस क़दर सफल, उग्र और ताक़तवर हुई है; उससे उनके इन संशयों की पुष्टि हुई है। इतिहास गवाह है कि पाकिस्तान जाकर वे ग़लती ही करते; पर भारत में रहकर उन्होंने सही किया, इसका आधार न उन्हें कथित लोकतांत्रिक संस्थाएं मुहैया करा पा रही हैं, न ही भद्रलोक का रवैया। मसलन सुप्रीम कोर्ट के द्वारा हिन्दुत्व को धर्म की बजाए एक जीवन-शैली का ख़िताब दिये जाने से जो विभ्रम पैदा हुआ, साहित्य अकादमी अपनी स्वायत्त संवैधानिक हैसियत के बावजूद उसका प्रत्याख्यान नहीं करती; बल्कि उसकी ओट में छिपती है और इससे भी ज़्यादा, बहुसंख्यक वर्चस्व की विचारधारा और अभिजातवाद से अपनी सतत सहमति का औचित्य साबित करने के लिए उसे एक हथियार की तरह इस्तेमाल करती है- ''देखिये हिन्दुत्व की परिभाषा अकादमी ने नहीं/उच्चतम न्यायालय ने तय की है: हम तो/पालन के दोषी हैं/और अगर हम ऐसा बहुत लम्बे समय से/करते चले आ रहे हैं/तो इसे ग़फ़लत नहीं, दूरंदेशी समझा जाना चाहिए।'' इसके अलावा असद ज़ैदी के यहाँ हिन्दी साहित्य का आलोचकीय सत्ता-प्रतिष्ठान है, जो अपने मूल्यों से पूरी तरह विपथित हो चुका है-
''जो मनुष्य अभी अध्यक्षता कर रहा है
सबसे ज़्यादा खोया हुआ पुरुष है
उसका सब कुछ उससे खो गया है।''
जो सर्वाधिक आत्महीन है, उसका सबसे अधिक सम्मान है, क्योंकि आत्म-निर्वासन की बदौलत ही वह सत्ता-तंत्र का हिस्सा बन सका है। असद ज़ैदी बड़े दिलचस्प और प्रभावशाली ढंग से बताते हैं कि किस तरह फ़ांसीवाद सत्ता के शीर्ष से लेकर मध्यवर्ग के बेशतर हिस्से तक में संक्रमित हो गया है। वह उसकी सहज मानसिकता, प्रवृत्तियों और व्यवहार में दाख़िल हो चुका है। जैसे एक शुक्ल जी हैं, जो ख़ुशनुमा मौसम में एक दिन कवि के साथ चलते हुए अचानक अपना एक ख़याल ज़ाहिर करते हैं- ''... अब हमें इस्लामाबाद पर/परमाणु बम गिरा ही देना चाहिए।'' इस जहालत का कारण है कि यह वर्ग लगातार आत्मबुद्ध, अनिश्चित, अनुत्तरदायी और अविश्वसनीय होता गया है- ''समाज से खिसक कर परिवार में छुप जाऊँ/कहला दूं घर पर नहीं हैं/कब आयेंगे पता नहीं/बतला कर नहीं गये।'' मध्यवर्ग का इसी क़िस्म का आचरण फ़ासीवादी राजनीति की मौजूदा सफलता के लिए काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार है। कविता की ख़ूबसूरती इस बात में है कि चूँकि इसकी वास्तविक वजह एक है, इसलिए उसका रंग उभारने के लिए अन्य अवास्तविक वजहों से उसके समक्षीकरण की तकनीकि कवि ने यहाँ अपनायी है-
''... प्रतिक्रियावाद की इस बाढ़ का राज़
कुछ इस ज़मीन में है, कुछ बुज़ुर्गों के
कारनामों में, कुछ गन्ने में भरे रस में है
कुछ बादलों के गरजने में, और कुछ
आपके इस तरह मुंह मोड़ लेने में।''
अंतत: यह प्रश्न लाज़िम है कि वह सामान क्या है, 1857 के बहाने जिसकी तलाश असद ज़ैदी करते हैं? मंगलेश डबराल का निष्कर्ष सही है कि वह नव-साम्राज्यवाद और फ़ासीवाद की दुरभिसंधि के प्रतिकार की मुक्तिकामी राजनीति है; जिसे कवि तमाम धर्मों, जातियों, वर्गों, भाषाओं और संस्कृतियों की विभाजक दीवारों के आर-पार अपने मुल्क के अवाम की फ़िलहाल टूटी हुई एकता में खोजता है। असद ऐसे कवि हैं कि उनमें आत्महंता यथार्थ को स्वीकार करने का कलेजा है- ''जिस सामान की तलाश में मैं आया था इस शहर में/उस का अता-पता तो मुझे मिला नहीं।'' दरअसल शहर उनके यहाँ पूँजीवाद की नींव पर टिकी हुई भव्य शक्ति-संरचनाएं हैं, जो एक इंसान की चेतना में दहशत पैदा करती हैं। अचरज तो यह है कि इनमें रहने वाले लोग इस सभ्यता से बग़ावत नहीं करते, क्योंकि वे इसकी प्रताडऩा के आदी हो चुके हैं। मगर कवि में इतना आक्रोश है कि वह इसके अनस्तित्व की कामना करता है। मानो ग़ालिब कह रहे हों - ''मंज़र इक बलन्दी पर, और हम बना सकते/अर्श से इधर होता, काशके मकाँ अपना।'' निश्चय ही शहर के प्रतिकार में असद ज़ैदी ने बहुत उत्कृष्ट, मर्मस्पर्शी, सुंदर और अविस्मरणीय कविताएँ लिखी हैं -
''अजीब सी आवाज़ से जागकर एक दिन मैंने पाया
दिल्ली एक हृदयविदारक नगर है''
* * *
''भतीजे से कहूँ बम्बई न जाये-वह
भयानक जगह है''
* * *
''तो जो शानदार चमकता शहर है दुर्भाग्य की रोशनियों का
यह नहीं भी तो हो सकता था।''
* * *
''कोई बशर नहीं जो कहे
मैं ज़ख़्मी हूं
कोई ख़ातून नहीं कहती
देखिए भाई साहब ये तो ज़्यादती है''
ऐसे भद्रलोक से कवि क्या तो उम्मीद करे और क्या शिकायत, जो अपनी सामासिक संस्कृति के वैभव और सौन्दर्य से प्राय: मुख़ातब न रह गया हो और जो आधुनिक युग में समतामूलक समाज की स्थापना के लिए किये गये महान् संघर्षों के विस्मरण में साँस ही नहीं लेता हो; बल्कि ख़ुदग़रज़ी के आलम में इस विरासत के ख़िलाफ़ सोचता और सक्रिय रहता पाया जाता हो। याद आता है यह शे'र - ''जब तवक़्क़ो'अ ही उठ गई ग़ालिब/क्यों किसी का गिला करे कोई।'' दर्द उससे कहना चाहिए, जिसमें दर्द की पहचान हो और जिसमें इसकी सलाहीयत न हो, उससे तो यही कहा जायेगा कि आपका कोई क़ुसुर नहीं है जनाब-
''नहीं बराबरी की बात कभी हुई ही नहीं
(हो सकती भी न थी)
उर्दू कोई ज़बान ही न थी
अमीरख़ानी कोई चाल ही न थी
मीर बाक़ी ने बनवायी जो
कोई वह मस्जिद ही न थी
नहीं तुम्हारी आँखों में
कभी कोई फ़रेब न था।''
इस पृष्ठभूमि में यह कहना ज़रूरी है कि असद ज़ैदी ने 'सामाजिकता' के प्रचलित तक़ाज़ों से विरत रहकर सत्य से असंभव मैत्री की कविता लिखी है। चूँकि सच तो तस्लीम करने में अमूमन बड़ी असुविधा होती है, इसलिए उनकी कविता से भद्रलोक की दूरी और नाराज़ी स्वाभाविक है। उल्लेखनीय है कि 2008 में जब उनका संग्रह 'सामान की तलाश' प्रकाशित हुआ, तो हिन्दी का आलोचकीय सत्ता-तंत्र उससे बहुत ख़फ़ा और उत्तेजित रहा। गोकि इससे किसी को उज़्र नहीं हो सकता, पर आपत्तिजनक बात यह थी कि उसने इसकी अंतर्वस्तु से बहस करना मुनासिब नहीं समझा। उलटे इसके विरुद्ध वाचिक निंदा और दुष्प्रचार का गुपचुप अभियान चलाया। यह किसी काव्य-न्याय से कम नहीं, क्योंकि भद्रलोक इससे ख़ुश होता, तो वह कवि की विफलता होती। जैसे सन् सत्तावन के लिए, वैसे ही उस जज़्बे को प्रासंगिक बनाने की कोशिश करती हुई कविता के लिए उनके पास ''सिवा वितृष्णा या मौन के कुछ नहीं था।'' ऐसा भी नहीं है कि इस परिस्थिति का अंदाज़ा कवि को पहले से न रहा हो। आख़िर जब वह एक तरफ़ देश के हाल की बाबत अपनी तकलीफ़ और बेचैनी का इज़हार करता है- ''हालाँकि कहाँ मिलेगा अब आराम/जब ज़मीन ही को आराम नहीं है'', तो दूसरी ओर इस संदर्भ में हमवतनों के बीच पराया हो जाने की तल्ख़ हक़ीक़त से भी वाक़िफ़ है- इस ज़मीन की तारीख़ पर बात ''अजनबी लोगों के दरम्यान ही हो सकती है।''
ऐसा ही अकेलापन ग़ालिब के यहाँ मिलता है। असद ज़ैदी को पढ़ते हुए उनकी आवाज़ अक्सर सुनायी पड़ती है। मानो वह उनकी अंतश्चेतना में समाये हुए हैं। वरिष्ठ कवि कुँवर नारायण का यह आकलन अच्छा है कि असद ''हिन्दी के मिज़ाज को पूरी तरह स्वीकार करते हुए उसमें उर्दू के संस्कारों का बहुत रेशमी-सा गंगा-जमुनी आभास घोलते हैं'' और यह कि उनकी कविता में ''एक तहज़ीब की मिठास बोलती है।'' हिन्दी कविता की भाषा को ख़ूबसूरती और ताक़त के इस नये पहलू से समृद्ध करने की उनकी विशेषता, मानी 'भाषायी-सांस्कृतिक गरमाहट' के प्रसंग में उन्होंने ग़ालिब के 'अंदाज़ेबयाँ' को याद किया है। पर बात सिर्फ़ अंदाज़ की होगी, तो अधूरी रह जायेगी। असल में ग़ालिब ने जिस काव्य-भूमि को निर्मित किया था, असद ज़ैदी ने ख़ास अपने ढंग से दूसरे क़िस्म के वक़्त की यातना सहते हुए अलहदा राजनीतिक-भाषिक मुहावरे में उसका विकास किया है। चाहे वह बयान का शाइस्ता-सा लहज़ा हो, विचार और मर्म की अनूठी संहति हो, व्यंग्य और आत्म-व्यंग्य की आकर्षक तीक्ष्णता और अंतर्दृष्टि-सम्पन्न सूक्ष्म विनोदप्रियता हो, स्वाभिमान की दृढ़ता हो या फिर ईमानदारी की इंतिहा-ग़ालिब से उनकी इतनी नज़दीकी और समांतरता है कि हम उन्हें 'हिन्दी का असद' कह सकते हैं।
असद ज़ैदी के यहाँ कुंजड़े कहते हैं- ''घर पर यों तो कुछ भी ठीक नहीं है/पर सब कुछ ठीक है।'' ग़ालिब का यह एहसास जैसे साधारण जन-समाज की ज़िन्दगी में घटित हो रहा हो- ''दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना।'' क़फ़स में रहकर भी वह अपने आशियाने पर बिजली गिरने की बेरहम ख़बर को सुनते की ताब रखते थे और असद यक़ीन करते हैं- ''लगातार इन्कार करते रहने में/अपनी इच्छा से चुनी गयी जेल में।'' एक सुखद विस्मय से भरकर ग़ालिब ने पूछा था- ''सब्ज़ा-ओ-गुल कहाँ से आये हैं/अब्र क्या चीज़ है, हवा क्या है?'' क्या प्रश्नाकुलता के देश में सौन्दर्य का यही स्तवन सृष्टि की अमरता के प्रति असद की आस्था में नहीं बदल गया है- ''मुझे यक़ीन है/बंजर ज़मीन पर यहाँ-वहाँ निकल आयी घास/और हवा के खेल में/वस्तुओं की निरन्तरता में।'' ग़ालिब ने अपने दौर में आदमी के इंसान हो पाने को सबसे दुश्वार स्थिति माना था और असद के यहाँ मनुष्यता इतनी संकटापन्न है कि कवि स्वयं एक आत्म-संशय से घिर गया है- ''मनुष्यों में वह सिर्फ़ मुझे पहचानती है/और मैं भी मनुष्य जब तक हूँ तब तक हूँ।'' ग़ालिब 'रगों में दौड़ते फिरने के क़ाइल' नहीं थे और ख़ून की लहर सर से ही क्यों न गुज़र जाय, यार की चौखट से उठ जाना उन्हें मंज़ूर न था। क्या यह महज़ इत्तिफ़ाक़ है कि असद ज़ैदी कहते हैं - ''अतिरेक में ही जीवन है''? गोकि उनकी कविता ''ख़ून से लिखी इबारत'' है, पर अवाम को नहीं दिखती, क्योंकि अन्यायी सत्ता इसके आड़े आती है- ''इस मक्कार व्यवस्था/के दिन/लद जायेंगे/ख़ून से लिखी इबारत/एक दिन सबको दिख जायेगी।''

'सरेशाम', असद ज़ैदी के तीन कविता संग्रहों की एक जिल्द आधार प्रकाशन पंचकूला ने छापी है। बाबरी मस्जिद विध्वंस के दस साल बाद असद ज़ैदी के सम्पादन में हिन्दी कविताओं का एक उल्लेखनीय संकलन आया जिसमें साम्प्रदायिक उभार की तीखी आलोचना उपलब्ध है।


Login