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जून-जुलाई 2015

रीत की खोज करना ही भारत की समस्या है

श्याम मनोहर / अनुवाद: निशिकांत ठकार

इक्कीसवीं शताब्दी के सवाल





एक मामूली घटना के बयान से शुरुआत करता हूँ। हम परिवार के लोग और हमारी कामवाली पूनम की एक रात टेरेस पर काफी पीते बैठे हुए थे। कामवाली बुजुर्ग थी,दादी हो चुकी थी। बातों के सिलसिले में बाई ने कहा, ''बचपन में जब हम गाँव में थी तब इसी तरह सहेलियाँ मिल बैठती थी और तारों के गिनने का खेल खेला करती थी। गिनते गिनते यह बात निकल जाती थी कि गिनना कहाँ से शुरु किया है, और फिर कहाँ से शुरु करें यही समझ में नहीं आता था, बड़ी उलझन में पड़ जाती थी। हमें अपने पर बहुत हँसी आ जाती थी।''
यह घटना एक तरह से प्रतिनिधिक है। बचपन में कुतूहल रहता था कि आकाश में कितने तारे हैं। उनकी गिनती कैसे करें, इस बात की रीत मिलती नहीं थी। नदियों को साफ करना है, तो क्या है रीत? शहरों को साफ करना है, क्या है रीत? रहदारी को सरल करना है, क्या है रीत? किसानों की आत्महत्याओं को रोकना है, क्या है रीत?
रीत की खोज करना, यही भारत की समस्या बनी हुई है। फालके ने मुम्बई में सिनेमा देखा। धुन सवार हो गई और फालके इंग्लैंड जाकर कैमरा सीख आये और उन्होंने सिनेमा बनाया। पाश्चात्य राष्ट्रों में, अमरीका जाने और सीखकर यहाँ लौटकर बनाने की रीत चल पड़ी। जनतंत्र भी ऐसे ही आया। पोशाक, रीति रिवाज भी ऐसे ही आये। यदि पाश्चात्य राष्ट्रों ने कोई प्रौद्योगिकी नहीं दी, तो संदर्भ लेकर उस प्रौद्योगिकी को विकसित किया जाता है। कहा जाता है, कि 'पूरी तरह से भारतीय बनावट का राकेट' है। जब से भारत स्वाधीन हुआ है, पुनर्शोध-रिसर्च-करना ही चल रहा है। साहित्य में भी यही हुआ है। अस्तित्वाद, ऐब्सर्डिटी से पोस्ट मॉडर्निज्म तक - पुनर्शोध, रिचर्स ही जारी है।
इससे यह प्रश्न सामने आता है कि फिर अपना क्या है? प्रौद्योगिकी वगैरह को दूसरों से लेने में कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन अपनी संस्कृति को बचाना चाहिए इस तरह के जवाब आने लगे। वेदों में कैलक्युलस था, विमानविद्या थी, गणपति प्लास्टिक सर्जरी का उदाहरण जैसी बातें चल पड़ी।
यह सब, अब वेद-पुराणों में पुनर्शोध, रिसर्च शुरू हो गया। भारतीयों को  रिसर्च की आदत पड़ गई है। 'सर्च' की, शोध की आदत नहीं पड़ रही है।
अभी साहित्य के बारे में प्राचीन भारतीय साहित्य का पुनर्शोध करने और उसे उदाहरण स्वरुप सामने रखने की बात शुरु नहीं हुई है। शोध की बात तो दूर ही है। परिणाम स्वरुप मराठी साहित्य में यथार्थ का चित्रण हो रहा है। जो ज्ञात है, उसी को ही साहित्य में प्रस्तुत किया जा रहा है। स्वाभाविक है कि समाज को ऐसे साहित्य में रस नहीं आ रहा है। साहित्य की ओर प्रगत संस्कृति के एक लक्षण के रूप में देखा जाता है। साहित्य के प्रचार और प्रोत्साहन के लिए शासन योजनाएँ बनाता है। साहित्य के लिए पुरस्कार हैं। विविध स्तरों पर साहित्य सम्मेलन होते हैं। प्रकाशन समारोह, काव्यपाठ, कथा साहित्य की पाठ्यप्रस्तुति, संगोष्ठियाँ आदि किस्म की बातें हो रही हैं। बस, कमी है तो पुस्तकालयों की। किसी भी राजनीतिक पार्टी के कार्यक्रम में पुस्तकालयों के लिए गुंजाइश नहीं हैं, ना उद्योगपति भी इस कार्यक्रम की ओर ध्यान दे रहे हैं।
समाज साहित्य से फुरसत और आराम के साथ वाबस्ता है। साहित्य जब नरमाई से जी हाँ नरमाई से पैदा होता है, तब समाज उसे पैदा होने देता है। लेकिन जब साहित्य नरमाई छोड़कर बढऩे लगता है तब समाज के कुछ अंग ऐसे साहित्य को सीधा करने के लिए आवेश में आ जाते है। कहते हैं कि अपनी संस्कृति की रक्षा करनी चाहिए। बचा हुआ समाज बीच में नहीं आता। शासन व्यवस्था तो बीच में नहीं आती।
बचा हुआ समाज क्या करता रहता है। माली हालत, बदन की तन्दुरुस्ती, पारिवारिकता, सुरक्षा आदि की ही फिक्र करता रहता है। और शासन व्यवस्था क्या करती है? सांप्रदायिकता, धार्मिकता, जातिवाद, आर्थिक व्यवहार, भूमण्डल का नेतृत्व, नदियों की स्वच्छता, शहरों-गाँवों को स्मार्ट बनाना, नये रोजगार पैदा करना, चाँद पर जाना, औद्योगिकीकरण, कृषि, शेअर बाजार, पदम पुरस्कार, नेताओं की मूर्तियाँ- सत्ता को सँभालना आदि बातों का हिसाब-किताब करते हुए, विरोधियों को राजनीति न करने का इशारा देते हुए रास्ता निकालती रहती है। 'रास्ता' निकालती है, 'जवाब' नहीं। जवाब निकालना हो तो शोध लाज़मी होता है।
समाज और शासन की छुपी राय होती है कि, समाज की समस्याओं को सुलझाने के लिए साहित्य किसी काम का नहीं। खुले आम कहा जाता है कि, विज्ञान से ही समाज की समस्याएँ हल होंगी।
समाज और शासन 'विज्ञान' शब्द का प्रयोग तो करते हैं लेकिन दर असल उनको कहना होता है प्रौद्योगिकी, टेक्नोलॉजी। शिल्पज्ञान को ही विज्ञान कहा जाता है। शिल्प ज्ञानी को वैज्ञानिक।
अपने समाज की पहली जरुरत है भौतिक समस्याओं का समाधान। समाज की दूसरी जरूरत है धर्म। समाज को धार्मिक कार्यक्रम चाहिए ही चाहिए। फिर धर्म का तात्विक अर्थ भी सही लगता है। धर्म के तात्विक अर्थ- अर्थात्- अध्यात्म में लोग डूब जाते हैं। विज्ञान, साहित्य, तीसरी, चौथी या पाँचवी जरूरत हैं।
किसी भी धर्म के तत्वों को काम में लाने से न नदियाँ साफ हो सकती हैं, न शहर, न गाँव। इसे सब जानते हैं और सबने इसे स्वीकार भी किया है। लेकिन, चुपचाप स्वीकार किया है। दूसरा उदाहरण है, षडरिपुओं में से एक लोभ का। सभी धर्मों का तत्व है कि लोभ नहीं करना चाहिए। भारतीय समाज में लोभ के परिणामस्वरुप आर्थिक भ्रष्टाचार की बड़ी समस्या उत्पन्न हुई है।
लोभ को कैसे जीते? लोभ को जीतने की रीत क्या है? आदमी इसे समझ नहीं सकता। आर्थिक भ्रष्टाचार को रोकने के लिए धर्म काम नहीं आता। भ्रष्टाचार को मिटाने की, बगैर धर्म की, व्यवहार की ऐसी रीत की खोज करना जरुरी है कि आदमी का लोभ ही आपरेट न हो। क्या भारतीय लोगों ने लोभ को आपरेट ही न होने देने वाली सामाजिक रीत की खोज की है? जवाब देना होगा, नहीं।
भारतीय समाज की दशा इस कदर दयनीय हो गई है कि, नदियों को स्वच्छ करना, गाँवों-शहरों को स्वच्छ करना भ्रष्टाचार को मिटाना, रहदारी को ठीक करने जैसी भौतिक समस्याओं को सुलझाने की न धार्मिक रीत बनती है न बगैर-धर्म की रीत ही मिलती है। और फिर प्रतीकात्मक या प्रबोधनात्मक मार्गों को अपनाया जाता है। रीत की खोज नहीं होती। भारतीय सभ्यता में खोजने की आदत नहीं पड़ती।
भारतीय सभ्यता में पुनर्शोध करना, रिसर्च-बरसों से चल रहा है। दुनिया में जो ज्ञात है, उसका पुनर्शोध करते हुए चलते रहना ही जारी है। प्रौद्योगिकी से लेकर दर्शन और साहित्य तक। खोज करना यानी किस बात की खोज करना? जवाब आसान है 'अज्ञान की खोज'। और अज्ञान से तात्पर्य किसी एक व्यक्ति का अज्ञान नहीं, मानव जाति का अज्ञान। मानव जाति को अभी तक जिस बात का पता नहीं, उसकी खोज करना और सिर्फ खोज करते रहना ही नहीं, खोज का पता बताना। सिर्फ अज्ञात कहने पर आदमी खो जाता है। अज्ञात किस बात से सम्बन्धित है? आदमी से, विश्व से और जीवन से।
आदमी भी अभी पूरी तरह से समझ में नहीं आया है। विश्व अभी पूरी तरह से समझ में नहीं आया है। जीवन का अर्थ अभी पूरी तरह से समझ में नहीं आया है। आदमी क्या है? विश्व क्या है? जीवन का अर्थ क्या है? इनमें बहुत कुछ अज्ञात है। मानव जाति ही अज्ञात है। अज्ञात में जो है उसकी खोज करना।
क्या भारतीय सभ्यता में अज्ञात की खोज हो रही है? नहीं। एक कारण बताया जाता है, कल्पना की कंगाली। दैनंदिन जीवनक्रम ही प्रधान होता है और उसी में खोज का काम होता है। सब शोध दर असल पुनर्शोध ही होता है। जब शोध करना ही प्रधान होता है तब जीवनक्रम उसके अनुसार बनता है। जब शोध चौबीसो घंटे चलता है, तब वह पुनर्शोध नहीं होता, बल्कि शोध करना होता है। पुनर्शोध बाहरी मन का व्यवहार होता है। शोध अन्तर्मन का व्यवहार होता है। अन्तर्मन में अज्ञात के किसी पहलू का सुराग मिल जाता है। सुराग मिल जाने की क्रिया आत्मज्ञान- इन्ट्यूशन से होती है। सुराग सिर्फ उजागर होकर रह गया तो उसे दर्शन या साक्षात्कार कहा जा सकता है। सुराग को लेकर उसे सत्य के रूप में सिद्ध करना पड़ता है। इस सिद्धता के लिए विवेक (रीज़न) को काम में लाना पड़ता है।
अन्तज्र्ञान और विवेक से अज्ञात के जिस भाग को खोजा जाता है वह ज्ञान शाखा का निर्माण करता है। क्या भारतीय समाज में इस तरह अज्ञात का खोजने का काम नहीं होता? जवाब है- नहीं होता। क्या भारतीयों की ऐसी धारणा है कि, अज्ञात जैसा कुछ होता ही नहीं।
हर एक धर्म के आदमी की मान्यता होती है कि धर्म में सब कुछ बता दिया है, सब कुछ खोज किया है। उदाहरण से समझेंगे। मृत्यु क्या है? इस पर उत्तर हरेक धर्म ने दिया है। इसके बावजूद मनुष्य की आयु में पाँच-सात ऐसे अवसर आते है जब उसके सामने मृत्यु क्या है यह प्रश्न नयी सूरत में खड़ा हो जाता है। मनुष्य इसका नये सिरे से उत्तर चाहता है। विश्व क्या है? जीवन का अर्थ क्या है? धर्म ऐसे प्रश्नों के उत्तर अवश्य दे चुका है फिर भी मनुष्य के सामने ऐसे प्रश्न खड़े हो जाते है। इसका मतलब है कि, मनुष्य की खोजने की वृत्ति जीवित है। होता यह है कि, प्रश्न अन्तर्मन में नहीं जाते और शोध की क्रिया थम जाती है। विकार अन्तर्मन में जाने पर मनुष्य विकृत बन जाता है। अज्ञात की जिज्ञासा अन्तर्मन में जाने पर मनुष्य सर्जनशील बन जाता है।
प्रश्नों को अन्तर्मन में ले जाने से मनुष्य डरता है। इसलिए कि प्रश्न का अन्तर्मन में रहना बेहद तकलीफदेह होता है। शारीरिक श्रम, शारीरिक पीड़ा, बाहरी मन की वेदना इन से बढ कर प्रश्न के अन्तर्मन में रहने की पीड़ा अधिक तीखी होती है। क्या भारतीय मनुष्य इस वेदना को टालना चाहता है? इसका एक आयाम और भी है: भारतीय सभ्यता में एक ऐसी धारणा बन चुकी है कि, जबतक आर्थिक दशा ठीक नहीं होती तब तक शोध करना, अज्ञात की बातों को खोजना सम्भव नहीं। शोधों का इतिहास देखें तो यह प्रमेय गलत साबित होता है। भारतीय दशा अभी तक अज्ञात के शोध के लिए अनुकूल नहीं है। जो करना चाहता हैं उसे अपनी हिम्मत पर करना होगा। इसकी मिसालें मनुष्य के इतिहास में, भारतीय इतिहास में भी मौजूद हैं। न हो तो भी उन्हें बनाने में कोई आपत्ति नहीं है। ऐसा नहीं होता कि अज्ञात की बातों को जानने का प्रयास मनुष्य सामूहिक रूप से करता हो। अज्ञात की बातों को जानने के लिए समाज उत्सुक तो अवश्य होता है लेकिन अज्ञात की बातों की खोज व्यक्ति को ही करनी होती है। यह व्यक्तिवाद-समूहवाद का द्वन्द्व नहीं है। व्यक्ति के काम और समाज के काम की समझदारी होती है। व्यक्ति को खोजना है और समाज को देना है। अज्ञात की बातों को खोजने से संस्कृति बनती है। संस्कृति से जीवन की प्रणाली, सभ्यता और परंपरा में सुधार होता है। परंपरा को न हिफाजत से रखना है न जानबूझकर तोडऩा है। अज्ञात की बातों की खोज कर सुधारना होता है।
मानवजाति को जो अज्ञात है, उसकी खोज करना कथात्म साहित्य का भी काम है। नये धर्म की संस्थापना होना कब से बंद हो चुका है। धर्म पुराने हो चुके हैं फिर भी मनुष्य को 'स्वधर्म' चाहिए।
स्वधर्म की स्थापना के लिये व्यक्ति की सहायता करना साहित्य का काम है। बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि, व्यक्ति की स्वधर्म को स्थापना करने की जरूरत, साहित्य की प्रेरणा है।
इस तरह की कशमकश से साहित्य का दर्शन निर्माण होता है। साहित्य के दर्शन का निर्माण होना प्रगत संस्कृति के लिए आवश्यक होता है। हरएक को इस चुनौती को स्वीकार करना होगा। मैं भी कर रहा हूँ।
और अंत में अब मैं अपने आप सभी साहित्यकारों के लिए चिन्तन करता हूँ दुनिया में जितने भी मारखेज, सारामागो और जो भी है उन को दूर करो। मराठी के नेमाडे, श्याम मनोहर, तेंडुलकर, आळेकर को दूर करो। अरुण कोलटकर को दूर करो। उपन्यास, कहानी, कविता, नाटक आदि विधाओं को दूर करो। सभ्यता में मौजूद भाषा के साथ सभी नामो निशानियों को काम में लाओ और मानवजाति के लिए अज्ञात की किसी बात के किसी पहलू की खोज करो। खोज करना ही है यह अपना दायित्व है इसे समझ के आध्यात्म को दूर रखो। सीधे अहंभाव को दूर करने की प्रक्रिया की खोज करो। और हाँ, यह सब अन्तर्मन में होना चाहिए। प्रश्न का अन्तर्मन में जाना ही प्राकृतिक होता है। यदि अन्तर्मन में दुनियादारी हो तो प्रश्न के अन्तर्मन में जाने में बाधा पैदा होती है। दुनियादारी को बाहरी मन में ही रहने दो तो फिर प्रश्न अपने आप अन्तर्मन में जाने में बाधा पैदा होती है। दुनियादारी को बाहरी मन में ही रहने दो तो फिर प्रश्न अपने आप अन्तर्मन में जायेगा। प्रश्न को अन्तर्मन में ही रहने दो उसकी पीड़ा को सहन करों फिर सृजन का सुराग मिल जाता है। सुराग से उत्तर को सिद्ध करों। सिद्ध करना अहम् बात है। इसके लिए विवेक को काम में लाओ। विवेक को काम में लाना यूँ तो यंत्रवत् होता है अत: शारीरिक पीड़ा का होता है।
इस तरह जो साहित्य बनेगा वह मौलिक होगा। फिर इस साहित्य को संगीतकार तर्ज में बाँधेगा, निर्देशक रंगमंच पर या पर्दे पर ले आयेगा और समीक्षक फिर इस साहित्य की विधाएँ बनायेंगे।


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