मुखपृष्ठ पिछले अंक इक्कीसवीं शताब्दी के सवाल विकास का आतंकवाद, मुख्यधारा का भोगवाद और आदिवासी प्रति-संस्कृति।
जून-जुलाई 2015

विकास का आतंकवाद, मुख्यधारा का भोगवाद और आदिवासी प्रति-संस्कृति।

रणेन्द्र

इक्कीसवीं शताब्दी के सवाल






मुनाफा और वर्चस्व केन्द्रित 'विकास मॉडल' प्रश्नों के घेरे में रहा है । 1991 के बाद  विकल्पहीनता के उसके भाव ने उसकी आक्रमकता को एक तरह से चरम पर पहुंचा दिया है । जो मुखौटा उसके ऐजेंडे को लागू करने में असमर्थ दिख रहा था, उसे आसानी से बदल दिया गया है । नया मुखौटा उसके तीव्र आक्रामक भाव के अनुरुप दिख सा रहा है । लेकिन विकल्पहीन नहीं रही है दुनिया । लातीन अमेरिकी देश एवं ग्रीस अति आक्रमक पूंजीवाद को वैकल्पिक साम्यवादी / समाजवादी नीति का ही आईना दिखा रहे हैं । आदिवासी जीवन और संस्कृति के बरअक्स इस 'कट-पेस्ट' वाले सर्वग्रासी 'विकास मॉडल' पर प्रश्न खड़े करने का उद्देश्य  भारत में बहुजन के मानस के लिए मूल तत्व को रेखांकित करना है जो आवश्यकता से अधिक उपभोग में संकोच करता रहा है। न्यूनतम में जीवनयापन में ही संतोष, सुख-आनन्द की अनुभूति करता रहा है । ''गौतम बुद्ध इसे ही 'सम्यक आजीव' कहते हैं यानी अपनी आजीविका इस प्रकार चलाना जिससे समाज को हानि नहीं पहुंचे ।''  (धर्मानन्द कोसम्बी, 'भगवान बुद्ध जीवन और दर्शन पृ. 105)
'प्रकृति पर विजय' के दुर्दान्त दर्शन के साथ साम्राज्यवादी हथियार से पूरी दुनिया को छिन्न-भिन्न कर रही इस कथित विकास नीति पर तो सबसे पहले महात्मा गांधी ने ही सवाल खड़े करने शुरु किए थे, यथा: ''ईश्वर ही बचाए अगर भारत को कभी पश्चिम की तर्ज पर औद्योगिकीकरण करना पड़े । एक अकेले छोटे से द्वीप (इंग्लैंड)  के आर्थिक साम्राज्यवाद ने आज दुनिया को जंजीरों में बांध रखा है । अगर तीस करोड़ लोगों का एक पूरा राष्ट्र वैसा ही आर्थिक दोहन शुरु करता है तो यह दुनिया को टिड्डियों की तरह ठंूठ करके छोड़ देगा।'' ('डिस्कशन विद ए कैपिटलिस्ट, यंग इंडिया, दिसम्बर 20 1928)
दो साल पहले 1926 में उन्होंने दावा किया था कि ''भारत को इंग्लैंड और अमेरिका जैसा बनाने का मतलब धरती पर नई नस्लों और जगहों को उत्पीडऩ के लिए खोजना है, क्योंकि पश्चिमी राष्ट्रों ने पहले से ही दोहन के लिए यूरोप से बाहर की सभी ज्ञात नस्लों का ही बंटवारा कर लिया है और अब खोजने के लिए कोई नई दुनिया नहीं बची है। उन्होंने साफ-साफ पूछा था: पश्चिम की नकल करने की कोशिश करने वाले भारत की गति क्या हो सकती है?'' ( 'द सेम ओल्ड आग्र्यूमेंट,' यंग इंडिया, 2 जून 1927)

विकास का आतंकवाद
'विकास या विकास का आतंक' पदबन्ध का सबसे पहले प्रयोग अर्थशास्त्री अमित मादुड़ी ने किया। उनकी एक पुस्तक का शीर्षक ही 'विकास का आतंक' था जो सन 2011 में ''फिलहाल प्रकाशन'' द्वारा प्रकाशित हुई थी जिसमें 'विकास के मॉडल' को प्रश्नांकित किया गया था जो गरीबों-वचितों को ज्यादा गरीब-वंचित बनाता है और सम्पन्नों को ज्यादा सम्पन्न। राजसत्ता कॉरपोरेट्स के पक्ष में अपनी ही जनता के आर्थिक हितों के विरूद्ध कार्य करती है।
माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने नंदिनी सुंदर और अन्य बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (सलवा जुडूम) मामले में जुलाई 2011 को अपना फैसला सुनाया। उस फैसले के पैराग्राफ  14 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने 'विकास के आतंकवाद' पदबन्ध का कई बार प्रयोग किया है, यथा ''ऊँची संवृद्धि के लिए हर दिन बढ़ती संख्या में कुपोषित, अप्रशिक्षित, अशिक्षित और असहाय गरीबों को उनकी नियति पर बेरहम वैश्विक बाजार के तर्क के सामने छोड़ दिया जाये। यह सिर्फ  एक अन्यायी प्रक्रिया नहीं है। इस तरह से हासिल की जाने वाली ऊँची संवृद्धि सिर्फ  आय के वितरण के सवाल की ही उपेक्षा नहीं करती है, इसकी हकीकत कई गुना ज्यादा बुरी है। यह विकास के नाम पर गरीबों को क्रूर हिंसा की धमकी देती है। यह एक तरह का 'विकास का आतंकवाद' है। ...''
माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपने उक्त निर्णय के पैराग्राफ (6) में 'विकास के आतंकवाद' को कुछ यूँ व्याख्यायित किया है ''आजादी के बाद विकास के जिस प्रतिमान (पैराडाइम) को अपनाया गया, उसने समाज में हाशिए पर पड़े तबकों में पहले से मौजूद असंतोष को और भी ज्यादा बढ़ाया...। नीति-निर्माताओं द्वारा तय किए गए विकास के प्रतिमान को इन समुदायों पर थोप दिया गया... इससे इन लोगों को अपूरणीय क्षति हुईं। इस विकास प्रतिमान की अधिकांश कीमत गरीबों ने चुकाई, लेकिन इसके फायदों के बड़े हिस्से पर समाज के प्रभुत्वशाली तबके का कब्जा होता रहा है और गरीबों को बहुत ही कम फायदा मिला है । दरअसल, विकास इन समुदायों की जरुरत के प्रति असंवेदनशील ही रहा है। इस कारण इन्हें अनिवार्य रुप से विस्थापन का सामना करना पड़ा है और इसने इन्हें अमानवीय जिंदगी जीने को मजबूर किया है । खासतौर पर आदिवासियों के मामले में इसने उनके सामाजिक संगठन, सांस्कृतिक पहचान और संसाधनों को नष्ट किया है... इन सबके कारण इनका शोषण और भी आसान हो गया है... विकास के तरीके और इसके क्रियान्वयन ने नौकरशाही के भ्रष्ट व्यवहार और ठेकेदारों, बिचौलियों, व्यापारियों और व्यापक समाज के लोभी तबकों द्वारा किए जाने वाले खूंखार शोषण को और भी ज्यादा बढ़ाया है जो इनके संसाधनों पर कब्जा करने और उनकी गरिमा का हनन करने पर उतारु हैं ।''
माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपने उपर्युक्त फैसले के पैराग्राफ-13 में आदिवासियों की बड़ी आबादी का विकास योजनाओं के कारण हुए विस्थापन पर टिप्पणी की है, ''...भारतीय राज्य दशकों तक विकास की परियोजनाओं से उखड़े लोगों को जीविका के वैकल्पिक साधन उपलब्ध कराने में नाकाम रहा है। एक अनुमान के मुताबिक 1950 से 1990 के बीच विकास परियोजनाओं के कारण अनुसूचित जनजातियों के 85  लाख लोग विस्थापित हुए। यह कुल विस्थापित हुए लोगों का 40 प्रतिशत हिस्सा है। इनमें से केवल 25 प्रतिशत लोगों का ही पुनर्वास हो पाया।...''
(समयान्तर, अगस्त 2011 पृ.13-14)
चँूकि विश्व के लगभग सभी विकासशील देशों ने विकास के यूरोपीय मॉडल को हूबहू अपनाया है अतएव वृहद परियोजनाओं के साथ-साथ बड़ी आबादी का विस्थापन एक अपरिहार्य घटना है।
बोगुमिल सेरामिन्सकी, (पोलैन्ड के शोध लेखक), एन्थोनी ओलिवर स्मिथ (फ्लोरिडा के मानवशास्त्री) एवं माइकल एम सेर्निया (अमेरिकन-रोमानिया समाजविज्ञानी) के अध्ययन के अनुसार वृहद विकास परियोजनाओं से पूरी दुनिया में लगभग 15 मिलियन लोग प्रत्येक वर्ष विस्थापित होते हैं।
नॉर्थ इस्टर्न सोशल रिसर्च सेन्टर, गौहाटी के वाल्टर फर्नान्डिस के अनुसार, ''अपने देश में सबसे दिक्कत यह है कि आजादी के वाद विकास जनित विस्थापितों का कोई प्राधिकृत ऑकड़ा संधारित नहीं किया गया, पुनर्वास एवं पुर्नस्थापन के गम्भीर प्रयास नहीं हुए। 2007  ई. से  पूर्व कोई पुनर्वास-पुर्नस्थापन की नीति भी उपलब्ध नहीं थी। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि 'विस्थापित व्यक्तियों' एवं 'परियोजना प्रभावित व्यक्तियों' का बहुलांश समाज के हाशियाकृत हिस्से का है यानी कि उनमें आदिवासी एवं दलित समुदायों का प्रतिशत सबसे ज्यादा है।''
वाल्टर फर्नान्डिस ने 1990 के पूर्वाद्र्ध में उपलब्ध द्वितीयक ऑकड़ों के विश्लेषण के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि 1951 से 1990 के बीच विस्थापितों की संख्या 213 लाख थी। (प्रोग्रेस: एट हूज कॉस्ट, पृ.15-16)
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन द्वारा 54 बांधों को लेकर किए गए एक विस्तृत अध्ययन के मुबाबिक एक बड़े बांध से विस्थापित होने वाले लोगों की औसत संख्या 44,182 है। 1997 ई. में 3,300 बड़े बाँधों में से 54 बांधों का नमूना पर्याप्त नहीं है । लेकिन चूँकि यही हमारे पास उपलब्ध है, और ज्यादा एहतियात बरतते हुए प्रति बड़े बांध विस्थापित होनेवालों की संख्या 10,000 मान लेते हैं। तब भी विस्थापितों की संख्या तीन करोड़ तीस लाख हो जायेगी।
ग्रामीण क्षेत्र एवं रोजगार मंत्रालय द्वारा 21 जनवरी, 1999 को दिल्ली में आयोजित एक बैठक में योजना आयोग के सचिव एन.सी.सक्सेना ने कहा कि उनके ख्याल से यह संख्या पाँच करोड़ के आसपास है (जिनमें से चार करोड़ लोग बड़े बांधों द्वारा विस्थापित है)।  (अरुन्धति राय, न्याय का गणित, पृ. 44-45)
विस्थापितों में बड़ा प्रतिशत आदिवासी लोगों का है (सरदार सरोवर बांध के मामलें में 57.6 प्रतिशत)। इनमें दलितों को भी शामिल कर लीजिए तो सारा आंकड़ा अश्लील हो जाता है । अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग के मुताबिक यह आंकड़ा लगभग 60 प्रतिशत है । (भारत सरकार, 28वीं व 29वीं रिपोर्ट ऑफ द कमिश्नर फॉर शिड्यूल कॉस्ट्स एंड शिड्यूल ट्राइब्स नई दिल्ली, 1988-89)
भट्टा-परसौला, उत्तर प्रदेश के किसानों के आन्दोलन के पूर्व तक सरकारें बिना किसी हिचक के 1894 ई. के औपनिवेशिक भूमि अधिग्रहण कानून के आधार पर अपनी ही जनता की भूमि का जबरन अधिग्रहण करती रही है। 1894 ई. के भूमि अधिग्रहण कानून के पीछे ब्रिटेन के 'इनक्लोजर कानूनों' की छाप थी। इन्क्लोजर कानून का बहुलांश 1750 से 1860 ई. बीच आया था जिसके माध्यम से आम ब्रिटिश कृषक के व्यक्तिगत-सामुदायिक उपयोग में आने वाली सार्वजनिक भूमि उनसे छिन कर बड़े जमीन्दारों, बड़े व्यापारी भेड़ पालकों के कब्जे में दे दी गई। 1860  तक कुल कृषि योग्य भूमि का 21 प्रतिशत (28000 किलोमीटर) भूमि उजाड़ कर 'इन्क्लोज' कर ली गई। भूमिहीन तबाह ब्रिटिश किसानों की भीड़ से ही नये कारखानों के लिए बंधुआ मजदूर मिले।
ब्रिटिश हुक्मरान अभारतीय 'एमिनेन्ट डोमेन' के सिद्धान्त के साथ पधारे थे जिसमें प्राकृतिक सम्पदा (जल, जंगल, जमीन) का मालिक समुदाय नहीं राज्यसत्ता होती है। आजादी के बाद की राज्यसत्ता सच्चे उत्तराधिकारी की तरह उस सिद्धान्त का अनुपालन करती रही है।
वाल्टर फर्नान्डिस के शोधों के अनुसार ''विस्थापितों में से मात्र 20 प्रतिशत लोगों का ही पुनर्वासन हो पाया । ... पुर्नस्थापन और पुनर्वास दोनों दो भिन्न प्रक्रियाएँ हैं । पुर्नस्थापन मात्र एक बार (वन टाईम) सहयोग की प्रक्रिया है। किसी विस्थापित परिवार बिना कोई अन्य सहयोग के कहीं स्थापित कर देना-आवासीय सुविधा मात्र दे देना । जबकि पुनर्वास आर्थिक संसाधनों, सांस्कृतिक-सामाजिक संरचानाओं के पुनर्निर्माण एंव सामुदायिक सहयोग पद्धति के पुन: सक्रिय करने की प्रक्रिया से जुड़ा है । अपने देश में पुर्नस्थापन तो दिखता भी है किन्तु पुनर्वास की प्रक्रिया पूर्ण होती नहीं दिखती।''
दीर्घकालिक क्षेत्रीय योजनाओं के अभाव के कारण एक ही परिवार को कई-कई बार विस्थापन की त्रासदी झेलनी पड़ती है: यथा मध्यप्रदेश के रिहान्द बांध से साठ दशक के पूर्वाद्र्ध में विस्थापित हुए परिवारों को अगले तीस वर्षों में तीन बार विस्थापन झेलना पड़ा। कर्नाटक के काबिनी बाँध से सत्तर के दशक में विस्थापित हुए सोलिगा आदिवासी समुदाय के विस्थापितों को पुन: 'राजीव गाँधी नेशनल पार्क' के कारण विस्थापन झेलना पड़ा । मंगलौर बन्दरगाह के कारण साठ के दशक में विस्थापित हुए मछुआर परिवार जब कृषक की तरह जीवन व्यतीत करने लगा तो उन्हें पुन: कोंकण रेलवे परियोजनाओं के कारण अस्सी के दशक में विस्थापित किया गया ।
मानवाधिकार के सन्दर्भ में देखें तो विस्थापितों को 'गरिमा पूर्ण जीवन जीने' के मूलभूत अधिकार से ही वंचित होना पड़ता है। उसकी जीवन आधार, खेती की भूमि से वंचित होते और गाँव के छूटते ही वह रोजगारविहीन, गृहविहीन हो जाता है। खाद्य असुरक्षा, स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव के कारण मातृ-शिशु मृत्युदर में अभिवृद्धि आदि विस्थापन के साथ अपरिहार्य रुप से सम्बद्ध हैं। गाँव से दूरी उसकी सामुदायिक सम्पदा तक पहुँच को समाप्त कर देती है। समुदाय के साथ रहने के कारण मिलने वाली सामाजिक-मानसिक सुरक्षा खत्म हो जाती है। वह अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान से महरुम हो जाता है। नई असुरक्षित जगह पर उसके और उसके परिवार के सदस्यों को अक्सर शारीरिक और यौन हिंसा से रुबरु होना पड़ता है।
विस्थापन के कारण कुछ भी हों विस्थापित व्यक्ति के मानवाधिकारों के हनन की प्रकृति एक तरह की होती है। वह जीवन जीने के मूलभूत प्राकृतिक अधिकार से ही वंचित हो जाता है। उसके जीवन से 'गरिमा' लुप्त हो जाती है। उसके प्राण और देह निरन्तर असुरक्षा के दवाब में रहते हैं।
विकास जनित विस्थापन के विस्थापितों के अधिकारों की रक्षा के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी कई कदम उठाये हैं यथा:
I.    'विकास एवं स्वनिर्णय का अधिकार': संयुक्त राष्ट्र की महासभा ने 1986 में इन अधिकारों की घोषणा की कि लोगों का यह हक है कि वे निर्णय लें कि उनके लिए किस तरह के विकास की आवश्यकता है।
II.    सहभागिता का अधिकार: मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा, सिविल और राजनीतिक अधिकारों के अन्तर्राष्ट्रीय कन्वेंशन एवं आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक अधिकारों के अन्तर्राष्ट्रीय कन्वेंशन के साथ-साथ  अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के 1991 के जनजातीय समुदायों से सम्बद्ध कन्वेंशन के अनुच्छेद 7 के अनुसार लोगों को अपने विकास हेतु लिए जाने वाले निर्णय की प्रक्रिया में शामिल होने का अधिकार है।
III.    जीवन और आजीविका का अधिकार: मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के अनुच्छेद 3 एवं सिविल और राजनीतिक अधिकारों के अन्तर्राष्ट्रीय कन्वेंशन के अनुच्छेद 6 के तहत प्रत्येक इन्सान को ये अधिकार प्राप्त हैं। इनसे उन्हें वंचित नहीं किया जा सकता।
IV.    समाधान का अधिकार: मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के अनुच्छेद 8 और सिविल-राजनैतिक अधिकारों के अन्तर्राष्ट्रीय कन्वेंशन के अनुच्छेद 2 के अनुसार विकास जनित विस्थापन से उत्पन्न समस्याओं से नागरिकों को समाधान प्राप्त करने का अधिकार है ।

उपराष्ट्रपति मो. हामिद अन्सारी ने 23 अगस्त 2009 को इन्स्टीच्यूट ऑफ ह्यूमेन डेवलपमेंट के अन्तरराष्ट्रीय सेमिनार का उद्घाटन करते हुए यह रेखांकित किया कि ''जनजातीय समुदायों की 80 प्रतिशत आबादी खेती से अपनी आजीविका चलाती है जिनमें से 45 प्रतिशत किसान हैं और 37 प्रतिशत खेतिहर मजदूर। उनके लिए जमीन आजीविका के सबसे बड़े संसाधन, भावनात्मक लगाव और सामाजिक स्थायित्व के आधार हैं। उनकी खेती, बागवानी, वानिकी और पशुपालन उसी पर निर्भर करता है । उनकी जमीन से उनका बिलगाव उनकी दरिद्रता, उनकी संकटग्रस्त आर्थिकी की बरबादी का सबसे बड़ा कारण है। ...राष्ट्रीय जनजातीय नीति के प्रारुप के अनुसार आजाद भारत के विकास के प्रतिमानों ने जनजातीय आवासन और बसावटों को विखंडित कर दिया, उनकी संस्कृति को विघटित कर दिया और उनके समुदायों को बिखरा दिया। नगद मुआवजा उनके हाथों से फिसल गया क्योंकि जनजातीय समुदाय नगद धन के संचालन कौशल से अपरिचित था। इस प्रकार प्राकृतिक संसाधनों का स्वामी और भावनात्मक रुप से अपने समुदाय पर निर्भर जनजातीय इन्सान शहरों में मजदूर के रुप में अकेला, अनिश्चित भविष्य और अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रहा है ।'' (सोशल इक्सक्लूजन एंड एडवर्स इन्क्लूजन -पृ.20-22)

मुख्यधारा का भोगवाद
स्विटजरलैंड के दावोस शहर में 21 से 24 जनवरी 2015 को वल्र्ड इकॉनोमिक फोरम की वार्षिक बैठक सम्पन्न हुई। इस बैठक की खास बात यह थी कि जार्ज सोरेस जैसे अनोखे हेज फंडर, पॉल पोलमैन जैसे मुख्य कार्यकारी पदाधिकारी एवं क्रिस्टीना लगार्दे जैसी अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की प्रबंध निदेशक, सब ने एक स्वर में विश्व में अमीरी-गरीबी के बीच बढ़ती खाई पर फौरी चिन्ता व्यक्त की।
ब्रिटिश पत्रकार-लेखक श्यूमाश मिल्ने ने गार्जियन अखबार के अपने आलेख 'इन दाबोस वरिंग एवाउट इनइक्यूलिटी' में इस दिखावे की चिन्ता का मजाक उड़ाते हुए आश्चर्य व्यक्त किया कि 'ऐसी वैचारिकी के संचालक अधिपतिगण अपने ही कृत्यों के परिणामों पर चिन्ता व्यक्त कर रहे हैं, जिनके कारण मानवीय इतिहास में अभूतपूर्व अमीरी-गरीबी के बीच खतरनाक खाई पैदा हो गई है।
श्यूमाश मिल्ने के अनुसार 'दरअसल चैरिटी ऑक्सफैम नामक संस्था ने इस बढ़ती असमानता का विस्तृत खाका प्रस्तुत किया है। केवल अस्सी लोगों के पास दुनिया  की आधी आबादी (साढ़े तीन अरब) की आमदनी के बराबर धन एकत्रित हो गया है। पिछले वर्ष दुनिया की आबादी के मात्र 1 प्रतिशत लोगों (पूजीपतियों) ने विश्व की समस्त सम्पदा के 48 प्रतिशत हिस्से पर कब्जा कर लिया जब कि एक वर्ष पूर्व तक यह केवल 44 प्रतिशत था। सम्पदा लूट की यह गति बनी रही तो आने वाले वर्षो में ये 'सुपररिच' एक प्रतिशत लोग 99 प्रतिशत विश्व सम्पदा को हथिया लेंगे।
(द हिन्दू, शुक्रवार, 23 जनवरी 2015)
सुख्यात फ्रांसीसी अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी की चर्चित पुस्तक 'कैपिटल इन द ट्वेंटी फस्र्ट सैंचुरी' एवं अर्थशास्त्री जोसेफ स्टिगलिट्ज की पुस्तक 'ग्लोबलाइजेशन एंड इट्स डिस्क्टेन्ट्स' अमीरों के अन्तहीन भोग और गरीबों के बीच बढ़ती खाई को ही अपने-अपने ढंग से रेखांकित कर रहे हैं।
हाल ही में वेल्थ-एक्स और यूवीएस ने वल्र्ड अल्ट्रा वेल्थ नामक अपनी रिपोर्ट-2013 (विश्व अतिरेक सम्पति रिपोर्ट) जारी की। इस रिपोर्ट में दुनिया भर के अमीरों की सूची बनाई गई है। धनकुबेरों की इस गणना में भारत भी शिखर के दस में से छठवें स्थान पर जगह बनाने में सफल रहा है। इस रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ  मुम्बई में ही 30 अरबपति हैं। आई.एम.एफ. की प्रबंध निदेशक क्रिस्टीना लगार्दे ने भी डिंबलवी व्याख्यानमाला में बोलते हुए कहा कि भारत के अरबपतियों की अकूत सम्पति में पिछले पन्द्रह सालों में बारह गुना वृद्धि हुई है। इन मुठ्ठी भर अमीरों के पास इतना पैसा है जिससे पूरे देश की गरीबी एक बार नहीं, दो बार मिटाई जा सकती है। (समयान्तर, नवम्बर, 2014 आतिफ  रब्बानी: आर्थिक असमानता का बढ़ता दायरा)
अर्थशास्त्री अमित भादुड़ी का मानना है कि दरअसल, भारत जैसा विकासशील देश जब पूँजीवादी मॉडल को अपनाता है और ऊँची संवृद्धि और फटाफट औद्योगीकरण की दौर में शामिल होने की कोशिश करता है तो उनके पास विकल्प और भी सीमित होते हैं। विकास के नाम पर सरकार अपने ही नागरिकों की जमीन छीनकर निजी कंपनियों के हवाले करने लगती है। खनन, उद्योग और विशेष आर्थिक क्षेत्र कायम करने के लिए ऐसी कम्पनियों की लागत कम हो जाती है क्योंकि इन्हें लगभग मुफ्त में जमीन, पानी और संसाधन मिल जाते हैं। इस तरह उनके उत्पाद अन्तराष्ट्रीय बाजार में टिक सकते हैं। इन संसाधनों के जबरन हस्तान्तरण के जरिये आज भारत में निजी कम्पनियों की दौलत ताबरतोड़ बढ़ती जा रही है। यही वजह है कि गरीबी से ग्रस्त इस देश में खतरनाक रफ्तार से अरबपति पैदा होते जा रहे हैं। (अमित, भादुड़ी, विकास का आतंक पृ. 9)
जीव विज्ञानी माधव गाडगिल एवं इतिहासकार समाजविज्ञानी रामचन्द्र गुहा देश की आबादी को दो भागो में बाँटते हैं जिन्हें सर्वभक्षी और  पारिस्थितिकीय जन का नाम दिया गया है । इस तरह सर्वभक्षी, जिनमें उद्योगपति, धनी किसान, राज्य के अधिकारी और शहरों में केंद्रित उभरता हुआ मध्य वर्ग शामिल है (अनुमानत: तीस करोड़ से ज्यादा)। अपनी जीवन शैली को बरकरार रखने के लिए पूरे भारत के प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल की क्षमता रखते हैं । दूसरी तरफ  पारिस्थितिकीय जन, जिनमें मोटे तौर पर ग्रामीण आबादी का एक तिहाई हिस्सा या करीब 40 करोड़ लोग शामिल हैं - ज्यादातर अपने आसपास के संसाधनों पर निर्भर हैं, जिसकी अधिक से अधिक मात्रा कुछ दर्जन वर्ग मील भर होगी। ये छोटे और मंझोले किसान है, जिनकी जमीन की सिंचाई बारिश के पानी पर निर्भर है, भूमिहीन मजदूर हैं और शिकार संग्राहकों, झूम की खेती करने वालों, पशुपालकों और लकड़ी का काम करने वाले कारीगरों के विभिन्न संसाधन आधारित समुदाय हैं। ये सभी जिद्दी, पूर्व आधुनिक समुदाय, एक निरंतर उत्तर आधुनिक होती जा रही स्थिति में अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं।
स्वतंत्र भारत में विकास की प्रक्रिया की विशिष्टता सर्वभक्षी और पारिस्थितिकीय जनों के बीच यह बुनियादी और भारी असंतुलन है। पिछले साठ वर्षों में ऐसे आर्थिक विकास की एक पंक्ति में परिभाषा इस तरह दी जा सकती है: 'राज्य के उपकरणों के जरिए और खजाने के खर्च पर, ग्रामीण तथा शहरी सर्वभक्षियों के हितों को पूरा करने के लिए प्राकृतिक संसाधनों को निरंतर बढ़ी हुई मात्रा में निकाला जाना ही विकास है।' (उपभोग की लक्षमण रेखा: रामचन्द्र गुहा-पृ. 252 -253)
द हिन्दू के पूर्व सम्पादक श्री पी. साईनाथ के आलेख 'टू द सोशल सब्सिडी व्हिनर्स, प्लीज चेक कॉरपोरेट राईट-ऑफ  कॉलम' में उल्लेखित किया है कि वित्तीय वर्ष 2005-06 से 2013-14 तक कॉरपोरेट्स को दी गई छूट (कोरपोरेट इन्कम टैक्स, एक्साइज ड्यूटी ) कुल 36.5 लाख करोड़ थी जबकि इस अवधि में आम आदमी को खाद्य, उर्वरक और पेट्रोलियम पर मात्र 9,57,138 करोड़ रुपयें की सब्सिडी मिली ।
आदिवासियों के लिए ट्राइब्ल सब प्लान एवं दलितों के लिए शिड्यूलड कास्ट सब प्लान में आबादी प्रतिशत 8.67 एवं 16.6 प्रतिशत के हिसाब से केन्द्रीय योजना बजट की राशि का आवंटन होना चाहिए था। इस राशि को  2005-06 से 2013-14 तक 8,75,380.36 करोड़ होना चाहिए था लेकिन आंवटित मात्र 3,47,656.64 रुपये ही हुए यानी समाज के इन वंचित वर्गो के लिए वैधानिक रुप से जितनी राशि आवंटित होनी चाहिए थी उसकी लगभग 40 प्रतिशत राशि ही आवंटित की गई। लगभग 5,27,723.72 करोड़ की राशि से उन्हें वंचित कर दिया गया।
तहलका के 21 जनवरी 2015 के अंक में  इसी विषय के आलेख में पूर्व केन्द्रीय सचिव पी.एस.कृष्णन को उद्धृत किया गया है जिन्होंने शुरुआती वर्षों में टीएसपी और एससीएसपी की नींव रखने में अहम् भूमिका निभाई है, ''राजनीतिक नेतृत्व और असंवेदनशील नौकरशाही संविधान के उन आधारभूत सिद्धांतों को ध्वस्त कर रही हैं, जिनके आधार पर टीएसपी और एससीएसपी का ढांचा बनाया गया है । आवंटन के अनुमानित और काल्पनिक आंकड़े देकर इनकी वैधता का जामा पहनाया गया है और इसे महत्वहीन बनाया गया है। लिहाजा यह पूरी प्रक्रिया  महज अंकगणितीय कवायद बनकर रह गई है। इसका आदिवासियों और दलितों के विकास के लिए जरुरी उपायों से कोई नाता नहीं है। केंद्र और राज्य सरकारें अनुसूचित जातियों और जनजातियों की आर्थिक स्वतंत्रता और शैक्षिक समानता के अहम आयामों को भुला बैठी है। (नोशलन एलोकेशन वह आवंटन है जो केवल कागज पर है, जहां जरुरी बजट का जिक्र तो होता है, लेकिन उसका समुदायों के लाभ के लिए उपयोग नहीं होता)।
ऐसे में अनुसूचित जातियों और जनजातियों को संस्थागत रुप से वंचित किए जाने की प्रक्रिया में इनको फंड से वंचित करना और इनके लिए आवंटित फंड का दूसरी जगह इस्तेमाल करना एक घातक संयोग बन जाता है।''
असंवेदनशीलता केवल आवंटन के स्तर पर ही नहीं दिखती बल्कि क्रियान्वयन में यह ज्यादा निर्लज्ज प्रतीत होती है । तहलका के उसी आलेख में प्रान्तवार 'ट्राइब्ल सब प्लान' एवं 'शिड्यूल कास्ट सब प्लान' की आवंटित राशि को दूसरे मदों में किए गए व्यय का विस्तृत ब्यौरा है जिसकी एक झलक निम्न उदाहरणों से मिल सकती है -
''झारखंड सरकार के योजनागत व्यय के विस्तृत अध्ययन से पता चलता है कि टीएसपी फंड के करोड़ों रुपयों के इस्तेमाल दो वीआईपी जहाजों ( एक ट्रेनर एयरक्राफ्ट और एक मोटर ग्लाइडर) की खरीद, हजारीबाग, पलामू, धनबाद, दुमका और गिरिडीह में झारखंड फ्लाइंग इंस्टीट्यूट के बुनियादी ढांचे के विकास, कई जिला मुख्यालयों में रनवे के निर्माण और न्यायालय से संबंधित अन्य निर्माण कार्यों, प्रशासनिक भवनों के निर्माण आदि में किया गया।
मध्यप्रदेश सरकार के वित्तीय वर्ष 2014-15 के बजट के विश्लेषण से भी टीएसपी और एससीएसपी के अन्य कामों के लिए इस्तेमाल की बात पता चलती है, इस फंड को राजमार्गो और पुलों सहित बुनियादी ढांचे से संबंधित बड़ी परियोजनाओं में इस्तेमाल किया गया है । इसके अलावा इसे झीलों और तालाबों के सुंदरीकरण, एनिमल इंजेक्शंस, सिंथेटिक हॉकी टर्फ  बनाने, स्टेट इंडस्ट्रियल प्रोटेक्शन फोर्स के गठन के लिए इस्तेमाल किया गया है और तो और इस फंड को सिंहस्थ मेला, जिसे उज्जैन कुंभ मेला के नाम से जाना है, के लिए भी खर्च किया गया है, सामाजिक दृष्टि से देखें, तो यह मेला अछूत प्रथा को बढ़ावा देने के लिए कुख्यात है।
यही हाल मध्य प्रदेश के पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ का भी है । अगर हम वित्त वर्ष 2014-15 के छत्तीसगढ़ के बजट पर नजर डालें तो पता चलता है कि यहां टीएसपी और एससीएसपी फंड को अन्य कामों के अलावा 'स्पेशल पुलिस' और 'पुलिस' के लिए इस्तेमाल किया गया। एससीएसपी से 3.03 करोड़ रूपये पुलिस विभाग को दे दिए गए।
ओडि़सा के विश्लेषण में साफ  हुआ कि टीएसपी और एससीएसपी फंड का इस्तेमाल पुलिस और अन्य बलों के आधुनिकीकरण, जेलों और पुलिस बैरकों के निर्माण, ओडि़सा स्टेट पुलिस हाउसिंग एंड वेलफेयर कॉरपोरेशन के जरिए पुलिए के लिए आवासीय भवनों के निर्माण के लिए किया गया। आदि'' (तहलका, अभिशप्त आदिवासी, अंक-31 जनवरी 2015)
भारतीय समाज का अभिजात्य, उच्च मध्य एवं मध्यवर्ग को अपने उपभोग के लिए न केवल बजटीय प्रावधान से भारी छूट, अनुदान चाहिए बल्कि पिछले कई दशकों से वह सबसे वंचित वर्ग के आवंटन में 60 प्रतिशत तक की कटौती करता रहा है और लगभग 40 प्रशित आवंटित राशि को भी अपने ही उपभोग पर व्यय करता रहा है, यह भोग और निर्लज्जता की पराकाष्ठा है। ढाँचागत हिंसा की इससे जिन्दा मिसाल और क्या हो सकती है। दुखद यह कि यह प्रक्रिया पिछले तीन दशकों से जारी है और इसके प्रतिकार में कही कोई उद्वेलन, कोई विरोध की आवाज तक सुनाई नहीं पड़ी, कोई पत्ता तक नहीं खड़का। 

भूमि लूट का वैश्वीकरण
'भूमि अधिग्रहण विधेयक' को कानूनीजामा पहनाने के लिए जिस तरह पूर्ववर्ती सरकार और उसके ज्यादा मारक स्वरुप के लिए वर्तमान सरकार व्यग्र है वह केवल स्थानिक मामला नहीं है । इसके पीछे वैश्विक आर्थिक-राजनीति की बड़ी भूमिका है । खास कर जिस चिन्हित उद्देश्य से जो भूमि अधिग्रहित की गई है अगर पांच साल में उस उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो तो किसानों को भूमि वापस करने की शर्त न मानने की जिद्द उस शक को पुख्ता करता है। याद कीजिए कि कितनी 'सेज' (स्पेशल इकोनॉमिक जोन) के लिए अधिग्रहित भूमि 'रेज' (रियल एस्टेट जोन) को हस्तान्तरित की गई।
सच तो यह है कि 2008 की मन्दी के बाद छोटे-बड़े  हर निवेशक को यह लग रहा है कि जमीन में निवेश सर्वथा सुरक्षित है एवं हर हाल में मुनाफा देने वाला है। यूरोपीय इन्वेस्टमेंट हाउसेज, प्राइवेट इक्विटी फंड्स, हेज फंडस, वल्र्ड बैंक, इन्टरनेशनल फाइनेन्स कॉरपोरेशन, यूरोपियन बैंक फॉर रिकन्सट्रक्शन एन्ड डेवलपमेंट 'भूमि' में निवेश को न केवल प्रोत्साहित कर रहे हैं बल्कि राष्ट्रों पर यह दवाब बना रहे हैं कि वे भूमि हस्तान्तरण सम्बन्धी अपने कानून में बदलाव भी लायें। काजिकस्तान-ब्राजील जैसे देशों ने उक्त अभिप्रेरणा से वांछित बदलाव किए भी हैं ।
ऐसी वैश्विक 'भूमि लूट' के लक्षित देश पूर्वी अफ्रीका, सोवियत संघ से विघटित हुए छोटे-छोटे देश एवं एशिया में कम्बोडिया, लाओस, फिलिपीन्स, इन्डोनेशिया आदि हैं।
इस वैश्विक 'भूमि लूट' में भारतीय पूंजीपति भी पीछे नहीं है। उदाहरणार्थ बंगलुरु के फ्लोरिकल्चर टायकून साई रामकृष्ण करूतुरू के निवेश की बानगी को देखा जा सकता है। जिन्होंने इथोपिया में 3000 (तीन हजार) वर्ग किलोमीटर जमीन झटक ली है । जहाँ मक्का की कमी भूख के रुप में प्रकट हो रही है वहाँ करूतुरू जी गुलाब की खेती कर रहे हैं । तन्जानिया, मोजाम्बिक, कांगों, सेनेगल, सियरा लियोन, दक्षिण सूडान उनकी उड़ान के अगले पड़ाव हैं।

आदिवासी प्रति-संस्कृति
झारखण्ड के सुदूर आदिवासी इलाकों में एक दशक से ज्यादा समय बिताने के क्रम में उनकी जीवन शैली, चिन्तन-दर्शन की चार बातें - चार स्तम्भ आकर्षित करते रहे हैं, ये हैं: (I) प्रकृति के साथ गहरा तदात्म्य का भाव-समभाव (II) सामुदायिकता में प्रबल आस्था (III)श्रमरस में पगा स्वभाव (IV) स्त्री के प्रति सहज सम्मान-समता का भाव।
यूँ तो हम सभी उसी निसर्ग के एक तुच्छ अंश हैं किन्तु हमारी यूरो सेन्ट्रिक जीवन-शैली, आर्थिक-सांस्कृतिक-सामाजिक धारा हमे निरन्तर प्रकृति से दूर ले जा रही है । यूरोप की तरह प्रकृति पर विजय, उसकी लूट और भोग हमारा भी लक्ष्य हो गया है। किन्तु आज भी आदिवासी संस्कृति -समाज और आर्थिकी के केन्द्र में प्रकृति है। उसकी आदिवासियत, भौतिक और अधिभौतिक आवश्यकताएँ प्रकृति से जुड़ी हैं। उसके सर्वोच्च देवता सिंगबोंगा-धर्मेश सखुआ वृक्ष के झुंड में निवास करते है। वृक्षों की पूजा एक तरह से वनस्पति जगत के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन है। अगर जीव जगत के आगमन के पूर्व लाखों वर्ष तक वनस्पति जगत वायुमंडल से कार्बन डाईआक्साइड ग्रहण कर प्रकाश संश्लेषण के द्वारा आक्सीजन नहीं छोड़ते रहते तो पृथ्वी जीव विहीन ही रहती। जीवमंडल ही निर्मित नहीं होता। अतएव पूजा के रुप में यह कृतज्ञता ज्ञापन आदिवासी समाज से वैदिक-ब्राह्मण समाज में भी तुलसी पूजा, पीपल-वट पूजा के रुप में शामिल हुआ।
शंकराचार्य का अद्वैत दर्शन सभी जीवों में ईश्वर के अंश को महसूस करता है यह उसका एक ओर अपूर्व विस्तार है तो सीमा भी है। लेकिन जहाँ अद्वैत दर्शन की सीमा खत्म होती है वही से सरना दर्शन का प्रस्थान बिन्दु प्रारम्भ होता हैं। आदिवासी दर्शन, 'आदि धर्म', 'सरना धर्म' न केवल समस्त जीवजगत में बल्कि अजीवों में भी ईश्वर की मौजूदगी का अहसास करता है। उससे अध्यात्मिक जुड़वा महसूस करता है। वह मरांगबुरु बोंगा के रुप में पहाड़, इकिर बोंगा के रुप में नदियों की भी अराधना करता है। समस्त जीव जगत - समस्त वनस्पतियाँ गोत्र-टोटम के तौर पर उसके जीवन से जुड़ी हैं।
केन्द्रीकृत पूँजीवादी उत्पादन प्रणालियों ने न केवल सामुदायिकता को बल्कि परिवार की अवधारणा को भी तोड़ा है। औद्योगिकरण और सर्विस सेक्टर ने न्यूक्यिलयर परिवार की अवधारणा दी तो सूचना प्रौद्योगिकी ने 'लिविंग टूगेदर' विवाह विहीन, जिम्मेवारी विहीन जीवन शैली को जन्म दिया। समृद्धि के साथ अकेलेपन ने कई नई बीमारी, मानसिक बीमारियों-विकारों को जन्म दिया। 'आत्महत्या' के उकसाया किन्तु आदिवासियत सामुदायिकता के साथ नाभिनाल के रुप में जुड़ी है। वही उसकी जिजीविषा है, वही आपदा-विपदा उसकी रक्षा करता है। कृषि और वन आधारित आर्थिकी बिना सामुदायिकता के चल नहीं सकती।
वर्णव्यवस्था से मुक्त समाज को हाथ से मेहनत को लेकर कोई कुंठा या झिझक नहीं है। श्रम की महत्ता को माक्र्सवाद का दर्शन या गाँधी की जीवन शैली, वर्चस्वशाली धारा के सामन्ती-वर्णवादी मन में बैठा नहीं सकी वहीं आदिवासी समाज के पहान-पूजार-मानकी-पड़हा राजा के लिए भी हल, फवाड़ा, खुरपी टांगी पकडऩा वैसा ही है जैसा मछली के लिए पानी में तैरना।
श्रम आधारित जीवन शैली ने स्त्रियों के प्रति सहज समता-सम्मान भाव का संस्कार दिया है। मुख्यधारा का 'जनानी-जननी' और आदिवासी समाज का 'सियानी' शब्द की व्याख्या इस गहरे फर्क को स्पष्ट करता है। जहाँ आदिवासी समाज अपनी स्त्रियों की बुद्धिमता-मस्तिष्क के सौन्दर्य, सियानेपन को 'सियानी' कह कर रेखांकित करता है। वहीं वर्चस्वशाली समुदाय स्त्री के गर्भ-त्वचा के स्तर पर ठिठका हुआ है। जबकि नारीवाद की धाराएँ इसी मस्तिष्क के सौन्दर्य को रेखांकित किए जाने की माँग तो दशकों से कर रही हैं।
''भारोपीय भाषा परिवार'' से जुड़ी कथित वर्चस्ववादी धारा का समाज अपने संस्कृत, लैटिन-अंग्रेजी, अरबी-फारसी आदि की समृद्धि-सम्पन्नता पर इतना आत्ममुग्ध, इतना अहम्मन्यता भाव से भरा है कि अन्य भाषा परिवार की विशिष्टताओं पर नजर भी नहीं डालना चाहता।
मुण्डा, संताल, हो, खडिय़ा, खेरवार, बिरहोड़, असुर, उत्तरपूर्व के अधिकांश आदिवासी समुदायों की भाषाएँ ''आस्ट्रो-ऐशियाटिक भाषा'' परिवार की सदस्याएँ हैं । यह भाषा-परिवार आस्ट्रेलिया से एशिया तक फैले आदिवासी समुदायों में बोली-लिखी जाती है जो भाषा झारखण्ड के मुण्डा बोलते-लिखते हैं वही भाषा न्यूजीलैंड के 'माओरी' और हंगरी के 'मग्यार' भी बोलते हैं।
इस भाषा-परिवार की सम्पन्नता का अन्दाज इस बात से लगाया जा सकता है कि कथित 'देव भाषा' संस्कृत या अंग्रेजी का कोई शब्दकोष मैंने अभी तक सोलह खंडो में नहीं देखे। किन्तु जब बेल्जियम का एक युवा पादरी फादर जॉन हॉफमैन 1892 ई. में राँची पहुँचा तो मुण्डारी गीतों से आकर्षित हो कर 1898 ई. से मुण्डारी सीखनी प्रारम्भ की। 1914 ई. में प्रथम विश्व युद्ध के प्रारम्भ होते उसे भारत छोडऩा पड़ा। लेकिन उनका अध्ययन-लेखन चलता रहा और सोलह खंडों में एन्साइक्लोपीडिया मुण्डारिका का प्रकाशन संभव हुआ।
उसी संतालों की इसी भाषा परिवार की भाषा संताली का दस खण्डों में शब्द कोष पी.ओ.बडिंग ने प्रकाशित करवाया। डब्लू.जी. आर्चर की उपलब्धियाँ कुछ पंक्तियों में नहीं समा सकतीं।

आदिवासी सपने
वेरियर ऐल्विन और मरांग गोमके जयपाल सिंह मुण्डा के तर्कों से प्रभावित हो कर प्रथम प्रधान मंत्री पंडित नेहरु ने पंचशील का सिद्धांत दिया था। इस सिद्धांत के तत्व निम्नवत थे :
(I) आदिवासी जन अपनी चेतना और बोध के अनुसार आगे बढ़ें और हमें इन पर कोई चीज थोपने से परहेज करनी चाहिए ।
(II) आदिवासियों के जमीन एवं जंगल सम्बन्धी अधिकारों का आदर होना चाहिए ।
(III) हमें आदिवासियों के एक ऐसे कार्यदल को प्रशिक्षित करना चाहिए जो स्वयं प्रशासनिक और विकास कार्यों का संचालन कर सके। इसमें सन्देह नहीं है कि प्रारम्भ में कुछ तकनीकी व्यक्तियों की आवश्यकता होगी, जो बाहरी होंगे, लेकिन हमें आदिवासी क्षेत्रों में बाहरी लोगों की अधिकता बढ़ाने की प्रवृति से बचना चाहिए।
(IV) इन इलाकों में प्रशासन अधिक नहीं बढ़ाया जाना चाहिए और न वहाँ कार्यक्रमों की भरमार होनी चाहिए। आदिवासियेां की सामाजिक और सांस्कृतिक संस्थानों से प्रतिस्पद्र्धा के बजाय उनके माध्यम से काम किया जाना चाहिए।
(V) हमें नतीजों की परख खर्च की गई राशियों, आंकड़ों से नहीं करनी चाहिए बल्कि मानवीय जीवन के गुणवतापूर्ण विकास के आधार पर करनी चाहिए ।

वैकल्पिक विकास का मॉडल
आदिवासी राष्ट्र भूटान के राष्ट्राध्यक्ष पूर्व राजा जिग्मे सिग्मे वांकचूक ने ग्रॉस नेशनल हैप्पीनेस का सिद्धांत दिया था । जिसके चार स्तम्भों की व्याख्या बाद में निम्नवत की गई:
(I) टिकाऊ विकास
(II) सांस्कृतिक मूल्यों का संवद्र्धन एवं परिवद्र्धन
(III) प्रकृति-पर्यावरण का संरक्षण एवं
(IV) सुशासन 
लाभ-लोभ-लूट-वर्चस्व के पूँजीवादी कथित विकास के दर्शन के प्रतिकूल समता सामुदायिकता-सामंजस्य-सम्मान का सपना आदिवासी दुनिया अपने आँखों में संजोये है ।

वैकल्पिक विकास का मॉडल-II
 बेंगलुरु इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के जीव विज्ञानी माधव गाडगिल एवं इतिहासकार, समाजविज्ञानी रामचन्द्र गुहा का वैकल्पिक विकास पर दस्तावेज नवम्बर 1989:
1. वैकल्पिक विकास के रास्ते की, एक ऐसी रणनीति की तलाश हो रही है जो टिकाऊ होगी, जो बढ़ती हुई सामाजिक और आर्थिक असमानताओं के बढ़ते रुझानों को पलटेगी ।
2. सबसे ऊपर, इनमें फैसले लेने की प्रक्रिया के विकेंद्रीकरण, उच्च प्राथमिकता के साथ ग्रामीण रोजगार के निर्माण और एक अधिक खुली हुई, जवाबदेह शासन व्यवस्था की जरुरत शामिल है । ये सारे क्षेत्र पर्यावरणवादियों के सरोकारों के लिए बेहद प्रासंगिक हैं, क्योंकि यह केंद्रीकृत नौकरशाह तरीके से निर्णयों का लिया जाना ही है, जिसने बहुत कम सार्वजनिक जवाबदेही के साथ इतने अदूरदर्शिता भरे, विध्वंसक विनाश की तरफ  ले गया है।
3. यह विकास प्रक्रिया बिना इसके दूरगामी नतीजों या संसाधनों के इस्तेमाल की कारगरता के बारे में सोचे, संसाधनों के फौरी इस्तेमाल पर जोर देती है। इस तरह संसाधनों की फिजूलखर्ची बढ़ रही है, जिससे जुड़ी पर्यावरणीय और सामाजिक कीमत कहीं अधिक है। इन कीमतों को आबादी का वह हिस्सा, और बेशक अब तक अजन्मी पीढिय़ां, चुकाता है, जो गरीब, असंगठित और निरक्षर बना हुआ है। परियोजनाओं के विस्थापितों के पुनर्वास की समस्या की भारी अनदेखी ऐसा ही एक तरीका है, जिसके जरिए ये कीमतें समाज के कमजोर तबकों पर थोपी जाती हैं। इसका एक दूसरा तरीका जनता को अपने स्थानीय क्षेत्र के संसाधनों पर किसी भी नियंत्रण से अलगा देना और संसाधनों को व्यावसायिक जरुरतों को पूरा करने के लिए सौंप देना है। केंद्रीकृत, नौकरशाह विकास की इसी पद्धति का नतीजा रहा है कि चल रही ग्रामीण रोजगार योजनाओं ने नष्ट स्थानीय पर्यावरण के पुनर्वास में बहुत कम योगदान दिया है।
4. देश में जो कुछ भी चल रहा है, उसे सभी नागरिकों को जानने के अधिकार को कबूलना, विकास योजनाओं की निगरानी उस मशीनरी से स्वतंत्र कराया जाना जो उन्हें कार्यान्वित कर रही हैं, और इसे सुनिश्चित किया जाना कि थोड़े भर अभिजात हिस्सेदार तबकों की व्यापक सहमति के बगैर फैसलों को थोप नहीं सकते हैं, इन विकृतियों को दूर करने के क्रम में ये महत्वपूर्ण कदम हैं । रक्षा योजनाओं समेत सभी विकास योजनाओं से संबंधित, जिनमें पुनर्वास किया जाना है, सभी सूचनाएं सभी नागरिकों के लिए खुली होनी चाहिए (विशेष रुप से पहचाने गए सुरक्षा संबंधी मामलों को छोड़कर)  असल में उस व्यक्ति के लिए कड़ा दंड निर्धारित किया जाना चाहिए जो सूचनाओं तक पहुंच को बाधित करें और उनको पुरस्कार दिए जाएं जो इसकी सूचना देने के लिए विशेष प्रयास करें।
सभी विकास परियोजनाओं के सामाजिक और आर्थिक लाभ-लागत का विश्लेषण विस्तृत  परियेाजना रिपोर्ट (डीपीआर) तैयार करते वक्त ही जरुर किया जाए। जबकि परियोजना अधिकारियों पर ऐसा विश्लेषण किए जाने को सुनिश्चित बनाने की जिम्मेदारी हो, उन्हें इसके लिए बाध्य किया जाना चाहिए कि वे यह विश्लेषण स्वतंत्र एजेंसियों  के जरिए कराएं, जिनकी पूरी पहुंच सभी प्रासंगिक सूचनाओं तक हो। साथ ही, यह एजेंसी भी अपने कामकाज के क्रम में, प्रासंगिक स्थानों पर जन-सुनवाई के जरिए सभी संबद्ध नागरिकों को इस प्रक्रिया में शामिल करे। परियोजनाओं के विस्थापितों के पुनर्वास की योजनाएं, मुआवजा देकर वनों की कटाई की योजनाएं, जलग्रहण क्षेत्र (कैचमेंट एरिया) का ट्रीटमेंट वगैरह को भी, डीपीआर बनाने के साथ-साथ, सभी विकास परियोजनाओं का एक अभिन्न हिस्सा बनाया जाना चाहिए और उनके पर्यावरणीय और सामाजिक कीमत-लाभ का आकलन भी इसी तरह जन-सुनवाई वाली एक प्रक्रिया के जरिए स्वतंत्र एजेंसियों द्वारा किया जाना चाहिए । (उपभोग की लक्ष्मण रेखा: रामचन्द्र गुहा-पृ. 223-225)

लेकिन जिद्द तो विकास के अमेरिकी मॉडल को लागू करने की ही है। 'ग्लोबल गाँव के देवता' के समालोचना के क्रम मे डॉ. मैनेजर पांडेय राष्ट्र-राज्य द्वारा संसाधनों के जबरन हथियाने की इस प्रक्रिया को ज्यादा बेहतर ढ़ंग से व्याख्यायित करते हैं, ''जब से पूँजी की शक्ति ने मिलजुल कर खनिज पदार्थों को हथियाने के लिए आदिवासी क्षेत्रों के जंगल और जमीन पर सम्मिलित रूप से हमला शुरू किया है तब से विभिन्न क्षेत्रों के आदिवासी समुदायों ने अपने अस्तित्व और अस्मिता की रक्षा के लिए सक्रिय प्रतिरोध करना आरम्भ किया है। इस प्रतिरोध को दबाने के लिए सरकार ने अभियान चला रखा है। आदिवासियों को जमीन से बेदखल करने और मार भगाने के लिए पहले उनको दानव कहा जाता था अब उनको माओवादी कहा जाता है । यह दानवीकरण की प्रक्रिया की नयी भाषा है।'' (उपन्यास और लोकतंत्र पृ. 212-213)
खनन प्रक्षेत्र कॉरपोरेट पूँजी की हृदयस्थली हैं। आदिम जातियों पर इनका ध्वंसात्मक प्रभाव कोई क्षेत्रीय-स्थानीय समस्या भर नहीं है। नाइजिरिया-इक्वाडोर से लेकर उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, मध्यप्रदेश, कर्नाटक तक एक जैसा ट्रीटमेंट। 'उनके' लिए विकास की डगर 'रेड इन्डियन्स' की लाशों से होकर गुजरती है। 'लिचिंग कार्निवल' अतीत की बात नहीं है। यह बदले रूपों नामो के साथ जारी है। 'मिथकीकरण' और 'दानवीकरण' की तरह ही इस इलाकों में चल रही 'अनुकूलन' और 'उन्मूलन' की प्रक्रिया समझने की आवश्यकता है।
अपने कार्यकाल के बाद के दिनों में पंडित नेहरु ने 'विशालकाय परियोजनाओं' के आभासी सत्य को समझ लिया था । केन्द्रीय सिंचाई एवं बिजली बोर्ड की 29वीं वार्षिक बैठक (17 नवम्बर, 1958) को सम्बोधित करते हुए नेहरू ने कहा था, ''लेकिन, पिछले कुछ समय से मुझे लगने लगा है कि हम उस बीमारी के शिकार हैं जिसे हम चाहें तो 'महाकायता की बीमारी' कह सकते हैं । हम दिखाना चाहते हैं हम बड़े बाँध बना सकते हैं और बड़े काम कर सकते हैं। भारत में यह एक खतरनाक नजरिया पनन रहा है ... महाकायता का विचार यानी सिर्फ  यह दिखाने के लिए कि हम बड़े काम कर सकते हैं बड़े उद्यमों का निर्माण और दूसरे बड़े काम करना, एक स्वस्थ नजरिया कतई नहीं है। और, .... देश का चेहरा आधा दर्जन जगहों पर जारी बड़ी परियोजनाओं, छोटे उद्योगों और छोटे विद्युत-संयन्त्रों से कही ज्यादा बदलेगा।'' (अरून्धति राय, न्याय का गणित, पृ. 209-210)
महात्मा गांधी के सबसे मशहूर कथनों में से एक यह है कि  'दुनिया में हरेक की जरुरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त चीजें हैं, लेकिन हरेक के लालच को पूरा करने के लिए नहीं।'
अन्त में अपनी कविता की इन पंक्तियों के साथ: 


समझिए साहब

कैसे समझाएं साहब
ये खतियान में दर्ज
जमीन के टुकड़े भर नहीं हैं,
हमारे खेत
हमारी भूख का विस्तार हैं
हमारे होने के सबूत।

यहाँ की हवा में
हमारे पूर्वजों की साँसें घुली हैं,
उनकी देह का ताप शेष है
इस पीली धूप में अब भी ।

सब जानते हैं साहब
विश्वविजयी हैं
आपके यज्ञ के अश्व,
आपकी चतुरंगिणी सेना,
अरज बस इतनी
यहाँ आहिस्ता धरियेगा पाँव,
यह मिट्टी,
हमारे पूर्वजों की राख से बनी है,
उनके पसीने की नमकीन गंध
और हमारे बच्चों की किलकारियाँ
उठंग कर सोई हैं वहीं।

हरीतिमा की गहरी जड़ों से
जुड़ी हैं हमारी सभ्यता की जड़ें
पहाड़, नदी, पेड़ों में
हमारे देवताओं का वास है ।

और इस साखू का क्या करेंगे
जिसकी जड़ें मरती ही नहीं
हर चट्टान फोड़ कर फुनगती हैं ।
हर गरजन पर भारी हैं
महुआ के टपकने
गुलईंची के खिलने
और धान में दूध भरने की ध्वनियाँ
और आपको
कैसे समझाएं साहब ?


संदर्भ:
(I) धर्माानन्द कोसम्बी, 'भगवान बुद्ध जीवन और दर्शन पृ. 105
(II) डिस्कशन विद ऐ कैपिटलिस्ट, यंग इंडिया , महात्मा गाँधी, दिसम्बर 20 1928
(III) 'द सेम ओल्ड आग्र्यूमेंट,' यंग इंडिया, महात्मा गाँधी, 2 जून 1927
(IV) समयान्तर, अगस्त 2011 पृ.13-14
(V) प्रोग्रेस: एट हूज कॉस्ट, फर्नाडिन्स, वाल्टर, पृ.15-16
(VI) भारत सरकार, 28वीं व 29वीं रिपोर्ट ऑफ द कमिश्नर फॉर शिड्यूल कॉस्ट्स एंड शिड्यूल ट्राइब्स नई दिल्ली, 1988-89
(VII) सोशल इक्सक्लूजन एंड एडवर्स इन्क्लूजन -पृ.20-22
(VIII) द हिन्दू, शुक्रवार, 23 जनवरी 2015
(IX) समयान्तर, नवम्बर, 2014 आतिफ रब्बानी,  आर्थिक असमानता का बढ़ता दायरा
(X) अमित, भादुड़ी, विकास का आतंक पृ. 9
(XI) उपभोग की लक्षमण रेखा, रामचन्द्र गुहा-पृ. 252 -253
(XII) टू द सोशल सब्सिडी व्हिनर्स, प्लीज चेक कॉरपोरेट राईट ऑफ्स कॉलम
(XIII) तहलका, अभिशप्त आदिवासी , अंक-31 जनवरी 2015
(XIV) उपभोग की लक्ष्मण रेखा: रामचन्द्र गुहा-पृ. 223-225
(XV) उपन्यास और लोकतंत्र, पाण्डेय, डॉ. मैनेजर, पृ0 212-213
(XVI) अरून्धति राय, न्याय का गणित , पृ. 209-210


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