मुखपृष्ठ पिछले अंक कहानी न्याव
जून-जुलाई 2015

न्याव

सत्यनारायण पटेल



- ओय इधर आ!
उन्होंने मुझे आवाज़ दी। वे तीन थे, और यशोदा-कृष्ण द्वार के पास वाली गुमटी के सामने खड़े सिगरेट पी रहे थे। उनमें से कोई भी मेरा दोस्त या दुश्मन नहीं। लेकिन वे जानते हैं कि मैं कौन हूँ! मैं जानता हूँ कि वे कौन हैं! पूरा मोहल्ला जानता है कि मैं क़िस्से-कहानी सुनाता हूँ! उन्हें पूरा वार्ड जानता है। जाने भी क्यों नहीं भला! उनके ईश्वर ने उन्हें हुनर ही ऐसा बख्शा है। वे किसी के भी गाल व कूल्हे पर ब्लेड से कमल खिला सकते हैं। जब तब खिलाते भी रहते हैं। उनका आका तीसरी बार मंत्री बन चुका है। उन बापड़ों पर काम का दबाव बढ़ता ही जा रहा है। क्या गाँव और क्या शहर! सब कुछ उनकी जद में! फिर भी वे जब कभी मस्ती में होते हैं या यूँ ही किसी के मज़े लेने का मन होता है बहुत प्रेम से लेते हैं। उस दिन मैं सामने पड़ गया। तो मुझे आवाज़ दे दी, और मैं उनके पास गया। उन्होंने मुझे भेरू बाबा के ओटले पर बैठा लिया। फिर एक ने सिगरेट का कश लेने के बाद पूछा-कहाँ जा रिया बे!
मैंने कहा कि मैं गाँव जा रिया हूँ!
- क्यों?
- शिकारी के प्याऊ पर!
- अबे घनचक्कर... तेरे नल में नर्मदा का पानी नी आ रिया क्या! दूसरे ने पूछा और गुमटी वाले से कहा - अरे ज़रा पानी का पाउच दे...।
मैंने कहा कि नहीं... मुझे प्यास नहीं! चल हमें भी सुना! भोत दिन से तूने कुछ नी सुनाया! तीसरे ने कहा।
मुझे उनकी बात सुन ताज्जुब हुआ! किसी को भी होगा ही! क्योंकि आज जब आबादी का बड़ा हिस्सा फेसबुक, व्हॉट्स एप्प, हाईक और टेलीग्राम में उलझा है, वे क़िस्सा सुनाने की जिद्द कर रहे हैं, जबकि ख़ुद अनेक क़िस्सों के जनक है। हालाँकि लम्बे अर्से के बाद यह जिद्द की थी। मुझे यक़ीन नहीं हुआ, तो फिर पूछा - क्या कहा।
- अबे बहरा है क्या? पहले कहा और आगे बोला - कि ज़्यादा भाव खा रिया। कुल्हे पर फूल खिलाऊँ अभी...। चल... क़िस्सा सुना। और हाँ... नया सुनाना।
अब मेरे सामने यक़ीन के सिवाय कोई चारा न था। ख़ुद से कहा कि हम वक्त की जिस बुलेट ट्रेन में सफ़र कर रहे हैं उसमें कुछ भी संभव है। कुछ भी का मतलब, कुछ भी। फिर भी मन में एक सवाल था कि आख़िर आज ऐसा क्या  है जो ये इतने फुरसत में हैं, और क़िस्से की जिद्द कर रहे हैं। याद आया कि आज इकतीस अक्टूबर है। और फिर यह भी कि आज सरदार वल्लभ भाई पटेल का जन्म दिन है, और इंदिरा गांधी की पुण्य तिथि भी। लेकिन फिर भीतर सवाल ने सिर उठाया कि इन सब से इनका क्या लेना-देना। मैंने कहा कि चलो, मैं एक क़िस्सा सुनाता हूँ। और शिकारी का ही सुनाता हूँ। लेकिन आप ये बताओ कि आज आपको इतनी फुरसत कैसे है।
- अबे आज इकतीस अक्टूबर है न। दूसरे ने मेरे घुटने पर हाथ मारते हुए कहा।
- हाँ तो...!
- तो क्या! जंगल में रेह रिया है तू! फेसबुक, व्हॉट्स एप्प कुछ देखता है कि नी! आज सब इंटरनेट का त्याग कर रिये हैं, तो हमने भी गोली मार दी! तीसरे ने कहा और बताया- आज हम भी नी चला रिये!.... स्साला दिन भर पका देता है! टुचुक... टुचुक... लगे रहो! और फिर कोई वीडियो क्लीप ऐसी आ जाती है कि दिन भर मग़ज़ भन्नाता रहता है।
अरे हाँ..., मुझे भी कुछ महीने से ये लत लग गयी... आज फुरसत मिली, तो सोचा कि गाँव हो आऊँ! देखूँ... शिकारी की डोकरी के न्याव के बाद क्या हुआ!  हालाँकि एक-दो बार गाँव फ़ोन पर बात हुई थी। मैंने सुना कि बाद में भीड़ शिकारी को अस्पताल ले गयी। शिकारी की जान बच गयी, लेकिन शिकार करने लायक नहीं रहा! और फिर मैंने यह भी सुना कि शिकारी ने गाँव में स्कूल के सामने प्याऊ खोला है! वहाँ पहले से सरपंच के भाई की एक दुकान है! जिसमें कोल्ड्रिंग, चिप्प, बीड़ी, सिगरेट, माचीस आदि चीज़ें रखता है! ठीक उसकी दुकान की बग़ल में शिकारी ने प्लाऊ खोला है! मैंने सोचा कि देख तो आऊँ! कोल्ड्रिंग की दुकान की बग़ल में प्याऊ कैसा दिखता है! और प्याऊ पर बैठा शिकारी कैसा लगता है! क्या उसके प्याऊ पर पानी पीने प्रियंका भी आती है? मैं अपनी रो में बहने लगा।
- अबे तू महको ये क्या सुना रिया! प्रियंका क्या किसी प्याऊ पर पानी पियेगी! पहले ने मुझे टोका!
- अरे वो तो नहायेगी भी मिनरल वॉडटर से... और धोएगी भी मिनरल वॉटर से! दूसरे ने पहले की हथेली पर हथेली मारते हुए कहा।
- नी भिया... मैं उस वाली प्रियंका की बात नी कर रिया हूँ... मैंने कहा।
- अबे तू कहीं... आटा चक्की वाले की लड़की की बात तो नी कर रिया। उसका नाम भी प्रियंका है...! तीसरे ने कहा और फिर दूसरे की हथेली पर हथेली मारने और बाँयी पलक झपकाने के बाद दबे सुर में बोला- अब उसका तो भंडारा हो गया... और व्हॉट्स एप्प पर भी डल गया।
- नी भिया आटा चक्की वाले की लड़की के बारे में कुछ नी जानता। मैंने कहा।
- तो तू सुना क्या रिया बे। हमें तो कुछ पल्ले नी पड़ रिया! दूसरे ने कहा, और फिर सिर के बालों में खुजलाते हुए पूछा- ये शिकारी कौन है! और फिर ये वाली प्रियंका कौन है! शिकारी की डोकरी का न्याव क्या है! तू ऐसे अपनी धुन में बह रिया...! जैसे ख़ुद को सुना रिया!
- अरे हाँ, माफ़ी चाहता हूँ! मैंने कान पकड़ते हुए कहा, और बोला- मुझे लगा कि शिकारी के बारे में मैं पहले कभी बता चुका हूँ! पर शायद नहीं बताया होगा! क़िस्सा ज़्यादा पुराना नहीं है, और पहली बार ही सुना रिया हूँ! और शिकारी से ही शुरू करता हूँ!
शिकारी का नाम सुरेश है। सुरेश जैसे शिकार करने को ही जन्मा हो! हाँ, शिकार! पक्का शिकारी! जैसे छिपकली होती है न, जन्मजात शिकारी! बस... समझ लो..., कुछ ऐसा ही सुरेश भी! छिपकली और उसमें फ़$र्क, केवल इतना कि छिपकली पेट भरने के लिए शिकार करती, और सुरेश...! उसे पेट की चिंता नहीं। वो सब जुगाड़ था उसके पास! किसी और के पेट की भी चिंता नहीं, क्योंकि वह शिकार के पीछे इतना दीवाना, पागल था कि शादी-ब्याह, गृहस्थि के पचड़े में ही न पड़ा!
हाँ, उसकी डोकरी थी। डोकरी ही पैतृक जायदाद संभालती। हाली-नौकर से काम कराती। डोकरी चिंता भी करती। उसके बारे में बहुत-कुछ सोचती, और कभी-कहती भी- बाप के नक्शे क़दम छोड़ दे। घर बसा ले। नी तो मिट जायेगा। गारे को गारे में मिलते देर नी लगती।
लेकिन सुरेश मनमौजी। छुट्टा। डोकरी अंकुश लगाती। वह हर अंकुश, बंधन तोड़ देता। क्योंकि जैसे उनका डीएनए शिकारी का था, और वह शिकार के सिवा कुछ और नहीं कर सकता। शिकारी के नाम से इतना ठावा कि लोग उसका असल नाम लगभग भूल ही गये। वैसे तो उसका भले लोगों से कम ही पाला पड़ता, लेकिन फिर भी कभी पीपल के नीचे ओटले पर ताश-पत्ते खेलने बैठ जाता, तो साथी खिलाड़ी उसे शिकारी के नाम से ही पुकारते। हालाँकि उनकी पुकार में पैना व्यंग्य होता, और किसी की पुकार में उपेक्षा का पुट भी। उसे सहर्ष कोई अपना भिडू नहीं बनाता, जब मौक़े पर कोई और न होता, तो उसे बैठा लेते। लेकिन जब वह खेलता, बेग़म पर उसकी ख़ास नज़र होती। जैसे ही खिलाडिय़ों के बीच बेग़म नमुदार होती, तो वह दुक्की, ग़ुलाम, बादशाह और इक्का तक की पूरी फौज़ लगा देता, पर बेग़म को जाने न देता। यानी शिकारी बेग़म का शौक़ीन। शौक़ का ग़ुलाम-लती भी कह लो, शिकारी को कोई फ़$र्क नहीं पड़ता। हाँ... एक बात है। शिकारी बदनाम जरूर था, पर किसी माई के लाल ने उसे शिकार करते कभी देखा नहीं। या कह लो कि रंगे हाथों पकड़ा नहीं। यानी जब वह शिकार करता, तो फिर चुपके से, धोके से, गुपचुप ही करता। खुलेआम तो हमला किया जाता। डाका डाला जाता। लूट की जाती। जो गाँव का सरपंच, या देश-प्रदेश के चौकीदार, सेवक आदि करे, तो करे। लेकिन शिकारी नहीं करता।
और तो और वह किसी प्राचीन शिकारी की तरह दिखता भी नहीं। न बड़े-बड़े बाल, न मूँछे। न घोड़े पर सवार। न हाथ में तलवार या भाला। न पैरों में चैन वाले लांग बूट। वह तो क्लीन सेव रहता। सोबर पेन्ट-शर्ट पहनता। और जो भी उसे नहीं जानता, वह पहली नज़र में उसे शिकारी मान ही नहीं सकता। वह क़रीब सैंतीस-अड़तीस का, और इतना भला-भोला लगता कि कोई छोटी बच्ची भी उसके गाल पर चुम्मी देते नहीं झिझकती। और बच्चियों के लिए तो उसकी जेब में सदा ही चॉकलेट भरी रहती।
प्रियंका का तो जैसे सुरेश की जेब पर एकाधिकार था। उसकी गली की थी वह। स्कूल आते-जाते। सुरेश की जेब पर डाका डाल देती। प्रियंका डाका डालते-डालते ही किशोर हुई। कक्षा नौवीं में जाने लगी। असामानी बुशर्ट और गहरे नीले रंग की स्कर्ट उसकी स्कूली ड्रेस थी। प्रियंका के बाल बहुत लम्बे थे। उसकी डोकरी जब दो चोटी बनाती, तो चोटी स्कर्ट तक लम्बी बनती। फिर वह चोटियों की घड़ी करती। लाल रिबन से बाँछती। और फिर लाल रिबन से ही दोनों चोटियों पर एक-एक फूल खिला देती। और उसकी आँखें। खैर छोड़ो। नौवी की छात्रा की आँखों की क्या बात करें। बस... इतना समझ लो, प्रियंका की आंखों के सामने हिरनी की आँखें पानी भरती। और डील-डौल भी पन्द्रह-सौलह की उम्र-सा निकल आया। स्वस्थ!सुन्दर! पढऩे में भी होशियार! माँ-बाप की नाक! लाड़ली लक्ष्मी। पिछले बरस स्कूल में रस्सी कूद, लंगड़ी कूद, और नीबू रेस में प्रथम आयी थी।
चूँकि उस दिन इतवार था इसलिए प्रियंका ने स्कूली ड्रेस नहीं पहनी थी। गुलाबी बुश्शर्ट और काला पेटीकोट पहना था। दो चोटियाँ पेटीकोट तक झूल रही थीं, और उन पर नीले रिबन से दो फूल खिले थे। वक़्त टीवी पर सत्यमेव जयते के ख़त्म, और रेडियो पर मन की बात शुरु होने का था। सरपंच की दुकान से प्रियंका अपने बापू के लिए बीड़ी-माचिस ख़रीद लौट रही थी। तितली-सी बेफिक्र... और कुछ गुनगुनाती भी!
शिकारी का मन टीवी पर कुछ भी देखने का नहीं था। हाँ..., उसकी डोकरी ज़रूर किसी चैनल पर द्रोपदी का चीरहरण देख रही थी। शिकारी अपने घर के सामने यूँ ही खड़ा था। चार-छ: दिन से उसका मन किसी चीज़ में नहीं लग रहा। शिकार किये भी पन्द्रह-बीस दिन हो गये। आख़िरी शिकार चालीस साल की विधवा स्त्री का किया था। अब मन फिर से शिकार करने का हो रहा। मोबाइल फोन में आने वाली पोर्न क्लीप भीतर सुलगती आग में घी का काम कर रही। वह ऐसे लग रहा, जैसे पंख फडफ़ड़ाती फुद्दी के शिकार के इंतज़ार में छिपकली दीवार में चिपकी हो! दम साधे! जीभ भीतर-बाहर करती! मरकुरी या सीएफएल के आस-पास मंडराती फुद्दी। कब छिपकली के सामने दीवार पर बैठे..., और छिपकली झट-से मुंह खोले... लप्प से दबोच ले! शिकारी की मन:स्थिति ऐसी ही कुछ रही होगी उस वक़्त!
शिकारी ने लप्प से फुद्दी की तरह प्रियंका को दबोच लिया। ठीक उस क्षण गली में कोई था नहीं। प्रियंका अचानक कुछ समझ न सकी। न संभल सकी। हाथ से बीड़ी का बंडल छूट गया।
वहीं शिकारी के मवेशी बाँधने का कोठा था, जिसमें उस वक्त मवेशी नहीं थे। प्रियंका को कोठे में ले जाकर शिकारी किवाड़ बंद करने लगा। प्रियंका अपनी कलाई छुड़ाने की कोशिश करने लगी- अंकल छोड़ो...। मैं डर गयी...। छोड़ो...। क्या कर रहे हो। छोड़ो... अंकल।
लेकिन शिकारी ने छोडऩे के लिए नहीं लपकी थी। हायबाप में प्रियंका की बुशर्ट के बटन टूट गये।
प्रियंका ज़ोर से चीखती दरवाज़े तरफ़ भागी। भागी कि कूंदी खोल गली में, सेरी में चीख़े-चिल्लाये। मगर उसका पैर वहीं बँधी पाड़ी के पोंटे पर पड़ा और वह फिसल पड़ी। तभी शिकारी ने फिर से जफोत ली। प्रियंका के मुँह को हथेली से दबाने लगा, ताकि उसकी चीख़ भीतर ही दम तोड़ दे। मगर प्रियंका ने हथेली में दाँत फँसा दिए। दूसरे हाथ से शिकारी प्रियंका की पीठ पर मुक्के मारने लगा। प्रियंका फिर चीख़ती किवाड़ की ओर भागी। लेकिन शिकारी ने कस कर दबोच लिया।
दूरदर्शन पर सत्यमेव जयते ख़त्म हो चुका था, रेडियो पर मन की बात शुरू होने को थी। तभी प्रियंका की चीख़ें कुछ लोगों को घरों से बाहर खींच लायी। किवाड़ पर एक साथ कई लात पड़ी, तो किवाड़ भी खुल गया। लोगों ने देखा कि प्रियंका किसी बाघिन की तरह शिकारी से संघर्ष कर रही है। हालाँकि प्रियंका के होंठ से खून रिस रहा था। उसकी खुली छातियाँ दो सुलगते अंगार-सी धधक रही थीं।
अब तक पूरी गली में जैसे हलातौल-सी मच गयी। शिकारी की डोकरी। प्रियंका के मां-बाप और बहुत सारे लोग-बाग जमा हो गये। शिकारी पहली बार रंगे हाथों धराया था। लोगों का गुस्सा उस पर बेतहाशा बरसने लगा। मार-मार कर अधमरा कर दिया। कपड़े फाड़ डाले। और घीसटते हुए पीपल के नीचे, सीतला माता के ओटले पर ला पटका।
कोई मोबाइल से शिकारी की तस्वीर खींचने लगा। कोई वीडियो बनाने लगा। कोई फेसबुक पर पोस्ट करता। कोई व्हॉट्स एप्प पर। किसी ने कहा कि पुलिस के सुपुर्द कर दो। तो किसी ने कहा कि देश में रोज़ सैकड़ों शिकार होती हैं। कितनी को पुलिस के जरिए और कोर्ट से न्याव मिला। बल्कि पुलिस और जज को मौक़ा मिले तो, वे भी शिकार करने से नहीं चूकते। जब न्याव और लोकतंत्र के मन्दिर में भी बलात्कारी, हत्यारों और डकैतों का बोल बाला हो तब फिर न्याव की उम्मीद किससे करें...? क्यों करें?
किसी ने कहा कि घासलेट डाल कर आग लगा दो। तो बहुतों ने कहा कि हाँ... हाँ... आग लगा दो।
भीड़ में खड़ी शिकारी की डोकरी को औरतें ग़ाली बकती कि कैसा पूत जना। कोई  नहीं जानता कि डोकरी पर क्या बीत रही। वह क्या सोच रही। आख़िर वह माँ है।
डोकरी ने कई बार शिकारी को समझाया था। घर बसाने की सलाह दी थी। लेकिन शिकारी  ने कभी उसकी नहीं सुनी। वह पूरा अपने बाप पर गया था। डोकरी शिकारी के बाप पर भी अंकुश नहीं लगा सकी थी। बाप की भी ऐसे ही मामले में पैंतीस साल पहले हत्या हुई थी। डोकरी को लगा कि पैंतीस साल पहले पति खोया था, अब बेटा खोऊँगी। सोचने लगी कि क्या फिर कोई शिकारी नहीं जन्मेगा? शिकारी की माँ की कोख से जन्मता है कि व्यवस्था की कोख से। हत्या से क्या होगा। पति की हत्या से क्या हुआ। लोक पति की हत्या को भूल गये। इसे भी भूल जाएंगे। फिर! यह तो एक तरह का मुक्ति-मार्ग होगा। पहले पति मुक्त हुआ, अब सुरेश होगा। भला... किसी की सज़ा मुक्ति क्यों हो। सज़ा से सीख क्यों न हो। पैंतीस साल पहले तो कुछ न कर सकी, पर आज चुप नहीं रह सकती।
- माँ हूँ तो कईं हुओ... वह बुदबुदायी- क्या माँ.. सिर्फ रोने-गिड़गिड़ाने भर को हावे।
भीड़ देख रही डोकरी की तरफ़। डोकरी की आँखों में आँसू का कतरा तक नहीं। दिल भी जैसे पत्थर का ही हो गया। वह ओटले पर चढ़ गयी। सुरेश के पास खड़ी होकर भीड़ से कहने लगी- कोई पुलिस को नी बुलावेगा। कोई घासलेट डाली के नी बाळेगा! इको न्याव हूँ करूँगी।
- तु कई करेगी। तने ही तो यो साँप जण्यो! भीड़ में से एक विधवा औरत बोली। उसके चेहरे पर जैसे शिकार होने की पीड़ा थी।
- हाँ... इके मार दो, म्यारी छोरी भी इका डँसना से मरी थी। दूसरी औरत ने कहा।
- अरे जाने कित्ती बहन, बेटी और बहू लोक-लाज से मुँह सिले बैठी होगी। इना पापी ने जाने कित्ती के शिकार बनाई होगी। तीसरी औरत बोली। - हाँ... हाँ... मार दो, मार दो... भीड़ का सामूहिक स्वर फिर गूँजने लगा।
घायल सुरेश अभी ओटले पर पड़ा था। उसके मुँह से लार, और कपाल से ख़ून रिस रहा, लेकिन बेहोश नहीं था। वह पड़ा-पड़ा सब सुन रहा, लेकिन जैसे उठ भागन ेकी ताक़त नहीं बची। या फिर शायद अपनी मुक्ति की प्रतीक्षा कर रहा हो। या फिर भागने के मौके की ताक में ही हो।
फिर प्रियंका का भाई घासलेट की केन लेकर ओटले पर चढऩे लगा। तभी डोकरी ने ज़ोर से उसे कहा- रुक! नीचे रुक!
वह घासलेट की केन के सात ओटल पर चढ़ते-चढ़ते रुक गया। उसे लगा कि डोकरी नहीं, सीतला माता ने उसे रोका। वह भौंचक्क और सवालिया नज़रों से डोकरी की तरफ़ देखने लगा। फिर लगा कि डोकरी नहीं, सीतला माता ही बोल रही- इके बाळीन (जलाकर) तू क्यों अपनी ज़िनगी राख करने पे तुल्यो है। मह्ने क्यो नी कि हूँ न्याव करूँगी।
फिर डोकरी भीड़ से मुखातिब हो बोली- म्हारा पे भरोसा करो। म्यारे न्याव करने को मौक़ो दो। न्याव नी जँचे... तो फिर इकी साथ म्यारे भी फूँकी दी जो।
भीड़ शांत हो गयी। प्रियंका की डोकरी बोली- तू कई न्याव करेगी..? कर ले..., हम भी देखाँ। एक माई को न्याव कसो होय।
डोकरी पीपल के तने तरफ़ बढ़ी। पीपल के तने में सीतला माता रखी थी। शीतला माता की मूर्ति नहीं थी। क़रीब दस-पन्द्रह सफ़ेद चकमक पत्थरों का एक ढेर था, वही सीतला माता थी। डोकरी ने दो पत्थर उठाये। एक चपटा और लगभग समतल। दूसरा मसलू जैसा कुछ लम्बा-चिकना। पलटी तो भीड़ खुसुर-फुसुर करने लगी कि डोकरी के डील में साक्षात सीतला माता उतर आयी। आज सीतला माता ही न्याव करेगी।
डोकरी का चेहरा भावहीन। जैसे गरदन पर चेहरा नहीं, सीतला माता का एक चकमक पत्थर ही धरा हो। भीड़ की आँखें उसी पर टीकी। डोकरी ने दोनों पत्थर ओटले के फ़र्श पर धरे। औंधे पड़े सुरेश को पलट कर जित किया। उसकी जाँखों को फैला कर चौड़ी की और फिर जाँघों के बीच ही बैठ गयी। भीड़ के स्तब्ध चेहरे और फटी आँखों से मुखातिब हो डोकरी बोली- कोई कित्ता ही बड़ा शिकार हो। पर उकी ताक़त उसका हथियार होवे। अगर शेर का भी दाँत तोड़ दो तो पंजा का नाख़ून उखाड़ दो, तो फिर वो भी किसी बूढ़े, निरीह बिल्ले-सा हो जाता है।
शिकारी ने बात समझ ली। फिर उसने डोकरी के चेहरे तरफ़ देखा, डोकरी के चेहरे में उसे अपनी माँ नज़र नहीं आयी। शिकारी भीतर काँप उठा। उसने डोकरी को धकियाने और उठ भागने की कोशिश की। लेकिन डोकरी ने दाएँ हाथ में पकड़े मूसली जैसे पत्थर से शिकारी के कपाल पर वार किया। वह ज़ोर से चीख़ता हुआ, फिर चीत गिर पड़ा। फिर डोकरी ने उसकी कलाइयों के जोड़ पर वार कर उन्हें तोड़ दिया।
शिकारी की चीख़ों से पूरा माहौल काँप उठा। पीपल के पत्ते और डगाले तक धूजने लगी। लेकिन डोकरी के चेहरे पर सल नहीं पड़ा। भीड़ में अपनी डोकरी के पास प्रियंका खड़ी थी। उसे याद आ रहा कि वह कैसे अंकल की जेब से चॉकलेट लूट लेती। वह सुबकती बुदबुदाने लगी- अंकल..., ऐसा क्यों किया।
फिर डोकरी ने अपनी टाँगे भी शिकारी की जाँघों पर रख दी। ताकि शिकारी हिले-डुले नहीं। हालाँकि अब शिकारी लगभग मूर्छित अवस्था में था।
डोकरी ने चिकने और समतल पत्थर को ठीक से जमाया। फिर शिकारी के उस हथियार को जो शिकार के लिए ज़रूरी था, पकड़ कर एक बाजू किया। फिर पत्थर पर जैसे टिटोड़ी के दो अँडे रख लिए हों। खेत के गारे के रंग के अँडे। डोकरी ने मूसली के आकार वाले पत्थर को फिर से मज़बूत पकड़ा। साँस भीतर खींची। हाथ ऊपर उठाया। और फिर टिटोड़ी के अँड़ों को... कच्चाऽऽक से फोड़ दिए।
कुछ क्षण के लिए हवा को लकवा मार गया। भीड़ की सिसकियों का दम घुट गया। लेकिन डोकरी का चेहरा और आँखें भी शांत रहीं। शिकारी तड़पता, छपपटाता ओटले पर पड़ा रहा। डोकरी उठी और अपने घर तरफ़ चल पड़ी।
- च्च च्च भौत ख़तरनाक क़िस्सा है बे। पहले ने कहा और बोला - छोरियों को छेड़-छाड़ अपने यहाँ भी करते हैं। कभी बात बिगड़ती है, और रिपोर्ट-इपोर्ट लिखा देते हैं... दो जमानत हो जाती है। ये कोई न्याव है क्या। शिकारी को बधिया बैल बना दिया। इससे तो अच्छा वही होता कि उसे मार देते।
- अरे वो था न... क्या नाम। दूसरा याद करता बोला- एमआयजी थाने के सामने रहता था। चार साल की लड़की को रपेट दी... बाद में मार भी दी स्साले ने। वो आठ दिन पहले बरी हो गया।
- अरे ऐसे भौत क़िस्से... रोज़ ही होते हैं। अब ये आटा चक्की वाले की प्रियंका के भंडारे की क्लीप... व्हॉट्स एप्प पर जाने कितने समूहों में धक्के खा रही...। पहला ने कहा और बोला - अब क्या करे बाप...। ज़्यादा से ज़्यादा रिपोर्ट लिखा दे...। सबको खस्सी थोड़ी कर सकता।
- और वो छोरा नी है...। जो इमरान हाशमी बना फिरता...। तीसरा भी याद दिलाता बोला- उसने साँची पाईंट वाले की छोकरी पर तेज़ाब फेंक दिया था...। उसकी भी जमानत हो गयी...।
- सही बात ताते ये है... अब थाने, कोर्ट-कचहरी से लोगों का भरोसा उठ रिया है! पहला कुछ सोचता और महसूस करता बोला-स्साला न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी। क्यो। अच्छा करा कि अंडे फोड़ दिए।
- अच्छा फिर क्या हुआ...? तूने शुरू में बताया था कि लोग शिकारी को अस्पताल ले गये। वह बच गया। ठीक होने के बाद शिकारी ने कुछ किया कि नी। तीसरे ने पूछा!
मैंने कहा कि कहा तो! शिकारी ने प्याऊ खोला!
- अच्छाऽऽ! तो किस्सा ख़त्म। दूसरे ने पूछा।
मैंने कहा कि मैं गाँव जा रहा हूँ। लौट के आऊँगा... फिर सुनाऊँगा!
पहले ने अपनी जेब से बाइक की चाबी निकाली। तीसरे के हाथ में चाबी देता बोला- जा इसको बस में बैठा के आ।
और फिर मुझसे मुखातिब हो बोला- आके पूरा क़िस्सा सुनाना! कोई बहाना मत सुनाना। झूठ-मूठ की क़िस्सेबाजी भी नही चलेगी। हाँ। तू जानता है मेरको। भेजा सटक गया तो फिर अच्छे-अच्छे क़िस्सेबाज को ठिकाने लगा देता हूँ।
फिर मैं साँझ ढले गाँव से लौट आया। मैंने यशोदा-कृष्ण द्वार के पास गुमटी तरफ़ देखा, वे वहाँ नहीं थे। मैंने राहत की साँस ली कि चलो, घर चलकर हाथ मुँह धोऊँगा। चाय-वाय पियूँगा। तभी बायीं बाजू से आवाज़ आयी- ओय...कलटी खा रिया बे।
मैंने देखा कि वे तीनों एक बाइक पर चले आ रहे हैं। मैं रुक गया। वे भी मेरे पास आकर रुके, और पहला बोला- चल बे आ... भेरू बाबा के ओटले पर... क्या देख-सुन के आया, सुना।
भेरू बाबा के ओटले पर बैठने के बाद, मैंने बताया कि जब मैं गाँव पहुँचा। मैंने क्या देखा-सुना। देखा कि स्कूल के सामने कोल्ड्रिंक की दुकान तो खुली थी। लेकिन शिकारी का प्याऊ बंद था। शिकारी के घर गया, तो देखा कि ताला लगा है। गाँव में लोगों से पूछा, तो किसी को मालूम नहीं कि शिकारी और उसकी डोकरी कहाँ है। नहीं, ऐसा भी किसी ने नहीं कहा कि दोनों गाँव छोड़ किसी अनजानी जगह चले गये।
- फिर! पहले ने पूछा।
मैंने कहा कि हाँ, यूँ कुछ पता चला, कि प्याऊ खोलने के बाद शिकारी का प्याऊ, सि$र्फ प्याऊ भर न रहा। शिकारी ने टॉफी, बिस्कुट, पेन, पेन्सिल, कॉपी आदि बच्चों की ज़रूरत की चीज़ें भी रखनी शुरू कर दी। वह फ्रीज़ में छाछ भी भरकर रखने लगा। घर के बने चिप्स भी। वह बच्चों को टॉफ़ी मुफ़्त खिलाता। छाछ और पानी मुफ़्त पिलाता। धीरे-दीरे उसके प्याऊ ने अच्छी-ख़ासी दुकान का रूप ले लिया। फिर वह किराना सामान भी रखने लगा। शिकारी की दुकान की वजह से, सरपंच के भाई की दुकान की बिक्री पर असर पडऩे लगा।
चूँकि शिकारी टॉफ़ी, छाछ और पानी मुफ़्त पिलाता, तो बच्चे और बड़े भी उसके पास ज्यादा आते। तब वह यह भी समझाता कि पेप्सी, कोकाकोला, थम्सअप्प आदि जैसे कोल्ड्रिंक क्यों नहीं पीना चाहिए। कंपनियों की चिप्स क्यों नहीं खानी चाहिए। सरपंच के भाई की दुकान की बिक्री पर शिकारी की ऐसी बातों का ज़्यादा असर पडऩे लगा। बारी-बारी से सरपंच ने, सरपंच के भाई ने शिकारी को समझाया! उसे वहाँ से अपना टीन-टप्पर उठाने की सलाह भी दी। धमकाया भी। लेकिन चूँकि शिकारी की माली हालत ठीक-ठाक थी, और वह गाँव में इ•ज़त हासिल करने लगा था सो वह न धमका, और न वहाँ से हिला-डुला।
और फिर सुनने में आया कि गाँव में कुछ ऐसी सुगबुगाहट चलने लगी, जो गाँव के सरपंच और उसके भाई को हज़म नहीं हो रही थी। दरअसल गाँव के अधिकांश लोग सोचने लगे थे कि शिकारी गृहस्थ जीवन जीने लायक तो रहा नहीं। घर में डोकरी के सिवा कोई दूसरा है भी नहीं। बाप-दादा की पैतृत संपत्ति, ज़मीन-जायदात है ही। शिकारी के मन में पैसा कमाने का लालच वैसे भी कभी नहीं रहा। तो क्यों न, शिकारी को गाँव का सरपंच बना दें। वह जो कुछ करेगा, गाँव के भले के लिये करेगा। अभी तो जो सरपंच है, उसे अपना और अपनों का घर भरने से ही फुरसत नहीं।
यही एक बात थी, जो सरपंच और उसके भाई पर संदेह पैदा करती है। लेकिन यक़ीन करना मुश्किल है। भला इत्ती-सी बात के पीछे, शिकारी और उसकी डोकरी को गायब भी किया जा सकता है।
जब उनके गायब होने की ख़बर फैली, तो पूरे गाँव ने ढूँढा। पुलिस ने ढूँढा। लेकिन न शिकारी मिला न डोकरी मिली। न ही उनमें से किसी की लाश मिली। बस यूँ ही कोई फुसफुसाता कि शिकारी और उसकी डोकरी का शिकार बड़ी चतुराई से किया है। शायद सरपंच और उसके भाई ने करवा दिया हो। मैंने पूछा कि भई क्या प्रमाण है तो फुसफुसाने वालों की फुस निकल गयी। इधर-उधर आते-जाते से राम-राम, श्याम-श्याम करने लगे। एक ने तो मुझसे कह दिया कि तू जा यार। थारो काम कर, थारे शहर में कोई काम नी है, जो उठ कर गाँव चला आता।
- फिर...!
- फिर मैं भी चला आया। सोचा कि चुनाव बाद फिर गाँव का चक्कर लगाऊँगा।
- अपन से ग़लत हो गया बे। पहले ने दूसरे की आँखों में देखते हुए कहा। और फिर दोनों की पलके धीरे से झुक गयीं, जैसे उन्हें कुछ याद आ गया हो।
उनमें से तीसरा सिगरेट सुलगाने लगा। पहला-दूसरा इधर-उधर देखने लगे। मैं उठा और घर चला आया।


Login