उसे हिलते देखा गर्भ में धड़कते हुए तुम्हारी धड़कनों से आकार निराकार के बीच अपनी सगुण निर्गुणता में एक हाईफन सा हमारे निरर्थकों के बीच शब्द के पूर्ण अर्थ सा उसे नहीं मालूम कि पिता की कोख में एक पिता उसी तरह धड़कने लगा है मुझमें जैसे कि वह जीवन के गर्भ में धड़क रहा है मुझमें आड़ा धँसा हुआ यह हृदय माँ हो कर झनझना उठता है फ़ैल जाता है जहाँ तहाँ तुम तुम हो जाता है घास घास हुआ लस्सा लस्सा हो जाता है मेरा तुम्हारा होना इस क्षण जब जूते और आवरण देहरी पर उतार कर उतरते हैं हम तुम्हारे गर्भ गृह में उसके दर्शन के क्षण सृजन का चिरंतन बोध पिघला पिघला हो जाता है वे आदिम शिलायें पिघलती हैं मेरे गर्भ में पिघले पिता के जन्म में एक और पिता उसके पीछे खड़ा होता है अपने सभी पिताओं के साथ जिनका कोरस फुसफुसाता है : ''सृष्टि अपना बीज रख रही है सुरक्षित उसमें'' एक नदी कुनमुनाती है बर्फ की परत के भीतर से अपनी पहली अंगड़ाई में उसकी नाज़ुक दस्तक से दरक जाता है समय का बर्फीला कलेजा कई कपाट खुलने लगते हैं अपने ही भीतर इस चक्र के गर्भ में जहाँ हरा अन्धेरा है उद्गम का उस आँख की झपक भर रोशनी के मूल में।
इस गोद में
इस गोद में सेज है तुम्हारी उड़ानों की उडऩपट्टी है यहाँ तुम्हारे नरम सपनों का जंगल है जिसमें संसार की पगडंडियाँ घुसते ही मिट जाती हैं उस जंगल में टिमटिमाती कस्तूरी मणियाँ हैं सुकुमार जल पर फैली महकीली लतायें हैं जो अपने ही ढब के फूल ओढ़ी हुई नाज़ुक सी ऊँघ में खिल रही हैं वहाँ हवा में तैरती गुलाबी मछलियों की किलकारियाँ हैं पंछियों का गुंजार तुम्हारे हास की थपक पर थिरकता है वहाँ
उस जंगल में बस्ती है मेरी आदिम जातियों की उनके आग और काँटों के संस्मरण हैं फूलों की गुलगुली छाती में तपने और जूझने के दाँत भींचे एकटक आईने हैं किचकिची और लिजलिजी पीड़ायें हैं ईमानदारी पर मिली बदनामियों की ग्लानियों में आत्मदहन के क्षण हैं मनुष्य होने के संघर्ष में अनुभवों की थाती है
तुम्हारे उसी वन में मेरा शुद्ध आत्मबोध है अनगढ़ अशब्द अपरिभाषित और स्फटिक की चमकती खोह है चेतस् ऊर्जा का हस्ताक्षर है वहाँ मेरा तुम्हारा होना
मेरी गोद में तुम हो और तुममें एक सुकुमार उनींदी गोद है जिसमें मेरा होना हो रहा है !
जब तुम तड़प कर रोते हो
जीवन हहरा कर धँस जाता है हठात खिलना भूल जाता है बदहवास क्षणों के प्रपंच में कराहती हुई तुम्हारी निरीह रुलाई पर
सृष्टि की कोख से उठता यह रोना तुम्हारा ब्रह्माण्ड भर में कहर जाता है
दर्द से कराहती इस निरीह नन्ही पुकार पर कैसे स्थिर रहा जाये बेटा ! वह धीर गम्भीर कोई और होगा लेकिन जब रहा होगा वह पिता नहीं रहा होगा माँ तो बिल्कुल ही नहीं
एक करवट एक कराह और जीवन के मुगालते बेपर्दा हो जाते हैं मैं सियाचीन में तड़पते उस बाप को सुनता हूँ जिसकी जमती हुई हथेलियों पर बन्दूक थमी है कान सरहद पर चौकस हैं और कलेजे में घर से आये फोन की उसी लाचार खबर वाली घन्टी लगातार बज रही है मैं जेल में बन्द उसी बाप सा होता हूँ उतना ही मजबूर जितना पेशावर के वे सभी बाप रहे होंगे सोमालिया नाइजीरिया या ईराक में कहीं मुसलमान कहीं ईसाई और कहीं यहूदी होने के बोझ तले जीना कोहराम बन गया है और मेरे कन्धे कितने अशक्त हैं जो रोक नहीं सकते तुम्हारे रोने को पेट में उठती इन बेरहम मरोड़ों को जो बाहर भी मरोड़ रही हैं मुझे हम सबको यहाँ वहाँ दुनिया के हर कोने में यह मरोड़ कैसा उठा हुआ है कि धुआँ है और बारूद झर रहा है आकाश से उन सूने कन्धों और उजाड़ कलेजों की बेबसी यहाँ आज यह बाप तुम्हारा ढो रहा है जब तुम बेपनाह रोये जा रहे हो
रोते एक तुम हो और दुनिया भर की हजारों मासूम जानें मुझमें फिर से तड़प कर तुम्हारे साथ रो पड़ती हैं !
तड़प उठा था दर्द
तड़प उठा था दर्द जब तुम्हारी नन्ही जान बेबस बेतहाशा रो रही थी ।
कुछ कह रहे थे तुम अपनी भाषा में जिसे मैं समझ न सका ।
तुम्हारी वह सहज बेशब्द भाषा मेरे बीज तक की परतों को उधेड़ती रही एक तड़प तुमसे उठ कर बिना किसी व्याख्या के मुझमें उतर कर मेरे भीतर तड़प गई
कितने असहाय थे तुम उस वक्त कह नहीं सकते थे दर्द मुझ से मेरी भाषा में जिसे सीखने में मैं भूल चुका हूँ सृष्टि की नाभि से उगी जीवन की उस मूल भाषा को जिसे तुम अभी जानते हो
तुम्हें भी सभ्यता के व्याकरण में ढाला जायेगा और तब तुम भी अपनी यह बेशब्द भाषा भूल जाओगे कि इस दुनिया की भाषा जीवन की उस मूल भाषा के नाश पर ही उग सकती है इसे सीखने के लिये उसे भूलना ही पड़ेगा तुम्हें।
कैसा असर छोड़ता है तुम्हारी भाषा का एक नन्हा अर्धविराम भी !
मैं कवि होने का दम्भ लिये कितना लघु हूँ तुम्हारी इस क्षमता के आगे
तुम नहीं समझोगे मेरी भाषा कि तुम सृष्टि के स्पन्दन में धड़कते हो इसे भूलोगे जैसे जैसे तुम मेरी भाषा सीखते जाओगे इस दुनिया में जीने के लिये बहुत सी अच्छी चीजें तुम्हें भूलनी पड़ेगी मेरे बेटे ।
तुम्हारे पालने के बाहर
तुम्हारे पालने के बाहर एक रतजगा ऐसा भी है जिसमें रात नहीं होती।
जिसमें देह की परतें खुल जाती हैं भाषा से शब्द झर जाते हैं आँखें आँख नहीं रहतीं वे स्वप्न हो जाती हैं बोध के सन्दर्भ जिसमें उलट जाते हैं काल का व्याकरण गल जाता है।
तुम्हारे पालने के बाहर एक थकान ऐसी भी होती है जो अपनी ही ताजगी है आशंकायें जिसमें खूब गरदन उठाती हैं एक आक्रान्त स्नेह अपने भविष्यत संदिग्धों की तलाश में होता है और यहीं से उन सबका शिकार करता है आने वाले दुर्गम पथों पर माटी की नरम मोयम रखता हुआ
तुम्हारे पालने के बाहर एक बीहड़ है जिसमें एक बागी हुआ मन गाता रहता है मानव मुक्ति के गीत उसके हाथ केसर कुदाल करतब करताल होते रहते हैं
एक मोम हुआ हृदय ऐसा भी होता है तुम्हारे पालने के बाहर जो अपने दु:स्वप्नों और हाहाकारों में तुम्हारी असंज्ञ चेतन मुस्कान भर रहा होता है ।