तार आने का समय कबका बीत चुका हिफाज़त की ख़बर भी अब तो फोन पर फिर भी कुछ इलाकों में वो भी नहीं दूर-दराज़ से काम की तलाश में निकले लोग इस या उस देश में इतने ग़रीब कि दो जून की रोटी मुहाल एक-दो नहीं हज़ारों-हज़ार पीछे छोड़ आए अशक्त कुटुंब सीने उनके इस्पात के नहीं कर नहीं पाते जज़्ब दुखों में ख़ुद को उनकी आँखों से झरती रहती है नीली लकीर... बहता है जिनसे नमक भरा दुख भय और भक्तिभाव में खड़े हैं लडख़ड़ाते वे डाकिया पहुँचता नहीं उनके दुर्गम ठिकानों पर
वे एक अदद चिट्ठी के लिए चढ़ते हैं पहाड़ अमूमन रोज़ वे कोने से फटे हुए पोस्टकार्ड से डरते हैं वे काँपते हुए चिट्ठियाँ थामते हैं
कैलेंडर की नमी
पर्व हो, त्यौहार या फिर कैलेंडर में फडफ़ड़ाता कोई धार्मिक दिन चली आती हैं शुभकामनाएँ राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री यहाँ तक नेता प्रतिपक्ष की अख़बार, रेडियो और टी.वी. पर अचूक कोई अफ़सोस नहीं आता कभी जबकि इतनी काली तारीख़ों से भरा है नमी में फडफ़ड़ाता हर पन्ना
बच गये कि
बच गये कि तुम्हारी क़िस्मत इतनी अच्छी लुढ़कती चट्टान से ज़रा सी दूरी थी
बच गये कि एकाएक बारिश में तुमने खुले में अपने को बेपरवाह छोड़ दिया था और तुम्हारी पीठ देखती रही पेड़ पर बिजली का टूटना
बच गये कि एक बच्चा तुम्हारे साथ था और घर नहीं लौटना चाहता था बच गये कि तुम्हारी घड़ी बुरे समय के विरुद्ध दौड़ पड़ी थी बेतहाशा बच गये कि तुम इस बात भी आदतन बिड़ी सुलगाने के लिए रुक गये थे बीच रास्ते
बच गये कि तुम इसी समय काम के बाद कारखाने से निकल रहे थे बच गये कि तुमने खोल रखा था अपना रेडियो कि अब बिजली गुल हुई बच गये तुम कि तुम्हें आदत है नींद में चलने की
इस बार बच गये तुम इसका यह मतलब नहीं कि तुम सचमुच बच गये।