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जून-जुलाई 2015

कुमार अंबुज की कविताएं

कुमार अंबुज

मृतकों की याद

क्षमा करें, यहां इस बैठक में मैं कुछ नहीं कह पाऊँगा
मृतकों को याद करने के मेरे पास कुछ दूसरे तरीके हैं
यों भी साँवला पत्थर, बारिश, रेस्तराँ की टेबुल, आलिंगन,
संगीत का टुकड़ा, साँझ की गुफा और एक मुस्कराहट
ये कुछ चीजें हैं जो मृतक को कभी विस्मृत होने नहीं देतीं

विज्ञापन, तस्वीरें, लेख और सभाएँ साक्षी हैं
कि हम मृतकों के साथ नए तरीकों से मजाक कर सकते हैं
या इस तरह याद करते हैं खुद का बचे रहना

धीमी रोशनियों में ज्यादा साफ दिखाई देता है
ओस और कोहरा हमारे भीतर पैदा करते हैं नए रसायन, नई इच्छाएँ
जब धूप खिलती है तो मृतकों की परछाइयाँ साथ में चलती हैं

कोई उस तरह नहीं मरता है कि हमारे भीतर से भी वह मर जाए
जान ही जाते हैं कि समय किसी दुख को दूर नहीं करता
वह किसी मुहावरे की सांत्वना भर है
जबकि स्मृति अधिक ठोस पत्थर की तरह
शरीर में कहीं न कहीं पड़ी ही रहती है
जब शिराएँ कठोर होने लगती हैं
यकृत और हृदय वजनी हो जाता है
किडनी की तस्वीर में पाये जाते हैं पत्थर
और हम देखते हैं कि गुजर गए लोगों की स्मृतियाँ अंतरंग हैं

धीरे-धीरे फिर हर चीज पर धूल जमने लगती है
कुम्हला जाते हैं प्लास्टिक के फूल भी
शब्द चले जाते हैं विस्मृति में
और सार्वजनिक जीवन में आपाधापी, दार्शनिकता,
चमक और हँसी भर जाती है

तब स्मृति एकांत की मांग करती है जैसे कोई अंतरंग प्रेम।

 

एक सर्द शाम
एक बुजुर्ग के साथ कुछ समय बिताने के बाद

संग-साथ की सीमाएँ होती हैं
लेकिन अकेलेपन की कोई सीमा नहीं
वह है अंतरिक्ष की तरह
रोज बढ़ाता अपनी परिधि
एक काला विशाल खोखल
जिसमें अनगिन ग्रह हैं और तारे
मगर सब एक-दूसरे से लाखों मील दूर
खुद की या दूसरे की रोशनी में चमकते
या अपने ही अँधेरे में गुडुप

गुरुत्वाकर्षण है अकेलेपन के इस विवर में
जो खींच ही लेता है अपने भीतर
और आप धँस जाते हैं किसी ब्लैक-होल में

अकेले रह जाना
कोई चुनाव, चाहत या इच्छा नहीं
              बस, आप अकेले रह जाते हैं
जैसे किसी नियति की तरह
लेकिन सोचोगे तो पाओगे
कि यह एक बदली हुई संरचना है
जो पेश आने लगी है नियति की तरह

यह सब होता है इतने धीरे-धीरे
कि अंदाजा भी नहीं हो पाता
एक दिन आप इस कदर अकेले रह जाएँगें

यह एकांत नहीं, अकेलापन है।

अब हम गीत नहीं बनाते
हम बहुत दूर निकल आये हैं
सूर्योदयों, सूर्यास्तों, श्रम भरी दुपहरियों से
खेतों-खलिहानों से, नदियों से, पहाड़ों से
अलाव से और रात में चमकते सितारों से

अब हम गीत नहीं बनाते
अब कुछ दूसरे लोग हैं जो बाकी काम नहीं करते
सिर्फ गीत बनाते हैं
वे दूसरे अलग हैं जो उसे ढालते हैं संगीत में
कुछ और लोग भी हैं जो सिर्फ गाते हैं गीत
और फिर ढोल ढमाके के साथ
आता है दुनिया में वह गीत

हम तो यहाँ सुदूर परदेस में
खोजते हैं रोजी-रोटी
भूल गए हैं अपना जीवन संगीत

अब हम गीत नहीं बनाते।

आदिवास
यदि मैं पत्थर हूँ तो अपने आप में एक शिल्प भी हूँ

जैसा मैं हूँ वैसा बनने में मुझे युग लगे हैं
हटाओ, अपनी सभ्यता की छैनी
हटाओ ये विकास के हथौड़े

मैं पत्थर हूँ, पत्थर की तरह मेरी कद्र करो

ठोकर जरा सँभलकर मारना
पत्थर हूँ।

तसवीरें
आधी शताब्दी पुराने इस चित्र में
दिख रहे हैं जो ये तीन लोग
ये ही थे अपनी प्रजाति के आखिरी जन
1963 के बाद ये फिर नहीं दिखे

और यह उस तितली की तसवीर है
जो लायब्रेरी की रद्दी में मिली अचानक
लेकिन अब वह कहीं नहीं है इस संसार में


जो प्रजातियाँ इधर-उधर लुक-छिपकर
बिता रही है अपना गुरिल्ला जीवन
जारी है उनका भी सफाया

विचारों का भी किया ही जा रहा है शिकार
अब तो किसी विचार की तसवीर देखकर
उसे पहचानना भी मुश्किल
कि किस विचार की है यह तसवीर आखिर!

कवि की अकड़
अपनी राह चलनेवाले कुछ कवियों के बारे में सोचते हुए

यों तो हर हाल में ही
कवियों को जिंदा मारने की परंपरा है
हाथी तक से कुचलवाने की निर्दयता है
और समकाल में तो यह कहकर भी कि क्या पता वह जिंदा है भी या नहीं
खबर नहीं मिली कई महीनों से और मोबाइल भी है 'नॉट रीचेबल'
किसी कार्यक्रम में वह दिखता नहीं और दिख जाए तो
अचानक बीच में ही हो जाता है गायब
जब वह खुद ही रहना चाहता है मरा हुआ
तो कोई दूसरा उसे कैसे रख सकता है जीवित

और वह है कि हर किसी विषय पर लिखता है कविता
हर चीज को बदल देना चाहता है प्रतिरोध में
और कहता है यही है हमारे समय का सच्चा विलाप
वह विलाप को कहता है यथार्थ
वह इतिहास लिखता है, भविष्य लिखता है और कहता है वर्तमान
वह लिंक रोड पर भी फुटपाथ पर नहीं चलता
और हाशिये पर भी चलता है तो ऐसे जैसे चल रहा हो केंद्र में
कि हम आईएएस या एसपी या गुण्डे की
और पार्टी जिलाध्यक्ष और रिपोर्टर की अकड़ सहन करते ही आए हैं
लेकिन एक कवि की अकड़ की आदत रही नहीं
और फिर क्यों करें उसे बर्दाश्त
क्या मिलेगा या उससे क्या होगा बिगाड़

और वह कभी लिखने लगता है कहानी कभी उपन्यास
फिर अचानक निबंध या कुछ डायरीनुमा
कभी पाया जाता है कलादीर्घाओं में, भटकता है गलियों में
और न जाने कहाँ से क्या कमाता है जबकि करता कुछ नहीं
किसी से माँगता भी नहीं
इसी से संदिग्ध है वह और उसका रोजगार
संदिग्ध नहीं है सेबी और शेयर बाजार
संदिग्ध नहीं बिल्डर, विधायक और ठेकेदार
संदिग्ध नहीं मालिक, संपादक और पत्रकार
संदिग्ध नहीं आलोचक, निर्णायक और पुरस्कार
संदिग्ध नहीं पटवारी, न्यायाधीश और थानेदार
संदिग्ध नहीं कार्पोरेट, प्रमुख सचिव और सरकार
संदिग्ध है बस कवि की ठसक और उसका कविता-संसार

जबकि एक वही है जो इस वक्त में भी अकड़ रहा है
जब चुम्मियों की तरह दिए जा रहे हैं पुरस्कार
जैसे देती हैं अकादेमियाँ और पिताओं के स्मृति-न्यास नाना-प्रकार
जैसे देते हैं वे लोग जिनका कविता से न कोई लेना-देना न कोई प्यार
तो परिषदों, संयोजकों, जलसाघरों के नहीं है कोई नियम
और मुसीबजदा होते जाते कवियों का भी नहीं कोई नियम
लेकिन वही है जो कहता है कि आपके देने के हैं कुछ नियम
तो जनाब, मेरे लेने के भी हैं कुछ नियम

वह ऐसे वक्त में अकड़ में रहता है जब चाहते हैं सब
कि कवि चुपचाप लिखे कविता और रिरियाये
           जहाँ बुलाया जाये वहाँ तपाक से पहुँच जाये
न किराया माँगे, न भत्ता, न रॉयल्टी, न सवाल उठाये
बस सौ-डेढ़ सौ एमएल में दोहरा हो जाये
वह दुनिया भर से करे सवाल
लेकिन अपनी बिरादरी में उसकी ताकत कम हो जाये

आखिर में कहना चाहता हूँ कि यदि उसकी कविता में
हम सबकी कविता मिलाने से कुछ बेहतरी हो तो मिला दी जाये
यदि बदतरी होती हो तो हम सबकी कविता मिटा दी जाये
लेकिन एक कवि की ठसक को रहने दिया जाये
कि वही तो है जो बिलकुल ठीक अकड़ता है
कि वही तो है जिसके पास कोई अध्यादेश लाने की ताकत नहीं
कोई वर्दी या कुर्सी नहीं और मौके-बेमौके के लिए लाठी तक नहीं
फिर भी एक वही तो है जो बता रहा है
                 कि अकडऩा चाहिए कवियों को भी
इसे इस तरह भी कह सकते हैं कि वह
कविता की बची-खुची अकड़ है
जीवन पर निर्बल की सच्ची पकड़ है।


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