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मार्च : 2015

चरखारीवाली* नॉस्टैल्ज़िया नहीं हैं

नीरज खरे

 


चरखारीवाली महतिन
का कच्चा घर,
सामने बड़ा कुआँ लहरदरयाव,
बाजू में बरगद छतनार
और उसके नीचे विराजे शिव...

चरखारीवाली कुएँ से
पानी भरतीं अपना
और मुहल्ले के कई घरों का
जगत पर बरतन माँजती
और कपड़े पछीटतीं
नहाकर अपनी
किनारदार धोती पहनतीं
गउओं के लिए चिरई में भरतीं पानी
बाल्टी भर पानी लेतीं
दो लोटे शिव को ढारतीं
बाकी बचा बरगद में उड़ेलतीं।
गाढ़े वक्त हमेशा होतीं मौजूद
सुख-दुख में सबके
रात-रात भर जागतीं-
जब मुहल्ले के किसी घर में
कोई बच्चा या बड़ा बीमार हो।

घर के कामों की हुनरनंद
उनके हाथों में सूपा
एक लय के साथ उछलता
और धान को फटक कर
अलग कर देता उजले चावल
खल-बट्टे की एकसार कुट-कुट से
सूखे बेर बदल जाते बिरचुन में
एक सार्थक परिणति तक पहुँचता
हर काम उनके हाथ लगते ही।

धरती का खुरदरापन पाटते हाथ
जानते चिकनी माटी का मिज़ाज
बच्चों के लिए वे बना देतीं
हाथी, घोड़े, चूल्हे, चकिया
बदसूरत हो चला घर
चगन-मगन हो जाता
जब ढिग लगा कर लीपतीं
कोई उन्हें बुलाता-
बस एक बेर कलेवा लेकर
कर देतीं सब काम
चरखारीवाली।

उनके बुलाते ही
कबूतर गुटर-गूँ करते आ जाते
मोर उड़कर चले आते उनके आँगन में
गौरइयाँ परोरे चावल चुगने आतीं
खप्पर का पानी पी पक्षी किलोल करते
पलेर बिलइया उनके आगे-पीछे घूमती
झबरा कुत्ता तो देहरी पर ही पड़ा रहता
कुएँ की जगत पर
बैठी सरतारी औरतों के बीच
जरूर होतीं चरखारीवाली और
गाँव भर की खबरें।

उनका मूल नाम किसे पता!
वे अपने मायके चरखारी से
आयीं ब्याहकर सो कहलाने लगीं
चरखारीवाली!

पहाड़ी रास्तों पर
बड़े धैर्य से बढ़ते उनके कदम
तेंदू, अचार, मकुइयाँ, कचरियाँ, करिलियाँ
और परोड़ों के उद्गम तक पहुँच जाते
बड़े सलीके से चुनते उन्हें
उनके कर्मठ हाथ
कुल्हाड़ी महज सूखी लकडिय़ों को
काटकर जैसे जंगल का
भार हल्का कर देती
लकड़ी के गट्ठर संग लटकी पोटलियों में
बंधी वनोपज सिर पर धरे
वे उतरतीं पहाड़
तब उन्हें शायद मालूम
न रहा होगा कि
भविष्य की दुर्लभ पृथ्वी को
सिर पर साधे उतर रहीं हैं।

तकरीबन आजादी के समय आयी होंगी
वे अपनी ससुराल कस्बेनुमा गाँव में
जहाँ समय अपने चिह्न छोड़ता गुजर गया -
मोर तो कब के
राष्ट्रीय उद्यान उड़ गए
कबूतर गुमशुम बैठे हैं
टेलीफोन और केबिल के तारों पर
अकेले बचे मंगरे पर
जा बैठी है बिलइया
एक बच रहे दिरोंदे की खोंग से
गौरइया झाँक रही भयभीत
खाली खप्पर देख लौट जाते हैं पंक्षी
झबरा, शायद आवारा कुत्तों की
घर-पकड़ में चला गया
प्यासी गऊएँ रम्हातीं फिरती हैं...

यह बातें अधिक पुरानी नहीं तो
लगभग उसके बाद की हैं
जब बुझी ढिबरी और लालटेन छिप रहीं थीं
पीलपाय की आड़ में
और रेडियो धरे जाने लगे टाँड़ पर
और जब हटा-हटा कर खपरैल
शुरू हुए छज्जे बनना।

फिर तो घर बढ़े लोग बढ़े
अटने लगा घरों में बढ़ा हुआ सामान
जरूरतों से भी ज्यादा सामान
सामान के लिए बढ़ी जरूरतें
दुकानें-दुकानें! सामान-सामान!
बिला गई न जाने कहाँ
धान और बिरचुन की जरूरत
बूढ़े बरगद में लिपट गए
बहुत से सूत
पर गायब होने लगा उसका हरापन!

अब कच्ची गलियों से
शिव के चबूतरे तक
फैल गया सीमेंट
पक्की बन गई कुएँ की जगत
उस पर बन गए चार पक्के घाट
पर रीत गया उसका पानी
औरतें अब सरतारी नहीं रहीं
बैठकें भी नहीं उनकी
अगर होतीं कभी-कभी
वहाँ नहीं हैं चरखारीवाली!

एक पूरा गाँव खुब गया
कस्बे की नींद में
उसके सपने में आता है गाँव
जहाँ मिलती हैं-
चरखारीवाली।




 * अजयगढ़ (जिला-पन्ना, मध्यप्रदेश) की बाशिंदा चरखारीवाली बुन्देलखण्ड की श्रमशील ढींमर जाति की स्त्री थीं। टी.वी. पर रामायण और महाभारत की धूम मचने के कुछ वर्षों तक वे जीवित रहीं। यह कविता जितनी चरखारीवाली की है उतनी ही एक कस्बे की भी।


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