मुखपृष्ठ पिछले अंक कहानी अंग रक्षक
मार्च : 2015

अंग रक्षक

उदयभानु पाण्डेय

पूर्वोत्तर भारत से




आज जबकि माटी के पूत, सन आफ स्वायल के नाम पर देश को बांटने का जोरदार वातावरण है उदयभानु पाण्डेय की कहानियां देश की एकता और सांस्कृतिक समावेशिता की जीवंत दस्तावेज है।
विश्वनाथ त्रिपाठी




जब इक्कीस दिनों के बंद की घोषणा हुई तो बुद्धिजीवी वर्ग दो खेमों में बँट गया।  एक खेमे ने कहा, ''बहुत खूब! इट्स अ गुड रिडेंस - जान बच गयी। चलो, घर चलकर बाल-बच्चों को देखेंगे, नदी की ताज़ा मछली खाने को मिलेगी, रिसर्च गाइड को पकड़ेंगे वगैरह-वगैरह।'' दूसरा खेमा बोला, ''ये सियायसतदान इस पीढ़ी को बरबाद करके ही दम लेंगे। पहाड़ों के लड़के! बेचारे कहा करते हैं, 'जेने तेने पास करि लेई होल'(जैसे तैसे पास करने से ही चलेगा)। अब ईमानदार लोगों की जान साँसत में पड़ेगी। एक्स्ट्रा क्लास लेना पड़ेगा; आनर्स वाले बच्चों को घर बुलाना पड़ेगा। हाँ मकरों की बात दूसरी है।'' जब से पहाड़ों की घाटी से अलग करने की मांग उठी थी, स्वायत्तशासी जिलों में शैक्षणिक गतिविधियाँ पटरी से उतर चुकी थीं। शायद ही किसी महीने सोलह सत्ररह दिनों तक कक्षाएँ चलती थीं। फिर ज़्यादातर बच्चे सात बजे खाना खा कर 9 तक सो साया करते थे। खाते-पीते घरों के बच्चे गुवाहाटी, डिब्रूगढ़ पढ़ रहे थे और अतिविशिष्ट लोगों के पूने, इलाहाबाद या दिल्ली, बंगलोर में। साधारण लोगों के लिए यह कलियुग का वृहत् श्याम था। मेहनतकश, दिहाड़ी मज़दूर, भिखारी,जेबकतरे त्राहि माम कर रहे थे।
जब भी बंद की घोषणा होती किराना व्यापारी और उन सरकारी अफ़सर साहिबान की चाँदी होती थी जिनकी विद्या अर्थकारी थी और जिनके विभागों के प्रभारी देवी देवता लक्ष्मी और विश्वकर्मा हुआ करते थे। यह अधम सरस्वती के विभाग का था और लक्ष्मी सरस्वती की तो ठनी ही रहती है, वैसे सरस्वती की संतानों में भी ऐसे लोग थे जिनके घरों के प्रवेशद्वार पर मोटिफ़ तो सरस्वती का होता था लेकिन बैकडोर से लक्ष्मी बाकायदा प्रवेश करती थीं और जम जाती थीं। वे कर्मचारी न केवल दलाली करते बल्कि ट्राइवल बच्चों के एक वर्ग को दुकानदार बनाते जा रहे थे। इनमें भी बहुसंख्यक ऐसे लोग थे जो सरकारी वेतन से संतुष्ट थे और बंद की घोषणा होते ही क्वाँरे लोग माँ के आंचल में छिपते थे और शादी-शुदा बीबियों की गोदी में। वे इन लोगों में थे जो न ऊधो का लेना, न माधव का देना के जीवन दर्शन में आस्था रखते थे। इनमें से बहुतेरे साहित्य के प्रोफ़ेसर साहिबान भी थे, जो बीसियों साल पहले बनाए गए नोटों के सहारे विद्यादान करते थे और जिनकी एक चिट्ठी भी अखबारों या रिसालों के पन्नों पर न दिखती थी। सरकारी कालेज में कुछ विरहणियाँ भी थीं जो प्राचार्य की अनुपस्थिति में अपने-अपने सैंयाजी से पूछती थीं, ''ओ सेनाय, राती की दी खाला?'' (सैंया जी, रात को क्या-क्या खाया?) यह बात उन दिनों की ही है जब टेलीफ़ोन बिल लोगों की कमर तोड़ देता था, लेकिन विरहणियों की बात ही और थी और असम सरकार का शिक्षा विभाग था ही तो बिल की क्या चिंता थी? वैसे प्राचार्य ईमानदार थे लेकिन एक सौ से अधिक राजपत्रित अधिकारियों को, जो और अफसरों से ज़्यादा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता चाहते थे, उन्हें कंट्रोल करना क्या इतना आसान था?
जबसे पूर्वोत्तर भारत में क्षेत्रीय दल उभरे थे सामाजिक, राजनीतिक व्यवस्था चरमराने लगी थी। उनके नेताओं का कहना था कि मैदानी इलाकों के अफ़सर तीन दिन सदर शहर या तहसीलों वाले क़सबों में बिताते थे लेकिन चार दिन अपने-अपने घरों में वापस लौट जाते थे। केवल बड़ी संस्थाओं के शिक्षक ईमानदारी से अपना काम करते थे। शायद इसीलिए पहाड़ी लड़के इनको पूरा आदर देते थे और बाप दादों से भी कभी-कभी तर्क करने वाले लड़के भी उनसे शराफ़त से पेश आते थे।
जिन लोगों ने बंद का आह्वान किया था उनमें अधिकांश नवयुवक थे, लेकिन भारी-भरकम डिग्रियों से लैस। वे मितभाषी, शालीन और ठंडे दिल-दिमाग से महसूसने और सोचने के आदी थे। उनमें नेतृत्व की अपार क्षमता थी, लेकिन उन्हें यह अच्छी तरह मालूम था कि सीधी उँगली से घी हमेशा नहीं निकलता इसलिए वे सदर शहर में ऐसे किशोर चेहरों को ले आए थे जो शहर के बड़े-बुजुर्गों और गणमान्य लोगों के लिए अपरिचित थे। ये तेज़-तर्रार लड़के अगर बिना सोचे समझे या जानबूझकर भी बंद न मानने वाले लोगों का अपमान कर देते तो उनके नेताओं को संदेह का लाभ मिल सकता था। जैसे प्रेम और युद्ध में सब कुछ जायज़ माना जाता है, राजनीति में थोड़ी जूतम-पैंजार तो स्वाभाविक थी ही।
लाज़िम था कि लोग सतर्क थे और घरों से बाहर नहीं निकलते थे। साधारण लोगों का कार्यव्यापार ठप न पड़ जाए इसलिए हरी सब्ज़ी रेलवे स्टेशन से सटी खाली ज़मीन पर मिल जाती थी। दिन डूबने के पहले अधेड़ औरतें या युवतियाँ अपना दल बनाकर स्टेशन की ओर निकल जाती थीं। नागाओं की तरह हमारे ज़िले के कबीलाई समाज के लोग कभी भी स्त्री का अपमान नहीं करते थे।
मैं इस शहर में बीस-इक्कीस की उम्र में आया था और पैंतालीस के आसपास था। यह शहर इस बात को अच्छी तरह जानता था कि मेरे और राजनीति के बीच साँप और नेवले का रिश्ता था और थोड़ी-सी स्पष्टवादिता को छोड़ कर मुझमें कोई खास बुरायी भी नहीं थी। मैं इस शहर की आत्मा से वैसा ही जुड़ा था जैसे कि मछलियां पानी से जुड़ी रहती हैं। मैं इस ट्रायबल शहर के बुजुर्गों का लाड़ला बेटा था, जवान लोग मुझे प्यार से 'जिरपो' (कार्बी में दोस्त) कहते थे और पीछे-पीछे ''पो'' (पिता या राजा)। मैं मन ही मन यह भी कल्पना करता था कि पंद्रह-बीस सालों बाद इन लोगों के बच्चे मेरी...''फू'' (बाबा जी या नाना जी) कहकर चर्चा करेंगे।
बुज़ुर्ग लोगों ने वैसे चेतावनी भी दी थी, ''तुम आर्य लोग बहुत जल्दी किसी व्यक्ति या जाति को रोमैंटीसाइज़ करने लगते हो। हम मंगोल वंशीय हैं, हम दिल से नहीं दिमाग से सोचते हैं और दुनिया किस तेज़ी से बदल रही है इस पर कभी सोचा है? जब हम लोग अपनी युवास्था में सत्तासीन थे उमर में बड़े किरानी और चपरासी को भी दादा या खुरा (चाचा) कहते थे। अब पच्चीस-तीस साल के लड़के भी आई.ए.एस. अफसरों तक की ऐसी तैसी कर देते हैं। बुरा मत मानना असम आंदोलन के बाद छोटे लोग अपने बड़ों का सम्मान करना भूल गए हैं अब पहाडि़ए लड़के उनकी नकल करने लगे हैं। वह कौन सा शेर तुम क्लास में सुनाते हो ''मीर साहब...?''
मैंने शेर पूरा किया था:
मीर साहब, ज़माना नाज़ुक है
दोनों हाथों से थामिए दस्तार
मैं बुज़ुर्गों की बात अदब से सुनता, कुछ सीमा तक उनसे सहमत भी होता, लेकिन सामासिक असमिया समाज का इस तरह बदल जाना मुझे अस्वभाविक नहीं लगता था। उसका कारण इस समाज के बुज़ुर्गों की तटस्थता थी। वृहत्तर असमिया समाज कभी खुलकर प्रशंसा या निंदा नहीं करता। उन्होंने अपने बच्चों को ज़रूरत से ज़्यादा स्वतंत्रता दे रखी थी और जहाँ किसी पक्ष-विपक्ष की बात आती थी वे कहते ''होबो पारे दे'' (हो सकता है)। कोई नवजवानों से यह नहीं कहता था कि यह रास्ता तुम्हें सिर्फ बर्बादी की ओर ले जाएगा। वे यही कहते कि ऐसा करना अच्छा नहीं है क्या शायद? मैं कभी-कभी साहित्यिक सभाओं, सेमिनारों और कालेज की कक्षाओं में कहता कि असमिया भाषा में ''न कि'' (शायद) व्यभिव्यक्ति पर रोक लगा देना चाहिए। इन्हीं सब कारणों से तंग आकर असम के नवजवानों ने बंदूक उठा ली थी और अब पहाड़ों के लड़के भी बागी होते जा रहे थे।
* * *
क़िस्सा 'को ताह', तीन हफ़्तों का बंद शुरू हुआ। काडर के स्मार्ट लड़के शहर की सड़कों पर गश्त लगाने लगे। कोई रास्ते में दिखता तो बड़ी शालीनता से नफ़ीस असमिया, कार्बी या बोड़ो भाषा में पूछते, ''दादा कहाँ जा रहे हैं/चाचा जी इतनी धूप में कैसे बंद के दिन बाहर निकल पड़े?'' अगर कोई मगरूर जवान मिलता तो उसको दम देते हुए पूछते, ''पता है कि नहीं जनता तीन हफ्तों का बंद मना रही है? आप जनता से गद्दारी करेंगे तो वह आपको कैसे आदर देगी?''
अब तक ज़िले की जनता या तो सहानुभूतिपूर्वक इन नए राजनीतिज्ञों को अपना समर्थन दे रही थी या इनसे बुरी तरह डर गयी थी। ज़िले के विभिन्न अंचलों से सही या गलत बहुत सारी खबरें आ रही थीं। कभी कोई अनजानी आवाज़ में फोन कर पूछता, ''सी.ई. एम दोमा?'' ([स्वायत्तशासी ज़िले के] मुख्य कार्यकारी सदस्य हैं या नहीं) और मैं हँसकर जवाब देता, ''इस ग़रीबखाने पर सी.ई.एम. जैसे बड़े लोग कहाँ आएँगे? मैं आपका सेवक प्रोफेसर... बोल रहा हूँ।'' तब उधर से आने वाली आवाज़ लज्जित होकर उत्तर देती, ''सारी सर, राँग नम्बर।''
एक दिन यह खबर भी उड़ी कि किसी बुजुर्ग का नवजवान बेटा तड़प-तड़प कर मर गया लेकिन कोई डाक्टर बुलाने की हिम्मत नहीं जुटा सका। कोई कहता कि लड़कियों से दुव्र्यवहार करने वाले किसी गुंडे को विद्रोहियों ने मार गिराया।
इन सारी बुरी अफ़वाहों के बावजूद मैं दिन डूबते घर से अकेला निकल जाता, कभी रेलवे स्टेशन के पास से सब्ज़ी खरीद कर लौटता, कभी किसी दोस्त के घर अड्डा जमता और सी.डी. पर जगजीत सिंह और फ़रीदा खानुम की ग़ज़लें सुनी जातीं, कभी मेरे ट्रायबल दोस्तों के घर महफिल जमती। उनके गिलासों में ब्लैकनाइट, ओल्ड मांक डाली जाती, मेरे गिलास में रूहे अफ़ज़। मेरे सामने भुने काजू की प्लेटें होतीं और जब पॉट में असम दार्जीलिंग की गरम-गरम काकटेल मेरे सामने पेश की जाती पनीर पकौड़े मेरे सामने परोसे जाते और चिकेन फ्राई या पोर्क मसाला मेरे दोस्तों की प्लेटों में रखा जाता तब रूहे अफ़ज़ा और चाय ही मेरे मन में नशे-सा कुछ भर देतीं। मैं कभी लखनऊ, इलाहाबाद और बलरामपुर के चुनिंदा संस्मरण सुनाता और मेरे दोस्त जब गुलाबी नशे में होते तो कहते, ''प्रोफेसर साहब, जब भगवान के यहाँ लौट कर जाओगे तब वह एक थप्पड़ मारेगा और कहेगा मूर्ख ब्राह्मण, तुम्हें आदिवासियों का गुरु इसीलिए बनाया था कि उनके साथ सूअर का लजीज मांस और हर्लांग (देसी शराब) पी सको!!!'' तब सब लोग ठहाके लगाते जिसमें मेरा ठहाका सबसे ऊँचा होता था। कभी-कभी मैं चाय का प्याला उठाता और टाल्सटाय की कापी राइट मारकर कहता, ''लेट अस ड्रिंक टु द हेल्थ आफ़ आल बिउटीफुस विमंज़ हस्बैंड्स।''  और तब मेरे ट्रायबल दोस्तों के अट्ठहास  गगन चुंबी हो जाते। अगर मेरे मेजबान के घरों में मेरी शिष्याएं होतीं तो उनकी भाभियाँ उन्हें छेड़तीं, ''जाओ और अपने गुरु के गालों को चूम लो जो मदिरा से और लाल हो गए होंगें!!!'' तब शिष्याएं कहतीं, ''मेरे सर और मदिरा? राम कहो मेरी टेपी (भाभी)। प्रोफ़ेसरानी को छोड़कर दुनिया, की किसी भी औरत में इतना साहस नहीं कि मेरे गुरु को चूम सके!!!'' इन मीठे नोकझोकों की बात मेरे दोस्त अकेले में मेरे कानों में रिले कर देते थे। तब अपनी नज़र में ही मेरा कद बड़ा हो जाता। ये डी.एच. लारेंस के 'लेडी चैटरलीज़ लवर (Lady Chatterley Lover)' के पात्र नहीं थे कि बाप अपनी पुत्री के अवैध प्रेमी से कहता कि मेरे दामाद की कमर में ज़्यादा ताकत नहीं है। इसलिए तुम उस पर मेहरबान हो जाओ। ये कार्बी रामायण की उन पंक्तियों को गाते थे जिसमें राम का भाई खनबेनी (लक्ष्मण) सीता से कहता है कि ''भाभी, मैं सूपनखा से कैसे शादी रचाऊँ? मैं तुम्हारे अलावा किसी और स्त्री द्वारा बनाया खाना भी नहीं खाता।'' साधारण व्यक्ति से लेकर बड़े आदमी तब सब मर्यादावादी थे और बोलचाल में वे बहुत संयत भाषा का प्रयोग करते थे।
महफ़िलें खत्म होतीं तो मैं उठकर अकेला घर की ओर चल देता। यूपी, बिहार, राजस्थान के मध्यवित्त वर्ग के एकाध लोग पीछ-पीछे टीका टिप्पणी भी करते कि यह प्रोफ़ेसर ट्रायबल नेताओं का हम प्याला और हम निवाला है फिर भी व्यापारियों और टिवशन करने वाले शिक्षकों को नफ़रत की निगाह से देखता है। हम-प्याला और हम-निवाला मैं भी था पर मेरे प्याले में चाय होती और निवाले भी शाकाहारी खानों से होते। जब कोई मेरा डायलाग सुनने के लिए मुझे छेड़ता, ''सर आपको घर तक छोड़ आएँ?'' तो मैं छूटते ही बोलता, ''क्या मैं मिनिस्टर हूँ या गौने की दुल्हन जिसे अंगरक्षक की ज़रूरत हो?'' और पूरे माहौल में गुलाबी हँसी लहराने लगती थी।
आज बंद का पंद्रहवा दिन था। लगभग तीन दशक तक ट्रायबल लोगों के साथ रहकर प्राय: मेरी ज़िंदगी उसी ढर्रे पर चलने लगी थी। अब मुझे तामझाम, ग्लैमर, बेकार का तकल्लुफ़ और जटिलताओं से कोई लगाव न रह गया था। आज भी महफिल जमी थी, हँसी के ठहाके भी लगे थे। उठ कर चला तो लगभग साढ़े नौ बज चुके थे। शहर में मुर्दनी-सी छायी थी; व्यापारी बुरी तरह सहमकर अपने दड़बों में दुबक गये थे। जब से यह पार्टी सत्ता में आई थी वे हिंदीभाषी व्यापारी जो टिंबर बिज़नेस में प्राकृतिक संपदा को लूट रहे थे डर गए थे। एक राजस्थानी बनिया जो पूरा डान बन गया था और छोटे अफ़सरों को प्राय: धमकाया करता था एक सारके अंदर औने-पौने दाम में अपना 'साम्राज्य' बेच-बाँच कर राजस्थान चला गया था; हालाँकि किसी सत्तासीन राजनेता ने उसके साथ कोई बदसलूकी नहीं की थी। आज की पार्टी में एक दोस्त ने बताया था कि राशन के एक व्यापारी ने बंद के एक दिन पहले एक दिन से ज़्यादा नहीं केवल आठ लाख का व्यापार किया था। सांसद की आलीशान कोठी पार कर मैं बाएँ मुड़ा और ज़िला अस्पताल के सामने की पहाड़ी पर चढऩे लगा। पानी टंकी के पास से आगे बढ़ा तो एक खड़का-सा हुआ। इधर-उधर देखे बगैर मैं आगे बढ़ता रहा। इधर काफी गर्मी पड़ रही थी लेकिन रात अपने आँचल में माँ की तरह रहम लपेट रही थी। मेरे शहर का मौसम प्रेयसी के तेवरों की तरह हर रूप में अच्छा लगता था लेकिन उसमें मातृत्व का वह गुण था जो किसी प्रेयसी को अतिरिक्त गरिमा प्रदान करता है। मैं दिल्ली के काफीखानों, लखनऊ के चौधरी स्वीट हाउस और इलाहाबाद के सिविल लाइंस के होटलों में जब कभी दोस्तों से मुखातिब होता तो कहता कि मेरा यह शहर भारत का सबसे आकर्षक शहर है। मैं जब आई.टी.आई. परिसर पार कर बेल के पेड़ के पास पहुंचा अपने मित्र और सहकर्मी प्रोफेसर प्रवीण कुमार गोगोई की बात सोचकर अचानक जोर से हँस पड़ा। शंकर भक्त होने के कारण शिव के प्रिय वृक्ष के पास पहुँचते ही वे शिव स्तोत्र की पंक्तियाँ गुनगुनाने लगते हैं। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि गुवाहाटी या शिवसागर के गुंडों को भरे बाजार पीटने वाला यह अहोमवंशी क्षत्रिय भूतों से बहुत डरता है। मेरी हँसी कुछ थमी तो लगा पीछे के अंधेरों में भी हँसी की आवाज़ें आ रही हैं। मैंने सोचा अगर इतनी रात में सचमुच कोई मेरी हँसी सुन रहा होगा तो वह मुझे शर्तिया पागल नहीं तो कम से पागल का सहोदर भाई ज़रूर समझता होगा। घर पहुँचा तो बच्चे साँस रोक कर मेरा इंतजार कर रहे थे।
''पापा कार्बी आंग्लांग की राजनीति नाज़ुक मोड़ पर आ चुकी है। थोड़ा सतर्क रहिए।''
यह मेरी बड़ी बेटी थी, जो आज एक माँ की भाषा बोल रही थी।
''पापा, आजिर हर्लांग पार्टी जमी सिल नऽ है? किमान गहोरिर मांग्सो खाले।'' (पापा आज की मदिरा पार्टी जमी या नहीं? कितने सूअरों का मांस खा आए? यह दूसरी बेटी थी जो असमिया कार्बी बोलकर मुझे छेड़ रही थी। इसकी माँ ने झिड़की दी और हम खाना खाने लगे।
''बच्चों ने खा लिया है।''
''खा तो लिया लेकिन आपकी बड़ी बिटिया ने रो-रो कर घर भर दिया। कहती थी किसी ने ईष्र्या से कुछ कर तो नहीं दिया। एकदम आप की औलादा है। वेरी सेंटीमेंटल!!!''
खाने के बाद मैं रोज की तरह लिखने बैठा तो फोन खड़क उठा।
''कर्दम सर, (प्रणाम सर), खाना खा लिया?''
''हाँ, खा लिया और धन्यवाद लेकिन आप कौन साहब हैं जो लिखते समय मुझे परेशान कर रहे हैं?'' मैं गुर्राया।
''भगवान को शुक्र है आपने यह नहीं कहा कौन उल्लू का पट्ठा मुझे तंग कर रहा है। मैं आपका चेला हूं सर और आपसे विनती कर रहा हूँ आप बंद में इस तरह निकल कर हम लोगों की जान साँसत में मत डालिए!''
''मैं अपने शहर में घर से कब बाहर निकलूँ और कब लौटूँ इसके लिए मुझे किसी की अनुमति नहीं चाहिए। अगर आप सचमुच हमारे चेले हैं तो यह सुन लीजिए कि मैं न तो दलाली करता हूँ और न ही घूस लेता हूँ। किसी की बहू-बेटी को बुरी नज़र से भी नहीं देखता। सारे नेताओं की ऐसी तैसी और सारे आतंकवादियों की ऐसी तैसी!!! आई डोंट थिंक टू आर माय स्टूडेंट।''
''सर, गुस्सा थूक दीजिये प्लीज़। जब आप बेल के पेड़ के पास हँसे थे आपके पाँच अंगरक्षक भी हँस पड़े थे कि आप गगोई सर की बात सोचकर हँस रहे थे। उन अंगरक्षकों को हँसने के लिए संगठन उन्हें दंड भी देगा। अब यह मत कहिएगा कि क्या मैं गौने की दुल्हन हूँ जिसे अंगरक्षक चाहिए!!!''
अब अविश्वास की कोई गुंजाइश न थी। मेरे पिता, उसके रईस दोस्त, मेरे रिश्तेदार सब लोग यही बात चीख-चीख कर कहते थे कि तुमने असम जाकर ही अपने कैरियर को बर्बाद कर दिया। लेकिन इस एक घटना ने आज साबित कर दिया था कि मैं सही था और वे सारे लोग ग़लत।
फोन काल अभी चल ही रहा था। मैंने कहा; ''मेरे बच्चो! तुम लोग मेरी इतनी फ़िक्र करते हो!!! मैं तुम लोगों के इतने प्यार के काबिल नहीं हूँ!!!''
इसके बाद अपने को सँभालना संभव न था। मेरी आवाज़ थर्रा रही थी और आँखें सजल थीं।






पूर्वोत्तर भारत में आदिवासी जीवन पर हिन्दी में प्रमुख रूप से लिखने वाले उदयभानु पाण्डे की पहल में यह दूसरी कहानी है। डिफू असम में 38 वर्ष तक अध्यापन करते हुये वे वहीं बस गये। इन दिनों वे कार्बी परीकथाओं और आत्मकथाओं पर अंग्रेजी में बड़ा काम कर रहे हैं।
वे उत्तर प्रदेश के बलरामपुर से आते है, 1945 में उनका जन्म हुआ था। उनके कहानी संग्रह 'हर्ता कुंवर का वसीयत नामा' का दूसरा संस्करण अभी प्रकाशित हुआ है।


Login