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मार्च : 2015

आँधियाँ, स्वदेश, मलबा, समय

कल्पना सिंह चिटणीस


आँधियाँ

सपनों की कच्ची पगडंडियों पर
पहर, दोपहर, अँधेरे में,
नंगे पावों चलते हुए,
क्या तुम्हें कभी डर नहीं लगता?

ज़िन्दगी का वायदा था कि एक दिन,
ये कच्ची पगडंडियां,
पक्की सड़कों में बदल जाएँगी,

पर आज भी कीचड़ से सने तुम्हारे पाँव,
घर लौटते हैं खाली हाथ...

क्या चूक हो गई किससे,
कब, कहाँ, मालूम नहीं...

ज़िन्दगी से बेपनाह मुहब्बत थी तुम्हें, यह तो माना,
पर एक शिकवा कभी तो कर लिया होता?
समेट कर सारी आँधियाँ, हर रोज़,
तुम कहाँ रख आती हो?

तुम्हारी खिड़कियां, दरवाज़े, सब सांस रोके,
तुम्हारे एक जवाब के इंतज़ार में।

स्वदेश

रिश्ते-नाते, वायदे, मुहब्बत,
पत्र, किताबें, खिलौने और चित्र,

सब औंधे मुंह ज़मीन पर पड़े,
समय की गर्द सब पर जमीं हुई।

खिड़की पर बैठे सूरज ने,
डबडबाई हुई आँखों से मुझे ताका, और कहा -

सारी डोलियां, अर्थियां उठ गईं,
तुम्हारे जाने के बाद,
किसके लिये तुम लौटी हो आज?
इस घर में अब कोई नहीं रहता!

कैसे मान लूँ,
कोई न कोई तो होगा..?

पर इससे पहले की मैं यह कह पाती,
मेरे घर का दरवाज़ा मुझ पर,
आहिस्ता-आहिस्ता बंद हो गया,

मैंने झिर्रियों से झाँकने की कोशिश की,
पर अब वहां कोई न था...
सिर्फ दीवार पर,
स्याही से लिखी मेरी एक कविता,
अब भी थी टकटकी बांधे,
और एक टुकड़ा धूप....

लौटूंगी मैं फिर एक दिन
सिर्फ उनके लिए!

मलबा

कल रात,

मैंने एक घर के मलबे में बितायी,
घर, जो अब मेरा नहीं था,
सबकी आँखे बचा कर,
ताकि कोई मुझे देख न ले।

मैं भी शर्मिंदगी की ये कैसी हद!

अपनी कल्पना में,
एक नन्ही लड़की बन कर,
अपने घर की छत पर,
एक चारपाई फिर से बिछाई,

और गर्मी की उस रात,
चांदनी की लिहाफ ओढ़े,
तारों को तकते,
रात बितायी...

अपने इस कवि के जन्म के बहुत पहले की रात!
सारे पहर जाग कर,
मैंने उन आवाज़ों को सुनने की बहुत प्रतीक्षा की,
जिन्हें सुन आज वर्षों बीत गए,

पर सब के सब रहे मौन,

यहाँ तक की वे आत्माएं भी नहीं आईं,
जो कभी बसती थीं हमारे घर के कोनों में,
बिना किसी को कोई चोट पहुंचाए,

विवश करतीं मुझे सोचने पर आज,
फिर ये सारे दर्द, कहाँ से आये?

इस छटपटाहट में,
मैंने उस गर्भ में, फिर से प्रवेश करने की कोशिश की
जिससे इस जन्म को पाया,

और उन उंगलियों को किया याद,
जिसने मुझे चलना सिखाया

पर इस यात्रा में,
मैं अकेली कैसे?

खुशी का एक टुकड़ा और दर्द का दंश,
आज बाँटने के लिए कोई नहीं!

अँधेरे में डूबे हर कोने में, मैंने सब को ढूँढा,
और सितारों में कहीं खो गई अपनी दादी को...

एक कहानी काश,
आज वो फिर से सुनाये, तो नींद आए....
एक कहानी से ईश्वर
किसी बच्चे का विश्वास, कभी न उठ पाये!

समय

एक दिन समय ने
खिड़कियों के रास्ते बढ़ कर,

बिस्तर पर पड़े,
मेरे बेजान से बदन को छुआ,

ठंडे लोहे सा मेरा बदन,
समय खामोशी से मेरी नब्ज़ टटोलता रहा।

मैं ज़िंदा हूँ पगले,
जाग कर, मैंने समय से अठखेली की,

पर मेरी आँखों में नमी,
और सूखे होठों को देखकर समय ने पूछा -

मेरे दिये दु:ख
क्या अब भी हैं तुम्हारे पास?

समय ने मेरे दुखों को लौटा ले जाना चाहा,
पर मेरी मुट्ठियाँ खाली,

समय को निराश, खाली हाथ,
लौट जाना पड़ा...

मेरे दुखों की एक उम्र थी,
चल बसे वे एक दिन,
पर मैं, आज भी वहीं,
समय के सामने,

एक प्रश्नचिंह की तरह।

कठोर

मेरी आँखों से बरखा की बूंदे जब भी टपकती हैं,
मैं जानती हूँ की तुम्हारे हृदय में कोई अकाल फिर से आया है।

इन बूंदों से तुम सींच लो अपनी फटी ज़मीन,
और उपजा लो जो भी चाहो, अपने लिए...

बादल के एक टुकड़े की तरह, मैं विलीन हो जाऊँगी फिर,
तुम्हारे एक अव्यक्त इशारे पर...

कोई कवि लिख लेगा एक कविता मुझ पर भी कभी,
और दुनिया उसे गा लेगी,

कोई बात नहीं, अगर तुम्हारे हृदय में कोई शब्द,
आज भी नहीं उपजता।





कल्पना सिंह चिटणीस दो दशक से अमरीका में बसी हुई हैं। उनका परिचय पिछले अनुवाद वाले पन्नों के आखिर में है। बताना यह है कि कविता और सिनेमा के लिये अत्यंत मूल्यवान और सक्रिय जीवन परदेस में बिताने के बावजूद उनकी कविता प्रवासी होने से बची हुई है जबकि इन दिनों हिन्दी में प्रवासी रचनाकार बड़ा जोर लगा रहे हैं।


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