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जनवरी 2015

अपने समय के बारे में/ उनका महान होना तय था/ विलोम की पहचान/ लौटना

निखिल आनंद गिरि

नए कवि/पहली बार





अपने समय के बारे में

आप जब कहते हैं,
कि यह खराब समय है
तब आप कोस रहे होते हैं सिर्फ वर्तमान को
अतीत के पक्षपाती चश्मे से,
संभव है आपकी खराब घड़ी भर ही ख़राब हो समय।

दरअसल वह एक ख़राब समय था जो,
वीर्य की तरह बहता चला आया वर्तमान की नसों में।

जिस कातिल की सज़ा बदली सज़ा-ए-मौत में
(इसे रिहाई भी समझा जा सकता है)
उसने अतीत में झोंकी थी एक औरत तंदूर में।
समय तंदूर में झुलसा था तब
और आप अब काला बता रहे हैं।
अंधेरा पैदा करने के लिए
बहुत से धुंधले उजाले भी काफी हैं।

जिन चेलों ने आज बटोरे प्रशस्ति पत्र
उनके पत्रों पर कहीं दर्ज नहीं
कहां और कितने गुरुओं को बांटी थी कल कौन-सी बोतलें।

संभव यह भी है कि अच्छा समय ढंक दिया गया हो
किसी लोकतांत्रिक ढक्कन से।
जैसे आप खिड़कियां ढंकते हैं कमरों की,
और सुरक्षित महसूस करते हैं
आपकी बच्चियां लूडो खेलती हैं आराम से।
ठीक उसी लोकतांत्रिक समय खिड़की के बाहर,
जहां जब बच्चियां पैदा हुई
तो मांओं ने छातियां ढंक दी उनकी
और आसमान की तरफ अश्लील और डरावनी संभावनाओं से देखा

दरअसल यह एक अश्लील समय है,
हत्या की खबरों में सिबाका गीतमाला की तरह
दलित नरसंहार में सवर्णों की सकुशल रिहाई जैसे
दिल्ली में दम तोड़ता उत्तर पूर्व जैसे-
पृथ्वी की छाती पर उग आए मकान जैसे
बकरों की जगह उल्टे लटके मुसलमान जैसे।

इस वक्त आपके रंगीन चश्मे के भीतर
अगर दिख रहा है सच जैसा कुछ
तो सबसे अश्लील है भगवान
जिसे पसंद है समय का नंगा नाच।

उनका महान होना तय था

कोई गोत्र, कुल या नक्षत्र
तय होने से भी पहले
उनका महान होना तय था।
जंगल के जंगल काट दिए गए
उनका पलना बनाने में जुट गए गांव,
जिन गांवों में बने उनके मुकुट
फुदने और खिलौने भी
वहां आग लगा दी गई काम के बाद,
और एक महल तैयार हुआ
गांव की राख पर।

तब दूध के दांत भी उगे नहीं थे
जब घर में आ गई थी गाय
और बहने लगी थी दूधमलाई
जब वो बड़े हो रहे थे
तब तक तय हो चुका था
कोल्हू कौन होगा, बैल कौन?
पुट्ठे पर मलेगा तेल कौन?
उन्होंने अपनी पलकें फेरी
तो गायब हो गई तमाम कलाई घडिय़ां
अगर आपने ठीक-ठीक आखिरी समय नोट नहीं किया
तो संभव है
आपको घडिय़ां वापस मिलें, समय नहीं।

तमाम किताबों पर उंगली फिरा दी उन्होंने,
और उन्हें मान लिया गया,
ज्ञानीध्यानी-, प्रकांड
छुट्टा सांड।
उनके मुंह से दुर्गंध आई,
तो वायु प्रदूषण एक गंभीर मुद्दा मान लिया गया।

ऐसे तैयार हुए वो जीने के लिए,
न उन्हें किसी दुकान से आटा लेना था
न बस का नंबर पता करना था कभी
खास तरह से तराशे गए कुछ लोग
जिनका पसीना तहखानों में रखा जाना था
जिनके सफेद बालों पर शोध लिखे जाने थे
इस ग्रह पर सिर्फ राज करने के लिए आए थे।

उनकी ज़बान पर नमक की तरह
चटा दिया गया विकास का नाम शब्द
और वो करते रहे जुगाली विकास की
अपनी पीठ घुमाकर खुद ही देते रहे थपकी
घूमते रहे अमेठी, गुजरात से दिल्ली तक।

झूठ को इतना चिल्लाकर कहा,
इतना कलफ लगाकर
कुतुब मीनार जितनी ऊंचाई से
कि सच ने ख़ुदकुशी कर ली।

विलोम की पहचान

जहां से शुरू होती है सड़क,
शरीफ लोगों की
मोहल्ला शरीफ लोगों का,
उसी के भीतर एक हवादार पार्क में
एक काटे जा चुके पेड़ की
सूख चुकी डाली पर
दो गर्दनों को षटकोण बनाकर
सहलाती है गौरेया अपने साथी को
और उड़ जाती है आसमान में।
लीक तोड़ कर उड़ जाने में
मूंगफली तक खर्च नहीं होती।

एक ऐसी बात जो कही नहीं किसी ने
लोहे के आसमान में सुराख जैसी बात
आप सुनकर सिर्फ गर्दन हिलाते हैं,
जुगाली करते हैं फेसबुक पर,
छपने भेज देते है किसी अखबार में
और चौड़े होकर घूमते हैं सड़कों पर

जो सचमुच लड़ रहे होते हैं आसमानों से
कलकत्ता या छत्तीसगढ़ की जमीनों पर
आपके शोर में चुपचाप मर जाते हैं।

आप जिन दीवारों पर करते रहे पेशाब,
कोई वहां लिखता रहा था क्रांति
उसी दीवार के सहारे करता रहा आंदोलन,
भूखे पेट सोता रहा महीनों
एक दिन उसे पुलिस उठाकर ले गई
और गोलियों का ज़ायका चखाया
दीवारों ने बुलडोज़र का स्वाद चखा
आप घर बैठे आंदोलन देखते रहे टीवी पर

इस सदी का सबसे घिसा-पीटा शब्द है आंदोलन
अमिताभ बच्चन की तरह...
जिस दिन आपके कुर्ते का रंग सफेद हुआ,
हमें समझ लेना चाहिए था
शांति और सत्ता विलोम शब्द है।

लौटना

किसी अनमने दोपहर की
लंबी चुप से निकली कई-कई आवाज़ें
अंतरिक्ष से टकराकर लौट आती हैं
सपनों में प्रवेश कर जाती हैं चुपके से
ऐसे ही लौटना है एक दिन।

जैसे लौटता है पलटू महतो
हर तीन फीट की खुदाई के पास
बहुत सारी सांसे लेकर
एक कश बीड़ी के लिए।

जैसे लौटाता है पिटकर भगीरथ डोम
थाने से हलफनामे के बाद
बीवी-बच्चों के लिए
सूजा हुआ समय लेकर।

लौट आती हैं नानी-दादियां
झुर्रियों से पहले वाले दिनों में
छुट्टियां बिताने आए नाती-पोतों के संग।

लौटते हैं अच्छे मौसम
या जैसे रेलगाडिय़ां
बेसुध इंतज़ार के बाद।

जैसे लौटती है पृथ्वी
अपनी धुरी पर
युगों की परिक्रमा के बाद।

प्रेमिकाएं लौट आती हैं
कभी-कभी पत्नियों के चेहरे में।
किसी अकेले कमरे में
लौट आते हैं चुंबन वाले दिन
आईना निहारती बड़ी बहू के।
लौट आता है उधार गया रुपया
किसी परिचित के बटुए से।
देखना हम लौटेंगे एक दिन
उन पवित्र दोपहरों में
तीन दिन से लापता हुई
अचानक लौट आई बकरी की तरह।

जैसे लौटती है आदिवासी औरत
तेंदू की पत्तियां बेचकर
दिन भर की थकन लेकर
अपने परिवार के पास
और लोकगीत मुस्कुराते हैं।




निखिल आनंद गिरि छपरा बिहार से आते है। रांची और जमशेदपुर में प्रारंभिक पढ़ाई के बाद 'जामिया' से जनसंचार का उच्चतर अध्ययन किया। पहल में पहली बार प्रकाशित है। वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय के मीडिया विभाग में अध्ययन कर रहे हैं।


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