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जनवरी 2015

आत्मनिर्भर कहानियों के सर्जक

राहुल सिंह

पंकज मित्र पर इस आलेख से सिरीज का समापन




1990 के बाद इस देश में जो नीतिगत परिवर्तन हुए जैसे उदारीकरण के नाम पर भारतीय अर्थव्यवस्था को खोलने का, मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने का, बाबरी मस्जिद के ध्वंस के नाम पर सांप्रदायिक उन्माद को पैदा करने का, इन सबों ने मिलकर बहुत तेजी से 'जन के मानस और स्वभाव' में एक किस्म के बदलाव की जमीन तैयार की। इन बदलावों ने आकार ग्रहण करती पीढिय़ों को नये ढंग से संस्कारित किया। यह अकारण नहीं कि 'जेनरेशन गैप' जैसी अवधारणा का जन्म इसी दौर में हुआ। 'कस्टमर इसी दौर में कन्ज्यूमर'  बना और उसे समझने के लिये 'कन्ज्यूमर कल्चर' की जरूरत हुई। इन सब के सम्मिलित प्रभाव से एक 'नया मनुष्य' इस दौर में पैदा हुआ। विजयदेव नारायण साही ने लिखा है कि ''बारम्बार मनुष्य को बदलते देश-काल में परिभाषित करना साहित्य की जिम्मेदारी है।'' पकंज मित्र इसी देश-काल के सन्दर्भ में बदलते मनुष्य और उसकी भंगिमाओं को रेखांकित करनेवाली कहानियाँ के प्रणेता हैं। समकालीन आलोचना की प्रचलित शब्दावली में इसे ऐसे समझें कि 1990 के बाद उदारीकरण, निजीकरण, भूमण्डलीकरण ('उनिभू') के मार्फत् जिस भूमण्डीकरण को हवा दी गई। पंकज मित्र इसी 'उनिभू' से उपजी 'भूमण्डीकरण' के दौर में आई कहानीकार पीढ़ी के अगुआ हैं। उदारीकरण, निजीकरण और भूमण्डीकरण के सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक-धार्मिक प्रभावों को सम्मिलित और एकल रूप में अनिवार्यत: पंकज मित्र की कहानियों में लक्ष्य किया जा सकता है।
1996 में अपनी कहानी-यात्रा की शुरुआत करनेवाले पकंज मित्र के अब तक प्रकाशित तीन कहानी संग्रहों में कुल 26 कहानियाँ संकलित हैं। इन कहानियों के बूते उन्होंने हिन्दी कहानी में अपनी एक पुख्ता पहचान कायम कर ली है। यह पहचान जिन गलियारों, पगडण्डियों और राहों से गुजरकर हासिल हुई है, उसकी दरियाफ्त ही इस लेख का मकसद है। उनके पहले कहानी संग्रह 'क्विज मास्टर और अन्य कहानियां' (2004) में विन्यस्त दृष्टिसंपन्नता और वैचारिकता के आधार पर यह कहा जा सकता है कि 'पूत के पांव पालने में दिखने लगे थे'। तो आरंभ, इसी शुरुआत से। सितम्बर 1996 के 'हंस' में उनकी पहली कहानी 'अपेंडिसाइटिस' प्रकाशित हुई। 'हंस' जिस स्त्री और दलित विमर्श को हिन्दी में लाने का एक मुखर मंच बन रहा था, 'अपेंडिसाइटिस' उसके दलित विमर्श के एजेण्डे से सम्बद्ध कहानी थी। अगर बात निपट इस कहानी के स्तर पर करें तो दो बातें थीं जिसकी ओर ध्यान हल्का-सा जाता था। एक, व्यंजनायुक्त कहन और दूसरी सोद्देश्यता। लेकिन 1997 के इंडिया टुडे की 'साहित्य वार्षिकी' में छपी 'पड़ताल' ने उसके प्रति ध्यान आकर्षित किया। 'पड़ताल' के किशोरीरमण बाबू सही मायनों में उषा प्रियंवदा की 'वापसी' के गजाधर बाबू के जोड़ीदार ठहरते हैं। जो 'वापसी' में घटित होने से रह गया था, 'पड़ताल' में घटित हो जाता हैं। वस्तुएं मानवीय सम्बन्धों को न सिर्फ अपदस्थ करेंगी, बल्कि मृत्यु का कारण बनेंगी। इसको अपनी अनूठी पद्धति में पंकज मित्र 'पड़ताल' में बयां करते हैं। पर इसके बाद की चार कहानियों 'बोनसाई', 'लकड़सुंघा', 'बिन पानी डॉट काम' और 'एक अधूरी दास्तान' में पंकज मित्र अपनी जीती हुई जमीन गंवाते नजर आते हैं। इन कहानियों में जो बात सबसे महत्वपूर्ण है वह पंकज मित्र की वैचारिक पक्षधरता। जनवादी पक्षधरता से पगी यह कहानियां, कहानी के दूसरे मोर्चों पर हारती नजर आती हैं। 'बोनसाई' कहानी की सतह पर जरुर वृक्षों के 'बोनसाई' की चर्चा है, पर कहानी गहरे में हमारे समय की निरंकुश सत्ता और सत्तासीनों की उस अपरिमित ताकत को संबोधित है, जो किसी को कभी भी बौना कर देने में सक्षम है। आज वृक्षों से कहीं ज्यादा मनुष्यों की 'बोनसाई नस्ले' विकसित हो गई हैं। बोनसाई के रुपक का अर्थपूर्ण इस्तेमाल जरूर इस कहानी की उपलब्धि के तौर पर गिनाई जा सकती है। पर 'बिन पानी डॉट कॉम' और 'एक अधूरी दास्तान' कमजोर कहानियाँ हैं। 'बिन पानी डॉट कॉम' के देश-काल से पाठक जुड़ नहीं पाता है। पानी के मसले को जिस सर्जनात्मक तरीके से मनोज पांडेय ने अपनी हालिया कहानी 'पानी' में ढाला है उसे देखें तो 'बिन पानी डॉट कॉम' की कमजोरियों को उजागर करने की जरुरत नहीं रह जाती है। ऐसे ही 'एक अधूरी दास्तान' के प्लॉट और उसके साथ किये गये पंकज मित्र के बर्ताव को देखें तो वह उनकी विकसित होती शैली से मेल नहीं खाती है। मतलब पंकज मित्र की कहानियां एक 'पूरेपन' को धारण करने वाली कहानियां हैं। उसमें 'अधूरेपन' की गुंजाइश नहीं रहती है। पर 'एक अधूरी दास्तान' में दास्तान को वे अधूरा छोड़ देते हैं। उस पर गौरतलब बात यह कि जिस 'थीम' और जिस 'प्लॉट' को पंकज मित्र इसमें उठाते हैं, उस किस्म के 'प्लॉट' और 'थीम' पर प्रियंवद का कोई जोड़ नहीं है। उस अखाड़े के प्रियंवद बेताज बादशाह हैं। उसके सामने यह कहानी टिकती नहीं है। इन कोशिशों के बाद वे 'लकड़सुंघा' में थोड़ा-थोड़ा पैर जमाते दिखते हैं। भाषा के स्तर पर इसमें पिछली कहानियों की तुलना में एक छलांग देखी जा सकती हैं। इसके बाद की दो कहानियों में वे तब तक के ऊबड़-खाबड़पन से उबर कर एक सम में आ जाते हैं। और यहाँ से पंकज मित्र रफ्तार पकड़ते हैं। यह दो कहानियां हैं 'क्विज मास्टर' और 'अफसाना प्रदूषण का उर्फ हर फिक्र को धुएं में...'। 'क्विजमास्टर' भूमण्डीकरण की प्रक्रिया से उपजी कस्बाई मानसिकता को 'देशज अंदाज' में पकड़ती है। कहन की भंगिमा और विषयवस्तु को भाषा में बरतने की अदा के लिहाज से पंकज मित्र की कहानी यात्रा में एक प्रस्थान बिंदु के तौर पर देखा जा सकता है। यों तो इस कहानी में पिछली कहानियों की छोटी-छोटी खासियतों को देखा जा सकता है। पर इस कहानी में सबसे जोरदार तरीके से पंकज मित्र भाषा के मोर्चे पर अपनी मौजूदगी दर्ज कराते हैं। और यह अकारण नहीं है कि कथाकार अखिलेश उनकी इस विशेषता को अचूक ढंग से पकड़ते हुए कहते हैं कि ''उनके यहां जनभाषा यानि की बोली का सौंदर्य इतना आक्रामक है कि उसकी सोहबत में संस्कृत, अंग्रेजी के अनेक शब्दों का चेहरा देशज बन गया है।'' 'क्विज मास्टर' में पहली बार झारखंड के हजारीबाग और चतरा आदि के आस-पास बोली जानेवाली 'खोरठा' की छठा दिखती है। इस भाषा के टटकेपन और इसकी मारक क्षमता का पुरजोर इस्तेमाल पंकज मित्र की आगामी कहानियों का स्थायी भाव बन जाता है। और इस संग्रह की आखिरी कहानी 'अफसाना प्रदूषण का...' तक पहुंचते-पहुंचते पंकज मित्र की यह भाषा अपने शबाब पर पहुंच जाती है। 'अफसाना प्रदूषण का...' न सिर्फ इस संग्रह का बल्कि इस पीढ़ी के द्वारा लिखी गई यादगार कहानियों में एक है।
तो थोड़ी बात इस प्रदूषण के अफसाने की। 'युवा पीढ़ी' या 'भूमंडलोत्तर पीढ़ी' के नाम से कहानीकारों की जो पौध सामने आई है, उन्होंने सांप्रदायिकता पर उम्दा कहानियाँ लिखी हैं। 'अफसाना प्रदूषण का...' के मार्फत् पंकज मित्र भी उस खतियान में अपना नाम सम्मानजक तरीके से दर्ज कराते हैं। भारतीय कस्बों में पुश्तों से चली आती सामासिकता की कुछ मेहराबें-मीनारें अब भी बची हैं। बजरंगी लाल चैरसिया और शर्फुद्दीन अंसारी की दोस्ती उसी सामासिकता के अवशेष है। यह कहानी इन गंगा-जमनी तहजीबों पर बढ़ते हिन्दुत्ववादी राजनीतिक आग्रहों के मंडराते खतरों के बीच उम्मीद के बचे रहने की है। निरीहता के कारण एक नियमित अंतराल पर उपजनेवाली मार्मिकता, उन मार्मिक क्षणों पर एक साथ हँस और रो सकने लायक स्थितियाँ और उसको एक बोली के द्वारा धारण और वहन करने की क्षमता, कुल मिलाकर इस कहानी को अनिवार्यत: पढ़े जाने की श्रेणी में ला खड़ा करती है। काश कि आपमें में से किसी ने खोरठा में हिन्दी की इस ध्वन्यात्मकता को जिया हो, तो इसे पढ़कर आप बस अश-कश कर सकते हैं। पंकज मित्र की इस 'स्थानियता' को राही मासूम रजा और 'रेणु' की आंचलिकता के समकक्ष बिना किसी रियायत के रखा जा सकता है। एक उदाहरण रख रहा हूँ। कफ्र्यू में अपनी बेकरी से गली में झांकते शर्फुद्दीन के दरवाजे पर धड़ाक से जब एक लात पड़ती है ओर एक जवान उससे पूछता है-
''क्या नाम है बे?'' ''ज्जजी-शर्फू।'' ''क्या देख रहा बे?'' ''ज्जजी कर्फू।''
''भैनचो शर्फू, गांड में घुसा दूंगा कर्फू। देखते रहना फिर... साले पाकिस्तानी, जा अंदर।''
''आयं हो बजरंगी। हमरा सरवा पाकिस्तानी, कह देलथुजी।''
''छोड़ न सिपहियन के बात''- बजरंगी लाल ने दिलासा देने के लिए कहा।
''ना जी, देख न तू ही देख, केतना कहलथु हमरा पाकिस्तान जाये खातिर- तू जाने ही न वही सैयद साहब। हम कहलियो - के है हमर हुंआ। जहां पैदा होलियो वहीं न दफन होबी।''
''छोड़ ना बे।''
''ना जी छोड़े पकड़े के बात ना हो। तू कहले हल न एक बार कि तिनगो 'क' के खातिर मुसलमनवैन बदनाम हथु-कुनबा बढ़ावे में, किरकिट मैच में पाकिस्तान के जिताबे में आर कश्मीर के खातिर। त ना हम कुनबा बढ़ैलियो, ना इ नासपीटा किरकेट से हमरा कोनो मतलब आर कश्मीर के तो बातें छोड़ हम तो कभी कटकमसांडिय़ो (एक नजदीक का गांव) ना गेलियौ। त हम पाकिस्तानी कैसे हो गेलियो बजरंगी...।''
''छोड़ ना बे। तू भी तो, काहेले करले है माथापेची?''
यह कहानी अल्पसंख्यकों की रोजमर्रे की दुश्वारियों और उनके समक्ष संभावित विकल्पों को एक रैखिय संरचना में जिस कदर पिरोती है, छोटे-छोटे प्रसंगों में यह हमारी सामाजिक संरचना और मनोरचना को जिस अचूक ढंग से पकड़़ती है, वह भी काबिल-ए-गौर है। और यह सब खालिस कहानी के धरातल पर। कुतुबमीनार को इस कहानी में जिस अंदाज में याद किया गया है, उसकी मार्मिकता स्मृतियों में दर्ज हो जाती हैं। कहानी के आखिर में भयानक वर्तनी कंठी अशुद्धियों में भरा पता समाज के व्याकरण के टूटने-फूटने को जिस कदर रेखांकित करता है, वह व्याख्या की मांग करता है। इस कहानी के सौंदर्य पर विस्तार से फिर कभी फिलहाल भाषा के मसले पर कुछ जरूरी बातें। पंकज मित्र ने भाषा की उपरोक्त धज से कहन का अपना ढब विकसित किया है। एलेन गिन्सबर्ग ने साहित्य के बुनियादी संकट पर बात करते हुए अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि ''साहित्य का बुनियादी संकट यह है कि लेखकों के पास एक पूर्वनिर्धारित दृष्टि है कि साहित्य को कैसा होना चाहिए? और उसके इस विचार ने साहित्य में इन रोजमर्रे की स्थितियों और बातचीत को नामुमकिन कर दिया है। मसलन् हमारी बातचीत में जो एक किस्म की मर्दानगी छायी रहती है, वह लिखने के दौरान गायब हो जाती है। जैसे पिछली रात मैंने किसकी ली और कल मैं किसकी लूंगा, किसके पिछवाड़े मैंने डंडा कर दिया आदि बातें, हम व्यक्तिगत तौर पर करते हैं, लेकिन लेखन में नहीं। इससे हम खुद अपने रोजमर्रे के जीवन और लेखन में एक फर्क पैदा कर रहे होते हैं। मेरी कोशिश थी कि मैं अपनी लेखनी से वैसे ही बात कर सकूं जैसा कि मैं खुद से या अपने दोस्तों से करता हूँ। मसला इस अंतर को मिटाने का था। दरअसल यही लिखने की बुनियादी शर्त या लेखनी से वैसे ही बात कर सकूं जैसा कि मैं खुद से या अपने दोस्तों से करता हूँ। मसला इस अंतर को मिटाने का था। दरअसल यही लिखने की बुनियादी शर्त या काबिलियत है।'' पंकज मित्र की शुरुआती कहानियों को छोड़ दें तो उनकी कहानी की भाषा में इस 'अचेत रोजमर्रेपन' को अनुभूत किया जा सकता है। ये मुहावरों के नहीं 'लोकोक्तियों' के कहानीकार हैं। उनकी कहानियों में 'प्रसंगानुकूल जननांगसूचक लोकोक्तियों' का बारम्बार इस्तेमाल दिखता है, उसे एक साथ रख दिया जाये तो मामला अश्लीलता वाला ठहराया जा सकता है। लोकोक्तियाँ हमारी मानस और हमारी सामाजिक संरचना की परतों को बेहद मानीखेज तरीके से धारण करती हैं। उनमें व्याप्त मर्दानेपन को महसूस किया जा सकता है।
पंकज मित्र की कहानियों में भाषा से इतर स्त्रियों के चित्रण में भी एक दबी हुई-सी पितृसत्तात्मकता की भावना को लक्षित किया जा सकता है। 'अफसाना प्रदूषण का...' की रोकसनिया को हटा दें तो ज्यादातर मौकों पर इनकी कहानियों की स्त्रियों में लालसा की उमंगे रह-रह कर लहराती रहती हैं। मानो 'भूमंडीकरण' से उपजी उपभोक्तावादी मानसिकता का सबसे ज्यादा शिकार स्त्रियाँ ही रहीं हों! बारीकी से देखें तो कुछ जातियों के प्रति उनके दबे हुए आग्रहों को भी उनकी कहानियों में देखा जा सकता है। जैसे राजपूत कई कारणों से उनके यहाँ मौजूद हैं। 'अपेंडिसायटिस' का पी.वी.एस.एम. जातिवादी दुराग्रहों से भरा एक चरित्र है। 'पड़ताल' में किशोरीरमण बाबू की नई नवेली पत्नी भी किन्हीं सिंहजी के लड़के के साथ भाग जाती है। 'एक अधूरी कहानी' में 'राजपूती खून' की याद उन्हें आती है। 'प्रो अनिकेत का निकेतन' में सिंह जी ही करते हैं- 'चमकलाल सिंह, नहीं, उ तो फारवर्ड है। सब मामला गड़बड़ा जाएगा।' 'जोगड़ा' में वे लिखते हैं कि ''उधर जो थोड़े घर हैं, जिनके सूर्यवंशीय गर्व को नहीं पचता था उनका चंद्रवंशीय कुल (कहार) में उत्पन्न होकर जोगिराज हो जाना।'' बाद के संग्रहों में वे इसी 'दुलार' से गाहे-बगाहे कायस्थ जाति को भी याद करते हैं। पर तब निशाने पर कायस्थ जाति की मेधा आती है।
इस पहले संग्रह में बतौर कहानीकार पंकज मित्र की कुछ खासियतें और उभरती हैं। पहली तो यह कि वह दुख की दास्तां को मजा लेकर बयां करने में यकीन रखते हैं। एक किस्म के 'त्रासद हास्य' को संभव करने की कोशिश उनकी कहानियों में अनवरत है। उपभोग की लालसायें कैसे जीवन को बदलती हैं? छोटी-सी लगनेवाली लालसा के मूल में किस विषवृक्ष के बीज छिपे हो सकते हैं, यह हम नहीं जान सकते हैं। इस प्रक्रिया को हमारे देश-काल से जोड़कर घटित होते दिखलाते हैं। और इस 'घटित होने की स्वाभाविकता' में उनकी कहानियां संभव होती हैं। विमर्शों और बौद्धिकता के आरोपण की किसी अनावश्यक कुचेष्टा से इतर यह निपट कहानियाँ हैं। इनके यहाँ विमर्श और विचार कहानी की कोख से फूटते हैं, उसको उढ़ायीं गई थिगलियों से नहीं। इसलिए इनकी कमजोर कहानियों में भी कथारस या कहानीपन जैसी चीज के बारे में शिकायत दर्ज नहीं कराई जा सकती है। कहानियों में बहुत-सी चीजों को शामिल करने के आग्रही नहीं हैं। कहानियों में एक किस्म की 'प्वाइंटिडनेस' को महसूस किया जा सकता है। उनके दूसरे कहानी संग्रह 'हुड़कलुल्लु' (2008) के इस 'प्वांइटिडनेस' के साथ अन्य कई विशेषतायें धीरे-धीरे आ जुटती हैं, जिससे उस शैली का जन्म होता है जो अब पंकज मित्र की पहचान बन चुकी है। पर इस संग्रह की कहानियों को निरंतरता में देखें तो पंकज मित्र कहीं एक कदम आगे तो कहीं दो कदम पीछे नजर आते हैं। मतलब यह कि जहां कहानियां बन पड़ती हैं, वहां तो वे लाजवाब लगती है पर जहां नहीं बनती हैं, वहां वह 'निकम्मे का कोरस' सरीखा जान पड़ती है। इस संग्रह में यद्यपि वे अपने 'कंफर्ट जोन' से बाहर निकलने की कोशिश करते हैं। जैसे 'आज, कल और परसों तक...' में वे लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के ढहने की कहानी बयां करते हैं। मुनाफे के लिए मौत को भी एक चटखारेदार स्टोरी बना कर बेचने वाली मीडिया को यह कहानी अपने निशाने पर लेती है। एक ओर मीडिया के आचारशास्त्र को यह कटघरे में खड़ा करती हैं, वहीं दूसरी ओर उसकी निरंकुशता की ओर भी ध्यान खींचती है। मुनाफे के लिए अपनी दीन, धर्म, ईमान तक बेच देनेवाली मीडिया की विश्वसनीयता पर यह कहानी सवाल खड़े करती है। कुकुरमुत्तों की तरह उगते स्थानीय और राष्ट्रीय मीडिया समूहों को यह कहानी नंगा करने का काम करती है। पर इसी संग्रह की 'फीमेल आई.डी.', 'लकडिया पीर और ड्रिफ्टवुड', 'हरी पुत्तर की गजब खोपड़ी' और 'निकम्मों का कोरस' सरीखी कहानियाँ वैसा प्रभाव नहीं छोड़ पाती हैं, जिसकी उम्मीद पंकज मित्र की पिछली कहानियाँ जगाती हैं। पर इन और ऐसे तमाम मौकों पर वैचारिक प्रतिबद्धता उनके पक्ष में एक ढाल की तरह खड़ी हो जाती है। पर 'कन्सर्न' को यादगार कहानी में तब्दील करना एक बड़ी बात है, जो हर बार संभव नहीं हो सकती है इस बात को याद रखना चाहिए। यहाँ तक कि पंकज मित्र की महत्वकांक्षी कहानी 'हुड़कलुल्लु' भी अपने पूरे 'हुड़कलुल्लुपन' के बावजूद अपनी लंबाई के साथ न्याय नहीं कर पाती है। उपन्यास की सरहद को छुती यह कहानी पर्याप्त चर्चा बटोरने में तो कामयाब रही थी। पर इस कहानी में पंकज मित्र एक ऐसी हरकत करते नजर आते हैं, जिसका औचित्य समझ में नहीं आता है। दरअसल इस कहानी में पंकज मित्र अपनी यादगार कहानी 'अफसाना प्रदूषण का...' का एक बड़ा हिस्सा 'जस का तस' उठा लेते हैं। ऐसे ही 'कस्बे की एक लोक कथा बतर्ज बंटी और बबली' के एक बड़े हिस्से को सीधे 'सेंदरा' में उठा कर वे दे मारते हैं। और तब उनकी कहानियों में ऐसे छोटे-छोटे प्रसंगों की ओर ध्यान जाता है, जो एक साथ दो कहानियों में इस्तेमाल होते दिखते हैं। जैसे खोरठा बोलनेवाले चरित्रों का गुस्से में हिन्दी बोलना, कोई पूछे किसी से कि आपका लड़का कितना बड़ा हुआ तो दोनों हाथों से इस तरह बताना जैसे वह छप्पर में लगे कद्दू की लंबाई बता रहा हो, नक्सल के अर्थ में 'जंगल' की उपस्थिति, 'स्नेह निर्झर बह गया है, रेत ज्यों तन रह गया है' या 'रामदुआर तुम रखवारे होत न आज्ञा बिन पैसारे' आदि काव्यांशों की उपस्थिति। कहानी के कथ्य के स्तर पर देखें तो 'कस्बे की एक लोक कथा बतर्ज बंटी और बबली' के एतवा बिरहो की मुस्की की सीध में 'चमनी गंझू की मुस्की' देखी जा सकती है अथवा 'बैल का स्वप्न' के जेम्स खाखा और 'एक चुप्पे की चुपकथा' के किशोर मैथ्यूज एक्का के सीधेपन में भी एक साम्यता दिखती है। 'बैल का स्वप्न' का जेम्स खाखा बाहर नहीं घर में पराजित होता है।  घर यह जगह होती है जो एक संबल और ताकत देती है। 'आदिवासियों के धर्मान्तरण' के मूल में व्याप्त भूख और अशिक्षा की परतों को खोलती यह कहानी काफी अर्थपूर्ण है। सात भाई और तीन बहनों वाले परिवार में भरपेट भोजन से महरुम जेम्स खाखा 'बिस्कुट-ब्रेड-चॉकलेट' के जरिए धर्मान्तरित हो जाता है। वही बिस्कुट जिसे मिशनरी फादर अपने कुत्तों को भी खिलाते हैं। जेम्स खाखा जिस जमीन से उठ कर खड़ा होता है। उस जमीन की बंजरता और जेम्स खाखा के प्रयत्नों की अनदेखी उसके बाद की पीढ़ी जिस ढंग से करती है, वह काफी मार्मिक है। 'नीला मखमल कलरवाला सोफा' जेम्स खाखा के जीवन की चंद खूबसूरत चीजों में से एक है, जिसकी ख्वाहिश के साथ वह बढ़ा है। वह सपने के पूरा होते ही अपने भतीजे के द्वारा 'बैल' कहे जाने से वह अपनी सपनीली दुनिया से यकायक जमीन पर आ गिरता है। यह सच है कि आजीवन जेेम्स खाखा किसी बैल की तरह 'खटा'। उसके जीवन में श्रम की केन्द्रीयता को देखा जा सकता है। पर उसका परिवार बजाय उस श्रम का सम्मान करने के, उसे 'बैल' बूझता है। दूसरे संग्रह की जो कहानी पुन: पंकज मित्र की अहमियत का अहसास करा जाती है, वह है 'बे ला का भू'। अर्थात् बेचु लाला का भूत। 'बे ला का भू' की शुरुआत एक भूतिया पृष्ठभूमि में रहस्यात्मक रुप से होती है। गहराते रहस्य के साथ बढ़ती कहानी, एक पॉज लेकर फ्लैशबैक में चली जाती है। वहां पंकज मित्र अपनी शैली में छोटी-छोटी कहानियों और 'आब्जर्वेशन' की अपनी नैसर्गिक प्रतिभा का परिचय देते हुए कहानी का मचान तैयार करते हैं। जैसे 'अफसाना प्रदूषण का...' में वे कुतुबमीनार का बेहद रचनात्मक उपयोग करते हैं, वैसे ही 'बे ला का भू' में वे चित्रगुप्त की मूर्ति का नायाब इस्तेमाल करते हैं। इन और ऐसे अनेक प्रकरणों से वे बेचू लाल की प्रतिभा से हमें रूबरू करते हैं। जो आगे चलकर उसकी मार्केटिंग स्किल्स के तौर पर निखरता है। कमीशनखोर परजीवियों की जमात में शामिल होकर बेचूलाल भी सपने बेचने का धंधा शुरु कर देता है। प्राइवेट कंपनियों में काम करनेवाले पहले अपने परिचितों के विश्वास का फायदा उठाते हैं। बाद में फिर बेहतर सुविधाओं की खातिर एक कंपनी से दूसरी कंपनी में कूद-फांद मचाते रहते हैं। और ठगी के शिकार लोगों की संख्या बढ़ती जाती है। ऐसे में कंपनी गर लोगों की पूंजी लेकर 'तिडिग पों' हो जाये, तो बेचू लाल सरीखे गरीब की जान फंसती है। और वे जीते जी भूत में तब्दील हो जाते हैं। उनकी 'प्रेतकथायें' विस्तार पाने लगती हैं। पश्चिम बंगाल के शारदा चिट फंड घोटाले के मद्देनजर इस कहानी को पढ़ें तो पंकज मित्र की समकाल को सूंघने की क्षमता की प्रशंसा की जा सकती है। समकालीनता से लबरेज इन कहानियों में हम अपने समय की अंर्तध्वनियों को सुन करते हैं। इस लिहाज से उनका तीसरा कहानी संग्रह 'जिद्दी रेडियो' उल्लेखनीय है।
'जिद्दी रेडियो' कहानी में स्वप्नमय बाबू के लड़के में 'आवारा पूंजी' के दौर के लंपटपन को देखा जा सकता है। 'मार्केटिंग', 'प्रोडक्ट', 'प्रोफेशनलिज्म', 'स्कीम' के कुछ आशयों को इस संग्रह की अन्य कहानियों में देखा जा सकता है। 'कस्बे की एक लोककथा बतर्ज बंटी और बबली' में 'कोई सगा नहीं जिसको ठगा नहीं' के सौंदर्य को देखा जा सकता है, तो 'पप्पू कांट लव साला' में लव जिहाद की पदचापों को सुन सकते हैं। 'बिजुरी महतो की अजब दास्तान' में निरीहता के आखेट को देखा जा सकता है। इस संग्रह की सबसे कमजोर कहानी 'प्रो अनिकेत का निकेतन' ठहरती है और सबसे सशक्त कहानी 'बिलौती महतो की उधार फिकिर'। 'सेंदरा' में चूंकि 'कस्बे की एक लोककथा...' की ही पूंजी से ही काम चला लिया गया है, इसलिए उसे मैं विचारणीय नहीं मानता। 'बिलौती महतो की उधार फिकिर' जिस ह-द-रु-ऊ-ऊ की हृदय विदारक पुकार के साथ खुलती है, उसका मतलब दूर-दूर तक समझ में नहीं आता है, लेकिन जहां इस पुकार की तान टूटती है, उसके बीच कई अर्थ ध्वनियों और अर्थ छवियों को निर्मित करते हुए कहानी मुकम्मल होती है।
तीसरे कहानी संग्रह 'जिद्दी रेडियो' में शामिल दस कहानियों से गुजरने के बाद बतौर कहानीकार पंकज मित्र की बुनियादी चिंताओं के बाबत कुछ बातें ठोस ढंग से प्रस्तावित की जा सकती हैं। पंकज मित्र की कहानियों की मूल चिंता बदले देश-काल में मनुष्यों के मानस और स्वभाव में आनेवाले बदलाव को दर्ज करने की है। इसे वे 'प्रत्यक्षीकरण' (जक्स्टापोजीशन) की प्रविधि द्वारा अंजाम देते हैं। इन कहानियों ('जोगड़ा', 'बिलौती महतो की उधार फिकिर', 'जिद्दी रेडियो') में पिता-पुत्र का एक युग्म हुआ करता है, जिसके मध्य एक 'जेनरेशन गैप' हुआ करता है। पिता पारम्परिक मूल्यों और संस्कारों में लिपटे वर्ग का प्रतिनिध्वि करते हैं। यही पंकज मित्र की कहानियों में आये 'फादर फीगर' मूल्यों के एक 'पैकेज' में बदल जाते हैं। वे एक साथ श्रमशील, ईमानदार, नैतिक, प्रदर्शनप्रियता से दूर, संतुलित जीवन के पक्षधर जीव हो जाते हैं। इसके उलट उनकी संततियां उनका विलोम रचती हैं; श्रम से जी चुरानेवाली, सफलता के शार्ट कट्स तलाशनेवाली, हवाबाजी में यकीन रखनेवाली, यूज एण्ड थ्रो के फलसफे पर आस्था रखनेवाली, किसी भी कीमत पर अपने लिए सुविधाएं जुटानेवाली। पिता-पुत्र के इस युग्म में पुत्र के प्रति ममत्व दिखाती एक मां हुआ करती है, जो गाहे-बगाहे अपने पति को उन मूल्यों से हासिल जिंदगी के लिए उलाहना दिया करती है। एक दूसरे किस्म की कहानियाँ भी पंकज मित्र के यहां उपलब्ध हैं, जिसमें 'निरीहता का आखेट' है। निरीह, भोले, सादे, मासूम से चरित्रों की उनके इन्हीं गुणों के कारण हुई दुर्गति का बयां करती कहानियां। यह आखेट कहीं व्यक्ति के द्वारा है (चमनी गंझू की मुस्की) तो कहीं व्यवस्था के द्वारा (कस्बे की एक लोककथा बतर्ज बंटी और बबली, सेंदरा)। पर पकंज मित्र की अपनी असल कलाकारी इस ढाँचे की ढलाई में है। कथ्य को बरतने की इस अदा से किस्सागोई की वह नई कलम विकसित होती है, पंकज मित्र अब जिसके पर्याय हो गये हैं। एक किस्म के 'त्रासद हास्य' को संभव करने की कोशिश उनकी कहानियों में अनवरत है। हर कहानी को इसी 'त्रासद हास्य' की परिधि में लाना ही उनकी वह खूबी है, जो उनकी 'सिग्नेचर ट्यून' या 'स्टाईल स्टेटमेंट' हो गई है। विनोद भट्ट ने अन्तोन चेखव के बारे में लिखा है कि 'बाद में चेखव ने हास्य के नीचे बहती करुणा के रस में भीगी कहानियां लिखना शुरू किया। उसके पास सबसे बड़ी कला लघुता की थी। हास्य और करुणा दोनों ही रसों पर उसका अद्भुत नियंत्रण था।' पंकज मित्र की शैली में व्याप्त 'इनहेरिट ह्यूमर' और 'ट्रैजिक सेन्स' की युगलबंदी ने इस 'चेखवपने' को महसूस किया जा सकता है।
कहानी का असर जो हो, पर हर कहानी में अपनी इस अदा को वे अचूक ढंग से क्रियान्वित करते हैं। उनकी कहानियाँ किसी किरदार के जीवन की छोटी-छोटी मनोरंजक घटनाओं का समुच्चय हुआ करती है। कहानी जब विकसित हो रही होती है तो भाषा की तश्तरी में यह रंजकता पूरी नफासत के साथ परोसी जाती है। रंजकता और कहन का ढब मिलकर उस रोचकता, कहानीपन का कथा रस के कहानी के स्तर पर सिरजते हैं। इससे एक गजब की पठनीयता कहानी के धरातल पर पैदा होती है। बची-खुची कसर कहानी की नाटकीयता पूरा कर देती है। पंकज मित्र की खोरठा भाषा पर पकड़ इस कदर है कि उनकी कहानियाँ एक साथ पठनीयता और श्रव्यता दोनों के धरातल पर असाधारण तरीके से खरी उतरती है। उनकी कहानियों में व्याप्त श्रव्यता के मूल में आकाशवाणी के उनके कार्यानुभव का प्रभाव हो सकता है।
साँचे के स्तर पर पंकज मित्र की कहानियाँ भी प्रियंवद की भांति 'प्वांइटिड' हैं। इससे कथ्य के प्रवाह की एक दिशा तय हो जाती है। इस इकहरे शिल्प को 'बहुध्वान्यात्मकता' के लोभ में 'अर्थगर्भी सांकेतिकताओं' के पाटने की गलती पंकज मित्र नहीं करते हैं। 'अर्थगर्भी सांकेतिकतायें' यदा-कदा जरुर इनकी कहानियों में दिखती हैं, पर वे कहीं भी उनके मूल कथ्य में 'विचलन' पैदा नहीं करती है। पंकज मित्र शिवमूर्ति की भांति ही कहानियों में यथार्थ को हल्का करके प्रयोग में लाने के आग्रही हैं। इस इकहरेपन और रैखिकता के कारण कथ्य बिना किसी अवरोध के पाठकों तक पहुँचता है। यही कारण है कि कहानी जहाँ खत्म होती है, वहां एक अक्स जरुर उभरता है, जिसे हम चरित्र के तौर पर पहचान सकते हैं। कहानी की इस 'रुपगत शुचिता' की रक्षा के कारण इन कहानियों को सहजता से चरित्र और विषयवस्तु के धरातल पर लगाया जा सकता है। इस तरह देखें तो बहुत छोटी-छोटी खूबियों को कहानी में घुलाकर कहानी की अपनी शैली सिरजते हैं। वे एक साथ प्वांडटिडनेस और इकहरेपन को, रंजकता और रोचकता को, शिक्षण व सोद्देश्यता को, चरित्र व प्रसंग को, पठनीयता व श्रव्यता को, हास्य व करुण को, किस्सागोई व नाटकीयता को, कथ्य और शिल्प को भाषा के जरिए बरतकर 'कहानी में पंकजपने' को चरितार्थ करते हैं। इन सब छोटी-छोटी खूबियों के बूते वे 'सतह से सतह पर मार करनेवाली आत्मनिर्भर कहानियों की ऐसी नस्लें' विकसित करते हैं, जिसमें कहानीकार और पाठक के बीच आलोचक या समीक्षक के मध्यस्थ या बिचौलिया बनने की संभावनायें क्षीण हो जाती हैं। कथ्य अपने गंतव्य तक निर्बाध गमन करता है। जहां इनमें कोई कमी रह जाती है, वहां इन कहानियों में वर्णित चरित्र की वर्गीय पहचान और उनके प्रति पंकज मित्र की वैचारिक पक्षधरता उनके बचाव में एक मजबूत ढाल की तरह आ खड़ी होती है। इन वर्गीय पक्षधरता से पंकज मित्र अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता को जतलाने का काम करते हैं। पर अब वे कहानी के जिस मुकाम पर हैं, वहां चाहे-अनचाहे हर नई कहानी के साथ एक जोखिम 'इनवॉल्व' है। हर रचनाकार जिसकी रचनाशीलता में एक निरंतरता शामिल है, को अपने रचनाकाल में इस दुश्वारी का सामना करना पड़ता है। हर सर्जक की चाह होती है कि उसकी रचनाशीलता एक 'शैली' बन जाये, वह खुद अपनी विधा का एक 'हस्ताक्षर' हो जाये। गर यह दोनों चीजें संभव हो जायें तो उस 'शैली' के संरक्षण और संवद्र्धन की एक उससे बड़ी चुनौती सर पर आ पड़ती है। यदि रचनाकार इस चुनौती की अनदेखी करता है तो रचनाशीलता के नाम पर वह अपनी जीती हुई जमीन पर कदमताल करने लगता है। कदमताल उस जड़ता का नाम है, जिसमें गति होती है। पंकज मित्र अपने तीसरे कहानी संग्रह में कथ्यगत दुहराव के कारण इसी कदमताल की मुद्रा में है। उनके लिए अब सबसे बड़ी चुनौती खुद के अतिक्रमण की है। 'भूमंडलोत्तर पीढ़ी' के अपने समकालीनों की तुलना में उन्होंने जो 'माइलेज' हासिल किया है, वह अब दांव पर है। उनके तीन कहानी संग्रहों में से क्रमश: तीन कहानियों का जिक्र कर रहा हूं, जो उनकी शैली का प्रतिनिधित्व पूरी ताकत के साथ अपने सर्वोत्कृष्ट रुप में करती है। पहला, 'अफसाना प्रदूषण का उर्फ हर फिक्र को धुएँ में...', दूसरा, 'बे ला का भू' और तीसरा, 'बिलौती महतो की उधार फिकिर'। इन तीन कहानियों को पढ़ लें तो यह नहीं कहा जा सकता है कि पंकज मित्र की प्रतिनिधि कहानी अभी आनी है। वे आ चुकी हैं। तो अब आगे क्या? इस दिशा में बढ़ते हैं तो वे 'टाइप्ड' करार दिये जायेंगे। इसके पार गमन करने के लिए प्रयोगशील होना पड़ेगा। उनके समकालीनों में 'युवा पीढ़ी' के नाम से चर्चितों ने प्रयोगशीलता के इस जोखिम को उठाया है, कामयाबी और नाकामयाबी भी उनके हिस्से आई है। वे कथ्य और शिल्प दोनों धरातलों पर लगातार प्रयोगशील हैं। उन पर विस्तार से बात फिर कभी। अभी सिर्फ इतना कि हिन्दी साहित्य के इतिहास में प्रगतिशील विचारात्मक आग्रहों की वर्चस्ववादी दृष्टि ने प्रयोगशीलता पर पुरजोर तरीके से जो नियंत्रण हासिल किया था वह इन दिनों कमजोर पड़ा है। अब प्रयोगवादी होना निस्संदेह रुप से कलावादी होना नहीं है। अर्थवत्ता के संधान में नई दिशाओं की ओर प्रयाण की एक जबर्दस्त कोशिश इस पीढ़ी में दिख रही है। सृजन में काल के अतिक्रमण की क्षमतायें होती हैं। काल के अतिक्रमण से कालजयिता पैदा होती है। काल का यह अतिक्रमण कला की सीमाओं और संभावनाओं के अतिक्रमण से भी संभव होता है। जैसे एक उपग्रह क्रमश: सोपानीकृत तरीके से कई स्तरों को पार करता हुआ, गुरुत्वाकर्षण का अतिक्रमण करता हुआ स्वयं को अंतरिक्ष की ऊँचाई में स्थापित करता है। वैसे ही एक रचनाकार को कई धुरियों का अतिक्रमण करना पड़ता है। पंकज मित्र चूंकि यह शुरुआती बढ़त बनाने में सफल रहे हैं, इसलिए वे एक लम्बी लकीर खींच सकते हैं। पर उसका रास्ता उनके खुद के अतिक्रमण से होकर गुजरता है, इससे वे कैसे निपटते हैं। इसके लिए प्रतीक्षा से बेहतर दूसरा विकल्प नहीं है। तब तक आप अब तक लिखी उनकी कहानियों को पढ़ सकते हैं।


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