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जनवरी 2015

गिद्धों की फडफ़ड़ाहट में एक जोड़ी पंख मेरे भी

रोहिणी अग्रवाल


रोहिणी अग्रवाल का अगला आलोचनात्मक लेख जैनेन्द्र कुमार की कहानी 'पत्नी' और अल्पना मिश्र की 'उनकी व्यस्तता' पर केन्द्रित है




मुक्तिबोध की 'विपात्र' और  देवेन्द्र की 'नालंदा पर गिद्ध' कहानियों के बहाने शिक्षा-व्यवस्था पर एक बात

लगता है मेरी समस्या मेरा स्वभाव बन गई है। अध्ययन के लिए कोई एक रचना उठाती हूं कि दूसरी-तीसरी-चौधी अपने प्रभाव का लश्कर लिए घेराबंदी शुरू कर देती है। बेशक मेरी आत्मरक्षा का किला बेहद कमजोर है। कोई भी ताकतवर सेंध लगा कर उसमें घुस सकता है। 'विपात्र' (मुक्तिबोध) और 'नालंदा पर गिद्ध' (देवेन्द्र) का मनन कर रही हूं लेकिन देख रही हूं 'अंधेरे में' कविता की 'पूर्णतम परम अभिव्यक्ति'/'आत्मा की प्रतिमा' क्षणांश के लिए कौंध कर गाढ़े अंधेरे में विलीन हो गई है। ठगे जाने के आघात में भर कर 'अपने से खोया हुआ' 'व्यक्तित्व अपना ही' तलाशने आगे बढ़ी हूं कि दीख पड़ती हैं ''गहन मृतात्माएं इसी नगरी की/हर रात जुलूस में चलतीं/परंतु दिन में/बैठती हैं मिल कर करती हुई षड्यंत्र/विभिन्न दफ्तरों, कार्यालयों, केन्द्रों में, घरों में।''
उत्कंठापूर्वक मैं यहां रुक जाना चाहती हूं कि नोच दूं इनके नकाब और पर्दाफाश कर दूं इनके मंतव्यों और षड्यंत्रों का। लेकिन फिर सहम कर दो डग पीछे हट जाती हूं - नकाब के नीचे किसी मृतात्मा के चेहरे पर अपना ही अक्स देख लिया, तो? जानती हूं, 'आत्मा की प्रतिमा' ठोस-ठस्स रूप में किसी मंदिर में बैठ कर फूल-फल-अध्र्य निवेदित करने हेतु नहीं गढ़ी जाती। वह निराकार शै प्रचंड आलोक के लगभग अंधा करते उजाले में निरंतर आंखमिचौली का खेल खेलती रहती हैं, इस अपेक्षा के साथ कि कोई आकर उसके अरूप रूप को पकड़ पाए। और एक बार दीख जाए तो अंधेरे के सात समंदरों में डुबो देने के बावजूद 'सकर्मक प्रेम की वह अतिशयता'  एक भास्वर 'सकर्मक सत्-चित्-वेदना' बन कर 'मस्तक कुंड में जलती' रहती है, अनिवार! कभी मुक्तिबोध बन कर, कभी डॉ. फॉस्टस बन कर। क्रिस्टोफर मार्लो के डा. फॉस्टस का एकालाप आत्मा का क्रंदन बन कर मेरे कानों में गूंजने लगा है - शैतान के हाथ अपनी अंतरात्मा गिरवी रख कर शैतान के कारिंदे की तरह बेहया आतंक फैलाते हुए नहीं घूम पा रहा है वह। फिर भी, जघन्यतम अपराध कर डालने के पाप से भर कर वह उस बिंदु तक पहुंच गया है जहां से वापसी संभव नहीं। दुर्निवार पीड़ा - प्रमथ्यु या एटलस सरीखी नहीं तो दूसरों के जीवन में अमृत बन कर पहुंचे। एक ऐसी पीड़ा जो हत्या, हिंसा, विश्वासघात, खून-मवाद-पीप और कटे नरमुंडों के बीच इन्हीं सब की फसल लहलहाने के लिए अजर-अमर होने के वरदान से बंधी है। 'विपात्र' के जरिए शिक्षा जगत की पतनशीलता की बात करुंगी तो 'सुपात्र' होने के अहंकार के साथ अपने को बचा-सहेज कर किसी ऊंचे आसन पर नहीं रख पाऊँगी। प्रश्न मेरे सामने ही है - यह जो कीचड़ में लोट कर आमोद-उत्सव मनाता शिक्षक-दल है, क्या सही मायनों में शिक्षक है? न सही शिक्षक, एक मनुष्य, या फिर एक 'व्यक्ति' मात्र?

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''ये ऊँची डिग्रियों वाले लोग, जिन्होंने बड़ी उपलब्धियां प्राप्त की हैं, इतने जड़ और मूर्ख क्यों हैं?'' ('विपात्र')
रोजी-रोटी कमाने के लिए विश्वविद्यालयों के परिसर के साथ नेह का नाता जुड़ जाने से दृष्टि-अंधता भले ही कितनी क्यों न हो जाए, अंधेरे-बदबूदार कोनों की पहचान हमेशा बनी रहती है। नालंदा पर मंडराते गिद्धों को देखने के लिए मुझे देवेंद्र की उंगली पकड़ कर विश्वविद्यालय के परिसर में नहीं उतरना होगा। आचार्य चूड़ामणि के द्रोण-व्यक्तित्व पर प्रहार करने के लिए देवेंद्र पूरी अक्षौहिणी समेत उन पर टूट पड़ते हैं, और मैं सोचती हूं कि क्या उन्हें 'मार' कर भी मारा जा सकता है। वे 'व्यक्ति' होने का भ्रम रचते हुए 'मनोवृत्ति' बन गए हैं। फिर, क्या वे अकेले हैं? एक ही विश्वविद्यालय में? वे जातिवाचक संज्ञा हैं, वट वृक्ष की तरह 'अपनी मूल जमीन की सारी उर्वरा शक्ति को सोख कर वंध्या' कर देने में माहिर प्रजाति। शिक्षा का प्रसार कर जाहिल को 'चेतन' बनाना राजनेताओं की तरह शिक्षकों को भी नहीं भाता क्योंकि ज्ञान के प्रचंड आलोक में वे सारी बदरंग बदनीयतियां साफ हो जाती हैं जो अज्ञान के नीम अंधेरे में तिलिस्म बुन कर मन मोह लिया करती हैं। इसलिए अकारण नहीं कि शिक्षण संस्थाओं के ''कोटरों में सांप, चमगादड़, नेवले और गिरगिट सुख-चैन से रहते हैं, और इसकी उन्नत शाखाओं पर बैठे गिद्ध हर क्षण मृत्यु की टोह में दूर टकटकी लगाए रहते'' हैं। ('नालंदा पर गिद्ध')
बेहद तीखी भाषा और नकारात्मक प्रतीकों के साथ देवेंद्र परिसर के भीतर पसरी गंदगी को उकेरते हैं। गंदगी को उसी नाम से पुकारो तो अभिव्यक्ति के साथ जुड़ी अर्थ-ग्रहण की क्षमता खचाक् से सुनहरे स्वस्थ सेब को दो फांकों में चीर कर उसके भीतर के सड़ते हिस्से को प्रत्यक्ष कर देती है। आचार्य चूड़ामणि सीनियर प्रोफेसर हैं, विभागाध्यक्ष है, डीन ऑव स्टूडेंट्स हैं, और सेवानिवृत्ति के बाद 'कृपापूर्वक' किसी विश्वविद्यालय के कुलपति भी बना दिए गए हैं। कश्मीर से कन्याकुमारी और असम से गुजरात तक के हिंदी विभागों को अपने कृपा-साम्राज्य के अधीन करने वाले किसी 'नृप' या 'पोप' से कम नहीं। आचार्य चूड़ामणि की विशेषता इनमें है कि वे जाति आधारित राजनीति के बल पर अपने विश्वविद्यालय के कुलपति को भी औकात में रहने की चेतावनी दे सकते हैं और डेढ़ दशक से विभाग में सिर्फ इसलिए लैक्चरर के रिक्त पद को भरने नहीं देते कि उनका सुपुत्र अपनी नालायकियों (इंटर में तीन बार फेल, फिर भी एम ए में अस्सी प्रतिशत अंक) और अनिवार्य पात्रता (पीएच. डी. डिग्री) न जुटा पाने के कारण उम्मीदवार नहीं है। देवेंद्र जिस फुर्ती के साथ आचार्य चूड़ामणि के ऊध्र्वगामी ग्राफ को शब्दबद्ध करते हैं, उसी तेजी से उनके पतन को भी। अपनी 'सिंहपीठ पर आसीन यह प्रचंड सूरमा शत्रु शिविर में भले ही ऐरावत' की तरह रहा हो, सेवानिवृत्ति के बाद अपने ही घर के गैराज में मैली-कुचैली चीकट रजाई ओढ़ कर 'गिनी हुई रोटियां और मुट्ठी भर चावल' का मुहताज हो गया है। दरअसल यह आचार्य चूड़ामणि की पतन-गाथा भर नहीं, उनके श्रवणकुमार की शौर्यगाथा भी है जो इस सिद्धांत के तहत एक कठोर सत्य (दुश्चक्र नहीं) में परिवर्तित हो गई है कि यहां सिर्फ चेहरे बदलते हैं, चरित्र नहीं।
कॉपियां जांचने के लिए रजिस्ट्रार ऑफिस के क्लर्कों के सामने रिरियाना (ताकि तीस से अस्सी अंक करने का खेल खेल कर नोटों की गड्डियां कमाई जा सकें); देशभर में फैले हिंदी (इसे यकीनन हर विभाग के नाम के साथ गर्वपूर्ण भाव सहित रिप्लेस किया जा सकता है) विभागाध्यक्षों के साथ 'जियो और जीने दो' (तू भी खा, मैं भी खाऊँ) सिद्धांत पर आधारित 'सौहार्दपूर्ण' संबंध बनाना (ताकि नियुक्तियों में रिश्ते और पैसे का खेल बराबर चलता रहे); और शोध को मोटा मुनाफा उगलने वाले मैनुफैक्चरिंग इकाई में तब्दील कर देना-कुछ ऐसी विद्रूप सच्चाइयां हैं जिन्हें देख कर देवेंद्र हर सजग पाठक को आगाह कर देना चाहते हैं कि 'नालंदा' पर बड़ी तादाद में 'गिद्ध' मंडरा रहे हैं। चूक गए तो सिवाय खंडहर के कुछ हाथ नहीं लगेगा। लेकिन अपनी-अपनी शातिर बेबसी ओढ़े सब मौन हैं - कारखानेदार बन चुके शिक्षक; सेवादार बन कर मनमाफिक डिग्री-नौकरी पाते शिष्य; जेहनियत पर खाल की तरह चिपकी जड़ता को उच्च शिक्षा के  सूट से अलंकृत करते वज्रमूर्ख; योग्यता से अर्जित अहंकार के कारण 'नौका' की सवारी न कर पाने वाले 'असंतुष्ट'। इन असंतुष्ट 'एकलव्यों' की विद्रोही भंगिमा भी कुछ आस नहीं बंधाती क्योंकि बौद्धिक योग्यता में अनिवार्य रूप से मिली निश्क्रियता को परे फेंक कर वे भी जल्द ही शिक्षा-ईश्वरों के मंदिरों की ओर जाती सीढिय़ों पर चढ़ते दिखाई देने लगते हैं।
देवेंद्र के कथा-चरित्र कहानी में सतह पर विद्रूप बन कर फैलते हैं। वे उन्हें रचते नहीं, दशहरे के मेले में फूंक देने हेतु तैयार किए गए पुतलों की तरह बांस की खपच्चियों पर उनका बाहरी ले-आउट तैयार करते हैं और फिर भीतर ढेर सी धूं-धड़ाक करने वाली आतिशबाजी भर देते हैं। इसलिए एक के ऊपर एक पैर रख कर इकहरी ऊँचाई बनाते प्रकरण जहां-तहां बिखरे पड़े हैं। कैबिनेट मंत्री या शहर के मेयर और शराब के ठेकेदार की पुत्रवधू की थीसिस लिख कर 'पुरुषार्थ चतुष्ट्य' की पूर्ति करने वाले अति-गौण प्रसंगों को दरकिनार करते हुए मैं सिर्फ दो बिंदुओं को उठाऊंगी जिन्होंने शिक्षा की अर्थवत्ता और उपयोगिता दोनों पर मर्मांतक चोट की है। नासूर बन कर उभरने वाले ये बिंदु हैं - शोधकार्य, और नियुक्ति। देवेंद्र अपने तंज को स्टेटमेंट की शक्ल देते हैं - ''चूड़ामणि के दरबार में सारे नियम-कानून पायदान की तरह बिछे रहते। कीचड़ और गंदगी पोछने के काम आते थे।'' इसके बाद उन्हें यहां-वहां जाकर कुछ खिड़कियां खोल देना भर है। एक उढ़की हुई खिड़की के भीतर झांकने पर पाठक पाता है कि अपने 'गुरु' के गुप्त-कक्ष में बैठ कर शिष्य दिन-रात मेहनत करते हुए फोटोस्टेट देवी की कृपा से पुस्तकालयों की किताबों के पन्ने नोच-नोच कर किताबें 'लिख' रहे हैं जो ऊंचे दामों बिक कर प्रमोशन-प्रार्थी उम्मीदवारों को मनवांछित फल देंगी; शोधार्थियों को शोध-प्रविधि का व्यावहारिक प्रशिक्षण देंगी, और फिर भावी पीढ़ी के 'सदुपयोग' के लिए पुस्तकालयों में दफन कर दी जाएंगी। पुस्तक का पाठक से और ज्ञान का अर्जन से कोई संबंध रह ही कहां गया है। चौर्यत्व की क्षमता आचार्यत्व में चार चांद लगाती है। दूसरी खिड़की के अंदर का दृश्य कुछ यूं है - कुछ पल्लेदार (न न, शोधार्थी!) बोरों में तरकारी/बिल्डिंग मैटीरियल/भैंस की जचगी की सामग्री भर कर लिए जा रहे हैं। मां-बाप की आंखों में अपने-अपने होनहारों के उज्जवल भविष्य के सपने हैं, और 'होनहारों' के कंधों पर हम्माल का बोझ। तीसरी खिड़की में बहुत से शर्मा, प्रसाद, मिश्र हैं जिन्होंने आसन्न इंटरव्यू की तैयारी में नकद 'डील' करके किताबें 'लिखी' हैं - इतनी कि देवेंद्र वहां बाकायदा एक और स्टेटमेंट देने के लिए पहुंच जाते हैं - ''शांतिकाल के बीस वर्षों में इस विभाग से सिर्फ तीन पुस्तकों का प्रकाशन हुआ था। इंटरव्यू घोषित होने के बाद से यह पैंतालीसवीं पुस्तक की सूचना थी।'' चौथी खिड़की में फर्जी डिग्रियों के सहारे सत्रह वर्षों से विश्वविद्यालय में नौकरी करते गुरुदेव मिश्र दारोगा की गिरफ्त से छूट भागने हेतु बदहवास भागे जा रहे हैं। पीछे-पीछे बड़बड़ा कर भागता हुआ दारोगा है - ''कानपुर स्टेशन पर गिरहकटी करता था। किसी की मार्कशीटें और डिग्रियां हाथ लग गईं।... हद है भई! विश्वविद्यालय है कि चंडूखाना। रंडियां भी ग्राहक का मुंह सूंघ कर सौदा करती हैं।''
खिड़कियों के भीतर चल रही कारगुजारियां अब मेरे अंदर कुछ समानांतर दृश्यों की नियोजना करने लगी है। मैं देखती हूं, सिकुड़ कर छोटी होते-होते शिक्षा-व्यवस्था ऑलिवर ट्विस्ट (चाल्र्स डिकेंस का मशहूर कथानायक) बन गई है - अबोध, अनाथ, फटेहाल ऑलिवर ट्विस्ट जिसे पतनशीलता की ओर खुलती तमाम पगडंडियां असामाजिक तत्व बना देना चाहती हैं, लेकिन अपने ही आत्मबल से उसे रपटने की हर कोशिश से जूझना है। शिक्षा-व्यवस्था देख रही है मिड डे मील की तैयारियों में रसोई और रजिस्टर के बीच लथपथ होते अध्यापक; कभी जनगणना या चुनाव ड्यूटी के लिए गलियों की खाक छानते, कभी राजनेताओं के हुक्म पर बच्चों को परेड कराते अध्यापक; 'सुख-शांति-आराम' के दिनों में कक्षा के गायब अध्यापक - प्रोपर्टी डीलिंग/शेयर मार्केट की 'अति व्यस्तता' के कारण, या जो कक्षा में हैं, वे भी गायब-समान - तन्मयता नींद पूरी करते हुए या अधूरे स्वेटर को बुनते हुए। कोई नहीं देख पाता कि एक टांग पर खड़ी शिक्षा ने अपना गेटअप बदल लिया है। अब वह ऑलिवर ट्विस्ट नहीं, माफिया डॉन बन कर ऑलिवरों को अपने गिरोह में शामिल करने में जुटी हुई है। सरस्वती की भक्त नहीं, लक्ष्मी की उपासक। उसके दरबार में मौजूद हैं हिटलर, चंगेज खान, मैफिस्टोफिलिस... और अब अपनी बंजर जमीन पर उसने 'दालमंडियों' की रिहाइश भी बसा ली है। एक-एक कर कुप्रिन के उपन्यास 'यामा, द पिट' की वेश्याएं चली आ रही हैं - ग्राहक की हैसियत देख कर पूरे शरीर से लेकर एक-एक अंग का सौदा करते हुए। व्यक्ति से संस्था और व्यवस्था तक सबके रेट बंधे हुए हैं - एड हॉक पर नौकरी देने के रेट, रेगुलर नियुक्ति के रेट, प्रोमोशन के रेट, थीसिस लिखने के रेट, सिनाप्सिस बनाने के रेट, रजिस्ट्रेशन से पीएच.डी. डिग्री दिलाने तक का समूचा पैकेज डील...। अभी हाल ही में भारत के कुछ राज्यों में कराए गए सर्वेक्षण से स्पष्ट हुआ है कि आठवीं कक्षा के आधे से अधिक छात्रों को अपना नाम तक सही-सही लिखना नहीं आता, गुणा-भाग जैसी विलक्षणता की तो बात ही जाने दीजिए। जाहिर है, एक-डेढ़ दशक बाद जब यही पीढ़ी पैकेज डील या गिरहकटी के जरिए फर्जी डिग्रियां जुटा कर शिक्षण संस्थाओं में नौकरी हासिल करेगी, तब पढऩे और पढ़ाने दोनों की नौबत ही कहां आएगी।

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''बेचैन चील!/उस जैसा मैं पर्यटनशील/प्यासा-प्यासा/देखता रहूंगा एक दमकती हुई झील/या पानी का कोरा झांसा/जिसकी सफेद चिलचिलाहटों में है अजीब/इनकार एक सूना'' (मुक्तिबोध)
देवेंद्र और मुक्तिबोध में एक समानता है कि दोनों उच्चतर शिक्षा संस्थानों में अध्यापकों के नैतिक-बौद्धिक पतन की बात करते हुए उन बुनियादी चीजों को नजरअंदाज कर देते हैं जिनमें प्रमुख हैं - शिक्षण संस्थानों का आधारभूत ढांचा (इन्फ्रास्ट्रक्चर), विद्यार्थियों की सामाजिक-पारिवारिक-आर्थिक पृष्ठभूमि और बौद्धिक स्तर; पाठ्यक्रम निर्धारण, प्रवेश प्रक्रिया एवं परीक्षा प्रणाली। दरअसल एक-दूसरे को प्रभावित करते ये सारे घटक मिल कर ही शिक्षा व्यवस्था के चरित्र का निर्माण करते हैं और एक-दूसरे के सुसंगत समन्वय में पतन की प्रक्रिया को तीव्रतर बनाते हैं। अल्पना मिश्र अपने उपन्यास 'अन्हियारे तलछट में चमका' और विमलचंद्र पांडेय 'भले दिनों की बात थी' में परीक्षा एवं मूल्यांकन पद्धति तथा युवा पीढ़ी की सुविधाभोगी मानसिकता की ओर संकेत कर मानो इस कमी को पूरा करते हैं।
मुक्तिबोध और देवेंद्र का इन घातक तत्वों की ओर ध्यान न जाने का एक प्रमुख कारण यह भी हो सकता है कि 1964 और 1998 के जिन वर्षों में ये कृतियां रची गईं, तब तक अध्यापकों की कूढ़मगजी के अतिरिक्त शिक्षा के विघटनशील चरित्र की धमक समाज में स्पष्ट नहीं हुई थी। खासतौर पर 1964 में तो ऐसी किसी आशंका की भविष्यवाणी संभव भी नहीं थी। बेशक मुक्तिबोध अध्यापकों के बौद्धिक स्तर से खासे असंतुष्ट हैं, लेकिन तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो चौंतीस बरस बाद रची गई कहानी 'नालंदा पर गिद्ध' की अध्यापक-पीढ़ी की अपेक्षा वे कहीं अधिक जहीन, विद्या-व्यसनी, ईमानदार और आत्मसजग हैं। वैश्वीकरण की धूम में 1990 के दशक में जिस तेजी से उपभोक्तावाद बढ़ा है, उसी तेजी से शिक्षा की मार्केटिंग ने शिक्षा की अर्थवत्ता को न्यूनतर करते हुए इसे अर्जन की बजाय खरीदा जा सकने वाला उत्पाद बना दिया है। मार्केटिंग रणनीति ने शिक्षा व्यवस्था की सबसे कमजोर नस पर चोट करते हुए इससे विचार और संवेदना की ताकत छीन ली है। अब यह हमारे चरित्र को नहीं गढ़ती, हम अपनी वृत्तियों के अनुरूप शिक्षा का चरित्र 'विकसित' करते चलते हैं। शिक्षा का मौजूदा ढांचा सवाल पैदा करना और उन सवालों की खोज में अनजानी दिशाओं की ओर बढऩे का जनून पैदा नहीं करता; सूचना को उसके स्थानापन्न के तौर पर प्रतिष्ठित कर पिष्टपेषण, व्यक्तिपूजा और यथास्थितिवाद को प्रश्रय देती चलती है। देवेंद्र के सामने इन कारणों की तह में उतरने का विकल्प था, लेकिन जुगुप्सा के विस्फोट में घिर कर वे विश्लेषण को रचनात्मक रूप नहीं दे पाए।
मुक्तिबोध की विशेषता है कि 'विपात्र' में वे अपने आवेग को बांधने की कोशिश नहीं करते, उसे उफन कर बह जाने देते हैं। राव साहब, भानावत, जगतसिंह, मिश्रा - उनके पास भी देवेंद्र की तरह पात्रों की एक पूरी गैलेक्सी है, लेकिन वे उन्हें एक-दूसरे की अनुकृतियां नहीं बनाते, चार-अलग-अलग केस स्टडीज का रूप देकर केंद्र में मूल समस्या - शिक्षा - को ही रखते हैं। बहते हुए भी अपनी जमीन को मजबूती से थामे रहना मुक्तिबोध की ताकत है। दरअसल कथा कहना उनका लक्ष्य है ही नहीं। लक्ष्य है समस्या की परत-परत खोलते हुए उनके कारण और निवारण को जानना। जैसे-जैसे उनकी तल्लीनता बढ़ती जाती है, वे अपने ही अंतर्विरोधों और दुर्बलताओं को, प्रलोभनों और पाखंड को साफ-साफ देखने लगते हैं; उन्हें चरित्र रूप में गढ़ कर अपनी लाज को सार्वजनिक करने का जोखिम उठाते हैं। वे जानते हैं जिंदगी का कोलाहल व्यक्ति के एकांत में अपनी तमाम विडंबनाओं के साथ मौजूद है। जरूरत दबे पांव उसके भीतर उतर कर पहचानने और धर-दबोचने की है। इसलिए 'नालंदा पर गिद्ध' में जहां आचार्य चूड़ामणि का प्रतिबिंब ही समय और सतह के यथार्थ को बनाता है, वहीं मुक्तिबोध पाखंड और पतन का चरित्र रचती हर मनोवृत्ति को अलग-अलग विश्लेषित करते हैं। कह सकते हैं कि देवेंद्र की तुलना में वे अधिक आत्मपरक, अधिक क्रिटिकल और अधिक उन्मादी हैं। न, द्रष्टा तो बिल्कुल नहीं, कम से कम 'विपात्र' में तो नहीं। लेकिन उसकी बात बाद में।
आवेग को थिरा कर पर्यवेक्षण का रूप देना देवेंद्र की खूबी है। लेकिन बावजूद इसके उनकी नि:संगता फोटोग्राफर की तरह कैमरे का एंगिल फोकस करने की कुशलता में ढल जाती है। वह पाठक के भीतर बेचैनी नहीं, वितृष्णा और आत्मसंतोष से बुने 'आनंद' की सृष्टि करती है। 'देखा, मैं न कहता था, दुनिया रसातल को जा रही है' - उसकी फौरी प्रतिक्रिया में दुनिया को गरियाने का आनंद है और जाहिर है लानतें भेजते हुए अपने को इस सारी स्थिति से अलग रखने की सजगता भी। यह स्थिति तैर कर नदी पार करने का 'संघर्ष' भी देती है, और बिना भीगे किनारे उतरने का 'सुख' भी। देवेंद्र पाठक को विशिष्ट (कीचड़ में कमल) होने का बोध देते हैं, मुक्तिबोध उसे कीचड़ के टेक्सचर को परखने की, कीचड़ में पानी डाल कर निरंतर बढ़ाते रहने की प्रवृत्ति का विश्लेषण करते रहने को मजबूर करते हैं। सबसे पहले वे उसकी अहम्मन्यता पर चोट कर उसे निष्कवच करते हैं। सामान्यीकरण और जस्टीफिकेशन के सुनहरे जरीदार लबादे में ढांपने की बेहयाई को चीर देते हैं। उनके यहां पात्र अलिफ नंगा खड़ा है, और वे लाज ढांपने के लिए उसे छीने या विरासत में पाए गए वस्त्रों का विकल्प चुनने नहीं देते, अपने उद्यम से पोशाक बनाने की सार्थकता देते हैं। मुक्तिबोध अपनी विचार कहानियों में बेचैनी का समंदर बांध देते हैं जो लेखक के आवेग की तरह सारी मर्यादाएं तोड़ बरास्ता पाठक जीवन की ओर बह निकलता है।
अपने-अपने ग्रे शेड में चित्रित किए जाने के कारण मुक्तिबोध के वि-पात्र युग के मनोविज्ञान को समझने में अहम भूमिका निभाते हैं। 'प्राचीन गौरव की सम्मानपूर्ण आभा' के प्रतिनिधि रूप में राव साहब, 'टु बी ऑर नॉट टु बी' के द्वंद्व में फंसी नैतिक दुर्बलता के प्रतिनिधि रूप में भानावत, और एक ठंडी क्रूर आत्मस्वीकारोक्ति के रूप में मिश्रा एक-दूसरे से अलग हैं और क्रमश: तीन मनोवृत्तियों-यथास्थितिवाद, द्वंद्वग्रस्तता, और निर्भीकता को उद्घाटित करते हैं। जगतसिंह को मुक्तिबोध ने अपेक्षाकृत अधिक अनुराग से रचा है। वह एक साथ बेवकूफ है और स्वप्नदर्शी भी; ज्ञानार्जन के लिए बेचैन है और अर्जित ज्ञान को सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक संदर्भों में नियोजित कर एक समग्र बोध विकसित न कर पाने की अक्षमता से ग्रस्त भी। ''जगत को सच्चाई सिर्फ स्वप्न दे जाती थी। क्रियाशक्ति न होने के कारण वह उन सपनों में डूब कर नि:संग, अंतर्मुख जीवन व्यतीत करता था।... मैंने उसे किसी भी देश के शासक और जनता - इन दो के बीच की एकता और मित्रता पहचानने की युक्तियां बताईं।'' अपने जड़-जाहिल पात्रों के भीतर भी मुक्तिबोध चेतना और गति की गुंजाइश छोड़ते हैं। बेशक यह उनका आशावाद है जो मानता है कि कुचला जाकर भी इंसान का विवेक किसी भी क्षण आत्मसम्मान की लड़ाई लड़ सकता है। वे 'दरबारी संस्कृति' से त्रस्त हैं, लेकिन जानते हैं, संस्कार के पैरों चल कर आई भारतीय संस्कृति व्यक्ति-पूजा को अपने खून में रचा-बसा चुकी है। वह कुटुंबभाव की बात करती है, लेकिन उसी सांस में परिवार के हर सदस्य के बीच भेद की दीवार भी खड़ी कर देती है। चेतना और संस्कार के बीच पिस कर व्यक्ति बॉस का चंपू भी नहीं बनना चाहता, और 'जातिबाहर' होकर बॉस की नजरों से भी नहीं गिरना चाहता। अनैतिक आचरण में लिप्त होने की ग्रंथि ने मुक्तिबोध के पात्रों को आत्मसंकुचित चरित्र दिया है, इसलिए हर सार्वजनिक समारोह में आत्मरक्षा की सन्नद्धता में वे और अधिक अकेले, भीत और आक्रामक हैं। दरअसल कर्मचारी की दुर्बलता अधिकारी की ताकत को बढ़ाती है। इसलिए वे मानते हैं, जब तक व्यक्ति में ठाठ-बाठ यानी 'घर-जमीन-जायदाद, ऐश और महफिल में मसालेदार गपबाजी' का लोभ बना रहेगा, तब तक वर्चस्वशाली वर्ग 'अहसान, प्रेम और संग द्वारा दूसरों की गतिविधियों पर शासन कर अपना प्रभुत्व-लोभ पूरा करता' रहेगा।
परिदृश्य बेशक भयावह है, और लेखक की जुगुप्सा गहनतर, लेकिन फिर बी मनुष्य को तिलचट्टे में रिड्यूस करने की दुष्कल्पना मुक्तिबोध नहीं कर सकते। तिलचट्टों की तरह रेंगते अध्यापक-समूह (जो स्वयं को बॉस की नौजवान रखैलें कहकर आहत-अपमानित भी करता रहता है) को पूरी सहानुभूति देते हुए वे उनके मनोविज्ञान को समझने की कोशिश करते हैं तो पाते हैं कि ''समाज के सर्वोच्च स्तर पर ऐसी शक्तियां मौजूद हैं जो मनुष्य को एक ओर पशु बनाना चाहती हैं, दूसरी ओर उसकी विचारशक्ति को भ्रष्ट और फिर नष्ट करना चाहती हैं; और केवल उसे ऐन्द्रियिक उत्तेजना प्रदान करना चाहती हैं।'' यहीं से उनके लिए शिक्षा शिक्षण संस्थानों के भीतर चलने वाली पाठ्यक्रम केन्द्रित अध्ययन-अध्यापन की प्रक्रिया नहीं रहती, अपने क्षेत्र, अर्थ और स्वरूप का विस्तार करते हुए संवेदनशील चेतनता बन जाती है। इसीलिए बेहयाई से बेचारगी को जीते उनके पात्र हंसते-हंसते गहरा आत्र्तनाद कर उठते हैं कि हम ''एबी लॉर्ड'' हैं यानी ''शिखंडी संत जिसने अपनी जननेन्द्रिय को चाकू से काट दिया था, संत बने रहने के लिए।'' मुक्तिबोध जानते हैं उपहास की तरह कारणहीन दया और महिमामंडन व्यक्ति के चरित्र-विकास में बाधक हैं। इसलिए मिश्रा की उक्त आत्मस्वीकारोक्ति उनके सामने आभामंडल लेकर नहीं आती, एक प्रतिप्रश्न उठाती है कि समय को वंध्या करने की युक्तियों से ज्यादा महत्वपूर्ण क्या सृजनेच्छा नहीं थी?
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''मुक्ति अकेले में अकेले की नहीं हो सकती। मुक्ति अकेले में अकेले को नहीं मिलती'' बनाम ''हममें सामाजिक चेतना नहीं थी क्योंकि असल में हम सब लोग हरामखोर थे'' (विपात्र)
'विपात्र' के दो अलग-अलग ड्राफ्टों का होना शायद उनकी इसी शंका का परिणाम है। यह उनकी पहली कहानी है जो यात्रा के बीचोंबीच पहुंच कर अपना गंतव्य ही बदल डालती है। वे शिद्दत से महसूस करते हैं कि जब-जब शिक्षा को गौरवमयी संस्कृति के चश्मे से देख कर वर्तमान को अतीत की छाया में गढ़ा जाएगा, शिक्षा अपने प्राथमिक लक्ष्य-चेतना- से भटक कर स्तवन-स्तोत्र में तब्दील हो जाएगी और जनतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था लोकतंत्र की सवारी गांठते हुए फासिज्म की भाषा बोलने लगेगी। आज जिस तरह स्वात घाटी में माला युसूफजई का दमन और गुजरात में दीनानाथ बत्रा का 'अभ्युदय' हो रहा है, उससे लगता है कॉलेज को 'सांस्कृतिक केन्द्र' कह कर मुक्तिबोध शिक्षकों का मजाक नहीं उड़ा रहे थे, शिक्षा व्यवस्था के भीतर दीमक की तरह घुस गई राष्ट्रवादी ताकतों के मंसूबों को समय रहते ध्वस्त करने का आह्वान कर रहे थे।
'विपात्र' कहानी के दोनों ड्राफ्ट यदि एक-दूसरे की संगति में पढ़े जाएं तो वे कवि मुक्तिबोध की चिर-परिचित शैली का उद्घाटन करते हैं। वही, भीतर के अंधेरे में उतर कर सूक्ष्म से सूक्ष्मतर, गहन से गहनतर होते चले जाने की प्रक्रिया में शब्दों/संरचनाओं के संश्लिष्ट अर्थों को पाने की व्यग्रता। कहानी का शैल्पिक कसाव शिथिल होते-होते कहानीपन को ही भंग कर दे, और इसे डायरी और निबंध के साथ संग्रथित पर कोई नई विधा का रूप दे दे - इसकी रत्ती भर भी परवाह नहीं करते मुक्तिबोध।
देवेंद्र के पास मुक्तिबोध की तरह 'मैं' में ब्रह्मांड को देखने और फिर समूचे ब्रह्मांड को एक बिंदु में समेट देने का पीड़ा भरा लगाव नहीं है। वे विरोधी युग्मों के सहारे प्रभाव की तीव्रता को बढ़ाना चाहते हैं। आचार्य चूड़ामणि के चरित्र को और अधिक काला करने के लिए देवेंद्र सहानुभूतिपूर्वक सुबोध मिसिर का चरित्र जरूर गढ़ते हैं, लेकिन दृष्टि और आत्मविश्वास नहीं दे पाते कि आचार्य चूड़ामणि की 'रखैल' होने की अपनी नियति से ऊपर उठ कर व्यवस्था और समाज के मनोविज्ञान को समझ सके। बेशक सुबोध मिसिर ने मेहनत से डॉक्टरेट की डिग्री पाई है, लेकिन मूल मकसद नौकरी पाना रहा है। इसलिए अंत तक आते-आते गुरु-शिष्य एक ही सिक्के के दो पहलू बन जाते हैं जो अकर्मण्यता, ईश-कृपा और याचना के सहारे मुक्ति पाना चाहते हैं। देवेंद्र की कहानी का पाट चौड़ा है, लेकिन गहराई का स्तर छिछला जो सनसनीखेज प्रामाणिक रिर्पोटिंग से ज्यादा और कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाती। शायद यह वह स्थिति हैं जिसे मुक्तिबोध ज्ञात से ज्ञात की ओर चलने वाली यानी ''अपनी ही कील पर अपने की आसपास घूमते'' रहने की सीमा का नाम देते हैं। वे ''ज्ञान की विवशताओं और सरहदों को तोडऩा चाहते हैं,' इसलिए 'ज्ञात से अज्ञात' की ओर बढऩा चाहते हैं। यही कारण है कि समाज की विकृतियां उनके लिए मनुष्य की मनोवृत्तियां हैं, और शिक्षा-व्यवस्था हमारी समाज-व्यवस्था की पतनशीलता को तीव्रतर करने का घटक भी और पतन को रोकने की अंतिम चेतावनी भी। उनके लिए शिक्षा का अर्थ है अर्जित ज्ञान को समाज के संदर्भ में निरंतर जांचने और क्रियान्वित करते रहने की प्रक्रिया। ''अंतर और बाह्य की परस्पर क्रिया से जनित जो भी जीवन है, वह कला का अष्ट है। इसके बिना वह शून्य है। मैं शून्यता की साधना से इंकार करता हूं।'' मुक्तिबोध की प्राथमिकताएं और आग्रह प्रबल हैं। वे हर तरह के अंधेरे के पीछे मनुष्य-मनुष्य के बीच फासले गहराने वाली समाज-व्यवस्था को खड़ा पाते हैं। क्षुब्ध इस बात पर नहीं कि प्रतिभाहीन मनुष्य निष्क्रिय और 'आत्मवैभव' के अद्वितीय अहं में ज्ञान (और संवेदना) को बंजर और फासलों को चौड़ा क्यों कर देते हैं। इसलिए वे व्यक्ति के चरित्र को रचती पररिवेशगत सच्चाइयों की पड़ताल में जुट जाते हैं। सारे विघटनों और स्खलनों का उत्तर मानो यहीं है- ''हम अपनी ऊंचाई पर खड़े होकर नीचे वालों से फासला रखते हैं, और समतल मैदान पर खड़े होकर भी परिचित और अपरिचित रह जाते हैं। परिचय ऊपरी है, सतही और छिछला है। अपरिचित में घनत्व है, वह गहरा है, साथ ही साथ कठोर और कड़ा भी।'' यह एक कठोर और शर्मनाक सत्य को 'मूल्य' बना देती है कि ''जो आदमी फटे-चिथड़े पहने है, वह या तो चोर और गुंडा है या उसका सगा भाई।'' यह प्रवृत्ति सफेदपोश मध्यवर्ग के भीतर घृणा की जिस उन्मादी लहर को जन्म देती है, वह एक ओर अतीत में जाकर संस्कृत (देवभाषा) को स्त्रियों और शूद्रों की 'छाया' से बचा कर सुसंस्कृत लोगों के संवाद की भाषा बनाती है, दूसरी ओर वर्तमान से जुड़ कर गरीबी, अशिक्षा और जहालत की मार झेल रही बड़ी आबादी को अपनी सोच के दायरे से बाहर निकाल देती है। तब अखंड समृद्ध्र भारत का नारा मुट्ठी भर लोगों के विलासोत्सव की जद्दोजहद बन जाता है।
शिक्षा नर-पशुओं को घेटो (बाड़े) में बंद करने का सांस्कृतिक अनुष्ठान नहीं है, आचार-विचार-व्यवहार में जड़ें जमाए घेटोवादी मानसिकता को मुक्त करने का बीड़ा है। मैं अनायास इस स्थल पर आकर चौंक जाती हूं। 'अंधेरे में' की कुछ पंक्तियां तैर कर मुझ तक पहुंच रही है - ''(फिजूल है इस वक्त कोसना खुद को)/एकदम जरूरी - दोस्तों को खोजूं/पाऊँ में नए-नए सहचर/सकर्मक सत्-चित्-भास्वर।'' सत-चित-अनंद (उपभोग की वासना?) नहीं, सत्-चित्-वेदना ('सच्चाई व गलती') की निरंतर जलती मशाल! उल्लेखनीय है कि मुक्तिबोध की रचनाएं आत्मालोचन की प्रक्रिया में अपने को दोहराती भी हैं, और क्रमश: एक-एक सीढ़ी का आरोहण भी करती है। इसलिए 'अंधेरे में' में जब वे सत्-चित्-वेदना शब्द का प्रयोग करते हैं, तब 'वेदना' शब्द में निहित अर्थव्यंजनाओं को 'विपात्र' के जरिए समझना जरूरी हो जाता है। चूंकि कहानी के दूसरे ड्राफ्ट में 'वेदना' और 'वासना' शब्दों की समानार्थक अर्थनिष्पत्तियों पर विचार किया गया है, अत: यह कहना गैर जरूरी है कि कथा एवं पात्रों के विकास के साथ इन शब्दों का सीधा संबंध न होते हुए भी इनके लेखक के सरोकारों को समझने में मदद मिलती है। वे वासना और वेदना दोनों को 'मनुष्य को घनघोर रूप से आत्मबद्ध' बना देने वाली मनोवृत्तियों का नाम देते हैं, लेकिन फिर भी दोनो को दो अलग-अलग वर्गों की संतान मानते है। 'वेदना की, कष्टों और संकटों की बारंबारता निचली श्रेणियों में पाई जाती है क्योंकि वे अधिक अरक्षित हैं। वासना की संकुलता उपरली श्रेणी में पाई जाती है क्योंकि उन्हें मनोमय लीला करने की फुरसत अधिक होती है।' वासना जहां आदर्शीकरण की ओर मुड़ कर अपने स्वरूप को स्थिर और मनोहारी बना लेती है। वहीं वेदना कर्म के उत्साह से हीन होकर निस्सहायता और आत्मविश्वासहीनता का दुष्चक्र बनाए चलती है। इसलिए मुक्तिबोध सत्-चित्-वेदना को कर्म की भास्वरता के साथ ग्रहण करने की बात करते हैं जो विषमतामूलक समाजव्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने का इरादा रखती है। दरअसल 'विपात्र' कहानी के दो अलग-अलग ड्राफ्ट पाठ-प्रभाव को दो अलग-अलग दिशाओं में मोड़ देते हैं। विचार के स्तर पर बौद्धिक तनाव गहराते हुए कहानी अपने भीतर की संवेदनात्मक गहराइयों को थहाने की तलाश में एबी लॉर्ड होने की ग्लानि से भर देती है। फिर ग्लानि क्रमश: प्रगाढ़ होते हुए अपराध बोध का रूप लेती है जिसकी परिणति पूर्वानुमानित निष्कर्ष की ओर होने लगती है कि ''अंधेरे में रह कर अंधेरे में मर जाना ठीक समझता हूं, लेकिन फटीचरों से घृणा करना नहीं चाहता।'' पूर्वानुमान तक सकुशल पहुंचने की सीधी यात्रा जैसे ही तनाव को आश्वस्ति में बदलने लगती है, कहानी के प्रभाव की झिल्ली फट जाती है। पूरा आयोजन मानो 'अज्ञात' को न छू सकने की पराजय में सिमट कर रह जाता है। मैं कहानी के पहले ड्राफ्ट पर दृष्टि केंद्रित करती हूं। एक निर्दोष और सुगढ़ कथा-सरंचना के साथ अपनी बात कहने का जो आत्मविश्वास यहां लेखक में है, वह अनजाने ही पाठक के मन में किन्हीं नई गहराईयों में उतरने की अपेक्षाओं को जगाने लगता है। हालांकि वह बराबर देख रहा है कि मुक्तिबोध को पढ़ते हुए पहली बार दिमाग की शिरा-शिरा को आंदोलित कर देने वाला तनाव महसूस नहीं कर रहा है। बावजूद इसके कि घटनाएं उसे कुत्सित 'आनंद' दे रही हैं, वह जगतसिंह और नैरेटर के साथ लेखक की पीड़ा और तनाव को अपने भीतर रोप देना चाहती है। नैरेटर के संग शहर की तंग गलियों में घूमते हुए वह तनाव के द्वार पर दस्तक दे ही रहा था कि लेखक इन पंक्तियों के साथ अपनी कलम छोड़ देता है - ''निर्बल होकर संत और... बनने के बजाय सबल होकर सृजनशक्ति को तेज, और तेज करुंगा, भले ही लोग मुझे बदनाम करें, मगर मुझे इसे तेज रखना ही होगा।'' पाठक अचरज करता रह जाता है कि जिस संकल्प को ताकत बना कर नैरेटर पूरी कहानी में अपनी एक अलग श्रेणी रचता है, उसकी परिधि क्या इतनी संकुचित है कि अपने से छिटक कर स्थिति का विश्लेषण करने की व्यग्रता नहीं रच सकी? आस्वाद की दृष्टि से यही कहानी का पहला ड्राफ्ट अपना प्रभाव नष्ट कर डालता है। वह साक्षी भाव से परिस्थितियों का दिग्दर्शन कराता है, द्रष्टा भाव से स्थितियों की तह तक पहुंचने का बौद्धिक आलोडऩ पैदा नहीं करता। साक्षी भाव में 'अपने' को आंख की ओट में रखकर 'अन्य' को देखने का आनंद है। न चाहते हुए भी साक्षी भाव मनुष्य को उसी व्यवस्था का अभिन्न अंग बना डालता है जिसे वह तमाशबीन की तरह देख रहा है और एक सुरक्षित दूरी बना कर मीनमेख भी निकाल रहा है। अकर्मण्यता और विचारशून्यता साक्षीभाव की सबसे बड़ी पहचान हैं। द्रष्टा भाव में देखने और जीने, नि:संगता और लगाव, स्वार्थ और यथार्थ सब घुलमिल कर एकमेक हो गए हैं। 'मैं' में चूंकि पूरा लोक समा गया है, इसलिए प्रवंचना के जरिए मुक्ति पाने की गुंजाइश नहीं। द्वंद्व और क्षोभ संकल्प और स्वप्नशीलता से मिलकर एक अनंत बेचैनी के प्रकाशपिंड में तब्दील हो जाते हैं। सतह के पार सतह को संचालित करने वाले सूत्रों की पहचान की बेचैनी; सतह के गुटिठ्ल बदबूदार सत्य को बदल डालने की बेचैनी; कुंठाओं-ग्रंथियों-स्वार्थों के अंधेरों के पार अपने को पूरी तरह से 'साबुत मनुष्य' के रूप में चीन्ह पाने की बेचैनी। द्रष्टा भाव यानी ''अपने से बृहत्तर, विलक्षण अस्वयं'' हो जाने की सत्-चित्-वेदना! कर्मनिष्ठा, स्वप्नशीलता और सृजनात्मकता इसकी सबसे बड़ी ताकत हैं। 'अंधेरे में' कविता में अग्निपिंड की तरह जलते हुए तनाव के भीतर वेदना की सघनता को रचते हुए मुक्तिबोध जिस क्रमिक भाव से स्वयं को, और अपने समानांतर युग-सत्य को बींध पर 'आत्माभिव्यक्ति' यानी अपने 'विशुद्ध अखंड नग्न मैं' को पाने की यात्रा करते हैं, वह ज्ञात से अज्ञात की ओर की महायात्रा ही तो है - अपनी जड़ता के गुरुत्वाकर्षण से मुक्ति की यात्रा। 'विपात्र' में एकांत का ऐसा एक भी सर्जनात्मक पल नहीं। यहां दरबारी कोलाहल के भीतर लीलता 'अकेलापन' है। इसलिए वीरानगियों से टकरा कर दूर-दूर तक प्रतिगुंजित होते कोलाहल की गूंजें हैं, संवाद या स्वप्न ही हल्की सी चटकन नहीं। यही वजह है कि कथा संरचना की दृष्टि से दोषपूर्ण होते हुए भी कहानी के दूसरे ड्राफ्ट को मैं अनावश्यक अंश नहीं मानती। दरअसल यही हिस्सा कहानी को 'मुक्तिबोधीय चरित्र' देता है, अन्यथा 'नालंदा पर गिद्ध' की तरह 'विपात्र' भी स्वयं को दोहरा कर अपनी परिधि का विस्तार करने वाली सामान्य कहानी बन कर रह जाती।


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