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जनवरी 2015

लिखने का आनन्द अर्थात् एक एडवेंचर

शंभु गुप्त

अगली बार नये कथाकार रवि बुले पर







प्रत्यक्षा का कहानी - लेखन

प्रत्यक्षा हिन्दी की नई पीढ़ी की महत्वपूर्ण और पर्याप्त सम्भावनाशील रचनाकार हैं जो निरन्तर सृजनरत हैं और उल्लेखनीयता भी हासिल किए हैं। उनके अब तक दो कहानी-संग्रह आ चुके हैं और तीसरा छपने की प्रक्रिया में है। पहला संग्रह 'जंगल का जादू तिल-तिल (2008)', दूसरा 'पहर दोपहर, ठुमरी' (2011) और तीसरा 'एक दिन माराकेश' है जो शीघ्र प्रकाश्य है। इन तीनों संग्रहों में कुल 48 कहानियाँ हैं, जो वस्तु, दृष्टि और रचना; तीनों ही स्तरों पर पर्याप्त विविधता और बहुआयामिता लिए हुए हैं।
तो पहली पहचान तो इन कहानियों की यही है कि इनमें विषय वस्तु, जीवन-सन्दर्भ, वस्तु में निहित अन्तर्वस्तु, दृष्टि में निहित अन्तर्दृष्टि, रचना में निहित अन्तस्संरचना इत्यादि में पर्याप्त विविधता और बहुआयामिता है। यह साफ तौर पर दिखाई देता है कि लेखिका किसी एक खास तरह के यथार्थ और एक खास तरह की जीवन-दृष्टि; जिसे प्रकारान्तर से हम विचारधारा भी कह देते हैं; के प्रति प्रतिबद्ध नहीं है। प्रतिबद्धता दरअसल प्रत्यक्षा ही नहीं, इस समूची नई पीढ़ी का ही 'कन्सर्न' नहीं है।
प्रत्यक्षा और उनकी पीढ़ी के सामने जो समय उपस्थित था, वह कुछ इस तरह का था कि कन्सर्न, प्रतिबद्धता, पक्षधरता, सम्बद्धता जैसी चीजें बेमानी हो गई थीं या फिर वैकल्पिक। आप इन्हें मानो तो ठीक, न माने तो भी ठीक। विचार के मामले में सारे विकल्प उस समय खुले थे। यह अज़ीब संयोग है कि लगभग इसी समय सत्ता की राजनीति में भी यह जुमला बेहद लोकप्रिय और प्रसिद्ध हुआ कि सरकार बनाने के/गठबंधन करने न करने के सारे विकल्प खुले हैं। विकल्प न हुआ, मानो कोई सौदेबाजी/सेंधमारी हो गई। यह दरअसल निखालस एक सुविधावाद किंवा अवसरवाद था। इसका वैचारिकता, सिद्धान्तनिष्ठता, मूल्यवत्ता इत्यादि से कोई लेना-देना नहीं था।
सम्भवत: भूमंडलीकृत/खुले बाजार का उस समय की राजनीति और साहित्य पर यह सीधा असर था। इसमें कोई शक नहीं और किसी को यह स्वीकार्य नहीं कि नई शताब्दी के पहले दशक की इस पीढ़ी का सृजन के प्रति समर्पण या सृजनोत्कंठा किसी से कम है या इनकी सृजनात्मक मानसिक सघनता या तत्परता में कोई कमी है। बल्कि देखा जाए तो; शायद यह नई उम्र और उत्साह का असर होगा कि; लेखन के प्रति एक तरह का जुझारूपन, जबर्दस्त आत्म और अन्त:संघर्ष, कुछ बेहद नया और अभूतपूर्व करने और लगातार करते रहने की ललक; ये सब चीजें बड़ी शिद्दत और शान के साथ इनमें मिलती हैं। लिखना इनके लिए शौक या तफ़रीह या जिसे अभिजात्यमूलक शब्दावली में 'हॉबी' कहते हैं वह, नहीं है बल्कि प्रत्यक्षा के शब्दों में कहें तो ''किसी सिन्दबाद के कंधों पर जबरदस्ती सवार शैतान बूढ़ा है लिखना।'' (स्मृति रचनात्मकता और रचना/शब्द और मैं: प्रत्यक्षा; हिन्दी कहानी का युवा परिदृश्य-2; सम्पादक सुशील सिद्धार्थ; सामयिक प्रकाशन न.वि. 2014; पृ. 51)। अपने इस आत्मकथ्यनुमा आलेख में प्रत्यक्षा 'डीटैचमेंट' की 'रणनीति' पर चलती हुई अपनी- और सम्भवत: अपनी पीढ़ी के और भी लोगों की लेखन-प्रक्रिया पर भी, क्योंकि यहां कई बार वे मैं के साथ-साथ 'हम सब' जैसे प्रत्यय का भी प्रयोग करती है, जैसे यह कि ''किसी जंगल में रास्ता बनाते खोजी हैं हम सब, नई दुनिया की खोज है, नये शब्दों की खोज है।'' (वही, पृ. 46); - रचना-प्रक्रिया पर विस्तार से बात करती हैं। इनमें बहुत सारी चीजें, बहुत सारे संदर्भ, बहुत सारे तथ्य आए हैं लेकिन लेखिका गलती से भी 'प्रतिबद्धता', 'पक्षधरता', 'कन्सर्न' जैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं करती।
मोटे तौर पर हिसाब लगाया जाए तो इस आत्मकथ्य की लगभग सभी बातें, जिसे अब तक हम 'कलावाद' कहते आए हैं, उसके अन्तर्गत आती है। जैसे कि अभी-अभी उल्लिखित वक्तव्य की बात की जाए तो क्या इससे 'तार सप्तक' के अज्ञेय के 'नई राहों के अन्वेषी' जुमले की सहज ही याद नहीं आती? चलिए, 'तार सप्तक' की बात छोड़ दी जाए, क्योंकि उसमें आए अनेक कवि आगे चलकर प्रगतिशील कविता के जाने-पहचाने चेहरे बने, अज्ञेय हालाँकि आगे तक सचमुच ही नई-नई राहों के अन्वेषी बने रहे और लौट-लौटकर बार-बार एक ही रास्ते का चक्कर काटते रहे। नए रास्तों की खोज, जंगल में नया रास्ता बनाना, नयी दुनिया की खोज, नए शब्दों की खोज; नए इत्यादि बहुत ही आकर्षक और रचनात्मक किस्म के मुहावरे हैं। प्रत्यक्षा के इस अगले वाक्य से एक बार फिर अज्ञेय की याद आती है; जैसा कि हम जानते हैं कि 'यायावर' अज्ञेय का अतिप्रिय शब्द था- ''जब तक यायावरी का ऐसा जुनून है लिखी जायेगी कहानियाँ, कविताएँ।'' (वही, पृ. 46-47)
हमें इस यायावरी या नई राहों के अन्वेषण से कतई कोई गुरेज नहीं है। हमें इससे भी कोई ऐतराज नहीं, क्योंकि यदि कोई ऐसा रास्ता खोजता है तो उसका स्वागत ही किया जाना चाहिए, वह दुनिया को एक नई चीज दे रहा है। लेकिन अफसोस हमें यही है कि यहाँ नया दरअसल कुछ भी नहीं है। प्रत्यक्षा और उसके साथी लेखक युवा है, नई उम्र के हैं, वे कहानी की एक नई/अगली पीढ़ी बना रहे हैं; यह तो जगजाहिर बात है। हर युवा पीढ़ी अपने समय में नई होती है। उसके नए होने का बराबर स्वागत होता है। लेकिन यह नयापन अचानक किसी आसमान से टपककर इनकी झोली में नहीं आ जाता, वह समय, इतिहास और परम्परा के अगले अपेक्षित या सम्भवनीय विकास या उसके सपने या कल्पना या योजना या इरादे की तरह सामने आता है। कोई युवा-पीढ़ी यदि यह दावा करे कि वह पहले-पहल यह सब कर रही है, उसे न किसी से कुछ सीखने की ज़रूरत है न समझने की, वह न भूतो न भविष्यति जैसी है तो यह तो सरासर ज़्यादती है। ऐसा किसी भी हालत में कभी होता नहीं है। इतिहास और समय कैसा भी निखट्टू हो, वह कुछ न कुछ तो नौजवान पीढ़ी को सिखाता ही है। इतिहास और परम्परा से कोई निरपेक्ष और अप्रभावित नहीं रह सकता।
मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि प्रत्यक्षा या/और उनके साथी इस तरह की अहम्मन्यता-जैसी स्थिति में फँसे हैं, यह उनका आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता भी हो सकती हैं। लेकिन ऐसा भी भला क्या आत्मविश्वास कि आप अपने पुरखों को ही भूल जाएँ! यह देखने की बात है कि प्रत्यक्षा एक बार भूल से भी परम्परा या इतिहास या हिन्दी-कहानी की अब तक की विकास-यात्रा का नाम तक नहीं लेतीं। यह देखकर सचमुच हैरानी होती है कि जब वे रचना-प्रवृत्त होने को हुईं तो रिक्थ के रूप में उन्हें सिर्फ एक 'जंगल' मिला, जहाँ उन्हें चलना था और नए रास्ते बनाने थे! हालाँकि तत्वत: यह अतार्किक नहीं है कि कोई परम्परा और इतिहास को अस्वीकार कर दे और स्वयं को स्वयंभू घोषित कर दे। हो सकता है, हम जो कुछ यहाँ कह रहे हैं, उसे एक आरोप की तरह लिया जाए और यह मान लिया जाए कि हम तथ्यों को तोड़-मरोड़ रहे हैं और बातों का घुमा-फिराकर अर्थ निकाल रहे हैं। हो सकता है, यह सच हो! लेकिन फिर सच यह भी होगा कि हो न हो, दाल में कुछ काला ज़रूर है! हम यह नहीं कह रहे हैं कि जो हम चाहते हैं वही हो, जैसा हम सोचते हैं, वही बाकी लोग भी सोचें। नहीं, ऐसा हम बिल्कुल नहीं न तो कह रहे हैं, न चाहते ही हैं। लेकिन हम यह ज़रूर कह और चाह रहे हैं कि दूध का दूध और पानी का पानी हो! यह मेरा या प्रत्यक्षा या किसी और का व्यक्तिगत मसला नहीं है बल्कि यह पूरे एक ऐतिहासिक समय और उसे आयत्त और पुनस्सृजित करती पूरी एक कथा-पीढ़ी और उसकी एक महत्वपूर्ण रचनाकार की पहचान का सवाल है, हिन्दी-कहानी की लम्बी रचना-परम्परा में उसके मौलिक योगदान और उचित एवं उपयुक्त स्थान के सुनिश्चय का सवाल है। ये भावना या किसी विचारधारा-विशेष के खूँटे से बँधकर हल किए जाने वाले सवाल नहीं हैं बल्कि इन सवालों के जवाब स्वयं रचना से निबद्ध वस्तु और अन्तर्वस्तु की प्रस्थितियों से तय होते हैं।
रचना ही प्रथमत: और अन्तिमत: इस बात की कसौटी और पैमाना होनी चाहिए कि लेखक विचार और सोच के स्तर पर कहाँ खड़ा है। प्रतिबद्धता, सरोकार, पक्षधरता, कन्सर्न; ये शब्द-भर नहीं हैं। वाचिक तौर पर कोई कितनी भी दुहाई देता रहे कि वह यह है, वह यह है; यदि उसकी रचना और उसकी संरचना इसकी तसदीक नहीं करती तो, यह मात्र गाल बजाना माना जाएगा। प्रत्यक्षा और उनकी पीढ़ी के लेखक, हो सकता है, घोषित रूप से किसी विचारधारा-विशेष या 'सम्प्रदाय'-विशेष से तआल्लुक न रखते हों; केवल इस आधार पर उन्हें अप्रतिबद्ध या अपक्षधर नहीं कहा जा सकता। हमें प्रत्यक्षा के इस प्रतिपादन से कोई गुरेज नहीं है, जिसमें वह कहती हैं कि ''जीवन में कहानियां कहना मेरे लिए यही खेल है, बच्चे के निर्बाध उत्साह और भोलेपन का खेल है, ऐसे जैसे यह खेल मैने की तलाशा है, इसके नियम मेरे हैं, जब चाहूं उनकी विधा बदल दूं, कोई उठापटक कर दूं। मुझे नहीं लगता कि स्टेक्स मेरे लिए इतने ऊंचे हैं कि ऐसी उठा-पटक का जोखिम न ले सकूं। जिस दिन इस अहसास से दबूंगी, उस दिन लिखना बोझिल हो जाएगा।'' (वही, पृ. 47)।
हमें लेखिका के इस प्रतिपादन से, उसके लेखन की प्रक्रिया के इस प्ररूप से कोई गुरेज़ नहीं है। बल्कि हम इस प्रक्रिया का समर्थन करते हैं और इसे लेखकीय विशेषाधिकार मानते हुए इसके पक्ष में हैं। लेकिन बावजूद तमाम लेखकीय स्वायत्तता और स्वाधीनता के क्या यह स्वीकार्य होना चाहिए कि लेखक को यह भी अधिकार दे दिया जाए कि कहानियों की कितनी परतों को वह खोले, कितनी को ढँकी-छुपी रहने दे? यदि यही कहानी कहना है तो अपने हिसाब से कहानी गढऩा और अपने मनमुताबिक उसे डील करना कुछ और है क्या? क्या यह कहानी को अपने खाँचे या साँचे में ढालकर कहना नहीं है? हमें दरअसल इससे भी कोई गुरेज नहीं है कि कोई लेखक कहानी कहने/लिखने का अपना खुद का एक खांचा या साँचा बनाए। यह तो वस्तुत: उस लेखक की अपनी पहचान होती है, उसका अपना अन्दाज, ट्रैंड या ब्रैंड होता है। तो क्या प्रत्यक्षा यह मानती हैं कि 'स्टाइल इज़ द ऑथर हिमसेल्फ/हरसेल्फ!', कि लेखक की कहानी एक ब्रैंडेड उत्पाद की तरह होती है? हालाँकि अपने इसी आत्मकथ्य में वे एक जगह यह भी कहती हैं कि ''अंत में सबसे अंत में लिखने को किसी भी फॉर्मूले में बांधना सम्भव नहीं है।xxx लिखना मेरे लिए चतुराई नहीं। कथ्य और शिल्प का चौकन्ना खेल नहीं है। कुछ नया अजूबा कर दूं, का सजग शातिरपना नहीं,xxx'' (वही, पृ. 49)
यहाँ यह याद दिला दिया जाए की प्रत्यक्षा 'सहजता' की बहुत बड़ी कायल हैं। इसी आत्मकथ्य में कई बार वे इस प्रत्यय का बहुत इस्तेमाल करती हैं। और सहजता भी ऐसी कि यकायक किसी को भी रस्क हो आए- ''लिखे जाएंगे शब्द, अपने साथ उन समयों का भार लिए, उन दिनों का अर्थ लिए, जब ये गढ़े गये थे और उसी सच्ची ईमानदारी से चमकेंगे, रेत पर पड़े चमकीले-चिकने पत्थरों की तरह, कहानियों को बहने देंगे अपने साथ जैसे सफेद चिडिय़ा के पंख पर हवा की अनुभूति या फिर नदी के चांदी पानी में मछली की पीठ पर बिछलती सूरज की किरण। ऐसी सहजता से कही जाएगी कहानी, कही जाएगी कविता।'' (वही, पृ. 47)। अन्यत्र इस प्रत्यय का प्रयोग भाषा के सन्दर्भ में किया गया है- ''मुझे जरूरत पड़ेगी तो मैं सिर्फ अंग्रेजी क्यों तमिल, बंगला, फ्रेंच, जर्मन या कोई भी दूसरी भाषा के शब्द भी इस्तेमाल करूंगी, किया है, अगर मेरे उस भाव को सिर्फ वही शब्द सही और पूरे समग्र भाव से पकड़ रहे हैं, डिफाइन कर रहे हैं। ऐसा करते मैं बेहद सहज हूं, ईमानदार हूं। बाकी पाठक उसके शुद्धतावादी तर्क से जोड़कर न देखें क्योंकि भाषा एक बहती हुई नदी है, जब तक और छोटी नदियां जुड़ती रहेंगी, सहज प्रवाह रहेगा, भाषा जीवित रहेगी।'' (वही, पृ. 48-49)।
अजीब है कि जब खुद लेखिका अपनी ओर से भाषा के मामले में भी और सम्भवत: कथ्य के मामले में भी इतनी पर्याप्त सहज है तो यह स्थिति भला क्योंकर है कि ''ङ्गङ्गङ्ग जब किसी कहानी पर ये सुनाई पड़ता है कि चीज़ें साफ नहीं, तब सहजता से सोचती हूं कि सब जवाब लिख दूं, सब चीजें पहले से अग्रदृष्टि रखकर कवर कर लूं, ऐसा सोचकर तो लिखा नहीं था। इसलिए भी कि अब तक की लिखाई, सोची-समझी लिखाई नहीं है, आलोचकों को चुप करा दूं, सारे फ्लैंक्स कवर कर लूं वाली चालाकी नहीं है।'' (वही, प. 48)
यहां स्पष्टत: एक खीझ-सी लेखिका की अभिव्यक्ति में देखी जा सकती है। इस खीझ को ठीक-से पहचाना जा सके इसके लिए इसके ठीक आगे की बात को थोड़ा देख लेना ज़रूरी होगा- ''कहानियां एक बार में लिखी गई हैं। उन पर कुछ 'काम' नहीं किया गया है, यहां तक कि जो शब्द पहली बार जेहन में आए, उन्हें परिष्कृत नहीं किया गया है। हो सकता  है, यह 'तरीका' गलत हो लेकिन जंगल की उन्मत्त सुन्दरता किसी तरतीबवार बगीचे से ज्यादा आकर्षित करती है।'' (वही)। दरअसल यह अप्रस्तुत-विधान अतिउत्तम है और आलोचना के लिए इसका महत्व है। लेकिन गड़बड़ यहां यह है कि चीजों को बड़े भोलेपन और मासूमियत के साथ इस तरह मैनिपुलेट किया गया है कि लगे कि देखो, हम कितने दूध के धुले हैं! प्रत्यक्षा के बारे में मैं नहीं जानता लेकिन उनकी पीढ़ी के कई लेखक बा$कायदा ऐसे हैं कि उन्हें अपनी आलोचना बर्दाश्त नहीं। जैसा वे खुद कहानी के साथ मैनिपुलेशन करते हैं, वैसे ही यह समझते हैं कि दूसरा भी, ख़ासकर आलोचक, उनकी कहानी के साथ मनमानी कर रहा है! शायद यही कारण है कि लगभग डेढ़-दो दशक बाद भी इस पीढ़ी का सही-सही आकलन नहीं हो पा रहा है। इन्हें दरअसल आलोचना नहीं, 'फेवर' चाहिए; आकलन नहीं, प्रशंसा चाहिए। यह स्थिति इस बात की पक्की सूचना देती है कि प्रास्थानिक तौर पर ही कहीं कुछ ख़ास गड़बड़ हुई है और अपने लेखन के बारे में कुछ भारी $गलतफ़हमियों और अति-आत्मविश्वास के शिकार ये लोग रहे हैं।
एक तरफ प्रत्यक्षा अपनी लेखन-क्रिया और प्रक्रिया पर इस कदर अपूर्वभिज्ञ हैं कि उन्हें नहीं मालूम कि वे क्या लिकने जा रही हैं! एक जगह तो स्थिति यहाँ तक है कि सिर्फ लिखना है, इसलिए लिखना है!- ''ङ्गङ्गङ्ग कोई आंतरिक छटपटाहट, सुगबुगाहट है जो अक्सर ठेलता है कि लैपटॉप उठाऊं, तब पता नहीं होता कि क्या लिखना है। सिर्फ इतना भर कि लिखना है। कोई मायावी दुनिया बार-बार अपने भीतर गप्प से खींच लेती है। इसका जादू फंसाता है, रोजमर्रा के काम के बीच फेंका ऐयार का कमंद है, अकुलाहट, बेचैनी है, जरूरत है, कई बार सांस लेने जैसी जरूरी।'' (वही, पृ. 47)। हमें या किसी को भी यह अिख्तयार नहीं है कि रचनाकार को इस स्थिति को शक की नजर से देखे और इस प्रक्रिया पर सवाल उठाए। हर रचनाकार इस मामले में पूरी तरह स्वतन्त्र होता है कि वह कैसे लिखे, कैसे सोचे; इस बाबत क्या तरीका अपनाए। हम दरअसल इस प्रक्रिया पर सवाल उठा भी नहीं रहे हैं। हम दरअसल इस प्रक्रिया की अन्तर्वस्तु पर गौर कर रहे हैं कि यह कैसी प्रक्रिया है, जिसमें अतीन्द्रिय और अभौतिक दुनिया का बोलबाला है! रचना-प्रक्रिया का कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर यहीं नहीं है, यह आसमानी वितान की तरह सुपरफ़िशियल तरीके से उसे खड़ा करने की कोशिश की गई है। 'आन्तरिक', 'मायावी', 'जादू', 'ऐयार का कमन्द' जैसी शब्दावली आख़िर और क्या दर्शाती है? इतना ही नहीं, इससे आगे वे एक और शब्दावली का इस्तेमाल करती हैं, 'रहस्यमय जादू का खेला' - 'xxx देखा, भोगा, काल्पनिक, वास्तविक... सब किसी तरतीब में जुट जाए, कोई रहस्यमय जादू का खेला हो जाए, बस इसी की तलाश है।' (वही) सचमुच ये सब चीजें बहुत ही महत्वपूर्ण थीं, देखा-भोगा-काल्पनिक-वास्तविक सब; एक तरह से एक श्रेष्ठ रचना-प्रक्रिया का यह एक मानक हो सकता था; लेकिन इसे एक ऐसी तरतीब में जुट जाने देना कि वह कोई रहस्यमय जादू का खेला हो जाए; सारी समस्या दरअसल इसी आग्रह के कारण पैदा हुई है।
प्रत्यक्षा भाषा को लेकर बहुत सजग रहती हैं अत: उनके इस आत्मकथ्य की भाषा एवं शब्द-चयन पर विशेष गौर किया जाना उचित होना चाहिए; विशेषत: भाषा के संरचना-पक्ष पर। इस हिसाब से देखने पर यह साफ दिखाई देता है कि लेखिका एक ख़ास तरह के पोइटिक ऐडवेंचरिज़्म की गिरफ्त में अपने लेखन-काल के एकदम प्रारम्भ से ही है, जैसे-जैसे उनका लेखन विकसित होता है, नई-नई कहानियाँ आती जाती हैं, यह एडवेंचरिज्म उत्तरोत्तर बढ़ता ही जाता है। इस ऐडवेंचरिज़्म में यथार्थ कम है या नहीं है, ऐसा नहीं है; बल्कि कहें कि यथार्थ-निरूपण में कोई कमी या फ़$र्क इससे नहीं आया है। बस, यह उनकी एक लेखकीय भंगिमा है। इस लेखकीय भंगिमा का असर कहानी पर नहीं, उसे पढऩे वाले पाठक पर पड़ता है। और वह असर यह कि पाठक भी इस प्रश्न या सन्दर्भ से अछूता और अभिज्ञ रहा आता है कि उसे किसके प्रति प्रतिबद्ध होना है; किसी के प्रति प्रतिबद्ध होना भी है या नहीं होना है, किसी के प्रति उसके कन्सर्न होने हैं या नहीं होने हैं, वह किसी तरफ़ है या नहीं है; इत्यादि-इत्यादि। यह प्रत्यक्षा और उसके साथियों के लेखन-कर्म की एक ऐसी समस्या है, जिसका किसी के पास कोई इलाज नहीं है। क्योंकि दरअसल खुद लेखक स्पष्टत: किसी तरफ नहीं है। असल बात यह है कि प्रत्यक्षा प्रास्थानिक तौर पर सम्भवत: यह मानती हैं कि लेखक को किसी तरफ नहीं होना चाहिए।
बात दरअसल यह है कि प्रत्यक्षा स्वात्म पर इतनी ज़्यादा निर्भर हैं और उसे इतना ज्यादा स्पेस दिए हुए हैं कि कई बार यह भ्रम होने लगता है कि कहीं वे आत्मनिरसन में ही कैद होकर नहीं रह गई हैं। ऐसा हालांकि है नहीं क्योंकि वहां स्वात्म में काफी-कुछ ऐसा भी है, जो सामान्यीकृत और सार्वजनिकीकृत है। एक-दो को छोड़कर प्रत्यक्षा की लगभग सारी कहानियां इसका उदाहरण हैं। और इसकी वजह यह है कि प्रत्यक्षा स्वात्म के साथ-साथ ऐडॉप्टर/रिसीवर/कंज़्यूमर/सम्प्रेष्य यानी कि जिसे पाठक कहा जाता है, की अपरिहार्यता से कभी इनकार करके नहीं चलतीं। वे पाठक को अपनी रचना-प्रक्रिया के ही एक सहवर्ती हिस्से के बतौर लेती चली हैं।
अपने इसी आत्मकथ्य में एक जगह वे कहती हैं- ''हम लिखते हैं किसी भोली आकांक्षाओं के सपने पाले कि जो जो जितना सोचते हैं, उतना-उतना ही लिखते हैं, उन्हीं भावों-कल्पनाओं को हाथ बढ़ाकर लपट लेते हैं और फिर गर्म सांस फूंककर कोई जादू जिन्दा कर देते हैं, करने की कोशिश करते हैं। उसमें कितनी बात पाठक की पकड़ में आती हैं, उसकी परवाह नहीं करना भी उतना ही बेमानी है, जितना ये कि सिर्फ अपने लिए लिखते हैं। ये सही है कि सबसे पहले लिखते हैं अपने लिए, उन खोए पाए पल को स्मृति से बाहर की चेतन दुनिया में इसलिए लाने कि एक बार फिर उनका स्वाद जबान पर, त्वचा पर महसूस किया जा सके और ये करते ही उसे बांटने की, उस उमगती रोशनी को दिखाने की इच्छा ऐसी बलवती होती है और इसलिए फिर हम लिखते हैं औरों के लिए।'' (वही, पृ. 50। एक तरह से देखा जाए तो इस उद्धरण में प्रत्यक्षा और उनके पूरे लेखकीय समूह की रचना-प्रक्रिया के बहुत सारे तत्व एक साथ आ गए हैं।
यहां सबसे ध्यान देने योग्य बात है, पाठक का महत्व-स्वीकार और वह भी रचना-प्रक्रिया के बीचों-बीच। यह सचमुच एक विरोधाभास की तरह है कि स्वात्म पर इतना अधिक निर्भर रहने वाला रचनाकार यह उद्घोषित करे कि उसकी बात पाठक की पकड़ में यदि नहीं आती तो एक क्रिटिकल स्थिति है। दरअसल पाठक को बीच में लाते ही बात सिरे से बदल जाती है, रचना-प्रक्रिया एक अलग रास्ते पर चल पड़ती है। प्रत्यक्षा के उक्त वक्तव्य से यह एक बहुत ही लुभावना और दिलकश निष्कर्ष हमारे हाथ लगता है कि प्रत्यक्षा जिस स्वात्म पर इतनी ज़्यादा निर्भर हैं, उसकी प्रामाणिकता का एक पैमाना पाठक भी है। लिखते समय प्रत्यक्षा को यह ध्यान अवश्य रहता है कि जो कुछ लिखना उन्होंने तय पाया है, वस्तुत: उसे वे दूसरों के साथ शेयर भी कर रही हैं। प्रास्थानिक तौर पर यह घोषित कर देने से कि जो कुछ हमें अपने अन्दर पका हुआ महसूस हुआ है, उसे हम औरों के साथ भी बांटना चाह रहे हैं; बात को कहने का सारा तरीका, सारी अभिव्यक्ति-प्रणाली सिरे से बदल जाती है, एक खास तरह की लेखकीय कतर-ब्यौंत शुरू हो जाती है। लेखकीय मॉनोटोनी से निज़ात पाते हुए लेखक को एक ऐसे सामान्य धरातल पर पदार्पण करना होता है कि जहाँ पर्सनल पॉलिटिकलाइज़ होने की प्रक्रिया में सहज रूप से आ सके! पर्सनल यहाँ पॉलिटिकलाइज हो रहा है, यही इस पूरी प्रक्रिया की सृजनात्मक अवधारणा है।
प्रत्यक्षा स्मृति को सबसे अधिक महत्व देती हैं। स्मृति पर वे इतनी ज़्यादा निर्भर हैं कि तौबा-तौबा! लेकिन यह स्मृति उनकी कहानियों को कहानी बने रहने देती है, संस्मरण या आपबीती नहीं बनने देती, तो सम्भवत: इसका यही कारण है कि स्मृति उनके लिए मात्र स्मृति नहीं है, और भी बहुत-कुछ है। स्मृति के 'कनोटेशन' की जिस अकूत व्यापकता की बात वे करती हैं, वह स्मृति को इतना सारगर्भी, वज़नदार और अपरिहार्य बना देती है कि वह लगभग एक चकमक ही बन जाती है। एक ऐसी चकमक जिसे जादू जैसा भी बहुत-कुछ होता है। प्रत्यक्षा बार-बार जादू शब्द का जो इस्तेमाल करती हैं, उसका 'जादू' जैसी किसी चीज से शायद कोई लेना-देना नहीं है। मेरा ख़याल है कि इस शब्द का प्रयोग वे लाक्षणिक और व्यंजनामूलक अर्थ में ही करती हैं। इस प्ररूप में इसका अर्थ होगा, एक प्रकार का अनचीन्हापन, एक प्रकार की चमत्कारिकता, एक अकूत नयापन, लगभग एक ऐडवेंचर! ऐडवेंचर नवयुवता की निशानी भी होता है अत: यदि प्रत्यक्षा और उनके साथी इसे इस रूप में लेते हैं तो इसमें बुराई क्या है? स्मृति से शुरू होकर लेखिका जिस ऊँचाई पर कहानी को यहाँ ले जाती हैं, उसे एक कला-रचना का दर्जा उपलब्ध कराती हैं, वह इस युवा पीढ़ी की मौलिकता और हिन्दी-कहानी को एक नई देन कही जा सकती है। स्मृति का इस्तेमाल कथा-रचना की रीढ़ होता है। बिना स्मृति का इस्तेमाल लिए कहानी लिखी ही नहीं जा सकती। स्मृति को महत्व देना प्रत्यक्षा की मौलिकता नहीं है। प्रत्यक्षा की मौलिकता है, स्मृति-विरोधी और स्मृति जैसी किसी चीज का अन्त घोषित किए जाने के बेहद संकटापन्न समय में स्मृति की पुनस्र्थापना, ऐलानियां ढंग से स्मृति को अपनी कथा-संरचना-प्रक्रिया का मूलाधार बनाना, स्मृति का स्वरूप-विस्तार कर उसे दर्शन के स्तर तक पहुँचाना।
पिछली स्मृति से यह तात्विक रूप से भिन्न है। इसमें कोई दो राय नहीं कि कहानी की संरचना-प्रक्रिया में स्मृति का सदैव से मूलभूत योगदान रहा है। स्मृति के अवकाश में कहानी की रचना सम्भव ही नहीं है। जैसा कि मैंने पहले भी कहा, स्मृति कहानी की संरचना-प्रक्रिया का प्रस्थान-बिन्दु है। लेकिन यहाँ यह भी बार-बार दुहराए जाने की जरूरत है कि प्रत्यक्षा और उनकी पीढ़ी के रचनाकार स्मृति को एक कथा-रचना-मूल्य की तरह संग्रहित करते हैं और उसे कथा-दर्शन की स्थिति तक ले आते हैं। बावजूद तमाम युवावस्थामूलक खिलन्दड़ापन के स्मृति के प्रति बहुत गम्भीर और उत्तरदायित्वपूर्ण रचनात्मक व्यवहार ये रचनाकार करते हैं। प्रत्यक्षा का यह वक्तव्य इसको बखूबी प्रमाणित करता है- ''स्मृति सिर्फ बीता हुआ समय नहीं, वो आगत का भी स्मरण है और लिखना किसी समूची तस्वीर में उन सबका समावेश है, अपने भीतर की उन सभी लालसाओं और तड़प को खोजने की कोशिश है, समय, जगह, रस-रंग की शिनाख्त है, जो हो चुका और जिसका होना हम चाहते हैं, वही कथा में आता है। लिखते हुए याद्दाश्त हमेशा साथ रहे, कि जो हमारी कल्पना है, वो उन सब चीजों के मिश्रण से बनी जो हमने भोगी, जो भोगना चाहते हैं। स्मृति के छौंक के बिना कथन अधूरा है बशर्ते ये साफ समझ लिया जाए कि स्मृति का कनोटेशन कितना व्यापक है, जो हम नहीं जानते, वो भी हमारी सामूहिक याद्दाश्त का हिस्सा है, या यों कहें कि हम उनका हिस्सा हैं।'' (वही)।
इस वक्तव्य की ताकत उन कई भ्रमों और सम्भ्रमों को तोड़ सकती है, जो इस पीढ़ी के कुछ दूसरी तरह के वक्तव्यों से कुछ समय पहले पैदा हुए हैं और अफ़वाहों और आग्रहों की तरह आज भी जारी हैं। आज; जबकि इस पीढ़ी को लिखते हुए लगभग पन्द्रह साल हो चुके हैं; इस पर, उसके कृतित्व पर समग्रता में और सतर्कता के साथ विचार किए जाने की जरूरत है।
प्रत्यक्षा जब सामूहिक याद्दाश्त और खुद के उसका हिस्सा होने की बात कर रही हैं तो स्मृति के अव्यक्तिवादी होने की प्रक्रिया को पार करना तो सबसे पहले ज़रूरी है। स्मृति के कनोटेशन की परिक्रिया भी इसी रास्ते होते हुए आगे बढ़ती है। स्मृति के वैचारिक आत्मपरीक्षण से, हो सकता है, प्रत्यक्षा को ऐतराज़ हो, क्योंकि प्रास्थानिक तौर पर वे इसे $गैरजरूरी और अनुपयुक्त समझती हैं। सम्भवत: वे यह मानती हैं कि स्मृति का विचार से कोई ज़्यादा लेना-देना नहीं है, स्मृति अपने-आप में एक स्वायत्त कलावयव है, आदि-आदि। लेकिन जब हम स्मृति के कनोटेशन की बात करेंगे तो विचार/वैचारिकता का अवयव तो स्वत: वहाँ आ ही जाएगा! यह एक अजीब विरोधाभास है कि प्रत्यक्षा स्मृति के कनोटेशन की बात तो करती हैं पर उसकी वैचारिक सान्दर्भिकता से उन्हें परहेज है! इस लिहाज़ से उनके आत्मवक्तव्य के इन दो टुकड़ों को एक साथ पढ़ा जाना ज़रूरी है। इनमें एक वह है, जिसका प्रसंगवश दो टुकड़ों में पीछे उल्लेख आ चुका है पर यहाँ उसका दुहराया जाना जरूरी है- ''  जब किसी कहानी पर ये सुनाई पड़ता है कि चीजें साफ नहीं, तब सहजता से सोचती हूं कि सब जवाब लिख दूं, सब चीजें पहले से अग्रदृष्टि रखकर कवर कर लूं, सारे फ्लैक्स कवर पर लूं वाली चालाकी नहीं है। कहानियां एक बार में लिखी गई हैं। उन पर कुछ 'काम' नहीं किया गया है, यहाँ तक कि जो शब्द पहली बार जेहन में आए, उन्हें परिष्कृत नहीं किया गया है। हो सकता है ये 'तरीका' गलत हो लेकिन जंगल की उन्मत्त सुन्दरता किसी तरतीबवार बगीचे से ज्यादा आकर्षित करती है।'' (वही, पृ. 48)। और दूसरा यह कि ''तथ्य और कल्पित, स्मृति और संज्ञा रचना की जमीन पर एक-दूसरे में गुंथे हेलिक्स हैं, कुंडली। महीन बुनावट की कारीगरी है, कोई अल्केमी है जो एक रहस्यमय मिश्रण बनाती है, जिसके पीछे कोई तर्क नहीं होता, कोई फार्मूला नहीं। यह स्वत:स्फूर्त प्रक्रिया बहुत हद तक इंट्यूटिव है।'' (वही, पृ. 50)।
आत्मवक्तव्य में अन्तर्विरोध एक गम्भीर मसला है। आगे चलकर वे अन्तर्विरोध फिर रचनाओं में उभरे दिखाई देते हैं। संकट यह है कि ये लोग इन अन्तर्विरोधों को पहचानने और इनसे मुक्त होने के स्थान पर एक खास तरह के मैनरिज़्म के तहत इनमें और ज़्यादा फँसते चले जाते हैं। आखिर क्या वजह है कि प्रत्यक्षा 'कैसे-कैसे दिन' शीर्षक कहानी में स्त्री का आकलन करते हुए पितृसत्तात्मक दृष्टि के कोणों से मुक्त नहीं हो पाती? जैसे कि इस कहानी का यह अंश- ''मेरी किश्वर और वन्दा से पटती है। हम सब एक ही कश्ती में सवार हैं। वन्दा का मंगेतर बाहर गया है और किश्वर, इस कम उम्र में विधवा है। और मैं क्या हूँ, न विधवा न वाग्दत्ता, न कहीं कमिटेड। मुझे निताई पर बेहद गुस्सा आता है। ऐसी त्रिशंकु-सी स्थिति उसके ही वजह से न।'' (जंगल का जादू तिल-तिल, पृ. 82)। हालांकि लेखिका कहानी में आगे 'सिस्टरहुड' जैसी अवधारणा का भी उल्लेख करती हैं- ''xxx हम एक जैसी औरतें हैं। अपने दुख में बहनें। (वही)। लेकिन मूलभूत दृष्टि यहाँ पितृसत्तोन्मुखतावादी है क्योंकि 'विधवा', 'वाग्दत्ता', 'कमिटेड' जैसी शब्द-संरचनाएं उसी की देन हैं। इसी तरह इसी कहानी में आगे लेखिका द्वारा स्कूल की लड़कियों का, किश्वर का तथा स्वयं कथानायिका का जो आकलन किया गया है; विशेषत: उनकी हँसी के मार्फत; वह दृष्टि भी 'मेल गेज़' से भिन्न नहीं है। यह पुरुष की दृष्टि से और उसके सन्दर्भ में स्त्री को देखना है - ''लड़कियाँ जो रंगीन तितलियाँ हैं। लड़कियाँ जो खिलता फूल हैं। लड़कियाँ जो ख्वाब है, ख्वाहिश हैं, सपना हैं, हकी$कत हैं। उनकी ये उम्र हँसते रहने की है, झरने की तरह बहती हँसी। निताई के पहले मैं भी तो ऐसे ही हँसती थी। मुझे उससे प्यार था इसलिए मैं हँसती थी। मैं भी ख्वाब थी, ख्वाहिश थी। अब निताई के बाद भी हँसती हूँ। पर उस हँसी और इस हँसी में फर्क तो है न! कहने के लिए किश्वर भी तो हँसती है। दानिश के बिना भी। पर हर वक्त हर बात पर हँसी भी कोई हँसी होती है?'' (वही, पृ. 83)। निश्चय ही यहां स्त्री-पुरुष के प्रेम-सम्बन्धी संवेदन और उसके विविध पक्षों/आयामों, त्रासदियों इत्यादि से, उनके महत्व से लेखिका हमे अवगत कराती है। हमें इससे इनकार भी नहीं है। हम तो सिर्फ इतना कह रहे हैं कि यह एक उभयपक्षीय मसला है। इसे इस तरह की एप्रोच से इकतरफा तरीके से डील नहीं किया जा सकता। ऐसा करना यथार्थ की अधूरी तस्वीर ही पेश कर सकता है।
इसी तरह, प्रत्यक्षा की कुछ कहानियाँ हैं, जो स्त्री को सिर्फ एक देह के बतौर आँकती हैं। प्रत्यक्षा में एक विशिष्ट प्रवृत्ति यह मिलती है कि वे स्त्री के नख-शिख वर्णन में पर्याप्त रुचि लेती हैं। जहां भी मौका लगता है, वे नाक-न$क्श का ख़ाका खींचने लगती हैं। यह हालाँकि कोई अवांछनीय वस्तु नहीं हैं। यह अपनी-अपनी पसन्द और प्राथमिकता का मामला है जिसमें कोई दखल नहीं दे सकता। लेकिन इससे एक संकेत जरूर मिलता है कि इस कथित भूमंडलीकरण और मुक्त बाजार के सांघातिक समय में स्त्री की देह-केन्द्रिकता में भारी इजाफ़ा हुआ है। इसमें पुरुष के साथ-साथ स्त्रियों की भी लगभग बराबर की भागीदारी है। यह बराबर देखने में आता है कि प्रत्यक्षा स्त्री को एक यौनोपादान के बतौर चित्रित करने में संकोच नहीं करतीं। उनकी कई कहानियाँ इसके उदाहरण के बतौर ली जा सकती हैं; जैसे कि 'केंचुल', 'मोहब्बत', 'मेटिंग रिचुअल्स', 'पहर दोपहर ठुमरी', 'यही प्यार है क्या' आदि-आदि। देखने की बात यह है कि पहले से दूसरे संग्रह पर आते, यह प्रवृत्ति उत्तरोत्तर बढ़ती गई है। 'जंगल का जादू तिल-तिल' में एकाध ही कहानी इस तरह की है लेकिन 'पहर दोपहर, ठुमरी' में धीरे-धीरे इनकी संख्या बढ़ती जाती है। तीसरे संग्रह 'एक दिन माराकेश' तक आते-आते यौनवाद लेखकीय अवचेतन का हिस्सा-सा बनता चलता है। यौनिक बिम्ब अप्रस्तुत-विधान और अन्तर्वस्तु की तरह कथा-संरचना के सहज हिस्से बन जाते हैं। प्रतीत होता है कि लेखिका के केन्द्रीय एजेंडे में यौनवाद गहरी पैठ कर चुका है और स्त्री जब भी कहानी में वहाँ आती है, वह पुरुष के परिप्रेक्ष्य से ही आती है। पुरुष का यह परिप्रेक्ष्य क्या है, इस पर बहस होनी चाीिहए, जिससे कि हिन्दी में सायास किनारा किया जाता है। इस प्रकार्य में लेखिकाएं भी बराबर की भागीदार है। उन्हें स्त्री की देह-केन्द्रिकता से कोई ऐतराज़ नहीं है!
प्रत्यक्षा की ही बात की जाए तो यह देखकर आश्चर्य होता है कि एक स्त्री के जीवन की तीन कसौटियाँ उनके यहां निर्धारित की गई हैं। ये तीन कसौटियाँ पुरुष के सन्दर्भ में स्त्री को देखे जाने के अलावा और क्या हैं? 'दिल, दो लड़कियाँ और एक इतना सा नश्तर' शीर्षक कहानी में एक जगह कथानायिका लड़की के बारे में कहा गया है - ''कई बार जब रात-रात भर नींद नहीं आती तब हाथों को छाती पर बाँधे सीधे सतर लेटे उसे लगता है, इस छोटे संकरे कमरे के इस पतली चौकी पर कोई नन लेटी है, जिसने भौतिक दुनिया से अपना वास्ता खत्म कर लिया है। एक दिन ये लड़की ऐसे ही मर जाएगी, अनलव्ड अन अटेंडेड अनवांटेड?'' (एक दिन माराकेश, लेखिका द्वारा मुझे मेल की गई फाइल; पृ. 5)। निश्चय ही, जैसा कि मैंने पहले भी कहा, मुझे स्त्री-पुरुष के प्रेम-तत्व से कोई आपत्ति नहीं है। इससे आपत्ति हो भी किसे सकती है! हमारा ऐतराज़ तो सिर्फ इतना है कि स्त्री क्या केवल प्यार किए जाने, ध्यान दिए जाने, चाहे जाने इत्यादि के लिए ही है? क्या उसका वजूद सिर्फ इतने के लिए है? आखिर यह कौन-सी दृष्टि है जो स्त्री को एक तरह की अकर्मकता की स्थिति में डालती चलती है? अनलव्ड अन अटेंडेड अनवांटेड इत्यादि स्त्री को पैसिविटि में डालने के अलावा और क्या है? स्त्री-संघर्षों का इतिहास स्त्री को पैसिव में एक्टिव की ओर लाने की जद्दोजहद भी तो है। प्रत्यक्षा की यह धारणा इस सारे संघर्ष को भौंथरा कर देने की दिशा में हमें ले जाती है। और मजे की बात यह है कि यह इक्कीसवीं सदी की भूमंडलीकृत दुनिया की स्त्री है। कम से कम समयावधि के हिसाब से तो है ही। क्या लेखिका की स्मृति में; जिस पर कि वह अपने ही आत्मकथ्यानुसार हद दर्जे तक निर्भर है, यही स्त्री निबद्ध थी? क्या लेखिका की रचनात्मक स्मृति ने, जिसकी रचनात्मकता को पहचानने की कोशिश ऊपर की गई, कुल मिलाकर इसी स्त्री को गढ़ा है?
यही विवश होकर यह कहना पड़ता है कि स्मृति की जो संकल्पना या अवधारणा लेखिका ने अपने आत्मकथ्य में दी है और जिस प्रक्रिया को इंट्यूटिव कहा गया है, वह वस्तुत: एवं तत्वत: इंट्यूटिव है नहीं। लेखिका द्वारा प्रस्तुत संकल्पना/अवधारणा का वस्तु-चरित्र ही ऐसा है कि वह इंट्यूटिव हो ही नहीं सकती। किसी भी रचना-वस्तु को गढ़े जाने की वह एक ऐसी अन्दरूनी प्रक्रिया है जो रचनाकार के अन्तस् में जाने-जानजाने निरन्तर चलती रहती है, जिसके प्रति वह सचेत भी रह सकता है और असचेत भी, हालाँकि कुलमिलाकर नियंत्रण उस पर उसी का रहता है! अन्य शब्दों में कहा जाए तो वह दरअसल एक ऐसी प्रक्रिया है जिसे लेखक का कोई न कोई 'रिमोट'  संचालित करता है। यह रिमोट; विचारधारागत तो नहीं है क्योंकि जैसा कि हमने पीछे देखा, इस युवा पीढ़ी को/युवा-पीढ़ी के इस गुट को विचारधारा तथा कई बार विचार से ही परहेज है, पर धारणागत जरूर है। प्रत्यक्षा स्मृति के जिस कनोटेशन में अपने भीतर की सभी लालसाओं, तड़प को खोजने की जिस कोशिश की बात करती हैं और जिस कल्पना को लाती हैं, वह वस्तुत: एक तरह का आत्मविस्तार ही तो है। वस्तुपरक/तटस्थ/असम्पृक्त होना यहां असान्दर्भिक है। अजीब है कि सब जवाब लिख देने, सब चीजें पहले से अग्रदृष्टि में रखकर कवर कर लेने जैसा सोचकर लिखने का निषेध करने वाला रचनाकार स्वत:स्फूर्त और इंट्यूटिव के बहाने अपनी धारणाएँ किस धड़ल्ले से कहानी में अग्रेषित कर बरी होना चाहता है। 'डीटैंचमेंट' धोखा है। डिटैचमेंट की बात इस लेख में शुरू में मैंने की है लेकिन यहां तक आते-आते वह धोखे की भूमिका में आ चला है। प्रत्यक्षा अपने आत्मकथ्य के अन्तिम हिस्से में डिटैचमेंट की बात भी उठाती हैं। यह शायद कोई एकदम नए तरह का डिटैचमेंट है जिसमें जितनी असम्पृक्ति है, उससे ज्यादा सम्पृक्ति है - ''लिखना एक तरह का डीटैचमेंट है। सब भोगते हुए भी उसके बाहर रहकर दृष्टा बन जाने का, इसी रुटीन रोजमर्रा के जीवन में एक फन्तासी रच लेने और फिर किसी निर्बाध खुशी से उस फन्तासी में नए-नवेले तैराक के अनाड़ीपन से डुब्ब से डुबकी मार लेने का।'' (हिन्दी कहानी का युवा परिदृश्य-2;, पृ. 51)। आगे वे और जो कुछ लिखती हैं, उससे स्थिति और साफ हो जाती है- ''लिखना जितना बड़ा सुख है, उतनी ही गहरी पीड़ा भी है, जितना अमूर्त है, उतना ही मूर्त भी, जितना वायवीय, उतना ही ठोस और वास्तविक भी।'' (वही)
प्रत्यक्षा यहां जो लिख रही हैं, वह उनकी अपनी लेखकीय स्वायत्तता और विशेषाधिकार के अन्तर्गत हो सकता है। उस पर हमें कोई टिप्पणी करने का हक नहीं बनता। हम तो केवल उस प्रक्रिया की तर्क-संगति, वैधता, सम्भवता-असम्भवता इत्यादि पर गौर करना चाहते हैं कि चाहे जवानी के जोश में ही सही, क्या यह सम्भव है कि कोई, एक साथ दो नावों पर पैर रखे लगातार चल सकता है और क्या यह युक्तिसंगत और स्वीकार्य हो सकता है? हमें किसी के रचना में अपने सपनों, लालसाओं, तड़प, कल्पना इत्यादि के समावेश, आरोपण इत्यादि से कोई परहेज़ नहीं है; ऐसा रचनाकार करता ही है, ऐसा करने की छूट उसे होनी चाहिए। हमें ऐतराज सिर्फ उस हिप्पोक्रेसी और बनावटीपन से है जिसमें सच को अपने हिसाब से तोड़ा-मरोड़ा और आख्यायित किया जाता है और फिर कहा जाता है कि यही सबसे सहज है, स्वत: स्फूर्त है। हमें दरअसल इससे भी कोई ऐतराज नहीं है। कोई अपने या दूसरों के बारे में कितना भी मुगालते में रहे, किसी को क्या फ़$र्क पडऩा है। फ़$र्क तब पड़ता नजर आता है, जब रचना का सीधा सामाना पाठक से होना शुरू होता है। रचना और पाठक के बीच तीसरा कोई हो नहीं सकता, आ नहीं सकता। इन दोनों के बीच लेखक के किसी भी दावे का कोई अर्थ और अस्तित्व नहीं है। वहाँ सारा मोर्चा रचना को अकेले ही संभालना होता है, वहां भाषा सारे सवालों के प्रति उत्तरदायी होती है।
यह आकस्मिक नहीं है कि प्रत्यक्षा अपने इस आत्मकथ्य में भाषा पर कई बार 'सफाई' देती-सी जान पड़ती हैं। सवाल यह है कि यह स्पष्टीकरण क्यों? और स्पष्टीकरण भी कैसा! कौन नहीं जानता कि प्रत्यक्षा जो कह रही हैं, सच्चाई उससे ज़्यादा भिन्न नहीं है। सच्चाई को स्वीकार करने में भी किसी को कोई कोताही नहीं बरतनी चाहिए। लेकिन एक सामान्य/हवा के बहाव के अनुसार चलने वाले अनालोचनात्मक व्यक्ति में और एक सृजनात्मकता से लैस रचनाकार में कुछ तो फर्क होना चाहिए! यदि एक लेखक भी यही कहता फिरे तो सोचने की बात है कि फिर कोई क्यों उम्मीद भरी निगाह से उसकी तरफ देखेगा - ''हम आम बोलचाल में चार वाक्य में कम से कम पांच शब्द अंग्रेजी के बोलते हैं, बहुत गर्व की बात नहीं लेकिन यही इस समय की त्रासद सच्चाई है, वैश्वीकरण का एक साइड इफैक्ट है, बाजार अर्थव्यवस्था और विज्ञान कंप्यूटर की भाषा को इस्तेमाल करने की मजबूरी।'' (वही, पृ. 48)। मैंने, पहले ही कहा कि यह सत्य से परे नहीं है। लेकिन हम यह जानते आए हैं कि लेखक का सत्य आमफहम सत्य से काफी भिन्न होता है, वह अपना एक आत्मपरीक्षित सत्य तलाशता रहता है और निरन्तर प्रयोगशील रहता है। कम से कम दृश्यमान सत्य को अपना सत्य नहीं मानता और यदि मानता भी है तो काफी-कुछ कतरब्यौंत के बाद। हम आम बोलचाल में चार वाक्यों में पांच शब्द अंग्रेजी के बोलते हैं, तो यह सिर्फ 'बोलचाल की दुनिया' (वही) का मसला नहीं है, यह एक बहुत ही गम्भीर और पेचीदा मसला है, जो 'प्रॉसेस आफ़ कॉण्ट्रा-ग्रेज्युअलिज्म' के उत्तर-औपनिवेशिक अभियान से जुड़ा है, जो 'शेयर्ड-वकैब्युलरी' की राह पर चलते हुए एक दिन हिन्दी-जैसी भाषाओं को नेस्तनाबूद करके ही दम लेगा। (द्रष्टव्य, प्रभु जोशी का लेख 'इसलिए विदा करना चाहते हैं, हिंदी को हिंदी के कुछ अखबार', हिंदी समय डाट कॉम; 01 अगस्त, 2014)। कहानी में कोई पात्र बोलचाल की दुनिया की तरह एक वाक्य में पाँच अंग्रेजी के शब्द बोले, हमें कोई आपत्ति नहीं, बल्कि इसे हम स्वाभाविकता ही कहेंगे पर अपने कथा-विवरण, नैरेशन इत्यादि में भी  लेखक इसी तर्क से अंग्रेजी के दामन से लिपटा रहे तो यह एकदम दूसरी बात हो जाती है। यह दरअसल वही स्थिति है, जिसकी ओर प्रभु जोशी अपने आलेख में हमारा ध्यान खींचते हैं। यदि प्रत्यक्षा की बात की जाए तो 'जंगल का जादू तिल-तिल' की कहानियों के बाद अंग्रेजी मुख्यधारा की भाषा की तरह उनकी कहानियों में छाई हुई है। ऊपर तो हिन्दी ही है पर अन्दर झांकने पर मन भय से काँप उठता है कि वहाँ मूलभूत रूप से अंग्रेजी में सोचा जा रहा है। जिस आनुभविकता की बात उन्होंने अपने आत्मकथ्य में की है, वह अधिकांशत: अंग्रेज़ी मुहावरों के तहत निबद्ध है। निश्चय ही जो लोग अंग्रेजी के वाक्य-संरचना-प्ररूप और शब्दार्थ-प्रक्रिया से सुपरिचित नहीं हैं, उन्हें उनकी कहानियों के अधिगम में दिक्कत आ सकती है। हार्परकालिंस से छपे उनके दूसरे संग्रह 'पहर दोपहर, ठुमरी' की कहानियाँ तो जैसे इस मामले में एक-दूसरे से होड़ करती नजर आती हैं। कई कहानियों में तो अंग्रेजी सीधे-सीधे कई-कई परिच्छेदों में आती है।
निश्चय ही जिस तबके से जुड़ी ये कहानियाँ हैं, वहां का भाषा-सम्प्रेषण अंग्रेजी-केन्द्री है, उनका जीवन भी अधिकांशत: उत्तर-आधुनिकतावादी, भूमंडलीकृत और मुक्त बाज़ार-व्यवस्था के अन्तर्गत है। अत: जो स्थैतिक व अन्य परिदृश्य और भाषा-निबन्धन इन कहानियों का है वह लेखिका की इस उद्घोषणा के तहत ही और पर्याप्त ही स्वाभाविक है कि - ''जहां तक भाषा का सवाल है, पात्र जिस परिवेश के हैं, वही भाषा बोलेंगे।'' (वही) इसमें कोई शक नहीं कि ये कहानियां पर्याप्त महत्वपूर्ण और यथार्थकेन्द्री हैं। मसलन यह कि, इस तबके के स्त्री-पुरुषों की प्रेम-संवेदना कुल मिलाकर देह के इर्द-गिर्द ही घूमती नजर आती हैं। पुरुष अब स्त्री को 'आई लव यू' के स्थान पर 'आई डिजायर यू' बोलते दिखाई देते हैं, उन्हें 'काठ की तरह निस्पन्द पड़ी मोहतरमाएँ ज्यादा पसन्द है जो वर्जिनल और शाई हों और जिनके बारे में यह कहा जा सके कि शी इज़ ऑल माइन! (पहर दोपहर, ठुमरी; पृ. 106)। वे उन्हें अब सब 'बिसाइड मीं. इन माई बेड' (वही; पृ. 105) ही 'मिस' करते हैं, 'डिज़ायर' करते हैं। स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में यह दैहिक तत्ववाद के पुनरुत्थान का 'एक था आदम एक थी हव्वा' (वही; पृ. 170) वाला 'मेटिंग रिचुअल्स' (वही; पृ. 104) का 'दो पल की बहादुरी' (वही; पृ. 105) वाला न जाने कितना पुराना समय है, जिसमें मनुष्य के स्थान पर टिड्डों, मेंढ़कों, मछलियों इत्यादि का बोलबाला है। हाँ, इस सब के बीच कहीं-कहीं हमें एक ऐसी औरत थोड़ी-बहुत ज़रूर दिख जाती है जो अपने लिए ज़्यादा स्पेस, ज़्यादा डेमोक्रेसी चाहती है और उसे एंज्वॉज भी कर रही है। प्रत्यक्षा की अब तक की सबसे लम्बी कहानी 'पहर दोपहर, ठुमरी' इस लिहाज से गहरे देखे जाने लायक है। इसमें हम स्त्री का वह रूप भी देखते हैं, जिसकी कि पीछे मैंने चर्चा की कि किस तरह पुरुष की निगाह से वह स्वयं का आकलन/मूल्यांकन किए जाने की अभी भी आदि है। बल्कि यह प्रवृत्ति उसमें बढ़ी है। ऊपर कुछ उदाहरण इसके दिए गए हैं। यहाँ इस कहानी से एक और उदाहरण प्रस्तुत किया जाना मुझे ज़रूरी लग रहा है। यह अन्तरंग क्षणों का एक बहुत ही स्वभाविक-सा दृश्य है जहाँ एक-दूसरे की छाती पर अपना नाम लिखे जाने की मज़ेदार बचकानियाँ होती देखी जाती हैं। लेकिन इस कहानी में हम देखते हैं कि स्त्री और पुरुष दोनों की छाती पर पुरुष का ही नाम लिखा जाता है दिखाई देता है- ''कैसे बताता कि मेरे शब्द बेकार हैं, वे सिर्फ वो है, सिर्फ वो। उसकी छाती पर मैंने अपनी उँगली से अपना नाम लिखा है, कैसे बताता।'' /जय। (वही पृ. 148), ''उसके बदन में सिमटी मैं हिलग रही थी। मेरी आंखों के कोने से प्यार बह रहा था। अपनी उँगलियों से उसकी छाती पर मैं उसका नाम लिख रही थी। उसे कुछ नहीं पता, कुछ भी तो नहीं।'' (वही)। पता नहीं, लेखिका इस वस्तुस्थिति से अवगत है या नहीं, या यह भी हो सकता है कि ऐसा उसने यथार्थाकलन की अपनी पूरी लेखकीय जिम्मेदारी के अहसास के साथ किया हो कि यहाँ दोनों जगह पुरुष का नाम अंकित हुआ है! बात हालाँकि बहुत नामालूम-सी है, लेकिन ऐसी ही छोटी-छोटी बातों से तो स्त्री पर पुरुष का नियन्त्रण निर्मित होता आया है। और वह भी 'प्रेम' की आड़ में। पता नहीं, प्रत्यक्षा इसके प्रति सावधान हैं या नहीं। प्रेम उनके यहां नरमादापन में भी अन्तरित हुआ नजर आता है। यौनवादी स्थितियाँ और वृत्तियाँ बार-बार सिर उठाती दिखाई देती हैं। इनके प्रति लेखिका का रवैया अन्तरावलोकनात्मक तो है पर आलोचनात्मक या दृष्टि-निर्धारणमूलक नहीं है।
ऐसा प्रतीत होता है कि वह बहुत डिटैच होकर सारे यथार्थ को देख रही हैं। लेकिन शायद इसी कथित डिटैचमेंट का यह नतीजा है कि 'पहर दोपहर, ठुमरी' को पढ़कर 'पल दो पल के याराने' जैसा अनुभव होता है और यह भी कि यह कहानी मन्नू भंडारी की आज से पचास-साठ साल पहले लिखी गई कहानी 'यही सच है' का कुछ नए फेर-बदल के साथ पुनरावतार है। मैं यहां फिर कह रहा हूँ कि यह स्वयं लेखिका का पक्ष हो, यह आवश्यक नहीं। यह यथार्थ या कहें कि यथार्थवाद भी हो सकता है। लेकिन जो मैंने पीछे हवाले दिए; उनका आत्मकथ्य यही निर्देशित करता है कि उनका पक्ष इससे ज्यादा अलग नहीं है। इतनी सारी जद्दोजहद और उठापटक और सतर्कता के बावजूद प्रत्यक्षा यथार्थवाद की चौहद्दी के पार जाना सम्भव नहीं कर पातीं! वे यथार्थवाद के गुंजलक में ऐसी फंसती हैं कि फिर इसी की होकर रह जाती हैं। उनके कुछ रचनात्मक आग्रह उन्हें कुछ ऐसे अन्तर्विरोधों से घिरा देते हैं कि 'जंगल का जादू तिल-तिल' में जो सम्भावनाएं उनमें दिखाई दी थीं, जो वैचारिक ऊर्जा, दृष्टि-सम्पन्नता, मूल्यबद्धता दिखाई दी थीं, उसके बाद की कहानियों में ये सब चीजें धीरे-धीरे तिरोहित होती चलीं। उनका तीसरा संग्रह 'एक दिन माराकेश'; जो कि अभी आना है लेकिन जिसकी फाइल उन्होंने मुझे मेल की है; भी कमोवेश इसी यथार्थवाद के इर्द-गिर्द घूमता दिखाई देता है। और इसका कारण शायद यह है कि वे बहुत ही पेशेवराना तरीके से लेखन-कार्य में प्रवृत्त होती हैं। उनका यह प्रोफ़ेशनलिज़्म बिना किसी वैचारिक/भावनात्मक दबाव या आग्रह के उनसे कहानी लिखवा ले जाता है। जैसे उनके पास कोई भारी जीवनानुभव है, कोई अन्तर्वस्तु है, जिसे उन्हें पाठक से शेयर करना है। एक तरह से यह प्रत्यक्षा की ही नहीं, उनके सारे ग्रुप के कहानी-लेखन की एक खास प्रवृत्ति है।
यदि शिल्प-प्रविधियों के इतिहास को खंगाला जाए तो यह काफी-कुछ नई कहानी के अनुभववाद और यथार्थवाद के निकट से निकटतर होगा। एकदम नई कहानी वाला अनुभववाद और यथार्थवाद नहीं है। उसमें कई उत्तरआधुनिकतावादी छौंक लगे हैं और, और बहुत-कुछ नया है। शायद यही कारण है कि उनकी कहानियों में कथावृत्त/कथाविवरण बहुत कम होता है। वहाँ दृश्यांश-विवरण का बोलबाला रहता है, जैसा कि डाक्यूमेंटरीज में होता है। पटकथात्मकता और प्रतीकमूलक दृश्यांश-विवरण उनकी कहानियों में हर जगह छाए रहते हैं। कथानक बहुत की स्केची प्ररूप में दृश्यमान होता है। कई बार लगने लगता है कि प्रत्यक्षा कोई कहानी लिख रही हैं या उसकी पटकथा? उनकी कहानी में परम्परागत इतिवृत्तात्मकता तो खैर होने का सवाल ही क्या, वहाँ नैरेशन और डैस्क्रिप्शन भी बहुत ही कम होता है। वहाँ कुछ दृश्य-बिन्दु होते हैं, इन दृश्य-बिन्दुओं से संकेतित होते कुछ कथा-बिन्दु होते हैं; फिर इन कथा-बिन्दुओं से संकेतित होती कोई कथावस्तु होती है। इसी पूरी प्रक्रिया में पाठक का श्रम बहुत अधिक बढ़ जाता है। लेखिका के दिमाग में कोई दूरगामी कथ्य/अभिप्राय होने का अनुमान होता है, जो व्यक्त हो जाए तो ठीक, नहीं तो कोई बात नहीं! लेखिका अपनी तरफ से तो पूरी कोशिश कर ही चुकी! लेखिका की सबसे पहली और शायद सबसे जरूरी चुनौती यही होती है कि वह खुद को पूरी तरह अभिव्यक्त कैसे करे। अपनी अनुभूतियों का निरसन उसकी पहली और सर्वप्रधान वरीयता होती है। इन अनुभूतियों में अपनी आकांक्षाएँ अपने सपने, लालसाएं, तड़प इत्यादि सब चीजें घुली-मिली हैं। पाठक इन्हें बखूबी और बाकायदा पहचाने; यह उम्मीद किस रचनाकार को नहीं होती? और ऐसी उम्मीद करना कोई ज़्यादती है क्या?
मुझे ऐसा अन्दाज़ा होता है कि प्रत्यक्षा एवं उनके लेखक-साथी हिन्दी की पाठक-बिरादरी से ज़्यादा खुश नहीं हैं। उन्हें लगता है कि उन्हें ठीक से रिसीव नहीं किया जा रहा है। 'रिसीव' करना या होने की प्रक्रिया में कुछ लोग रोड़ा डाल रहे हैं और हमें हमारे अपने हिसाब से न समझा जाकर न जाने कौन-कौन-सी बन्दिशों के तहत व्याख्यायित किया जा रहा है। हिन्दी की नई कथा-पीढ़ी का यह गुट सम्भवत: यह मानता है कि लेखक की सबसे बड़ी बन्दिश तो उसका खुद का आत्म होता हैं, जिसके एकमात्र निर्देशन में आद्यन्त उसे चलना होता है। ऊपर प्रत्यक्षा के हवाले से विस्तार के साथ इस आग्रह पर विचार हुआ है। इस आग्रह से किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। आपत्ति शायद है भी नहीं आपत्ति जिस चीज से है वह यह है कि आप अपने से बाहर किसी और चीज की रत्ती-भर भी परवाह करना नहीं जानते, नहीं चाहते! आपका अपना आत्म ही आपकी रचनात्मकता की एकमात्र कसौटी है और उसके वृत्त से एक कदम आप बाहर नहीं आना चाहते! कोई अगर इस पर कोई सवाल उठाता है तो आप तपाक् से यह कहने पर उतारू हो आते हैं कि क्या पहले से सोचकर, आलोचकों को ध्यान में रखकर, सारे फ्लैक्स कवर कर चालाकी बरतते हुए लिखा जाए!
लेखकीय प्रक्रिया का यह ऐडवेंचरिज़्म आगे चलकर रचना में तरह-तरह के ऐडवेंचरिज़्म की पृष्ठभूमि के काम आता है। इनमें से एक ऐडवेंचरिज़्म यथार्थ-चयन को लेकर है, एक ऐडवेंचरिज़्म यथार्थ-निरूपण को लेकर है और आखिरकार एक ऐडवेंचरिज़्म भाषा और शिल्प को लेकर है, जहाँ ज़रूरत से ज़्यादा क्राफ्ट्समैनशिप कला कला के लिए का उदाहरण पेश करती नज़र आती है। कई तरह की बौल्डनेस हमें प्रत्यक्षा की कहानियों में मिल जाएगी। इनमें एक यौन भी है। 'मीठी ठुमरी' कहानी का यह बिम्ब उनके खुद के रचना-प्रक्रम पर बख़ूबी लागू होता है- ''औरत को लगता है उसकी आत्मा उसके शरीर से निकल कर किन्हीं भूली गलियों की पीली दीवारों के संग चलती है। एक छोटी बच्ची जो फटी आँखों से संसार देखती है। जो दीवार पर हथेली लगाती हर मोड़ पर ठमकती है इस सिहरती खुशी से कि जाने अगली मोड़ के आगे क्या नया संसार होगा।'' (एक दिन माराकेश, लेखिका द्वारा मुझे मेल की गई फाइल; पृ. 15)। लिखने के आनन्द में यहाँ एक तरह का ऐडवेंचर का आनन्द भी है। दरअसल यही आनन्दधर्मिता लेखिका पर यहाँ भारी पड़ती है और बहुत सारी अद्वितीय सम्भवनशीलता एक भिन्न दिशा की ओर उन्मुख हो लेती है; एक ऐसी दिशा, जिसका इस देश की बहुसंख्यक आबादी से कोई वास्ता नहीं! प्रत्यक्षा ने अपनी तरह की कुछ अद्वितीय कहानियाँ लिखी हैं। जैसे-'जंगल का जादू तिल-तिल', 'लाल परी ञ्च रीडिफमेल डॉट कॉम उर्फ ईमेल शीमेल', 'फुलवरिया मिसराइन', 'दिलनबाज, तुम बहुत अच्छी हो', 'शारूख शारूख! कैसे हो शारुख', 'ललमुनिया, हरमुनिया', 'केंचुल', 'मेटिंग रिचुअल्स', 'पहर दोपहर, ठुमरी' आदि-आदि। इतनी सारी अच्छी कहानियाँ एक साथ मुश्किल से उनके ग्रुप के किसी एक लेखक के पास होगी। पर क्या वजह है कि पाठक फिर भी कुछ चीजों के लिए उन्हें टोके बिना नहीं रह पाता। जैसे कि उनकी बहुत ही प्यारी कहानी 'फुलवरिया मिसराइन' का वह तिर्यक अक्षरों में अंकित अन्तिम अंश जिसमें वे अजमेरी और फुलवरिया मिसराइन के मेल की सम्भावना की असम्भवताओं पर विचार करते-करते अचानक तानाशाही पर उतर आती है- ''किसी टाइमवार्प में फूलपुर अब भी उसी एक पल पर ठिठका रुका है। हम पलक झपकाएंगे, झपकाते ही फुलवरिया और अजमेली उस पल से फुर्र से उड़ जाएँगे। हम हँसेंगे, अखबार पलटेंगे, चाय घूँट-घूँट पीएँगे और फिर मगन हो जाएँगे अपने-अपने जीवन में। और इसी देशकाल में, इसी वक्त में किसी और फूलपुर में कोई और फुलवारिया और अजमेरी अपनी हिम्मत पर 'हा' किये आँखें चिहारे थमे होंगे यही समय के इन्तजार में।'' (जंगल का जादू तिल-तिल; पृ. 134)। न जाने प्रत्यक्षा किसे ताने मार रही हैं यहाँ! और इस तानाकशी का औचित्य भी आख़िर क्या है, पता नहीं! यह ठीक है कि पाउलो कोल्हो के हवाले से वे हमें उकसा रही हैं कि हमें ऐसे मामलों में तटस्थ या चुप नहीं बैठना चाहिए, हमें आगे आकर ऐसे लोगों की मदद करनी चाहिए। शायद यह लिखते हुए वे स्वयं को आहत-सा महसूस कर रही हैं कि फुलवरिया और अजमेरी जैसे सम्बन्ध इसलिए ठिठके थमे रहे जाते हैं, वे कभी अपनी सफल परिणति तक नहीं पहुंच पाते कि कोई उन्हें आगे बढ़कर सहयोग नहीं करता! हम अपने ही इर्द-गिर्द इस $कदर मशरूफ़ रहते हैं कि हर समय अपने में ही उलझे रहे आते हैं। हमें ऐसे लोगों की कोई चिन्ता ही नहीं! प्रतीत होता है कि लेखिका अपने निखट्टू पाठकों से सीधे संवाद कर उनमें एक हस्तक्षेपी चेतना पैदा कर कहानी में एक वैमर्शिता लाना चाहती है। लेकिन इस कथित वैमर्शिकता की सबसे बड़ी सीमा यह है कि यहाँ आरोप की भाषा इस्तेमाल की गई है, जो कि सबको एक लाठी से हाँकती हुई सारे मामले को अन्यथाकृत-सा कर देती है। आखिर इस तरह के उद्बोधन की कथारचनात्मक संगति क्या है? सिवाय इसके कि लेखिका एक प्रकार के भावावेश के तहत अपना गुबार निकला दे और बस! यह सारी प्रक्रिया भाववाद के अन्तर्गत भी ली जा सकती है, जो एक गैर-रचनात्मक उपक्रम माना जाता रहा है। लेखिका जिस संकट की ओर यहां इशारा कर रही है, वह इस तरह की तानाकशी से दूर नहीं होगा। उनके चूँकि सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं नृतत्वशास्त्रीय कारण हैं अत: जब तक उन कारणों की खबर नहीं ली जाएगी, इस तरह के भाववादी उद्बोधन का किसी पर कोई असर होने वाला नहीं! इस स्थिति में एक दूसरे के कन्धे पर बन्दूक चलाने से ज़्यादा कुछ नहीं है! इस उद्बोधन के बिना यह एक नायाब कहानी है, जिसमें सचमुच ही पहली दफा एक त्यक्ता स्त्री के दूसरे विवाह की, पहली दफा एक औरत के अपने से छोटे पुरुष का हाथ थामने और पहली दफा एक ब्राह्मण पंडिताइन के एक मुसलमान मर्द का साथ सुख पाने की सम्भावना बनी है! (द्रष्टव्य; वही)।
यहां यह उल्लेखनीय है कि आदिवासी सन्दर्भों पर लिखी गई कहानियों में प्रत्यक्षा सबसे ज़्यादा संतुलित, रचनात्मक रूप से सावधान और दृष्टि-सम्पन्न नज़र आती हैं। वहां कोई आस्फालन दिखाई नहीं देता, कोई बड़बोलापन, कोई भाववाद दिखाई नहीं देता। 'जंगल का जादू तिल-तिल', 'दिलनवाज, तुम बहुत अच्छी हो', 'शारूख शारूख! कैसे हो शारूख', 'आईने में' में आदि कहानियाँ प्रत्यक्षा की ही नहीं, हिन्दी की भी उल्लेखनीय और श्रेष्ठ कहानियाँ कही जाएँगी। ये कहानियाँ यथार्थवाद, भाववाद, आत्मवाद इत्यादि कई छूत की बीमारियों से मुक्त हैं, लिहाजा पाठक से अत्यन्त ही गहरा राब्ता कायम करती हैं।


शंभु गुप्त वर्तमान में हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में महिला अध्ययन विभाग में प्रोफेसर हैं। पहल के कथा समय में प्रकाशित। भरतपुर राजस्थान से आते हैं और अर्जुन कवि पर बड़ा ग्रंथ संपादित किया है। 'मैंने पढ़ा समाज' चर्चित कृति है।


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