मुखपृष्ठ पिछले अंक कहानी कुछ भी नहीं के विष दंत
जनवरी 2015

कुछ भी नहीं के विष दंत

अपर्णा मनोज

 

1.

मैं यहां से शुरू हुई :
एक अतीत मुझे सोच रहा है। लगातार.. जैसे तस्वीरें दीवार को सोचती हैं।
आधी रात बीत चुकी है मुझे नींद का ज़रा भी इंतज़ार नहीं। मुझे अभी बहुत कुछ लिख लेना है, वह सब जो अलिखे की तरह चुप रहा।
कमरे में दीये का अस्थिर प्रकाश मुझमें भरता जा रहा और मैं इस रौशनी से उतनी ही दूरी पर बैठी हूँ जितनी दूरी पर मेरी कांपती परछाईं पीठ के पीछे गिर रही हैं... इसे कोई और देखेगा और मैं बस महसूस करूँगी, गंध की तरह। अनसुनी भरी पूरी स्त्री हूं मैं। तुम्हारे चौकन्ने कानों के लिए मेरे भीतर का धमाका अश्रव्य ही है।
देखो, बाहर अंधेरे आकाश में कोई  टिटहरी जोर-जोर से लगातार टिट-टिट कर रही है... टिट-टिट, मैं हवा और रात के इस परिंदे को सुनती रही ऐसे जैसे अंधेरे में एक स्त्री की टिट-टिट को अंधेरा सुनता है और अपनी कोठरी से बाहर नहीं जाने देता... जैसे रुदन और दु:ख दबाये जाने के पर्याय हों। तब जबकि औरत का गर्भ अंधेरों की सबसे बड़ी सुरंग हैं; दुनिया के सबसे खूबसूरत प्रकाश को बाहर फेंकता... ये तुम्हारे प्रोमिथियस की स्वर्ग से चुराई आग नहीं जो उसने इंसानों के बीच बांट दी थी... अरे बुत-शिकनों-बुत-परस्तों... ये औरत के गर्भ में जलने वाली आग है, जिसमें उसने अपना दिल झोंक डाला.. कि माटी घड़ों से दुनिया की प्यार बुझती रहे।
दर्द की लकीरें कलम खींचती रहीं और फिर सब छोड़ पलभर को वीराने में खो गईं।
थोड़ा सा लिखकर मैंने कलम कागजों के बीच खो जाने दी। मैं अपनी उंगलियां चटखाती रही और कुछ भी सोचने पर रोक लगाती रही।
मुश्किल था ये...अपने ही को लिखना, वो भी अपने शहर को लिखना जिसे छूटे सालों बीते थे और आज अचानक जहां में लौट आई थी।
कुछ भी नहीं की ये स्मृतियां ग्यारह साल के फ्रेम में बंधी हैं। फ्रेम के बाहर की दीवार इसके होने का सख्त अहसास है।
मैं कौन हूं?
एक दिल हूं
या दिल को धोका देता दिमाग हूँ...और इनके बीच का 'या' जैसे एक पुल... हम सब ऐसे ही पुलों पर चलते हैं। मैंने खुद को छूकर देखा। वहां धड़कन ऐसे सुनाई दे रही थी जैसे वर्तमान के पैरों से पीछे छूटा समय पुकार रहा हो। धत दिल फरेब मैं..धत पतनशील संस्कृतियों की मीठी पवित्र बांसुरी मैं और अपने इस धत पर मेरा जी किया कि हंसू... इतना जोर से हंसू कि इस बीहड़ मन के उपाश्रय के सारे स्तवन चौंक कर मुझे देखें...
मैंने कुछ भी नहीं लिखा था। कोरे पन्ने अब भी मेरी उंगलियों में फंसे थे और मैं बस सोच रही थी। मेरा दम घुटने लगा। बस घुटने लगा। बार-बार मेरी उंगलियां ज़मीन पर अपने शहर का नाम फेर रही हैं... जल्दी-जल्दी। शहर इसी जल्दबाजी में लिखे जा रहे हैं। जैसे हम सभी को एक जल्दबाजी है, तसल्लियों से ऊबे हुए लोग हैं हम।

2.
वह पुराकथा सी कौन :
मैं सोच रही थी...एंड अ फीबल फेबल ऑफ़ माय लैंड वास फोलोइंग माय परसोना।
धीरे-धीरे शहर हुस्न और हुजून के साथ मेरी रगों में उतरने लगा था, मादक, नशे की तरह। ये शहर जहाँ मैं आज ग्यारह साल बाद अचानक छोड़ दी गई.. कुछ भी याद करने के लिए, जैसे एक वीणा वर्षों पहले तोड़ दी गई थी और विच्छिन्न तार उसकी गर्दन में लपेट कर रख दिए गए थे। जैसे इन्हीं तारों को मैं हाथ में लिए बैठी थी कि जुड़ जाए कुछ...
याद भी आया तो शेखों का पाड़ा- वही सांप की तरह दौड़ कर बांबियों में गुम हो जाने वाली साफ़ सुथरी गलियां, मैला ढोती सोलह-सत्रह की आलिया...जिसे देख परेश बाबू की आंखें चमकने लगतीं, देरासर में भगवान् का मुकुट बनाते भगत काका के हाथ से मोतियों की लडिय़ां छर्र-छर्र कर संगमरमर के फर्श पर दूर तक बिखर जातीं... कि आलिया थी जो मृगनयनी सी आंखें डुलाती परकोट की हर पोल और हर खिड़की (मुहल्लों में बसे मोहल्ले) में बांस पर अपनी पकड़ बनाये जीवन की गंद बुहार रही थी। गलियां साफ़ हो रही थीं और उन पर आलिया की परछांई गहरी काली होती पसर रही थी।
आलिया, मेरी हवेली के पखाने को साफ़ करती हुई... अपनी कहानियां उड़ाती, पौ फटते ही मुहल्ले में चली आती और दोपहर बाद कहां खो जाती...अल्लाह जाने!
हम लोग इतना भर जानते थे कि वह हमेशा के लिए अपने मायके चली आई थी। सतमासा लड़का वह ससुराल छोड़ आई कि अपने खसम की और गुलामी नहीं कर सकती... जिसे बेटे की ललक हो वही रखे...
बाद में मैंने कई बार आलिया को देखा कि चोरी-छिपे अपने स्तन दबा-दबा कर दूध कटोरे में इकट्ठा करके गली की पिल्लों को पिला दे रही है... वह भी मुझे देख लिया करती थी पर कहती कुछ न थी। उसका चेहरा कहता था कि अभी फ़फ़ककर रो देगी, लेकिन एक मुस्कान फेंक वह नालियों में फंसे प्लास्टिक निकालती और इतराती हुई जाने कहां खो जाती...
आलिया तीन लफ़्ज़ों जितनी छोटी थी या तीन दुनियाओं जितनी बड़ी!
बहरहाल मेरे अन्दर वह पसर कर सो गई थी।
सोयी हुई औरतों को मैंने कभी सोया हुआ नहीं पाया, जैसे नींद में भी उसे एक घर जगा देगा और वे इसमें ताउम्र चलती रहेंगी।

3.
मैं भिक्खुनी: दबी वासनाओं के बीच मन मेरा:
अब मैं आलिया को क्यों याद कर रही हूं, ये सोचते हुए मैंने उसे अधूरा ही आने दिया या अधूरा ही मन से निकाल फेंका।
अब मैं खुद को सोच रही हूं। आलिया कहीं तुलना की तरह आई थी शायद...
मेरी आंखों में नींद नहीं है और हद दर्जे की यातनाएं मेरी अंतरात्मा पर चाबुक बरसा रही हैं। कि एकाएक मैं कहां पैदा हुई थी? कौन से खिलौने मेरी झोली में गिरने थे? कौन से खिलौने टूट जाने थे? कुछ छिन जाना था और कुछ बच रह जाना था। निरुद्देश्य, पता नहीं किसके लिए हम खर्च हो जाते हैं?
परवाने समय तू ही मेरी मुक्ति है... मुझे गौर से देख। मेरा नाम पढ़।
दाएं बाजू पर उधड़े अपने नीले-हरे नाम को सहलाते हुए मैं सोचने लगी - एक यह नाम है, जो मेरी गोरी बांह की सबसे नीली नस पर गाढ़े नीले रंग से मेरी मां ने गोद दिया था, जिसे मैं छिपाए घूमती रही हूं। और एक नाम दुनिया का दिया, जिसने यतीम उजालों के जाल को मेरे चारों तरफ बुन दिया है, जिसने मुझ पर फूल बरसाए... जिसने मुझे आर्या चन्द्रप्रभा श्री बना दिया... मेरे इस नाम की जय। एक विद्रूप मुस्कान मेरी कनपटी तक दौड़ गई। मेरे गालों की उठी हड्डियों में गहरे तक एक बरछी उतर गई। एक शहर टेढ़ा होकर मेरे दिल में लेट गया... उससे बचने के लिए मैंने करवट ली.. अपने हाथों का तकिया बनाकर, नींद की तलाश में मैं रात से लड़ती रही।
कहां नहीं यह मन भटका किया...
आज दोपहर से मैं इस शहर में हूं। मेरे बचपन से युवा होने तक का हमजोली। मैं इसके आकाश की आंखों में आखें डालकर पुराने हिसाब निबटाना चाहती हूं। अपने सोलहवें में मैंने जिस अमलतास को दाएं पैर के अंगूठे से छुआ था और जिसकी हर डार पर सोने के गुच्छे ज़मीन की तरफ झुक आये थे उसे अब अपने बाएं पैर के अंगूठे से छूना चाहती हूं कि सत्ताईस के गुदगुदे स्पर्श से इस पेड़ का क्या अपशकुन हो जाना है... जाने मुआ पेड़ रहा भी या नहीं...
पेड़ की ओट से झांकता मेरी सहेली का प्रेमी... मैं उसे जानबूझ कर याद कर रही हूं, पर कमाल कि शरीर के किसी कोने में उसका इस तरह आना न दु:ख है और न सुख... पर मेरी इच्छा है कि वह मन के कोने में घास की तरह फ़ैल जाए। उसे मैं उखाड़कर कैसे फेंक दूं?
सस्मित, मैंने उसकी तस्वीर को दिल के खांचे से बाहर निकाला। उस पर गर्दन का झुटपुटा न था। विगत की झोली में वह गुड्डे की तरह पड़ा रहा था अब तक।
गोरा-चिट्टा, हलके भूरे बाल, काली बड़ी आंखें-आकर्षण के लिए सोलह की उम्र के लिए इतना काफी है। इंतजार वह सहेली का करता और कनखियां उसकी मुझसे चिपकी रहतीं। बदले में मैं अपने घुटने तक लम्बे बालों की मोटी गुथ आहिस्ते से गर्दन में लपेट लेती। कभी मुस्कानों की अदला-बदली हो जाती, लेकिन वह प्रेम मेरी सहेली से ही करता था। उन दोनों को देखकर मैं सोचती या खुदा ये कैसी रौशनी है जो मुझ तक भी चली आ रही है? मेरे दिन क्यों भरे-भरे हैं? मेरी रातें ख्वाब-शहर? फिर मैं जम्बक जैसे दिल वाली शुभी का सोच कर कांप जाती - कि दुनिया इन्हें जीने देगी? क्या ये किसी अनजाने देश को भागने के लिए बने परिंदे हैं? ये किस जाति के परिंदे हैं? ये कहां जाते होंगे? कौन सा पेड़ इनका ठिकाना होगा। इनकी रूहें निर्भीक हैं और शरीर दर्द से आज़ाद। पर एक दिन शुभी ने सहजता से मेरे मन की गुत्थी को सुलझा दिया था। उस दिन वह मुझे देव कन्या लगी। रहस्यमयी, जिसे बहिष्कृत होने का खौफ नहीं। ''देखो, जो दिल कहे वही करो। मुहब्बत में तो खासकर।'' उसकी मुद्रा दार्शनिक की सी थी और लहज़ा लडऩे को तैयार बैठे योद्धा जैसा ''... प्रेम का पालदार लड़ाकू जहाजों से क्या वास्ता... वह तो खुद समंदर है। चांद के बहाने उसकी लहरें कहां तक नहीं उठ जातीं। उसके भीतर तैरते ये जहाज़... क्या हस्ती है उनकी? प्रेम ही है मेरी बन्नो, जो इन जहाजों को सागर के कायदे सिखाता है... चलो छोड़ो, और काम की बात सुनो... हम भाग रहे हैं। इस राज़ को अपने तक रखना।'' फिर वह मुझसे गले मिली। उसने मेरा माथा चूमा। बिना आवाज़ के रोई। और फ़रिश्ते की तरह चली गई। एक टिकट की छपाई मुझे परेशां करती रही कई दिनों तक, सालों तक- ्रष्ठढ्ढ टू क्च॥छ्व..आला हज़रत... रेल की पटरियों का नेपथ्य कितनी देर घनघनाता है? जितना कि एक जीवन जी लेने के बाद इंसान की स्मृतियों का बचे रह जाना। मैमन के साथ भागती लड़की। पीछे छूटती हुई लरियानी खिड़की, खिड़की के बाहर पोल, पोल के बाहर छूटती तमाम जिंदगानियां... घी कांटा, पॉजरपोल, शाहपुरा... फिर काटती-कटती न जाने कितनी सड़कें.... एक छूटा शहर और इस छूटने में हमारे न छूटने का संघर्ष...
उसके जाने के बाद, रातें मेरी अक्सर ख्वाबों के साथ जूझते निकलतीं। कभी देखती कि एक नमकीन रेगिस्तान है... फिर उसके भी पार खारा समंदर, मीलों फैला... और उसके भी परली पार सरहद की तरह डरता, अजनबीपन में डूबता-उतराता एक काला डूंगर... दूर-दूर तक बावळ की कंटीली झाडिय़ों  के सिवा कुछ नहीं है और हलकी पीली रोशनी डूंगर से उतर कर आ रही है। वहां एक साया घुटने मोड़े बैठा है। उसके हाथ में पीतल की थाली है। वह उसे पीट रहा है... टन-टन-टन... आवाज़ों से नमक का रेगिस्तान कांपता है और फिर रातकी छागळ में चुप सो जाता है... झाडिय़ों में छिपे सियारों का झुण्ड इस आवाज़ के पीछे पहाड़ को दौड़ रहा है। हू हू टन टन के स्वर के साथ एक युवक के रइने (रोने) की आवाज़ साफ़ सुनाई दे रही है... अचानक किसी ने तांत से मेरी गर्दन को जकड़ लिया है और तेंदू की पत्तियों का रस मेरी जीभ पर निचोड़ दिया है... मैं फटी आंखों से देख रही हूं... शुभी माटी गाड़ी में सोयी हुई है। सफ़ेद पत्तों से उसका शरीर ढका है.. गाड़ी एक कब्र में उतर रही है धीरे-धीरे... उसके बाद शांति का और कोई छोर नहीं.. और और... आकाश से गिरता हुआ एक बुरका मेरी नग्न देह पर, जैसे मैं स्त्री नहीं एक भरापूरा पर्दा हूं... भय से मैं उठ जाती और घंटों अपनी गर्दन छू-छू कर देखती। अपने उस शरीर को छूती जहां कपड़ों के सिवा और क्या था? बुदबुदाते हुए मैं शुभी के लिए अल्लाह से लम्बी उम्र मांगती और उस नौजवान के लिए न जाने क्या क्या... दिन भी मेरे आधी नींद और बेचैनियों में रीत जाते। घर के बाहर अमलतास से रोज़ फूलों की बारिश होती और मैं उन्हें देखकर घंटों आंसू बहाती। बुरका मेरी अनुभूतियों की आड़ का दोस्त हो चला था... और इसी बुर्के से मैंने पूछा था कि शुभी के जाने से मैं इतना दुखी क्यों हूं?
बुर्के ने कहा - तू भूरे बालों वाले के लिए दुखी है। उसकी मुस्कानें तुझे तंग करती हैं... उसकी आंखों के नशे ने तुझे मतवाला कर दिया है... जा, उसे भूल जा।
मेरे भीतर एक प्रबल भिक्षुणी बैठी है, इसका इलम मुझे उन्हीं दिनों हुआ.. और मैं इस प्रेम से भाग छूटी।
इत्यलम।

4.
यात्रा के बीच में
1.
न मैं लिख रही थी और न सो पा रही थी..
विगत मुझ पर हावी क्यों है? दो बार मुझसे प्रायश्चित करवाया जा चुका है.. दो बार मैंने दुनिया को छद्म और खुद को आत्म सम्मान से विभूषित किया है... दो बार मैं अटल सिद्ध हुई! ये बात अलग है कि अपने इस अपराध के लिए मुझे पज्जूसण़ के पर्याप्त मौके मिले।
ध्यान हटाने के लिए मैं अपनी पिछली यात्रा याद करने की कोशिश करने लगी, जहां से मीलों चलकर आज सुबह ही हम सब लौटीं थीं।
हमारी यात्राएं भी पलायन के बंदीगृहों में खुद से भागने की सुशिक्षा है। दमन की चक्कियों में हमने अपनी रीढ़ डाल दी है और नमक की तरह शफ्फाक हमारी राख ने दुनिया को खालिस कुटिल- मिथ्या- धोखा घोषित किया है। दुनिया के पेट में रोज़ यतीम बच्चे मर रहे हैं... दुनिया की छाती पर रोज़ कुछ बिकी हुई औरतें अपना सिर रखे सो रही हैं। दुनिया के बेबस हाथों में अपने नन्हें हाथ दिए छोटी-छोटी लड़कियां कातरता से अपनी छातियां ढंक रही हैं कि उन्हें घूरे जाने की अंतर्दृष्टि ने खास तरह के खतरों से लडऩा सिखा दिया है। दुनिया के जिगर में कई मर्द कुछ न कर पाने की पीड़ा में छूत के विषाणुओं में बदल चुके हैं और दुनिया को लगता है कि ये महज मौसम परिवर्तन है - एक बादल फट गया है, बस्स...निगोड़ा बादल फटे, सच में फटे और बहा ले जाए इस दुनिया को... दुनिया के जिस्म को कोढ़ फूटे... कुंठाओं की अजीबो-गरीब भाषा पर फाज़िल गिरे.. अपने आंखों को स्पर्श करता अनायास मेरा हाथ अपने गंजे सिर पर गया... कुछ पल इसे सहलाती रही, जैसे अपनी किसी अतृप्त इच्छा को ही सहला रही हू्, स्मृतियों के जंगल से नागिन की तरह लहराती काली मोटी चोटी फुंफकारती हुई मुझ तक चली आई। मेरी पीठ को दाग-दाग करती... ये विष दंत मुझे जीने नहीं देंगे....

2
इस रात की फैंटेसी से खुद को मुक्त करने के लिए मैं ज़मीन पर लेट गई। मैंने करवट ली। पैर सिकोड़कर पेट में फंसा लिए...इस बार मैं सफल हुई और एक ही करवट में मैंने अपनी रूह से शहर को काटकर अलग कर दिया। अब मैं अपनी उस यात्रा के साथ थी जिससे मुझे नए किस्म का आत्म ज्ञान हुआ था। यात्रा के कोलाज़... मेरी आंखें उन कोलाजों को टटोल रही हैं। यादों के रंग सूखते कहां हैं? सब याद आता रहा... चित्र चलते रहे... चित्र मिलते रहे... पता नहीं कितनी कीलें अपने दिमाग में ठोक ली हैं मैंने कि हज़ार मसीह बदलती तारीखों की तरह आकर टंग जाते हैं और हजारों का पुनरुत्थान हो जाता है।
एक काफिला है हमारा और मैं उसके साथ हूं। हम सब चल रहे हैं। कुछ हाथ में लकड़ी थामे, पैदल तो कुछ को डोलीवाले लिए चले जा रहे हैं। मैं भी डोली में हूं। मुझे बुखार है और मेरी देह बुरी तरह टूट रही है। दिन में भी हम लोग हाथों में टॉर्च लिए हैं... ये एक जंगल है। बहुत काला घना जंगल। ऊपर को उठा हुआ। हमें ऊपर को चढ़ते चले जाना है। शिखर हमारे मंदिर हैं। बीच-बीच में सन्नाटे को चीरती घुंघरुओं और झींगुरों की आवाज़... गोल डोंगे के आकार की डोरियां, जंगल-पुत्रों के मजबूत काले कंधे... उनके पैरो से हुम-हम का गीत अपने आप उठता है। जिन दो ने मुझे उठा रखा है यानी जिनकी डोली में मैं हूं वे तो मुझे बाप-बेटे लगे... उनके हांफने की आवाज़ यहां की हवाओं की आवाज़ की तरह प्रबल है... बीच-बीच में कुछ टूटे-फूटे शब्द... बूढ़ा मुझसे बात कर रहा है। क्या वह कहता है और क्या मैं समझती हूं? हमारे बीच की खाई को बेटे की अकारण खौ-खौ-खौ पाटने की कोशिश करती है। उसकी बातों से मैंने इतना जरुर समझ लिया कि यदि हम इस घने जंगल में भटक जाएं तो कुत्तों के झुण्ड अचानक आकर हमें सही रास्ता दिखाने लगेंगे और फिर अदृश्य हो जायेंगे। लेकिन ऐसा तभी होगा जब हमारी आत्माएं पवित्र हों और हमारे दिल मुहब्बत से लबरेज़... कोई नहीं जानता ये देव कुत्ते कहां से आते हैं और कहां खो जाते हैं... जब वह बता रहा था कि कुत्ते खुद पवित्र आत्माएं हैं तो मैं सोच रही थी कि दुनिया के पहाड़ों पर जहां सूरज रोज़ सबसे पहले उगता है वहां जान की ऐसी समझ दु:ख में सुख की तरह ही तो है... पर उसका बताने का अंदाज़ न जाने कैसा था कि मुझे थोड़ी-थोड़ी देर में लगता कि देव-श्वानों के झुण्ड इसी तरफ भौंकते चले आ रहे हैं... जैसे सारा जंगल भौंक रहा है। रह रहकर अपने सफ़ेद उत्तरीय को मैं और कस कर लपेट लेती, निर्जन विपन्नता के इस जंगल में मेरे निर्मम सफेद वस्त्र थोड़ा हिलते ऐसे जैसे किसी निस्तब्ध पेड़ से अचानक फड़-फड़ कर किसी पंछी का अपनी गर्दन को आगे निकाल आकाश में उड़ जाना.. जैसे चीं-चीं कर कई जनजातियां उड़ रही हैं और यकायक कई छर्रे उन्हें भेदते हुए जंगल को एक संकेत ''?'' में बदल देंगे। जंगल की मिट्टी अपनी तेज़ गंध के साथ मेरी देह में घुस रही थी।
हलकी बारिश होने लगी थी और लाल-काली मिट्टी से खुश्बू आ रही थी। मैंने उससे कहा, ''ये सुगंध हमारे यहां की बारिशों से अलग है...'' वह मेरी सूरत देखता रहा। उसने डोली नीचे रख दी। मुस्कराते हुए ज़मीन से कुछ लाल केचुए उठाये और मेरी गोद में डाल दिए फिर बाप-बेटे वहीं एक चट्टान पर सुस्ताने लगे। मैंने फिर पूछा- ''पास में कोई नदी है क्या? पानी की कलकल सुनाई दे रही है...'' वह अब भी चुप था पर उसके चेहरे पर रेखाएं तरह-तरह के आविल भावों के दर्दभरे संकेत दे रही थीं... उन पलों में मुझे वो किसी आदिम गुफा के भित्तिचित्र की तरह लगा जिसे मैं पर्यटक की तरह देख सकती हूं पर उसके भीतर के इतिहास में अनभिज्ञ केवल इतना मना सकती हूं कि सदियों से यही निर्विकार भाव लिए ये ऐसे ही दिखते हैं... जिन्हें देखने पर भय-औत्सुक्य की मिश्रित तरंग झुरझुरी पैदा करती है... इनसे डरा ही जाना चाहिए... इनका रंग, इनकी बोली... इनके आस-पास सब कुछ बहुत अप्रत्याशित है। उसका लड़का अब बांसुरी बजा रहा था... पता नहीं क्यों मुझे लगा कि सेमल-महुए के पेड़ों के पीछे से लाल फूलों पत्तियों से ढकी मधुबन की देवकन्याएं आएंगी... वे खूब देर तक नाचेंगी और वातावरण जादू टोने से अभिमंत्रित होगा... लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। बांसुरी की आवाज़ जंगल के अंधेरे को तोड़ती प्रीतिकर मालूम पड़ी, हम फिर चल दिए और बूढ़े की कहानियां फिर फिर शुरू हो गई... ''गौरमेंट हम लोगों के लिए क्या नहीं करती?'' दवाइयां, अनाज सब मुफ्त... पर बीडीओ साहिब का चौकीदार कहता है कि इत्ती निगरानी के बाद भी न जाने कौन सब चुरा ले जाता है... गांव में भूत रहते हैं। तमंचे वाले। चौकीदार ने उन्हें खुद देखा है। हम सबने भी देखा है। मरियल से, छोटे कद के.. नंग-धडंग भूत...
महाराज जी, हमारे गांव में कोयले खदानों में काम करने वाले लोग रहते हैं। कुछ थोड़े हमारे जैसे भी... डोली वाले।
''आदमखोर जंगल है ये... पहले नहीं था, अब हो गया.. गांव के मर्दों को चबा जाता है। लड़कियों का बलात्कार करता है। यहां बच्चों का बड़ा होना अभिशाप है। महाराज जी, काला जंगली रंग कितना निरीह है कि दुनिया का कोई साबुन इसकी गुलामी को धो नहीं सकता...'' कहकर वह अपना हाथ मुझे दिखाने लगा जो वाकई भीतर तक काला था। फिर शांति छा गई। कभी-कभी हूप-हूप.. लंगूरों के बोलने की आवाज़ सुनाई पड़ती या फिर चौंकाने के लिए मोर का केकारव...
उसने अपनी अधूरी बात पूरी करते हुए सन्नाटा तोड़ा... ''गांव की विधवा औरतों पर भी इसको तरस नहीं.. उनको डायन बना देता है.. उन्हें बांधो-पीटो, चाकू से नस काट डालो पर क्या मजाल जो खून की एक बूंद भी कटोरे में गिरे..'' उसका गला भर्रा आया था और शायद वह रो भी रहा था.. मुझे उसकी मछली की तरह चमकती नंगी पीठ और मजबूत कंधे ही दिख रहे थे... वह बोला, ''मेरा बड़ा बेटा खदान के पानी में डूब गया और उसकी बहू तब से डायन है... मारपीट से काबू नहीं आती... हां, इसकी बांसुरी पर ऐसे सो जाती है जैसे छोटा बच्चा। वह चुप हो गया। सपाट चुप्पी फिर पसर गई। बहुत गहरी और उसके बदन के रंग की।
उसे याद करते हुए इस समय मैं बहुत बेचैन हूं और उससे भी ज्यादा उसके बेटे के लिए... जो मुझे गूंगा मालूम हुआ। लेकिन बांसुरी अच्छी बजाता था। सोच रही हूं कि विधवा डायन... बहू से इस गूंगे के ब्याह में क्या हर्जा है? खैर...

3
मेरे साथ स्मृतियों के विष दन्त हैं बस, स्मृतियों का पूरा नागमंडल मेरी देह से चिपका है और मैं विषकन्या हो गई हूं।
गूंगा और उसका बेटा लौट गए। मेरी आशीषें पा वे संतुष्ट दिख रहे थे। उनकी कृतज्ञता के सामने मैं बौनी थी। शिखर से थोड़ा नीचे को एक नाला बह रहा था। आस-पास हरी चट्टानें। सब कुछ बहुत पावन, वाकई। मन हुआ कि ऊंचे पेड़ों के नीचे बैठ मैं किसी को पुकारूं.. मेरी आवाज़ झींगुरों की आवाज़ के साथ दूर-दूर तक पहुंच जाए...
कंठ में दो नाम भरकर मैं चिल्लाई- आलम-शेख.. फिर चिल्लाई शेख-आलम... मेरे दोनों हाथ होठों पर शंख की तरह लगे थे और मेरी आवाज़ को पंख लग चुके थे। मेरी आवाज़ घूमकर आती और आंखों के बादल से टकरा जाती.. मेरे आंसू फट चुके थे। मेरी पुकार.. उस जैसा गीला और क्या होता?
मैंने खुद को संभाला.. तेज़ी से घूमता चकडौल अचानक रुक गया। क्षितिज और मेरे बीच आंखों का ही निर्विकार फासला था.. मैं बस देख रही थी। पेड़ों के झुरमुट से लाल पंडाल झाँक रहा था। मंदिर के कलश बादलों के बीच तैरती बतखों का आभास दे रहे थे। घंटों की आवाज़ ऐसी जैसे नदी के तट पर वात्स्यायन बैठा नदी के कटोरे को बजा रहा हो। आत्मा श्री ने मुझे आवाज़ दी, ''यहां बैठी रहोगी क्या? उपाश्रय में सब हमारा इंतजार करते होंगे।'' हां, मां बोलकर मैं उठ गई और हम दोनों गंतव्य को चल दिए।
उस रात पेड़ों की सांय-सांय ने मुझे सोने नहीं दिया। बुखार भी जोर पकड़े था। आत्मा श्री मेरे सिरहाने बैठ स्नेह से सिर दबाती रहीं थी। उनकी नाजुक बूढ़ी उंगलियों के स्पर्श से दिनभर की थकान जाती रही। मैं उनके लिए सोच रही थी- आत्मा श्री भिक्षुणी कम और विधवा ज्यादा दिख पड़ती हैं.. उनके चेहरे पर सब लुट जाने का स्थाई भाव है और आंखों में कातरता का प्रशांत समुद्र... जैसे दीपघर को खोजता कोई नाविक एक दिन इधर चला जाएगा और मनघर फिर आबाद होगा। उनका स्पर्श हमेशा बर्फ की तरह ठंडा और कंठ... उसके जैसा और कुछ नहीं। कुछ भी तो नहीं।
अगले दिन शिखर का अटूट एकांत कोलाहल में बदल गया। आस्थाओं का शोर बड़ा भयवाह होता है। कबूतरों के दड़बे में जैसे अजगर आ बैठा हो.. और कबूतर मुक्ति...मुक्ति..मुक्ति गूं...गूं करते अजगर के मुख को आकाश मान बैठें...
मुक्ति दुनिया का भव्यतम तमाशा है। इसे हर कोई भोगना चाहता है, खेलना चाहता है... अपनी-अपनी तरह से.. आज इस निर्जनता के पहाड़ पर सब पुण्य कमाने आये थे। पुण्य कमाने का भी एक बड़ा आर्थिक आधार है। आर्थिक इतिहास है, आर्थिक नृविज्ञान है। यहां भी विषमताओं का जंगली मुक्तिवाद। मुक्ति को मैं बहुत रिलेटिव मानने लगी हूं।
पंडाल में हम सब इकट्ठे हो चुके थे। दुल्हन के लिबास में चार लड़कियां हमारे सामने खड़ी थीं। उनमें से एक (उम्र बामुश्किल 17 से अधिक न लगती थी) का मासूम चेहरा तपे-तपाये बीज के मानिंद फूटने की सौ किरणें लिए अंधेरों से विद्रोह करने का आतुर लगता था। मेरे दिल ने साफ़-साफ़ कहा कि जैसे खेत की चिडिय़ा दाने चुगकर उड़ जाती है, ये लड़की यहां से फुर्र हो जानी है.. उसकी मुस्कान में कटार छुपी थी और उसकी आंखें किसी का जिगर खाकर बेखौ़फ़ जान पड़़ती थी। मैं उसी को एकटक देखती रही।
मांदर और सांरगी की धुन पर मंथर गति से जन समूह नृत्य कर रहा था। भक्ति की हवा कटहल के पेड़ों से होती घाटी में उतर रही थी। फिर ये लड़कियां नेपथ्य में चली गईं। दुल्हनों के वस्त्रों की बोलियां लग रही थीं.. वाह रे दुनिया तेरी पवित्रतम बोलियां? अचानक पंडाल में सन्नाटा छा गया। लड़कियां लौट आयीं थीं अब। सफेद वस्त्रों से लिपटी... सिर के घने बाल गायब थे। हाथ जोड़े। चुप। खूब कृतज्ञ - कि उन सभी की विशेष प्रीत ने उन्हें सत्य की खोज के लिए प्रेरित किया।
रुपसी दुल्हनों क्या दूं तुम्हें?
लो ये गुड़ धानी..अपने आंचल में भर इसे पीछे उछाल दो... अपनी वासना उछाल दो.. सभ्यताओं की दुनिया इसे लपक लेगी...
तुम एकदम खाली और खूब पवित्र हो अब।
देखो तुम्हारे स्वजन... परम पिता, मां, भाईवृंद अश्रुपूरित विदाई के लिए तत्पर हैं..
कोहरा घाटी में उतर रहा था। उसके उतरने की कोई आवाज़ न थी। कोई निशान न थे.. दिन का प्रकाश वह दबोच चुका था।

4
पहाड़ों के उस महा तीर्थ से लौटने में हमें कई दिन लगे। हमारे साथ ही वे बच्चियां भी आयीं..उनकी मेंहदी अब भी थोड़ी बची रह गई थी और मुंह सफेद पट्टी से इस तरह बंद कि रह रहकर मुझे एकलव्य याद आता, जिसने गुरु की भक्ति में एक कुत्ते का मुंह तीरों से बंद कर दिया था और गुरु ने उसका अंगूठा ही कटवा लिया... हमारी आस्थाओं का सबसे बड़ा मिथ..

5.
बाकी की बची रात:
रात एक चौथाई शेष है...
इस समय पत्थर का तकिया पूरी तरह गीला है और वह मेरे गंजे सिर को सहला रही हैं। आत्मा श्री... मेरी महतारी, जिसने मुझे बचाया था कभी। मैंने उन्हें देखा और दो निश्चल हाथों ने मुझे अपने में समेट लिया। उस स्पर्श ने उलाहना भरे स्वर में कहा - ''अकेले ही सब सह लोगी?''
मैंने हिचकियों में कहा, ''वो कैसा दिन था? और ये कैसी रात है, माँ?''
वह मुझे दुलार करती रहीं, गंजे सिर को सहलाती रहीं.. और फिर एक दृढ़ स्वर उभरा - ''जाओ, भाग जाओ यहां से...''
''क्या?''
मैं अवाक थी, वो अटल...
पर कहाँ?, मैंने पूछा, बहुत धीमे और बहुत लडख़ड़ाते।
''वहां, जहां की स्मृति में तुम अब भी सोलह की हो।''
रुंधे कंठ से कहा, ''आत्मा श्री...अब कौन होगा वहां?''
''र स खा न... वही इंडिया स्कूल वाली छोटी रसखान मिलेगी तुम्हें। लौटना मत।''
मैंने कहा, ''हां, स्कूल के रजिस्टर में जहाँ दर्ज हुआ था - पिता का नाम - आलम। माँ का नाम.. शेख.. और मेरी पहचान बनाती ब्लैक एंड वाइट पासपोर्ट साइज़ तस्वीर...'' स्कूल का कलरव तेज़ होता गया और उन्माद में मैं आत्मा श्री से कस के चिपट गई.. भयानक था अपनी ही सिसकियों में डोलना...
बादलों से अचानक बिजली लपकी और मेरी बांह पर लिखा ज़हर के रंगका नाम और गाढ़ा होकर झाग-झाग हो गया... र स खा न... अम्मी ने दिया था ये नाम मुझे।
आत्मा श्री तुम इंसान ही हो न... और मैं उनकी गोद में दुबक गई। स्त्री की गोद...

6
अगला दिन : मन दोहराता रहा जिस कथा को
1
मेरे कदम मंथर गति से शहर को उठ चले हैं...
शहर मेरे लिए रास्ता छोड़ता जा रहा है... जैसे वह मुझे पहचान गया हो। पर मैं उसे पहचान नहीं पा रही थी। साबरमती कहीं दिखाई नहीं देती थी.. कौतुक की तरह भी नहीं.. वह अब नहर हो गई थी। नर्मदा से जल उधार लेकर उसने अपने शहर की सीरत ही बदल डाली थी। और शहर में.. वहां न जाने कितने पुल उग आये थे... पर जोडऩे वाला कोई न था। हवा में पेट्रोल और मिट्टी के तेल की जैविक गंध थी, पर सांस लेने की बेचैनियां कई गुना बढ़ी हुई। ज्यों-ज्यों मेरे कदम बढ़ते... शहर उलटे पैर पीछे को सरक जाता। मुझे लगता जैसे अपना खोया दर्द देख शहर को कोई गुम चोट याद आ रही है और अब ये रो देगा... जैसे सिली हुई कब्रों के मुंह खुल जायेंगे... ऐसे जैसे कयामत होने पर कब्रें जिन्दा हो जाती हैं... मुझे हर जिंदा चीज़ पसंद है... कब्रें ही क्यों न हों। दिए में टिमटिमाती... शहर की कब्रों का दु:ख हो, ऐसा भी नहीं था... कब्र या मिट्टी तो हकीकत हैं, लेकिन अनचाही मिट्टी या कब्र इतिहास का दु:ख हैं, सो शहर ने वही भोगा था - थोड़ी मिट्टी, थोड़ी कब्र.. सो मेरी शक्ल देख इस ज़बरूत शहर को वही कडिय़ल दु:ख याद हो आया था.. हम दोनों सिसकियों में डूब गए।
...रास्ता चलता गया.. रास्ता सत्तासीनों ने बनाया था अपनी तरह से, अपने लिए और हमें वहां कठपुतलियों की तरह चलना था... इसी वजह से दुनिया वहां की हर चमड़ी को शक से देख रही थी। वह चमड़ी जहां से मुझे स्नेह की गंध आ रही थी, जहां वसा का गूदा इंसानी था, वह भी शक के घेरे में था। हम बड़े सुख के लिए छोटे सुख भी खो चुके थे।
मैं एनी फ्रांक हूं... पर मेरा जन्म फ्रैंकफुर्त एम माइन में नहीं हुआ... इस शहर में हुआ है। एनी फ्रांक कहीं भी जन्म ले सकती है; कभी भी जन्म ले सकती है... मैं सोच रही थी।
पीछे कोई हॉर्न बजा रहा था.. मैंने आशीर्वाद की मुद्रा में हाथ उठाये और आगे बढ़ गई।
अब मैं आश्रम रोड के ठीक बीचोबीच बने गांधी के काले पुतले के बाएं हाथ को खड़ी थी, उतनी ही चुप जितनी ये मूर्ति.. एक तरफ आयकर विभाग की बिल्डिंग... ठीक उसके सामने दुनिया को वैष्णव जन तो तैने कहिये की सुबह-सुबह धुन सुनाता रेडियो स्टेशन... बाद को ये धुन डर्टी पिक्चर से लेकर आइटम जॉकी में बदल जायेगी.. और गांधी की प्रतिमा आयकर विभाग व रेडियो स्टेशन के बीच  तटस्थ होकर शहर को दूर तक देखेगी.. कम से कम वहां तक जो नाक की सीध में विषुवत रेखा की तरह धरती को दो हिस्सों में बांटे - साबरमती के इस पार.. और उस पार... पता नहीं क्यों लगा कि इस पार और उस पार के बीच नवम्बर सन 1946 का नो आ खाली है...
इन ग्यारह सालों में सच बहुत कुछ बदल गया था। उस दिन से ही सब बदल गया था जिस दिन मैं घर नहीं लौट पायी थी।

2
उन दिनों आत्मा श्री निवेदिता हुआ करती थीं और इंडिया हाई स्कूल की संगीत टीचर। निसंतान थीं। पर उनका ये अभाव उन्हें दुनिया की सबसे खूबसूरत माँ बना रहा था और उन्हें पाकर हम लोग वह सब सीख रहे थे जो अस्वाभाविक रूप से हमें मनुष्य बना रहा था। हम सब गाना चाहते थे, तब भी जबकि हमारे कंठ बेसुरे थे और कुंठा से भरे। लड़कियां उन्हें बस चाहती थीं.. टूटकर और लड़के पूरे आकर्षण से उन्हें पसंद करते थे... सादगी भरा ये प्राकृत सौन्दर्य कितना निश्छल था, ये हमने उन काले दिनों में जाना था। उनके पास औरों से अलग यदि कुछ था तो वह उनका अपनी तरह होना... और हम सब उनकी तरह हो जाना चाहते थे, जो उनकी निगाह में सबसे बड़ा दोष था।
हमारी तरह वह भी एक खिड़की में रहती थीं। खिड़की के सभी घर एक से थे... अतीत की तरह इन घरों के दरवाज़े बिना बाउण्ड्री वॉल के थे.. तीन सीढिय़ों के बाद एकदम बहुत ऊँचे कद का दरवाजा रहता। दरवाज़े के ऐन ऊपर एक लम्बा गलियारा जिससे थोड़ा पीछे खिसक कर कतार बद्ध मंदिरनुमा झरोखे जो अधिकांशत: बंद ही रहते... इस शहर की शख्सियत का गाढ़ा परिचय देते थे... कि हम सब अन्दर ही खुश हैं... अपनी अपनी खिड़कियों में।

3.
मैं बेदोस्त सड़क पर चलती जा रही थी। सोचती जा रही थी। कहीं कुछ घट नहीं रहा था पर मैं बार-बार चौकन्नी होकर कभी पीछे पलटकर देखती या अचानक जड़वत कहीं भी खड़ी की खड़ी रह जाती... लगता जैसे घर का आंगन मेरे पीछे चला आ रहा है, मेरे उत्तरीय में फंसा हुआ, जबकि वह बहुत कायदे से रोज़ लपेटा जाता है... उसके अनुशासन में फंसने या उलझने जैसी क्रियाओं की कोई गुंजाइश नहीं, पर फिर भी ये हो रहा था। टार की सड़कों पर अचानक मृग छायाएं उभरती.. शहर, गली, ठौर की.. मैं ठिठकी रह जाती
...''देख जमाल, ये ठीक नहीं हैगा.. तू गलत जा रहा है।'' ये नानी का सख्त स्वर था। मेरे लम्बे बालों में जुओं वाली कांसी गड़ा कर वे मामा को डांट रही थीं। झरोखे के ऊपर बनी जाली से उजाला छेद-छेद कर भीतर आ रहा था और धूल की एक आकाश गंगा जाली से मामा के सिर तक तैर रही थी। वह लापरवाही से शेव बना रहे थे और नानी की किसी बात का उत्तर देना जरूरी नहीं समझते थे...
मृग छाया लुप्त हो गई और घर, नानी मां सब सड़क की कोलतार में खो गए। अब वहां दोपहर की खासी धूप झिलमिला रही थी... मैं खोयी हुई सोच रही थी... कि उस दिन मुहर्रम का चांद कैसे हवेली की छत पर धीरे से आकर बैठ गया था, जैसे ताजिए को कंधे पर रख सफर की तैयारी में हो। मैं बाहर निकलकर बार-बार चांद को देखती और नानी के पास आकर बैठ जाती। नानी अपने दोनों हाथ हरे-काले काढ़े में डाले बैठी थीं। नौ दिन से नानीजान रंगों को घोल रही थीं। मैंने इतना गहरा बकाहन रंग नहीं देखा था। मैं उसका चेहरा देखती तो वह कोरी मलमल की तरह दिखता कि इसे भी रंगे जाने का इंतजार है। इस इंतजार में मामा के लौट आने का इंतजार भी शामिल था जो पिछले नौ दिन से घर नहीं लौटे थे और दसवां दिन भी ढलने को था। नानी न रोतीं थीं, न मर्सिये की आवाज़ सुनाई देती थी पर फिर भी सारा घर या हुसैन की कातर आवाज़ों में डूबा रहा, जैसे एक जीवन से भरा हुआ जहाज़ सागर के अतल से जा लगा हो। मामा जो उस दिन घर से गए, फिर वापिस नहीं लौटे.. आशुरा का दिन भी बीता और मामा नहीं आये। लोबान की खाक नानी पुडिय़ों में बांधती और खोलती रहीं। दुआओं और आंसुओं से छत टपकती रही लेकिन मामा नहीं लौटे। उस दिन के बाद नानी ने आंखों को सुरमे से नहीं आंजा।
आलम-शेख ने मामा को कहां नहीं खोजा, बस एक कमी छोड़ी कि पुलिस के अजाने डर से रिपोर्ट नहीं लिखाई।
फिर नानी की ज़ुबान को किसी ने हमेशा के लिए सिटकनी लगा दी थी। इतनी बड़ी हवेली में, जहां नानी घूमघूम कर साफ़-सफाइयां किया करतीं थीं, अब उनके होने का पता भी न चलता था... सरौता लिए घंटों सुपाड़ी काटतीं जबकि उनके पानदान में अब एक पत्ता भी न मुस्कराता था।
कभी-कभार उनके गुलाबी ओंठ हौले से हिलते.. बहुत कान लगाकर मैं सुनती तो अस्फुट स्वर नदी की कल-कल सा उठता... अलहमदु लिल्लाह... फिर लहर की तरह खो जाता...
कुछ भी नहीं का लौटना... कुछ भी नहीं का इंतज़ार। नानी को रीमियादां होना चाहिए था...
उनके गुलाबी होंठ फिर आपस में चिपक जाते...

4
फिर याद आई शेख...
शेख मेरे जीवन की धुरी थीं, सही मायनों में आधुनिक। जिन दिनों मामा मज़हब और शराब दोनों की चक्की में अपनी गर्दन डाले थे, शेख अपने खाली समय में यतीम खाने जातीं, उन किशोर सदनों में जाती जहां बच्चों को अपने बच्चे होने का भी बोध न था। अम्मी ने उन लम्हों की मैं भी साझेदार थी।
एक थी वहां ''रेल''-गोल - मटोल, दंतुर... भोली सूरत वाली... उम्र तो पांच से ज्यादा की न थी पर किसी के बस की नहीं थी वह। सुबह उठते ही रोना शुरू करती- ''मुझे रेल जाना है...''
''क्यों जाना है?'' अम्मी पूछतीं
वह चुप
''वहां कौन है?''
वह तब भी चुप...
माँ कहतीं - कितना सुन्दर घर है ये.. कित्ते सारे दोस्त हैं यहां। मैं भी हूं...
''रेल लाल होती है। वह नीली होती है...'' और रेल की रट पकड़ वह बुक्का फाड़ रोने लगती। जैसे रेल ही उसका का घर था...
अक्सर उसकी बगल में खजूर वाली झाडू रहती और हाथ में मटमैला कपड़ा। पुलिस उसे इसी पूंजी के साथ यहां सौंप गई थी।
रोते- सुबकते गोरे गालों पर जब मिट्टी-पानी की क्षीण रेखा दक्षिण तक खिंच जाती और असंभव का कठोर भाव लौट आता तो वह दायें हाथ का अंगूठा मुंह में ठूस लेती। पता नहीं इस तरह वह रूठे जीवन को मना रही होती थी या रेल की ज़मीन-आकाश पर बैठ न बूझे के सफ़र तक चली गई होती थी.. उसकी आंखों में मैंने कालूपुर का प्लेटफार्म देखा जहां मैं केवल एक बार आलम के साथ गई थी, मामा को लिवा लेने...
मुझे कभी रेल में बैठने की जरूरत नहीं पड़ी थी, तो ''रेल'' का घर मुझे बार-बार निमंत्रण देने लगा..
रेल ने मुझे बताया - रसखान रेल से बाहर देखो तो रफ़्तार और पटरियों के अर्थ जान सको। दोनों में न जाने कैसा ताल-मेल है कि रेल की हर खिड़की से दुनिया उलटी भागती दिखती है।
रेल के इस नए अर्थ को मैं उस दिन तक नहीं भूल सकी जिस दिन हिन्दुस्तान की एक बड़ी खबर ने मेरे ख्वाबों को न जला दिया.. जिस दिन एक रेल जली और...
''रेल''... किशोर सदन में क्या वह अब भी रट पकड़े होगी!

7
ये अकहानी मेरी
सांझ हो चुकी थी
मैं हवेली के सामने थीं।
वही पर्शियन तहजीब के पिलर्स पर खड़ी हवेली की इमारत, लकड़ी की आगे की झुकी नक्काशीदार छत, उसमें झांकते महीन जालीदार झरोखे।
मेहराब के पीछे की सपाट दीवार पर जले के दाग थे... फफोलों के निशान उसका दु:ख कहते थे। द्वार का तोतई रंग फीका पड़ चुका था और हवेली की पहली सीढ़ी उखाड़े जाने की पीड़ा से भीतर को धंस गई थी। बस जो पहले जैसा था तो वह बचा रह गया चबूतरा... चबूतरा आलम, मेरे अब्बू ने चिडिय़ों के लिए बनवाया था, परिंदों के लिये ये प्रेम शहर ने सिखाया था। यहाँ अब भी बाजरा बिखरा हुआ था। अब भी पानी का कुंडा लबालब था... जैसा उन दिनों हुआ करता था। पलभर को ऐसा लगा कि मोढ़ा डाले अब्बू वहीं कहीं बैठे हैं, अखबार गोद में पड़ा है। ऐनक बेफिक्री से नीचे खिसक आई है। कपड़े की थैली से बाजरा निकालते हैं और मुट्ठियाँ सर्र से चबूतरे पर खोल देते हैं।
मैं गौर से वहां बैठे कबूतरों को देखती रही, गौरियां वहां एक भी नहीं दिख रही थी।
फिर पलटकर मैंने हवेली को देखा...
सोचा तो यही था कि यहां बस अंधेरा होगा। कुछ भी अप्रत्याशित न होगा। क्योंकि जो जिंदा उजाले थे उन्हें मैं कई दिनों तक निवेदिता के साथ खोजती रही थी। हर कैम्प में हम गए थे। हमारी फरियादें दु:ख और दु:ख के साथ लिखी गई थी। हर बार में तारीख लिखवाती और सबूत के तौर पर कहती कि उस दिन उनका फ़ोन आया था...
वही थीं और अब्बू की दबी दबी आवाज़ नेपथ्य में...
रिसीवर पर पानी की तरह साफ़ आवाज़ सुनाई दे रही थी -
''हम ठीक हैं.. निवेदिता जी के घर से बाहर न आना.. फिर चुप्पी...''
काले तार में कोई हरकत नहीं..
मैं बेचैन... उंगलियां काले डायल पर आधी गोलाई में घूम रही - 27501727... एक लम्बी घंटी जाती और खाली लौट आती...
में बेचैन हूं... घंटियां आवाज़ लेकर क्यों नहीं लौट रहीं...
और आज ग्यारह वर्ष बाद...
मैं हड़बड़ाई। मेरी चेतना लौटी। मेरे कदम बची हुई तीन सीढिय़ां चढ़ गए।
यंत्रचालित मेरे हाथ विशाल दरवाज़े को थपथपा रहे हैं... किसी वाद्य से उठने वाली हूक की तरह...
इस बार आवाज़ लौटी। द्वार खुला। पीली रौशनी की लहर में मेरे सफ़ेद वस्त्र भीग गए...
झुर्रियों के तहखाने से वही अबोध चेहरा झांकता है... हाथ में पीतल का सरौंता... फिर वह साया हवेली में खो जाता है।
घर में और किसी के होने की आहट नहीं थी। नानी का सरौंता मुझसे कह गया था कि यहां अब बस नानी हैं... उन क्षणों में दिल ने न जाने क्यों चाहा - काश नानी उन दो की तस्वीरें इन सूनी दीवारों पर लगा सकतीं।
मैं न जाने क्यों जमीन पर घुटने मोड़ बैठ गई। मेरे हाथ इबादत में उठ गए.. अम्मी, अब्बू, मामा, नामों का स्पर्श ऐसा था जैसे अभी-अभी मैंने खुद को टटोला हो।
वह लौट आई। एक कटोरी आटा और चावल....
मुझे बैठा देख एक प्राचीन गहरे विस्मय से भरी सजल आवाज़ सुनाई पड़ी... ''आज तक कोई गोचरी को नहीं आया। इस इलाके में तो नहीं देखा। पात्र पूरा भर गया था...
अलहमदु लिल्लाह... अल्हमदु लिल्लाह...
मैं लौट गई।
धीरे धीरे शहर मुझसे बाहर होता गया।


Login