मुखपृष्ठ पिछले अंक कवितायें दो बजकर चौंतीस
जनवरी 2015

दो बजकर चौंतीस

प्रमोद बेडिय़ा

नए कवि/पहली बार






दो बजकर चौंतीस

करवटें बदलते बदलते
नींद खुली तो घड़ी पर नजर गई
देखा
दो बजकर चौंतीस हुआ था।
वापस सो गया कुछ देर बाद
फिर नींद खुली तो लगा काफी समय
बीत गया है घड़ी देखी
तो दो बजकर चौंतीस
लगा दिमाग खराब हो गया है
फिर लगा कि पेशाब की हाजत है
और हाजत अच्छे-अच्छों का दिमाग
खराब कर देती है।

उठा पेशाब करके सोने लगा
आदतन घड़ी देख ली
दो बजकर चौंतीस
इतनी सारी क्रियायें बिना वक्त
बीते कैसे संभव है, दीवार-घड़ी
भी देखी
दो बजकर चौंतीस।
लगा यह दो बजकर चौंतीस
पागल कर देगा
उठकर इस कमरे से, उस कमरे में
इस कमरे से, उस कमरे में, उस कमरे से,
इस कमरे में घूमता रहा कि कुछ
वक्त बीत जाए,
कम से कम चौंतीस का पैंतीस ही हो जाए,
पानी पी लिया, सोच भी लिया
सोचा अब तीसरी खड़ी देखूं
आंतकित सा होने लगा
लगा पत्नि को उठा लूं, बच्चों को भी
फिर लगा वे क्या करेंगे, मैं भी क्या करूँगा
अगर वक्त ठहर गया है,
क्या वक्त को ढकेला जा सकता है!
चल भाई, आगे बढ़
हंसी भी आई अपने ख्याल पर, लेकिन
अगले पल डरने लगा
सोचें वक्त ठहर जाए
तो इस पर कोई बात, विचार या
सेमिनार तो हुआ नहीं, विमर्श हो कैसे
एक अकेला आदमी कैसे वक्त से कुछ कहे
इतिहास भी रुक गया होगा, सोचा
घड़ी के कांटे को आगे बढ़ा कर देखूं
लेकिन इससे क्या इतिहास चलने लगेगा...
* *
कब नींद आ गई, काफी देर, लगभग
दो घंटे बाद खुली होगी, घड़ी देखी
वही
दो बजकर चौंतीस
कान लगाकर सुना, टिकटिक तो हो रही थी
रोशनी की, सारी घडिय़ों को देखा
वही
दो बजकर चौंतीस
सोचा कपड़े बदल कर देखूँ
अगर वक्त बदल जाए
मादरजात नंगा भी हो गया
लेकिन बेशर्म-सी घड़ी
ढीठ-सी घड़ी
वहीं थी खड़ी
सारी घडिय़ां चल रही थी
फिर भी
दो बजकर चौंतीस!
* *
मादरजात नंगा ही बाहर निकल गया
सड़कें सुनसान थीं, अंधेरा-सा था
लेकिन हर जगह वही बजा था।
यह क्या हो गया है
दो बजकर चौंतीस
दो बजकर चौंतीस
सोचा लिखना बंद कर दूँ
लेकिन वही
दो बजकर चौंतीस
* *
चलते-चलते एक मंदिर की इमारत दिखी
जिसकी दीवाल पर बड़ी-सी घड़ी लगी थी
लगा वह भी चिढ़ा रही थी जैसे
वही
दो बजकर चौंतीस
हद्द हो गई बाहर-भीतर हर जगह
दो बजकर चौंतीस
चलता गया, दूसरे को मोहल्ले से
अजान की आवाज आई जैसे
लय से कह रहा हो कोई
दो s s बज ss कर ss चौंती ss ए!
कानों में अंगूठे इसलिए
सामने से आते पादरी ने
आशिर्वाद दिया
दो बजकर चौंतीस, माई एन!
कुछ और आगे बढऩे पर एक अजीब-सा
नजारा देखा हर तरह के झंडे के साथ
एक भीड़ जैसी जुलूस, आ रही थी नारे लगाती हुई
वे नारे एक दूसरो को काटते हुए फालतू होते
जा रहे थे, सोचा उनसे पूछूं-
सम्मीलित आवाज आई-
दो बजकर चौंतीस
अचानक मुझे अपने नंगे होने का
ख्याल आया, लेकिन इन्हें क्यों नहीं आया
चाहे नंगा हो, अधनंगा हो,काला हो
या गोरा हो, लंबा हो, या नाटा हो
आदमी नहीं, जिंस हूं,
भागा, घर की तरफ
* *
कपड़े पहन लिए, सुबह हो गई थी
सब को उठाया, सबसे पूछा, सबने
मिलकर घडिय़ां देखीं, अचरज से
सबने कहा-
दो बजकर चौंतीस,
हम कुछ भी कर लें, कुछ भी करते रहें,
दो बजकर चौंतीस
दो बजकर चौंतीस!
* *
रोशनी सी होने लगी थी
सबको कहा बाहर चलें, दिन हुआ है,
घड़ी चली है,कांटा रुक गया हो,
हम सड़क पर चलते गए, चलते गए,
शहर बीत गया, गांव आ गया
किसान बोला- बाबू अपनी घड़ी तो यह
सूरज है चांद है, धूप है छांव है,
भूख है पसीना है, इनसे ही समय बीतता है
क्या हो गया अगर कांटा नहीं चलता है,
दिहाड़ी मजूर तो हंसने लगा
पसीना पोंछते हुए पागल समझ
आगे बढ़ गया,
लौटने लगे हम बस्ती का इलाका था
झोपडिय़ों से धुंवा उठ रहा था और अंदर से
झगडऩे की आवाजें आ रही थीं
किससे पूछते कि कितना बजा है!
कुछ घरों के मुंड़ेरों पर अलसाई-सी अश्लील
अंगड़ाई लेती कुछ औरतें खड़ी थीं पूछा तो
कहा हमें तो शाम के बाद का वक्त
पता है।
लगा उलझता जा रहा हूं
झोला लटकाए बच्चे को आते देखा
पूछा तो वह बोला
स्कूल का समय हो गया है
कम से कम यहां
दो बजकर चौंतीस तो नहीं हुए थे।
* *
लेकिन दुकानों में, घरों में
टी.वी. चल रहे थे
सबसे एक ही आवाज आ रही थी
दो बजकर चौंतीस
प्रधानमंत्री ने कहा है
दो बजकर चौंतीस
मुख्यमंत्री ने कहा है
दो बजकर चौंतीस
अंबानी ने कहा है
दो बजकर चौंतीस
वे कह रहे हैं
दो बजकर चौंतीस
दो बजकर चौंतीस
दो बजकर चौंतीस!!



प्रमोद बेडिय़ा विगत चालीस सालों से पश्चिमी बंगाल के एक जागरुक सक्रिय वामपंथी विचारक है। होम्योपैथी में खोजबीन करते हुये, कविता, कहानी और बांग्ला से कुछ दुर्लभ वैचारिक निबंधों के अनुवाद कर्म में सक्रिय। पुरुलिया में रहते है। अब पूरा वक्त पठन पाठन।


Login