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जनवरी 2015

एक नया सन/उस वहम का डर/घूमने की चाह/आख़िर हुआ वही

सुल्तान अहमद

एक नया सन


मैं लिखना चाहता हूँ
एक नया सन
दो हज़ार तेरह
और लिखा जाता है
दो हज़ार दो

उसे काटने की
करता हूँ कोशिश
तो उभर आता है
उन्नीस सौ बानबे

उससे बचने को
ज़रा बग़ल हटता हूँ
कि आ जाता है
उन्नीस सौ चौरासी

उसे हटाता हूँ
कि हवा में
छा जाता है
उन्नीस सौ उन्हत्तर

अचानक चारों ओर
उठता है शोर
नया सन तो था
उन्नीस सौ सैंतालिस

मैं क़लम उठाता हूँ
कि पाता हूँ
उसकी रौशनाई
डरके पीली पड़ गयी है

क्या मैं कभी
नहीं लिख पाऊँगा
एक नया सन?

उस वहम का डर

ये सच है
कि घेराव हर तरफ़ था
और घुटी हुई थी हवा
मगर कुछ
अँधेरी गलियाँ भी थीं
जिनमें भागकर
छुपा जा सकता था

सूखे होठों पर
सूखी ज़बान फेरते हुए
वहाँ से मैंने
सिर्फ धुआँ ही देखा
आग नहीं देखी
वो जिन घरों में
लगायी गयी थी
उन्हें छोड़कर
किस तरह भागे थे लोग
कौन-कौन-सी ज़रूरी
और कौन-कौन-सी
प्यारी चीज़ें आ गयी थीं
उसकी चपेट में
देख नहीं पाया मैं
न यही देखा
कि कोई आदमी
कितनी देर तक
और किस तरह
ज़िन्दा रहा जलते हुए

ये सच है
कि मेरी आँखों के सामने
किसी को गोली नहीं लगी
हां ये ज़रूर देखा
कि अस्पताल के
ठंडे गलियारे में
वो किस तरह फेंके गये थे
जिनमें से कुछेक के
बदन में गोलियाँ
मिल नहीं रही थीं
मगर उनकी वजह से
थरथरा रही थी
उनकी एक-एक बोटी
और जिनकी
बन्द हो चुकी थीं धड़कनें
मुर्दाघर की
बदबू से बेपरवाह
लेटे हुए थे नंग-धड़ंग

फ़िलकाल
न बेक़ाबू भीड़ है
न क़फ़्र्यू का सन्नाटा
मगर एक डर है लगातार
कि सर पर
लटकी हुई है
न दिखने वाली तलवार
उससे बढ़कर
उस वहम का है डर
जो चुपके से दिल में
बना सकता है घर
कि अव्वल तो
गिरेगी ही नहीं तलवार
अगर गिरी तो
कभी नहीं गिरेगी हम पर

घूमने की चाह

पेड़ों ने चाहा
हवा आयी हुई है
चलो उसके साथ
कुछ देर घूम लिया जाय
मगर उनके पैर
बँधे हुए थे
जड़ों से ज़मीन में
वे थोड़ी देर
बस झूमकर रह गये
मगर कुछ फूल
कुछ पत्तियाँ
और उनसे
चिपके हुए कुछ बीज
डालियों से हाथ छुड़ाकर
निकल पड़े
आकाश में घूमने

फूल तो धूल में
मिलकर खो गये
पत्तियाँ ज़रूर
पहले पीली पड़ीं
फिर सूखकर
हो गयीं कत्थई
और लोगों के
पैरों तले
बाजों की तरह
बजने लगीं
पेड़ बहुत छपपटाये
मगर किसी को भी
उठाकर डाली से
लगा नहीं पाये

अरे हाँ!
नाचीज़-से बीज
कहाँ ग़ायब हो गये
किसी भी पेड़ को
पता न चला

यह तो
बरसात के बाद
मालूम हुआ
कि वे ज़मीन की
अँधेरी गहराइयों में
जोखिम से भरे
सफ़र पर चले गये थे
और अब
अँखुवे बनकर
उभर रहे हैं
इस तरह पेड़ों की
घूमने की चाह
पूरी कर रहे हैं

आख़िर हुआ वही

इस बड़े शहर में
इतने सारे लोग
कि अकेलापन तो
मिल ही नहीं सकता
आधी रात गये भी

इस बड़े शहर में
इतनी बड़ी इमारतें
जितने रौशन दरवाज़े
उतने ही पिछवाड़े

ढूँढते-ढूँढते थक गयी
मगर कहीं भी
नहीं मिली वो आड़
कि जिसके अँधेरे में
पूरी वो छुप जाती
आख़िर हुआ वही
कि वो शर्म से
ज़मीन में गड़ गयी
कि उसकी शलवार
उसी के पेशाब से
बुरी तरह लिथड़ गयी


सुलतान अहमद, पहल की पहली पारी में प्रकाशित हैं। गुजरात के अहमदाबाद में काफी कठिन समय बिताते हुये आलोचना और कविता की विधा में काम किया है। अध्यापक है।


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