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जनवरी 2015

कश्मीर की वादी से कवितायें और डायरी

निदा नवाज़


यथार्थ की धरा पर ...निदा नवाज़
एक मज़दूरन को देखकर

उसका चेहरा नहीं था कोमल फूल
बल्कि था आग की भट्ठी में
तप रहा लाल लोहा
जिस पर था लिखा
एक अनाम दहकता विद्रोह-
उसके चेहरे पर रिस आयी
पसीने की बूंदें
नहीं थी किसी फूल की पत्ती पर
चमकती हुई ओस
बल्कि थीं श्रम की आंच से
उबल आयी सीसे की लहरें
उसकी आँखें नहीं थीं स्वप्निल
और न ही रहस्य भरी
बल्कि थीं
एक तख्ती की तरह सपाट
जिन पर जीवन की इबारतें
अनिश्चितता की भाषा में नहीं
साफ तौर पर लिखी हुई थीं।
उसके बाल नहीं थे मुलायम
बल्कि थे उलझे हुए
उसके ही जीवन की तरह
जिनसे नहीं बुना जा सकता था
कोई काल्पनिक महाकाव्य
लेकिन उनमें मौजूद थे
सभी खुश-रंग धागे
यथार्थ बुनने के लिए।
उसके सागर-दिल के क्षितिज पर बैठीं
नहीं थीं
संगमरमर की दो मेहराबें
और न ही दो पके हुए अनार
बल्कि थीं वे दो अमृत धाराएं
जिनको पी कर क्रांतिवीर बनते हैं।
उसके हाथ नहीं थे दूधिया
बल्कि थे मेकेनिकल
सीमेंट और रोड़ी को मिलाने वाले
जीवन को एक
मज़बूत आधार बख्शने वाले।
और उसके पाँव में
नहीं थी कोई पायल
बल्कि थे ज़ंग लगे लोहे के दो कड़े
जैसे कोई अफ्रीकी गुलाम
जंजीरें तोड़ कर भाग आया था
मगर वह भाग नहीं रही थी
बल्कि वह यथार्थ की धरा पर
जीवन-साम्राज्य के समक्ष खड़ी थी
लोहित-आँखों में
अपनी ज्वालामुखी-आँखें डाल कर।

मेमनों की हत्या...
कश्मीर घाटी में मौजूद हज़ारों बेनाम कब्रों को याद करते हुए

आख़िर कहाँ गये वे लोग
वे भी तो राजदुलारे थे
अपने घरों के
आकाश तो नहीं खा गया उन्हें
धरती तो नहीं निगल गई उन्हें
उनमें से कुछ निकले थे
स्कूलों की ओर
अपनी नन्ही पीठ पर
उठाये किताबों का बोझ
और अपने नाज़ुक हाथों में
उठाये टिफिन
उनमें से कुछ निकले थे
अपने लहलहाते खेतों की ओर
उठाये अपने मज़बूत हाथों में
मिट्टी के हुक्के
और लोहे की द्रातियां
और कुछ निकले थे
कारख़ानों और दफ्तरों की ओर
अपनी आँखों में लिए
असंख्य स्वप्न
और मन में
ढेर सारा साहस
वे घरों से निकले तो थे
दिन के उजाले ने भी
उन्हें निकलते देखा था
मुस्कुराते हुए
सूर्य ने भी उन्हें देखा था
स्कूलों की ओर चलते हुए
खेतों की ओर जाते हुए
कारखानों और दफ्तरों की ओर
निकलते हुए
पर वे फिर कभी भी
नहीं लौट पाये अपने अपने घर
ना ही मिले फिर उनके पदचिन्ह
आकाश तो नहीं खा गया उन्हें
धरती तो नहीं निकल गई उन्हें
लेकिन...
रात को सब कुछ मालूम है
गहरे अँधेरे को भी
सब कुछ मालूम है
कि उनका इस्तेमाल किया गया
फ़र्जी झड़पों में
सैनिक ड्रामाबाज़ियों में
और वे सदैव के लिए ढल गये
कुछ कायर फौजी अधिकारियों
के सीनों पर सजे
वीरता के पदकों में
वे सदैव के लिए सिमट गये
चंद फौजी अधिकारियों की
सर्विस बुकों पर लिखी
झूठी शाबाशी की पंक्तियों में
यह सब सूर्य को नहीं मालूम
यह सब उजाले को भी नहीं मालूम
यह सब यदि मालूम है तो
रात को है मालूम
गहरे अँधेरे को है मालूम
यह सब यदि मालूम है तो
यातना घरों की
दीवारों को है मालूम
हमारे लोकतंत्र की दहलीज़ पर बैठे
महाराजा को कुछ भी नहीं मालूम
हमारे महाराजा ने सूचियाँ देखीं
फ़र्जी झड़पों की आड़ में
बांटे गये पदकों
और तरक्कियों की
हमारे महाराजा ने
कभी भी नहीं देखीं
उन झड़पों में इस्तेमाल हुए
हज़ारों निर्दोष लोगों की
सूचियाँ...
बेडिय़ों की शाबाशी
हर एक ने देखी
किन्तु
मेमनों की हत्या
बस कुछ ही ने देखी है
* * *

डॉयरी के झरोखे से...
कल्पना को कुरेदती रात - तिथि-12-01-1992

डर हमारे साथ ही जन्म लेता है और जीवन भर हमारे साथ लुका-छुपी का खेल खेलता है। कल की डरावनी रात एक-एक दृश्य जैसे मेरी नज़रों के सामने आकर मुझे एक बार फिर भयभीत करना चाहता है। कल रात के लगभग साढ़े बारह बज चुके थे। मैं कुछ समय पूर्व ही नींद की सीढ़ी उतरने लगा था कि अचानक दरवाज़े को ज़ोरदार धक्का लगा। मेरी हृदय गति बढ़ गई। कुछ क्षण के लिए मैंने सोचा कि मैं परिवार के सदस्यों को जगाऊं किन्तु प्रयत्न करने के बाद भी मेरे गले से आवाज़ न निकल सकी। मुझे श्राप सा लग गया था। बाहर उल्लू की आवाज़ रात के अँधेरे को चीर रही थी। मुझे बाहर किसी के कदमों की आहट सुनाई दी। मेरा पूरा शरीर पसीने से तर हो गया। कुछ क्षण बाद मेरा डर थोड़ा कम हुआ और मैं सोचने लगा, टेलीफोन सवेरे से ही ख़राब था। कहीं यह कोई षड्यंत्र तो नहीं? मैं एक मंज़िल मकान में रहता था जिस में बाहिरी दरवाज़ा खोले बिना भी सीढ़ी लगा कर प्रवेश किया जा सकता था। मैं धीरे से बिस्तर से निकला और अँधेरे में दीवार का सहारा लेकर दरवाज़ा खोजने लगा... उसकी कुंडी को पूरी तरह बंद करके जब मैं वापस मुड़ा मेरा पांव अचानक छोटू पर पड़ा... उसके मुंह से एक चीख निकली और कमरे में सोये सभी जाग गए। हर एक सदस्य आपस में गूँगों की तरह बातें करने लगा ''क्या हुआ''। मैंने धीमे स्वर में कहा, ''बिजली का स्विच आन मत कीजये। बाहर कोई है। कुछ समय पहले दरवाज़े पर भी धक्का लगा था। कुछ भी हो दरवाज़ा मत खोलना'' छोटू ने रोना शुरू किया, ''मम्मी सुसू''। ''मुझे याद ही नहीं आ रहा मैंने पॉट कहाँ रखा है। अँधेरे में इतने बड़े कमरे में मैं कैसे उसको ढूँढूँ''। मेरी पत्नी स्वयं से बुदबुदाने लगी। मैं सोचने लगा, ''यदि वह दरवाज़ा तोड़ कर कमरे में दाखिल हुए तो मैं अपने आपको कहाँ छुपाऊंगा''। पूरी तेज़ी से दिमाग चलने लगा... बेड के नीचे पहले से ही बहुत सारी वस्तुएं रखी हुई हैं। स्टील लाकर में मैं दुबक नहीं सकता, मुझे कमरे में कोई ऐसी जगह नहीं सूझी जहां मैं अपने आपको छुपा सकता। मैंने सोचा कि मैं मुकाबला करूंगा। मेरा गला अब पूरी तरह सूख गया था। मेरे बेड के पास ही छोटी सी तिपाई पर पानी से भरा गिलास था जिस तक आसानी से मेरा हाथ पहुंच सकता था किन्तु मुझे लगा कि मेरी सोच और शरीर के बीच का संबंध टूट चुका है। मैं सोच तो सकता था किन्तु मेरा शरीर हरकत नहीं कर पा रहा था। शायद यह डर की आख़िरी सीमा थी। मेरी पत्नी अँधेरे में पॉट को ढूंढने का प्रयत्न कर रही थी और अचानक स्टील लाकर के साथ टकराई। वह चीखी नहीं बल्कि आहिस्ता से कहने लगी, ''मेरे माथे से खून बह रहा है मगर पॉट को मैंने ढूंढ ही लिया''। उसने छोटू को पेशाब करवाया। मुझे फिर से बाहर किसी के चलने की आवाज़ सुनाई दी। अब कुत्ते भी ज़ोरों से भोंकने लगे। उल्लू की आवाज़ अब धीमी पड़ चुकी थी किन्तु मेरी सोचका घोड़ा अब भी बेनाम रास्तों पर बेलगाम दौड़ रहा था। मेरी सोच के केनवस पर बहुत सी शंकाएं उभर रही थीं। हालात ख़राब होते ही मैंनें सभी खिड़कियों में लोहे के ग्रिल लगवाये थे किन्तु बाहरी दरवाज़ा भाई के साथ सांझा होने के कारण ग्रिल के बिना ही रह गया था। सच तो यह था कि यह लोहे के ग्रिल भी मेरे डर को दूर नहीं कर पा रहे थे। मैं अधिकतर यह भी सोच रहा था कि यदि कहीं किसी ने रात के समय ग्रिल के साथ ही टाईम बम बांध दिया तो? मेरे मन में यह विचार बार-बार आ रहा था। छोटू और उसकी माँ अब शायद सो चुके थे। शायद इसलिए क्योंकि उनकी तरफ़ ख़ामोशी थी। कमरे की इस गहरी ख़ामोशी में मैं अपनी हृदय गति पूरी तरह सुन पा रहा था। बाहर कोई आहट होते ही मुझे लग रहा था जैसे कोई मेरे दिल को अपनी मुट्ठी में भींच रहा हो। ''आप अभी तक सोए नहीं। बाहर कोई नहीं है... आप को वहम हो गया है, दूसरों की नींद भी हराम कर देते हो। आपने बच्चों को भी डरा दिया है। छोटू नींद में थर्रा रहा है''। करवट बदलते मेरी पत्नी ने मुझसे कहा। मैंने धीरे से उत्तर दिया, ''तुम चुप नहीं रह सकती। तुम्हें नहीं मालूम हालात कितने ख़राब हैं। दरवाज़े पर धक्के की आवाज़ मैंने स्वयं सुनी थी। दरवाज़े पर आख़िर कोई भूत प्रेत तो धक्का नहीं देता। मुझे लग रहा है कि कोई बाहर बातें कर रहा है''। ''मैंने कहा ना कि तुम्हें वहम हो गया है, आख़िर तुम इतना डरते क्यों हो? तुम्हारी किसी से दुश्मनी है क्या'', उसने धीरे कहा। मैंने एक बार फिर सरगोशियों में उत्तर दिया, ''मैंने कहा ना चुप रहो। दुश्मनी तो किसी से भी नहीं है लेकिन यहाँ दोस्त भी कौन है। उन को तो न्यूज़ चाहिए। वे समाचार पत्रों में आने के लिए दूसरों को मारते हैं। तुम्हें ये बातें समझ में क्यों नहीं आतीं। खुदा के वास्ते इस समय चुप हो जाओ''। मुझे फिर अद्भुत विचार आने लगे। मैंने जीवन बीमे की आखिरी किस्त भरी है या नहीं। पिछली $िकस्त तो मैंने एक दोस्त से उधार लेकर भर दी थी। मुझे याद आया कि रिस्क कवर मुझे अब भी है। कुछ क्षण के लिए मुझे अजीब ख़ुशी महसूस हुई और मैं बीमे के दुर्घटना लाभ का.... हिसाब जोडऩे लगा। मैंने सोचा कि मेरे परिवार को कोई अधिक परेशानी नहीं होगी। दो तीन लाख तो मिल ही जाएंगे। एक्स्ग्रेशिया का एक लाख के अलावा। बड़े बेटे को एस.आर.ओ. के अंतर्गत सरकारी नौकरी भी मिलेगी। कुछ समय के लिए मुझे लगा कि मरना मेरी अधिकतर समस्याओं का समाधान है। मौत के प्रति मेरी धारणा बदल गई... एकदम... मैं सोचने लगा कि आतंकवाद के इस आदमख़ोर मौसम में छुट-घुट कर मरने से अच्छा है एक ही बार मरना। उधर मासिक वेतन से भी बढ़ती आवश्यकताएं पूरी नहीं हो पातीं। 15 वीं तारीख़ से ही कर्ज़दारों की सूचियाँ बनानी पड़ती हैं और वेतन लेते समय तक इनमें अनेक बार परिवर्तन करने पड़ते हैं। छोटू पिछले एक सप्ताह से दवाई भी नहीं ले पा रहा है। उसको अब अधिकतर दर्द रहने लगता है। मेरे मन में एक निराली इच्छा उत्पन्न हुई। जी हाँ... मरने की इच्छा। मेरा डर एकदम ख़त्म हुआ। मुझ में साहस की शक्ति उत्पन्न हुई। बाहर अब सुबह की रौशनी अँधेरे को पराजित कर रही थी। मैंने पड़ोसियों के दरवाजे खुलने की आवाजें सुनी। साहस करके मैंने भी अपना दरवाज़ा खोला और बाहर निकला। बाहर निकलते ही मैं चकित रह गया। बाहर दरवाज़े के एक तरफ़ कुत्ता सोया पड़ा था और निकट ही चमड़े का फटा हुआ जूता था। जिसकी दशा कुत्ते ने रात भर चबा चबा कर ख़राब कर दी थी।







निदा नवाज़ ने साहित्य अकादमी के लिये कश्मीरी कविताओं का संकलन संपादन किया है। 'अक्षर अक्षर रक्त भरा', कश्मीर में आतंकवाद के संदर्भों में लिखी अपनी तरह की एक अलग किताब। निदा नवाज़ का जन्म 1963 में हुआ। वे कश्मीर के पुलवामा में रहते हैं और उन्हें अन्य पुरस्कारों के अलावा दीनानाथ नादिम (कश्मीर के बड़े कवि) और ललद्यय (संत कवियत्री) साहित्य सम्मान मिले हुये हैं।


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