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जनवरी 2015

यह जो अर्द्ध स्वर्ण तन है!

रविभूषण

''कथा आलोचक नामवर सिंह'' लम्बे आलेख का अंतिम हिस्सा।
आगामी अंक में पाठक देवीशंकर अवस्थी पर पढ़ सकेंगे।





''मेरी घड़ी निर्मल के साथ बन्द नहीं हो गई है। इत्तफ़ाक से अभी बैटरी उसमें है। वह चल रही है।''
- सम्मुख, पृष्ठ 37 (2012)
''हिन्दी में मुश्किल यह है कि जब मैं कुछ लिखता हूँ तो विवाद, जब मैं बोलता हूँ तो विवाद और यहाँ तक कि जब मैं खामोश रहता हूँ तब भी विवाद होता रहता है... कहा भी गया है, यूँ शीशा मेरे मुँह न लगा मैं नशे में हूँ।''
- वही, पृष्ठ 226
''कभी कोई कृति उन्हें अपने अतार्किक कारणों से पसंद आती है और उस पसंद का औचित्य वे बाद में निर्मित करते है। (जैसे निर्मल वर्मा के संबंध में उनकी स्थापनाएं) यही कारण है कि वे हिन्दी के सर्वाधिक विवादास्पद और मुख्यत: विवादों के समीक्षक रहे है।''
- विजय मोहन सिंह, 'नामवर के विमर्श' (1995, प. 20)

नामवर सिंह का कहानी पर अंतिम निबंध 'माया' के नव वर्षांक 1965 में प्रकाशित हुआ था - 'नयी कहानी और एक शुरुआत', जो 'कहानी: नयी कहानी' (1965) में 'नयी कहानी: नये संदर्भ' शीर्षक से संकलित है। 'कहानी: नयी कहानी' की भूमिका में उन्होंने लिखा - 'कहानी का फिलहाल इत्यलम' कहानी पर एक और शुरुआत - नयी, अगली, उन्होंने क्यों नहीं की? कहानी-आलोचना से ऐसी बेरुखी-विरक्ति का कारण क्या था? वे आलोचना के क्षेत्र में गंदगी साफ करने आए थे। उनके 'ह्रदय के बहुत निकट' किशोरीदास वाजपेयी का यह छन्द था - ''सोचा मैंने उष:काल में/माँ के भुवन सजाऊँ/अभिनव अर्थ उपार्जित करके/क्या-क्या कुछ भेंट चढ़ाऊँ/किन्तु भक्त पद प्रक्षेपों से/धूल यहां भर आई/रहा बुहार उसी को तब से/यों सब उम्र गंवाई।'' यह 'स्वच्छता अभियान' कब तक चला? क्यों रुका? उन्होंने पूरी धूल साफ नहीं की। क्या कुछ धूल जमाई भी? क्या उनकी कथालोचना (आलोचना भी!) पूरी 'साफ-सुधरी' है? ''सवाल सरस्वती देवी के मंदिर की सफाई का है। मैं पूजा करना चाहता हूँ। लेकिन जब तक वह साफ न हो, तब तक पूजा कैसे की जाए। आप जानते हैं, कभी-कभी इस तरह के भारत व्याकुल और सनकी लोग होते हैं, जो बहुत ज्यादा सफाई पसन्द होते हैं, कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो उसी में पूजा करके चले जाते हैं कि ठीक है सफाई होती रहेगी। कुछ सनकी होते हैं, जो सोचते हैं कि नहीं, साफ-सुथरा रहना चाहिए। कुछ ऐसा अपना भी मन है, स्वभाव है।''
- आलोचना और विचारधारा (2012) पृष्ठ 34

1965 के बाद कहानी पर न लिखने के नामवर के अपने तर्क हैं। निर्मल वर्मा  पर नामवर के लेख के पहले कहानी में 'दलबन्दी' शुरु नहीं हुई थी। 'मित्रत्रयी' एक जुट नहीं थी। निर्मल वर्मा को पहला नया कहानीकार और 'परिन्दे' को पहली नयी कहानी घोषित करने के बाद कमलेश्वर, यादव, राकेश अधिक सक्रिय हुए थे। शुरुआत नामवर ने की थी। कहानी की आत्मा के हिरोइज्म में प्रवेश की बात और 'आलोचना पर रोटियाँ सेंकने' की बात जो वे कहते हैं, वह निर्मल-आलोचना के बाद आरंभ हुई, गतिवान हुई। ''कहानियाँ आलोचना-सम्मत, आलोचनोन्मुख होकर लिखी जाने लगीं। कहानी में जीवन और समाज को एक तरफ रख नए प्रतीक, बिम्ब और भाषा के टोटके और लटके-झटके ढूँढ़े जाने लगे। कहानीकार जमीन से टूटकर गमलों में खिलने लगे। पत्र-पत्रिकाओं, प्रतिष्ठानों और सत्ता के पास पहुँचने की होड़ होने लगी थी। कहानी पीछे छूट गई और कहानीकार साहित्येतर दंद-फंद में आगे निकल गए।'' ('नामवर के विमर्श' (1995) पृष्ठ 153) नामवर सिंह कमलकान्त को एक प्रश्न के उत्तर में यह सब कहकर कहानी पर लिखना बंद करने का कारण बताते हैं। कहानी समीक्षा पर अर्द्धविराम, अल्प विराम नहीं, पूर्ण विराम लगाने के जिम्मेदार हुए - यादव, राकेश और कमलेश्वर, जिन्होंने 'नयी कहानी' को हाईजैक कर लिया था। राजेन्द्र यादव से वे कहते हैं - ''तुम्हीं लोगों के कुचक्र के कारण मैंने बंद कर दिया।'' (साथ साथ (2012), पृष्ठ 83) सीरियसली कहानी समीक्षा लिखने वाले नामवर ने कुचक्रों और कुचक्रियों के सामने हथियार क्यों डाले? आलोचना के गंभीर दायित्व से अलग क्यों हुए? सच्चाई यह है कि कहानी-समीक्षा में उनकी 'रुचि' भी नहीं रही। 7.4.1966 को काशीनाथ सिंह को पत्र में उन्होंने लिखा - ''उस पुस्तक (कहानी: नयी कहानी) में अंत तक आते-आते मेरी रुचि स्वयं भी समाप्त हो चुकी थी। कहानी पर अब तो एकदम नए सिरे से ही लिखना उचित होगा और उसके लिए एक पुस्तक अलग से अपेक्षित है। 'नई कहानी' वालों के साथ तुम लोगों की कहानियों को जोडऩा भी अपमानजनक लगता है'' (काशी के नाम पत्र, 2006, पृष्ठ 46) 1966 तक काशीनाथ सिंह, ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह, रवीन्द्र कालिया का कोई कहानी संग्रह प्रकाशित नहीं हुआ था। प्रबोध कुमार, प्रयाग शुक्ल और विजय चौहान का भी नही, जिनकी 'संभावनापूर्ण शुरुआत' की बात कही गयी थी। नामवर के अंतिम लेख में ज्ञानरंजन का नामोल्लेख नहीं है, जब कि उन्होंने कई साक्षात्कारों में उनकी बात कही है। नये कहानीकारों के बाद उन्हें शीर्ष पर रखते हुए जिन पांच कहानीकारों की पांच कहानियों को उन्होंने 'रचना' कहा, उन कहानीकारों में ''व्यक्तित्व को विशिष्टता प्रदान करने वाली रेखाएँ अभी पूरी तरह उभर नहीं पाई हैं, किसी की एक, तो किसी की दो या तीन, बस, इतनी ही रचनाएँ बन पड़ी हैं यानी ऐसी की जिन्हें 'रचना' कहा जा सके।'' (कहानी: नयी कहानी, 1999, पृष्ठ 195) फिर भी इन कहानीकारों के समक्ष 'नई कहानी वालों' को रखना नामवर को अनुचित लगा था।
1965 से अब तक के पचास वर्ष में कहानी पर नामवर ने भले कोई लेख न लिखा हो, पर कहानी पर बात-विचार, चर्चा-संवाद कभी नहीं थमा। व्याख्यानों, साक्षात्कारों, टिप्पणियों, गोष्ठियों और परिसंवादों में उन्होंने कहानी और कहानीकारों पर जो विचार किए हैं, उनका अपना महत्व है। उनके भाषणों, साक्षात्कारों और वाचिक टिप्पणियों का भी महत्व है - आलेखों से कम ही सही। 'कहना न होगा' (1994) 'बात बात में बात' (2008), 'सम्मुख' (2012) में संकलित साक्षात्कारों-परिसंवादों के अतिरिक्त नामवर के कहानी-संबंधी, कथाकार और कहानी के विकास-संबंधी विचार 'साहित्य की पहचान' (2012), 'प्रेमचंद और भारतीय समाज' (2010) 'हिन्दी का गद्य पर्व' (2010) और 'आलोचक के मुख से' (2005) में देखे जा सकते हैं - 1977 से 2009 तक। इन पर ध्यान देना और विचार करना इसलिए भी जरूरी है कि नामवर ने कहानी, कहानीकार के साथ ही उसके समय, पूंजीवाद, अस्तित्ववाद, प्रतिबद्धता, व्यक्तिवाद, राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग, दलित कहानी, स्त्री-संबंधी कहानी, लेखक संगठन, पाठक, सम्पादक, स्वप्न और यथार्थ, कहानी और कहानी-कला पर संक्षेप में ही सही कई बातें कही हैं। आलोचना के अन्तर्गत साक्षात्कारों, व्याख्यानों-भाषणों आदि को शामिल किया जाना चाहिए या नहीं, इस पर बहस हो सकती है पर नामवर ने इसमें जो 'उल्लेखनीय' मत प्रकट किए हैं, उन्हें अनदेखा करना गलत होगा। पचास वर्ष तक कहानी पर समुचित-विधिवत लेखन न करने के बाद भी केन्द्र में न सही, वे निरन्तर चर्चा में है। कुछ खूबियां तो अवश्य होंगी। वे खूबियां क्या हैं?
निर्मल वर्मा पर लिखे अपने लेख के पक्ष में बार-बार नामवर ने पचास के दशक और उस दशक के नये कहानीकारों की चर्चा की है। ''उस समय यानी पांचवें दशक के, वे अन्य अच्छे कहानीकार कौन थे, जिन पर मुझे लिखना चाहिए था लेकिन जिन पर मैंने नहीं लिखा। दरअसल, आपके ध्यान में जो लेखक हैं उनका विकास बाद में हुआ।'' (कहना न होगा, पृष्ठ 47) विष्णु खरे को दिये इस उत्तर के बाद इसी बातचीत में विजय मोहन सिंह को उन्होंने यह कहा कि निर्मल और अमरकान्त 'सिर्फ दो ही कहानीकार' 'उस दौर के तमाम लोगों में' 'महत्वपूर्ण' और 'सार्थक' हैं। वे निर्मल और अमरकान्त की एक साथ महत्व-स्वीकृति में किसी प्रकार का अन्तर्विरोध उसी तरह नहीं देखते, जिस तरह तोलस्तोय और चेख़व, तोलस्तोय और दास्ताएवस्की या प्रेमचन्द और जैनेन्द्र में। प्रश्न महत्व, स्वीकृति और अच्छे लेखन का ही नहीं, दो भिन्न कथाकारों की रचना-दृष्टि, यथार्थ दृष्टि, मूल्य दृष्टि और जीवन-दृष्टि का भी है। इस लिहाज से निर्मल और अमरकान्त को एक साथ नहीं रखा जा सकता। मुख्य-प्रणाली नामवर के लिए 'आलोचना-कर्म का अनिवार्य अंग' नहीं है। वह 'गौण पक्ष' है और यह मांग अध्यापकीय मांग है। (वही, पृष्ठ 58) नामवर की व्यावहारिक समीक्षा का 'बुनियादी स्टैण्डर्ड उनसे विजयमोहन सिंह ने जानना चाहता था ''जिसके आधार पर आप निर्मल वर्मा को इवैल्यूएट करते हैं, अमरकान्त को भी करते हैं या किसी और भी लेखक को।'' (वही, पृष्ठ 57) विष्णु खरे ने उनसे अपनी आलोचना के 'बेसिक टेनेट्स' जानना चाहा था, नेमिचन्द्र जैन ने यह प्रश्न किया था कि उन्हें किस विचारधारा का आलोचक समझा जाये और विजय मोहन सिंह ने 'परिन्दे' के साथ अमरकान्त की 'हत्यारे' की प्रशंसा के उनके 'टूल्स' और 'मेथडॉलॉजी' स्पष्ट करने की बात कही थी, जिसका उत्तर था - ''रचना को जांचने का काम मैं सौन्दर्यशास्त्र की दृष्टि से करता हूँ'' (वही, पृष्ठ 59) 'जीवन की शर्तों' के अतिरिक्त 'कला की शर्तें' उनके लिए महत्वपूर्ण हैं। क्या नामवर ने कहानी की व्यावहारिक आलोचना के माध्यम से कहानी के सौन्दर्यशास्त्र का निर्माण किया? 1981 में हुई इसी बातचीत में विष्णु खरे के एक प्रश्न पर उन्होंने मार्क्सवादी आलोचक द्वारा 'साहित्य के सामाजिक बदलाव में एक निश्चित प्रकार की सक्रिय भूमिका' अदा कर सकने की बात भी कही है। नामवर के लिए कृति विशेष का मूल्यांकन और बहस महत्वपूर्ण है। बहस से धारणाएं-स्थापनाएं जन्म लेती हैं और स्थापनाओं-धारणाओं से बहसें भी पैदा होती हैं। उनके लिए सिद्धान्त-निर्माण से अधिक महत्व बहसों का है। बहस कहां समाप्त होती है,उससे कौन सा विचार, सिद्धान्त बनता है, यह गौण है। बहस की भारतीय परम्परा से वे हमें अवगत कराते हैं। अभिनवगुप्त और आनन्दवद्र्धन ने कोई पुस्तक नहीं लिखी। उन्होंने 'नाट्यशास्त्र' और 'ध्वन्यालोक' की टीकाएं प्रस्तुत कीं। इन्द्रनाथ मदान कृति की राह से गुजर कर कृति की समीक्षा की बातें करते थे। नामवर के लिए कृति और टीका-टिप्पणी, भाष्य-अन्तर्भाष्य महत्वपूर्ण है। उनके लिए रचना का मूल्यांकन-विश्लेषण प्रमुख है। निर्मल वर्मा और 'परिन्दे' की समीक्षा पर आज जो बहस की जाती है,उसका मुख्य कारण नामवर का मूल्यांकन-विश्लेषण है। निर्मल वर्मा के उनके मूल्यांकन पर विस्तार से अब भी विचार की ज़रूरत इसलिए है कि उन्होंने अपने आरंभिक मूल्यांकन को निरस्त नहीं किया है और 'परिन्दे' की 'प्रतीक्षा' को न केवल 'डिप्टी कलेक्टरी' की प्रतीक्षा से जोड़ा है, बल्कि हमारा ध्यान पचास के दशक की ओर भी खींचा है।
क्या था पचास का दशक? निर्मल-संबंधी, अपने विचारों को वाजिब ठहराने और उस समय अन्य कहानीकारों पर न लिखने के लिए वे बार-बार कई बातचीत में पचास के दशक का भारत के साथ, सोवियत रुस में घटित घटनाओं का भी जिक्र करते हैं। आज की रोशनी में वे उस दौर को देखने की बात नहीं करते। तब नया भारत जन्म ले रहा था। मध्य वर्ग के उदय (या विकास) के साथ वे उसकी विकसित हो रही जीवन-दृष्टि की ओर हमारा ध्यान दिलाते हैं, जहां ''कुछ ऐसी विचारधाराएं थीं, जो नई रूप विधा को आकार देने में सहायक हुईं। उनमें से एक व्यक्तिवाद है और दूसरा अनुभववाद'' (प्रेमचन्द और भारतीय समाज, 2010, पृष्ठ 57) नयी कहानी में ये दोनो थीं। प्रेमचन्द जन्मशती समारोह के अवसर पर दिये गये एक व्याख्यान 'प्रेमचन्द: दृष्टि और कला रचना' में प्रेमचन्द पर विचार करते समय तात्कालिक संदर्भ में जहाँ वे निराला, रामचन्द्र शुक्ल, प्रसाद, पंत का उल्लेख करते हैं वहां निर्मल वर्मा पर बात करते समय वे युगीन संदर्भ पर बाद में हमारा ध्यान दिलाते हैं और मुक्तिबोध का, दूसरे प्रसंग में ही सही जिक्र करते हैं। इसी व्याख्यान में उन्होंने पंचवर्षीय योजना के बाद एक नये पूंजीवाद के उत्थान के साथ स्वदेशी पूंजीवाद की भी बात कही, जिस दौर में कहानी और उपन्यास लिखा गया। स्वदेशी पूंजीवाद और स्वतंत्र भारत का नया पूंजीवाद एक दूसरे से भिन्न था या अभिन्न? 'बम्बई  प्लान' (1944) और पंचवर्षीय योजना के साथ नेहरू की मिश्रित अर्थनीति के बीच कोई संबंध था या नहीं, विस्तार से विचार किया जाना चाहिए। राजेन्द्र यादव को उस दौर में चीजें फिसलती दिखाई पड़ती हैं। वे अतिरेक में सब चीजों को नष्ट होते देखते हैं। नामवर की खूबी यह है कि वे कहानी पर बात करते हुए युग और समय पर भी बात करते हैं: पचास के दशक पर बात शुरू करने का श्रेय उनको जाता है। बाद में कुछ और शामिल हुए। 'तद्भव' में प्रकाशित यादव और नामवर की बातचीत में यादव ने आपसी संबंध, स्त्री-पुरुष के संबंध के समाप्त होने की बात कही है, जिसमें आंशिक सच्चाई है। राकेश के यहां वे जिस तलाक का जिक्र करते हैं, वह उस समय कम परिवारों में था। पति-पत्नी के तलाक को एक बड़े संदर्भ में भी देखा जा सकता है - गांधी-नेहरू के बीच के मतभेद से लेकर गांव-शहर के रिश्ते तक।
नामवर ने कई बार उस दौर को न भूलने की बात कही। सुरेश पाण्डेय द्वारा लिये गये इंटरव्यू (1984) से लेकर राजेन्द्र यादव और अपने बीच के 'परिसंवाद' (2008) तक। ''कुल मिलाकर कहानी का जो माहौल था, उस माहौल में उस दौर की जो राजनीतिक स्थिति थी, नहीं भूलना चाहिए। उस दौर में खुद कम्युनिस्ट पार्टी अपनी लाइन, बंगाल वाली लाइन, जो 48 वाली बी.टी. रणदिवे की थी, को छोड़कर अजय घोष के दौर में आई। उस समय रुस और भारत के संबंध बहुत अच्छे हो गए थे। तो भारत में अस्तित्ववादी दौर के बिलकुल खिलाफ माहौल बन रहा था। (साथ साथ, 2012, पृ. 73) नामवर के तर्क कई स्थलों पर कुतर्क बन जाते हैं। समय बीत जाने के बाद आज नयी कहानी जिस रूप में दिखती है,कहानीकारों की कथा-दृष्टि और जीवन-दृष्टि में जो सुस्पष्ट अंतर दिखता है, नामवर के अनुसार उस समय ऐसा कुछ नहीं था। छठे दशक के कहानीकार जो आज हमें बहुत भिन्न और विरुद्ध लगते हैं, उस समय ऐसा कोई स्पष्ट विभाजन नहीं था। वे कहानी पर चर्चा से अधिक उस समय की चर्चा करते हैं, उस समय की 'भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राजनीतिक दृष्टि और समझ' की बात करते हैं, 1953 में स्टालिन की मृत्यु और 1956 में सोवियत रूस की कम्युनिस्ट पार्टी की बीसवीं कांग्रेस के साथ ख्रुश्वेच की 'डी परसनलाइजेशन' पर दी हुई प्रसिद्ध स्पीच की याद दिलाते हैं और 'स्वाधीनता के बाद के राष्ट्रीय निर्माण के दौर' में प्रखर वर्ग चेतना और मार्क्सवादी दृष्टि का अभाव पाते हैं। सुरेश पाण्डेय को 1984 में 225 मिनट का जो इंटरव्यू नामवर ने दिया था, उससे उन्हें 'पूरी तरह संतोष नहीं था'। काशीनाथ सिंह को 24.9.94 के पत्र में उन्होंने लिखा था - ''संतोष न होने का कारण समुचित तैयारी की कमी  और शायद मूड भी।'' (काशी के नाम पत्र, पृष्ठ 259) सुरेश पांडेय ने उनसे प्रश्न किया था कि मार्क्सवादी आलोचक होने के बावजूद उन्होंने नयी कहानी आन्दोलन में प्रगतिशील और गैर प्रगतिशील के बीच फर्क क्यों है, जिसमें वे अपनी ओर से कई सफाई देते हैं और अपने पक्ष में लचर तर्क प्रस्तुत करते हैं। पचास के दशक पर नामवर के विचार एकांगी और अधूरे हैं। उनके अनुसार निर्मल की कहानियां प्रतिक्रियावादी नहीं थीं। लाजवाब तर्क यह है कि 'परिन्दे' ''प्रतिक्रियावादी था तो उसको पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस ने क्यों छापा?'' (वही, पृष्ठ 119) प्रकाशन के अलावा वे सम्पादक को भी ढाल बनाते हैं। भैरव प्रसाद गुप्त निर्मल की कहानियां 'कहानी' में छापते थे। निर्मल की प्रगतिशीलता के समर्थन में उन्होंने प्रकाशक और सम्पादक को खड़ा किया। आलोचक की समझ का क्या सचमुच प्रकाशक और सम्पादक की समझ से कोई रिश्ता बनता है?
नागार्जुन की कविता 'सतरंगे पंखों वाली' में वे 'राष्ट्र निर्माण का स्वर' देखते हैं और पंचवर्षीय योजनाओं के अन्तर्गत योगदान का आव्हान सुनते हैं। 'सम्भाव्य समाजवाद' और 'सेक्युलरिज्म' आदि के जरिए वे न केवल 'उस समय की भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की राजनीतिक समझ' का हवाला देते हैं, वरन यह भी बताते हैं कि ''यही उस दौर की मार्क्सवादी आलोचना की भी समझ थी।'' (वही) यहाँ पर उल्लेख जरूरी है कि प्रथम पंचवर्षीय योजना में कृषि विकास पर विशेष ध्यान दिया गया था। पंचवर्षीय योजना पर नागार्जुन की कविता पढ़ी जानी चाहिए। प्रशान्त चन्द्र महलनवीस ने योजना के ढांचे का जो मसौदा तैयार कर मार्च 1955 में नेहरू को दिया था, उसे द्वितीय पंचवर्षीय योजना के आधार रूप में स्वीकृत किया गया। द्वितीय पंचवर्षीय योजना में उद्योगों पर बल दिया गया था। महलनोवीस को द्वितीय पंचवर्षीय योजना का निर्माता कहा जाता है। इस योजना में आधारभूत उद्योगों के विकास तथा इस्पात के उत्पादन पर विशेष ध्यान दिया गया था। महलनोवीस योजना आयोग के 1955 से 1967 तक सदस्य थे। सार्वजनिक क्षेत्र (पब्लिक सेक्टर) में दूसरी योजना में किया गया व्यय अधिक था। द्वितीय योजना के बाद 1962 में तीसरे लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस का वोट प्रतिशत पहले और दूसरे चुनाव (1952, 1957) से घटकर 44.7 प्रतिशत हो गया था।
नामवर पचास के दशक के कथाकारों में वर्गीय दृष्टि नहीं देखते। वे पचास के दशक की सीमा से कहानीकारों में वर्गीय चेतना के अभाव को जोड़ते हैं, अपने पक्ष में उन्होंने रामविलास शर्मा द्वारा 'बूंद और समुद्र' की आलोचना की मुलामियत का भी जिक्र किया है। मुक्तबोध की कविताओं को उन्होंने इस दौर में 'आउट ऑफ ट्यून' कहा है। पचास के दशक की वर्गीय चेतना और दृष्टि, पंचवर्षीय योजना भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राजनीतिक समझ, गुटनिरपेक्षता की राजनीति आदि पर अलग से गंभीरता के साथ व्यापक रूप से विचार करना यहां संभव नहीं है। 'परिन्दे' और निर्मल वर्मा को लेकर नामवर से अब तक जितने सवाल पूछे गये हैं, उन पर भी अलग से विचार किया जाना चाहिए। उन्होंने लतिका के घुटते जीवन और नया जीवन आरंभ न करने के पक्ष में 'मार्क्सवाद' को भी ला खड़ा किया है क्योंकि मार्क्सवाद भी सतह और गहराई में अंतर मानता है। वे निर्मल को 'उलझाने वाले लेखक' कहते हैं, जबकि नामवर ने अपनी आलोचना से भी कई उलझनें पैदा की हैं। उनकी यह खूबी है 'जो सुलझ जाती है गुत्थी, फिर से उलझाता हूँ मैं'। चन्द्रभूषण तिवारी के इस मत से सहमत होने के बाद भी कि निर्मल की कहानियों में 'जिन्दगी का खुला ढांचा' नहीं है और उनकी कहानियाँ 'साहित्यिक पाठकों तक ही सीमित हैं', नामवर निर्मल को ''एक सीमित पाठक-समुदाय, मध्यवर्गीय पाठक-समुदाय को ध्यान में रखकर लिखने के बावजूद, एक शहरी पढ़े-लिखे, मध्यवर्ग की विशिष्ट संवेदनाओं के चित्रण के कारण जनवादी मोर्चे से बाहर'' नहीं रखते। (सम्मुख पृ. 85) 'लन्दन की एक रात' कहानी तक उन्होंने निर्मल की कहानियों को, व्यापक रूप से प्रगतिशील धारा के अन्तर्गत रखा है? क्या हिन्दी कथाकारों की प्रगतिशील धारा की कोई 'दूसरा परम्परा' भी है? कहानियों पर बात करते हुए दूसरे क्षेत्रों में सक्रियता को भी वे अपने पक्ष में रखते हैं। निर्मल वर्मा द्वारा 'सम्पूर्ण क्रान्ति' की हिमायत से उन्हें ऐसा 'आभास' होता है कि वे ''वामपंथी लोगों से ज्यादा जनवादी दिखाई पड़ते हैं'' (वही, पृष्ठ 80) निर्मल की अधिसंख्य कहानियों में 'अस्तित्ववादी दिशा' देखने-दिखाने वाले आलोचकों को वे अस्तित्वाद की 'राजनीतिक अभिव्यक्ति साम्राज्यवाद विरोध' में दिखाते हैं। जहाँ तक पूंजीवाद के विरोध का सवाल है, वे उसे किसानों-मजदूरों के संघर्ष से ही नहीं, व्यक्ति के धरातल से भी संभव सिद्ध करते हैं। चन्द्रभूषण तिवारी ने 'निर्मल के साहित्य का विषय' 'निसंग व्यक्तिवाद' माना था। नामवर के अनुसार 'व्यक्तिवाद वस्तुत: उभरते हुए पूंजीवाद का ही दर्शन था, जब लेसन फेयर का सिद्धान्त अर्थव्यवस्था में माना जाता था।' (वही, पृष्ठ 82) वे ''इस मामले में बहुत स्पष्ट नहीं हैं कि इजारेदार पूंजीवाद का दर्शन भी व्यक्तिवाद है या नहीं''। वे इजारेदार पूंजीवाद और उसके 'विकसित कदम' बहुराष्ट्रीय पूंजीवाद का दर्शन व्यक्तिवाद नहीं मानते। तर्क यह है कि बहुराष्ट्रीय पूंजीवाद या कॉरपोरेट पूंजीवाद का कोई दार्शनिक नहीं है। ''अमेरिका में आज मल्टीनेशनल का हिमायती दार्शनिक व्यक्तिवाद को अर्थव्यवस्था में नहीं मानता है, राजनीति में नहीं मानता है, बल्कि निश्चित रूप से वे समूहवाद की ओर अग्रसर हो रहे हैं।'' (वही) निर्मल वर्मा के बचाव में दिये गये ये तर्क हमें अर्थशास्त्र की दुनिया में ले जाते हैं और बड़ी बात यह है कि वे एक विशेष दौर में पूंजीवाद से व्यक्तिवाद के रिश्ते को समाप्त करते हैं। नामवर की कहानी-समीक्षा से जुड़े ऐसे कई सवाल हैं, जिन पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए। वे अपने पक्ष में अमेरिकी बुद्धिजीवियों की मिसाल देते हैं, नाम बताये बगैर कि उन्होंने 'आर्गेनाइजेशनल (संघटनात्मक) कैपिटलिज्म' की बात कही है। निर्मल की कहानियों में 'व्यक्तिवाद' और 'अस्तित्वाद' के खंडन के लिए नामवर जितनी दूर की यात्रा करते हैं, उस ओर अक्सर हमारा ध्यान नहीं जाता। निर्मल को 'डिफेंड' करने के नामवर के तर्क बहुत ठोस और ग्राह्य नहीं हैं।
यह सच है कि कहानी में कई संभावनाएं होती है, पर पूरी कहानी अनेक संभावनाओं की होकर भी एक निश्चित अर्थ-लक्ष्य की ओर अग्रसर होती है। सामाजिक समस्याओं की तरह नैतिक समस्याओं का भी महत्व होता है। प्रश्न आलोचकीय दृष्टि का है कि वहां कौन-सी समस्या प्रमुख और गौण है। प्रमुख को गौण, गौण को प्रमुख और सभी समस्याओं को समान रूप से देखने की एक स्वतंत्र दृष्टि हो सकती है, पर आलोचना कर्म अपने व्यापक अर्थ में सामाजिक-सांस्कृतिक कर्म है और इसलिए किसी भी प्रगतिशील और मार्क्सवादी आलोचक से यह अपेक्षा की जाती है कि वह प्रमुख सामाजिक समस्याओं को चिन्हित विवेचित करे। 'जीवन के रहस्यों की खोज' को 'साहित्य का एक महत्वपूर्ण कार्य' मानने वाले नामवर का कथन है - ''अंशत: यह काम निर्मल ने किया है और उसकी प्रशंसा की जानी चाहिए निन्दा नहीं की जानी चाहिए।'' (वही, पृष्ठ 134) सुरेश पाण्डेय ने नामवर से निर्मल को लेकर कई सार्थक और जरूरी सवाल किए थे। 'रहस्यवाद' के अतिरिक्त उन्होंने निर्मल के कथाचरित्रों, स्थितियों, समस्याओं, अनुभव-संसार के प्रातिनिधिक न होने और 'इन सबका ऐतिहासिक दशकों की क्रूरता से मुक्त रहने' जैसे सवाल पूछे थे। नामवर ने कहा था ''निर्मल की चर्चा कुछ ज्यादा ही कर रहे हो।'' (वही, पृ. 135) इस आलेख में भी निर्मल की चर्चा कुछ अधिक इसलिए है कि इससे नामवर की कथा समीक्षा के कई सूत्र हासिल होते हैं, उनके अन्तर्विरोध स्पष्ट होते हैं। वे जिस अर्थ की तलाश करते हैं, वह कहानी में कम होती है। संकेत को पकड़कर उसका अर्थ-विस्तार नामवर की कथा-समीक्षा की खूबी और खराबी है। एक कहानी का दूसरी कहानी से, एक कहानीकार का दूसरे कहानीकार से अपने व्यापक अध्ययन और नवीन मौलिक दृष्टि से वे जो सह-संबंध को स्थापित करते हैं, वह पाठकों को एक साथ चमत्कृत विस्मित और अभिभूत करता है, जो किसी सार्थक और मार्क्सवादी आलोचना का अनिवार्य गुण नहीं हो सकता। 'परिन्दे' पर बात करते हुए उन्हें चेखव के नाटकों की नायिकाएं याद आती हैं जो 'मास्को' 'मास्को' कहती हैं। इन नायिकाओं के लिए मास्को एक शहर नही, नई जिन्दगी है और यह नई जिन्दगी मास्को शहर से जुडऩे में है। नामवर स्वीकारते हैं कि ''मुझे कहीं 'परिन्दे' पढ़ते समय लगा, हो सकता है मेरे मन का यह मनोगत आरोप हो, 'हम कहां जाएंगे' यह सवाल केवल चिडिय़ों का 'सवाल नहीं है, यह केवल लतिका का सवाल भी नहीं है, बल्कि ज्यादा व्यापक सवाल दिखाई पड़ता है, क्योंकि एक जगह लोग... यानी हम सभी लोग जैसे परिन्दे हैं, एक 'सिचुएशन' में कैद हैं।'' (वही पृ. 140) 'मनोगत आरोप' की यह ईमानदार आत्मस्वीकृति नामवर के यहां अन्यत्र नहीं दिखती। 'परिन्दे' में 'व्यंग्यार्थ की गूंज' उन्हें दिखाई दी थी और 'डिप्टी कल्कटरी' में ऐसा ही 'व्यापक ध्वन्यार्थ' उन्होंने देखा था। 'परिन्दे' और 'डिप्टी कलक्टरी'  दोनों को एक साथ रखते हुए उन्होंने 'पीड़ा भरी प्रतीक्षा' की बात कही है। ''मैं दूसरे पाठकों से जानना चाहूंगा कि उन्हें यह दिखाई पड़ रहा है या नहीं?'' (वही) नहीं।
'परिन्दे' कहानी में बार-बार 'प्रतीक्षा' शब्द का उल्लेख है, 'डिप्टी कलेक्टरी' में एक बार भी नहीं। क्या लतिका और शकलदीप बाबू में दूर से भी कोई समानता है? नामवर दोनों कहानियों से ढूंढे गए अपने अर्थ को 'इतिहास-सम्मत' कहते हैं 'और उसका इतिहास में एक वस्तुगत आधार उपस्थित' मानते हैं। उनके अनुसार ''छठे दशक में भारत उस ऐतिहासिक संक्रमण के दौर से गुजर रहा था, जहाँ 'अनचार्टेड' भविष्य था, कोई बना-बनाया मॉडल हमारे सामने नहीं था कि विकास का कौन-सा मॉडल अख्तियार करें।'' (वही, पृ. 141-42) क्या सचमुच पचास के दशक में नेहरू ने विकास का मॉडल नहीं बनाया था? जिसे हम 'नेहरूपियन मॉडल' कहते हैं, वह द्वितीय पंचवर्षीय योजना के बाद आकार ग्रहण करने लगा था। नेहरू की मिश्रित अर्थ व्यवस्था का मॉडल निर्मित हो चुका था। नामवर ने उन्नीसवीं सदी के अन्त में रूसी समाज की जो स्थिति थी, उसे स्वतंत्र भारत के पचास के दशक से जोड़ा है, जो बहुत सही नहीं है। लतिका के इस सवाल को कि 'कहां जाएंगे' स्पष्ट करने के लिए नामवर छठे दशक में हमें ले जाते हैं। ''स्वाधीनता के बाद पूरे देश के सामने यही तो प्रश्न था कि हम लोग जिस स्वाधीन भारत का निर्माण करना चाहते हैं... वह स्वाधीन भारत यानी हम कहाँ जाएंगे? 'समाजवाद के रास्ते पर' 'क्या हम एक सेक्युलर डेमोक्रेटिक सोशलिस्ट स्टेट बना सकेंगे जो आत्मनिर्भर हो?''' (वही पृ. 171) जिसे नेहरू-युग कहा जाता है क्या यह उधेड़बुन की लतिका के समक्ष 'कहां जाएंगे' का सवाल प्रमुख था, शकलदीप बाबू के यहां नहीं। 'डिप्टी कलेक्टरी' कहानी में जाने का सवाल नहीं, पहुंच जाने का सवाल प्रमुख है। दौड़ती ट्रेन की खिड़की तक मुश्किल से शकलदीप बाबू पहुंचते हैं। उनका लड़का नारायण (बबुआ) डिप्टी कलक्टर नहीं बन पाता। यहां प्रतीक्षा नहीं परिणाम है। फिर भी नामवर इन दो कहानियां - 'परिन्दे' और 'डिप्टी कल्कटरी' को सामने रखकर 'प्रतीक्षा' की बात करते हैं। लतिका और शकलदीप बाबू दोनों भिन्न वर्ग के हैं 'दातौन-कुल्ला करने वाले', 'बन्दर की भांति आंखें मलका-मलका कर' रसोई घर की ओर देखनेवाले, पत्नी जमुना से 'कटाह कुकुंर की तरह बोलने वाले' चिप्पियां लगी मैला पारसी कोट पहनने वाले, नारायण की फीस तथा उनके खाने-पीने के लिए छह सौ रुपये कर्ज़ लेने वाले शकलदीप बाबू सामान्य मुख्तार है। ''वह राम का नाम लेकर कचहरी जाते, अक्सर कुछ पा जाते, जिससे दोनो जून चौका चूल्हा जल जाता'' (अमरकान्त की सम्पूर्ण कहानियां, पहला खण्ड, 2013, पृष्ठ 88) और लतिका? लतिका आर्थिक दृष्टि से कमजोर नहीं है। शकलदीप बाबू का परिवार है, वह बाल-बच्चों वाले आदमी हैं। लतिका आर्थिक दृष्टि से कमजोर नहीं है। शकलदीप बाबू की प्रतीक्षा को लतिका की प्रतीक्षा से जोडऩा किसी भी पाठक को न्याय संगत नहीं लगेगा। नामवर के लिए निजी और नैतिक समस्या प्रमुख है, आर्थिक, पारिवारिक और सामाजिक नहीं। भारत में रूसी समाज की तरह प्रतीक्षा-संबंधी प्रश्न को 'फार्मुलेट' करने वाली किताबें इसलिए नहीं लिखी गयीं कि स्वतंत्र भारत में प्रतीक्षा का प्रश्न बड़ा प्रश्न नहीं था। नामवर ने चेर्नीशेवस्की के उपन्यास 'व्हाट इज टू बि डन' के साथ लेनिन और टॉलस्टाय द्वारा इसी प्रकार की लिखी जाने वाली पुस्तकों की बात कही है। अपने एक कथन को सिद्ध करने के लिए वे 'आर्थिक-सामाजिक विकास की दिशा' के साथ 'साहित्यिक-सांस्कृतिक विकास' के क्षेत्र में किसी 'स्पष्ट मार्ग' के न होने को 'छठे दशक की सबसे महत्वपूर्ण समस्या' मानकर भ्रम की सृष्टि करते हैं। ''लेखक के मूल कथ्य को हमेशा पकड़ा ही जाए, कोई ज़रूरी नहीं है... तो अपनी समझ से मैंने उनको 'फार्मुलेट' किया।'' (वही पृ. 143) क्या आलोचना-कर्म 'मात्र मूल कथ्य का अन्वेषण भर करना' है या 'मूल कथ्य की निर्मम पड़ताल करना' भी है? सुरेश पाण्डेय के इस कथन से नामवर 'बिल्कुल सहमत' हैं। निर्मल की कहानियों के संबंध में नामवर ने 'मानव-मुक्ति की धारणा' रखी थी। यह धारणा उन्हें उस समय 'सबसे बड़ा मानव मूल्य' लगा था। उन्होंने उस समय ही नहीं, बाद में भी 'मानव मुक्ति संबंधी अपनी परिकल्पना' स्पष्ट नहीं की। एक ओर वे अस्तित्ववाद के साम्राज्यवाद विरोधी पक्ष को सामने रखते हैं और दूसरी ओर प्रश्नों से घिरने के बाद यह स्वीकारते हैं कि ''इतिहास-विरोधी मानव-मुक्ति की धारणा मूलत: अस्तित्वादी दर्शन की धारणा है जो उस दौर में कविता में भी व्यक्त हो रही थी और कविता के साथ ही कहानियों में जहां व्यक्त हो सकती थी, निर्मल में हो सकती थी।'' (वही) नामवर स्वीकारते हैं कि ''नई कविता में यही भावबोध, यही जीवन-दृष्टि उस दौर में व्यक्त हो रही थी और यह जीवन-दृष्टि, यह भाव-बोध कहानी में आगे आ रहा था तो निर्मल जी की ही कहानी में आ रहा था।'' (वही) एक मार्क्सवादी आलोचक का काम कहानी में व्यक्त हो रही अस्तित्ववादी जीवन-दृष्टि की पहचान और उसकी आलोचना का था। रामविलास शर्मा ने 'नयी कविता और अस्तित्ववाद' लिखकर यह कार्य किया। इसके ठीक विपरीत कहानी में नामवर ने निर्मल को आगे कर अन्य कथाकारों को पीछे किया। बड़ी बात यह है कि नामवर से यह सवाल - अस्तित्ववादी जीवन-दर्शन का किसी ने नहीं किया सुरेश पांडेय को छोड़कर। इस मूल जीवन-दर्शन की क्या सीमा है, यह सवाल इतने वर्षों के दौरान अकेले तुमने ही उठाया है... इस तरह का जीवन-दर्शन उस समय के... जो लोग प्रगतिशील धारा के लेखक थे, अपने को प्रगतिशील कहते थे, मानते थे, वे भी इन विचारों से प्रभावित थे। इसके कीटाणु, इसके बीज उस दौर के बहुत-से लोगों में थे। (वही, पृ. 144) क्या इन प्रभावित लोगों में नामवर नहीं थे? सुरेश पाण्डेय के इन्टरव्यू के तीन वर्ष पहले (1981) जब चन्द्रभूषण तिवारी ने 'परिन्दे' की सभी कहानियों में 'अस्तित्ववादी दिशा' की बात कही थी, नामवर अस्तित्ववाद के पक्ष में खड़े थे, अस्तित्ववाद को, इस विचारधारा को 'साम्राज्यवाद की निष्पत्ति' नहीं मान रहे थे और निर्मल के 'व्यक्तिवाद' के पक्ष में अर्थशास्त्र से तर्क प्रस्तुत कर रहे थे। अमरकान्त, भीष्म साहनी, शेखर जोशी, मार्कण्डेय, रेणु के यहां क्या यह अस्तित्ववादी विचारधारा थी? क्या इनकी कहानियों में इसके 'कीटाणु' विद्यमान थे?
कहानी पर 'लम्बी चुप्पी के बाद' नामवर ने निर्मल और मनोहरश्याम जोशी की अधिक चर्चा की। भीष्म साहनी पर अधिक विचार उन्होंने नहीं किया। वे यह कहना नहीं भूलते कि ''विधिवत भीष्म जी की नोटिस कायदे से तो मैंने ही ली थी... कहानीकार के रूप में भीष्म साहनी का पहला उल्लेख मैंने किया था और महत्वपूर्ण उल्लेख किया था...'' (वही, पृष्ठ 145) खीझ कर वे यह भी कहते हैं ''मेरा धंधा यही तो नहीं है कि मैं केवल कहानियों पर ही लिखता रहूं.. कहानियों के अलावा और दूसरे कारण हैं, जिनके कारण भीष्म साहनी को प्रतिष्ठा मिली।''(वही) क्या नोटिस लेना, उल्लेख करना ही आलोचक का काम है या उस पर विस्तार से विचार करना भी? कहानीकार पर न सही, युग -विशेष पर ही सही। नयी कहानी में कई धाराएं थी। वे उस दौर में कहानी में हो रहे नये प्रयत्नों पर 'पुनर्विचार की जरूरत' समझते हैं। उन्होंने पुनर्विचार नहीं किया। संभव था, इस पुनर्विचार में उन्हें अपनी कुछ धारणाओं पर भी पुनर्विचार करना होता। नामवर के लिए यश-ख्याति का महत्व रहा है। वे भीष्म जी के 'यशस्वी' होने में कहानियों को नहीं, उपन्यास को 'कारण' मानते हैं। इतना ही नहीं, बातचीत में वे यह भी कहते हैं कि 'तमस' को ''साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिलने और भीष्म जी के प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव बनने के बाद स्थितियां बदलीं।''(वही) भीष्ण साहनी की जन्मशती के अवसर पर उन पर अपनी पत्रिकाओं के अंक केन्द्रित करने वाले सम्पादक कहानीकार भीष्म साहनी के संबंध में आालेचक नामवरसिंह के विचार पर अवश्य ध्यान देंगे। नामवर ने स्वीकारा है कि भीष्म साहनी ने कैथरीन मैन्सफील्ड की 'आक्सफोर्ड क्लासिकल सीरिज' में उनकी चुनी हुई कहानियां इलाहाबाद से लाकर उन्हें दी थीं। उन्होंने भीष्म जी की कहानी, कला को 'कैथरीन मैन्सफील्ड की कहानी-कला के बहुत समीप' माना। कैथरीन मैन्सफील्ड की 'ब्लिस'  और 'फ्लाई' जैसी कहानियों से वे प्रभावित थे। कैथरीन की कहानियों को 'चेखव के ढंग' की कहानियां कहा जाता था। चेखव हों या कैथरीन मैन्सफील्ड, ओ हेनरी हों या एडगर एलेन पो, मोपासां हों या कोई और - ये सब नये कहानीकारों को जिन रूपों में प्रभावित कर रहे थे, उस पर संभवत: अभी तक विचार नहीं हुआ है। क्या सभी नये कहानीकार पश्चिमी कहानीकारों से प्रभावित थे? अमरकान्त, रेणु, शेखर जोशी, मार्कण्डेय आदि के साथ तो ऐसा नहीं था। भीष्म साहनी की कहानियों में नामवर ने 'सपाटता और सरलता' देखी थी, उनकी कहानियों के अपने 'सिग्नेचर ट्यून' की बात भी कही थी, उनकी 'तटस्थ कला' की सराहना की थी, 'रफ्तार' कहानी को 'अद्भुत' और 'अमृतसर आ गया है' 'वांगथू' 'लीला नन्दलाल की' को 'अच्छी और अविस्मरणीय कहानियां' कहा था। फिर भी भीष्म जी कहानीकार के रूप में 'यशस्वी' नहीं थे। उनके द्वारा भीष्ण साहनी की तुलना ज्ञानरंजन से करना कितना उचित है? ''ज्ञान जिन पेचींदगी में जाते हैं, भीष्म जी उस पेचीदगी मे नहीं जाते। कहीं-कहीं उस बारीकी मे भी नहीं जाते।'' (वही, प-. 146) एक दौर के कहानीकार की तुलना दूसरे दौर के कहानीकार से नहीं की जानी चाहिए। भीष्म जी की कहानियों के साथ प्रेमचन्द की कहानी की बात करना भी सही नहीं है। भीष्म जी की सीमा बताने के लिए क्या प्रेमचन्द के पास पहुंचना जरूरी है? ''प्रेमचन्द की दूसरे दर्ज की कहानियों में जो एक सादगी, सरलता और सफाई मिलती है, वह भीष्म जी में मौजूद है... प्रेमचन्द की जो गहराई में जाकर के लिखी जाने वाली कहानियां हैं उस ऊंचाई को भीष्म जी की कहानियाँ कम छू पाती है।''(वही) निर्मल पर लिखते-रहते हुए अज्ञेय और जैनेन्द्र को ही नहीं, रामकुमार और वैद को भी नामवर ने सामने नहीं रखा था। नामवर व्यवस्थित आलोचना के जरिए नहीं, टिप्पणियों के जरिए जो बातें कहते हैं, वे उनके मन्तव्य को स्पष्ट करती हैं।
छठे दशक के मुख्य कथाकारों में नामवर ने अमरकान्त, निर्मल और रेणु को रखा है। ये तीनों 'नयी कहानी के निर्माता' हैं। रेणु और अमरकान्त पर न लिख पाने का उन्हें 'पछतावा' रहा है। 1981 में निर्मल वर्मा अमरकान्त की तुलना में उन्हें 'वजनी' लगे थे। (कहना न होगा, पृ. 48) इस समय उन्होंने कहा था - ''शुरू में कुछ बहुत अच्छी कहानियां लिखने के बाद अमरकान्त ने बहुत कमजोर कहानियां लिखी हैं।''(वही) तीन वर्ष बाद - ''अमरकान्त आज भी लिख रहे हैं, 'डिप्टी कलक्टरी' और 'हत्यारे' जैसी कहानियों के अतिरिक्त उन्होंने पिछले दो दशकों में काफी उल्लेखनीय कहानियां लिखी हैं।''(वही, पृ. 122) तीन वर्ष में 'कमजोर कहानियां' 'उल्लेखनीय कहानियां' हो गयीं। हिन्दी कथालोचना पर कार्य करने वाले गंभीर शोधार्थी शायद इस पर विचार करें।
साठ का दशक पचास के दशक से कई रूपों में भिन्न था। इस दशक में कहानी भी बदली। इस दशक के आरंभ में 'हाशिए पर' के निबंध लिखे गए थे। 'नयी कहानी' और 'मित्र त्रयी' के साथ निर्मल स्थापित हो चुके थे। कथालोचक के रूप में नामवर की जय जयकार थी। कहानी का माहौल बदल चुका था। उन्हें लगा कि इस माहौल में ''अब कहानी-संबंधी कोई गंभीर बहस संभव नहीं रही... उस पूरे माहौल में मुझे लगा कि अब तो दादुर बोले है। कहानी की समीक्षा की किताबें उन दिनों खूब आयीं।''(कहना न होगा, पृ. 46) अभी तक इसका खुलासा नहीं हुआ है कि वे 'दादुर' कौन थे? कमलेश्वर की 'नयी कहानी की भूमिका' 1966 में प्रकाशित हुई थी और राजेन्द्र यादव की 'कहानी: स्वरूप और संवेदना' 1968 में। 'कथा-समीक्षा और पराजित पहरुए' लेख में कमलेश्वर ने नामवर पर आक्रमण किया था। इस लेख में कमलेश्वर का आक्रोश अधिक है। कुछ बातें सही भी हैं कि नामवर अन्तप्र्रेरणा से कहानी-विधा के प्रति आकर्षित नहीं हुए थे। उन्होंने सारी परम्परा को दूषित करने का 'सबसे दुखद उदाहरण' नामवर को माना था और यह दुख प्रकट किया था - ''कथा-साहित्य की नयी संचेतना की सापेक्षता में न चल पाने के कारण डा. नामवर सिंह जैसी सम्भावनापूर्ण प्रतिभा का यह दुखद अन्त कथा-समीक्षा का एक कष्टकर अध्याय है। (नयी कहानी की भूमिका, 1955 प. 109) अपने दूसरे लेख 'कथा -समीक्षा: भ्रांतियां, भटकाव और नई शुरुआत' में कमलेश्वर ने 'कहानी की विपुल धारा' को नामवर के लिये 'निमित्त मात्र' माना, उनके 'अन्तर्विरोधी घोषणाओं' की बात कही, 'हिन्दी कथा-समीक्षा की पद्धति' की खोज को 'मुखौटा' कहा और यह दु:ख प्रकट किया ''स्वातन्त्र्योत्तर कहानी की विविधता ही उसकी सबसे बड़ी शक्ति रही है, पर कोई भी आलोचक उस विविधता को संतुलित रूप से नहीं पहचान पाया, इसीलिए सारे विश्लेषण एकांगी और असन्तुलित हो गये।'' (वही, पृ. 141) राजेन्द्र यादव में आक्रोश कम था। उनकी आलोचना दृष्टि अधिक संतुलित थी। नामवर की कथालोचना उन्हें ऐसी लगी - ''आज भी बौद्धिकता का आडम्बर लिये उपमाओं, उत्पे्रक्षाओं से लदी भाषा का संगीत उन्हें अधिक मोहक लगता है और जीवित भाषा का मुहावरा, पूरी संस्कृति को बांध देनेवाला लहजा और सार्थक आब्जर्वेशन उनके लिए महत्व ही नहीं रखते।'' (कहानी: स्वरूप और संवेदना, 1968, पृष्ठ 152) नामवर ने कहानी में 'सामाजिक संघर्ष' को किनारे किया था। स्वतंत्र भारत में सामाजिक संघर्ष वाली हिन्दी कहानियों को उनके कारण ही महत्व नहीं मिला। उन्होने कथालोचना में एक 'ट्रेंड' स्थापित कर बाद के कहानीकारों और कथालोचकों को कम प्रभावित नहीं किया। जहां तक उनके अन्तर्विरोध का प्रश्न है ''इसके बीज समीक्षक की मूलभूत, अंडरस्टैंडिंंग में ही है, काव्य -संस्कार और कथा-समीक्षा की रस्साकशी में है, साहित्यिक दायित्व के ऊपर व्यक्तिगत रुचि और बोध के हावी हो जाने में है, गलत स्थिति को एक बार स्वीकार कर चुकने पर उसे जैसे भी हो, सही सिद्ध किये चले जाने के दुराग्रही हठ में है, कुछ मित्रों को नाराज न कर सकने की मजबूरी में है और इस प्रकार सब मिलाकर नये-नये अन्तर्विरोध पैदा करते चले जाने में है। यही नामवर की ट्रैजेडी है और इससे मुक्ति पाना अब उनके लिये संभव नहीं रह गया  है।'' (वही, पृ. 153)
एक इन्टरव्यू में नामवर ने 'नेहरू युग के बाद नई अराजकता की स्थिति' (बात बात में बात, पृ. 123) की बात कही है। अराजकता की स्थिति रही हो या नहीं पर साठ का दशक पचास के दशक की तुलना में कही अधिक उथल-पुथल का दशक था। नेहरू के अंतिम दिनों में उनका जादू उतरने लगा था। तीसरे (1962) और चौथे लोकसभा चुनाव (1967) में कांग्रेस का वोट प्रतिशत घटा था। 1962 के चीनी आक्रमण ने सुरक्षा के प्रश्न के साथ मैत्री और 'पंचशील' पर सवाल खड़े कर दिये थे। कांग्रेस पार्टी में नेहरू को 1952 के बाद चुनौैती देने वाला कोई नेता नहीं था। कामराज नडार 1963 में कांग्रेस के अध्यक्ष बने और विभिन्न राज्यों के चार पार्टी स्वामियों (बास) के साथ मिलकर कांग्रेस पर नियंत्रण किया। नेहरू के निधन के बाद यह ग्रुप 'सिंडिकेट' कहलाया। 1964 में नेहरू और मुक्तिबोध का निधन हुआ। कम्युनिस्ट पार्टी पहली बार विभाजित हुई। टूट का सिलसिला आरंभ हुआ। 1966 में लालबहादुर शास्त्री के आकस्मिक निधन के बाद इन्दिरा गांधी ने सत्ता हासिल की। सत्ता हासिल करने की ललक या प्रवृत्ति कला-साहित्य के क्षेत्र में फैली। कविता और कहानी के क्षेत्र में उस समय फैले आन्दोलनों को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। 1967 में कांग्रेस संसदीय पार्टी में मोरारजी देसाई की हार हुई। 1967 का चुनाव इन्दिरा गांधी के नेतृत्व में लड़ा गया। नौ राज्यों में संविद सरकार बनी। नक्सलबाड़ी में 'वसंत या वज्रनाद' सुनाई पड़ा। कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) फिर टूटी। राष्ट्रपति जाकिर हुसैन की मृत्यु के बाद राष्ट्रपति का चुनाव इस दशक की एक बड़ी घटना है। नीलम संजीव रेड्डी कांग्रेस के आधिकारिक उम्मीदवार थे। इन्दिरा गांधी ने सत्ता के दृढ़ीकरण के लिए वी.वी. गिरि को राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनाकर 'अन्तरात्मा की आवाज़' पर वोट देने को कहा। वी.वी. गिरि राष्ट्रपति बने और सत्ता संघर्ष में इन्दरा गांधी ने जीत हासिल की। उन्हें कांग्रेस से निष्कासित किया गया। उनकी शक्ति राज्य पार्टी संगठन से कहीं अधिक कांग्रेस संसदीय पार्टी में थी। मार्च 1971 में इन्दिरा गांधी ने संसदीय चुनाव कराने का निश्चय किया। मतदाताओं ने सत्ता-संघर्ष में इन्दिरा गांधी के पक्ष में मतदान करने का फैसला किया। 1971 के चुनाव में इन्दिरा गांधी की जीत हुई। चौथे लोकसभा चुनाव से कांग्रेस का लगभग 3 प्रतिशत मत बढ़ा। मार्च 1972 में प्रान्तीय विधानसभाओं के चुनाव में सभी राज्यों में कांग्रेस बहुमत में रही। कांग्रेस संस्था पर इन्दिरा गांधी का निजी नियन्त्रण हुआ। बांग्लादेश के जन्म के साथ 'गूंगी गुडिय़ा' 'दुर्गा' हो गई।
कविता और कहानी में इस दशक में कई आन्दोलन खड़े किये गये। नवम्बर 1964 में आधार के सचेतन कहानी विशेषांक से सचेतन कहानी-आन्दोलन महीप सिंह तथा उनके साथियों ने आरंभ किया। अकविता के तर्ज़ पर 'अकहानी' आन्दोलन चला, जिसमें दूधनाथ सिंह, गंगाप्रसाद विमल प्रमुख थे। 'नई कहानियां' का सम्पादक बनने के बाद इसी दशक में अमृतराय ने 'सहज कहानी' का आन्दोलन खड़ा किया। बाद में सत्तर के दशक के आरंभ में कमलेश्वर ने समांतर कहानी का आन्दोलन आरंभ किया। 'सारिका' के दस अंक (अक्टूबर 1974 से जुलाई 1975 तक) समान्तर कहानी विशेषांक के रूप में प्रकाशित हुए थे। इस आन्दोलन में 'आम आदमी' और 'चिरन्तन वाम' के नारे प्रमुख थे। राकेश वत्स ने अपनी पत्रिका - 'मंच' से 1978 में 'सक्रिय कहानी' की बात कही और पत्रिका के दो सक्रिय विशेषांक प्रकाशित किए। इसके बाद 'जनवादी कहानी' का दौर भी कुछ समय तक चला। इन सभी आन्दोलनों से 'कहानी-रचना की दिशा में कोई विशेष लाभ' नामवर नहीं देखते। (कहना न होगा, पृष्ठ 117) अकहानी आन्दोलन पर वे 'अस्तित्ववादी दृष्टि का बहुत साफ असर' देखते है और विषय वस्तु के साथ भाषा और शिल्प की दृष्टि से भी इसे 'अपठनीय' कहते हैं। समान्तर कहानी में उन्हें 'आम आदमी' गायब दीखता है। इस आन्दोलन से जुड़े दो कहानीकारों - कामतानाथ और इब्राहीम शरीफ को उन्होंने याद किया है, जिन्होंने कुछेक जानदार कहानियां लिखी : इन 'जानदार कहानियों' की उन्होंने चर्चा नहीं की है। उनकी सलाह है ''ऐसे लेखकों को केवल समान्तर आन्दोलन से जुड़े रहने के कारण छोड़ नहीं दिया जाना चाहिए।'' (सम्मुख, पृष्ठ 153) दूसरों ने छोड़ा हो या नहीं, नामवर ने अवश्य छोड़ा। ऐसे कई कहानीकार हैं, जिनका वे अपने इन्टरव्यू में नामोल्लेख करते हैं, पर उनकी कहानियों का नहीं। किसी भी कहानी-आन्दोलन के घोषणा पत्रों से कहानी जन्म  नही लेती। ''समान्तर आन्दोलन तो घोषणा - पत्रों का आन्दोलन था। दुर्भाग्य से जो नायक थे - कमलेश्वर, वे स्वयं बहुत अच्छे कहानीकार नहीं थे। उन्होंने कहानी पर जो आलोचना पुस्तकें लिखी हैं, उनसे यह मालूम होता है कि समय-समय पर वे तालिका प्रकाशित किया करते थे। कुछ लेखकों को सूची में दाखिल किया, फिर बाद में उन्होंने अपने मन्त्रिमण्डल का विस्तार करते हुए कुछ और लेखकों को अपने साथ लिया... यह एक साहित्यिक आन्दोलन भी नहीं था, बल्कि कुछ लेखकों का गुट बनाकर के दूसरी चीजों, दूसरे उद्देश्यों और साहित्येतर प्रयोजनों को साधने की कोशिश थी।'' (वही पृ 154), कमलेश्वर उनके लिए, 'एजेंट प्रोवोकेटियर' हैं। जनवादी कहानी को नामवर जनवादी कहानी कहने के पक्ष में नहीं हैं क्योंकि यह नाम साहित्यिक नहीं है।
नामवर के लिए पढऩा 'सांस लेने के बराबर' रहा है। हिन्दी कथालोचना में केवल सुरेन्द्र चौधरी और नामवर हैं, जिन्होंने, रूसी, फ्रेंच कथाकारों का गंभीर अध्ययन किया और हिन्दी में लिखी गयी और लिखी जा रही कहानियों पर नजर रखी। नामवर कुछ कहानीकारों की कुछ कहानियों की चर्चा करते हैं, जिससे उनके चयन का आधार भी ज्ञात होता है। अगर संक्षेप में एक नामसूची बनायी जाये तो उन्होंने लू शुन, गोगोल, टॉलस्टॉय, गोर्की, चेखव, हेमिंग्वे, ओ हेनरी, एलेन पो, वर्जीनिया वुल्फ, कैथरीन मैन्सफील्ड, मोपासां, सात्र्र, कामू, काफ़्का, बोर्खेस, गूगी वर्तागो, कृशनचन्दर, मंटो, बेदी, इन्तजार हुसैन, गुरदयाल सिंह, वाइकुम मोहम्मद बशीर, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, इस्मत चुगताई, विजयदान देथा, कुंवर नारायण, रघुवीर सहाय, मुक्तिबोध, श्रीकान्त वर्मा, मनोहर श्याम जोशी, राहुल सांकृत्यायन, भैरव प्रसाद गुप्त, अमृतराय, प्रसाद, प्रेमचन्द, जैनेन्द्र, अज्ञेय, यशपाल, अश्क, भुवनेश्वर, रांगेय राघव के साथ 'नयी कहानी' के प्राय: सभी प्रमुख कथाकार, ज्ञानरंजन, काशीनाथ सिंह, दूधनाथ सिंह, इब्राहीम शरीफ, कामतानाथ, श्रीलाल शुक्ल, नासिरा शर्मा, मृणाल पांडे, असगर वजाहत, संजीव सृंजय, स्वयं प्रकाश, मिथिलेश्वर, इसराइल, सुरेश कोटक, चित्रा मुद्गल, अब्दुल बिस्मिल्लाह, शिवमूर्ति, जयनन्दन, अवधेश प्रीत, शशांक, मधुसूदन, अखिलेश, अरुण प्रकाश, उदय प्रकाश, स्नोवा बार्नो, नीलाक्षी सिंह, कैलाश वनवासी, ओमप्रकाश वाल्मीकि, हरनोट आदि कहानिकारों की बात की है। कुछ कहानीकारों की कुछ कहानियों पर विस्तार से विचार भी किया है, पर इससे हिन्दी कहानी और नयी कहानी के बाद की कहानियों की सम्पूर्ण तस्वीर नहीं बनती। उन्होंने पचास से अधिक कहानीकारों का नामोल्लेख तक नहीं किया है। प्रश्न नामोल्लेख और नाम सूची का न होकर उनके चयन के आधार का है। एक ओर वे 'परवर्शन' के कारण 'राजेन्द्र यादव के कहानीकार की मौत' की घोषणा करते हैं, यह कहते हैं कि वे ''लिख के याद करने लायक हैं भी नहीं'' और वे 'अच्छे कहानीकार के रूप में याद नहीं किए जाएंगे' (हिन्दी कहानी की एक सदी, साहित्य की पहचान में संकलित, पृ- 189) और दूसरी ओर 'हंस' द्वारा आयोजित 'कहानी की पहचान' शीर्षक गोष्ठी में अमरकान्त, रेणु और निर्मल वर्मा की 'अद्वितीयता' (यूनीकनेस) के साथ राजेन्द्र यादव की 'अद्वितीयता' की भी बातें करते हैं। राजेन्द्र यादव की 'अद्वितीयता' की बात उन्होंने 1990 में कही और 2002 में उन्हें 'लिख के याद करने लायक' भी नहीं माना। जिन कहानीकारों की कहानियों की चर्चा उन्होंने की है, उन पर जो विचार किया है, उनमें बहुत कुछ महत्वपूर्ण है, और जिन्हें जानबूझकर छोड़ दिया है, उन पर भी विचार होना चाहिए। नामवर हिन्दी कहानी का इतिहास-विकास नहीं लिख रहे थे कि सबका उल्लेख किया जाता। उनके चयन का एकमात्र आधार गुणवत्ता नहीं है। फिर कहानी को देखने का उनका एक सर्वथा भिन्न नजरिया है।
कहानी नामवर के लिए एक 'डेक' की तरह है। वह 'कमजोर का हथियार' है। कहानी की खूबी उसके समझे जाने से नहीं है। ''जिस दिन कहानीकारों, में यह एहसास होगा और कहेंगे कि मैंने कहानी लिखी, इसको समझने वाला कोई नहीं मिल रहा है। समझ लीजिए, एक अच्छी कहानी की संभावना बनती है।''(साहित्य की पहचान, पृ- 190) वे स्वयं को ऐसा पाठक मानते हैं जो किसी एक ढंग की, एक रूप-रंग की कहानी पसंद नहीं करता। इसी कारण वे 'चीफ़ की दावत' डिप्टी कलक्टरी और परिन्दे को एक साथ पसंद करते हैं। प्रश्न कहानी की पसंद का नहीं, उस पसंद के आधार का है। नामवर के यहाँ वह आधार स्पष्ट है। यह आधार बौद्धिक नहीं है। कहानी में वे संवेदना और मार्मिक स्थलों को महत्व देते हैं। कहानी की दुनिया में विचारधाराओं का अंत उनके लिए 'बहुत अच्छी बात' है। राजनीतिक कहानियों के साथ ही उन्होंने 'वैचारिक प्रतिबद्धता' का भी विरोध किया है। यह दूसरी बात है कि वे 'प्रतिबद्ध हूँ, आबद्ध हूँ, सम्बद्ध हूँ' के कवि नागार्जुन की 'प्रतिबद्धता' का खंडन नहीं करते। 'वैचारिक प्रतिबद्धता' के स्थान पर 'वैचारिक स्पष्टता' उनके लिए महत्वपूर्ण है। कहानी पर बातें करते हुए भरत मुनि से लेकर सुदूर की यात्रा करनेे वाले नामवर कहानी के मूल में 'भाव' और 'संवेदना' को रखते हैं, न कि 'विचार' को। उनके अनुसार कहानी विधा की अपनी 'मर्यादा' और 'सीमा' है। ''जिस तरह 'लिरिक' फार्म में महाकाव्य नहीं लिखा जा सकता, उसी तरह जिन्दगी का सारा यथार्थ आप एक ही कहानी में ठूस कर भर दें... यह संभव नहीं है। ('सम्मुख,' पृ.157-58) उनका आग्रह 'विधाओं के लौह शिकंजे' को बहुत मजबूती से पकड़े रहने का नहीं है, पर कहानी में संकेत और इशारा ही प्रमुख हैं। वे बार-बार प्रेमचन्द की याद दिलाते हैं कि कहानी 'ध्रुपद की एक तान' है। कहानी के विशिष्ट फार्म को वे नहीं भूलते और यह भी बताते हैं कि आज विधाओं में आवाजाही बनी हुई है। कहानी को विचार से अलग करने वाले नामवर 'लेखक के लिए विचारधारा और सिद्धान्त जरूरी' मानते हैं - ''साहित्य को विचार से दूर रखना तो फासीवाद का तर्क है। साहित्य और साहित्यकार को वैचारिक संघर्ष तो करना ही पड़ेगा।'' (सम्मुख, पृ. 217) कहानी-संबंधी नामवर-दृष्टि विचार और सिद्धान्तों से दूर है। उनके लिए साम्राज्यवाद विरोध और सामन्तवाद विरोध 'एक सुविधाजनक नुस्खा' है ('कहना न होगा', पृ. 164) उपन्यास, कहानी, कविता, नाटक सब उनके लिए 'कल्प सृष्टि ही हैं' (वही पृ. 202) कहानी में उनके लिए 'परिवेश' गौण है, महत्वपूर्ण 'मानवीय संवेदना' है। ''कहानी जहां बनती है, वह सामाजिक यथार्थ का चित्रण नहीं, बल्कि उसमें निहित मानवीय संवेदना है... कहानी परिवेश और स्थितियों के चित्रण से नहीं बनती।''(वही, पृ. 129) कहानीकार का न विचार-सम्पन्न होना जरूरी है न दृष्टि-सम्पन्न होना। वह 'वह चितवन आर कछू' की बात करते हैं, ''जो एक छोटी-सी जीवन घटना में खास चीज ढू्ढ़ लेती है, फिर उसे कहानी का रूप देती है।'' (वही, 128) इस प्रकार कहानीकार की रचना-दृष्टि उसकी जीवन-दृष्टि से बड़ी हो जाती है। कहानी का सामाजिक होना नामवर को पसंद नहीं आता। ''इधर कहानी पूरी तरह 'सामाजिक' हो गई है और इस हद तक सामाजिक हुई है कि अमानवीय हो उठी है।'' (वही, पृष्ठ 129) निष्कर्ष यह  कि अधिक 'सामाजिक' होना 'अमानवीय' होना है। नामवर के अन्तविरोध कम नहीं हैं। वे घटने के बजाय बढ़ते गये हैं।
हिन्दी कहानी आरम्भ से अब तक यथार्थ के साथ चली है। नामवर उसे यथार्थ से अलग करते हैं। कहानी को कला और 'लिरिक' की तरह मानने के बाद उसे यथार्थ से अलग करना आसान हुआ ''वह उपन्यास नहीं है कि यथार्थवाद का दामन न छोडऩे के लिए मजबूर हो... हिन्दी कहानी स्थूल यथार्थवाद के आतंक की छाया में विकास नहीं कर पा रही है और इसीलिए वह जो मानवीय संवेदना है, उसका उन्मोचन कहानी नहीं कर रही है।''(वही प. 133) नामवर एक ओर 'शुद्ध अनुभववाद' और 'भोगे हुए यथार्थ' की आलोचना करते हैं और दूसरी ओर, यथार्थ के स्थान पर 'मानवीय संवेदना' की बात करते हैं। स्वतंत्र भारत के यथार्थ और समकालीन भारतीय यथार्थ को जिन कहानीकारों ने अपनी कहानियों में तीखे और ज्वलंत रूप में प्रस्तुत किया, उन्होने उसकी नोटिस तक नहीं ली। राजनीतिक कहानियों पर उन्होने दृष्टि नहीं डाली। वे सातवें दशक के पूर्वाद्र्ध और उत्तराद्र्ध में अंतर करते हैं। दूधनाथ सिंह उनके अनुसार सातवें दशक के आरंभ के प्रमुख कथाकार हैं और ज्ञानरंजन-काशीनाथ सिंह उत्तराद्र्ध के। साठोत्तरी कहानीकारों में रवीन्द्र कालिया भी हैं, जिन्हें उन्होंने 'दूधनाथ के काल के अकहानीकारों की दुनिया' का माना था। वे कालिया की 'नौ साल छोटी पत्नी' से लेकर उनकी बाद की कई कहानियों में 'एक अखबार-नवीसी' देखते हैं। इस पर विचार नहीं करते कि साठ के दशक में और उसके बाद भी कहानियों में इस प्रकार की 'अखबार-नवीसी' क्यों है? क्या इसका उस समय से कोई रिश्ता बनता है? जिस साठोत्तरी कहानीकारों की चर्चा की जाती है, क्या वे सभी अपनी रचना में एक समान हैं? 'साठोत्तरी' में या 'एक और नयी शुरुआत'  में इनकी अपनी पहचान स्पष्ट नहीं हो पाती। नक्सलबाड़ी आन्दोलन को नामवर ने एक 'कैटेलिटिक एजेंट' के रूप में देखा है, वे इस आन्दोलन के बाद गांवों की ओर गयी दृष्टि, के साथ 'प्रखर वर्ग-चेतना' को देखते हैं, पर इससे जुड़े कहानीकारों की संघर्षधर्मी, परिवर्तनकामी कहानियों की चर्चा नहीं करते। क्या एक झटके से इन कहानीकारों को ख़ारिज किया जा सकता है? ज्ञान और काशी में आए परिवर्तनों को चिन्हित करने वाले नामवर हिन्दी कहानी में आने वाले इस बड़े परिवर्तन की अनदेखी करते हैं क्योंकि इन कहानीकारों की कहानियों में कला-पक्ष गौण है और उनके अनुसार कहानी कला है। अकविता पर विचार करते हुए और सातवें दशक की कहानियों को पढ़ते हुए उन्हें ''बड़ी राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं से हटकर अपनी जिन्दगी के आसपास के आपसी रिश्तों और पारिवारिक दुनिया में सिमटने की कोशिश (वही पृ. 147) की आलोचना की थी। वे ऐसे कहानीकारों को 'इस दृष्टि से प्रेमचन्द के विरोधी' कह रहे थे। दूधनाथ सिंह का 'इस दौर का सबसे महत्वपूर्ण लेखक' मानकर उनकी 'रीछ' और 'रक्तपात' कहानी को उदाहरण के रूप में देखते हैं। जब इसके ठीक विपरीत सामाजिक-राजनीतिक कहानियां नक्सलबाड़ी आन्दोलन के प्रभाव में लिखी जाने लगीं, नामवर मौन रहे। मधुकर सिंह सहित भोजपुर स्कूल के संघर्षधर्मी कहानीकारों, विजयकान्त और अन्य कहानीकारों की चर्चा उन्होंने मुनासिब नहीं समझी। सामाजिक न होने पर आलोचना और सामाजिक होने पर भी आलोचना। यह नामवर की प्रगतिशील-मार्क्सवादी आलोचना है।
नामवर सातवें दशक में हुए 'तीव्र संघर्ष' और 'जाग्रत चेतना' की बात करते हैं, पर उसे व्यक्त करने वाली कहानियों पर ध्यान नहीं देते। 'सुधीर घोषाल' को छोड़कर नक्सलवाद और संघर्ष से जुड़ी किसी कहानी पर उनका ध्यान नहीं जाता। जनवादी कहानी पर अपना मत व्यक्त करते समय यथार्थ के चित्रण में वह यह जरूरी नहीं मानते कि ''तत्काल फायदा उससे हमें हो, तुरन्त आन्दोलन को मदद देती हो, जानता को जाग्रत, और प्रबुद्ध करती हो।'' राजनीतिक दृष्टि से भी उन्होंने जनव ादी और राजनीतिक कहानियों को 'हानिकारक' कहा है। ''वे गुमराह करती हैं'' नामवर 'एजेंट प्रोवोकेटियर' के रोल के खिलाफ हैं। (वहीं, पृष्ठ 156-157) ज्ञानरंजन और काशीनाथ सिंह की चर्चा उन्होने बार-बार की है। स्वतंत्र भारत की बदलती दुनिया को वे क्रमिक रूप से प्रस्तुत नहीं करते। 'घंटा' कहानी में वे 'इस युग के युवक का सही चित्र' देखते हैं। क्या यह विचारणीय नहीं है कि 'डिप्टी कलक्टरी' का नारायण ही इस रूप में प्रस्तुत हो गया। ज्ञानरंजन की 'गहरी आलोचनात्मक दृष्टि' की पुष्टि 'बहिगर्मन' से करते हैं। साठ के दशक के पूर्वाद्र्ध का उल्लेख करते समय हमें यह भी याद रखना चाहिए कि मुक्तिबोध की कई कहानियाँ 60-62 के बीच की हैं। जिस 'क्लॉड इथरली' की नामवर प्रशंसा करते हैं, उसका सम्भावित रचना काल 1959 के बाद का है। 'काठ का सपना' अप्रैल 1963 की 'कल्पना' में और 'पक्षी और दीमक' दिसम्बर 1963 की 'कल्पना' में प्रकाशित हुई थी। 'घंटा' और 'बर्हिर्गमन' के पहले ज्ञानरंजन, महेन्द्र भल्ला और दूधनाथ सिंह में कोई फर्क नहीं देखने वाले नामवर ज्ञानरंजन की उस समाजशास्त्रीय दृष्टि या कथन को नज़रअंदाज करते हैं, जिसकी ओर विजयमोहन सिंह ने संभवत: 'अमरूद का पेड़' कहानी के चर्चा-प्रसंग में स्पष्ट किया था। ज्ञानरंजन की भीतर तक खलबली मचानेवाली कहानियाँ अपने खलबलाते समय से सार्थक रूप से जुड़ी थीं। भीष्म साहनी की तुलना ज्ञानरंजन से करने के पीछे दूसरे कारण हो सकते हैं। इसी प्रकार काशीनाथ सिंह को राजेन्द्र यादव से बड़ा कथाकार कहना किन कारणों से है? नामवर ने कहानीकारों की तुलना में सदैव स्वस्थ दृष्टि नहीं अपनाई है। ज्ञानरंजन द्वारा पेट्रौला रेस्त्रां के वर्णन और 'कफन' कहानी में कलवरिया के वर्जन को आमने-सामने रख ज्ञानरंजन के वर्णन-विस्तार की बात करते हैं, जहाँ पाठक अपनी ओर से कोई कल्पना नहीं कर सकता, जबकि 'कफ़न' कहानी में ''हम कल्पना से समझ जाते हैं कि वह कलवरिया, जहाँ वे दोनों बैठे रहे हैं, कैसा रहा होगा। बहुत कुछ अनकहा छोड़ दिया गया है।''(साहित्य की पहचान, पृष्ठ 204) 1972-73 तक हिन्दी कहानी का पाठक गांवों-कस्बों से जुड़ा हुआ था। वह जितना 'कलवरिया' को जानता था, उतना रेस्त्राँ को नहीं। कहानी में जहाँ तक 'स्ट्रोक्स' और 'ब्यौरों' की बात है, उसका परिवेश से भी संबंध है।
कहानी अगर सचमुच 'कमजोर का हथियार' - 'वेपन्स आफ वीक' है, तो वह सदैव 'आलपिन' या 'सुई' जैसी नहीं हो सकती क्योंकि 'सुई' और 'आलपिन' हथियार नहीं हैं। ''कहानी कमजोर की ऑलपिन या सुई जैसी है। वह सुई अपना फटा हुआ सी भी सकती है और बहुत हुआ तो चुभो देंगे और मजा लेंगे कि चलो, हमने अपना काम कर दिया है। कोई छुरी या तलवार नहीं है, तमंचा नहीं है कि किसी की जान ले ले... ये विधा ऐसी व्यथा, ऐसे दर्द को जो शोरगुल में छिप जाते हैं, पकड़ती है। कहानी बड़ी घटनाओं, भीड़-भीड़, शोरगुल पर लिखी जानेवाली चीज नहीं।'' (वही, पृष्ठ 206) क्या यह संभव है कि दौर के बदल जाने के बाद भी कहानी-विधा में कोई परिवर्तन न हो? वह हमेशा 'आलपिन' और 'सुई' से ही काम करती रहे। कहानी का काम 'चुभो' कर 'मजा' लेना नहीं है। प्रेचन्द ने 1936  में ही साहित्य को 'मनोरंजन' से अलग रखने की बात कही थी। नामवर ने एक बातचीत में ('साथ साथ', पृष्ठ 115) आज़ादी के बाद के चार दौरों की बात कही है। वे पहले दौर को 1965 के आसपास तक, दूसरे दौर को 1980 तक तीसरे दौर को 1990 तक और चौथे दौर को 90 के आसपास से अब तक रखते हैं। पहले तीन दौरों को उन्होंने 'एक नये राष्ट्र के निर्माण की लम्बी प्रक्रिया' माना है। ''इस चौथे दौर में हम लोग विचारधारा के स्तर पर भी अमरीकी विचारधारा को अपना रहे हैं।'' (वही, पृष्ठ 117) बदलते दौर में हिन्दी की बदलती कहानी पर उनकी नजर और पकड़ है - छिटपुट ही सही। यह दु:खद है कि उन्होंने इस नजर और पकड़ के साथ हिन्दी कथालोचना का विकास नहीं किया। अपनी जिन इच्छाओं और योजनाओं के तहत उन्होंने जिन, विषयों पर लिखने की बार-बार बात कही है, उनमें भूल से एक बार भी कहानी-संबंधी आलोचना का जिक्र नहीं है। वे नयी कहानी के बाद ज्ञान-काशी, उसके बाद स्वयं प्रकाश-असग़र वजाहत, फिर अखिलेश-उदय प्रकाश और उसके बाद एक नयी पीढ़ी के शुभागमन की बात करते हैं - यथार्थ को देखने की भिन्न दृष्टि का जिक्र करते हैं, पर उसे उस तरह 'फार्मुलेट' नहीं करते, जैसा उन्होंने 'नयी कहानी' के दौर में किया था। इन सभी दौरों में नामवर ने कई कहानीकारों की कई कहानियों की चर्चा की है, कुछ पर विस्तारपूर्वक विचार भी किया है। उन सब पर एक आलेख में विचार संभव भी नहीं है। बहुत सोच-समझकर नामवर कहानीकारों का नामोल्लेख करते हैं और उनकी कहानियों का भी। एक प्रकार इसे वे अपने अनुसार प्रत्येक दौर के 'प्रतिनिधि कथाकारों' का उल्लेख कर दूसरे कहानीकारों को लगभग हाशिए पर डाल देते हैं। उनके लिए केवल कहानी ही कला नहीं है, आलोचना भी (चर्चा-प्रसंग में ही सही) एक कला है। इसका यदा-कदा इस्तेमाल करने के बाद भी उनका ध्यान कहानी में हो रहे परिवर्तनों पर रहा है। वे 1990 के बाद नये ढंग से लिखी जा रही कहानियों की बातें करते हैं। ''जिस दौर से हम गुज़र रहे हैं, उसमें साहित्य की विभिन्न विधाओं में काफी अन्तरावलम्बन है। कविता वाले कविता में कहानी कहने लगे हैं अब, कहानी वाले कविता के शीर्षक ही नहीं लेते, कविता का इस्तेमाल भी करते हैं। इस तरह कहानी अब किस्सागोई, दास्तानगोई नहीं रह गई है।'' यह बात उन्होंने 2004 के 'संगमन कथा-विमर्श' में कही थी।
व्यवस्थित ढंग से कहानी पर, न लिखने के बाद भी नामवर कहानी-परिदृश्य से बाहर नहीं रहे। उनसे अब तक लगभग सौ व्यक्तियों ने बातचीत की है, जिसमें कहानी पर बातचीत करने वालों की संख्या बीस से अधिक है। कहानीकार, आलोचक, सम्पादक,गंभीर पाठक सभी इस बातचीत में शामिल है। कहानीकारों में राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, दूधनाथ सिंह, काशीनाथ सिंह, रमेश उपाध्याय, असगर वज़ाहत, शानी, अरुण प्रकाश, उदय प्रकाश, प्रियंवद, शशांक और देवेन्द्र ने बातचीत की है। आलोचकों में चन्द्रभूषण तिवारी, विश्वनाथ त्रिपाठी, विजयमोहन सिंह, परमानन्द श्रीवास्तव आदि ने, कवि-आलोचक विष्णु खरे और सम्पादक -अवधनारायण मुदगल आदि ने कहानी-संबंधी उनके कई व्याख्यान-कहानी की पहचान (1990) हिन्दी कहानी की सदी (2002) हिन्दी कथा-साहित्य पर विचार (2004) इक्कीसवीं सदी में हिन्दी कहानी का मुहावरा (2004) हैं। 'परिन्दे' के बाद स्वतंत्र रूप से उन्होंने केवल काशीनाथ सिंह की 'कविता की नई तारीख' पर विचार किया और विस्तार से कैलाश बनवासी की कहानी 'बाजार में रामधन' पर। कहानीकारों में स्वतंत्र रूप से मन्नू भंडारी पर लिखा। क्रान्तिकारी दौर भी असलियत, में 'नई तारीख' के टुकड़ों में देखते हैं। राजनीतिक कहानियों का उनके लिए मतलब नहीं है पर 'पारिवारिक-सी कहानी के बीच चुपके से आए राजनीतिक संकेत' का वे मतलब ढूंढ़ते हैं। वे काशी की यह कहानी पढऩे के बाद सौ वर्ष पहले चेख़व की लिखी कहानी 'गूसबेरी' को याद करते हैं। वे स्वयं इस याद को 'संयोग' कहते हैं, तर्क नहीं। (हिन्दी का गद्य पर्व 2010 प. 291) उनकी कथालोचना में तर्क के लिये कम स्थान है। आलोचना के लिये रचना का चयन किसी भी आलोचक के लिए महत्वपूर्ण है। ''आलोचक में यह विवेक होना चाहिए कि उसे किस कृति या पुस्तक पर नहीं लिखना है।'' (कहना न होगा, पृ. 53) लेखन के अलावा बातचीत में भी वे कहानियों और कहानीकारों का जिक्र अचानक नहीं करते। उनका चिंतन-संसार व्यापक है। हिन्दी कहानियों से मुख्यत: बातचीत में वे अपने समय में चर्चित-अल्पचर्चित कहानीकारों और कहानियों पर टिप्पणियां करते हैं। साढोत्तरी कहानीकारों के बाद उन्होंने स्वयं प्रकाश असग़र वजाहत, मंजूर एहतेशाम, शिवमूर्ति, अवधेश प्रीत, गीतांजलि श्री, शशांक, उदयप्रकाश, देवेन्द्र, नीलाक्षी सिंह आदि की कई कहानियों की चर्चा की है। कहीं संक्षेप में और कहीं विस्तार से। प्रेमचन्द की 'पैपुजी' सहित उन्होंने कई ऐसी कहानियों की चर्चा की है, जिन्हें कम जाना जाता था। कहानी को 'कला' मानने से उनकी आलोचना पर प्रश्न लगे हैं। वे मार्क्स का वह कथन भी उद्धृत करते हैं कि पूंजीवादी समाज या दौर में साहित्य को कला के रूप में ग्रहण किया जाएगा और शुक्ल जी को भी याद करते हैं कि उन्होने साहित्य के संदर्भ में 'कला' की चर्चा न करने की बात कही थी। शुक्ल जी साहित्य को कला नहीं मानते थे। अपने एक व्याख्यान में देश-विभाजन से उत्पन्न समस्या को लेकर लिखी गयी बेदी की कहानी 'लाजवन्ती' में लाजवन्ती को पत्नी के रूप में स्वीकार न करने और देवी की तरह पूजा करते रहने को वे पूंजीवादी समाज से जोड़ते हैं जहाँ ''साहित्य को शुद्ध कला, शुद्ध साहित्य बनाकर जिस देवी पद पर पहुंचाया गया, आपातत: वह कला का बहुत बड़ा सम्मान है, लेकिन यह शुद्ध कला, शुद्ध साहित्य, जो पूंजीवाद के दौर में उत्पन्न होता है, कला और साहित्य को निष्प्राण बनाने की चेष्टा है।'' (आलोचक के मुख से, पृ. 29) 'कार्ल मार्क्स और साहित्य' पर दिये अपने एक व्याख्यान में पूंजीवाद के दौर में साहित्य के 'कला' बनने का उल्लेख कर वे इस दौर में गुलशन नन्दा और निर्मल वर्मा को 'साथ साथ पैदा होते' देखते हैं। (वही, पृ. 27-28)
कहानी की विविधता पर कई बार बात करने के बाद भी वे नयी कहानी से समकालीन कहानी की विविधता को व्यापक संदर्भों के साथ वि चार नहीं करते। उनकी आलोचना व्यवस्थित नहीं है। नामवर की खूबी प्रत्येक प्रश्न के उत्तर देने में ही नहीं, उसे अपने मनोनुकूल मोड़ देने में भी है। व्यापक अध्ययन और नूतन-मौलिक सोच से वे इसे संभव करते हैं। साठ के दशक में कहानी पर लिखी जाने वाली पुस्तकों की बाढ़ का अगर वे जिक्र करते हैं तो यह दु:ख भी प्रकट करते हैं कि नयी कहानी के बाद कहानीकारों ने कथा-साहित्य पर कुछ नहीं लिखा। कमलेश्वर और राजेन्द्र यादव ने अपनी आलोचना से नामवर की कथालोचना पर भी सवाल खड़े किये थे। बाद में किसी कथाकार ने ऐसा नहीं किया। वे नामवर का मुंह जोहते रहे। कथा-समीक्षा के विकसित न होने का एक बड़ा कारण उनकी दृष्टि में कथाकारों का कथा-समीक्षा से मुंह मोडऩा है। कहानीकारों में वे केवल उदयप्रकाश का नाम लेते हैं, जो अच्छे कथाकार हैं, पर उन्होंने आलोचनाएं नहीं लिखीं। बाद में जिन कुछ कहानीकारों पर नामवर ने अधिक विचार किया है, उनमें उदय प्रकाश प्रमुख हैं। उदय प्रकाश की 'टेपचू', 'तिरिछ', 'छप्पन तोले का करधन', 'पालगोमरा का स्कूटर', 'वारेन हेस्टिंग्स का सांड' और अंत में प्रार्थना, पीली छतरी वाली लड़की और मोहनदास पर उन्होंने अपनी राय व्यक्त की है। 'टेपचू' उन्हें 'गढ़ी हुई और नकली' कहानी लगी थी और उसकी तुलना में 'तिरिछ' का अतियथार्थवाद और जादुई यथार्थवाद उन्हें अधिक 'प्रासंगिक' लगा था। 'यथार्थवाद' और 'जादुई यथार्थवाद' को वे 'कृति की विशिष्टता के वर्जन के लिए गढ़े गए आलोचनात्मक प्रत्यय' कहते हैं, पर इस पर विचार नहीं करते कि ये 'आलोचनात्मक प्रत्यय' एक विशेष दौर में क्यों गढ़े गए। वे सूत्र-संकेत देकर रह जाते हैं। नामवर काव्यात्मक भाषा में लिखी गयी कहानियों को 'काव्यात्मक' नहीं कहते। कहानी की काव्यात्मकता को वे मार्मिक प्रसंगों से जोड़ते हैं और नामवर जैसा कहानी में मार्मिक प्रसंगों की पहचान करनेवाला कोई दूसरा आलोचक नहीं है। मार्मिक प्रसंगों के आधार पर उनके द्वारा बुना गया वैचारिक जाल अधिक ग्राह्य नहीं हो सकता। अच्छी कहानी को बिगाडऩे में उन्होंने उदय प्रकाश को 'माहिर' कहा है। उदय प्रकाश द्वारा कहानियों में दी गयी सभी सूचनाओं और जानकारियों को वे 'बाधक' बताते हैं। नामवर हिन्दी कहानी के न तो 'टेक्स्युअल क्रिटिक' हैं और न उनकी आलोचना 'सैद्धान्तिक' है। पाठ-प्रक्रिया पर बल देने वाले नामवर ने कहानियों पर बाद में विचार नहीं किया। टिप्पणियाँ अवश्य कीं। नामवर की टिप्पणियों को आलोचना नहीं कहा जा सकता। उन्होंने अंग्रेजी में चेख़व की कहानी - कुत्ते वाली महिला पर 200 पृष्ठों की एक पूरी किताब देखी थी और 'इवान इलिच की मृत्यु' पर लम्बा लेख भी पढ़ा था। (बात बात में बात, पृ. 223) नामवर ने 1965 के बाद कहानी पर टिप्पणियां की है और उनकी इन टिप्पणियों को आलोचना मानने की गलती की गयी है। महिला लेखन पर तॉलस्तोय के इस कथन को उद्धृत करने इसका जवाब मैं कफ़न से मुँह उठाकर ही दे सकूँगा (कहना न होगा, पृ. 121) का क्या अर्थ। तॉलस्ताय के समय के महिला लेखन और आज के समय के महिला लेखन में दूरी है या नजदीकी? जिस तिरिछ की प्रशंसा नामवर ने की है वह 'हंस' में प्रकाशित हुई थी। 'हंस' में प्रकाशित किसी भी कहानी पर नामवर ने राजेन्द्र यादव को फोन नहीं किया था। फोन किया स्नोवा बार्नो की कहानी पर। स्नोवा बार्नो तक तो कुछ ठीक भी था, पर ज्योति कुमारी के कहानी-संग्रह 'दस्तखत और कहानियाँ' में प्रकाशित उनकी भूमिका? नामवर ने बहुत कहानीकारों की अनदेखी की, जिसकी एक लम्बी सूची कभी बनाई जानी चाहिए, पर उनके लिए ज्योति कुमारी का कहानी-संग्रह 'अनदेखा करना मुमकिन नहीं' था। उन्होंने रवीन्द्रनाथ ठाकुर की काव्य-पंक्ति भी प्रस्तुत की। यह नामवर की कथालोचना की 'निर्मल ज्योति' (निर्मल वर्मा, ज्योति कुमारी) है। नामवर की आलोचना में 'दाखिल-खारिज' की अच्छी खासी संख्या है, किन्तु केवल इसीलिए, उनकी आलोचना नहीं की जा सकती। वहां विचार के लिए अनेक जगमगाते कण हैं। ये कण नये आलोचकों के लिये कम महत्वपूर्ण नहीं है। उन्होंने जो 'केनन' बनाया, उससे हमारा मतभेद हो सकता है, पर अभी तक किसी ने दूसरा 'केनन' भी नहीं बनाया है। नयी कहानी के जिन दो स्कूलों-निर्मल वर्मा और अमरकान्त स्कूल की बात कही है, उसे ध्यान मं रखकर स्वतंत्र भारत की हिन्दी कहानी पर, एक नये केनन-निर्माण पर भी विचार संभव है। नामवर का बल व्यक्ति पर रहा है, प्रवृत्ति पर नहीं। नया केनन प्रवृत्ति और मुख्य धारा के आधार पर बनाया जा सकता है। हिन्दी कहानी में अनेक रंग हैं। इन रंगों की पहचान और उस पर विचार जरूरी है। ''हिन्दी कहानी में अखिल भारतीय नाना धाराएं हैं, कहीं वह बांग्ला कहानी के रंग में मिलती है... उर्दू कहानी के रंग में मिलती है... तरह-तरह की विविधता ही हिन्दी कहानी की पहचान है... बहुलता-विविधता को देखते हुए सौ साल में लम्बा सफ़र ही तय नहीं किया है।'' (साहित्य की पहचान, पृष्ठ 183) वे दुनिया की बेहतर कहानियों में हिन्दी के जिन कहानीकारों की कहानियों को रखते हैं, उनमें को चार नाम और जुड़ सकते हैं। नामवर की कई बातें हमें चौंकाती हैं। वे चौंकाने के लिए, विवाद खड़ा करने के लिए और मज़ा लेने के लिए कई ऐसी बातें करते हैं, फतवे देते हैं, जो अच्छे आलोचक का गुण नहीं कहा जा सकता।उनकी आलोचना में, टिप्पणियों में, भाषणों-व्याख्यानों में, इन्टरव्यू में सहज रूप में ऐसे अनेक कथनों को सुना-पढ़ा जा सकता है। भोपाल में 28 अप्रैल 2002 को भाषण देते हुए उन्होंने प्रेमचन्द को उर्दू में ही शामिल करने की नसीहत दी थी और यह कहा था 'हिन्दी में मत रखिए।'(वही, 181-182) नामवर  जितना लेखन में सावधान हैं, उतना वाचन में नहीं। उन्होंने कहा भी है - लिखने से हाथ कट जाता है, बोलने से जीभ नहीं कटती। एक ओर वे 'कहानियों की सार्थकता की माप' हमारे अपने ऐतिहासिक दौर में मनुष्य की चिंता और तमाम चीजों की अभिव्यक्ति से देखते हैं, ''न कि भाषा, उपमा, चरित्र या प्रयोग से।'' ('कहना न होगा', पृ. 99) और दूसरी ओर कहानी में 'खिलवाड़ और खिलन्दड़ेपन' को जो उन्हें अच्छा लगता है, 'कला का गुण' कहते हैं। हिन्दी कहानी में जो कई मोड़ हैं, उनमें उन्हें 'सिनिसिज्म का दौर' 'कहानी का सबसे' अच्छा दौर लगा है। बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद का दौर उनके अनुसार 'इसी प्रकार का दौर' है। और ''ऐसा मोड कहानी के लिए खास तौर से बहुत उपजाऊ और उर्वर हुआ करता है।''('साहित्य की पहचान', 186) जिन स्थितियों में 'सिनिसिज्म' पैदा होता है, क्या नामवर उन स्थितियों के उनके कारक तत्वों के पक्ष में हैं? नामवर ने आलोचक की सामाजिक-सांस्कृतिक भूमिका की बात सदैव कही है। अधिक कलाग्रही होने से आलोचक की यह भूमिका कमजोर हो जाती है।
हिन्दी की नयी कहानी के समक्ष तीस के दशक की उर्दू कहानी को रखना कितना न्याय संगत है? ''उर्दू में यह 'नई कहानी' आन्दोलन चल चुका था'' 38 में। उर्दू की नई कहानी मंटो, बेदी, इस्मत चुगताई,रशीद जहां की कहानियां हैं। हिन्दी में यह शुरुआत 57 में हुई है। उससे दो 'डीकेड' पहले उर्दू में कहानी शुरु हो चुकी थी। मेरी यह समझ है कि उर्दू में नई कहानी पहले आ चुकी थी। जैसे नॉवेल उर्दू में पहले आ चुका था, उसी तरह से अफसाना उर्दू में पहले आ चुका था। (साथ- साथ, पृष्ठ 113) उर्दू अफ़साना में धमाका 'अंगारे' कहानी संग्रह के प्रकाशन से हुआ था, जिसे ब्रिटिश सरकार ने मार्च 1933 में जब्त कर लिया था। इस संग्रह में सज्जाद जहीर की पांच, अहमद अली की दो, रशीद जहां की दो (एक एकांकी) और महमूदज्जफ़र की एक कहानी शामिल थी। इन अफ़सानों ने उर्दू अफ़साने के लिए जमीन तैयार की। तीस के दशक के आरंभ से स्थितियां बदल रही थीं। 'नयी कहानी' के साथ बार-बार नामवर ने पचास के दशक की चर्चा की है। यह स्वतंत्र भारत का आरंभिक दशक था। दो दशक पहले से यह दशक सर्वथा भिन्न था। हिन्दी की नयी कहानी और उर्दू में जिसे नया अफ़साना कहते हैं, समानता देखना-दिखाना कठिन है। समानता केवल एक है कि वे नयी थीं, पर दोनों की नवीनता में भिन्नता थी। नामवर ने अन्य कुछ स्थलों पर उर्दू कहानी की बेदी, मंटो और इस्मत चुगताई द्वारा निर्मित विशिष्ट छवि को रेखांकित किया है और ऐसा कहा है कि 'इनको प्रेमचन्द की भी विरासत' प्राप्त हुई थी। (बात बात में बात, पृष्ठ 221) उनका ध्यान केवल उर्दू पर ही नहीं, बांग्ला, मराठी, गुजराती और मलयालम कहानियों पर भी रहा है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर को उन्होंने भारत के आरंभिक कहानीकारों में रखा है। उन्नीसवीं सदी के अंत में तीन खण्डों के उनके 'गल्प गुच्छ' की उन्होंने चर्चा की है और उनमें विविधता के साथ अद्भुत कला 'देखी है वे उनके अतिरिक्त बनफूल, नारायण गंगोपाध्याय, विमल मित्र का जिक्र करते हैं और मलयालम कहानी के भिन्न रूप को रेखांकित करते हैं। मराठी और गुजराती कहानियों के बारे में उनकी भिन्न धारणा है। वे 'उभर कर नहीं आती हैं'। भारतीय कहानी के व्यापक परिप्रेक्ष्य में हिन्दी कहानी की 'विशिष्ट छवि' की वे याद दिलाते हैं। ''पचास वर्षों के लेखकों से चुनें तो कम से कम पचास कहानियां ऐसी मिल ही जाएंगी, जिन्हें हम विश्व कहानी में रख सकते हैं।'' (वही, पृष्ठ 222) उनकी चिंता यह भी है कि विश्व में कहानी का जिक्र होने पर ''हर मुल्क की पहचान उनकी कहानियों से की जाएगी तो हिन्दुस्तानी कहानी 'इंडियन स्टोरी' के नाम से याद की जाएगी कि नहीं की जाएगी?''(साहित्य की पहचान, पृष्ठ 173) उन्हें यकीन है कि 'जरूर की जाएगी! वे चेख़व की' एक क्लर्क की मौत और उनकी कहानियों के निम्नमध्यवर्गीय पात्रों की तरह भारतीय कहानियों में निम्म मध्यवर्गीय पात्र भरे दिखाई देते हैं, वे बंकिम की ताकत देखने के लिए 'कमलकान्तेर दफ्तर' को देखने की बात कहते हैं। मंटो, बेदी और टैगोर उनकी नज़र में 'लाजवाब कहानीकार हैं और रवीन्द्र, प्रेमचन्द, वाइकुम मोहम्मद बशीर (मलयालम) की कहानियां 'विश्व साहित्य में जगह पाने योग्य' हैं। ''हिन्दुस्तान कहानियों के लिए ही याद किया जाएगा,जैसे चीन नॉवेल के लिए नहीं याद किया जाएगा।'' (साथ साथ, पृ. 110) नामवर ने भारतीय कहानियों पर ही नहीं, विश्व की अनेक भाषाओं की कहानियों पर भी अपने महत्वपूर्ण विचार रखे हैं। वे उल्लेख भर करते हैं, विस्तार से विवेचन नहीं करते। चेखव की 'दु:ख', एक क्लर्क की मौत, तॉलस्ताय की 'इवान इलिच की मृत्यु, कुत्तेवाली महिला, इन्सान और हैवान' लू शुन की 'एक पागल की डायरी' और 'आक्यू की सच्ची कहानी वे नहीं भूलते। वे फ्रांस, नाइजीरिया और अन्य अफ्रीकी देश, लैटिन अमेरिका के देश और पश्चिम एशिया में ईरान सहित अन्य देशों में, मध्यपूर्व में लिखी गयी 'बेजोड़ कहानियों' की बात करते हैं। स्पष्ट है कि जहां संघर्ष है, वहाँ कहानी भी है।
कहानी के गद्य के साथ कहानी आलोचना की भाषा भी नामवर के लिए महत्वपूर्ण है। हिन्दी गद्य का निर्माण जिन हिन्दी कहानियों और उपन्यासों के गप्प के साथ हुआ, उन पर विशेष ध्यान नामवर का है। प्रेमचन्द के बाद जैनेन्द्र के गद्य का महत्व है क्योंकि वह उनका अपना गद्य है। निजी गद्य। उर्दू और और फ़ारसी से रहित ''गांधी ने जो गुजराती गद्य को दिया, जैनेन्द्र ने वही काम हिन्दी गद्य के लिए किया है।'' नामवर इस गद्य में 'तकली और चरखे के सूत वाली सादगी' देखते हैं। जैनेन्द्र का गद्य 'कपास की तरह से खादी के धागे के समान' है। अज्ञेय का गद्य भिन्न है। वहाँ 'नफ़ासत, बारीकी, महीन बुनावट' है। निर्मल और रेणु के गद्य की भी उन्होंने प्रशंसा की है। परसाई का गद्य उन्हें 'अनूठा' इसलिए लगता है कि यह 'बोलता हुआ गद्य' है। ज्ञानरंजन के गद्य की उन्होंने कई बार प्रशंसा की है। उनका ध्यान नये लेखकों के गद्य पर भी रहा है। (बात बात में बात) निजी गद्य और जातीय गद्य के विकास पर, हिन्दी के साथ उसकी बोलियों के संबंध पर, कहानीकार की नवीनता, मौलिकता, भाषिक पकड़ और नूतन रचने की सामथ्र्य सबके साथ उन कहानीकारों के गद्य पर विस्तार से विचार करने की ज़रूरत है, जिन्होंने हिन्दी गद्य का विकास किया, उसे एक नयी चमक-आभा प्रदान की। नामवर ने कथालोचना को एक नयी भाषा दी है। ''अभी तक कहानी आलोचना की भाषा तय नहीं हुई है। किस भाषा में कहानी पर बात की जानी चाहिए'' यह सवाल आज भी बड़ा सवाल है। नामवर 'कहानी पर बात करने के लिए आलोचना की एक नई भाषा' की ज़रूरत महसूस कर रहे थे आरंभ में ही, जब उन्होंने 'हाशिए पर' के कॉलमों में आम बोलचाल की भाषा इस्तेमाल की थी। नामवर की कथालोचना की एक अलग भाषा है, जो जीवन की होने के कारण जीवंत है। जीवन से जुड़ी कहानियों की आलोचना-भाषा जीवन रहित नहीं हो सकती।
नामवर ने बार-बार हिन्दी कहानी पर लिखने की इच्छा प्रकट की। उनकी अन्य इच्छाओं की तरह यह इच्छा भी पूरी नहीं हुई। फिर भी उन्होंने जितना लिखा और कहा है, उस पर विचार की आवश्यकता है। शायद ही कोई पक्ष कहानी का हो, जो उनसे छूट गया हो। उन्होंने जिन कथाकारों, धाराओं, कहानियों को छोड़ा, उनसे हमारा मतभेद हो सकता है। रमेश उपाध्याय ने उनकी कथालोचना को 'कहानी के विरुद्ध' कहा है। उनमें अनेक अन्तर्विरोध हैं, उनसे कई मुद्दों पर असहमतियां ही नहीं, तीखे मतभेद हो सकते हैं, होने चाहिए भी। वे कहानियों और कथाकारों के निरन्तर सम्पर्क में हैं। दूरदर्शन पर पहले 'सुबह सबेरे' और अब 'सबद निरन्तर' में, वे अनेक कहानी-संग्रहों पर चर्चा कर चुके हैं। अभी 17.11.2014 को आशुतोष के कहानी-संग्रह 'मरें तो उम्र भर के लिए' पर उन्होंने चर्चा की है। वे अपनी पसंद की कुछ कहानियों का चयन कर उन पर अति संक्षेप में अपनी बातें कहते हैं - कहानी के ढांचे, शिल्प, भाषा पक्ष पर उनका ध्यान रहता है। यह सब समीक्षा और आलोचना में शामिल नहीं किया जा सकता। उनकी स्वीकृति आज भी कई युवा कहानीकारों के लिए महत्वपूर्ण है जबकि उसमें आलोचना नहीं है, केन्द्र में नामवर हैं, उनकी आलोचना नहीं है। आलोचक की भूमिका प्रशंसा, निन्दा, नोटिस लेने और मौन हो जाने में नहीं है। नामवर की आलोचना का अपना एक सच है। उनकी कहानी-आलोचना पर और अधिक विस्तार से लिखने की ज़रूरत है। एक-एक कहानी पर उनके विचारों को देखना-समझना चाहिए। उनकी कथालोचना का एक बड़ा हिस्सा उनके अपने पक्ष में जाता है। समकालीन भारतीय यथार्थ का सच कहानियों में मौजूद है। नामवर की आलोचना में कम है। 'परिन्दे' वाले लेख में जो भटकाव शुरू हुआ था, वह बढ़ता गया। कहानी के संबंध में अपनी धारणाओं पर वे आज भी कायम हैं। अच्छी कहानियों की अच्छाई के साथ उनका ध्यान उन कहानियों पर भी रहा है, जिन्हें वे अच्छी नहीं समझते। उनकी चुप्पी मारक और घातक है। ऐसा उन्होने कहानी के क्षेत्र में सर्वाधिक किया है। दूधनाथ, उदय प्रकाश तथा अन्य कई कहानीकारों की कहानियों की जहां उन्होंने सराहना की है, वहाँ आलोचना भी। उनके अनुसार कहानी या तो अच्छी है या बुरी। जिन कहानियों में मार्मिक सत्य, मार्मिक प्रसंग हैं, जो 'मानवीय संवेदना' से युक्त हैं वे अच्छी हैं और जिनमें विचारधारा और यथार्थ पर बल है, वे बुरी हैं।नामवर ने कहानी की आलोचना के लिए जो 'प्रतिज्ञा' की थी, उसे वे पूरा नहीं कर पाए। उनकी प्रतिज्ञा अधूरी रही। ''वे कहानी-समीक्षा में जिस क्रांतिकारी परिवर्तन की प्रतिज्ञा करके चले थे, उसे पूरा नहीं कर पाए। उन्होने कहानी की सही समीक्षा-पद्धति के विकास में कहानी-संबंधी उस अवधाराणा को 'सबसे बड़ी बाधा' माना था जो कहानी को चरित्र, वातावरण, कथानक आदि मे ंबांट कर देखती है। स्वयं उनकी कहानी-संबंधी समीक्षा में यह विभक्तिवाद बहुत दूर तक काम करता हुआ दिखाई पड़ता है, जो उनकी कहानी संबंधी धारणाओं में विरोधाभास-सा उत्पन्न कर देता है।'' øविजय मोहन सिंह, 'साहित्यिक विवादों के आलोचक', 'नामवर के विमर्श; पृ. 205')
नामवर ने 1990 में 'कहानी की पहचान' शीर्षक गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए अपनी स्थिति 'महाभारत के उस नेवले के समान' मानी थी, जिसका आधा शरीर सोने का हो गया था और उसका बाकी शरीर सोने का न हो सका। कथालोचक नामवर सिंह का यह अर्द्ध स्वर्ण तन अपनी चमक के कारण हमें आकर्षित करता है। समय के अनुसार इसकी चमक फीकी पड़ेगी या और निखरेगी - यह कहा नहीं जा सकता।


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