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जनवरी 2015

महायुद्ध की कविताएं

हिन्दी प्रस्तुति-बालकृष्ण काबरा 'एतेश'

पहल विशेष-एक/प्रथम विश्वयुद्ध की शताब्दी








28 जुलाई, 1914 से 11 नवंबर, 1918 तक चला प्रथम युद्ध करोड़ों पुरुषों और स्त्रियों के घोर संघर्ष की दास्तान है। तत्समय लोगों ने इसे 'महायुद्ध (ग्रेट वार)' की संज्ञा दी। यूरोप का यह युद्ध - मित्र राष्ट्र : ब्रिटेन, जापान, संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस व फ्रांस आदि देशों एवं धुरी राष्ट्र जर्मनी, और ऑस्ट्रिया, हंगरी व इटली आदि देशों के बीच हुआ। विश्व दो खेमों में बंट गया था और लगभग सैंतीस देशों ने इसमें हिस्सा लिया।
युद्ध में भारी विनाश हुआ। साढ़े छह करोड़ से अधिक सैनिक इसमें शामिल थे। एक करोड़ से अधिक सैनिक मारे गए अर्थात साढ़े चार वर्षों तक औसतन छह हजार सैनिक प्रतिदिन। दो करोड़ दस लाख सैनिक घायल हुए, इनमें से कुछ ठीक हुए, तो अधिकांश शारीरिक या मानसिक क्षति से आजीवन पीडि़त रहे। सत्तर लाख नागरिक बीमारी, भूख या मिलिटरी कार्रवाई में मारे गए।
यह युद्धकाल परिवारों के लिए संकट भरा था। युद्ध में भाग लेने से बच्चों के पिताओं को घर से दूर रहना पड़ा। स्कूलों में पुरुष-शिक्षक नहीं थे। स्त्रियों ने युद्ध में शामिल अपने पतियों, पुत्रों, भाइयों या पिताओं के बारे में चिंता न करने की कोशिश करते हुए उद्योग, खेती, घर व बच्चों की परवरिश का काम संभाला और निरंतर संघर्षरत रहीं। परिवारों के बीच भय बना हुआ था। न जाने कब अपने किसी प्रियजन के लापता होने या युद्ध में मारे जाने की खबर आ जाए।
इस तरह इस महायुद्ध से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से करोड़ों जन प्रभावित थे। सभी एक मानसिक पीड़ा का अनुभव कर रहे थे। मानवीय संवेदनाओं के धरातल पर सभी के मन में विचारों और भावनाओं का ज्वार था। इसके परिणामस्वरूप आश्चर्यजनक रूप से एक रचनात्मक विस्फोट भी सामने आया। युद्ध के अनुभव अभिव्यंजक शब्दों में फूट पड़े। हजारों गीतों और कविताओं के माध्यम से लोगों ने अपने-अपने अनुभवों को अर्थ प्रदान किया। सैनिकों ने गीत लिखे और गाए, जिनमें से अधिकांश के रचयिता अज्ञात रहे। उनकी रचनाओं में युद्धकाल की समस्त तकलीफें और दर्द समाए हुए हैं; इनमें कहीं उग्र भाव है, तो कहीं तीक्ष्ण व्यंग्य, तो कहीं-कहीं हल्के-फुल्के स्वर में अपने दुखों को जाहिर करने की विवशता। सैनिकों के साहस, दृढ़ता और संघर्ष क्षमता की प्रमाण हैं ये कविताएँ।
यहां पर महायुद्ध के दौरान लिखी गई कविताओं में से अधिकांशत: उन कवियों की रचनाओं को प्रस्तुत किया गया है, जिन्होंने वास्तव में युद्ध को प्रत्यक्षत: अनुभव किया। युद्ध की भयंकरता को सहते, भयावह और तकलीफदेह खाइयों से छिपकर लड़ते, निरंतर मृत्यु के एहसास से गुजरते इन सैनिक-महाकवियों में विल्फ्रेड ओवेन, सिग्फ्रीड ससून,चाल्र्स हैमिल्टन सोरली, आइजैक रोजेनबर्ग, रूपर्ट ब्रुक, रॉबर्ट ग्रेव्स और हर्बर्ट रीड प्रमुख हैं:

एक आयरिश वायुसैनिक का मृत्यु-दर्शन
- डब्ल्यू. बी. येट्स (1918)

मुझे पता है ऊपर कहीं बादलों में
मैं करूँगा अपने भाग्य से मुलाकात;
जिनके खिलाफ लड़ता हूँ मैं उनसे नफरत नहीं करता
जिनकी रक्षा करता हूँ मैं उनसे प्यार नहीं करता;
मेरी मातृभूमि है किल्टार्टन क्रॉस,
मेरे हमवतन हैं किल्टार्टन के गरीब;
कोई भी परिणाम उन्हें नहीं पहुँचा सकता है क्षति
या दे सकता है उन्हें पहले से अधिक खुशी।
मैं आया लडऩे न किसी कानून या कर्तव्य से
न जन-नायक, न ही भीड़ के प्रोत्साहन से;
थी यह मन की अकेली उल्लसित तरंग
ले आई जो मुझे बादलों के इस कोलाहल में;
मैंने बराबर सोचा, मन में आई सभी बातों पर,
साँसों की बर्बादी है आने वाले सालों में,
साँसों की बर्बादी थी बीते हुए सालों में
जीवन की इस तुला में चुना है मृत्यु को।

डब्ल्यू.बी. येट्स (1865-1939): साहित्य नोबल पुरस्कार विजेता आयरिश कवि और नाटककार। डब्लिन में जन्म, लंदन में शिक्षा। आयरिश और ब्रिटिश साहित्यिक संस्थानों से जुड़े रहे। 1923 में नोबल पुरस्कार। जीवन के उत्तरार्ध में दो बार आयरिश सीनेटर रहे। एबी थियेटर की स्थापना। प्रमुख काव्य-संग्रह हैं: 'द वाइल्ड स्वान्स ऑफ कूले (1919)', माइकल रोबार्ट्स एंड द डांसर (1921), 'द टावर (1928)' और 'द वाइंडिंग स्टेयर एंड अदर पोयम्स (1929)'। प्रमुख नाटक हैं: 'द काउंटलेस कैथलीन (1892)', द लैंड ऑफ हार्ट्स डिजायर (1894), 'कैथलीन नी होलिहन (1902)', 'द किंग्स थ्रेशोल्ड (1904)' और 'डेइरड्रे (1907)' रविंद्रनाथ टैगोर की 'गीतांजलि' की भूमिका लिखी।
येट्स ने प्रस्तुत कविता 1918 में प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान अपने युवा मित्र आयरिश पायलट राबर्ट ग्रेगरी की समृति में लिखी। युद्ध के दौरान ग्रेगरी के विमान को इतालवी एवियेटर ने भूलवश मार गिराया था।

जर्मनी के प्रति
- चार्ल्स हैमिल्टन सोरली (1914)

तुम हमारी तरह अंधे हो। तुम्हारी क्षति नहीं मानव निर्मित,
किसी ने भी तुम पर नहीं किया विजय का दावा।
हम दोनों भटकते अपने-अपने विचारों में कैद
टकराते आपस में, समझते नहीं एक-दूसरे को।
तुमने देखा केवल भविष्य की बड़ी योजना को,
हम रहे अपने मस्तिष्क के सँकरे गलियारे में,
हमने रोका एक-दूसरे के भले रास्तों को,
हम फुफकारते रहे, करते रहे नफरत।
और एक अंधा लड़ा दूसरे अंधे से।

जब होगी शांति, हम देख सकेंगे
हमें मिली नई आँखों से एक-दूसरे का सच्चा चेहरा
और करते रहेंगे आश्चर्य।
जब होगी शांति, हम होकर प्रिय, भले और स्नेहिल
मिलाएँगे गर्मजोशी से हाथ और हँसेंगे अपनी पिछली व्यथा पर।
लेकिन इस शांति के लौटने तक हैं
तूफान, अँधेरा, बिजली और बारिशें।

चार्ल्स हैमिल्टन सोरली (1895-1915): अंग्रेजी कवि। एबरडीन स्कॉटलैंड में जन्म। मर्लबरो कॉलेज, यूनिवर्सिटी कॉलेज, ऑक्सफोर्ड एवं जर्मनी के यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ जेना में शिक्षा।
सोरली ने जर्मन से प्रेम किया। उन्हें युद्ध से नफरत थी। वे इंग्लैंड की ओर से संघर्ष नहीं करना चाहते थे। मनोवैज्ञानिक दबाव के कारण वे 1914 में 'सफक रेजिमेंट' में शामिल हुए। अगस्त, 1915 में कैप्टन के रूप में पदोन्नति। बीस वर्ष की उम्र में (13 अक्टूबर, 1915 को) 'लोज की लड़ाई' में मारे गए।

खंदकों में आत्महत्या
- सिगफ्रीड ससून (1917)

मैं जानता हूँ उस मासूम सैनिक लड़के को
जो हँसता था ज़िंदगी पर अर्थहीन आनंद के साथ,
सोता था गहरी नींद अकेले अंधकार में,
तड़के चहकता था लार्क पक्षी के साथ।

सर्दियों में खंदक में संत्रस्त और उदास
विस्फोटक आवाज़ें, खूनी जूँएँ जहाँ, मदिरा का अभाव जहाँ,
वह चलाता है गोली अपने माथे के आरपार।
किसी ने भी उसके बारे में कोई बात नहीं की।

आत्मसंतुष्ट भीड़ तुम आँखों में चमक लिए
करते हो हर्षध्वनि जब सैनिक लड़के मार्च करते,
तुम दुबकते घरों में, प्रार्थना करते, तुम कभी न जान पाओगे
किस नर्क में चले गए युवा और उनकी हँसी।

सिगफ्रीड ससून (1886-1967): अंग्रेजी कवि, लेखक और सैनिक। केंट में जन्म। मर्लबरो और क्लेयर कॉलेज, कैम्ब्रिज में शिक्षा। 'वेस्टर्न फ्रंट' में बहादुरी के लिए सम्मानित। कविताओं में खाई की भयावहता का चित्रण और उद्धत राष्ट्रवाद जनित युद्ध के जिम्मेदार पाखंडी देशभक्तों पर कटाक्ष।
युद्ध के दौरान अपने एक मित्र की मृत्यु से आगबबूला उन्होंने अंधाधुंध संघर्ष किया और 'मिलिटरी क्रॉस' जीता। उनके कंधे में भारी चोट आई और दुर्घटनावश उनके अपने एक व्यक्ति से उन्हें सिर में गोली लगी।
ग्रीष्म, 1917 में जब उनके कंधे का इलाज चल रहा था, उन्होंने युद्ध का लगातार प्रतिकार किया, जिसके फलस्वरूप उन्हें मेंटल हॉस्पिटल भेज दिया गया, जहाँ उनकी मुलाकात कवि और सैनिक विल्फ्रेड ओवेन से हुई। नवंबर, 1917 में वे पुन: सक्रिय सेवा में आए, किंतु अपने जख्मों के कारण जुलाई, 1918 के बाद युद्ध न कर सके।
युद्ध के बाद ससून 'हेराल्ड' के साहित्यिक संपादक रहे। उन्होंने अनेक आत्मकथात्मक पुस्तकें लिखीं।

वास्तव में सम्मानजनक
- विल्फ्रेड ओवेन (अक्टूबर, 1917-मार्च, 1918 के बीच लिखी गई)

झुके दुहरे जिस्म मानो थैला लादे बूढ़े भिखारी,
घुटने जुड़ जाते, खाँसते बुढिय़ाओं से, कीचड़ से शापित,
जब हम लौटते प्रदीप्त युद्ध क्षेत्र से,
घिसटते चलते अपने दूरस्थ विश्राम शिविर के लिए।
करते मार्च नींद में ही। कइयों ने खो दिए अपने बूट,
लहूलुहान वे चलते, लडख़ड़ाते। सभी हुए लँगड़े, अंधे,
थकान में डूबे, सुन भी नहीं पाए
पीठ पीछे फेंके गए गैस बमों की आवाज को।

गैस! गैस! जल्दी करो सैनिकों! मचती है हड़बड़ी
जल्द से जल्द बेडौल गैस-मास्क लगाने,
किंतु एक सैनिक अभी भी चिल्लाता, घबराता
तड़पता मानो कोई जल रहा हो आग या चूने से-
मास्क से धुँधलाए शीशे और गहरे प्रकाश में
मैंने देखा मानो वह डूब रहा हो किसी हरित समुद्र में।

मेरे सपनों में भी मेरी असहाय दृष्टि के सामने
देखता मैं उसे गोते लगाते, उसका दम घुटते, उसे डूबते।

यदि किन्हीं घुटन भरे सपनों में तुम भी उस वैगन के
पीछे चलो जिसमें हमने डाला था उसे,
तो देखोगे उसके चेहरे को विकृत करती उसकी सफेद आँखें,
उसका लटका चेहरा मानो शैतान थका हो पाप से,
यदि तुम सुन सको वैगन के हर हिचकोले के साथ
फेफड़ों से गरारे की तरह बाहर आ पड़ते झाग सने खून को,
कैंसर की तरह भद्दे, घिनौने जुगाली की तरह कड़वे
मासूमों की जीभ पर लाइलाज फोड़े,-
मेरे मित्र, तुम ऐसे इच्छित गौरव के अभिलाषी बच्चों को
अपने अति उत्साह से मत बताना
यह पुराना झूठ: अपनी मातृभूमि के लिए जान देता है
वास्तव में सम्मानजनक।

विल्फ्रेड ओवेन (1893-1918): महान अंग्रेजी कवि और सैनिक। वेल्श की सीमा पर ओस्वेस्ट्री में जन्म। बुर्केनहेड इंस्टीट्यूट एवं श्रेसावरी टेक्निकल कॉलेज में शिक्षा। 1913 से 1915 तक फ्रांस में भाषा के शिक्षक। युद्ध के दौरान प्रचार से प्रभावित होकर सैनिक बने और 21 अक्टूबर, 1915 से स्वेच्छापूर्वक लड़ाई में शामिल। युद्ध के दौरान गंदी, गहरी, कीचड़-सनी, भयंकर खाइयों, लगातार गोलीबारी, गैस बमों के घातक हमलों, सड़ांध भरे वीभत्स माहौल और रात-दिन खुले में ब$र्फानी ठंड का मुकाबला करते हुए उन्होंने युद्ध की यंत्रणा को देखा और भोगा।
युद्ध समाप्त होने के अंतिम सप्ताह तक उन्होंने अपने को गोलियों से बचाया। 4 नवंबर, 1918 को (उम्र 25 वर्ष) साम्ब्रे-ओइस कैनाल पार करते हुए वे बम विस्फोट में मारे गए।
एडिनबर्ग में एक साइट्रियाटिक हॉस्पिटल में उनकी मुलाकात सिंगफ्रीड ससून से हुई थी। जिन्होंने उन्हें युद्ध कविताओं के लिए प्रेरित किया। 1917 में फ्रांस का युद्ध देखने के बाद ओवेन ने बहुत प्रभावशाली कविताएँ लिखीं।

लौटते हुए हमने सुना लार्क पक्षियों को
- आइजैक रोजेनबर्ग (1917)

काली है रात।
वैसे तो जीवित हम, हमें पता है
कौन से हैं भयानक खतरे।

दुखते हाथ-पैरों को घसीटते, हमें केवल यही पता
कि विषैला-विस्फोटक रास्ता पहुँचता हमारे शिविर तक-
जहां समझते थोड़ी सुरक्षित है नींद।

लेकिन सुनो!... है आनंद... ही आनंद... अनोखा आनंद,
देखो! रात में ऊपर आकाश ध्वनित है अदृश्य लार्क पक्षियों से।
संगीत बरस रहा है हमारे आकाश ताकते चेहरों पर।

अँधेरे से बरस सकती है मौत
आसानी से गीत की तरह-
लेकिन बरसा गीत केवल,
खतरनाक ज्वार-भाटों के पास रेत में
अंधे व्यक्ति के सपनों की तरह,
काले केशों वाली लड़की की तरह, जो नहीं देखती स्वप्न तबाही का,
या उसके चुंबनों की तरह जहाँ छिपा है कोई सर्प।

आइजैक रोजेनबर्ग (1890-1918): यहूदी-अंग्रेजी कवि, कलाकार और शिल्पी। ब्रिस्टल में जन्म। लंदन के सेंट पॉल स्कूल तथा ईस्ट एंड स्लेड स्कूल ऑफ आर्ट में शिक्षा। बेरोजगार रहे। अक्टूबर, 1915 में युद्ध में शामिल।
1 अप्रैल, 1918 को (उम्र 28 वर्ष) युद्ध में मारे गए। उनकी युद्ध कविताएं असाधारण हैं, जिनमें खाइयों के तीक्ष्ण अनुभव समाए हुए हैं। सिग्फ्रीड ससून ने उनकी कविताओं की प्रशंसा की। तथापि एक कवि के रूप में उन्हें सर्वत्र सराहना मिली।

सुरक्षा
- रूपर्ट ब्रुक (1914)

प्रिय मेरे! इस समय सभी खुश लोगों में से सबसे धन्य है वह
जिसने पा ली है हमारी गुप्त सुरक्षा
है सुनिश्चित जो शांत दुनिया के अंधेरे समय में,
और सुन लिया है जिसने हमारे ये शब्द: 'कौन है जो हमसे ज्यादा सुरक्षित है?'
हमने पा ली है सुरक्षा सभी अविनाशी चीजों में,
ये हवाएँ, और सुबह, लोगों के आँसू और खुशी,
ये गहन रात, और पक्षियों के गान और बादलों की उड़ान,
ये नींद, और स्वतंत्रता, और शरत्कालीन पृथ्वी।
हमने बनाया है एक महान, नहीं गिरा पाएगा जिसे यह समय।
युद्ध को पता नहीं है शक्ति। मृत्यु के सभी प्रयासों के विरुद्ध
गुप्त रूप से सशस्त्र, होगा मेरा रास्ता सुरक्षित;
समस्त सुरक्षा खो चुकने के बाद सुरक्षित, सुरक्षित जहाँ लोग हो जाते हैं मृत;
और यदि मर जाएँ ये कमजोर हाथ-पैर तो है यह सबसे सुरक्षित।

रूपर्ट ब्रुक (1887-1915): जार्जियन-अंग्रेजी कवि। रग्बी में जन्म। रग्बी स्कूल एवं किंग्स कॉलेज, कैम्ब्रिज में शिक्षा। जर्मनी और इटली का भ्रमण। 1911 में कविताएं  प्रकाशित। 1913-14 के दौरान यूनाइटेड स्टेट्स, कनाडा, होनालूलू, समोआ, फीज़ी, न्यूजीलैंड और ताहीति की यात्रा। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान रॉयल नेवी में थे। वे युद्ध की त्रासदी से विचलित थे। उन्होंने युद्ध की वास्तविकताओं को नकारते हुए समस्त परिस्थितियों से एक भावनात्मक दूरी बनाए रखी। युद्ध के दौरान उसकी पाँच कविताओं की श्रृँखला '1914' (1915 में प्रकाशित) से उन्हें ख्याति मिली।
ऐण्टवर्प की दुर्भाग्यपूर्ण चढ़ाई में उन्होंने भाग लिया, जिसमें पीछे हटना पड़ा। इस दौरान जब वे जहाज से डार्डनेल्ज़ लौट रहे थे, वे मच्छरों के कारण रक्त-विषाक्तता के शिकार हुए और 23 अप्रैल, 1915 को (उम्र 27 वर्ष) यात्रा के दौरान ही उनकी मृत्यु हो गई।

एक मृत जर्मन सिपाही
-राबर्ट ग्रेव्स (1917)

तुम, जिसने मेरे युद्ध-गीतों को पढ़ा
तुमने केवल सुना रक्तपात और ख्याति के बारे में,
मैं कहता हूँ (तुमने ऐसा पहले भी सुना है)
''युद्ध है नर्क!'' और यदि इस पर तुम्हें संदेह
तो है समाधान कि जानो रक्तपात की पिपासा को
जो मैंने देखा आज 'मैमेट्ज वुड' में:

जहाँ बैठा है गंदी बिखरी चीजों के बीच
टूटे पेड़ के तने से टिक कर
एक मृत जर्मन सिपाही;
उसकी त्यौरियाँ चढ़ी हुईं, कपड़े बदबूदार
और चेहरा सूचा हुआ, पीला
तोंद बड़ी, चश्माधारी, सिर पर छोटे-छोटे बाल
नाक और दाढ़ी से टपकता काला रक्त।

राबर्ट ग्रेव्स (1895-1985): अंग्रेजी कवि, उपन्यासकार, आलोचक और सैनिक। लंदन के निकट विम्बल्डन में जन्म। चार्टरहाउस में शिक्षा। माँ जर्मन थीं। बचपन में पाँच ग्रीष्मावकाशों में जर्मनी में रहे। 19 वर्ष की उम्र में स्कूल से सीधे रॉयल वेल्श फ्यूजिलिअर चले आए, जहाँ ससून, ओवेन और निकोलस उनके मित्र थे। जुलाई, 1916 में बम विस्फोट से निकले छर्रे उनके फेफड़ों में जा लगे। इस बड़ी चोट के बाद उन्हें युद्ध में फ्रंटलाइन से हटा दिया गया था।
ग्रेव्स के 90 वर्ष के जीवनकाल में उनकी 140 पुस्तकों का प्रकाशन हुआ। अपने प्रथम विश्वयुद्ध के अनुभवों को उन्होंने अपनी आत्मकथा 'गुडबाई टू ऑल' में लिखा। उनके ऐतिहासिक उपन्यास 'आई क्लाडियस', 'किंग जीसस', 'क्लाडियस द गॉड', आदि बहुचर्चित रहे। उन्होंने अपना अधिकांश जीवन मेजोर्का में व्यतीत किया। अपने जीवनयापन के लिए वे निरंतर लिखते रहे।

खुश योद्धा
- हर्बर्ट रीड (प्रथम विश्व युद्ध के बाद लिखी गई)

उसका जोशीला हृदय धड़कता है दर्द भरी सिसकियों के साथ,
उसके कड़क हाथ पकड़ते हैं एक बहुत ठंडी राइफल,
उसके दुखते जबड़ों ने जकड़ रखी है एक गर्म शुष्क जीभ,
उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में होती है खोज अनजाने ही।

वह चीख नहीं सकता।

उसकी खूनी लार
टपक कर आ जाती बेतरतीब जैकेट तक।

मैंने देखा उसे
छुरा भौंकते बार-बार
उसने बखूबी मारा जर्मन को।

है खुश वह योद्धा
वही है यह...

हर्बर्ट रीड (1893-1980) : अंग्रेजी अराजकतावादी कवि, साहित्य व कला समीक्षक। कर्बीमूरसाइड, यॉर्कशायर में जन्म। लीड्स यूनिवर्सिटी में शिक्षा। 1915 में फ्रांस और बेल्जियम के यॉर्कशायर रेजिमेंट में शामिल। कैप्टन के रूप में पदोन्नत हुए। उनमें स्वाभाविक नेतृत्व क्षमता थी और वे अपनी भूमिका से संतुष्ट थे। साहसी हर्बर्ट रीड को मिलिटरी क्रॉस और डीएसओ एवार्ड से सम्मानित किया।
रीड ने कला विषयक अनेक पुस्तकें लिखीं, जिनमें शिक्षा के कला के महत्व पर भी संग्रह हैं। इंस्टीट्यूट ऑफ कंटेम्प्ररी आर्ट्स के सह-संस्थापक रीड ने अस्तित्ववाद पर भी काम किया।

प्रेम, 1916
- मे वेडरबर्न कैनन

एक ने मुझसे कहा, 'प्रेम' की तलाश करो, कि उसका
दूसरा नाम है 'आनंद'।
फिर दूसरे ने कहा, 'प्रेम' की तलाश करो, कि है यह 'शक्ति',
जिसे कहते हैं 'ख्याति'।
अंत में तीसरे ने कहा, 'प्रेम' की तलाश करो, कि उसका नाम है 'शांति'।
मैंने उसे तीन बार आवाज दी,
मुझे उत्तर मिला, 'प्रेम' का नाम है अब 'बलिदान'।

मे वेडरबर्न कैनन (1893-1973): अंग्रेज कवयित्री। ऑक्सफोर्ड में जन्म। साहित्य में गहन रुचि। 18 वर्ष की उम्र में 'वॉलंटरी एड डिटैचमेंट' में कार्य। नर्स के लिए प्रशिक्षित, उन्होंने 'क्वार्टरमास्टर' रैंक प्राप्त किया। प्रथम विश्वयुद्ध में सक्रिय भूमिका निभाते हुए 'ऑक्ज़िलरी नर्स' का कार्य किया। उनके काव्य संग्रह हैं: 'इन वार टाइम्स', 'द स्प्लेंडिड डेज़' और 'द हाउस ऑफ होप'। अन्य पुस्तकें हैं: 'द लोनली जनरेशन' (उपन्यास) और 'ग्रे घोस्ट्स एंड वॉयसेस' (आत्मकथा)।

नववर्ष - 1916
- एडा मे हैरिसन

वे जो चले जाते हैं खामोशी में...

उनके चले जाने में नहीं होती है खामोशी,
वैसे तो उनके कब्र पर उगी घास गीली नहीं है आँसुओं से,
पर दुख गुजरता है वहाँ से, तथापि उनके यश से
उन्हें मिलता रहा है गौरव कई वर्षों से।

अग्रसर हैं युद्ध के बादल, लेकिन लोग भूल जाते हैं
कि होते हैं साम्राज्यों के पतन। हम अभी भी बेखबर,
अभी भी बेपरवाह, काम में लाते हैं अपने लापरवाह तरीके,
किंतु फिर भी वे कब्रें बोलती हैं उनकी प्रशंसा में।

एडा मे हैरिसन : प्रथम विश्वयुद्ध के दौर की प्रखर कवयित्री। ऐडा ने यहां प्रस्तुत कविता उस समय लिखी थी, जब वे न्यून्हम कॉलेज, कैम्ब्रिज की छात्रा थीं। इस कवयित्री के बारे में अन्य जानकारी उपलब्ध नहीं है।

लौटने पर
डब्ल्यू. डब्ल्यू. गिब्सन (1915)

वे पूछते हैं मुझसे कि मैं कहाँ गया था,
क्या किया और क्या देखा मैंने।
किंतु मैं क्या उत्तर दूँ
कोई नहीं जानता कि वह मैं नहीं था,
वह था ठीक मेरे जैसा ही,
जो गया था समुद्र पार
और जिसने मेरी बुद्धि और कौशल से
विदेशी जमीन पर मार गिराए सैनिक...
अब दोषारोपण मुझे ही करना होगा बर्दाश्त
कि उसने बदल कर रख लिया था मेरा नाम।

डब्ल्यू. डब्ल्यू. गिब्सन (1878-1962): अंग्रेज जार्जियन कवि। हेक्सम, नार्थम्बरलैंड में जन्म। केवल स्कूली शिक्षा। 11 वर्ष की उम्र से लगातार काव्य लेखन। रूपर्ट ब्रुक के गहरे दोस्त। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान लिखी कविताओं में सामान्य सैनिकों की पीड़ा, फ्रंटलाइन योद्धाओं के यथार्थ और खाइयों के अनुभव की अभिव्यक्ति। काव्य संग्रह हैं: 'बैटल', 'फ्रेंड्स', 'लाइवलीहुड', 'नेबर्स' और 'कलेक्टेड पोयम्स'।

युद्धकाल का गीत गाओ
- नीना मर्डोक (प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान)

सैनिकों तुम आगे बढ़ते जाओ
युद्धकाल का गीत गाओ,
लोगों की भीड़ खड़ी
हाथ हिला अलविदा कहती।
सबके जाने के बाद
चाय के लिए घर जाएंगे,
युद्धकाल में किफायत बरतने
बस ब्रेड और मार्जरीन खाएंगे।

यदि मांगती मैं केक या जैम
या उस जैसी कोई चीज,
नर्स कहती, ''आर्ची, है यह युद्धकाल!
अब कहाँ वैसी चीज!''
अब छोटे बच्चों के लिए भी
नहीं जीवन मजेदार,
पैसे नहीं अब
खरीदने को खिलौने बार-बार।

घर के काम पर माँएँ निपटातीं
नौकरानियाँ नहीं मिल पातीं,
गईं वे हथियार बनाने
बेहतर मजूरी पा जाने,
नर्सें हैं निरंतर व्यस्त
नहीं समय आमोद-प्रमोद का,
सिलाई कर रहीं सैनिकों के वस्त्र
इसी में बीत रहा समय रोज का।

युद्ध के लिए हर कोई
कर रहा कुछ-न-कुछ काम,
बालिकाएं भी देतीं योगदान
कभी किया न वैसा करतीं काम,
बस-कंडक्टर वे बन जातीं
कार या वैन भी चलातीं,
उल्टा-पुल्टा हुआ दुनिया का हाल
शुरू हुआ जबसे युद्धकाल।

नीना मार्डोक (1890-1976): ऑस्ट्रेलियाई कवयित्री, पत्रकार, यायावर। नार्थ काल्र्टन, विक्टोरिया में जन्म। न्यू साउथ वेल्स और सिडनी में शिक्षा। इंग्लैंड और यूरोप की यात्रा। प्रथम विश्वयुद्ध पर कविताएं और नर्सरी राइम। अनेक कविता संग्रह और यात्रा वृत्तांत प्रकाशित।

ट्रेंच सांग (खाई गीत)
प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान न केवल ओवेन और ससून जैसे महाकवियों और सैनिकों ने कविताएँ लिखीं, बल्कि अनेक सामान्य सैनिकों ने भी खाइयों में रहते हुए अपनी पीड़ा को गीतों के माध्यम से अभिव्यक्त किया। ये गीत 'ट्रेंचसांग (खाई गीत)' के रूप में प्रचलित हुए। कहा जाता है कि युद्धकाल में ऐसे हजारों गीत मुखरित हुए। कई गीतों के विविध रूप भी उपलब्ध हैं, किंतु इनके रचयिता अज्ञात हैं। यहां पर एक ट्रेंचसांग का अंश प्रस्तुत है:

तो कोई बात नहीं....

यदि सारजेंट पी जाता है तुम्हारा रम, तो कोई बात नहीं
यदि तुम्हारे चेहरे से चली जाए मुस्कान, तो कोई बात नहीं
है मदिरा पर उसका अधिकार, रक्तपात का नहीं वह जवाबदार
यदि सारजेंट पी जाता है तुम्हारा रम, तो कोई बात नहीं।

यदि तुम्हारी खाई में ओल्ड जेरी बरसाता है गोले, तो कोई बात नहीं,
यदि तुम्हारे चेहरे से चली जाए मुस्कान, तो कोई बात नहीं
यदि सैंडबैगों से हो आक्रमण इसबार, तो तुम्हें भी तो मरना है बस एक बार
यदि तुम्हारी खाई में ओल्ड जेरी बरसाता है गोले, तो कोई बात नहीं।

यदि फँस जाओ तुम तारों में, तो कोई बात नहीं
यदि तुम्हारे चेहरे से चली जाए मुस्कान, तो कोई बात नहीं
तुम दिन भर वहां ऐसे फँसे, कि तुम्हें गिना मृतकों में और रोक लिए मजूरी के पैसे
यदि फँस जाओ तुम तारों में, तो कोई बात नहीं।

यदि सारजेंट पी जाता है तुम्हारा रम, तो कोई बात नहीं...


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