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सितम्बर 2014

देह, धर्म और राज्य के इलाके में

राहुल सिंह

अगली बार पंकज मित्र




एक सुदीर्घ रचनाकाल जो साढ़े तीन दशकों (1980-2014) तक फैला हो, और विकासशील भी हो, का मूल्यांकन अलग किस्म की दुश्वारियां लेकर आता है। पहली मुश्किल तो यह कि उसकी शुरुआती कमजोर कहानियों के साथ क्या सुलूक किया जाये? दूसरी यह कि वही कमजोरियां रचनाकार के बतौर स्थापित हो जाने के बाद दिखाई पड़े तो क्या किया जाये? और इस बीच उसने इतनी उम्दा कहानियां लिखी हों कि उनके सौ गुनाह माफ कर दिये जायें तो बातचीत की बुनियादी टेक क्या होनी चाहिए? समझदारी यह कहती है कि शुरुआती कमजोरियों को दरकिनार किया जाये, बाद की कमजोरियों की दरियाफ्त की जाये और उम्दा कहानियों की मुफ्त कंठ से प्रशंसा की जाये।
बतौर कहानीकार प्रियवंद पर बात करने की राह में सबसे बड़ी मुश्किल उनकी सुदीर्घ कथा-यात्रा है, जो 1980 से अनवरत जारी है। गनीमत इतनी है कि इन वर्षों में उन्होंने 40 कहानियां लिखी हैं, जो इस बात की भी सूचक है कि उन्होंने फरमाइशी लेखन को तरजीह नहीं दी है। (प्रियवंद की सारी कहानियां संवाद प्रकाशन से 'आईना घर' के दो खण्डों में प्रकाशित हैं)। उनकी इस रचनागत निष्ठा के कौन से नतीजे उभर कर सामने आये? इसे जानने के लिये यों तो जरूरी है कि उनकी कहानियों का समग्रता में विश्लेषण किया जाये। चूंकि इस बात का पूरा अवकाश यहां नहीं है। इसलिए उनके लेखन को समझने की लिहाज से एक सुविधाजनक विभाजन कर लेना बेहतर होगा। प्रियंवद के लेखन में तीन चरणों को सहजता से लक्षित किया जा सकता है। एक (1980-1985) जिसको उनके लेखन का आरंभिक चरण कहा जा सकता है। 1986 में उनके लेखन में आये शिफ्ट के मद्देनजर इसे उनके लेखन के प्रस्थान बिन्दु के बतौर देखा जा सकता है। (1987-1997) के बीच प्रियंवद अपने सबसे बेहतर फार्म में दिखते हैं और (1997-2007) उनके लेखन की ढलान है।
1980 में 'बोसीदनी' के साथ उन्होंने हिन्दी कहानी की दुनिया में दस्तक दी। 'सारिका' की कहानी प्रतियोगिता में इसे तृतीय पुरस्कार से नवाजा भी गया। पर आज 'बोसीदनी' को पढ़ें तो उसके शीर्षक से इतर कुछ याद करने लायक नहीं लगता है। एक किस्म की अस्पष्टता से कहानी आक्रांत लगती है। भ्रूण हत्या और उस पर भी स्त्री शिशु भ्रूण हत्या से जुड़ी यह कहानी, कहीं से भी भ्रूण हत्या की संवेदना से सम्बद्ध कहानी नहीं जान पड़ती है। मातृत्व को यह कहानी जरूर कटघरे  में खड़ा करती है। लेकिन अपनी बाद की कहानियों (बसंत-सा, 1986) में प्रियंवद मातृत्व को पूरा सम्मान देते नजर आते हैं। इसी साल आई एक दूसरी कहानी 'होंठों के नीले फूल' में भी पहली कहानी-सी अस्पष्टता व्याप्त है। बल्कि इसमें एक किस्म की बनावटीपन को भी लक्ष्य किया जा सकता है। बूबा नाम की स्त्री और जिस पतंग लूटने वाले बच्चे के मध्य यह कहानी घटित होती है, उस बच्चे की पृष्ठभूमि के बारे में प्रियंवद का मौन कहानी को कमजोर करता है। प्रियंवद पूरी कहानी में एक पतंग लूटने आये बिन मां के बच्चे को जिस कलात्मक आस्वाद, मानसिकता परिपक्वता और भाषागत अधिकार से सम्पन्न दिखलाते हैं, वह बात हजम नहीं होती है। कहानी में प्रियंवद की यह हरकत कहानी की कृत्रिमता को पुष्ट करती है। पर साल भर के भीतर ही प्रियंवद की कहानियों में एक बदलाव देखने को मिलता है। 1981 और 1983 में क्रमश: प्रकाशित उनकी कहानियों 'कैक्टस की नाव देह' और 'एक पीली धूप' को पढ़ें तो एक किस्म की रोमानियत और भावुकता के दर्शन होते हैं, जिसके लिए बांग्ला साहित्य रहा है। यह दोनों कहानियां एक ही भाव दशा की कहानियां हैं। 'एक पीली धूप', 'कैक्टस की नाव देह' का एक विस्तारित अंश जान पड़ती है। 'कैक्टस की नाव देह' में वनि की पुत्री यह पूछ कर लौट जाती है कि 'मैं आपकी बेटी क्यों नहीं हुई?' 'एक पीली धूप' में मानो मद्रिमा ही उसकी बेटी के रुप में शाश्वती की कोख से पैदा होती है और मद्रिमा की तरह छुट्टियों में लौटती नहीं है बल्कि ठहर जाती है। इन दोनों कहानियों में प्रकृति एक आलम्बन के बतौर बहुत मजबूती से प्रियंवद की कहानियों में अपनी जगह बनाती दिखती है। आगे चलकर प्रकृति प्रियंवद की कहानियों में एक महत्वपूर्ण घटक के तौर पर उभरती है। इसके साथ ही पात्रों के मुख से रोचक जानकारियों को बयां कराने का एक टोटका भी इन कहानियों में लक्ष्य किया जा सकता है। इसके बाद 'जुगली का रथ' (1983) प्रियंवद की कहानी यात्रा में एक विचलन-सा प्रतीत होता है। नक्सलवादी विचारधारा के प्रति सहानुभूति व्यक्त करती यह कहानी, बहुत प्रभावी नहीं जान पड़ती है। 'दो बूढ़े' (1984) जीवन दर्शन को लेकर गढ़ी गयी कहानी है, जो जीवन के प्रति दो नज़रिये के मूल में उनके जीवन अनुभवों को रख कर जीवन की सापेक्षिता को उजागर करती है। 'आक्रांत' (1984) पुन: अस्पष्टता के साथ नमूदार होने वाली कहानी है। जंगल एक प्रतीक, एक रुपक के बतौर कहानी में व्यवह्रत होती तो जरूर है, पर कहानी को पढ़ते हुए बात कुछ बनती-सी नहीं जान पड़ती। 'बूटी बाई की नथ' (1985) राजनीति और अपराध की आपसी  सांठ-गांठ की कहानी है, जिसका सबसे पठनीय अंश उसका आखिरी वाक्य है कि ''देश का नक्शा नथ में झूल रहा था।'' 1980 से 1985 के बीच छपी इन कहानियों की तुलना में इसके बाद की छपी कहानियों में प्रियंवद बहुत बदले अैर सधे हुए कहानीकार के तौर पर उभरते हैं। पिछली कहानियों की कमजोरियां अप्रत्याशित रुप से कम होनी शुरू होती हैं, उनकी खूबियों को सहेजने का एक उपक्रम भी दिखने लगता है। 'बच्चे' (1985) में वे अपनी पिछली कथा भूमि के अतिक्रमण का प्रयास करते नजर आते हैं। अब तक की कहानियों में बूढ़े और बच्चों के जो रेखाचित्र प्रियंवद खींचते आ रहे थे, उसके सम्यक दर्शन पहली मर्तबा 'बूढ़ा काकुन फिर उदास है' (1985) में देखने को मिलता है। यह एक मर्मस्पर्शी कहानी है। इसमें गढऩ की अतिरिक्त कोशिशें नहीं हैं। यह प्रियंवद की उन कहानियों में से है जिनकी केन्द्रीय संवेदना इकहरी हैं। इकहरी संवेदना वाली ऐसी बेहतरीन 'प्वांइटेड कहानियां' प्रियंवद ने आगे चलकर दी हैं। इस कहानी में वैसी कहानियों के उत्स को देखा जा सकता है। इस तरह से देखें तो 1985 तक प्रियंवद की उपरोक्त दस कहानियां प्रकाशित हो चुकी थीं। इन कहानियों में यों तो साहस के अभाव में उपजी एक किस्म की अस्पष्टता, बंगला साहित्य की रोमानियत को हिन्दी में संभव कर सकने की ललक, रोचकता को कहाानियों में घुला देने की जद्दोजहद, प्रकृति को एक विश्वस्त साझीदार के तौर पर उभारने की कोशिशें दिख रही थीं। पर इन कहानियों में जो सर्वाधिक ध्यानाकर्षक थी, वह थी प्रियंवद की भाषा। संभव है कि इसका एक कारण प्रियंवद का 1975-76 से कविता में हाथ आजमाने का उपक्रम रहा हो। कहानियों में जुटायी इसी शुरुआती जमा-पूंजी को राह-खर्च के बतौर रख कर प्रियंवद किस्सागोई के अपने सफर में निकल पड़ते हैं।
1986 में प्रियंवद की तीन कहानियां प्रकाशित होती हैं। 'उस रात की वर्षा में', 'बसंत-सा' और 'आर्तनाद'। इन कहानियों और इस वर्ष को उनकी कहानी के सफर में एक प्रस्थान बिन्दु की तरह प्रस्तावित करने की प्रमुख वजह प्रियंवद की इन कहानियों में खुद को कहानीकार से किस्सागो में कुशलतापूर्वक रुपांतरित करने की प्रक्रिया भी है। कहानीकार से किस्सागो मे तब्दील होने का आशय यह है कि वे रोचकता पर पठनीयता के नये उपादानों को कुशलतापूर्वक अपनी कहानियों में आत्मसात कर कामयाबी हासिल करने लगते हैं। इसे उनकी इन तीन कहानियों में देखा जा सकता है। वैसे तो यह तीनों अलग-अलग स्वभाव की कहानियां हैं। इनमें से पहली कहानी का मिजाज थोड़ा इश्किया है। दूसरी में वे कुछ विचित्रताओं के समावेश से कहानी को अप्रत्याशित रुप से पठनीय बनाने का काम करते हैं। तीसरी उनकी राजनीतिक निहितार्थ वाली कहानियों के अंतर्गत आती है। इससे एक ओर तो उनकी कहानी के बढ़ते परास का पता चलता है। इसलिए यहां से उनकी कहानियों के प्रति एक आलोचनात्मक रुख अपनाया जा सकता है और इससे पहले की कहानियों पर उनको रियायत दी जा सकती हैं। तो 1986 को एक विभाजन बिन्दु मानते हुए प्रियंवद के लेखे का जोखा प्रस्तुत किया जा सकता है। 1987 में पुन: तीन कहानियां 'सूखे पत्ते', 'केंचुल' और 'धूर्त'। इनमें से कोई कहानी 86 में प्रकाशित इनकी तीन कहानियों के मुकाबले खड़े होने की स्थिति में नहीं है। किस्सागोई वाले नुक्ते पर 'धूर्त' जरूर ध्यान खींचती है। विशुद्ध किस्सागोई पर टिकी यह कहानी गजब का समां बांधती है। दरअसल प्रियंवद जिन और जैसी कहानियों की वजह से जाने जाते हैं, यह कहानियां बुनावट के स्तर पर उसी गारे-मिट्टी से बनी तो होती हैं पर उसमें वह 'प्रियंवदपना' नहीं दिखता है। इन कहानियों को दरकिनार भी किया जा सकता था। पर एक नियमित अंतराल पर इस ढब की दो-तीन कहानियां वे लिखते रहे हैं। अब तो ऐसा लगता है कि यह कहानियां पाठकों को गुमराह करने का एक बहाना भर रही हैं। ऐसा कहने की वजह यह है कि प्रियंवद की कहानियों का अपना एक 'कंफर्ट जोन' है। इस किस्म की दो-तीन कहानियों के बाद वे बारहा अपने उसी अखाड़े में लौटते हैं। गुमराह करने के इन पैंतरों के पीछे बुनियादी वजह यही जान पड़ती है। प्रियंवद की वे कहानियां ज्यादा दमदार और असरदार हैं, जो 'प्वाइंटिड' हैं। मतलब इकहरी संवेदना वाली हैं। इन इकहरी कहानियों से इतर प्रियंवद के यहां 'बाइफोकल' कहानियां भी मिलती हैं, पर 'मल्टीफोकल' कहानियों की तुलना में काफी कम संख्या  में इनके यहां देखने को मिलती है।
प्रियंवद की खासियत यह 'प्वांइटिड कहानियां' हैं। प्रियंवद की इस किस्म  की कहानियों को पढ़ते हुए यह बात बेहद शिद्दत से महसूस होती है कि हाल के दिनों की कहानियों में कुछेक तत्व हैं, जो लापता हैं। और जो कहीं न कहीं उनके कहानी-पन के लिए नुकसानदेह हैं। वह लापता-सी चीज कहानी का प्रवाह है। वह गुमशुदा-सी लगती चीज कहानी का मुकम्मल होना है। वह खोयी हुई खासियत कहानी को अंत तक पहुंचाने की अदा है। प्रियंवद की कहानियों में कथाप्रवाह को उद्गम से मुहाने तक बहता हुआ महसूस किया जा सकता है। कहानी में प्रवाह की इस परिणति को साकार करना कहानियों की वह आदिम विशिष्टता है, जो अब भी हमारे भीतर कथागत संस्कार के रूप में मौजूद हैं। और चाहे-अनचाहे हर पाठक की यह मुराद होती है कि कहानी उसके इस चाह को पूरा करे। इस चाहना का पूरा होना ही कथा का रस लेना है। कहना न होगा कि प्रियंवद की इन इकहरी कथावस्तु वाली कहानियों में यह सभी विशिष्टतायें कूट-कूट कर भरी हैं। कहानी को बरतने की प्रियंवद की इस अदा का पाठकों पर गहरा असर पड़ता है। प्रियंवद में कहन की अद्भुत क्षमता है (इसे देखना हो तो 'बूढ़े का उत्सव' 1997, अकेले पर्याप्त है)। कहानी की अपनी इस भंगिमा से वह पाठकों को बहा ले जाने में सक्षम हैं। यहां वे निर्मल वर्मा के समकक्ष कई मौकों पर नजर आते हैं। इन 'प्वाइंटिड कहानियों' में व्याप्त इकहरापन प्रियंवद की सीमा का नहीं सामथ्र्य का उदाहरण है। जैसे किसी पौधे की बहुत-सी-कलियों को केवल इसलिए एक अनुभवी माली छांट देता है कि एक ही पुष्प को संपूर्ण पोषण प्राप्त हो और उसकी सुंदरता का कोई ध्यान बंटाने वाला दूसरा साझीदार न हो। वैसे ही प्रियंवद अपनी इन 'प्वांइटिड कहानियों' में उन कहानियों की दूसरी संभावनाओं का निर्ममता से हनन करते हैं। (एक रचनाकार में अपनी रचना के संपादन का विवेक कितना अनिवार्य है, इसे स्टिफन ज्वाइग की आत्मकथा 'वो गुजरा जमाना' को पढ़ कर अनुभूत किया जा सकता है।) बल्कि ऐसी किसी भी समांतरता या द्वि-ध्रुवीयता को वे अपने तईं कोई प्रोत्साहन देते नहीं दिखते। बल्कि गर ऐसी कोई समानांतरता महसूस होती है तो उसी संवेदना को वो दूसरी स्वतंत्र कहानी के बतौर बुनते हैं। उनके यहां बारीकी से देखें तो कई बार मालूम होता है कि एक ही कहानी को वे कई किश्तों में बयां करते आये हैं। कई बार तो ऐसा करते जान पड़ते हैं कि गर ऐसा हुआ तो क्या होता? खासकर अपनी इश्किया मिजाज की कहानियों में तो इस अनुमेयता की छठा देखने लायक है। वे उस भाव दशा या मनोदशा की तमाम संभावनाओं का दोहन करते हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि एक ही कहानी में वे ऐसा नहीं करते हैं। उनको तोड़-तोड़ कर एक स्वतंत्र कहानी में इस क्रिया को दुहराते हैं। और बीच-बीच में वही विचलन वाली कहानियां लिख कर पाठकों का ध्यान बंटाने की कोशिश करते हैं। जैसे 'कैक्टस की नाव देह' और 'एक पीली धूप' एक ही कहानी की दो अलग परिणतियां मात्र हैं। और इनके बीच उस बुढ़ाते व्यक्ति की एक अंतर्कथा 'रेत' भी हो सकती है। इसी ढंग से 'उस रात की वर्षा में' और 'दर्शक' में जो साम्यता है, वह एक ही कहानी को थोड़ी फेरबदल के साथ फिर से संभव करने का अच्छा उदाहरण है। 'खरगोश' कहानी में व्याप्त घटना बहुलता को ध्यान में रखें तो 'एक अपवित्र पेड़' उसकी एक आनुषंगिक कहानी-सी जान पड़ती है, खरगोश की घटना बहुलता में वह गुम हा ेजाती। ऐसे ही 'नदी होती लड़की' और 'अधेड़ औरत के प्रेम' के बीच भी उस बुनियादी संवेदना को भांपा जा सकता है, जो इन दोनों कहानियों के मूल में है। 'पलंग' और 'बूढ़े का उत्सव' क्या एक ही कथास्थिति का विपर्यय रचती कहानियां नहीं है? ऐसा नहीं है कि यह सलूक प्रियंवद ने सिर्फ अपनी प्रेम कहानियों के साथ किया हो। बल्कि गहरे राजनीतिक निहितार्थों वाली कहानियों के साथ भी उन्होंने ऐसा ही बर्ताव किया है। 'कहो रिपुदमन' और 'आर्तनाद' में निमाई और रिपुदमन एक ही हालत में अपनाये गये दो जीवन दर्शन की अलग-अलग परिणतियां भर हैं। 'बूटी बाई की नथ' और 'लाल गोदाम का भूत' इन कहानियों की अंतर्कथायें भर हैं। ऐसी अनेक समरूपताओं से प्रियंवद का कहानी संसार अटा-पड़ा है। 'दूसरा अलीबाबा', 'केंचुल' का विस्तार जान पड़ती है। 'बोधि वृक्ष' के असगर मेंहदी और 'फ्लड लाईट' के नब्बन अली के अकेलेपन की अनुगूंजें एक-सी हैं। 'बहुरुपिया' के लाइब्रेरियन और 'चूहे' के पलुस्कर मैडम के डर का रंग एक-सा है। इस पर स्वतंत्र लेख लिखा जा सकता है, पर जो बात इन कहानियों के स्तर पर ज्यादा महत्वपूर्ण है, वह है इन कहानियों को संभव कर सकने का शिल्प।
बुनियादी रूप से प्रियंवद की कहानियों को मोटे तौर पर चार वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। पहली प्रेम कहानियां; दूसरी, सांप्रदायिकता विरोध की कहानियां; तीसरी, राजनीतिक निहितार्थवाली कहानियां और चौथी अलग-अलग जीवन दर्शन की धारणा करने वाली कहानियां। तो शुरुआत उन कहानियों से प्रियंवद जिनके उस्ताद हैं अर्थात् उनकी तथाकथित प्रेम कहानियों से। इस संदर्भ  में उनकी जोड़ का दूसरा मुश्किल है। प्रेम कहानियों में प्रियंवद एक सपेरे की तरह फनकार में तब्दील हो जाते हैं। जैसे हर पिटारे में होता तो सांप ही है, पर देखने से पहले की प्रत्याशा और सपेरे के द्वारा परोसे जानेवाली अप्रत्याशा के बीच रोमांच और आकर्षण का जो मिला-जुला भाव होता है, प्रियंवद की तथाकथित प्रेम कहानियों को पढ़ते हुए कमोवेश हम उसी मन:स्थिति के शिकार होते हैं। कई बार सबसे बड़ी पिटारी को खोलने के पहले सपेरा कोई बिच्छु या नेवला निकाल लेता है, प्रेम कहानियों के बीच प्रियंवद की बिल्कुल अलग मिजाज की कुछ कहानियां वैसी हैं। प्रियंवद ने जिस ढंग से एक के बाद एक यादगार प्रेम कहानियां दी हैं, वह कामयाबी हतप्रभ करने वाली हैं। 'उस रात की वर्षा में', 'ये खंडहर नहीं है', 'नदी होती लड़की', 'एक अपवित्र पेड़', 'खरगोश', 'दर्शक' जैसी आधा दर्जन यादगार कहानियों से इतर भी उनके यहां कई और प्रेम कहानियां मौजूद हैं। इनमें से 'एक अपवित्र पेड़' और 'खरगोश' को छोड़ दें तो बाकी कहानियां अवैध प्रेम संबंधों पर आधारित हैं। अवैध प्रेम संबंधों की इस अतिशयता के मूल में प्रियंवद की यह सोच है कि ''जितनी देर आप तथाकथित अवैध संबंध को जी रहे होते हैं, कम-से-कम उतनी देर तो आप अपनी स्वतंत्रता का उपयोग उपभोग कर रहे होते हैं। समाज के बनाये दायरों को ठेंगा दिखा रहे होते हैं।'' (पृ. 262 आईनाघर, भाग-2) इस सोच से उनकी अवैध संबंधों पर आधारित कहानियों का दर्शन निर्मित होता है। इस बिन्दु पर आकर देखें तो प्रियंवद की प्रेम कहानियों और अवैध संबंधों पर आधारित कहानियां दो अलग-अलग चीजें जान पड़ती हैं। वे साफ-साफ लिखते हैं कि ''अवैध संबंधों का प्रेम मुझे आकर्षित करता है। मेरा विश्वास है कि प्रेम अपनी पूरी चमक, पूरे आवेग के साथ ऐसे संबंधों में ही रहता है... ऐसे संबंधों का प्रेम बहुत गंभीर और अर्थपूर्ण होता है। प्रेम के इन्हीं क्षणों में मनुष्य अपनी असली और पूरी स्वतंत्रता का उपभोग करता है।... शेष संबंधों में तो वह एक लगातार दुहराई जाने वाली ऊबी हुई गुलामी होती है, जो जरा सी ऊपर की पर्त खुरचने पर दिखाई देने लगती हैं। यह गुलामी, गुलामों को धीरे-धीरे तर्कपूर्ण और नैतिक लगने लगती है। यही उनकी अंतिम शरण बन जाती है। इससे मुक्ति की कल्पना पाप और भय को जन्म देती है।'' (पृ. 205, अधेड़ औरत का प्रेम, आईनाघर भाग-1) प्रियंवद का यह दर्शन एकांगी है, जिसमें अपने हिस्से के सच को पूरे समाज का आधिकारिक सच बताने की कोशिश है। इस सोच को क्रियान्वित करने पर एक किस्म की जो सामाजिक अराजकता पैदा होगी उसके बारे में प्रियंवद का मानना है कि ''सामाजिक अराजकता का कारण होने के बावजूद मैं व्यक्तिगत स्वतंत्रता का पक्षधर हूं।'' (पृ. 263, आईनाघर, भाग-2) यों तो प्रियंवद की प्रेम कहानियों में कहीं भी 'प्रेम' और 'अवैध संबंध के प्रेम' के बीच की विभाजक रेखा उपलब्ध नहीं है। पर इस संदर्भ में उनका यह मानना है कि ''देह के साथ प्रेम हो यह जरूरी नहीं है। मगर प्रेम के साथ देह का होना जरूरी है। वैसे प्रेम बिना देह के भी संभव है लेकिन उसकी संपूर्णता देह के साथ आती है।'' इस तरह देखें तो प्रियंवद की प्रेम कहानियां व्यक्तिवाद और देहवाद की पक्षधर हैं। इस 'व्यक्तिवाद' और 'देहवाद' में उनकी 'कलात्मकता' को शामिल कर लिया जाये तो यह हिन्दी में एक नये किस्म के रीतिवाद का पर्याय बनता दिखता है, जिसे कायदन 'नव रीतिवाद' कहा जा सकता है। अवैध संबंधों पर आधारित इन कहानियों को एक-एक करके बारीकी से पढ़ें तो इस 'नव रीतिवाद' को ज्यादा बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। जैसे रीतिकाल में नायिका भेद के अंतर्गत भांति-भांति की नायिकाओं की सर्जना की गई थी, वैसे ही प्रियंवद की कहानियों में भी भांति-भांति की किशोरियों, नवयौवनाओं, नवविवाहिताओं, विवाहिताओं की पूरी रेन्ज है। प्रियंवद की नायिकायें भी काम्य हैं। लालसाओं और ऐषणाओं को जन्म देनेवाली हैं। एक दिपदिपाती-सी कामुकता को रचती यह यौन फंतासियां मूल रूप में स्त्री को एक देह के रूप में ही प्रस्तावित करती हैं। प्रियंवद की इन प्रेम कहानियों में देह एक जरूरी संदर्भ है, लेकिन स्त्री-देह। (''गहरे दुख में स्त्री देह एक शरण है। चूल्हे की आंच में जैसे कोई कच्ची चीज परिपक्व होती है... उसी तरह पुरुष के क्षत-विक्षत, खंडित अस्तित्व को वह देह सम्हालती है... धीरे-धीरे अपनी आंच में फिर से पका कर जीवन देती है। स्त्री देह कितती ही बार, चुपचाप, कितनी तरह से पुरुष को जीवन दे देती है, पुरुष को नहीं पता होता।'' पृ. 278, दर्शक, आईनाघर, भाग-1) कहानियों के बीच में आने वाली कामशास्त्र की टीपें स्त्रियों की होंठ की मांसलता के बेहतर उपयोग के बाबत हैं, उनके पेट पर पडऩेवाली त्रिवली के निमित्त हैं। मर्दाने देह के सौष्ठव को कहीं उस रुप से, चाव से चित्रित नहीं किया गया है। प्रियंवद की इन प्रेम कहानियों में व्याप्त देश-काल को महसूसना चाहें तो वह नितांत वायवीय जान पड़ती हैं। रीतिकाल के बारहमासें की तरह यहां भी ऋतुयें आलम्बन और उद्दीपन की उसी शास्त्रीय भूमिका का निर्वाह कर रही हैं। परिवेश के नाम पर देश-काल से मुक्त एक ऐसा यूटोपिया रचा गया है, जहां भोग की निर्बाध छूट है। 'एक अपवित्र पेड़' और 'खरगोश' जैसी प्रेम कहानियों को छोड़ दिया जाये तो अवैध संबंधों वाली इन कहानियों का नायक हर जगह एक ही व्यक्ति है, जो अपनी बौद्धिकता के बूते स्त्रियों के आखेट में रमा हुआ है। मानो प्रियंवद ने इस पुरुष सूत्रधार के लिए ही स्त्रियों के आखेट का एक उत्सव रच डाला है। दरअसल, सामाजिक अराजकता की कीमत पर प्रियंवद जिस व्यक्तिगत स्वतंत्रता के प्रति पक्षधरता प्रदर्शित कर रहे हैं, उस दावे की पोल यह कहानियां खोलती हैं। अवैध संबंधों पर आधारित इन कहानियों में अधिकांश मौकों पर व्यक्ति स्वातंत्र्य के नाम पर एक 'प्रच्छन्न मर्दवाद' की व्याप्ति देखी जा सकती है। वर्जनाओं से मुक्ति के नाम पर देह मुक्ति के इस अनुष्ठान में प्रियंवद राजेन्द्र यादव के असल साझीदार जान पड़ते हैं। चूंकि प्रियंवद के पास एक समर्थ भाषा है। प्रियंवद की कहानियों में व्याप्त 'प्रियंवदपने' में भाषा के इस सामथ्र्य की बड़ी भूमिका है। इसलिए यह पूरा अपराध उसी भाषा में किया जाता है और उसी भाषा के जरिये उसे छिपाया भी जाता है। कहानी का सारा क्रिया-व्यापार इसी भाषा के धरातल पर घटित होता है। कई बार इस भाषिक कौंध के आगे अन्तर्वस्तु के स्तर पर व्याप्त अंतर्विरोधों की ओर हमारा ध्यान नहीं जा पाता है।
अवैध संबंधों पर आधारित प्रेम कहानियों की इस निर्मम शल्यक्रिया से इतर उनमें व्याप्त कुछ खूबसूरत पहलुओं पर भी बात करना लाजिमी है। गर कहानी के स्तर पर बात की जाये तो अवैध संबंधों पर आधारित प्रियंवद की यह प्रेम कहानियां उनके स्वीकार के साहस के कारण बेजोड़ हो सकती हैं। उनकी शुरुआती कहानियों में इसी साहस के अभाव के कारण एक किस्म की अस्पष्टता देखने को मिलती है। इसी कारण कई कहानियों को उन्होंने थोड़े फेर-फार के बाद एक तरह से दोबारा लिखा है। विचारधारात्मक स्तर पर आलोच्य इन कहानियों में व्याप्त चमक से इनकार नहीं किया जा सकता है। वह चमक सार्वजनिक स्तर पर इसी स्वीकार के साहस से इन कहानियों में आ पाया है। जिसे ओमा शर्मा ने बिलकुल सही नोटिस किया था कि ''सेक्स और प्रेम को लेकर प्रियंवद की कहानियां एकदम विशिष्ट हैं। इन्हें लेकर उनके यहां जो खुलापन है, न सिर्फ सहज है बल्कि उनके पात्रों में किसी प्रकार का कोई गिल्ट या गांठ नहीं है।'' (पृ 261, आईनाघर भाग-2) स्वीकार के इस साहस से इतर इन कहानियों में जिस अदा से मन की खोहों और परतों को उकेरा गया है, पौराणिक मिथकों और ऐतिहासिक प्रसंगों को जिस कुशलता से पिरोया गया है, रोचकता और दिलचस्पी बनाये रखने के लिए अप्रत्याशाओं और असामान्यताओं से लेकर शॉक, थ्रिल के जरिये जिस कदर रोमांच को बनाये रखा गया है, अन्तर्वस्तु से लेकर शिल्प के मोर्चे पर जो मेहनत की गयी है, उससे किस्सगोई की उस शैली का जन्म हुआ है, ऊपर जिसे 'प्रियवंदपन' कहा गया है।
जैसा कि ऊपर साल 1986 को प्रियंवद के लेखन के एक प्रस्थान बिन्दु के बतौर रेखांकित करते हुए कुछ बातें निवेदित की गई हैं, उसी सिलसिले के एक दूसरे सिरे अर्थात गहरी राजनीतिक निहितार्थ वाली कहानियों की बात करें तो 'आर्तनाद' में उसका उत्स दिखता है। 1952 में जन्में प्रियंवद 1986 में चौंतीस साल के हो चुके थे और यह माना जा सकता है कि बतौर रचनाकार वे इतने परिपक्व हो चुके थे कि साल 1986 से कहानियों में व्यक्त उनके विचारों को गंभीरता से लिया जाये। 1986 में प्रकाशित 'आर्तनाद' में प्रियंवद राज्य, धर्म और समाज को वर्जनाओं का आधार बताते हैं। जिसे वे मई 2003 (कथादेश) में पुन: ओमा शर्मा को दिये गये साक्षात्कार में बल देकर दुहराते हैं कि 'वर्जनायें मूलत: मनुष्य की स्वतंत्रता पर आघात करती है। वर्जनायें ही मनुष्य की बुनियादी मानवीय गरिमाओं को नष्ट करती हैं। वर्जनायें मनुष्यों को गुलाम बनाने का एक उपक्रम भी हैं। राज्य, धर्म और समाज तीनों ने अनेक किस्म की वर्जनायें मनुष्यों पर थोपी हैं। कुछ मनुष्यों को गरिमाहीन रखना समय का स्थायी भाव है। और पतन के इस युग में आज मनुष्य सर्वाधिक गरिमाहीन है। इसके मूल में राज्य, धर्म और समाज की बर्बर, अमानवीय और पाशविक क्रियायें हैं।' तो सवाल उठता है कि 1986 से 2003 के मध्य राज्य, धर्म और समाज की वर्जनाओं के प्रति वे किस प्रकार अपनी कहानियों में 'रेस्पांड' करते हैं? दरअसल राज्य, धर्म और समाज वे संरचनायें हैं, जिनका आपसी गठबंधन हमारे समय की शक्ति संरचना को निर्मित करता है। शक्ति की यह संरचना अशक्तों के प्रति बर्बर, अमानवीय, पाशविक, हिंसक और संवेदनहीन रही है। प्रियंवद की कहानियों का एक हिस्सा राज्य, धर्म और समाज के आपसी गठजोड़ से उपजी बर्बरता, अमानवीयता, पाशविकता, हिंसा और संवेदनहीनता को अपना संबोध्य बनाती है। इन कहानियों में 'बसंत-सा', 'आर्तनाद', 'कहो रिपुदमन' और 'बोधिवृक्ष' प्रमुख हैं। इनमें से 'कहो रिपुदमन' (1988) और 'बोधिवृक्ष' (1997) सांप्रदायिकता पर लिखी बेहतरीन कहानियां हैं। एक रचनाकार को प्रतिरोध की समझदारी भले परंपरा से मिलती हो, पर प्रतिरोध के आख्यान-उपाख्यान के लिए उसे अपनी जमीन स्वयं तैयार करनी होती है। इन दोनों कहानियों की खूबसूरती उस जमीन के कारण है, जहां से प्रियंवद प्रतिरोध दर्ज करते हैं। आत्मा का हिस्सा हुए बगैर सर्जना के यह क्षण संभव नहीं हैं। यह दोनों कहानियां गहरी व्यंजनाओं से युक्त हैं। उन व्यंजनाओं को जिस कलात्मक रचाव के साथ अंजाम दिया गया है, उसकी समझ प्रियंवद की विधागत पकड़ को उजागर करने में सक्षम है। 'कहो रिपुदमन' अल्पसंख्यक की 'प्रचलित समझदारी' (कन्वैंशनल विजडम) को संशोधित करनेवाली कहानी है। रिपुदमन की परिणति में कहानी का मर्म निहित है। सतही तौर पर कहानी में एक हत्या (मुल्लाजी) और एक आत्महत्या (मूमल) सहजता से लक्षित होती हैं। दरअसल, चाहे वह मुल्लाजी की हत्या हो या मूमल की आत्महत्या यह क्रमश: शताब्दियों में अर्जित सामासिकता और सहज रूप से बचती आई निरीहता की आत्महत्या है, जिसे इस देश की राज्य-समाज-धर्म समाजों की आपसी गठजोड़ ने अब सहज सुलभ कर दिया है। पर असल त्रासदी रिपुदमन की है, जो इस हत्या और आत्महत्या के बीच क्रमिक आत्महत्या की स्थितियों को भोगते हुए जीते जी मुर्दा-सा हो गया है। उसका गुनाह उसकी संवेदनशीलता है। अपने 'संवेदनात्मक ज्ञान' के कारण वह अल्पसंख्यक है। अपनी सोच के कारण वह अल्पसंखयक है। और इस कारण हिन्दू होने के बावजूद उसकी यह परिणति है। इस कारण 'रिपुदमन' अर्थात् शत्रुओं का दमन करनेवाले की एक विडम्बनात्मक परिणति इस कहानी में है। गौरतलब है कि एक अल्पसंख्यक की मानसिकता या एक अल्पसंख्यक के भय को एक बहुसंख्य कैसे जी या महसूस सकता है? और चूंकि वो इसे जी या महसूस नहीं सकता है, इसलिए उसे आधिकारिक रूप से बयां भी नहीं कर सकता है। 'कहो रिपुदमन' इसलिए भी उल्लेखनीय हैं कि इसमें उस अल्पसंख्यक भय को जीने की कोशिश है। ध्यातव्य यह भी है कि यह कहानी 1984 और 1992 के ऐन बीचों-बीच पडऩे वाले साल 1988 में प्रकाशित हुई थी।
अशोक वाजपेयी ने अपने 'जनसत्ता' के कॉलम 'कभी-कभार' में कभी एक सुंदर बात कही थी कि 'परंपरा एक बहुमुखी मार का अस्त्र है।' 'बोधिवृक्ष' पुन: प्रियंवद के सर्जनात्मक प्रतिरोध के नये आयामों को प्रकाशित करता है। प्रतिरोध की यह विरल जमीन प्रियंवद की इतिहास की समझ से उपजी है। सांप्रदायिकता किस कदर हारी साझी विरासत को मिटाने पर आमादा है, इसे असगर मेंहदी के दर्द के जरिये समझा जा सकता है। जायकों की लुप्तप्राय हो चुकी 'रेसिपी' का हकदार असगर मेंहदी इस मुल्क के किसी बाशिंदे को नहीं बल्कि राशेल को पाता है। इस किस्म की दुर्भाग्यपूर्ण विडम्बनाओं के मूल में इस मुल्क का मुकद्दर छिपा है। उन अंदेशों को सही-सही पढ़ पाने की काबिलियत प्रियंवद को आज के परिप्रेक्ष्य में विचारणीय बनाती है। बोधिवृक्ष का सम्बन्ध बुद्ध के बुद्धतत्व की प्राप्ति से है। बाद में जिसकी शाखायें अलग-अलग देशों में गईं, फैलीं। पर उसका मूल यहीं था। पर अब हम इन विरासतों के समूल नाश में रत हैं।
1997 से 2007 के दौरान प्रियंवद ने ग्यारह कहानियां लिखीं, पर इनमें वह चमक कम से कमतर होती चली गई है। इस दौर की सबसे अच्छी कहानी 'दर्शक' है और कुछ छूट के साथ 'अधेड़ औरत का प्रेम'। यह महज इत्तेफाक नहीं है कि जिन कहानियों में उनकी चमक बची मिली वह दोनों कहानियां अवैध संबंधों पर आधारित हैं। यह उस्ताद के अपने पुराने पैंतरों से अपने अखाड़े को गुलजार करने की कोशिशें हैं, जहां अब भी वे अपराजित योद्धा की तरह खड़े हैं। प्रियंवद अब हिन्दी के हस्ताक्षर हैं। उन्होंने अपनी एक शैली विकसित की है। संभव है कि आगे चलकर इस स्कूल में कुछ लोग दीक्षित हों, अब भी हो रहे हैं। पर जो बात प्रियंवद की कहानियों में सबसे मार्के की है, वह है उनकी भाषा, सांप्रदायिकता के प्रति 'जीरो टालरेन्स' की उनकी प्रतिबद्धता और अवैध संबंधों के प्रेम के प्रति पक्षधरता। तत्सम और तद्भव की जुगलबंदी से उन्होंने एक सम्मोहक भाषा ईजाद की है। भाषा को उन्होंने एक ऐसे 'मेल्टिंग पॉट' में तब्दील कर दिया है, जिसमें दुनियां-जहां की चीजें डाल दी जायें पर जब वो उनसे निकलती हैं, तो उसमें 'प्रियंवदपन' तारी रहती है। इतिहास, मिथक, दर्शन, राजनीति सब घुल-मिलकर एकाकार हो जाते हैं। चिप्पियों की तरह यह कहानियों पर थोपे हुए नहीं लगते। कहानी में दिलचस्पी को बनाये रखने के लिए उन्होंने जिस ढंग से 'शॉक-थ्रिल-सरप्राइज' को कहानी के घटकों के तौर पर विकसित किया, उससे उनकी किस्सागोई एक निखरे हुए रुप में उभर कर आई। बांगला भावुकता को उन्होंने हिन्दी के रुमानियत में तब्दील कर दिया। दृश्यात्मकता से लबरेज उनकी कहानियां 'सिनेमेटिक सेन्स' से आप्लावित हैं। अक्सरहां अपनी कहानियों में त्रासदी के अंतरालों को उन्होंने दृश्यों से पाटा है। उनकी कहानियों को पढ़ते हुए एक-एक चीज को 'विजुअलाइज़' किया जा सकता है। जो इस बात की तस्दीक करता है कि जब तक कहानियां उनके जेहन में सीझती नहीं हैं, तब तक वे उसे पन्नों पर पसारते नहीं हैं। एक ओर अगर उनकी कहानियों में पात्रों के अंतर्विरोध उनके पात्रों को ज्यादा मानवीय बनाते हैं, तो दूसरी ओर प्रियंवद के स्वीकार का साहस उन्हें ज्यादा मानवीय बनाता है। पर सर्वत्र अपने पुरुष पात्रों में एक जन्मजात बौद्धिकता को परोसने की उनकी प्रवृत्ति ने उनके पुरुष पात्रों के व्यक्तित्वों की हत्या की है। सूत्रधार के रुप में सर्वत्र प्रियवंद की मौजूदगी का अहसास होता रहता है। प्रेम कहानियों में कभी-कभी सार्वनामिकता की अतिशयता अबूझ लगने लगती है। मृत्यु और बुढ़ापे की अलग-अलग छठाओं से भरा-पूरा प्रियंवद का रचना संसार उसकी विस्तृत व्याख्या की मांग करता है। स्त्री के अलग-अलग रूपों (मां, बहन, बेटी, प्रेमिका, पत्नी, परस्त्री) के प्रति अपनाये गये प्रियंवद के रुख के विश्लेषण की मांग करता है। प्रियंवद की कहानियों में व्याप्त जटिलताओं और अन्तर्मन की परतों को खोलना एक सुदीर्घ लेख या स्वतंत्र पुस्तक की मांग करता है। यहां उस सुदीर्घपने का अवकाश नहीं है। फिर भी संक्षेप में ऊपर वर्णित 'प्रियंवदपने' को समझना है तो प्रियंवद की इन कहानियें से गुजरा जा सकता है। 'बूढ़े का उत्सव', 'आर्तनाद', 'कहो रिपुदमन', 'बोधिवृक्ष', 'एक अपवित्र पेड़', 'दर्शक'। 'उसने कहा था' की धत्त...!, तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम की इस्स...! के बराबर की वजन का अरे...। आपको 'एक अपवित्र पेड़' में मिलेगा। और उन सब पर विस्तार से फिर कभी।


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