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सितम्बर 2014

परिक्रमा की परितुष्ट संस्कृति और पीछे छूटते सवालों का क्षोभ

रोहिणी अग्रवाल

स्तंभ
रोहिणी अग्रवाल का अगला आलोचनात्मक आलेख 'विपात्र' (मुक्तिबोध) और 'नालंदा में गिद्ध' (देवेन्द्र) पर केन्द्रित है।




परिक्रमा की परितुष्ट संस्कृति और पीछे छूटते सवालों का क्षोभ
''उसने कहा था'' और ''रंगमहल में नाची राधा'' के संदर्भ में

फुर्सत का ढेर सारा वक्त निकाल कर सूबेदारनी (उसने कहा था, चंद्रधर शर्मा गुलेरी) और दीवानबाई ('रंगमहल में नाची राधा', नीलाक्षी सिंह) के संग बतियाने बैठी हूं। जानती हूं एक सीमा पार करने के बाद अंतरंगता जब सम्मोहन बन कर भीतर-बाहर उतरने लगती है, तब हृदय की गुफाओं में टीसते भेद मुक्ति की कामना लिए खुद-ब-खुद बाहर आ निकलते हैं। लेकिन बीच में ही अंधड़ की तरह दौड़ कर सुरभि घोष आन टपकी। एक बड़बोली व्यस्तता के साथ हांफते-हांफते अपने आने का मकसद ही बता डाला- ''अपनी एक कहानी में लिखा था (साठ साल की औरत, मृदुला गर्ग), साठ की होने पर औरत निरापद हो जाती है। कुछ भी करे, लोकापवाद नहीं होता। कितनी बेवकूफी की बात थी। जैसे लोकापवाद का न होना औरत को निरापद करने को काफी हो। और जो लोक से इतर अपना मनोजगत् है, उसका क्या? पर उसका अनुग्रह तो साठ की होने पर पता चलेगा न?'' सुरभि ने एक पड़ताली नजर मेरी दोनों अतिथियों पर डाली। मैंने देखा, ससुर की खंखार सुन कर कपड़े-लत्ते समेट कर चौकन्नी होती कुलवधुओं की तरह तीनों (जी हां, सुरभि घोष भी) ने हृदय के गुफा-द्वारों पर कुंडी लगा दी। 'मनोजगत्!' एक-सी बुदबुदाहट के साथ तीनों के चेहरों पर एक-सी टीस पुत गई। पता नहीं, तनाव से सिरजे उस पल में क्या था कि आलोचक के 'सुरक्षित आसन' से उतरकर मेरे भीतर की स्त्री भी मनोजगत के कुंडी-तालों की पड़ताल में मशगूल हो गई। और तभी, एक अघट घट गया। हम चारों की आंखें जैसे ही एक ईमानदारी भरी कातर विवशता के साथ मिलीं, कुडियां-ताले भरभरा कर गिर पड़े। अब हम सब स्त्रियां थीं- हर तरह के भेद, विभेद और विभाजनों से परे एक ही तरह धड़कती मानवीय अस्मिताएं। जानती थीं इस सत्य को कि उम्र बेटे-बेटियों वाली होने की हो, या पोते-पोतियों वाली होने की, अपने तहखानों में घुस कर प्रेम की कुलांचे भरती अल्हड़ किशोरी को चोरी-चोरी तकने की हिम्मत भी नहीं जुटा पातीं।
''अरे आओ भी, तुम तो खासी दिलेर निकलीं। तहखाने के भीतर-भीतर बसे रंगमहल के द्वारों को जवांमर्दी से खोलना... और फिर तन्मय होकर नाचना...'' सूबेदारनी का प्रशंसा मिश्रित उद्गार अंत तक आते-आते हार की गहरी उसांस में तब्दील हो गया, ''कभी मैं भी गई थी रंगमहल को टोहने। लेकिन तहखाने में लगे मकडज़ालों को साफ करने में ही घिर गई।''
दीवानबाई मुस्करा दी, मानो इस समय भी रंगमहल की ओर प्रस्थान कर रही हो। सुरभि की आंखों में गहरी उत्सुकता पढ़ उसने हम सबको साथ चलने का स्निग्ध निमंत्रण दे डाला। हमने देखा - ''रंगमहल शमादानों की लौ से रौशन था। हवा के महीन झोंकों से कक्ष के श्वेत जहीन परदे इस कोने से उस कोने तक लहराते थे। रंगमहल के रंगोली सजे फर्श पर राधा के एक जोड़ी तलुवों की छाया पड़ी और कक्ष के शमादानों की शमा फक से बुझ गई। अब वहां शेष रह गई.. कक्ष के बीचों बीच छत से लटकते फानूस की मद्धम रोशनी। राधा के दांए तलवे से फर्श पर एक थाप पड़ी और रंगोली के गुलाबी अबीर का धुंआ कक्ष में तैर उठा... मृदंग की थाप और पंजे-एड़ी की लय... रंगमहल अबीरमय हो उठा और एक-एक करके दीवारों के सारे रंग गुलाबी होने लगे... कक्ष की दीवारों के परदे नृत्यरत राधा के शरीर से लिपटने लगे और रंगमहल में कुछ भी न बचा.. सिवा प्रेम और आनंद के गुलाबी आवरण के।''
सम्मोहन का मकडज़ाल देर तक अपनी गिरफ्त बनाए रखता है।
असल में सारा दोमदार उसके लौटने की यात्रा पर निर्भर है बंधे-बंधाए रीते हाथ लौटते हैं? या मुक्त होकर अपने को पैनी नजर से देखने-संवारने के विवेक के साथ?
ठीक कहती है सूबेरदारनी - रंगमहल में लगे मकडज़ालों को साफ करने में ही घिरी रही वह।
''मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया।'' सूबेदारनी के स्वर में 77 राइफल्स ब्रिगेड के सूबेदार की पत्नी होने का ठसका है, और पति के अधीन काम करने वाले जमादार लहनासिंह पर 'कृपा' करने का भाव भी।
''मुझे पहचाना?'' वह पूछती है। पता नहीं, उसके स्वर में उमंग भरी अकुलहाट है या नहीं। पता नहीं, यह सवाल पूछते हुए कलेजा जोर से धड़धड़ाया या नहीं। पता नहीं, आशंकाओं के बादल घिर आए या नहीं कि न पहचाना इसने, तो? पच्चीस साल तक जिन कोंपलों को सींचती आई थी, वे यकायक मुरझा गईं, तो?
कहानी में न सूबेदारनी की बॉडी लैंग्वेज है, न अंतर्मन की मुखरा चुप्पियां। सिर्फ शब्द की गूंजती टंकार है, 'मुझे पहचाना?' निरपेक्ष टंकार!
''नहीं।'' उतना ही निरपेक्ष जवाब।
हो सकता है सपाट जवाब पर बहुत कुछ दरका हो भीतर ही भीतर, लेकिन सूबेदार के ओहदे के 'औदात्य' को घूंट-घूंट पीती सूबेदारनी बिना सकपकाए सूबेदार के अधीनस्थ जमादार को स्मृतियों के जंगल में ले चलती है, ''तेरी कुड़माई हो गई... धत्... कल हो गई... देखते नहीं, रेशमी बूटों वाला मेरा सालू...''
पच्चीस बरस के अंतराल को पाट कर वह अमृतसर की तंग गलियों में होने वाली मुलाकातों के लिए आतुर दो बच्चों के चित्र लहनासिंह को दिखाती है - आठ बरस की लड़की, बारह बरस का लड़का।
पच्चीस बरस का अंतराल बहुत होता है। धुंधली पड़ती स्मृतियों के एलबम में लगी तस्वीरों के साथ रिश्ता 'बैठाने' में जोर लगता है। मनोवेगों की मंजूषा से अति-भावुकता पूरे वेग के साथ बह निकलती है, पच्चीस बरस तक सूखी-दरकी जमीन को सींचने के लिए। ''रोती-रोती सूबेदारनी ओबरी में चली गई। लहना भी आंसू पोंछता बाहर आया।'' मैं दोनों को रोते देखती हूं और अपने से ही पूछती हूं, आंसुओं के इस प्रचंड वेग में क्या है - ग्लानि, पछतावा कि एक-दूसरे को याद किए बिना पच्चीस बरस कैसी बेखबरी में काट दिए? या चुस्त चौकस आत्मबोध कि आने वाले बरस इस मुलाकात की गीली जमीन पर लौट-लौट कर पनाह पाते रहेंगे? ''वर्तमान को छोड़ कर अतीत में घुसने की जिद या आवश्यक रद्दोबदल के साथ अतीत को भविष्य के फ्रेमवर्क में पुन: अवतरित करने की कोशिश स्मृतियों की स्वायत्तता को भंग कर नॉस्टेल्जिया में बदल डालती है।'' मैंने अपनी शंका को शब्द दिए।
''नॉस्टेल्जिया माने फ्लर्ट अदा... मौकापरस्ती का धारदार हथियार!'' सुरभि घोष जितनी बड़बोली है, उतनी ही कंटीली भी।
सूबेदारनी का चेहरा फक् हो गया। जब अपने में लौटी तो बेहद अवांतर सवाल पूछ कर फिर चुप हो गई, ''पूरी कहानी में क्या वाकई तुमने मुझे देखा?''
मैं सवाल के वजन के साथ ठिठके उस पल को वहीं छोड़ आगे बढ़ आई। पूरी तैयारी के साथ सवाल से मुखातिब होना ही ठीक रहता है। तब एक साथ कई आयामों को खोलते माकूल जवाब मिल जाया करते हैं।
भीतर के उजालों से आलोकित हुए बिना क्या बाहर के अंधेरों से लड़ा जा सकता है? बनाम ''उम्र के इस मोड़ पर ये कैसा भटकाव था। जब उम्र थी, इच्छाएं थीं, भूख थी, तब जो सब नहीं कर पाई, उन चीजों की ओर अब... इतने सालों बाद! ये तो जीवन का अंत करीब आ रहा था। अब फिर से एक नया जीवन जीने की चाह! वह भी इतने दायित्वों में बंधी होने पर...''
यूं असलियत यह है कि सूबेदारनी मेरा गंतव्य नहीं है। मैं दीवानबाई को पोर-पोर महसूस कर रही हू्ं और जान लेना चाहती हूं कि क्या दीवानबाई अकेली ऐसी स्त्री है जो ''अग्नि के फेरे लेने के बाद सरद गई'' या अमूमन हर भारतीय स्त्री 'ठंडी सिल' पर गृहस्थी की शुरुआत करती है? जिस अनुपात में स्कूली छोकरे और कॉलेज के 'हीरो' लड़कियों से इश्क फरमाते घूमते हैं, बेवफा हो जाने पर प्रेयसियों पर एसिड अटैक कर दिल की भड़ास निकालते हैं, उससे तो यही लगता है कि पढऩे-खेलने-खाने के दिनों में इश्किया बुखार का आनंद लेना भी खूब चलन में आ गया है। न, इस मामले में लड़कियों की अनदेखी करना बिल्कुल ठीक नहीं। बराबरी के जमाने में प्यार करने की 'पुरुष (?) कामनाओं' से वे भला क्यों वंचित रहें? लेकिन दीवानबाई आज की युवती तो नहीं। वह है नाती-पोतों वाली साठ की वय की छूटी स्त्री। एकदम पारंपरिक विन्यास - आंखों के नीचे-ऊपर काजल... एडिय़ों से आलते की लाली... भौंहों के बीच चवन्नी बराबर लाल सिंदूर की बिंदी... और पल्लू के आखिरी छोर में चाभियों का काल्पनिक गुच्छा। क्या ऐसी स्त्री भी प्यार कर सकती है? सवाल दरअसल सवाल है ही नहीं, शंका-असहमति और निश्चयात्मक दृढ़ता के साथ जवाब बन कर गूंजता है कि नहीं, चारों ओर से पातिव्रत्य की मर्यादा से कील दी गई औरत के पास इतना आसमान नहीं होता कि जरा सा उडऩे के बहाने बाहर के आसमान में विलीन हो जाए। विवाह के दुर्ग में प्रवेश करने से पहले भले ही भूलवश प्रेम कर ले, लेकिन अंतत: भूल का परिमार्जन भी उसे ही करना है। चंपा (प्रसाद की कहानी 'आकाशदीप' की नायिका) की तरह जड़ आकाशदीप होकर लोगों को राह दिखाने की नजीर बन कर, या प्रेम के साथ जीने का हठ पाल ले तो जान्हवी (जैनेन्द्र कुमार की नायिका) की तरह कौओं से तेह नुचवाने की यंत्रणा का 'लाउड' निदर्शन करके। फिर ऐसा क्या हुआ कि दीवानबाई भूल (प्रेम) को 'मन का सम्बन्ध' बना बैठी? सन बासठ-तिरसठ के दौरान हाईस्कूल पास करके कितनी ही लड़कियां शहर के इकलौते वीमेंस कॉलेज गई होंगी। आने-जाने के क्रम में पड़ोस के किसी सुदर्शन लड़के से आंखें भी मिली होंगी; संवाद-सिलसिला ज्यादा परवान न चढ़ा हो तो भी बुनियादी सूचनाओं का आदान-प्रदान तो हुआ ही होगा। छुप-छुप कर मिलने/देखने के अवसरों को चुराने की जुगतें भी लगाई ही होंगी। लेकिन यह तो उम्र का उफान है। तब से अब तक  कितनी ही प्रेम कहानियां इस 'दुधमुंहे' प्रेम को लेकर लिखी गईं, सराह कर भुला दी गईं। कथा-नायिकाएं कथा से निकल कर असल जिंदगी में बुढ़ा गईं और घर के आंगन में जवान होती बेटियों के पंख कतरने के लिए मुस्तैदी से मोर्चे पर डट गईं। लेकिन ऐसा क्या हुआ कि अपनी तमाम हमउम्रों से बिछड़ कर यह अकेली स्त्री-दीवानबाई-उसी बच्चे दुधमुंहे प्रेम की गंध को लेकर इक्कीसवीं सदी की नई-नकोर दुनिया में निकल आई? निकली तो निकली, अपनी प्रेम कथा सुनाने भी बैठी? किसी हमउम्र कथाकार को नहीं, बेटी और पोती की बीच की उम्र में झूलती नीलाक्षी सिंह को?
जवाब ढूंढऩे के लिए मुझे ज्यादा दूर नहीं जाना पड़ा सवाल की इसी घुंडी में जवाब का सिरा मिल गया है। दीवानबाई ने अपनी कहानी किसी पुरुष - गुलेरी, प्रसाद, जैनेन्द्र - को नहीं सुनाई, स्त्री को सुनाई, वह भी चेतना के स्तर पर इक्कीसवीं सदी में अपनी वैचारिक पहचान बनाती स्त्री को, इस उम्मीद के साथ कि शायद रोमान के धुंधलके और आदर्शीकरण की चौंध से मुक्त हो वह उसके तलघर के सच को फ्रेम दर फ्रेम उभार पाए - एकदम सिनेमैटोग्राफिक इफेक्ट के साथ। मैं देखती हूं, ग्राहकों के कपड़ों पर कसीदाकारी करके पति की गृहस्थी चलाने वाली दीवानबाई की उंगली में सूई चुभी है। मुंह से एक आह निकली, लेकिन इस आह में दर्द सूई की चुभन का नहीं, मायके के तीन घर छोड़ कर चौथे घर वाले उस युवक से बिछुड़ जाने का है। मुट्ठी में बंधी मेहनत की कमाई के रुपयों को छूने का रोमांच 'उस मंगल मूरत सांवली सूरत' के लिए जमाने भर की नियामतें खरीद लेने की ललक में तब्दील हो गया है, लेकिन तभी सारी कोमलताओं को ढांपती बदली की तरह सिर पर दायित्वों का पहाड़ उठा लेने की कठोरता कहीं से चली आई है। पता नहीं क्यों, मुझे सूबेदारनी का अनुत्तरित सवाल दूने व ेग से कोंचने लगा है - ''पूरी कहानी के दौरान क्या तुमने वाकई मुझे एक बार भी देखा?'' न, सूबेदारनी नहीं, दीवानबाई सख्तजान जिद के साथ अपने आपको काम में डुबोए दिखती रही ताकि ''यादों से, और उन अंधेरों के सपनों से पीछा छुड़ा'' सके। फिर भी अपने से लडऩा इतना आसान तो नहीं। मायके जाती तो लाख दृढ़ निश्चय के बावजूद ''शाम के लुकझुके में इसकी आंख तीन घर पार वाली छत से चिपक जाती। कहीं कुछ दिखे। शक्ल न... आकृति सही।''
सूबेदारनी के हिस्से में 'प्रेम' को पान की गिलौरी-सा चबाने का 'सुख' नहीं है। उसके पास हवा में तैरती स्मृतियां हैं कि दही लेने आया लड़का और बडिय़ां लेने आई लड़की जाने क्यों मामा के लिए सौदा-सुलुफ लेने गाहे-बगाहे टकराने लगे हैं। लड़का किसी उम्मीद में बंध कर रोज पूछता है - तेरी कुड़माई हो गई? और वह 'धत्' कहकर भाग खड़े होने से पहले देखती है, लड़के की उम्मीद पर फिर एक नई कोंपल खिल उठी है। सूबेदारनी और लहनासिंह दोनों की विडंबना है कि उनके प्रेम को अंकुर जमाने के लिए अपने एक अदद घर की जमीन भी नहीं। ननिहाल का वह अल्पकालिक ठिकाना दोनों की पुख्ता भौतिक पहचान को छुपाता है। यात्रा के दौरान मिले दो अजनबियों की तरह सदा के लिए बिछडऩे को वे अभिशप्त हैं। इसलिए जब लहनासिंह सूबेदारनी को न पहचान पाने की बात करता है तो उसकी असमर्थता तुरंत समझ में आ जाती है। स्मृति जब किसी ठोस पहचान के साथ बंध कर किसी निश्चित देश-काल में जीती है, तभी नित नवा बनी रहती है वरना जिंदगी में आते-जाते यायावरों को याद रख पाना मुमकिन नहीं। इसी तर्क पर चल कर इसके ठीक विपरीत खड़ी सूबेदारनी की जिज्ञासा ('मुझे पहचाना?') मन में  ढेरों शंकाएं जगाती है। सबसे पहले तो यही कि जिस लहनासिंह के गाम-धाम का उसे ज्ञान नहीं; जिसे जिंदगी में दुबारा वह देख-मिल नहीं पाई, उसे पहचाना कैसे? बारह बरस का बालक उम्र के उस मोड़ के इंतजार में खड़ा होता है जब दाढ़ी और मूंछ का खुरदरा जंगल उसके चेहरे से लड़कियों-सी लुनाई छीन कर मर्दानगी पोत दे। सैंतीस बरस के लहनासिंह का चेहरा-मोहरा, कद-काठी यकीनन बारह बरस के बालक लहना को बहुत दूर कहीं पीछे छोड़ आए हैं।
चलिए, मान लिया, किसी भी विधि से सूबेदारनी ने लहनासिंह को पहचान लिया, लेकिन यह बात गले नहीं उतरती कि उस आकस्मिक मिलन से उपजे संवेदनात्मक तनाव से कैसे अपने को संयमित कर लिया। यही नहीं, भावना में लिथड़ा लंबा सा 'भाषण' देकर भीख की झोली भी फैला दी कि ''एक काम कहती हूं। मेरे तो भाग फूट गए। सरकार ने बहादुरी का खिताब दिया है, लायलपुर में जमीन दी है। आज नमकहलाली का मौका आया है। पर सरकार ने हम तीमियों की एक घघरिया पलटन क्यों न बना दी जो मैं भी सूबेदार जी के साथ चली जाती। एक बेटा है, फौज में भरती हुए उसे एक ही बरस हुआ। उसके पीछे चार और हुए, पर एक भी नहीं जिया... अब दोनों जाते हैं। मेरे भाग!... इन दोनों को बचाना। यह मेरी भिक्षा है।''
न! न!! न!!!
दीवानबाई असहमति में जोरों से सिर हिलाती है तो मुझे तीन घर छोड़ कर चौथे घरवाले प्रेमी के साथ उसकी आकस्मिक भेंट याद हो आती है। दोनों को बिछुड़े हुए चालीस साल का वक्फा बीत गया है। डेढ़ साल के पोते के साथ दीवानबाई मायके आई हुई है और प्रेमी कार-दुर्घटना में अपना पूरा परिवार खो चुका है। बातों में मशगूल दादी को चकमा दे पोता घर से बाहर 'आवारगी' के लिए निकला है। तीन चार घर छोड़ कर चौथे घर के हरसिंगार के पेड़ ने मानो उसे न्यौता भेजा है। पेड़ के नीचे गिरे फूलों को तल्लीनता से चुनने में मशगूल है वह। ढूंढने आई दादी को वहां पोते के साथ अपना 'सपना' अधमुंदी आंखों से सोहता है, जमीन पर आकार ले ले तो व्यक्ति बौरा जाता है। फलत: ''दीवानबाई की धड़कानों को होश न था। उसका जूड़ा ढलक चुका और आंचल छितरा पड़ा था। सीना सांसों को लिए-लिए ऊपर जाता और फिर पछाड़ खाता खुद को समेट लेता था। उसके खुले पाषाण चक्षुओं ने महसूसा किसी के अपनी ओर तल्लीनता से देख कर बढ़ते आते कदमों की आहट को। इतनी नजदीकी थी कि अगर सामने वाले की आंख से कोई आंसू चूता तो दीवानबाई झटके से चेहरा आगे बढ़ा कर उन आंसुओं को अपनी जिह्वा पर ले सकती थी।''
अपने आप की मौजूदगी से बेखबर सुख में पगे इन पलों को क्या सूबेदारनी ने इतनी ही शिद्दत के साथ जिया होगा? या पुरुष-अहं में डूबे गुलेरी जी को स्त्री बन कर प्रेम की बारीकियों को जीना 'पुरुषार्थ' का अपमान लगा होगा? कहीं इसीलिए तो प्रेम-कथा का आभास देती कहानी को वे सायास देर तक युद्ध के मैदान में अटकाए नहीं रखते? प्रेम शुद्धतावादियों के लिए खासी असुविधाजनक शै है, इसीलिए प्रेम से आंख चुरा कर गृहस्थी के दंद-फंद में रोप देना उन्हें अपना नैतिक दायित्व जान पड़ता है। सूबेदारनी और दीवानबाई, इसीलिए, भावना के एक बिंदु से यात्रा शुरू करने के बावजूद दो अलग-अलग दिशाओं की ओर कदम बढ़ा देती हैं। इस प्रक्रिया में एक भीतर के अंधेरों को प्रेम की लौ से आलोकित करते हुए व्यवस्था पर ढेरों सवाल दागती चलती है तो दूसरी व्यवस्था की रक्षा के उद्योग में अंधेरों की गहरी खाई में छलांग लगा देती है।
दीवानबाई की ईमानदारी और भावप्रवणता मुझे आकृष्ट करती है। समझौता और समर्पण से भरी स्त्री-नियति को झेलते हुए भी वह अपने भीतर से उठती आवाजों को अनसुना नहीं करती। नीलाक्षी सिंह की खासियत है कि वे दाम्पत्य सम्बन्ध और प्रेम दोनों को एक दूसरे की संगति में ही परखती-जांचती हैं। क्या किसी और के प्रेम में डूबी स्त्री समर्पिता पत्नी हो सकती है? या भीतर की प्रेमिका को मारने के बाद ही पत्नीत्व परवान चढ़ता है? नीलाक्षी के पास सवाल नहीं हैं। ये सवाल दरअसल एक पूरी परंपरा की बपौती हैं जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित कर समय को एक ही बिंदु पर रोके रखने की सांस्कृतिक साजिश रचते हैं। वर्चस्वशाली ताकते हर बदलते काल-खंड में इन सवालों को उठाती रही हैं, और 'शुचिता' का फंदा डाल कर लीक तोड़ती स्त्रियों का आखेट करती हैं। अधकचरे रोमान में डूबी स्त्रियां जब अपने आप को नहीं पहचानतीं, व्यवस्था के षड्यंत्रों को रचती परंपरा के स्वरूप को क्या खाक समझेंगी? बौद्धिक दीनता और भावनात्मक दुर्बलता स्त्री को सॉफ्ट टारगेट बनाते हैं। 'एक कमजोर लड़की की कहानी' में राजेन्द्र यादव गहरी व्यंग्यात्मकता के साथ आखेट और आखेटक दोनों को बेनकाब कर जाते हैं। जाहिर है नीलाक्षी वक्त के साथ चलते हुए इस सवाल की परिक्रमा करने में व$क्त जाया नहीं करतीं, बल्कि भीतर और गहरे उतरती हैं। पति या प्रेमी के रूप में इस या उस विकल्प को चुनने की बाध्यता ही क्यों, जबकि दोनों दो भिन्न-भिन्न जीवन-स्थितियों का यथार्थ हैं? जब जीवन बहु-आयामी और बहु-परती है तो स्त्री का मन ही स्लेट सरीखा सपाट क्यों? इसलिए दीवानबाई और चारित्रिक बुनावट में उनके भीतर-बाहर का सच बराबर का भागीदार रहा है और एक-दूसरे को सतत् प्रभावित करते हुए अपने आपको पुनर्सर्जित करता चलता है। हूक और संतोष, अतृप्ति और तृप्ति, ऐकांतिकता और सामूहिकता - बेशक दो विपरीत-युग्मों में सामने आते हैं, लेकिन क्या एक-दूसरे में लय होकर ही ये किसी भी पक्ष को समझने का समग्र विवेक नहीं देते? सुदामाप्रसाद के साथ बिताए चालीस बरस के सफल दाम्पत्य जीवन के बाद भी यदि कोई पुरानी स्मृतियों का सिरा थाम उसका आंखों में 'कुछ' खोजने का प्रयास करे तो पातिव्रत्य धर्म की पुकारें सुन-सुन अपनी आंख पर पट्टी क्यों बांधे वह?
न, आह्लादजन्य तनाव में कांपती किंकत्र्तव्यविमूढ़ता के बीच भी उन बींधती आंखों का एक्सरे करने का चैतन्य उसमें है। वह जानती है अधेड़ प्रेमी जिस 'कुछ' को उसके भीतर, खोज रहा है, वह उसके चालीस बरस के दाम्पत्य में कमाई सारी भूमिकाओं और प्रसाद को फूंक की तरह उड़ाए जा रहा है; कि उस 'कुछ' को - अपने 'होने' को - तो उसने बचाए ही नहीं रखा, परंपरा-सर्जित बेवकूफी का अनुसरण करते हुए ढेर सारा अन्य-अन्य पाने के लोभ में मूल पूंजी सा अपना होना ही गंवाती रही। ''किसी ने तो नहीं किया आज तक ऐसा! बाहर-बाहर जिसे जितना मिला, उसके आसपास के लोग उतने ही तो मतलब रखते आए थे आज तक। ऐसे भीतर जाकर कुछ खोज निकालना! उसकी इच्छा हुई कि सामने वाले की आंखों को जिस चीज की तलाश थी उसमें, वह उसे और भीतर छुपा ले अपने में ताकि उस चीज की खोज में वे आंखें उसके भीतर तक उतर सकें। आंखों से भी भीतर.... और भीतर...।''  खट् से उसकी चेतना पर यह स्थिति-विपर्यय जा टकराता है और सुदामाप्रसाद बनाम अधेड़ प्रेमी दो विपरीत-युग्म बन कर अवतरित होने लगते हैं। सुदामाप्रसाद के अंतस को वह बाद में 'पढ़ेंगी', अभी अधेड़ प्रेमी के मन के भीतर उतर कर उसके भी 'मर्म' को जान लेने की व्यग्रता उसे बनी हुई है। लेकिन वह पाती है कि उत्कट कामना के बावजूद दोनों एक्सप्लोरेशन की यात्रा स्थगित कर एक अभिजात अनुशासन के साथ व्यावहारिक दुनिया में लौट आते हैं। 'स्व' से 'स्वत्व' के बीच तक झूलती इस यात्रा में स्थगन का यह बिंदु क्या दुविधाजन्य पराजय है? या अपनी ही अधूरी शख्सियत को एक बार और खंगालने की जरुरत? दीवानबाई के सामने सवाल कुछ अलग ही तरह के हैं जहां किसी भी पुरुष या रिश्ते की आड़ लेकर उसे अपनी लाचारगी को जस्टीफाई नहीं करना है, बल्कि सारे स्टीरियोटाइप्स तोड़ कर अपनी छवि और दिशा को तलाशना है।
यह सचमुच चकित कर देने वाली बात है कि रीतिकालीन साहित्य के बाद प्रेम के संदर्भ में स्त्री देह या सेक्सुअल ऑब्जेक्ट के रूप में चित्रित नहीं की गई। वह भावनाओं के उदात्तीकरण और सम्बन्धों की पुनव्र्याख्या के जरूरी आयामों को विश्लेषित कर मनुष्य के संदर्भ में व्यवस्था और समाज को देखने का परिष्कृत संस्कार देती रही है। हालांकि यह तथ्य भी काबिले-गौर और तकलीफदेह है कि आज समाज ज्यादा आक्रामक ढंग से स्त्री की वैचारिक चेतना को नष्ट करने के लिए उसे सैक्स सिंबल में विघटित कर रहा है, और छद्म आधुनिकता का लबादा ओढ़ कर इठलाती 'सामंती स्त्रियां' साहित्य और समाज दोनों जगह अपनी दैहिकता को ही री-इन्फोर्स कर रही हैं जो नहीं जानतीं कि प्रेम अपनी तासीर में मुक्तिकामी है। वासना की क्षुद्रता और विभेदों की संकीर्णता गला-जला कर वह जब एक लहर की तरह उमड़ता है, तो संवेदनात्मक विवेक में अपने को ढाल लेता है। इसलिए पाने-छीनने का टुच्चापन इसके आसपास भी नहीं फटकता; तपने-निखरने का साधक-भाव अनायास इसकी पूंजी बन जाता है। दीवानबाई देखती है अभागे प्रेमी के लिए मन में उठा प्रेम का ज्वार वात्सल्य की फुहार में ढल गया है। 'क्या औरत एक उम्र के बाद सिर्फ और सिर्फ मां रह जाती है?' वह सवाल नहीं पूछती, अपनी परंपराग्रस्तता पर घनघोर असहमति व्यक्त करती है। नहीं, प्रेमी को शिशु में ढाल कर वह प्रेम के स्वायत्त अपरिभाषेय चरित्र को परिभाषाओं की जकड़बंदी में कैद नहीं करेगी। वह सामान्यीकरण के सहारे स्त्री के महिमामंडन की झूठी स्तुतियां भी नहीं पढ़ेगी कि ''औरत हर उम्र में सिर्फ और सिर्फ मां होती है।'' वह रेखांकित करेगी और बलपूर्वक रेखांकित करेगी कि हजारहां पारिवारिक-सामाजिक भूमिकाओं के बीच भी औरत प्रेम में सिक्त एक अनन्य स्वायत्त अपरिभाषेय चरित्र होती है।
''हर औरत के मन के एक कोने में कोई रंगमहल होता है और हर औरत के मन में एक राधा होती है'' बनाम ''छजली बनाई जाती है, ठहर का नजारा देखने को। ऊपर और नीचे का... और यह दोतरफा गोल ज़ीना? यह क्यों बनाया गया था?''
मैं एक बार फिर सूबेदारनी के पास लौटती हूं। परितृप्त मुस्कान के साथ वह दीवानबाई को एकटक निहार रही है। चेहरे पर तिल भर भी दीवानबाई का विलोम होने की ग्लानि नहीं। मानो वह कोई और ही सूबेदारनी थी जिसने लहनासिंह के भीतर -प्रेम-स्मृतियों के बिरवे रोप कर आगे बढऩे के उसके पास सारे रास्ते कील दिए थे। तुम्हें याद है एक दिन टांगेवाले का घोड़ा दही वाले की दुकान के पास बिगड़ गया था। तुमने इस दिन मेरे प्राण बचाए थे। आप घोड़े की लातों में चले गए थे और मुझे उठाकर दुकान के तख्ते पर खड़ा कर दिया। ऐसे ही इन दोनों को बचाना। यह मेरी भिक्षा है। तुम्हारे आगे मैं आंचल पसारती हूं। 'इन दोनों' यानी पति और पुत्र। मेरा मन करुणा से भर गया। लगा दीवानबाई के जरिए अपने प्रेम को वह पुन: जी रही है। कठोर-हृदया प्रेमिका के आरोपों और सती पत्नी के स्तवनों से मुक्त होकर वह अपने भीतर किसी दीवानबाई को अंगड़ाई लेते देख रही है। न, अपने रचयिता से क्या शिकवा-शिकायत करे वह? उनकी अपनी सीमाएं! अपनी दृष्टि! मर्द होकर जो जन्मा है, वह क्या जाने की स्त्री के अनुभव जगत में हीन-अपराधी होने के जो दंश और अपमान हैं, वे दूसरे पलड़े पर बैठे पुरुष के अनुभव-जगत के दर्प, अहं और स्वामित्व भाव से मेल नहीं खाते। भय, असुरक्षा, तनाव और अपराध-बोध साथ लेकर चलने वाली स्त्री में बेचारगी के साथ पसरा कुटिल चौकन्नापन पुरुष की आक्रांत कर देने वाली निद्र्वद्वंता और आक्रामकता को कभी पा ही नहीं सकता।
कैसी विडंबना है कि स्त्री की सारी दौड़ अपने को स्थापित करने के लिए है, और पुरुष की पूर्वाग्रहों/परंपरा की लाठी से हांक कर सबको एक खास दिशा की ओर दौड़ा लेने की। क्या इसीलिए गुलेरी जी के पुरुष-पूर्वाग्रह सूबेदारनी को मां और पत्नी से अलग विशुद्ध स्त्री के रूप में देखने की संवेदना से वंचित करते है? या किसी भी विवेकशील प्राणी की तरह वे जानते हैं कि स्त्री हो या पुरुष- हर मनुष्य का अंतर्जगत् एक-से संवेगात्मक मनोभावों से सिरजा हुआ है। पुरुष के अंतर्मन का सच स्त्री का सच भी है। फर्क सामाजिक मर्यादाओं और वर्जनाओं का है जो स्त्री और पुरुष को दो विपरीत प्राणियों के रूप में उभारते हैं। साहित्य चूंकि पितृसत्तात्मक व्यवस्था के मूलाधारों को पुख्ता करने वाली अनिवार्य संस्था मीडिया का बेशकीमती उपादान रहा है इसलिए स्त्री की सहजात मनोवृत्तियों को अपदस्थ कर उसकी जगह गढ़ी हुई सामाजिक संरचनाएं ट्रांसप्लांट की जाती रही हैं। परकीय प्रेम के प्रति लपलपाते पुरुष की असलियत से वाकिफ होने के कारण स्त्री के लिए 'स्वकीय' प्रेम की अनिवार्यता को नैतिक एवं सांस्कृतिक अर्हता बताया जाने लगता है। प्रेम की बात करते हुए भी गुलेरी जी का सूबेदारनी को खांटी मां-पत्नी के बिंब में प्रतिष्ठित करना उनकी इसी पुरुष-चित्त की कवायद है जिसकी जड़ों का एक छोर तात्कालिक अपेक्षाओं से जुड़ा है तो दूसरा सिरा भीतर ही भीतर परंपरा की उलझी जड़ों में घुलमिल कर अछोर हो गया है। इसलिए उनके यहां प्रेम अहसास की अनुभूति नहीं, इमोशनल ब्लैकमेलिंग का जरिया है। वह चुप्पी में संवाद नहीं करता, शब्दों के कोलाहल में अपने होने के दाम वसूलता है।
मैं चकित हूं कि इस बड़बोली इमोशनल ब्लैकमेलिंग में कोई कैसे समर्पण और त्याग जैसी उदात्तताएं ढूंढ पाता है? प्रेम में होने की स्थिति को 'जताने' का भाव यहां दोनों तरफ बराबर के अतिनाटकीय अंदाज में मौजूद है। सूबेदारनी लहनासिंह से प्रेम के एवज में प्राणों का बलिदान चाहती है तो लहनासिंह बलिदान के एवज में कृतज्ञता को जीवनपर्यन्त उसकी स्मृतियों के साथ बांध दिए जाने का आश्वासन चाहता है। जंग के मैदान में गोली लगने से घायल लहनासिंह जानता है विदा की वेला निकट आ गई है। अंतिम समय में जीवन का सारा देना-पावना चुकता कर खाली हाथ विधना के घर जाना चाहता है। इसलिए अंतिम अरदास के रूप में सूबेदार से कहता है - ''सूबेदारनी होरां की चिट्ठी लिखो तो मेरा मत्था टेकना लिख देना और जब घर जाओ तो कहना कि जो उसने कहा था, वह मैंने कर दिया।''
परंपरागत पति के हृदय में जरा भी शंका या ईष्र्या नहीं कि पत्नी ने गुपचुप मुलाकात में लहनासिंह से क्या कहा। मैं सारे दृश्य को एक बार फिर बारीकी से गुनने-बुनने लगी हूं।
लहनासिंह को ड्योढ़ी में बुलाकर सूबेदार हजारासिंह ने कहा है - ''सूबेदारनी तुमको जानती है, बुलाती है। जा, मिल आ।'' यानी लहनासिंह की 'पहचान' को लेकर पति-पत्नी में मशवरा हो चुका है। कहानी के पन्नों में वह दृश्य नहीं है। उस दृश्य की परिकल्पना मैं 'रंगमहल में नाची राधा' के जरिए करना चाहती हूं। रात की निस्तब्धता में छप्पन वर्षीया दीवानबाई बासठ वर्षीय सुदामाप्रसाद से कह रही है - ''शादी से पहले किसी और के साथ मेरे सम्बन्ध थे... मन के सम्बन्ध... मैं उसके पास लौटना चाहती हूं... इस घर के सारे कत्र्तव्य पूरे कर दिए मैंने.... आपने कहा था आप मुक्ति देंगे मुझे। मुझे मुक्ति चाहिए।'' सुदामाप्रसाद को काटो तो खून नहीं। इतना गहरा विश्वासघात! कल तक जो पत्नी सती-सावित्री की तरह पुरखों का नाम रोशन करने वाली अमूल्य धरोहर लगती थी, आज पुंश्चली लगने लगी। ''मुक्ति तुम्हें मैं देता हूं'' - अपना आप खोकर दीवानबाई का टेंटुआ दबाते सुदामाप्रसाद के चित्र को मैं बीच में ही फ्रीज कर देती हू्ं। नहीं, सूबेदारनी के साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ। क्या सूबेदार सुदामाप्रसाद की तुलना में ज्यादा सहिष्णु, उदार और प्रगतिशील सोच का 'आधुनिक' इंसान था? मेरा विस्मय अविश्वास की हदें छू रहा है - उस युग में, लगभग सौ साल पहले?
नहीं!
दरअसल मुझे दीवानबाई के सहारे सूबेदारनी को पढऩा ही नहीं चाहिए था। दोनों स्त्रियों के सिरजनहारों की मिट्टी अलग-अलग है। तब जरूर सूबेदारनी ने एक सुरक्षित दूरी बना कर लापरवाही भरे अंदाज में लहनासिंह के साथ किसी उड़ती सी पहचान का जिक्र किया होगा। हो सकता है लहनासिंह के खानदान को अपने पिता-बाबा के अहसान तले दबा भी बताया हो। इससे भरोसा दिलाना आसान रहा होगा कि मेरे मायके का यह जवान लड़ाई के मैदान में तुम्हारी हिफाजत भी करेगा। बस, एक बार अकेले में उसे पुराने दिनों का हवाला दे दूं।
मैं जानती हूं दीवानबाई की पारदर्शी निर्भीकता के बरक्स सूबेदारनी का 'तिरिया चरित्तर' समूची स्त्री जाति के आत्माभिमान पर प्रहार कर रहा है, लेकिन सूबेदारनी भी क्या करे। मनुष्य या स्त्री के रूप में कहानी में आई होती तो मुंह खोल कर प्रतिवाद भी करती। वह तो मां और पत्नी की कठपुतली बन कर कहानीकार के निर्देशों पर अपना 'खेल' खेल रही है। इसलिए अंत तक उसका कपट सच्चरित्रता की कसौटी बना रहा और 'स्वामी' (पति और बॉस) होने के अभिमान में सूबेदार पत्नी और लहनासिंह दोनों का भरपूर इस्तेमाल करता रहा। यह गुलेरी जी की पुरुष-दृष्टि का कमाल है कि कहानी लहनासिंह-सूबेदारनी दोनों को अपदस्थ कर सूबेदार को केन्द्र में ले आती है। वर्चस्वशाली वर्ग के हितों की रक्षा के लिए कुर्बान चढ़ते सम्बन्ध।
पितृसत्तात्मक व्यवस्था के पोषक के रूप में यदि एक छोर पर गुलेरी जी खड़े हैं तो दूसरे छोर पर मादाम बावेरी के साथ खड़े फ्लाबेयर गुस्ताव मुझे दीख पड़ते हैं। 'उसने कहा था' से बिल्कुल उलट है 'मादाम बावेरी' उपन्यास। विश्वासघात और प्रवंचना के सहारे दाम्पत्य सम्बन्ध की स्निग्धता और गहनता में सेंध लगा कर बिंदास भाव से परकीय प्रेम को छकती स्त्री। उपन्यास पढ़ती जाती हूं और पृष्ठ-दर-पृष्ठ मादाम बावेरी को लंपट पुरुष के संस्करण में विघटित होते देखती हूं। पति मि. बावेरी करुणा और सहानुभूति की लहरें तीव्रतर करता चलता है। मन में प्रवंचिता पत्नी के सामानांतर प्रवंचित पति के अक्स उभरने लगते हैं। तनाव का बिंदु घनीभूत होने लगता है - विवाह और प्रेम एक-दूसरे के अनिवार्य शत्रु क्यों? लेखक से गंभीर विश्लेषण की अपेक्षा नहीं करती क्योंकि जिस क्रमिक ढंग से विश्वास और पूर्वाग्रह के तंतुओं को बुनते हुए वह मादाम बावेरी और मि. बावेरी के चरित्र-चित्रण में काले-सफेद रंग का प्रयोग कर रहा है, उससे स्पष्ट है कि मादाम बावेरी को नौतिकता के कठघरे में खड़ा होना ही होगा। उसकी तिलमिलाहटें, आकांक्षाएं, जीवन की शून्यता का बोध और उसके पार जाकर अपने को खोजने के अवसरों का अभाव, पुरुष (सफल) को स्त्री जीवन का अंतिम सपना मानने का संस्कार और आरोपित स्त्री-नियति से मुक्त होकर अपना जीवन स्वयं चुनती स्त्री का आग्रह- सब उसकी दुश्चरित्रता के घटाटोप में घिरते चलते हैं। सतह पर शेष रहती है पितृसत्तात्मक व्यवस्था को बचाए रखने की लेखकीय सावधानी। स्त्री द्वारा अपनी निरर्थक दिनचर्या को अपमान भरे भाव के साथ महसूसने और उसके विरुद्ध अपने को अभिव्यक्त करने का स्पेस पाने की तड़प??? में रचित किसी भी रचना में मिलती है तो समझ आता है कि स्त्री को 'मनुष्य' के रूप में देखे जाने की संवेदना हमारे समाज में हमेशा से रही है, लेकिन सामाजिक संरचना को बनाने वाले निहित स्वार्थ उन्हें रचनात्मक परिप्रेक्ष्य और संवाद का बिंदु बनाने का अवकाश नहीं देते। इसलिए जब 'मादाम बावेरी' और 'द डॉल्स हाउस' के काल में जाकर मेरी वॉल्स्टनक्राफ्ट को 'द विंडिक्टिव?????' रचते देखती हूं तो एक स्त्री-चिंतक द्वारा अपनी अनुभूति को उतनी ही तिलमिलाहट के साथ अभिव्यक्त करने की बेचैनी भी सारे संदर्भों के साथ उजागर हो जाती है।
मैं देख रही हूं कि 'उसने कहा था' से निकल कर सूबेदार ने जैसे ही 'रंगमहल में नाची राधा' की चौहद्दी में कदम धरा, वह सुदामाप्रसाद सिंह बन गया है। पत्नी की मिमियाते देखने की आदत है इस शख्स को। इसलिए दीवानबाई को अपनी जिंदगी की आधार जरूरत समझते हुए भी ठेंगे पर रखता है। संग-संग चलने की आस में दीवानबाई चालीस बरस के इस तिल-तिल अपमान को भूल भी रही है और संजो कर रख रही है। वह जानती है उसकी निजता और सपनों को बेदखल कर सुदामाप्रसाद ने उसे अपना उपनिवेश बना लिया है, लेकिन वह स्वयं उसकी जिंदगी के किसी भी लम्हे में शामिल नहीं। ''न वो, न उसकी परछाई।'' और घर की दूसरी-तीसरी पीढ़ी है कि पिता-दादा की परछाईं बन कर दीवानबाई की सेवाएं लेना तो मंजूर करती है, अपनी जिंदगी में जगह देना नहीं। यहां तक कि छ: साला पोता भी अनजाने ही बाप-दादा की बोली बोलता है। ''दादी न रहे तो प्रसाद कौन देगा?'' अपने होने को साबित करने के लिए अमूमन हर औरत गाहे-ब-गाहे यह बेहूदा सवाल पूछ अपने को और भी असुरक्षित और वल्नरेबल कर डालती है। सो दीवानबाई ने भी पूछा - प्यार और आश्वासन की मरहम की आस में। पर जवाब में उसके लिए सम्बन्ध या आत्मीयता का कहीं कोई कोना नहीं - ''दादी नहीं रहेगी तो हम पूजा करेंगे और प्रसाद और किसी को नहीं देंगे।''
दीवानबाई के लिए हर ठोकर अपनी मंजिल के और अधिक नजदीक पहुंचने की डगर है।
जाहिर है सतीत्व की प्रतिष्ठा के लिए रची गई सूबेदारनी जितनी कृत्रिम और जड़ लगती है, दीवानबाई उतनी ही प्रामाणिक, ठोस और प्रखर। दरअसल यह कहानी कुछ एक मान्यताओं को पुष्ट करने के लिए रची गई है - जैसे सबसे पहले वह दाम्पत्य सम्बन्ध और प्रेम को दो विपरीत-युग्मों (अपोजिट बाइनरी) में बांट कर देखने की बजाय इस सवाल से दो-चार होना चाहती है कि क्यों दाम्पत्य प्रेम स्त्री को वह ऊर्जा, आत्मसम्मान और गति नहीं दे पाता जहां निद्र्वंद्व भाव से अपने होने को महसूस कर सके? क्यों दाम्पत्य सम्बन्ध दायित्व की यांत्रिकता में सिमट जाता है जहां न अपने को एक्सप्लोर करने की दिशाओं का ज्ञान रहता है, न हृदय तक उतरती संवाद की भाषा? साथ ही यह सवाल भी मानीखेज है कि सम्बन्धजनित ऊब और थकान अत्यधिक सुरक्षा के कारण है या आदत-अभ्यास के कारण? देह की संतति के इर्द-गिर्द बुने इस सम्बन्ध में मन के तार क्यों नहीं जुड़ते? या इसे ही पलट कर कहा जाए तो प्रेम में ऐसा क्या विलक्षण है जो प्रिय के प्रति जितना अधिक संवेदनशील बनाता है, अपने प्रति भी उतना ही चैतन्य करता चलता है? एक साथ आत्मविस्मृति और आत्म-चैतन्य की इस अवस्था को दाम्पत्य सम्बन्ध में पाना इतना कठिन क्यों है? या प्रेम के नाम पर जिस कसकते रोमांच को व्यक्ति अपने अंतस्तल में सजाता है, वह दरअसल प्रेम नहीं, प्रेम की स्मृतियां हैं; व्यक्ति अपने से बाहर किसी भौतिक प्राणी को प्रेम नहीं करता, उस प्रिय के प्रेम में डूबी अपनी खुमारी को ही प्रेम करता रह जाता है? इस सवाल को समाज का संदर्भ देने पर यूं भी पूछा जा सकता है कि क्या प्रेम में आत्माभिव्यक्ति का अवसर न मिलने के कारण ही स्त्रियां किशोरावस्था के 'क्रश' को प्रेम, प्रेम को सपना, सपने को मनोग्रंथि में तब्दील कर अपराध-बोध से संकुचित होती रहती हैं? नीलाक्षी सिंह के सामने सवाल की यही टंकार है। जमीनी यथार्थ के गुरुत्वाकर्षण से मुक्त हो वे फैंटेसी के स्तर पर इस सवाल से मुठभेड़ करती हैं। उनकी नजर में प्रेम का सम्बन्ध प्रिय और प्रिय के सान्निध्य-सुख से बाद में है, पहले यह अपने आप को प्यार करने और अपने से अंतरंग मुलाकात करने की लालसा में व्यक्त करता है। अपने से प्यार करना आत्मरतिग्रस्तता नहीं, अपने को मुकम्मल इंसान के तौर पर जानना है जहां रिश्तों और दायित्वों की लंबी फेहरिस्त के बाद एक अदद नाम और व्यक्तित्व के साथ अपनी पहचान महत्वपूर्ण है। दीवानबाई का बरसों की लापरवाही को परे फेंक कर झांवे में फटी एडिय़ां रगडऩा, दर्पण के सामने आंख में आंख डाल कर भीतर तक अपने को निरख लेना दरअसल आत्मसाक्षात्कार की जरूरी कोशिशें हैं जो नई दृष्टि के साथ समय को देख लेने का विवेक देती हैं। दीवानबाई के इस नए व्यक्तित्व के बिना नीलाक्षी फेंटेसी का सृजन नहीं कर पाती हैं। इस फैंटेंसी में पाने-पजेशन- का भाव प्रमुख नहीं है, समाज की वर्जनाओं से दोहरी जिंदगी जीती स्त्री की मुक्ति- कामनाएं हैं। नीलाक्षी सिंह यहां दीवानबाई को अपदस्थ कर केन्द्रीय महत्व उसकी दिवंगत सास को देती हैं जो अपनी पहचान, भूमिका, श्रम और ज़िद को पढ़ाती रही; और रात के अंधेरे में रेलगाड़ी में मूंगफली-भूंजा बेच कर भौतिक जरूरतों के लिए पैसा कमाती रही। ''निम्नमध्यवर्ग की हकीकतें कभी-कभी बड़ी चौंकाऊ हुआ करती हैं''- नीलाक्षी लिखता हैं और उन हकीकतों को त्रासदियों में बदलती हड़बड़ाहटों को रेखांकित करती हैं। गाड़ी के डिब्बे से नीचे उतरते वक्त संतुलन न साध पाने के कारण रेल के नीचे कट कर जान गंवाई है सुदामाप्रसाद की मां ने। रात के अंधेरे में शहर के रेलवे स्टेशन की पटरियों पर कुलीन स्त्री की कटी लाश-संदेह क्यों न करे कोई। नीलाक्षी स्त्री के साथ चस्पां कुलीनता और निष्क्रियता के मिथक को तार-तार करती हैं। उनकी दृष्टि में अपनी मुक्ति के लिए तड़पती यह स्त्री प्रेत बन कर अभी भी समाज में मंडरा रही है क्योंकि वह देख रही है कि अंधेरे और उजाले के बीच तालमेल बैठाने की कोशिश में स्त्रियां अब भी सामाजिक वर्जनाओं को मजबूत किए जा रही हैं। जिस पल गला दबाते पति के हाथ को झटक कर दीवानबाई उठ खड़ी होती है, वह पल आचार-संहिताओं और समाज-व्यवस्थाओं की जड़ता को तोड़ कर अपने को मुक्त कर लेने का पल है। सास की प्रेतात्मा का दीवानबाई को मायके के घर से चौथे घर की चौखट पर छोड़ कर आना और फिर स्वयं मुक्त हो जाना बेहद सांकेतिक ढंग से स्त्री को एक नया व्यक्तित्व देने की कोशिश है जहां आत्म-निर्णय की स्वतंत्रता उसके भीतर जिजीविषा, उमंग और आत्माभिव्यक्ति की दृढ़ता का संचार करती है। यह ठीक वह स्थल है जो ''साठ साल की औरत'' कहानी में डॉ. चंद्र के साथ अलग-अलग दिशा से जीना चढ़ती सुरभि को जीवन और प्रेम के संदर्भ में अपने ठोस वजूद की पहचान कराता है।
एक कहानी जब अपने भीतर बहुत सी कहानियों की स्मृति और छाया ले आए तब वक्त को सीमित फ्रेम से मुक्त कर अखंडता और अनवरतता में देखना आसान हो जाता है। मुझे 'रंगमहल में नाची राधा' बेहद पसंद है क्योंकि यह प्रेम को परिभाषित करने वाले क्लीशे नहीं गढ़ती, प्रेम के इर्द-गिर्द लिपटे पूर्वाग्रहों के मकडज़ाल हटा कर दोनों को एक-दूसरे की आंख की सीध में देखने का संस्कार देती है।
मैं देख रही हूं सधे पांवों से चलती सूबेदारनी इस बार अपने रंगमंडल में प्रवेश कर गई है। न, आत्मलीन भाव से नाचने का होश नहीं उसे। वह फूट-फूट कर रो रही है - शायद आंसुओं के सैलाब में आरोपित स्वार्थपरता और काइंयापन बहा सके। लहनासिंह को श्रद्धांजलि देने की पात्रता वह इसके बाद ही जुटा पाएगी।


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