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सितम्बर 2014

देवीप्रसाद मिश्र के प्रयोग

जीतेन्द्र गुप्ता

कविता की मुक्ति को समर्पित

कार्ल मार्क्स और फेड्रिक एंगेल्स ने 1848 में कम्युनिस्ट मेनीफैस्टो में पूंजीवाद के आगमन के साथ तत्कालीन समाज में विद्यमान सामुदायिक संबंधों में होने वाले बदलाव को रेखांकित करते हुए लिखा था, 'पूंजीपति वर्ग ने, जहां पर भी उसका पड़ला भारी हुआ, वहां सभी सामंती, पितृसत्तात्मक एवं काव्यात्मक संबंधों का अंत कर दिया'। राजनीतिक व सामाजिक स्तर पर इस वाक्य का जितना महत्व है, साहित्य के स्तर पर भी उतना ही महत्व है। साहित्य के स्तर पर इस वाक्य का जितना महत्व 'विचार' के स्तर पर है, उतना ही रूप या संरचना के स्तर पर भी है। मध्यकाल की सर्वोच्च साहित्यिक उपलब्धि के रूप में महाकाव्यों का संबंध सामंती समाज से है और महाकाव्यीय चेतना कहने से आशय उसी संदर्भित समाज के विश्वबोध से है। सीधे और सरल शब्दों में जिसका तात्पर्य चेतना की अंतर्मुखी स्थिति और समय की चक्रीयता से है। इस चेतना का संबंध इस विश्वास के साथ है कि न्याय सर्वोच्च है और उसे घटित होना है। इसी को भगवत् गीता में इस तरह कहा गया है, 'यदा यदाहि धर्मस्य... संभवामि युगे युगे' और तुलसीदास ने इसी विचार को इस तरह व्यक्त किया था, 'जब जब होई धर्म की हानि, बाढहि अधम असुर अभिमानी/तब तब धरि प्रभु विविध शरीरा, हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा'।
पूंजीवाद ने सामंती समाज के महाकाव्यात्मक संबंधों को तो नष्ट किया ही, साथ ही रूप और शैलीगत स्तर पर भी महाकाव्यों का मर्सिया पढ़ दिया तात्पर्य यह कि पूंजीवाद ने उन सारे सांस्कृतिक, सामाजिक आधारों को ही नष्ट कर दिया, जो महाकाव्यों को जन्म देते थे। अब शाप-वरदान की जटिल प्रक्रिया से इतर पैसे- कौड़ी के लेन-देन ने अपनी अर्थवत्ता कायम कर ली। यही कारण है कि पूंजीवाद के आगमन के साथ साहित्य में उपन्यास (गद्य) जैसी विधा के जन्म को देख पाते हैं, कविता में पद्यात्मकता का झुकाव गद्यात्मकता की ओर देख पाते हैं (मुक्त छंद, फ्री वर्स या ब्लैंक वर्स आदि रूपों में)।
इस पूरे विवरण का तात्पर्य कुल इतना है कि इस बात को रेखांकित किया जा सके कि समाज में आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक आधारों के बदलाव के साथ साहित्य में विधा के स्तर पर भी बड़े परिवर्तन होते हैं। इन्हीं संदर्भों के साथ देवीप्रसाद मिश्र का नाम कविता के संदर्भ में इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि उन्होंने हमारे सामाजिक परिवर्तन को न केवल विचार के स्तर पर, बल्कि संरचना के स्तर पर भी अपनी कविता में विन्यस्त किया है। 'हर इबारत में रहा बाकी' और 'यह एक और आखिरी वाक्य है' केवल हिन्दी नहीं बल्कि वैश्विक कविता- साहित्य के स्तर पर एक ऐसा अप्रतिम प्रयोग है, जो विस्तारित स्तर पर अपने समय की हर एक हलचल को स्वयं में आत्मसात किए है। और इस लेख में मूल रूप से इन दोनों कविताओं पर ही विचार करने का प्रयास किया गया है।
'हर इबारत में रहा बाकी' और 'यह एक और आखिरी वाक्य है' को देवी ने तीन समानांतर कॉलमों में लिखा है, जहां ये कॉलम स्वतंत्र रूप से पढ़े जा सकते हैं, तो दूसरी ओर ये सभी कॉलम परस्पर संवादी हैं। इस संरचना के बारे में कवि की अपनी राय कुछ इस तरह से है, 'हम प्रमुख और उप, सहमति और द्रोह, सत्ता और बेदखल, युक्ति और विफलता के सजग या पैसिव श्रोता हैं। तो अगर बाकायदा हमारा विकल कर देने वाला अगल और बगल है तो पाठों की अनेकता के विमर्श युग में हाशिए की खुसर-पुसर भी सुनी जानी चाहिए। ये मुख्य मार्ग के आस-पास की पगडंडियां हैं।'
लेखक की राय से नाइत्फाकी का यहां कोई सवाल ही नहीं उठता है क्योंकि 'सृजन-मूल्य' के स्तर पर उससे अधिक प्रमाणिक कोई हो नहीं सकता है। लेकिन यहां मैं इस प्रश्न पर विचार करने का प्रस्ताव कर रहा हूं कि हमें इस 'खुसर-पुसर' को सुनने की जरूरत क्यों है?
देवी के इस प्रयोग से पूर्व की समस्त कविताएं देखें तो संरचना के स्तर पर सभी में एक महान समानता मौजूद है कि यह सभी 'एक-पाठीय' (एक कॉलम भी कह सकते हैं) हैं। इसी के समानांतर इस बात पर विचार करें कि सामंतवाद पर अंतिम चोट करने के बाद पूंजीवाद ने प्रत्यक्ष रूप से राष्ट्र-राज्य की अवधारणा का निर्विवाद प्रसार किया है। सीधे शब्दों में इसका तात्पर्य यह है कि इस विद्यमान व्यवस्था में विचार से लेकर व्यक्तिगत जीवन तक में व्यक्ति किसी भी चीज़ का अनुसरण करे या न करें, विश्वास करे या निषेध करे, परन्तु 'राष्ट्रवाद' के विचार का 'व्यवहारिक' रूप से न तो निषेध कर सकता है, न ही निषेध के लिए कोई संभावना है।
असल में इस निषेध की संभावना इसलिए नहीं है क्योंकि हमारे समय की विचारधारा 'राष्ट्रवाद' है। कई बार यह समझने में भूल हो जाती है कि पूंजीवाद का मूल वैचारिक आधार क्या है। इसके लिए पूंजीपतियों द्वारा किए गए आर्थिक नवाचारों को रेखांकित किया जाता है, लाभ और शोषण की यांत्रिकी को चिंह्नित किया जाता है, लेकिन वास्तविकता इससे बिल्कुल भिन्न है। असल में पूंजीवाद के वैचारिक आधार का मूल स्रोत 'राष्ट्रवाद' है। और इसी विचार के जरिए लाभ के लिए राष्ट्रीय सीमाओं के तर्क के आधार पर समाज के हर एक वर्ग को नियंत्रित रखा जाता है। विचारधारा के इस आधार की तुलना मध्ययुग में 'धर्म' जैसे विचार के साथ कर सकते हैं। राष्ट्रवाद आज के समय में उतना ही पवित्र शब्द है, जितना मध्ययुग में धर्म था। वर्तमान में मुक्ति के लिए जितने भी विचार (चाहें तो अस्मिताएं पढ़ लीजिए) हैं, वे तक स्वयं को 'राष्ट्रवाद' के आच्छादक विचार से मुक्त नहीं कर पाएं हैं। इस विचार की ताकत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसके साथ नैतिकता तक का समावेश है यानि इसका विरोध करना 'पाप' के समान है! इस तरह हम यहां रेखांकित कर सकते हैं कि हमारे समाज का मुख्य 'नैरेटिव' राष्ट्रवाद है। और यह साहित्य में एक धारा-एक कॉलम- एक संवाद के जरिए सामने आता है।
इस तरह देवी की कविता (और उसकी विषय वस्तु) अपनी पूरी संभावनाओं में इस एकल संवाद के विरोध में है और कविता की संरचना के स्तर पर इसे अप्रतिम प्रयोग कहा जा सकता है। हालांकि विचार के स्तर पर साहित्य में राष्ट्रवाद जैसे विचार का रवीन्द्रनाथ टैगोर ने 20 सदी के आरंभ में ही विरोध किया था, लेकिन संरचना के स्तर पर भी इस विरोध के लिए हमें एक सदी का इंतजार करना पड़ा है। जिस तरह मार्क्स ने 1848 में लिखा था, 'मज़दूरों का कोई स्वदेश नहीं है। जो उसके पास है ही नहीं उसे उनसे छीना नहीं जा सकता है।' उसी तरह साहित्य के स्तर पर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसकी घोषणा 1907 में यह कहते हुए की थी कि 'स्वयं को प्रांतवाद की संकीर्णता से मुक्त करके और विश्व साहित्य की सार्वभौम ईकाई के तौर पर देखना, और इसी समग्रता में हर एक लेखक की रचना को समझना और व्यक्ति की आत्माभिव्यक्ति के हर एक प्रयास में मौजूद अंतर्संबद्धता को देख पाना ही वह उद्देश्य है, जिसके प्रति हमें प्रतिबद्ध रहने की जरूरत है।'
लेकिन यहां यह दोहराना बहुत ज़ रूरी है कि तीन कॉलमों में 'कुछ भी' लिख देने का तात्पर्य 'राष्ट्रवाद' का विरोध करना नहीं होता है। इसके लिए विषय-वस्तु यानि विचार के स्तर पर भी प्रमाण की ज़ रूरत होती है। इस लेख के आगे के हिस्से में इस तथ्य के विश्लेषण का प्रयास किया जाएगा।
राष्ट्र, जो कि एक अर्थ में अमूर्त अवधारणा है, के विचार को रूपायित करने वाली हर एक सामाजिक परिघटना को देवी संज्ञान में रखते हैं। इस तरह वे नारेबाजी के अर्थों में नहीं, बल्कि राष्ट्र जैसे विचार का समाज के जितने भी संस्तरों पर प्रसार है, उसे चिंह्नित करते हैं और सामाजिक अंतर्विरोधों को रेखांकित करने के स्तर पर इस विचार की आलोचना करते हैं। देवी अपने नवीनतम् प्रयोग की कविताओं में हमारे समाज की हर एक हलचल को बांधते हैं। उनके लिए महत्वपूर्ण सवाल है कि

                                                यथार्थ दबंग है तो
      न्याय मुझको चाहिए हर रोज            कहना भी जंग है
      चाय जैसे रोज                            कितने ही मोर्चे हैं
      दो कप कम से कम                      कितने ही संस्तर            कैसे बहुत ठीक भाषा में
                                                कलह और झड़पों की        कहा जाए यह संदेहास्पद
                                                कितनी ही ज़ बानें
                                                और कितनी ही लड़ाइयां
                                                कितने ही डर
                                                और कितने ही समर
                                                                                    (हर इबारत में रहा बाकी, आलोचना-20)

शिल्प के स्तर पर ही देखें तो 'राष्ट्रवाद' के विचार ने एक खास तरह के मानकीकरण को प्रस्तावित किया है। महाकाव्य तो संरचना और शैली के स्तर पर मध्यकालीन बोध को आत्मसात किए हुए हैं। परंतु छंद आदि काव्य शिल्प के जो भी रूप रहे हैं, वे 'आधुनिकता' या 'राष्ट्रवाद' के प्रभाव में त्याज्य ही रहे हैं। लेकिन देवी ने बड़े गौरव के साथ समानांतर आवाज़ों के रूप में इन काव्य रूपों को जगह दी है:
                                               राजनीति इतनी कर डाली
                                               नदी हो गई कितनी काली
                                               जहां बहुत भाई होते थे वहां
                                               बहुत बहनों को गाली
                                                                                  (यह एक और आखिरी वाक्य है, पहल-82)
विशुद्ध भारतीय- उत्तर क्षेत्र के अनुभव को सामने रखें, तो भाषा के स्तर पर 'राष्ट्रवाद' के विचार की अभिव्यक्ति खड़ी बोली हिन्दी के रूप में देख सकते हैं। 'राष्ट्रवाद' का विचार ही भाषा के मानकीकरण का मुख्य आधार था।
                                               अवधी में कहते तो कहते
                                               बोली बहुत खड़ी कर डाली
                                               काहे इतनी बार मर्दवा
                                               परिवर्तन की तिथियां टाली
                                                                                       (यह एक आखिरी वाक्य है, पहल-82)
हमारे समय की बर्बरता, हिंसा, लंपटता को वह जिस तरह से चिंह्नित करते हैं, उससे भी अधिक आवेग के साथ वह परिवर्तन की मांग और नवजीवन के स्वप्न को सामने रखते हैं। काव्य विचार के स्तर पर कवि की वैधता का यह स्रोत इसलिए भी हो जाता है कि वह अन्याय, हिंसा और शोषण की किसी भी आहट को विस्मृत नहीं करता है। पूर्वोक्त पंक्तियां हमारे समाज के सबसे जटिल प्रश्न की कीमियागिरी या संरचना को रेखांकित करती हैं जो मनुष्य की नैसर्गिकता में है, जिसे भूख की तरह स्थगित नहीं किया जा सकता है। कविता की यह नवीन संरचना ही इस संभावना को जन्म देती है कि एक ओर कवि 'चाय दिन में दो कप कम से कम' के स्तर पर 'न्याय' के लिए अपनी जिद कायम रख पाए और दूसरी तरफ यह संभव भी कर पाए कि क्या कहीं कोई आवाज छूट तो नहीं गई।
देवी के पास इस तरह के सवालों और तनावों का होना इस बात को संकेतित करता है कि वह हमारा समकालीनता को किसी फार्मूले के जरिए नहीं समझना चाहते हैं; बल्कि वह इस समकालीनता को समकालीन जटिलता के आधार पर समझने और संप्रेषित करने के यथार्थ से दो-चार हैं। वर्ग, जाति, धर्म, समुदाय,लिंग पर आधारित चिंतन यह सुविधा देता है कि यथार्थ के लिए सीमाएं नियोजित की जा सकें। इस चिंतन पद्धति का प्रतिरोध वास्तव में हमारी समकालीनता से प्रतिरोधी विचारों के साथ विन्यस्त पूंजीवादी विचारों का प्रतिरोध हैं। लिंग, जाति, धर्म, समुदाय, लिंग के एक आधार पर जन्में 'प्रतिरोधी' विचार अपनी वास्तविकता में उन्हीं रूपाकारों को जन्म देते हैं, जो मॉल, पित्जा संस्कृति देती है। पूंजीवाद ने अपने उदय के साथ ही हर स्तर पर एकरूपीकरण को ही प्रस्तावित किया है, विविधता को उसने कभी प्रश्रय नहीं दिया है। और इसका कारण भी स्पष्ट है कि यदि वह विविधता को प्रश्रय देगा तो वैश्विक स्तर पर उत्पादन और एकाधिकार के लिए संभावनाएं ही समाप्त हो जाएगी, जो पूंजीवादी व्यवस्था का आधारबिंदु है।
वर्तमान में 'समकालीनता' का विचार सबसे भयावह स्तर पर मौजूद है। साहित्य आलोचना के नजरिए से इसे ही 'कुत्सित समाजशास्त्र' की संज्ञा दी जाती है। समकालीन कविता में विद्यमान इस स्थिति को आसानी से लक्षित किया जा सकता है। मोटे तौर पर इसका अर्थ इतिहास से रहित 'समकालीन विमर्श' से है। 'वैश्वीकरण' के विचार के इर्द-गिर्द ही वर्तमान कविता ने अपना जो प्रसार किया है, वह केवल चमकीले वाक्य लिखने तक में सीमित हो गया है। दूसरी ओर समकालीनता (यहां पुन: जोर देकर इतिहासबोधहीनता को रेखांकित करना चाहता हूं) फासीवादी प्रवृत्तियों को अप्रत्यक्ष रूप से प्रेरित करती है। उदाहरणस्वरूप वैश्वीकरण के विरोध या समर्थन के बावजूद 'विकास' शब्द (या 'समकालीनता' की अवधारणा) सभी व्यक्तियों को प्रभावित किए हुए  हैं। जबकि विकास एक ऐसा सापेक्षिक शब्द है, जिसका अर्थ प्रत्येक विचारधारा के साथ तब्दील होता है। लेकिन इस जटिलता को समझे बिना केवल 'विकास' का मंत्रजाप उसी स्थिति को जन्म देता है, जिसका जर्मनी से हिटलर ने फायदा उठाया था। हिटलर ने भी जर्मन समाज से रोजगार व समृद्धता लाने का वायदा किया था, परिणाम...। समकालीन भारत या पूरी तीसरी दुनिया की स्थिति ऐसी ही है। भारत की वर्तमान राजनीतिक स्थिति को देखकर इसका किंचित अंदाजा लगाया जा सकता है। हिटलर की तरह किसी उद्धारकर्ता की प्रस्तुति उंबर्तो इको के इस डर को ही यथार्थ में तब्दील करती है कि 'उर फासिस्ज्म (ह्म्-स्नड्डह्यष्द्बह्यद्व) (एक पदबंध जिसका अर्थ 'आंतरिक फासीवाद' होता है) लगातार हमारे आस-पास है, कई बार तो बिल्कुल ही सादे कपड़ों में। यह हमारे लिए बहुत ही सामान्य बात होगी कि कोई व्यक्ति इस परिदृश्य में हमारे सामने आए और कहे, 'मैं आस्ट्रोविच को फिर से खोलना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि इटली के चौराहों पर काली कमीज वाले लोग परेड करें'। जीवन सरल नहीं रहा है। फासीवाद की बीमारी बहुत ही मासूम तरीके से हमारे सामने आ सकती है। हमारा दायित्व यह है कि हम इसे बेनकाब करें और दैन्नदिन की घटनाओं से लेकर दुनिया के किसी भी कोने में होने वाली उस हर एक घटना की ओर इशारा करें, जो इसकी वापसी का संकेत देती है।'
चिंतन या विचार की दरिद्रता का ही परिणाम होता है कि दलित-सवर्ण, स्त्री-पुरुष जैसे युग्मों का निर्माण किया जाता है, और इससे भी बड़ी बात कि 'तात्कालिक दुश्मन' की परिकल्पना इसके साथ संबद्ध होती है। वैचारिक विस्तार न होने के कारण यह चिंतन पद्धति यथास्थितिवाद का शिकार हो जाती है। असल में व्यवस्था के मूल प्रश्न को संबोधित करना वैचारिक स्तर पर सर्वाधिक कठिन कार्य होता है। स्त्री, दलित, आदिवासी आदि जो भी श्रेणियां हैं, उनके साथ जुड़े हुए अन्याय को नज़ रअंदाज किए बिना संपूर्ण मनुष्यता को निरंतर सोचनीय स्थिति के बारे में देवी प्रश्न करते हैं। इसमें कहीं से शोषण के विभिन्न रूपों को नज़ रअंदाज करना नहीं शामिल है, लेकिन शोषण के मूलाधार को जानने और रेखांकित करने की रचनात्मक बेचैनी ज़ रूर मौजूद है।

      मर्द काफी शेर थे सहलाते थे          जहां नीली नदी नाले में बदलती थी
      स्त्रियों को अपनी अयाल से            पतन यश में सत्ता पाप में पुरुष
                                              आततायी में समूह आत्मरत आप में

                                              यहां कुछ बदलता था तो नागरिक
                                              दलित में मनुष्य मुसलमान में              फोन पर षडयंत्र सारे
                                              विवेक पूंजी में                               लीक से हटकर कहीं पर लोकतंत्र
                                                                                    (हर इबारत में रहा बाकी, आलोचना-20)

अस्मितावादी चिंतन की तर्क पद्धति का परिणाम है कि मनुष्य अपनी स्वाभाविक या प्राकृतिक अस्मिताओं के प्रति निरंतर संशयग्रस्त होता चला जाता है और सामाजिक अस्मिताओं के प्रति निरंतर कृत्रिम सचेतता उत्पन्न की जाती है। लेकिन यहां इस मूल प्रश्न पर विचार करने की ज़ रूरत है कि परिवर्तन का स्रोत क्या होता है। तात्पर्य यह है कि मनुष्य पर प्राकृतिक रूप से जो सीमाएं आरोपित है क्या उनमें परिवर्तन की मांग की जाए या कि जो कि समाज निर्मित और अतार्किक है उसमें परिवर्तन की मांग की जाए। सरल शब्दों में कहें तो प्रश्न यह है कि परिवर्तन के लिए क्या यह मांग की जाए कि मनुष्य के दो हाथ न होकर एक हाथ ही हो? लेकिन यह मांग जरूर की जा सकती है कि जाति जैसी प्रथा को खत्म कर दिया जाए। इस तरह के विचारद्रोह बुर्जुआ विचारधारा की उपज हैं, जिसके बारे मार्क्स ने 'गोथा कार्यक्रम की आलोचना' में बहुत कठोर होकर टिप्पणी की थी कि 'यह समान अधिकार अभी भी चिरस्थायी तौर पर बुर्जुआ सीमाओं से दबा रहता है। उत्पादकों का अधिकार उनके द्वारा किए गए श्रम के अनुपात के हिसाब से होता है। समानता इस बात में होती है कि श्रम के रूप में नापने का अब एक ही समान मापदंड होता है। लेकिन कोई व्यक्ति दूसरे की तुलना में शारीरिक या मानसिक रूप से श्रेष्ठतर हो सकता है और समान समय में अधिक श्रम कर सकता है...'। इसी बुर्जुआ विचार से मुक्ति पाने के लिए मार्क्स ने भविष्य के समाज के लिए लक्ष्य निर्धारित किया था कि 'हर एक को उसकी क्षमता के अनुसार और हर एक को उसकी ज़ रूरत के अनुसार'। मार्क्स के इस लक्ष्य को तो छोडि़ए, स्थितियां और अधिक विद्रूप होती जा रही है। वर्तमान अस्मितावादी विचारों ने मनुष्य की प्राकृतिक सीमाओं या वरीयताओं के प्रति संशय और शर्मिंदगी का भाव उत्पन्न कर दिया है। ऐसे में यह जरूर मानना चाहिए कि हमारे समय में कहीं कोई मनुष्यविरोधी विचार सक्रिय है, जो सभ्यता को नष्ट करने की ताकत रखता है। इस स्थिति को पहचानने में देवी कोई चूक नहीं करते हैं:
                           उस समय  बारिश नहीं थी
                                लेकिन मैं भीगा था अपने ही जल से
                                पुरुष होने का एक सुख था और
                                उसी से बिखी हुई शर्म भी मतलब कि
                                वो पश्चाताप जो मनुष्य होने के वितर्क से
                                हो जाया करता है - एक अन्यमनस्क
                                परानुभूति का वैचारिक अवसाद
                                                                                  (यह एक और आखिरी वाक्य है, पहल-82)
जाहिर सी बात है कि यहां कवि उस तथ्य को रेखांकित कर रहा है, जिसके बारे में सिमोन बोबुआर ने कहा था कि 'स्त्रियों का जन्म नहीं होता, बल्कि वे बनाई जाती हैं'। तात्पर्य यह कि स्त्री-पुरुष की कोटियां से कोई आपत्ति नहीं हो सकती है क्योंकि यह सभ्यता के विकास का स्त्रोत है। लेकिन परिवर्तन उस स्त्री और पुरुष में होना है, जिसे समाज-व्यवस्था अपने अनुकूलन द्वारा निर्मित करती है। इन संदर्भित दोनों ही कविताओं में देख पाएंगे कि समाज में दरिद्रता, दमन, शोषण और अमानवीयता के जो अकल्पनीय स्तर विद्यमान है, उसका कारण समाज में विद्यमान श्रेणीक्रम है। लेकिन इस श्रेणीक्रम को लक्षित करने के बजाए व्यवस्था ने कई सारे ऐसे विभ्रमों को निर्मित कर रखा है कि मनुष्य अपनी त्रासदी के मूल कारण को चिंह्नित कर पाने में सक्षम नहीं रह गया है। वर्तमान समय में यह मात्र संयोग नहीं है कि जब एक ओर राष्ट्र-राज्य अपनी अर्थवत्ता खो रहे हैं, उसी समय में अस्मितावादी विमर्श अपनी सर्वाधिक चरम स्थिति को व्यक्त कर रहा है। सामिर अमीन ने इस तथ्य की ओर कुछ भिन्न ढंग से इशारा किया  है, 'आज दुनिया में अधिकतर लोग राष्ट्रवाद में अपनी आस्था खो चुके हैं। भारत? एक भारतीय बच्चे के लिए इस शब्द का क्या मतलब है? कुछ नहीं। दूसरी अस्मिताएं जैसे हिन्दुत्व, प्रादेशिकता आदि ज्यादा महत्वपूर्ण हो गई हैं। यह एक सबूत है कि सकारात्मक राष्ट्रवाद, जिसने कभी ब्रितानियों के विरूद्ध भारत के लोगों को एकबद्ध करने में सकारात्मक भूमिका निभाई थी, अपनी भूमिका खो चुका है। लेकिन सबसे बड़ी बात यह कि यह राष्ट्रवाद मज़ दूरों के अंतर्राष्ट्रीयतावाद द्वारा विस्थापित नहीं हुआ है; इसके विपरीत छद्म राष्ट्रवादियों द्वारा भ्रम फैलाया गया  है, हम इसे नव-राष्ट्रवाद कह सकते हैं, यह प्रवृत्ति बहुत ही खतरनाक है।'
लेकिन देवी की कविताएं मात्र इतने तक सीमित नहीं है। जैसा पहले कहा गया कि देवी की कविता मूलगामिता को कभी नजरअंदाज नहीं करती है। इस मूलगामिता में वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था के सर्वाधिक 'सदाचारी' विचार को काव्य चेतना का हिस्सा बनाया गया है। सोवियत पतन के बाद 'परिवर्तन' शब्द प्रारुपिक ढंग से हमारी चिंतन सरणी से बाहर हो गया है। हमारे समय में परिवर्तन की अर्थछवि सत्ता व समाज में वरीय स्थिति प्राप्त करने तक में सीमित हो गई है। लोकतंत्र जिसकी आदर्श परिकल्पना आधुनिक मनुष्य की प्रेरणाओं का स्रोत थी, वह भी सबसे भयावह ध्वंसात्मक स्थिति में है। समानांतर आवाज़  के तौर पर कवि का यह प्रश्न 'गणतंत्र है/षडय़ंत्र है' न केवल हमारे समाज की पतनशील राजनीति व्यवस्था को रेखांकित करता है, बल्कि अन्य समानांतर आवाज़ों को सम्मिलित करते हुए इन पंक्तियों का अर्थ विस्तारित होकर यह अर्थ ज्ञापित करने में सक्षम हो जाता है कि वर्तमान राजनीतिक व सामाजिक व्यवस्था में वे अंतर्विरोध उत्पन्न हो चुके हैं जो यथास्थिति की प्रेरणा के साथ कतई हल नहीं हो सकते हैं।
भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया की अधिकतर राजनीतिक व्यवस्थाएं प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से स्वयं को विद्यमान रखने के लिए उन्हीं तौर-तरीकों का अनुसरण कर रही हैं, जिसे ईसापूर्व एक सदी पहले रोमन साम्राज्य और रोमन राजनीतिज्ञों ने अपनाया था। और यह तरीका था जनता के बीच अनंत अतार्किक श्रेणीक्रम का निर्माण। हावर्ड फास्ट ने इस व्यवस्था के बारे में लिखा है, 'हम लोगों को यह बात समझा देते हैं कि जीवन की सबसे बड़ी सार्थकता अमीरों के लिए मरने में है। हम अमीरों को समझा देते हैं कि उन्हें अपनी दौलत का कुछ हिस्सा छोड़ देना चाहिए ताकि बाकी को वे अपने पास रख सकें। हम जादूगर हैं। हम भ्रम की चादर फैला देते हैं और वह ऐसा भ्रम होता है जिससे कोई बच नहीं सकता है। हम लोगों से कहते हैं - जनता से कहते हैं - तुम्ही शक्ति हो। तुम्हारा वोट ही रोम की शक्ति और कीर्ति का स्रोत है। सारे संसार में केवल तुम्ही स्वतंत्र हो। तुम्हारी स्वतंत्रता से बढ़कर मूल्यवान कोई भी चीज नहीं है, तुम्हारी सभ्यता से अधिक प्रशंसनीय कुछ भी नहीं है। तुम्ही उसका नियंत्रण करते हो; तुम्ही शक्ति हो, तुम्ही सत्ता हो। और तब वे हमारे उम्मीदवार को वोट दे देते हैं'। इसी अनंत सामाजिक श्रेणीक्रम की पहचान विशुद्ध भारतीय संदर्भ में देवी कुछ इस तरह से करते हैं:
                         समाज की जगह जाति बनाई
                         कितना मसरूफ रहे पुरखे हमारे
                                                                                    (हर इबारत में रहा बाकी, आलोचना-20)
वर्तमान में राजनीतिक स्तर पर इसी तरह के अनंत श्रेणीक्रम का निर्माण जाति, धर्म, समुदाय, लिंग आदि के आधार पर किया गया है। निश्चित तौर पर समकालीन समाज में बाह्य स्तर पर यानि किसी भी राजनीतिक विचार, संगठन या दर्शन की ओर से ऐसी प्रस्तावना तक नहीं है जो समष्ठि के लिए प्रेरित हो। जिन दर्शनों और राजनीतिक दलों की प्रारंभिक प्रतिश्रुति समष्ठि के विचार की ओर अग्रसर होने की थी, वे भी निरंतर समकालीनता के दबाव में अपनी प्रतिश्रुति से च्युत होते जा रहे हैं। ऐसे विपरीत समय में देवी समष्ठि के स्तर पर अपनी कविता में प्रश्न उठाते हैं, लेकिन साथ-साथ बहिर्गत स्तर पर एकक आवाज़ों को भी अनसुना  नहीं छोड़ते, बल्कि अपनी कविता की संरचना का हिस्सा बना लेते हैं। वहीं दूसरी ओर एक राजनीतिक व्यवस्था के रूप में देवी उससे संतुष्ट नहीं होते हैं, जिस पर पवित्रता का आरोपण कर दिया गया है। यहां तात्पर्य 'गणतंत्र' या 'लोकतंत्र' से है। यह यथार्थवादी होने के नज़ रिए से देवी कभी भी शब्दों या अवधारणाओं के आरोपित अर्थों से संतुष्ट नहीं होते हैं, इसके बजाए वह सतह पर विद्यमान वास्तविक अर्थों के आधार पर अपने चिंतन को धार देते हैं। 'गणतंत्र' शब्द का उत्स खोजें तो यूनान की सभ्यता से शुरूआत करनी पड़ेगी। पवित्रता के आरोपण के बावजूद यूनान से लेकर भारत तक कहीं भी इस शब्द का वास्तविक अर्थ कभी भी रूपायित नहीं हो पाया है, इसके बजाए इस शब्द के लिए वह सबसे बड़ी सच्चाई है जिसे हावर्ड फास्ट ने रेखांकित किया है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण 1972 में भारतीय संविधान में शामिल किया गया 'समाजवादी' शब्द है। रजनी पाम दत्त ने अपने भविष्यधर्मी चिंतन में इन स्थितियों की किंचित आशंसा को 1940 के दशक में ही व्यक्त किया था, 'दूसरी शक्तिशाली प्रवृत्ति औद्योगिक बुर्जुआ की प्रवृत्ति है। औद्योगिक बुर्जुआ पश्चिम के नमूने पर आधुनिक पूंजीवादी भारत के निर्माण की कोशिश करता है... वह सामान्य तौर पर 'बिना वर्ग संघर्ष के समाजवाद' या 'भारतीय समाजवाद' का नारा देता है, जो बहुत अस्पष्ट मानवतावाद और वर्ग समझौतावाद को अभिव्यक्त करता है।' (इंडिया टुडे) इन्हीं अर्थों में देवी की कविता ज्ञानमीमांसा के स्तर पर भी एक बड़े दृष्टिकोण को सामने रखती है और कम से कम आधुनिक भारत के हर एक अंतर्विरोध को अपने काव्य संसार में समाहित कर पाती है।
देवी की संदर्भित दोनों की कविताओं को घटनाक्रम या कथानक के स्तर पर देखें तो यह बहुत ही 'मामूली' सी, रोजमर्रा की घटनाओं के आधार पर है, लेकिन अपने विस्तार में यह हमारे समय के समस्त भीषण प्रश्नों को सामने रख देती हैं। इन अर्थों में कहें तो इन कविताओं में एक औपन्यासिक आख्यानपरकता है, जहां संरचना के स्तर पर कवि ने विस्तार के लिए अवकाश सृजित किया है। संदर्भित कविताओं में पहली कविता में बेटा पिता से कहता है कि वह फूल लेने जा रहा है। केवल यह एक वाक्य मनुष्य जाति की त्रासदी को बयान करने का माध्यम तो बनता ही है, साथ ही साथ नए समाज की प्रतिश्रुतियों के न्वोन्मेष का आधार भी बनता है।
                 मैं एक ऐसा पिता था जो हिन्दी फिल्मों के अन्त
                 और हिन्दू मनुष्य की शुरूआत से डरा था
                 मैंने अपने बाद की पीढ़ी से कहा जाओ
                 फूल के लिए एक लम्बा रास्ता था लेकिन
                 परिवर्तन से मेरा भी वास्ता था
                                                                                    (हर इबारत में रहा बाकी, आलोचना-20)
साहित्यिक स्तर पर देवी ने जिस तरह शिल्प के स्तर पर नए परिवर्तनों का आगाज किया है, उसी तरह कथ्य और विचार के स्तर पर भी वह हमेशा अग्रगामी रहे हैं। पिता और पुत्र का संबंध रचनात्मक स्तर पर सबसे जटिल प्रश्न है क्योंकि इस संबंध का विचार के सतहीपन में पीढिय़ों के द्वंद में खो जाने की असीमित संभावना रहती है। लेकिन देवी ने इस संबंध को हमेशा कॉमरेडशिप के अनूठे आयाम के साथ परिभाषित किया है (उनकी कहानियों में इस स्थिति को और अधिक गंभीर रूप से देखा जा सकता है)। पूर्वोक्त पंक्तियां भी इसी तथ्य का उदाहरण है। बेहतर कल के स्वप्न के संघर्ष में पिता की पराजय हताशा में नहीं तब्दील होती है, बल्कि यह वह पराजय है जो मनुष्य की शारीरिक शक्ति के क्षय से उत्पन्न होती है। लेकिन इसके साथ पिता अपने पुत्र को संघर्ष की उस विरासत को स्थानांतरित करता है, जिसका वह कभी हिस्सा था, लेकिन पुत्र-यानि आगामी पीढिय़ों को नवोंमेष का अवकाश देते हुए। लेकिन इसके साथ कवि का समष्टिबोध इसे विस्मृत नहीं करता है कि दुनिया के बाकी या अधिकांश परिवारों और पिता-पुत्र संबंधों की सच्चाई क्या है। हाशिए की आवाज़  के तौर पर दर्ज है:
                  हर घर में एक भूमिपति
                  इस तरह पिताओं का वितरण
                                                                                    (हर इबारत में रहा बाकी, आलोचना-20)
जैसा पहले कहा गया कि देवी की कविता की सबसे बड़ी ताकत यह है कि वह रोजमर्रा के मामूली से लगने वाले प्रश्नों को व्यवस्था के कठोर प्रश्नों में तब्दील कर देते हैं।
                 रोना आने वाला था तो
                 फूटा दुख का गाना
                 जाल फटा या भूख लगी थी
                 मैला पानी छाना
                                                                                    (हर इबारत में रहा बाकी, आलोचना-20)
विश्व की महान कलाकृतियों को याद करें तो रचनात्मक स्तर पर इस तरह से व्यवस्था का सभ्यतागत प्रश्नों को चुनौती देने की कठिनाई का अहसास हो पाएगा। 'मां' उपन्यास जिस महान क्रांति की अनुगूंजों को स्वयं में समाहित किए हुए हैं, वह उपन्यास इस छोटी सी घटना को केंद्र बनाकर लिखा गया है कि सोमोराव के एक कारखाने में मज़ दूरों ने प्रति रूबल दो कोपेक की कटौती का विरोध किया था।
देवी के काव्यकर्म की एक अन्य विशेषता को यहां रेखांकित करना बहुत जरूरी है कि वह विचार के स्तर पर भी किसी भी तरह की ग$फलत का शिकार नहीं होते है और यह वह उसी शर्त पर कर पाते हैं कि यथार्थ को वह अपनी आंखों से ओझल नहीं होने देते हैं। सैद्धांतिक स्तर पर स्त्री व दलित उत्पीडऩ व वचन को अमूमन सामाजिक विकास के श्रेणीक्रम या सीधे कहें तो सामंती सामाजिक संरचनाओं से जोड़ा जाता है (जाहिर सी बात है कि इस तरह लोकतंत्र या पूंजीवादी लोकतंत्र को इस उत्पीडऩ या शोषण संरचना के कलंक से मुक्त रखने का प्रयास किया गया है)। यानि अपने 'सद्प्रयासों' में 'आधुनिकता' के पूरे चिंतन को निर्दोष दिखलाने की कोशिश! लेकिन देवी इस तरह के विभ्रमों का शिकार होने के बजाए इस उच्चावच्च सामाजिक श्रेणीक्रम और वंचन की पारस्परिक निर्भरता को जान-समझकर स्थितियों को दर्ज करते हैं:
                        रात भर की नींद परंपरा
                       आधुनिकता पूरे दिन लोकतंत्र
                                                                                    (हर इबारत में रहा बाकी, आलोचना-20)
        या
                       आधुनिक होने की
                       मंशा
                      जाति में होने का
                      शौक
                      नक्सली होने की मुश्किल
                      ज़ौक क्यों न बन जाए
                      तौक़
                                                                                  (यह एक और आखिरी वाक्य है, पहल-82)
इस तरह से आसानी से चिंह्नित कर सकते हैं कि कवि किन स्तरों तक जाकर हमारे समाज के अंतर्विरोधों को समझने और देखने की कोशिशों में मुब्तला है।
देवी के यहां नवोंमेष की शर्त नवोंमेष नहीं, बल्कि यथार्थ की जटिलता और बाध्यता है। इस बाध्यता को इस तरह से समझा जा सकता है कि एक ओर कवि का मानस रिनेसां के चिंतन (हालांकि इसकी यूरो केंद्रियता प्रमाणित हो चुकी है और यहां तुलना करते वक्त यूरो केंद्रियता की प्रवृत्ति को दोष मानते हुए शामिल नहीं किया गया है) के अनुरूप है, जहां सार्वभौमिकता सर्वोच्च मूल्य है। वहीं दूसरी ओर कवि अपने चिंतन और तार्किक प्रक्रियाओं में इस नव-उदारवादी युग में मौजूद है, जहां विद्यमान शोषण के स्तरीकरण को रेखांकित करने वह सफल हो पाया है। जातीय, नस्लीय, आर्थिक, लैंगिक और सांस्कृतिक स्तर सहित जितने भी शोषण के संस्तर है, कवि उसे नज़ रअंदाज नहीं करता है, इसके बजाए इन शोषणों के बीज मौजूद पारस्परिक की उन गरिमाविहीन कडिय़ों की जांच करता है, जो व्यवस्था या समग्रता के स्तर पर एक हो जाती है और समाज में शोषक व शोषित के क्रूर व अमानवीय संबंध को जन्म देती है।
                         अंग्रेज भारतीयों को भूरा कहते थे जिसके पास ताकत होती
                         है वो जिसके पास ताकत नहीं होती उससे कुछ भी कह
                         देता है
                         हो सकता है कि कोने में बैठी स्त्री का पति उसे मारते हुए
                         भूरी कहता हो और उसके ऊपर आते हुए भी
                                                                                  (यह एक और आखिरी वाक्य है, पहल-82)
यह वैचारिक स्थिति समकालीन 'विमर्शात्मक' चिंतन का प्रतिपक्ष है क्योंकि 'विमर्शात्मक' चिंतन अपनी समस्त वरीयताओं के बावजूद विपरीतिता के युग्मों को जन्म देता है। दलित-स्वर्ण, स्त्री-पुरूष, शहरी-आदिवासी आदि युग्म निर्माण शोषण की एकरैखिकता की ही पहचान करने में सक्षम हैं, लेकिन व्यापक स्तर पर यह एकरैखिकता अपनी विशिष्ट 'प्रतिरोधी' शक्ति नहीं प्रमाणित कर पाती है। प्रतिरोधी शक्ति को चिंह्नित करने के लिए 'अपने' इतिहासबोध को आत्मसात करने के बाद कवि की टिप्पणी कुछ इस तरह की है:

                      आधीनता-स्वाधीनता का      राजनीति जाली है-यह इतिहास से
                      अजूबा कोलाज                निकलकर आती आवाज है या कि
                      बीता कहां बीता नहीं           एक संथाली स्त्री का आखिरी वाक्य
                      बर्तानिया राज                 और ये लोग कौन है जो एक
                      जगह को छोड़कर दूसरी जगह जा
                                                     रहे है: बेघर और बदहवास
                      कदम वे उठाते हैं              नेशनल बिल्डिंग राजनीति की
                      और बुदबुदाते हैं:              राजनीति क्या है
                                                     अगर नब्बे प्रतिशत पर
                                                     दस की दया है
                                                                                    (हर इबारत में रहा बाकी, आलोचना-20)

'पहल' में प्रकाशित अपने एक साक्षात्कार में देवी ने कविता में 'रोजमर्रा' के औसतपन की कड़ी आलोचना की है, जिसका प्रभाव उसकी कविताओं में भी आसानी से दिखाई देता है। लेकिन समकालीन समय में 'औसतपन' के विरोध का यह विचार उन सतही विचार प्रक्रियाओं के जरिए नहीं पनपा है, जिसके हम अतीत में साक्षी रहे हैं। जे. कृष्णामूर्ति जैसे विचारक ने 'हम बासी लोग है' (वी आर सेकेंडहैंड पीपुल) कहते हुए इसकी जटिलता को नजरअंदाज ही किया था क्योंकि उन्होंने भी इस औसतपन (बासीपन) का स्रोत व्यक्तिगत 'स्व' के विलोप और नवाचारों का अभाव कोई आंतरिक या मानसिक कार्य-व्यापार नहीं है, इसके बजाए इसका स्रोत समाज और समुदाय है, जहां मनुष्य अपनी अर्थवत्ता अर्जित करता है। यही कारण है कि कवि बार-बार समाज के व्यवस्थागत प्रबंधन के मूल अंतर्विरोध को पाठकों के समक्ष बार-बार रखता है।
                                    और फिर कवि ने फुसफुसाकर कहना चाहा कि
                                    बार बार मनुष्य के चेहरे का वर्णन
                                    मौलिकता का पुनराविष्कार है बार-बार
                                    * * *
                                    खोई हुई कविता की जगह की खोज
                                    और खोये गणतंत्र की खोजने का
                                    नैतिक उपद्रव बार-बार
                                                                                  (यह एक और आखिरी वाक्य है, पहल-82)
यहां कुछ अधिक कहने की ज़ रूरत नहीं क्योंकि एजरा पाउंड के 'नए के निर्माण' के लिए देवी एलियट की तरह किसी 'बंजर जमीन' को खोजने का एकदम रूहानी कार्य नहीं करते हैं। इसके बजाए 'मनुष्यता' ही उसके लिए सबसे बड़ी नवीनता है। यही कारण है कि सामाजिक असमानता-विरूपता-शोषण के अभेद्य दुर्गों को चिंह्नित करने के बाद भी कवि परिवर्तन की अपनी आकांक्षा को तिरोहित नहीं करता है, बल्कि उसकी आस्था 'नए मनुष्य' (आगामी पीढ़ी, जिसका प्रतीक बच्चे हैं) पर केंद्रित होती है। यहां इसका यह आशय कतई नहीं है कि वह सामाजिक परिवर्तन के संघर्ष को दूसरी पीढ़ी/आगामी पीढ़ी को स्थानांतरित करके स्वयं को नैतिक संताप से मुक्त करने का कार्य कर रहा है। इसके बजाए वह अपनी थकान और स्वयं में कम होती नवाचार की स्थितियों के कारण ऐसा कर रहा है।
                                 जी उठने के बाद पिता परिवर्तन के
                                 रोजगार के लिए भटकेंगे भी या बेआस
                                 दास बन जाएंगे नए जन्म में भी
                                                                                    (हर इबारत में रहा बाकी, आलोचना-20)
वर्तमान समय में ज्ञान और सामाजिक विश्लेषण पिछले समय की तुलना में बहुत अधिक विस्तारित और उच्चता प्राप्त किए हुए है। ऐसे में हमेशा की तरह यह प्रश्न सामने आता है कि आखिर इस ज्ञान मीमांसा में कौन सी कमी है, जिस कारण यह सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रेरणा नहीं उत्पन्न कर पा रहा है। देवी की कविता रचनात्मक स्तर पर इसका उत्तर उपलब्ध कराती है। और यह उत्तर है - सार्वभौमिकता। संस्कृति के मैकडोनाल्डीकरण से लेकर सांप्रदायिक हिन्दू राष्ट्रवादियों का उदय, राजनीति के लंपटीकरण से लेकर आर्थिक एकाधिकारवाद और कार्पोरेटीकरण-वर्तमान समय में इन सभी प्रवृतियों को एकक स्तर पर समझने की कोशिशें ही ज्ञान मीमांसा के स्तर पर हो रही है। लेकिन इन सभी प्रवृत्तियों के अंतर्संबंध को नजरअंदाज करने के कारण न तो व्यापक समाज की किसी यथार्थता से परिचय हो पाता है, न ही प्रतिरोधी स्वरों की 'समग्र' शक्ति का आकलन। देवी की कविताओं में मनुष्य और मनुष्य समाज की समग्रता या सार्वभौमिकता का प्रश्न जितने विश्वसनीय तरीके से प्रत्यक्ष होता है, वह अपनी मानवीयता और प्रगतिशील रचनात्मक सरोकारों के स्तर पर 'आधुनिक महाकाव्यीय' सृजन के प्रतिरूप में तब्दील हो जाता है। इलियड-ओडेसी में विडंबना को दैवीयता के स्तरपर चिंह्नित करके होमर मनुष्य समाज की समग्रता और उसके अंतर्विरोधों को रेखांकित करने में सक्षम हो पाए थे। लेकिन इस मध्यकालीन साहित्यिक संरचना के विपरीत वर्तमान के समस्त आयामों को समाहित करते हुए इन संदर्भित दोनों कविताओं में हमारे आधुनिक समय में शोषण-अभाव-वचन को विड़ंबना के स्रोत के रूप में चिंह्नित करके देवी एक त्रासद समाज का चित्र प्रस्तुत कर पाते हैं।
यहां यह कहने की जरूरत बाकी रह जाती है कि कवि सार्वभौमिकता के 'आधुनिक' आयामों के अनुरूप वंचित वर्ग-जाति-लिंग-धर्म के सह-आस्तित्विक अंतर्विरोधों को नज़ रअंदाज नहीं करता है, न ही किसी स्तर पर त्याज्य समझने की सैद्धांतिक भूल ही करता है। इन्हीं अर्थों में देवी की कविताएं मुक्तिबोध की कविताओं के बाद सबसे साहसिक काव्य उद्यम है और शायद मुक्तिबोध के 'असमाप्त' उद्यम को पूरा करने की दिशा में देवी का यह उद्यम 'दीर्घ छलांग' (लांग लीप) की तरह है।
यहां मुक्तिबोध के उद्यम को 'असमाप्त उद्यम' कहना के आशय इन दो केंद्रीय सरोकारों के कारण है। पहला ('अंधेरे में' को संदर्भित करते हुए) काव्य नायक (या पात्र) की असाधारणता और दूसरा काव्य पात्र की ज्ञान मीमांसक उच्चता। मुक्तिबोध के संदर्भ में इन दोनों ही बिन्दुओं को किसी नकारात्मकता की वजह से नहीं रेखांकित किया गया है। इसके बजाए ये दोनों ही बिन्दु इस तथ्य को रेखांकित करने में मदद करते हैं कि बौद्धिक स्तर पर प्रतिरोध की तीव्रता के बावजूद जनसाधारण के स्तर पर परिवर्तन के लिए कोई प्रयास उनके दौर में क्यों नहीं मौजूद थे या राजनीतिक व्यवस्था- लोकतंत्र ने अपने विस्तारित तंत्र से जनसाधारण की आकांक्षाओं को किस तरह से शून्यीकरण करने में सफलता पाई। यह प्रक्रिया क्या थी, इसका उत्तर प्रो. रणधीरसिंह ने भारतीय स्वतंत्रता और उसके बाद भारतीय राजनीति के अपने विश्लेषण में इस तरह से दिया है-
1960 के दशक के मध्यान में भारत में उत्तर-औपनिवेशिक उद्यम लडख़ड़ाने लगा और तेजी से विकृतता का शिकार होने लगा। इसका आर्थिक संकट राजनीतिक व्यवस्था यानि 'लोकतांत्रिक राजनीति' के साथ बाकी सारी चीजों को संकटग्रस्त करने में एक कदम आगे ही बढ़ गया। यदि भारत की 'राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था' ने कई सारे विस्फोटक क्षमता वाले मुद्दों को उत्पन्न किया तो यहां की 'राष्ट्रीय राजनीति' इन मुद्दों को लगातार समस्याओं में तब्दील करती गई.. 1980 के दशक के अंत तक राष्ट्रीय उद्यम गुणात्मक रूप से समाप्त हो गया। पूर्व में स्वीकार की गई नीतियों की वजह से मृत्यु द्वार तक पहुंच चुके आर्थिक संकट या वित्तीय दिवालिएपन की स्थिति शीत युद्ध में सोवियत संघ की पराजय और इसके विघटन के साथ उत्पन्न हुई। (सोशलिज्म, माकर्िसज्म एण्ड इंडियन पालिटिक्स)
1972 में संविधान में शामिल किया गया 'समाजवाद' शब्द इसी राष्ट्रीय संकट से निपटने की कृत्रिमता मात्र को ही प्रतीकित करता है। मुक्तिबोध का उद्यम इसीलिए असमाप्त कहा गया कि बौद्धिक स्तर पर वह जिस यथार्थ को देख पाने में सक्षम थे, उसे जनसाधारण या सीधे शब्दों में शोषित उसे देखने-समझने में सक्षम नहीं थे।
इस संदर्भ में देवी रचनात्मक स्तर पर एक भिन्न प्रक्रिया अपनाते हैं। वह छोटी सी घटना या संवेद को इस तरह समग्रता में समझने का प्रयत्न करते हैं कि वह सार्वभौमिकता में यथार्थ के समस्त पक्षों को निरूपित करने लगती है। उदाहरण के लिए 'हर इबारत रहा बाकी' में पिता बेटे को फूल लेने भेजता है और यह साधारण सी घटना अतीत और वर्तमान को आच्छादित करते हुए भविष्य तक अपना प्रसरण करती है और इसी प्रसरण में यथार्थ की हर एक बारीक से बारीक विवरणता दर्ज होते हुए समग्रता या विश्वबोध निर्मित करने की जद्दोजहद में शामिल हो जाती है।
इसे पूरे निबंध में समग्रता या विश्वबोध को 'मूल्य' की तरह से इस्तेमाल किया गया है और कम से कम प्रगतिशील नज़ रिए से इस मानक को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता है। मार्क्सवादी साहित्य सिद्धांत द्वारा टाइप्ड चरित्रों से लेकर टाइप्ड परिस्थितियों की वकालत के पीछे तर्क 'समग्रता' का ही रहा है। 19 वीं सदी की तुलना में वर्तमान में सामाजिक संरचना और अधिक जटिल होती चली गई है और स्तरीकरण के कारण पाठीय एकरैखिकता इस समय प्रगतिशील लक्ष्यों का पूरा करने में 'शायद' सक्षम नहीं है। कवि या लेखक के पास अब 'दृष्टा' होने की सुविधा नहीं है। विक्टर ह्यूगो से लेकर प्रेमचंद तक का लेखन 'लेखकीय दृष्टा' होने की गवाही देता है। इस तथ्य से यह अंदाजा लगाना आसान होगा कि वर्तमान में पाठीय बहुरैखिता के सामाजिक समग्रता को चित्रित करना कितना कठिन है। देवी ने संरचना के स्तर पर तो बहुरैखिकता के लिए 'स्पेस' बनाया ही है, साथ ही साथ पाठ के स्तर पर भी इसे संभव किया है।

                 चलो यहां से कहीं और           फूल लेकर आती बेटी
                 उम्र भर के लिए क्यों             नहीं आ रही है
                 लेकिन उसके होने की आहट है
                                                   जैसे हवा है और उसका
                                                   हिलना है
                                                   अर्थों के होने पर
                                                   भाषा के हिलने जैसा यह तो अरे
                  पृथ्वी और उस पर टिके         बदलने की कविता में
                  ढांचों का हिलना है यह           कविता के बदलते अर्थ में
                                                                                    (हर इबारत मे रहा बाकी, आलोचना-20)
'हर इबारत रहा बाकी' के संदर्भ में ये लगभग आखिरी की पंक्तियां पहली नज़र में व्याकरणिक दोष समझने का कारण बन सकती हैं! बेटा बेटी में रूपांतरित हो गया! लेकिन इसकी वास्तविकता से समानांतर पंक्तियां ही परिचित कराती हैं। स्वयं लेखक ने इसे 'वर्गापसरण-जात्यापसरण-लिंगापसरण' कहा है। लेकिन यह 'लिंगापसरण' अतीत के साहित्यिक उदाहरणों से भिन्न है। कबीर की एक पंक्ति
है -                 
                                                बालम आयो हमारे गेह रे, तुम बिन दुखिया देह रे,
                                                सब कोई तुम्हारी नारी, मोको यह संदेह रे
यहां भी लिंगापसरण है, लेकिन यह लेखक का 'लिंगापसरण' है और यह उच्चावच्च क्रम का अनुशीलन मात्र है (यानी जो शक्ति में बड़ा है वह 'पुरुष' है!)। आधुनिक समय में 'लिंगापसरण' का ब्रेख्तियन सिद्धांतों से प्रेरित थियेटर प्रयोगिकताओं में भी प्रयोग किया गया है। उन्हीं सैद्धांतिक अन्वितियों को देवी के यहां देखा जा सकता है। देवी के यहां पात्रों तक का भी लिंगापसरण है, जो एक ओर लैंगिक-जातीय-वर्गीय वचन की तीव्रता को उजागर करता है, वहीं दूसरी ओर 'मनुष्य' की समग्रता को भी चिंह्नित करता है (यानी स्त्री-पुरुष के सामाजिक अनुकूलन का निषेध करता है)।
देवी के इस प्रयोग की तुलना कई मायनों में पाल्बो पिकासो की 1937 की कलाकृति 'गुएर्निका' से की जा सकती है। बैल-घोड़ा-मनुष्य आदि जितनी भी चीजों का चित्रण कलाकृति में है, वे अपने प्राथमिक अर्थों से च्युत न होते हुए भी समग्रता में प्रतीकात्मकता में तब्दील हो जाते हैं। अर्थ की यह समग्रता ही वर्तमान और भविष्य के लिए अर्थ संभावनाएं खोजती है। किसी कलाकृति में 'प्रसरण' क्या भूमिका निभा सकता है, इस तथ्य का अंदाजा इससे हो पाएगा कि जब कॉलिन पॉवेल ने संयुक्त राष्ट्र संघ में इराक पर हमले की घोषणा की थी, उस व$क्त लॉबी में लगे पिकासो के इस चित्र को ढक दिया गया था।
गहराई से देखें तो 'हर इबारत रहा बाकी' और 'यह एक और आखिरी वाक्य है' अपनी संरचनात्मक वृत्ति में जिस विचार को रूपायित करती हैं, वह 'उत्तर-आधुनिकता' के सैद्धांतिक मायाजाल का विरोध है, कविता या साहित्य से जुड़े संकीर्ण विचारों की आलोचना है और इसके साथ ये मनुष्य की मुक्ति का आख्यान भी हैं- जो कविता की भी मुक्ति का आख्यान हैं। ये 'समकालीनता' के साथ संबद्ध सपाटता के विरोध में हैं, उस 'समकालीनता' के, जिसके $खतरों को इंगित करते हुए नेरूदा की महान पंक्तियां हैं -
जो इतनी समृद्ध है कि जीवन में कि उसका उत्कर्ष नष्ट हो जाने वाला है और यह उदासी से भरी है
देवी इस समकालीनता का विरोध करते हैं। लेकिन यहां यह समझने की भूल नहीं करनी चाहिए कि 'समकालीनता' के विरोध का तात्पर्य वर्तमान का विरोध है, इसके बजाए यह इतिहासबोध से च्युत वर्तमान का विरोध है
                                कच्चे फल के रंग के लिए या
                                घुटनों के दर्द और समाज के
                                इलाज के लिए या कबीर के धागों
                                और तात्या टोपे की टोपी और
                                मंगल पांडे के उत्ताप के लिए या कि
                                लक्ष्मी बाई के शाप के लिए
                                अम्बेडकर के चश्मे और स्याह के लिए
                                अवध की स्त्री की आह के लिए
                                                                                    (हर इबारत में रहा बाकी, आलोचना-20)
भारतीय समाज में उत्पीडऩ के जो भी संस्तर हैं, देवी इस तरह उन्हें बखूबी रेखांकित करते हैं; लेकिन 'समष्टिबोध' को विस्मृत किए बिना। इस संदर्भ में सर्वाधिक अफसोसनाक स्थिति प्रगतिशील विचारधारा वाले दलों की रही है। भारतीय समाज के इन अंतर्विरोधों को कभी व्यापक सामाजिक स्तर पर चिंह्नित करने का प्रयास ही नहीं हुआ है; समाज के मूल अंतर्विरोधों और पूंजीवाद के मूलाधारों की आलोचना बहुत दूर की बात है। सैद्धांतिक स्तर पर प्रगतिशील राजनीतिक दलों ने सामाजिक परिवर्तन के लिए उद्यम तो नहीं ही किए, साथ ही राजनीतिक स्तर पर हमेशा 'समकालीनता' या 'तात्कालिकता' की दुहाई देते हुए कीन्सवादी 'ट्रैप' का शिकार होते रहे हैं। और इसी स्थिति के दोहराव को अभी भी देख सकते हैं। वर्तमान में वैश्वीकरण की जो भी आलोचना सामने आ रही है, वह कीन्सवादी नज़ रिए से ही की गई है! यहां दुख कल्याणकारी राज्य की समाप्ति का है और संघर्ष कल्याणकारी राज्यात्मकता को वापस लाने का है, जो सीधे तौर पर राष्ट्रीय पूंजीवाद की अवधारणा का समर्थन करने के लिए अभिशप्त होती है! जबकि वास्तविकता में (1947 के बाद से ही) मूल सवाल बुर्जुआ लोकतंत्र की सीमाओं को सामने रखने और राष्ट्रवादी नज़ रिए की बुर्जुआ केंद्रियता के वास्तविक चरित्र को उजागर करने का है।
कविता के स्तर पर देवी कभी भी कीन्सवादी ट्रैप का शिकार नहीं होते हैं। उनके लिए वैश्वीकरण कोई नई परिघटना नहीं, बल्कि भारतीय बुर्जुआ वर्ग के रणनीतिक लक्ष्य की स्वाभाविक परिणिति है। यानि मूल सवाल कल्याणकारी राज्य के विघटन आदि का नहीं है, बल्कि यह है :
                                  दिखाई दे रहे थे हार के नतीजे
                                  और अकेले पड़ जाने के
                                  पहाड़ और जमींदार के संशय और
                                  आदिवासी की असहमति और
                                  खनिज की आहटें और
                                  लिपियों के निर्माण की अंतर्योजनाएं
                                  और मुठ्ठी से निकला एक मंतव्य
                                                                                  (यह एक और आखिरी वाक्य है, पहल-82)
कई बार यह प्रश्न 'आभासी' (?) प्रतीत हो सकता है, लेकिन हमारे समय की समस्त सच्चाईयों को अभिव्यक्त करने के साथ यह प्रश्न 'कल्याणकारिता' की सदाशयता के वास्तविक रूप को चिंह्नित करने में पूरी तरह से सक्षम है।
देवी प्रसाद मिश्र का यह अप्रतिम प्रयोग कविता की मुक्ति का आख्यान है। यह एक ऐसा आख्यान है, जो मनुष्य की मुक्ति को समर्पित है। देवी की ये संदर्भित कविताएं प्रमाणित करती हैं कि यह सच्ची क्रांति किसी भी सच्चाई (यथार्थ) को त्यागती नहीं है, बल्कि स्वयं में आत्मसात कर लेती है। देवी हमारे समय में कविता और गद्य क्षेत्र के बहुत बड़े खलीफा है। इनकी खिलाफत का विस्तार दुनिया की हर एक कत्रिम सहरदों के पार जाता है और हर एक विद्रूपता के बावजूद मनुष्य की मौलिकता को चिंह्नित करता है और उसी से हमारी मनुष्य दुनिया के सबसे कीमती शब्द 'उम्मीद' को खोज कर लाता है।


कवि कथाकार और फिल्म निर्माता देवीप्रसाद मिश्र (देवी) को एकांत और स्वतंत्रता प्रिय है। वे समकालीन प्रकोपों से अलग एक ऐसे पूरा वक्ती रचनाकार हैं कि हिन्दी के नये साहित्य में एक दुर्लभ उदाहरण बन गये हैं। कफी हद तक उन्हें दरकिनार भी किया गया लेकिन वैसा हो नहीं सका। उनको यूं भी हिन्दी के चालू सांस्कृतिक, स्तंभकारों और रिव्यूवर्स की जरूरत नहीं है। देवी के प्रयोग गहरे और कठिन है। पहल ने उनकी अनेक यादगार और विचारणीय रचनाएं प्रकाशित की हैं। हमें संतोष है कि देवी की कविता की गणवेषणा यहां हो सकी है। कभी उनके कथा साहित्य पर भी पहल होगी।


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