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सितम्बर 2014

कथालोचक नामवर

रविभूषण


''मैं अपने तई मानता हूँ कि आलोचक को दो भूमिकाएं निभानी चाहिए। आलोचक वही काम करता है जो फौज में जिसे 'सैपर्स एण्ड माइनर्स' कहते हैं, इंजीनियर करता है। फौज के मार्च करने से पहले झाड़-जंगल साफ करके नदी-नाले पर जरूरी पुल बनाते हुए फौज को आगे बढऩे के लिए रास्ता तैयार करने का जोखिम उठाए, सड़क बनाए... मैं आलोचक के लिए 'सैपर्स एण्ड माइनर्स' की भूमिका मानता हूं क्योंकि आगे-आगे वही चलता है और पहले वही मारा जाता है। दुश्मन आ रहा है तो जोखिम उठाने के लिए सबसे पहले मार्चे पर वही बढ़ता है और ज़ख्मी होने का खतरा भी वही उठाता है, यह काम आलोचक करता है और उसे करना भी चाहिए। क्योंकि हम रचनाकारों के लिए रास्ता बनाने की कोशिश करते हैं। दूसरा, रास्ता बनाने के साथ ही वह उनके साथ-साथ चलता भी है। वह रचना का सहचर भी है।''
- आवेग, 2002, 'बात बात में बात', (2006) में संकलित, पृष्ठ 19-20
''यह पुस्तक लगभग एक दशक (1956-65) की चिन्तन यात्रा की पगडंडी है, जिससे मैंने कथा-समीक्षा की एक पद्धति निकलाने की कोशिश की है... कहानी-समीक्षा को मैंने 'सहयोगी प्रयास' के रूप में शुरू किया और पाया कि ज्यादातर लेखकों ने विरोध के द्वारा ही सहयोग किया.. मेरे निकट इनका महत्व केवल कहानियों की समीक्षा तक सीमित न होकर एक व्यापक समीक्षा-पद्धति के निर्माण की दिशा में है। निष्कर्षों से असहमति हो सकती है, मूल्यांकनों से मतभेद हो सकता है... किन्तु वह पद्धति और प्रक्रिया, जिनमें मेरी दिलचस्पी सबसे अधिक रही है, व्यापक विचार-विनिमय की अपेक्षा रखती है।''
- 'कहानी: नयी कहानी' की भूमिका ('यह पुस्तक'), 1965

स्वतंत्र भारत के आरंभिक वर्षों में, पचास के दशक से 'नयेपन' के प्रति प्राय: सभी क्षेत्रों में एक विशेष आग्रह था। नेहरू ने 'द डिस्कवरी ऑफ इंडिया' (1946) में अपनी धमनियों में प्रवहमान भारत को 'एक अजनबी आलोचक की नजर' से देखने की बात कही है और यह लिखा है कि उन्हें भारत का वर्तमान पूरी तरह नापसंद था। अतीत के कई अवशेषों से 'गहरी अरुचि' थी। वे भारत को पश्चिम के नजरिये से देखने वाले राजनेता थे, जो देश के पहले प्रधानमंत्री बने। वे भारत को 'आधुनिकता का लबादा पहनाना' चाहते थे। इस समय नयी दिल्ली फैल रही थी, विकसित हो रही थी। एक 'नये भारत' का जन्म हो चुका था। आज़ाद भारत अतीत से मुंह मोड़ रहा था। 'आधुनिकता' पर अधिक बल था। 26 जनवरी 1950 को भारत 'संप्रभु, लोकतांत्रिक गणराज्य' बना। गांधी का स्वप्न खंडित हो चुका था। नेहरू भारतीय समाज को पहले से भिन्न एक नये-आधुनिक रूप से पुनर्रचित करने को तत्पर थे। भारत में जो 'सांविधिक लोकतंत्र' स्थापित हुआ, वह 'सार्विक मताधिकार' पर आधारित था। सुनील खिलनानी ने इसे 'भारतीय समाज के अंदर से निकले किसी लोकप्रिय दबाव का परिणाम' नहीं माना है। इसमें जनसाधारण की कोई भूमिका नहीं थी। ''लोकतंत्र तो खास तरह के बुद्धिजीवी प्रमुख वर्ग की राजनीतिक पसंद के कारण जनता को प्राप्त हुआ था।'' (भारतनामा, 2001, पृ. 53)
पचास का दशक संभावनाओं का दशक था। लोकतंत्र भारत के लिए नया था। दो लोकसभा चुनावों के साथ राज्यों के विधानसभा चुनाव इस दशक में हुये थे। भाखड़ा-नांगल को नेहरू ने 'आज के सबसे बड़े मस्जिद और गुरूद्वारे' कहा था। यह 'महान जगह' थी। इसी दशक में विश्व के प्रख्यात अर्थशास्त्री भारत आने लगे थे। महलनोबीस विदेशी अर्थशास्त्रियों के साथ मिलकर काम करने लगे थे। 'वैकासिक अर्थशास्त्र का विज्ञान' भारत के लिए नया था। योजनाएं नयी थीं, पंचवर्षीय नीतियां भी नयी थीं। एक नयी योजना के तहत एक नये शहर का निर्माण हो रहा था। इसी समय फ्रांसीसी वास्तु शिल्पी चाल्र्स एडुअर्ड ज्यॉनरेटड (ल कोर्बुज़ियर) चंडीगढ़ की डिजाइन बना रहे थे। भारतीयता की विरासत से नेहरू दूर थे। चंडीगढ़ भारतीय नगरों से भिन्न था, विशिष्ट भी। इतिहास से अपने को मुक्त किया जा रहा था। ''चंडीगढ़ का निर्माण कुछ इस तर्ज़ पर किया गया कि वह विजातीय रूप, शैली और सामग्री का वैभवगान बन गया... चंडीगढ़ अंग्रेजी भाषा की तरह था।'' (वही, पृष्ठ 146) पचास के दशक में 'नयेपन' के प्रति प्राय: सभी क्षेत्रों में एक तीव्र आकर्षण था। साहित्य इससे अलग नहीं था।
प्रगतिवादी आन्दोलन के बिखरने के बाद 'नयी कविता' और 'नयी कहानी' का आन्दोलन आरंभ हुआ इलाहाबाद साहित्य का केन्द्र था। इलाहाबाद में पचास के दशक के आरंभ में अपने-अपने कस्बों से आने वालों में प्रमुख थे - कमलेश्वर (मैनपुरी), दुष्यन्त कुमार (मेरठ) और मार्कण्डेय (जौनपुर)। 1954 में 'नई कविता' (संकलन) का प्रकाशन हुआ। 1937 में प्रकाशित 'कहानी' पत्रिका कुछ समय बाद बंद हो चुकी थी। श्रीपत राय को 'कहानी का वह अधूरा सपना बार-बार उद्वेलित करता रहा' था। ('कहानी की बात', 1990, का 'आत्म-निवेदन') पचास के दशक के आरंभ में कहानी में हो रहे परिवर्तनों की ओर सबसे पहला ध्यान एक कथाकार (मार्कण्डेय) का ही गया। 'कहानी' पत्रिका जनवरी 1954 में पुनप्र्रकाशित होने लगी थी। इसके पहले अंक में अनूदित कहानियां अधिक थीं। अमरकान्त की 'कम्युनिस्ट' कहानी इसी अंक में प्रकाशित हुई थीं। 'कल्पना' के जनवरी-फरवरी 1954 के संयुक्तांक में निर्मल वर्मा की कहानी 'रिश्ते' प्रकाशित हुई थी। 1951 से 'कल्पना' में कई नये कहानीकारों की कहानियां प्रकाशित हो रही थीं। 'प्रतीक' और 'हंस' में भी। अक्टूबर 1951 के 'प्रतीक' में शिवप्रसाद सिंह की कहानी 'दादी मां' और मार्च 1952 में 'बरगद का पेड़' प्रकाशित हो चुकी थी। मार्च 1952 की 'कल्पना' में मार्कण्डेय की कहानी 'गुलरा के बाबा' के बाद भी कई कहानियां प्रकाशित हुई। 1950-51 से 1956-57 तक हिन्दी के प्राय: सभी नये कहानीकारों की नई कहानियां 'प्रतीक', 'हंस', 'कल्पना', 'कहानी' के साथ अन्य कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी थीं। 'कल्पना' में प्रकाशित अपने स्तंभ 'साहित्यधारा' में चक्रधर (मार्कण्डेय) ने मार्च 1954 में 'पाठकों की रुचि' के साथ साहित्यिक पत्रों में प्रकाशित 'कथा-साहित्य के शिल्प और वस्तु-विधान के दिनों दिन परिमार्जन' की बात कही। ('चक्रधर' की 'साहित्यधारा', 2012, पृ. 1) ठीक एक महीने बाद अप्रैल 1954 की 'कल्पना' के अपने स्तंभ 'साहित्यधारा' में चक्रधर ने लिखा - ''एक लम्बे समय के बाद छोटी कहानियां फिर से अपनी ओर पाठकों का ध्यान आकृष्ट करने लगी हैं''। उन्होंने लेखकों की उस नयी पीढ़ी की बात कही ''जिसने छोटी कहानियों की वस्तु और शैली में समृद्धि की है'' और यह लिखा ''इधर लेखकों की एक ऐसी पांत उठ खड़ी हुई है, जो अपनी जगह पर रुचि और सामाजिक संस्कार की विभिन्नता के साथ, पाठकों में अपने ढंग से पहुंच रही है।'' जुलाई 1954 की 'कल्पना' में उन्होंने 'हिन्दी में कुछ नये प्रभावशाली कथाकारों के आविर्भाव' की बात कही। दुष्यन्त कुमार ने फरवरी 1955 की 'कल्पना' में अपने लेख 'नयी कहानी : परम्परा और प्रयोग' में 'नयी कहानी' का प्रथम उल्लेखकर सबका ध्यान दिलाया। कमलेश्वर की मानें, तो 1955 के आसपास उनका, दुष्यन्त कुमार और मार्कण्डेय का नामवर सिंह से परिचय हुआ था और मजाक में यह तय किया गया कि 'नयी कहानी' का आलोचक पैदा किया जाय। (जो मैंने जिया, 2008) और नामवर सिंह ने 'चार-पांच पन्नों का छोटा-सा लेख' लिखा जो 1957 के 'कहानी' नव वर्षांक में प्रकाशित हुआ। आरंभ में ही उन्होंने यह प्रश्न किया - 'नयी कविता' की तरह 'नयी कहानी' नाम की भी कोई चीज है क्या?
कहानी पर पहले लेख 'आज की हिन्दी कहानी' (कहानी, नव वर्षांक 1957) के बारह वर्ष पहले नामवर ने छात्र-जीवन में एक कहानी लिखी थी 'कहानी की कहानी' ('क्षत्रिय मित्र', मार्च 1945)। इसके बाद उन्होंने कोई कहानी नहीं लिखी। कहानी पर लिखने के पहले उनकी पांच पुस्तकें 'बकलम खुद' (1951), 'हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग' (1952), 'आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां' (1954), 'छायावाद' (1955) और पृथ्वीराज रासो: भाषा और साहित्य (1956) प्रकाशित हो चुकी थीं। पुस्तक 'इतिहास और आलोचना' (1957)  में कहानी की कोई चर्चा नहीं है। 'कहानी' पत्रिका से पहले वे 'नयी कविता' से जुड़े थे। 'नयी कविता' के प्रवेशांक (1954) में उनकी, दो कविताएं, 'फागुनी शाम' और 'हरित फौवारों सरीखे धान' प्रकाशित हुई थीं। जनवरी 1957 के अपने लेख में उन्होंने 'नयी कहानी' न कह कर 'आज की कहानी' कहा, उस पर विचार किया। विजय मोहन सिंह ने यह सवाल किया है - ''अपभ्रंश और पृथ्वीराज रासो की भाषा वाले नामवरसिंह का रूपान्तरण 'नयी कहानी' तथा 'नयी कविता' के प्रखरतम प्रवक्ता के रूप में कैसे हुआ?'' ('नामवर के विमर्श', 1995, पृ. 71) विजय मोहन सिंह ने जो कारण बताये है, उनमें नामवर के गंभीर अध्ययन का जिक्र है। वे उन दिनों मार्क्स, एंगेल्स के साथ कॉडवेल, रॉल्फ फॉक्स, जार्ज लुकाच के साथ 'नयी समीक्षा' के आधार स्तम्भ डॉन क्रोरैनसम, क्लिंथ ब्रुक्स, आइवर विंटर्स, एलेन टेट आदि की पुस्तकें पढ़ रहे थे। 'मार्क्सवाद के गहन अध्ययन' के समानान्तर उन्होंने ''आधुनिक समीक्षा और साहित्य की गहरी जानकारी प्राप्त कर ली थी। यह एक लगभग चौतरफा तथा मुकम्मिल किस्म की तैयारी थी जिसने क्रमश: उनकी समीक्षा-दृष्टि तथा प्रतिमानों के निर्माण की आधार शिलाएं रखी थीं। (वही, पृष्ठ. 73)'' वैचारिक-समीक्षात्मक पुस्तकों के साथ नामवर कथा साहित्य की पुस्तकों का कविता की तुलना में अधिक अध्ययन कर रहे थे। कहानी-समीक्षा में नामवर के आगमन का मुख्य श्रेय 'कहानी' और 'नयी कहानियां' के सम्पादक भैरव प्रसाद गुप्त को है, जिन्हें उन्होंने 'कृत कार्य कृती सम्पादक' के रूप में 'कहानी: नयी कहानी' पुस्तक समर्पित की है। 'नयी कविता' का आन्दोलन 'नयी कहानी' के समक्ष फीका पडऩे लगा था। सम्पादक भैरव प्रसाद गुप्त, कहानीकार मोहन राकेश  और कमलेश्वर और आलोचक नामवर सिंह ने 'नयी कहानी' को प्रतिष्ठित किया। 1955 में 'नयी कहानी' की जो चर्चा आरंभ हुई थी, दो वर्ष बाद दिसम्बर 1957 में इलाहाबाद के 'साहित्यकार सम्मेलन' में इसे लगभग स्वीकृति मिल गयी। इस सम्मेलन में नामवर सिंह की भी सक्रिय भूमिका थी। सम्मेलन का एक सत्र कहानी पर केन्द्रित था, जिसमें मोहन राकेश, शिवप्रसाद सिंह और हरिशंकर परसाई ने अपने लेख के आरंभ में ही 'नयी कहानी' का प्रयोग किया, 'नयी कविता' की तरह 'नयी कहानी' की बात की। परसाई के लेख की पहली पंक्ति थी - ''आज की कहानी को 'नयी कविता' के ढंग पर 'नयी कहानी' कहने लगे हैं।'' ('नयी कहानी : संदर्भ और प्रकृति', 1973, पृष्ठ 56)
'कहानी' पत्रिका में 1955 से कहानी पर चर्चा आरंभ हो चुकी थी, 1955 में 'कहानी' के दो विशेषांक प्रकाशित हुए थे - 400 पृष्ठों का जनवरी का नव वर्षांक और 150 पृष्ठों का जुलाई विशेषांक। नवम्बर 1955 के सम्पादकीय 'कहानी की बात' में यह सूचना दी गयी थी कि अगले विशेषांक में कहानियों के अतिरिक्त ''आज की हिन्दी कहानी पर श्रीपत राय का लेख तथा हिन्दी कहानी की समस्याओं पर प्रकाशचन्द्र गुप्त, चन्द्रगुप्त विद्यांलकार तथा नामवर सिंह के लेख भी विशेषांक में होंगे।'' 'कहानी' पत्रिका के पुनप्र्रकाशन के बाद 1955 में 'रुप और शिल्प की नवीनता' कहानी में होने वाले 'आन्तरिक परिवर्तनों', 'कथानक का ह्रास' जीवन के लघु प्रसंग, प्रसंग-खंड, मूड, विचार, विशिष्ट व्यक्ति-चरित्र के कथानक बनने, 'मार्मिक प्रसंग-खंड की संवेदनीयता', लोक-जीवन का चित्रण, 'सामाजिक संबंधों की समझ', प्रतीक और भाषा पर विचार किया। अपने इस लेख में उन्होंने पांच नये कहानीकारों-मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, रेणु, मार्कण्डेय, केशव मिश्र और शिवप्रसाद सिंह का नामोल्लेख किया। इस लेख में किसी कहानी की चर्चा उन्होंने नहीं की।
नामवर ने 1955 से 1965 के आरंभ तक कहानी और नयी कहानी पर गंभीरतापूर्वक विचार किया है। कहानी को छोड़कर किसी अन्य विधा पर उनका ऐसा निरन्तर लेखन नहीं है। इस एक दशक में उन्होंने आरंभ में 'कहानी' पत्रिका में चार निबंध लिखे, जिनमें आरंभिक तीन निबंध पत्रिका के नववर्षांक 1957, 1958 और 1959 में प्रकाशित हुए। एक वर्ष में एक निबंध लिखने में उनकी तैयारी, अद्भुत थी। 1959 में उनके दो निबंध 'कहानी' में प्रकाशित हुए थे - नव वर्षांक में 'नयी कहानी : नये प्रश्न' और जुलाई में 'आज की हिन्दी कहानी : ऐतिहासिक नवीनता और उपलब्धियां'। 'कहानी' पत्रिका में प्रकाशित चार निबंधों में से दूसरे और तीसरे निबंध के शीर्षक में 'नयी कहानी' है - 'नयी कहानी : सफलता और सार्थकता' और 'नयी कहानी : नये प्रश्न'। पहले और चौथे निबंध में शीर्षक 'आज की हिन्दी कहानी' और 'आज की हिन्दी कहानी : ऐतिहासिक नवीनता और उपलब्धियां' 1959 तक 'नयी कहानी' एस्टैब्लिश नहीं हुई थी। 1959 में 'कहानी' पत्रिका में जो एक लेखमाला आरंभ की गयी थी, उसका शीर्षक था 'आज की कहानी'। इस लेख माला का उद्देश्य उस समय की हिन्दी कहानियों की विभिन्न धाराओं तथा उनकी उपलब्धियों पर कहानीकारों के द्वारा प्रकाश डालना था। इस लेखमाला की शुरूआत के पीछे नामवर के निबंधों की निश्चित रूप से एक भूमिका थी। फरवरी 1959 से आरंभ इस लेखमाला का पहला लेख मार्कण्डेय का था। अपने आरंभिक चार निबंधों के बाद नामवर ने निर्मल वर्मा के कहानी-संग्रह 'परिन्दे' (1959) की समीक्षा आकाशवाणी, इलाहाबाद से की और उनका उस पर लेख 'कृति' पत्रिका के अक्टूबर 1960 के अंक में प्रकाशित हुआ क्रमश: 'नयी कहानी की पहली कृति: परिन्दे' और 'कालातीत कला-दृष्टि' शीर्षक से।
'कहानी: नयी कहानी' में संकलित 20 निबंधों में से चार 'कहानी' में, एक 'कृति' में, चौदह 'नई कहानियां में और अन्तिम माया' में प्रकाशित हुए थे। 'नई कहानियां' का प्रकाशन मई 1960 से आरंभ हुआ था। 'आपका पृष्ठ' में 'नई कहानियां' के प्रकाशन पर शुभकामनाओं की वर्षा हुई थी। नामवर ने पत्रिका के प्रवेशांक के अवसर पर अपने पत्र में यह लिखा- ''आगे जो भी कहानी - चर्चा या पुस्तक-समीक्षा चलायी जाय उसका रूप दूसरा हो। कहानी जैसे लोकप्रिय साहित्य-रूप की चर्चा में पेशेवर आलोचकों और कहानीकारों से अधिक साधारण पाठकों के विचार उपयोगी हो सकते हैं।'' 'नई कहानियां' के सम्पादक भैरवप्रसाद गुप्त थे। भैरवप्रसाद गुप्त ने 31.3.1960 के सम्पादकीय ('पहला पृष्ठ') में लिखा - ''इस प्रश्न का उत्तर देने की हमें कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती कि 'अब नई कहानियां' क्यों?'' 'नयी कहानी' को एस्टैब्लिश करने में नामवर की प्रमुख भूमिका थी। 'परिन्दे' को वे 'नयी कहानी की पहली कृति' घोषित कर चुके थे। माहौल नयी कहानी के पक्ष में था। 'नई कहानियां' नयी कहानी का मंच बन गया। जनवरी 1961 से 'नई कहानियां' में नामवर का स्तंभ शुरु हुआ - 'हाशिए पर'। इसके पहले के दो स्तंभों के लेखक कहानीकार थे। 'बकलम खुद' मोहन राकेश का स्तम्भ था और 'हमारे कहानीकार' रेणु का। 'हाशिए पर' स्तम्भ की शुरूआत पर भैरव प्रसाद गुप्त ने लिखा - ''इस अंक में आप एक नया स्तम्भ पाएँगे - 'हाशिए पर', जिसके लेखक हैं - नामवर सिंह। आप कोई रचना पढ़ते समय पुस्तक या पत्रिका के पृष्ठ के हाशिए पर अपने कुछ विचार लिख देते हैं - ये आपके अपने विचार होते हैं, जो आपकी पुस्तक के अंग बनकर आपके पुस्तकालय में दबे हुए पड़े रहते हैं। नामवर जी कहानी-साहित्य के विषय में अपने कुछ ऐसे ही विचारों से आपको परिचित कराएंगे। लेकिन पाठकों से उनकी एक माँग भी है, और वह हमारे देखने में बिलकुल उचित है, कि हमारे पाठक भी अपने ऐसे विचारों को लेकर सामने आएं। विचारों का आदान-प्रदान हो, विचारों की कडिय़ां जुड़ें, तब तो कोई खेल शुरु हो। कोई भी खेल हो, अकेले कोई क्या खेलेगा, और अगर कोई खेले भी, तो उसमें वह 'मजा' कहाँ? विश्वास है कि हमारे पाठक नामवर जी को उदासीन न होने देंगे और 'कोई' क्या, कहानीकारों और पाठकों का एक दल ही उनके साथ यह 'खेल' खेलेगा और हम सब मिलकर कहानी - पाठ की प्रक्रिया का मरहला पार करने का प्रयत्न करेंगे। यह 'खेल' आखिर कोई मामूली 'खेल' तो है नहीं। और फिर वह समय भी अब आ गया है जब यह 'खेल' मनोरंजन के लिए नहीं, बल्कि अपने यहां कहानी को और गति देने के लिए भी आवश्यक हो गया है। कृपाकर अपने विचार हमें लिखें या सीधे नामवर जी को।''
इसके बाद कहानी विधा केन्द्र में आ गयी और 'हाशिए पर' के निबंधों के साथ नामवर भी कथालोचना के केन्द्र में आ गए। उस समय से अब तक हिन्दी कथालोचना पर जब भी कोई चर्चा होती है, नामवर का उल्लेख जरूरी है। कहानी पर लेख लिखने में उन्हें जितना समय लगा, उतना पुस्तक लिखने में नहीं ''एक लेख लिखने में पुस्तक लिखने से ज्यादा समय लगता है, यह नहीं मालूम लोगों को।''(बात बात में बात, 2006, पृष्ठ 12) 'छायावाद' पुस्तक उन्होंने दस दिन में लिखी थी और 'कविता के नये प्रतिमान' इक्कीस दिनों में कहानी। संबंधी नामवर के सभी निबंध शीतयुद्ध के दौर के हैं। बाद में कई साक्षात्कारों में आगे भी कहानी पर आलोचना लिखने का उन्होंने अपना इरादा बताया है, पर 'इरादे बांधता हूँ, छोड़ता हूं, तोड़ देता हूं, कहीं ऐसा न हो जाए, कहीं वैसा न हो जाए।' 1965 के बाद पन्द्रह वर्ष तक नामवर ने कहानी पर कहीं विचार नहीं किया है। 1981 से अब तक उन्होंने जो कई इण्टरव्यू दिए हैं, उनमें से लगभग बारह में स्वतंत्र रूप से, संक्षिप्त ही सही, मन्नू भंडारी, काशीनाथ सिंह और कैलाश वनवासी की कहानियों की चर्चा की है। लगभग पचास वर्ष से कहानी पर सुचिन्तित-सुव्यवस्थित ढंग से न लिखने के बाद भी नामवर कहानी के विगत नहीं, वर्तमान आलोचक के रूप में भी 'प्रसिद्ध' हैं। पिछले कई वर्षों से दूरदर्शन के प्रात:कालीन साप्ताहिक कार्यक्रम - सुबह सवेरे और 'सबद निरन्तर' में उन्होंने जिन पुस्तकों की चर्चा की है, उनमें कई नये-पुराने कहानीकारों के कहानी-संग्रह भी हैं। यहां वे अधिक 'उदार' हैं। अब वे ज्योति कुमारी की कहानियों के प्रशंसक हैं। कथा-समीक्षक के रूप में 'कहानी: नयी कहानी' में नामवर का महत्व है। इस पुस्तक की भूमिका के अंत में उन्होंने एक कवि का कथन उदृत किया है- 'मैं वे पंख हूं, जिनके सहारे, वे उड़ते हैं।' (हेवन मी दे फ्लाइ आइ एम देअर विंग्स) क्या सचमुच नामवर हिन्दी कहानीकारों की उड़ानों के पंख थे? पंख हैं?
हिन्दी कथालोचना में नामवर के आगमन तक नये कहानीकारों के कई कहानी-संग्रह प्रकाशित हो चुके थे। जिन कुछ कहानीकारों के संग्रह 1960 और उसके बाद आए, उन सबकी कई कहानियां पत्र-पत्रिकाओं में छप चुकी थीं। रेणु की कहानियां 1950 के पहले से प्रकाशित हो रही थीं। 'रसप्रिया' कहानी 1955 में प्रकाशित हुई थी और 'तीसरी कसम' 1956 में। 1959 में 'ठुमरी' कहानी-संग्रह आया जिसमें 'रसप्रिया', 'तीसरी कसम', 'लाल पान की बेगम', 'पंचलाइट' और 'ठेस' जैसी कहानियां थीं। 1960 में निर्मल वर्मा का परिन्दे, कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ था, जिसमें सात कहानियां - 'परिन्दे', 'डायरी का खेल', 'माया का मर्म', 'तीसरा गवाह', 'अंधेरे में', 'पिक्चर पोस्टकार्ड' और 'सितम्बर की एक शाम' शामिल थी। 'परिन्दे' कहानी 1957 में 'हंस' के अद्र्धवार्षिक संकलन में प्रकाशित हुई थी। मार्कण्डेय के चार कहानी संग्रह 1954 से 1958 प्रकाशित हुए थे - 'पान फूल' (1954), 'महुए का पेड़' (1955), 'हंसा जाई अकेला' (1957) और 'भूदान' (1958), शेखर जोशी ने 1953 में 'दाज्यू' कहानी लिखी थी, जिसे 'अश्क' ने वार्षिक संकलन 'संकेत' (1956) में पुनप्र्रकाशित किया। 'कोसी का घटवार' संग्रह 1958 में आ चुका था। इस संकलन की दस कहानियों में 'दाज्यू', 'कविप्रिया', 'कोसी का घटवार', 'बदबू' और 'किं करोमि जनार्दन' भी है। निर्मल वर्मा के 'परिन्दे' से पहले अमरकान्त का कहानी-संग्रह 'जिन्दगी और जोंक' (1958) आ चुका था। 'जिन्दगी और जोंक' तथा 'दोपहर का भोजन' कहानी 1955 में प्रकाशित हुई थी और 'डिप्टी कलक्टरी' 1956 में। कमलेश्वर के दो आरंभिक कहानी संग्रह 'राजा निरबंसिया' और 'कस्बे का आदमी' का प्रकाशन वर्ष 1957 है। मोहन राकेश ने अपने पहले कहानी-संग्रह 'इन्सान के खंडहर' (1950) को महत्व नहीं दिया है। उनके दो कहानी-संग्रह 'नये बादल' (1957) और 'जानवर और जानवर' (1958) महत्वपूर्ण हैं। पचास के दशक में राजेन्द्र यादव के चार कहानी-संग्रह आ चुके थे - 'देवताओं की मूर्तियां' (1952), 'खेल खिलौने' (1954), 'जहां लक्ष्मी कैद है' (1957) और 'अभिमन्यु की आत्महत्या' (1959), शिवप्रसाद सिंह के दो कहानी संग्रह 'आर पार की माला' और 'कर्मनाशा की हार' 1955 और 1958 में प्रकाशित हुए थे। मनु भंडारी का कहानी-संग्रह 'मैं हार गयी' 1957 में छप चुका था। राजकुमार की 'हुस्ना बीबी और कहानियां' का प्रकाशन वर्ष 1958 है। यह सूची और बढ़ायी जा सकती है, पर इसे लिखने का अर्थ यह है कि नामवर जब कथालोचना पर काम कर रहे थे, प्राय: सभी नये कहानीकारों की कहानियां प्रकाशित हो चुकी थीं और अनेक के कहानी-संग्रह भी सामने थे। 'परिन्दे' के पहले सभी प्रमुख नये कहानीकारों के संग्रह छप चुके थे, पर नामवर ने समीक्षा और विचार के लिए 'परिन्दे' का ही चयन किया। 'पसन्द अपनी-अपनी, ख्याल अपना-अपना'।
नामवर का ध्यान कहानी में 'नयेपन' पर था। उन्होंने सर्वप्रथम कहानियों के 'रूप और शिल्प की नवीनता' की बात की। उनके अनुसार नये साहित्य रूप में नया रूप-शिल्प तुरत नहीं आता। कहानी विधा कविता की तुलना में बेहद नयी थी। उसमें वे 'किसी मौलिक परिवर्तन की न तो संभावना' देख रहे थे और 'न आवश्यकता ही'। (कहानी : नयी कहानी, 1999, पृ. 13) कहानी के रूप-विस्तार पर उनकी नज़र थी। 'इस बीच कहानी का रूप इतना विस्तृत हो गया है कि बहुत से निबंध, स्केच और रिपोर्ताज भी कहानी की सीमा में घुसे हैं' (वही, पृ. 14) क्यों एक विशेष समय में किसी पर गद्य-रूप में अन्य गद्य-रूपों का अन्तर्लयन होता है? ये जिन सामाजिक-सांस्कृतिक कारणों से संभव होते हैं, नामवर ने उन पर ध्यान नहीं दिया। उन्होंने कहानी में हो रहे 'आन्तरिक परिवर्तनों' के साथ 'कथानक' में होने वाले 'मौलिक परिवर्तन' की बात नहीं। 'कथानक' के संबंध में अपने पहले लेख में उन्होंने जो कहा, उसे बाद में अपने ढंग से विकसित पुराने कहानीकार जहां 'छोटी-सी बात' को 'अपर्याप्त' मानते थे, वहां नये कहानीकारों के लिए यह पर्याप्त थी। छोटी-सी बात के भीतर से ही नये कहानीकारों ने 'कहानी के कथानक की विभिन्न सिम्तों का विकास किया है।' (वही, पृ. 14) अब नामवर के अनुसार कथानक 'छोटी सी बात' के भीतर था, अपने पहले लेख में नामवर ने नये कहानीकारों में 'बातचीत की उत्कृष्ट कला' देखी और 'भाषा की बारीकियां' भी। किसी एक कहानी के उदाहरण से उन्होंने इसे स्पष्ट नहीं किया। क्या 1957 के इस लेख के पूर्व लिखी गयी नयी कहानियों की यही पहचान थी? हिन्दी कहानी में उनके अनुसार यह 'प्रवृत्ति बहुत कम' थी। जो 'प्रवृत्ति बहुत कम' थी, उसे वे रेखांकित कर रहे थे। बड़ी प्रवृत्ति क्या थी? कथानक-शिल्प की ओर उन्होंने नये कहानीकारों का कम झुकाव देखा और यह माना कि 'बहुत-सी श्रेष्ठ कहानियों' का कथानक 'चढ़ाव-उतारहीन एकदम सपाट' है। कहानी-संबंधी आरंभिक लेखों में नामवर ने एक 'हिचक' दिखाई देती है। ''मैं अब तक मुख्यत: काव्य का पाठक रहा हूं कहानियां मैंने कम पढ़ी हैं और उनमें अन्तर्निहित सत्य को समझने तथा व्यक्त करने की 'भाषा' भी अभी तक तय नहीं कर पाया हूँ''। (वही, पृ. 30)
नामवर ने अपने पहले लेख में 'जोरदार कहानी' के लिए 'वास्तविक घटना-प्रसंग' जरूरी माना। यशपाल को इसका 'प्रतिनिधि कथाकार' मानते हुए उन्होंने यह खेद प्रकट किया कि इस ओर ध्यान देने वाले 'बहुत कम' कहानीकार हैं। राजेन्द्र यादव और मोहन राकेश को वे केवल 'पैनी सामाजिक दृष्टि वाले' ही नहीं 'जागरूक चिन्तक' भी कह रहे थे। उन्होंने ऐसे कथाकारों की सही पहचान की, जिसकी कहानियों में उनका अंचल या जनपद उपस्थित था। जिन छह नये कहानीकारों का उन्होंने नामोल्लेख किया, उनमें से चार-रेणु, मार्कण्डेय, केशव मिश्र और शिवप्रसाद सिंह की कहानियां लोक-जीवन से जुड़ी थीं। उनका ध्यान कहानीकारों की 'लोकजीवन के अन्तर्वैयक्तिक सामाजिक संबंधों की समझ' पर था, जिसके बिना कहानी 'प्रौढ़' नहीं हो सकती थी। प्रतीकवादी कहानियों में उन्होंने अधिक संभावनाएं नहीं देखीं और कहानीकारों की भाषा की प्रशंसा की। कृश्नचन्दर की कहानियों के हिन्दी अनुवादों से जो एक लहर फैली थी, उसके क्षीण होने को उन्होंने अच्छा कहा। इस पहले लेख में नामवर ने ''हिन्दी कविता की अपेक्षा कहानी में स्वस्थ सामाजिक शक्ति अधिक'' देखी और यह लिखा - ''आज उपन्यास की तरह कहानी सामाजिक परिवर्तन के लिए जोरदार साहित्यिक शस्त्र का काम कर रही है।'' (वही, पृ. 17)
नामवर का दूसरा लेख 'नयी कहानी : सफलता और सार्थकता' (नववर्षांक, 1958, 'कहानी') पहली बार हिन्दी कथालोचना को 'एक नया स्तर' प्रदान करता है। इस लेख में पहली बार उन्होंने 'कहानीपन' की चर्चा की। पहले लेख में वे 'चढ़ाव-उतारहीन एकदम सपाट' कथानक की प्रशंसा कर रहे थे और ऐसी कहानियों को चे$खव से जोड़ रहे थे। दूसरे लेख में 'कहानीपन' की बात करने के पूर्व हिन्दी आलोचना में कहानी की उपेक्षा उन्हें नागवार लगी थी। कहानी को सामान्य, गौण या लघु विधा समझने पर उन्हें आपत्ति थी। यह जायज आपत्ति थी क्योंकि हिन्दी में प्रेमचन्द, यशपाल, जैनेन्द्र, अज्ञेय जैसे कहानीकार थे। हिन्दी में मोपांसा, चेखव और ओ हेनरी अजनबी नहीं थे। नामवर ने 'कथालोचना' को एक नये स्तर पर उठाने की बात की इसके लिए यह ज़रूरी था कि पहले की कहानी-संबंधी धारणा बदली जाय। नामवर अपने इस निबंध में कहानी की आलोचना के पक्ष में डटकर खड़े हुए। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि साहित्य के सभी रूपों में एक ही बात नहीं कही जाती। रूप की भिन्नता और विशिष्टता से वक्त में भी भिन्नता और विशिष्टता आ जाती है। उस समय हिन्दी आलोचना में यह एक नयी दृष्टि थी। साहित्य-रूपों पर पश्चिम में गंभीर विचार हुआ था और नामवर नयी से नयी किताबों के साथ थे। त्रिलोचन ने 'पुस्तक पगी आंखें' कहा भी है। इलाहाबाद का यूनिवर्सल बुक डिपो और बनारस का ग्लोब बुक डिपो उनकी अपनी जगहें थीं। वे उस समय 'टाइम्स लिटरेरी सप्लीमेंट', 'एनकाउन्टर', 'लंदन मैगजीन' आदि पत्रिकाएं न केवल पढ़ते थे। अपितु इन पत्रिकाओं में प्रकाशित नयी पुस्तकों की समीक्षाएं पढ़कर उन पुस्तकों को मंगाते भी थे। 1951 में उन्होंने इलाहाबाद से लुकाच की 'स्टडीज इन यूरोपियन रियलिज्म' खरीदी थी। 'कहानी' पर लिखते समय अंग्रेजी पुस्तकें खरीदने का और उन्हें पढऩे-गुनने का यह सिलसिला लम्बे समय तक बना रहा। ग्राम्शी का पहला संकलन 'मॉर्डन प्रिंस एंड अदर राइटिंग्स' 1957 में प्रकाशित हुआ था और उसी समय नेशनल लायब्रेरी, कलक्ता से वे यह पुस्तक लाए थे। 'कहानी: नयी कहानी' की भूमिका में उन्होंने जिस 'सहयोगी प्रायस' की बात कही है, वह उनकी उद्भावना न होकर एफ.आर. लीविस की है और 1953 के आस पास उन्होंने लीविस की यह किताब खरीदी थी - 'कॉमन परस्यूट'।
नामवर ने विभिन्न साहित्य रूपों में 'वास्तविकता के विभिन्न पहलुओं' को दिखाये जाने की बात कही। उनके अनुसार साहित्य रूप 'जीवन को समझने के भिन्न भिन्न माध्यम' हैं। कहानी के जन्म को उन्होंने 'ऐतिहासिक आवश्यकता' से जोड़ा। ऐसे समय में 'कहानी की ऐतिहासिक भूमिका की मांग' जायज थी। कहानी की सार्थकता की परीक्षा उस समय की परिस्थिति व्याप्क संदर्भ में किये जाने पर नामवर ने बल दिया। अभी तक गंभीरतापूर्वक इस पर विचार नहीं किया गया है कि पचास के दशक में यह विधा अन्य विधाओं की तुलना में अचानक कैसे महत्वपूर्ण हो गयी? क्या स्वतंत्रता के बाद समय के यथार्थ को, जीवन की वास्तविकताओं को सामने रखने के लिए यह साहित्य रूप ही प्रमुख रह गया था? इसे देखने-समझने का एक भिन्न और नयी दृष्टि का होना भी जरूरी था क्योंकि अभी तक कहानी को समझने की एक सतही और कामचलाऊ सामान्य धारणा थी, जिसमें कहानी को खंडित कर, विभक्त कर, विविध अवयवों के द्वारा देखा जाता था। नामवर ने कथानक, चरित्र, वातावरण, विषयवस्तु, उद्देश्य जैसी विभाजक दृष्टि को सही माना। इसी विभाजक दृष्टि के कारण कहानी या तो चरित्र प्रधान होती थी या घटना, वातावरण और भाव प्रधान। नामवर के लिए कहानी-संबंधी ऐसी आलोचना ''वैसी ही है, जैसे किसी भाषा का परिचय उसकी संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया, क्रिया विशेषण आदि परिभाषाओं में दिया जाये।'' (वही, पृ. 20) वे कहानी की इस 'विभक्त धारणा' के खिलाफ थे। वे कहानी को 'अनुभूति की एक इकाई के रूप में' देखने की बात कर रहे थे। इस रूप में न देखने के कारण ही कहानी का सत्य नहीं समझा जाता है और न कहानी का 'कहानीपन'। उन्होंने कहानी में वस्तु-सत्य के स्थान पर भाव-सत्य को महत्व दिया, जिससे कहानी का रूप बदलता है। अब वे 'कहानीपन' पर बल दे रहे थे। ''कविता में जो स्थान लय का है, कहानी में वही स्थान कहानीपन का है। कविता चाहे जिस हद तक छंद मुक्त हो जाये, लेकिन वह लयमुक्त नहीं हो सकती। लयमुक्त रचना काव्य होते हुए भी कविता नहीं कहलायेगी। कहानीपन से रहित गद्य रचनाओं के बारे में भी यही बात लागू होती है।''  (वही, पृ. 23) कहानी कहने को मनुष्य की प्राचीन कलावृत्ति मानने के साथ ही इसकी रक्षा को भी उन्होंने 'एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक कार्य' माना। 'इतिहास और आलोचना' लेखक में कुछ समय पहले आलोचना की अराजकता को दूर करने के लिए ही सही, वे आलोचना-कर्म को 'एक प्रकार प्रकृत्या सामाजिक और सांस्कृतिक कार्य' कहने के साथ 'व्यापाक रूप से सामूहिक तथा सहयोगी चिन्तन' ('इतिहास और आलोचना', 1962, पृ. 204) की अपेक्षा उससे कर रहे थे।
नामवर कहानी की आलोचना में कहानीपन, 'एकान्विति', सार्थकता, सोद्देश्यता, संकेत, लघुता, जीवन-खंड, मार्मिक प्रसंग, वृहद और खंडगत अन्तर्विरोध, विडम्बना, अर्थगर्भत्व को महत्व दे रहे थे। एडगर एलने पो ने कहानी में जिसे 'एकान्विति' कहा था, उसमें उन्होंने 'अनेक अर्थों की संभावनाएं' देखीं और कहानी की 'आन्तरिक एकता' को मात्र 'रूप-गठन' तक सीमित न मानकर कथा-वस्तु से जोड़ा। ''जिस प्रकार कविता में अर्थ-व्यंजना अथवा वस्तु-व्यंजना से भिन्न लय की कल्पना नहीं की जा सकती, उसी प्रकार कहानी में भी वस्तु-व्यंजना से भिन्न कहानीपन की कल्पना करना खतरनाक है।'' (वही, पृ. 24) कहानी की अर्थवत्ता या सार्थकता से उन्होंने कहानी की सफलता को जोड़ा। वे कहानी विधा को नये सिरे से विवेचित-विश्लेषित कर रहे थे। उनके पहले कथालोचना में ऐसा कार्य नहीं हुआ था। जगन्नाथ प्रसाद शर्मा की पुस्तक 'कहानी का रचना-विधान' का प्रकाशन नामवर के लेखों से पूर्व 1956 में हुआ था, वह कहानी पर 'व्यवस्थित और उल्लेखनीय किताब' थी, पर वहां उस दृष्टि का अभाव था, जो नामवर के लेखों में दिखाई पड़ती है। 'लघु मानव' की बात साही ने कही थी, नामवर ने कहानी में लघुता को केन्द्र में रखा। कहानी में 'सार्थकता' से उनका अभिप्राय छोटी-से-छोटी घटना में भी कहानी का अर्थ खोजना या उसे अर्थ प्रदान करना था। नयी कविता में 'व्यक्ति' और 'क्षण' का महत्व था। महत्वपूर्ण नदी नहीं थी, 'नदी के द्वीप' था। स्वतंत्र भारत जिस पूंजीवाद के मार्ग पर चल पड़ा था, जो विदेशी प्रभाव पड़ रहा था, उसमें बड़ी बात की जगह छोटी बात भी महत्वपूर्ण हो उठी थी। नामवर ने कहानी में जीवन के एक टुकड़े को महत्व देने की बात कही और यह लिखा कि जीवन के एक टुकड़े में भी बड़ी बात कही जा सकती है। पचास और साठ के दशक में समाजवादी पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी और कांग्रेस यों ही नहीं टूटी। नामवर कहानी में संकेत, लघुता और जीवन के एक टुकड़े को महत्व दे रहे थे। वे कहानी को नये सिरे से परिभाषित कर उसका एक शास्त्र (कथा शास्त्र) निर्मित करने का प्रयत्न भी कर रहे थे - ''कहानी जीवन के टुकड़े में निहित 'अन्तर्विरोध', 'द्वन्द्व', 'संक्रान्ति' अथवा 'क्राइसिस' को पकडऩे की कोशिश करती है और ठीक ढंग से पकड़ में आ जाने पर यह खंडगत अन्तर्विरोध की वृहद अन्तर्विरोध के किसी न किसी पहलू का आभास दे जाता है।'' (वही, पृ. 25) किसी भी जागरूक कहानीकार के लिए उन्होंने यह आवश्यक माना कि यह 'जीवन के प्रत्येक प्रसंग में निहित अन्तर्विरोध' को पकड़े। 'खंडगत अन्तर्विरोध की पकड़' से ही अच्छी कहानियों के कथानक में नाटकीय मोड़ आता है। यह पकड़ 'चरित्र को वस्तु-स्थिति के साथ संगर्ष करते दिखलाती है और कभी स्वयं उस चरित्र के भीतर संकल्प-विकल्प की दुविधा दरसाती है या फिर उसके चिंतन और कार्य के बीच विडम्बना को चित्रित करती है।' (वही) उदाहरण के रूप में 'चीफ की दावत' कहानी थी। इस कहानी में उन्होंने 'अर्थवत्ता के मध्ययुगीन रूप का भी उल्लेख करते हैं 'कहानी' जैसी आधुनिक विधा पर विचार करते हुए कहानी की अनेकार्थता और उसके 'अर्थगर्भत्व' को व मध्ययुगीन रुपों से ही नहीं, काव्यशास्त्र के आचार्यों द्वारा 'मुख्यार्थ के भीतर से अर्थ की व्यंजना' के जरिए भी स्पष्ट करते हैं। नामवर ने अपने इस दूसरे लेख में प्रत्येक घटना में अन्तर्विरोध को महत्व न देकर 'युग के मुख्य अन्तर्विरोध के प्रवाह में सार्थक घटनाओं को लक्षित करने' को महत्व दिया। इस समय तक उनके लिए सामाजिक अन्तर्विरोध के प्रवाह में सार्थक घटनाओं को लक्षित करने को महत्व दिया। इस समय तक उनके लिए सामाजिक अन्तर्विरोध महत्वपूर्ण था। वे सार्थक घटना को 'युग के मुख्य अन्तर्विरोध के प्रवाह में' देख रहे थे। यह बड़ी बात थी क्योंकि उनके लिए इस समय तक 'युग' महत्वपूर्ण था। सुरेन्द्र चौधरी ने इसे 'समकालीन इतिहास की लाक्षणिकता के प्रति एक जागरूक आलोचक का कन्सर्न' कहा है। (हिन्दी कहानी: रचना और परिस्थिति, 2009, पृ. 129) उस समय यह अन्तर्विरोध 'सामान्य' और 'तीखा' नहीं था। बाद में सुरेन्द्र चौधरी ने 'गतिरोध और अग्रगामी अन्तर्विरोध' की बात कही। नामवर ने बाद में भी सामाजिक अन्तर्विरोध के बदलते रूपों पर भी अधिक ध्यान नहीं दिया। इस दूसरे लेख की एक बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने 'नव-जीवन के प्रतीक गांवों की ओर' दृष्टि दौड़ाने वाले कहानीकारों की चर्चा की। कहानी की ग्रामोन्मुखता के संबंध में उन्होंने लिखा- ''संभवत: शहरों के मध्यवर्गीय जीवन में जीवन और सौन्दर्य को न पाकर ही महत्वाकांक्षी कहानीकारों ने गांवों की राह ली।'' (कहानी: नयी कहानी, वही, पृ. 29) प्रेमचन्द के बाद हिन्दी कहानियों से गांव लगभग गायब हो चुके थे। कहानी में मध्यवर्ग की सशक्त उपस्थिति हो चुकी थी। नामवर ने मध्यवर्गीय  जीवन की कहानियों में 'जीवन के स्वस्थ सौन्दर्य और मानव की उर्जूस्वल शक्ति का अभाव' (वही) देखा। उस समय 1958 में वे रांगेय राघव की गदल, मार्कण्डेय के गुलरा के बाबा और हंसा जाई अकेला के हंसा, शिवप्रसाद सिंह की कहानी 'कर्मनाशा की हार' ने भैरों पांडे को मात्र चरित्र न मानकर 'आज की ऐतिहासिक शक्ति' के प्रतीक कह रहे थे। ऐतिहासिक शक्ति के इन प्रतीकों को थोड़ी ही दिनों बाद भुला दिया गया। मित्र त्रयी (कमलेश्वर राजेन्द्र यादव और मोहन राकेश) की कहानियों का दूर-दूर तक गांवों से संबंध नहीं था। नामवर ने भी उन कहानीकारों पर, जिन्हें 'ग्राम कथाकार' कहा गया था, बाद में ध्यान नहीं दिया। 1958 तक वे नयी कहानी को केवल कहानी-कला की विशेषताओं से नहीं देख रहे थे। 'सम्पूर्ण साहित्य के मान और मूल्यों के संदर्भ में देखने की आवश्यकता' पर बल दे रहे थे। यह कहानी-समीक्षा की एक व्यापक और सुसंगत दृष्टि थी। कुछ अपवादों को छोड़कर हिन्दी कहानी व्यापक जीवन से जुड़ी रही है। लुकाच ने 'स्टडीज इन यूरोपियन रियलिज़्म' में 'कलात्मक सौन्दर्य का प्रतिमान' जीवन को माना है। आलोचक का यह दायित्व है कि वह उन रचनाओं को केन्द्र में रखकर, जिनमें व्यापक जीवन है, सीमित जीवन की कहानियों से अलग कर अपनी आलोचना में भी जीवन को गरिमा प्रदान करे। नामवर की कथालोचना क्या सदैव व्यापक जीवन वाली कहानियों के साथ चल सकी? क्या उन्होंने 'कहानी समीक्षा के संतुलित प्रतिमान' तैयार किए?
उनकी कथालोचना पर क्रमवार (वर्षवार) विचार करने से यह स्पष्ट होता है कि 'परिन्दे' को लेकर उन्होंने जो लिखा, वह किंचित रूप में ही सही, उनके पूर्व के निबंधों में दिखाई पड़ता है। अपने आरंभिक दो निबंधों में निर्मल वर्मा की 'कहानियों पर उनका ध्यान नहीं था। अपने तीसरे निबंध 'नयी कहानी : नये प्रश्न' ('कहानी' नववर्षांक, 1959) में उन्होंने नये कहानीकारों में निर्मल की कहानियों पर अधिक विचार किया। अपने इस लेख में वे 'नयी कविता के लिए बदनाम शब्दों (अन्वेषण, प्रयोग नयी संवेदना, सांकेतिका, सम्प्रेषणीयता, जटिलता, दुरुहता, बिम्ब, प्रतीक आदि)' को कहानी में भी प्रयुक्त होते देखते हैं और यह प्रश्न करते हैं ''क्या कहानी पर भी नयी कविता हावी हो रही है?'' (वही, पृ. 31) आलोचना पर जब नयी आलोचना (न्यू क्रिटिसिज्म) हावी हो रही हो, तो कहानी पर नयी कविता कैसे हावी नहीं होती? प्रश्न साहित्य रूपों का नहीं, उस समय की पहचान का है जो 'साहित्य की पहचान' के लिए ही नहीं, आलोचना की पहचान के लिए भी ज़रूरी है। नामवर ने कहानी के तीन दौरों की बात की है पहले दौर में वह कही - सुनी जाती थी, दूसरे दौर में लिखी-पढ़ी जाने लगी और तीसरा दौर समझने-समझाने का है। कहानी में 'सम्प्रेषणीयता' का प्रश्न पहले नहीं उठा था। सम्प्रेषणीयता की कठिनाई को 'गहरे सांस्कृतिक संकट के लक्षण' के रूप में देखना कथालोचना का एक व्यापक परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत करना था। जहां तक कहानी में 'आधारभूत विचार' का प्रश्न है, अगर वह पाठकों की पकड़ में नहीं आता, तो इसका एक मुख्य कारण कहानी में संकेत और प्रतीक की प्रमुखता है। सांकेतिकता को 'दूरारुढ़' और 'हठाकृष्ट' मानने के बाद भी नामवर इसे नयी चीज नहीं मानते। पहले के कहानीकार भी इसे महत्व देते थे, पर नये कहानीकार इसका 'अक्सर सहारा' लेते हैं। कहानी में वे इसे किसी एक स्थल पर न देखकर अनेक स्थलों पर देखते हैं - एक दूसरे से जुड़े 'देह में जैसे रक्त अथवा प्राण' नयी कहानी के समूचे रूप-गठन (स्ट्क्चर) और शब्द-गठन (टेक्सचर) को उन्होंने सांकेतिक मानना और नयी कहानी को 'प्रभाव की सम्पूर्ण अन्विति को सांकेतिक बनाने' का श्रेय दिया। नये कहानीकारों की दृष्टि 'कथानक' और 'चरित्र' पर न रहकर 'वातावरण' पर थी, जो उनकी कहानियों का 'अलंकरण नहीं, बल्कि अन्त:करण' है। वे नये कहानीकारों में कथानक और चरित्र की तुलना में वातावरण, पर अधिक ध्यान देने के कारणों का खुलासा नहीं करते और 'बिम्बों द्वारा निर्मित वातावरण' पर विचार करते हैं। नयी कविता में जिस प्रकार बिम्बों का महत्व है, उसी प्रकार नये कहानीकार बिम्बों की ओर क्यों आकर्षित हुए? 'कहानी में बिम्ब-विधान और वातावरण का सार्थक' प्रयोगकर्ता उन्होंने निर्मल को माना, राकेश, यादव, शेखर जोशी और शिवप्रसाद सिंह की कहानियां भी उदाहरण रूप में प्रस्तुत की। नयी कहानी और नयी कविता में बिम्बों की इस प्रधानता के कारणों पर उनका ध्यान नहीं गया। क्या इसका स्वतंत्र भारत के बिम्ब-निर्माण से कोई संबंध था? पचास के दशक में जिस भारत का बिम्ब-निर्माण हो रहा था, वह पहले के भारत से भिन्न था। स्वातंत्र्य-पूर्व हिन्दी कविता और हिन्दी कहानी में ('छायावाद' को छोड़कर) नये बिम्बों का निर्माण कम था। कहानीकारों के नये बिम्बों को नामवर 'कहानीकारों के विकसित ऐन्द्रिय बोध' और 'सजीव मार्मिक वातावरण' को कहानीकार की संवेदनाशीलता से जोड़ रहे थे। यह कहानीकार की आवश्यक शर्तें नहीं हो सकतीं। कवियों के लिए ऐन्द्रियबोध और संवेदन पक्ष का होना जरूरी है। कहानियों के लिए विचार-पक्ष का। स्वाभाविक था इन दृष्टियों से निर्मल वर्मा नामवर को कहानीकारों में 'सबसे अधिक प्रभावशाली' लगे 'परिन्दे' और 'दहलीज' कहानी उन्होंने उदाहरण स्वरूप रखी। 'परिन्दे' को 'नयी कहानी की पहली कृति' घोषित करने के पूर्व अपने तीसरे निबंध में उन्होंने नये कहानीकारों में इन दो गुणों-वातावरण और बिम्ब-निर्माण के कारण निर्मल की प्रशंसा की - ''ऐसे ही सजीव बिम्बों द्वारा ही निर्मल की कहानियां मनु में वे संवेदनाएं जगा जाती हैं, जिन तक दूसरे कथाकारों के चरित्र और कथानक भी कभी-कभी नहीं पहुंच पाते।'' (वही, पृ. 34) शब्द, शब्द-गठन, शब्द-विन्यास कविता में प्रमुख होते हैं। 'छायावाद' में नामवर ने 'रूप विन्यास' और 'पद-विन्यास' पर स्वतंत्र रूप से विचार किया था। 'रूप-विन्यास' को उन्होंने 'आन्तरिक सौन्दर्य-भावना का परिणाम' ('छायावाद'; 1979, पृ. 93) कहा था और 'शब्द-समूह' को 'रूप-विन्यास का मूल धन' (वही, पृ. 109) अब वे अपने तीसरे निबंध में कहानी के रूप-गठन और शब्द गठन पर विचार कर रहे थे। कविता की आलोचना में जो 'विन्यास' था, वह कहानी की आलोचना में 'गठन' हो गया। मात्र शब्द-भेद! अब वे 'टेक्स्चर' के कारण निर्मल की कहानियों की प्रशंसा कर रहे थे - ''कहानी में वाक्यों की श्रृंखला इतनी लयबद्ध चलती है कि सम्पूर्ण विन्यास अनजाने ही मन की संगीत को लहरों पर आरोह-अवरोह के साथ बहाता चलता है।'' (कहानी: नयी कहानी, पृ. 34) अब कहानी में रस-बोध प्रमुख हो गया। सम्प्रेषणीयता 'इस-बोध के विविध स्तरों की प्रेषणीयता'  हो गयी। रामचन्द्र शुक्ल 'रसात्मक बोध के विविध रूप' पर विचार कर चुके थे। कहानी के पहले महत्वपूर्ण आलोचक कहानी में 'रस बोध के विविध स्तरों' पर ध्यान दे रहे थे। दूसरी ओर उनका ध्यान उन कहानीकारों पर भी था जो ''कहानी को कविता के तंग दायरे की ओर घसीट डालना चाहता है।'' (वही पृ. 38) उन्होंने यह कहा था- ''इतनी विशाल और समृद्ध जिन्दगी का जंगल सामने लहरा रहा है और आप हैं कि जाने किन सूक्ष्म मान्यताओं और रूढ़ प्रतीकों के 'ऐब्स ट्रैक्शन्स''' में झक मार रहे हैं। इन बातों के लिये दर्शन या एक हद तक कविताएं कुछ कम हैं? फिर इस जिन्दगी की मांसलता और छोटी-छोटी बातों के ब्यौरों में बिखरी हुई ठोस वास्तविकता का चित्रण कौन करेगा?... जिन्दगी की इस सम्पूर्णता को गद्य वाणी नहीं देगा तो कौन देगा? (वही) यह सच है कि अपने इस तीसरे निबंध में नामवर 'प्रतीक और संकेत के फिसलन भरे रास्ते' की बात करते हैं, बारीक संकेत से 'कहानी के सर्वथा विचार शू्न्य हो जाने का भारी खतरा' देखने के साथ 'अनुभूति', 'सौन्दर्य' और 'कला' से अधिक दृष्टिकोण पर बल देते हैं, 'सादगी' और 'सच्चाई' के लिहाज से अमरकान्त को 'आदर्श' मानते हैं, जिनकी भाषा में 'प्रेमचन्द की परम्परा का अद्यतन विकास' है, पर कहानी को बेदी की 'लाजवन्ती' की तरह 'बेहद नाजुक कला' भी कहते हैं जो ''अत्यन्त संवेदनशील हाथों की अपेक्षा रखती है। ज्यादा कलाबाजी से भी कुम्हला सकती और रुखे हाथों के स्पर्श से भी।''(वही, पृ. 40) सवाल यह है कि आलोचक कहानी को कैसे देखे? अगर कहानी 'नाजुक कला' है, तो आलोचक को भी 'संवेदनशील' होना चाहिए। फिर बच जाता है पाठक, जिसका 'विचारवान' होना जरूरी है। पाठक को विचारवान बनाने में आलोचक की क्या भूमिका बनती है। आलोचक अगर कहानी को 'नाजुक कला' नहीं, बेहद नाजुक कला मानता है, तो इस दृष्टि से जो कहानी-समीक्षा होगी, क्या वह 'व्यापक समीक्षा पद्धति के निर्माण की दिशा' भी तय करेगी?
'परिन्दे' पर लिखने के पूर्व ही नामवर कहानी को संगीत कला और चित्रकला से समझने-समझाने की कोशिश कर रहे थे। 1959 की 'कहानी' में प्रकाशित दो लेखको - 'नयी कहानी-नये प्रश्न' (नववर्षांक) और 'आज की हिन्दी कहानी: ऐतिहासिक नवीनता और उपलब्धियां' (जुलाई) में उन्होंने यह कार्य किया। अपने चौथे लेख में उन्होंने 'विविध गद्य रूपों तथा कविता के बीच, आपसी विनिमय' की बात कही। 'साहित्य की सभी विधाओं को आपस में आदान-प्रदान' करते हुए देखा, 'ऐतिहासिक नवीनता' के कारण कहानी की सार्थकता की बात की और यह माना कि ''समीक्षा-विचार में इस ऐतिहासिक नवीनता को पकडऩा पहली आवश्यकता है।''(वहीं, पृ. 43) क्या थी यह ऐतिहासिक नवीनता? आजादी एक बड़ी घटना थी। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद मार्क्सवाद और प्रगतिशील शक्तियों के विरुद्ध मुख्यत: पचास के दशक में विश्व की साम्राज्यवादी-पूंजीवादी शक्तियों ने वैचारिक और साहित्यिक, क्षेत्रों में पूंजीवादी विचारधारा का प्रचार-प्रसार आरंभ किया। 'यथार्थवाद' के स्थान पर 'अनुभववाद' और 'कलावाद' को महत्व दिया जाने लगा। 1955 में 'कांग्रेस और कल्चरल फ्रीडम' से जुड़े लेखकों ने 'स्वतंत्रता के भविष्य' पर विचार विमर्श किया था। 'एनकाउंटर' इस संगठन का मुख पत्र था, जिसमें विचारधारा के अंत की बात कही गयी थी। नामवर इस पत्रिका के नियमित पाठक थे। आजादी के बाद भारत में एक साथ कई दिशाएं खुल चुकी थीं। 1957 के बाद औद्योगीकरण पर अधिक बल दिया गया। नामवर 'यथार्थ' पर नहीं वास्तविकता पर ध्यान दे रहे थे। कहानी का संबंध 'यथार्थ' से है पर नामवर अपनी कथा-समीक्षा में 'यथार्थ' और 'यथार्थवाद' जैसे शब्दों के प्रयोग से बचते हैं। वे जिस ऐतिहासिक नवीनता की बात करते हैं, वह बदला हुआ यथार्थ था। इस बदले हुए यथार्थ के कारण ही नयी कहानियों का कोई एक स्वर नहीं था। मोहन राकेश 'नये बादल' (1957) की भूमिका में अपेक्षाकृत ठहरे हुए यथार्थ के बजाय 'कुलबुलाते यथार्थ' का सवाल उठा चुके थे और राजेन्द्र यादव ने 'जहां लक्ष्मी कैद है' (1957) की भूमिका में 'उफनाते बलबलाते जीवन' के संदर्भ में 'जिन्दगी और जोंक' के रजुआ की जिजीविषा की दाद दी थी। भारतीय यथार्थ की बहुस्तरीयता और बहुत संरचनात्मकता पहले की तुलना में कहीं अधिक सुस्पष्ट रूप से पचास के दशक के साहित्य में दिखाई पड़ती है। 'यथार्थवाद' को नामवर ने अरुण प्रकाश से हुई बातचीत ('बात बात में बात', 2008) में 'पराई शब्दावली' कहा है। ''जान-बूझकर मैंने 'वास्तविकता' शब्द का इस्तेमाल किया, कि इसमें गुंजाइश है कि हम यथार्थवाद वाले दुश्चक्र से निकलकर अपने कथा-साहित्य पर बात कर सकें।'' (वही, पृ. 207) 'ऐतिहासिक नवीनता' को बदले यथार्थ से समझा जा सकता है या ''वास्तविकता'' से? यथार्थ ठहरा हुआ नहीं होता और 'यथार्थवाद' का भी कोई एक रूप नहीं होता। जिस प्रकार उन्नीसवीं-बीसवीं सदी के 'यथार्थ' में अंतर है, उसी प्रकार इन दोनों सदियों के यथार्थवाद में भी अरुण प्रकाश को बातचीत में वे डिकेन्स, दोस्तोवस्की, तोलस्तोय के यर्थावाद का अंतर बताते हैं और चौबीस घंटे का यथार्थ लिखने वाले जेम्स ज्वायस के यहां एक भिन्न प्रकार का यथार्थवाद देखते हैं। ''मैंने 'वास्तविकता' को अपेक्षाकृत सुरक्षित समझकर अपनाया'' (वही प. 206) शायद ही कोई ऐसा प्रमुख कथा-समीक्षक हो, जिसने अपनी कथा-समीक्षा में 'यथार्थ' और 'यथार्थवाद' की अनदेखी कर 'वास्तविकता' पर ध्यान केन्द्रित किया हो। नामवर ऐसे अकेले कथा-समीक्षक हैं। उनके लिये 'विचार' से अधिक 'संवेदना' महत्वपूर्ण है। ''वास्तविकता के विकसित रूप को विकसित संवेदना के द्वारा ग्रहण'' की बात उन्होंने कही। वे 'समकालीन यथार्थ' की न के बराबर चर्चा करते हैं। यह कार्य सुरेन्द्र चौधरी ने किया। नामवर ने अपने पहले निबंध में 'यथार्थवाद की विजय का पहला उद्घोष' चेखव में देखा था। उसके बाद के निबंधों में उन्होंने 'यथार्थवाद' से परहेज किया। जिस निर्मल वर्मा की उन्होंने प्रशंसा की, उस निर्मल वर्मा ने चेखव की कहानी से कहानी का अंत घोषित किया। ''चेखव की कहानी 'कहानी' का अंत है, ... उसके बाद 'कहानी' वह नहीं रह सकेगी, जिसे आज हम 'कहानी' की संज्ञा देते आये हैं : प्रश्न चेखव की परम्परा को बढ़ाने का नहीं, उससे मुक्ति पाने का है।'' (नयी कहानी : लेखक के बही खाते से, धर्मयुग, जनवरी 1962, 'नयी कहानी : संदर्भ और प्रकृति', 1966 में संकलित)
'कहानी' में लिखे गए नामवर के चार लेख उस समय के हैं, जब वे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में थे। 1959 में चकिया-चंदौली लोकसभा उपचुनाव में वे कम्युनिस्ट पार्टी के प्रत्याशी थे। चुनाव हार गए। जुलाई 1959 में वे सागर विश्वविद्यालय में गए। मई 1960 में यह नौकरी छूटी। जून 1960 में बनारस आए। 'परिन्दे' कहानी-संग्रह के प्रकाशन के तुरंत बाद इसकी समीक्षा 1960 में आकाशवाणी, इलाहाबाद से प्रसारित हुई। 'नवलेखन हिन्दी मासिक पत्र 'कृति' का प्रकाशन 1958 से आरंभ हो चुका था। प्रवेशांक से ही नामवर 'कृति' से जुड़े हुए थे। अक्टूबर 1960 की 'कृति' में 'परिन्दे' पर उन्होंने 'कालातीत कला-दृष्टि' शीर्षक से विचार किया, आकाशवाणी वाली समीक्षा की आरंभिक पंक्ति है - ''$फ$कत सात कहानियों का संग्रह 'परिंदे' निर्मल वर्मा की ही पहली कृति नहीं है, बल्कि जिसे हम 'नयी कहानी' कहना चाहते हैं, उसकी भी पहली कृति है।'' (कहानी: नयी कहानी, वही प. 52) अपने पहले के चार निबंधों में वे जिस 'नयी कहानी' और 'आज की कहानी' की चर्चा कर रहे थे, उससे सर्वथा भिन्न यह स्थापना थी। अपने चौथे लेख में उन्होंने प्राय: सभी नये कहानीकारों की एक साथ पहली बार चर्चा की थी - मार्कण्डेय, भीष्मसाहनी, मोहन राकेश, अमरकान्त, राजेन्द्र यादव, निर्मल वर्मा, कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी आदि की, उनमें से अब केवल निर्मल वर्मा अलग किये जा रहे थे - नये कहानीकार के रूप में। वजह क्या थी? ''परिन्दे' से यह शिकायत दूर हो जाती है कि हिन्दी कथा-साहित्य अभी पुराने सामाजिक संघर्ष के स्थूल धरातल पर ही 'मार्क टाइम' कर रहा है। समकालीनों में निर्मल पहले कहानीकार हैं, जिन्होंने इस दायरे को तोड़ा है - बल्कि छोड़ा है; और आज के मनुष्य की गहन आंतरिक समस्या को उठाया है।'(वही) नामवर के लिए 'सामाजिक संघर्ष' गौण था। 'मनुष्य की गहन आतंरिक समस्या' प्रमुख थी। यह नयी कहानी की असंगत आलोचना थी। 'परिन्दे' संग्रह में 'तीसरा गवाह' कहानी भी है। इस कहानी को लेकर केदारनाथ सिंह ने नामवर के 'गद्गद् रहने' की बात लिखी है- 'लगभग बच्चे की तरह पुलकित' (नामवर के विमर्श, 1995, पृ. 80) निर्मल में ऐसी कौन सी खूबी थी, जो अन्य किसी नये कहानीकार में नहीं थी? वह थी 'मनुष्य की गहन आन्तरिक समस्या'। अपने पहले लेख में नामवर ने कहानी को 'सामाजिक परिवर्तन के लिए जोरदार साहित्यिक शस्त्र' का काम करते हुए देखा था। अब उनके लिए सामाजिक परिवर्तन और संघर्ष 'हाशिए पर' भी नहीं था। यह तब, जब केरल में कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार खत्म की जा चुकी थी। नामवर ने निर्मल की कहानियों की जानी-पहचानी स्थितियों को 'इतिहास की विराट नियति' बनकर खड़ी देखा और कहानी का तक मामूली सा वाक्य भी एक युग व्यापी प्रश्न बन जाता है।'' (कहानी : नयी कहानी, पृष्ठ 52) 'परिन्दे' कहानी में पक्षियों के झुंड को देखकर लतिका का यह प्रश्न था, 'क्या वे सब प्रतीक्षा कर रहे हैं? लेकिन कहां के लिए, हम कहां जाएंगे।' नामवर को यह 'व्यक्तिगत प्रश्न' नहीं लगा था। इस प्रश्न को कहानी के अन्य पात्रों - डाक्टर मुखर्जी, मि. हयूबर्ट से ही नहीं, सबसे वे जोड़ते हैं - ''देखते-देखते प्रेम की एक कहानी मानव-नियति की व्यापक कहानी बन जाती है और एक छोटा-सा वाक्य पूरी कहानी को दूरगामी अर्थवृत्तों से वलयित कर देता है। (वही) सब कुछ बुद्धि पर निर्भर करता है।'' द्विवेदी जी का कथन है - ''बुद्धि हो तो मनुष्य क्या नहीं कर सकता।'' आलोचकीय बुद्धि वैसे भी सामान्य बुद्धि से भिन्न, विशिष्ट, नयी और मौलिक होती है। नामवर की लतिका के प्रश्न से चेखव की कहानियों में गूँजनेवाले प्रश्न की याद आती है - ''वह प्रश्न जिसकी गूँज उन्नीसवीं सदी के सारे रूसी कथा-साहित्य और सामाजिक चिन्तन में बार-बार सुनाई पड़ती है। जैसे सारा जमाना एक साथ पूछ रहा हो कि क्या करें?'' (वही, पृष्ठ 53) क्या लतिका का प्रश्न स्वतंत्र भारत का प्रश्न था? 'प्रतीक्षा' 'सितम्बर की एक शाम' के युवक की 'सारी दुनिया' कर रही थी कि वह 'उसे अर्थ दे'। नामवर ने निर्मल की इस कहानी में 'बेकारी से बड़ा अर्थ ध्वनित' देखा। ध्वन्याचार्य ने कविता में 'ध्वनि' को महत्व दिया था। नामवर ने उसे कहानी में घटित किया। एक वाक्य में उन्होंने 'संभावना और व्यर्थता का अन्तर्विरोध' दिखाई दिया। नामवर की खूबी अर्थ-निरुपण में है। वे निर्मल की कहानी में समकालीन भारत का मुख्य प्रश्न 'पीड़ा भरी प्रतीक्षा' देखते हैं, लतिका की समस्या को 'स्वतंत्रता या मुक्ति की समस्या' कहते हैं। यह कैसी मुक्ति है? ''अतीत से मुक्ति, स्मृति से मुक्ति'', उस चीज से मुक्ति 'जो हमें चलाए चलती है और अपने रेले में हमें घसीट ले जाती है।' (वही) निर्मल की कहानियों को उन्होंने, 'मुक्ति की पीड़ा की अभिव्यंजना' कहा। इतिहास से अपने को मुक्त करने को 'इतिहास और आलेचना' का लेखक महत्व दे रहा था। कुछ कहानियों की कुछ, पंक्तियों से उन्होंने यह साबित किया ''ये कहानियां जविन की विभिन्न स्थितियों के संदर्भ में आज के सबसे बड़े मानव-मूल्य-मानव-मुक्ति को परिभाषित करती हैं।'' निर्मल-संबंधी नामवर के उस समय के 'बहुमूल्य' विचार पर विस्तारपूर्वक आज भी विचार करने की ज़रूरत इसलिए है कि इसने प्रत्यक्ष, परोक्ष रूप में हिन्दी कहानी, कथालोचना को समझने की एक 'नामवरीय' दृष्टि प्रदान की। बाद में नामवर से जिन वार्ताकारों ने 'परिन्दे' को लेकर जो सवाल किए हैं, उनमें सुरेश पाण्डेय के सवाल बड़े ठोस और महत्वपूर्ण हैं जिन पर बाद में विचार किया जाएगा। नामवर ने 'परिन्दे' वाले लेख में 'दुर्लभ अनुभूति-चित्र', 'संवेदनशील नया गद्य' 'प्रभाव उत्पन्न करने की कला', 'चरित्र, वातावरण, कथानक आदि का कलात्मक रचाव', 'मानव-चरित्र का प्रकृति का अंग' होना, 'अनमोल तत्वों को एक 'रुप' में रचना', 'संगीत का-सा प्रभाव उत्पन्न करने में समर्थ आदि गुणों-वैशिष्टयों की बात की।' निर्मल की कहानियों में संगीत वातावरण-चित्रण के साथ संगत के राग धर्म और अनुभवों को अर्थ प्रदान करता है। पहली और अंतिमबार (हिन्दी) कहानी के इस संगीतधर्मी पक्ष पर विचार कर नामवर ने संगीत कला और कहानीकला को एक साथ जोड़ा। उन्होंने निर्मल की सम्पूर्ण रचना प्रक्रिया को संगीत धर्मी कहा। रेणु का 'ठुमरी' कहानी-संग्रह 'परिन्दे' कहानी-संग्रह के पहले प्रकाशित हुआ था। उसकी भूमिका 'स्वर लिपि' में रेणु ने अपने को 'ठुमरी का कथा गायक' कहा था। रेणु हिन्दी के अकेले कथाकार हैं, जिन्होंने अपनी कहानियों को स्वर-संगीत से जोड़ा। नामवर अकेले कथालोचक हैं, जिन्होंने निर्मल की कहानियों के संगीत पक्ष पर विचार किया। निर्मल और रेणु की कहानियों के संगीत पक्ष पर अभी विचार नहीं किया गया है। निर्मल आलोचना पर अलग से विचार की जरूर है। कई कहानियों में बेकार नवयुवकों के जरिए 'विशद प्रतीक्षा' की ओर पाठकों का ध्यान दिलाया गया। निर्मल की 'पैनी दृष्टि' पर नामवर की 'पैनी दृष्टि' पड़ी। 'परिन्दे' का डॉक्टर मुखर्जी लतिका से कहता है कि किसी चीज को जान-बूझकर न भूल पाना, उससे हमेशा जोंक की तरह चिपटे रहना गलत है। नामवर चीज से जोंक की तरह चिपटे रहने को देख रहे थे, पर जोंक की तरह जिन्दगी से चिपटे रहने वाले रजुआ को नहीं देख रहे थे। 'परिन्दे' पर विचार करते समय अमरकान्त को याद करना जरूरी नहीं था। यह कार्य बाद में किया और अपने पक्ष में, 'पीड़ा भरी प्रतीक्षा' के पक्ष में 'डिप्टी कलक्टरी' कहानी को भी याद किया।
निर्मल की कहानियों के प्रभाव-पक्ष पर विस्तारपूर्वक विचार कर नामवर ने उसके पीछे 'जीवन की गहरी समझ और कला का कठोर अनुशासन' देखा। और अन्त में उनका यह कथन ''निर्मल ने स्थूल यथार्थ की सीमा पार करने की कोशिश की है। उन्होंने तात्कालिक वर्तमान का अतिक्रमण करना चाहा है, उन्होंने प्रचलित कहानी-कला के दायरे से भी बाहर निकलने की कोशिश की है, यहां तक कि शब्द की अभेद दीवार को लांघकर शब्द के पहले के 'मौन जगत' में प्रवेश करने का भी प्रयत्न किया है और वहां जाकर प्रत्यक्ष इन्द्रिय-बोध के द्वारा वस्तुओं के मूल रूप को पकडऩे का साहस दिखलाया है। इसीलिए उनकी कहानी-कला में नवीनता है, भाषा में नव जातक की-सी सहजता और ताजगी है, वस्तुओं के चित्रों में पहले-पहल देखे जाने का अपरिचित टटकापन है।'' (वही, पृ. 64-65) कहानी-आलोचना में अब यथार्थ के लिए ही नहीं, 'वास्तविकता' के लिए भी कोई जगह नहीं थी। सारे नये कहानीकार एक ओर और निर्मल वर्मा एक ओर। अकेले नये कहानीकार निर्मल और 'परिन्दे' नयी कहानी की पहली कृति। निर्मल की कहानियों पर नामवर जितना मुग्ध हुए, उतना कोई आलोचक या कथाकार मुग्ध नहीं हुआ। जिस वर्ष उन्होंने 'परिन्दे' की समीक्षा की, उसी वर्ष (1960) मोहन राकेश ने 'नई कहानियां' के अपने स्तंभ 'बकलम खुद' में 'परिन्दे' की समीक्षा 'उदास धड़कनें' शीर्षक से की थीं। निर्मल की विशेषता उनके बिम्ब विधान में देखते हुए राकेश ने निर्मल को 'एक विशेष मूड का कहानीकार' कहा था और यह सवाल किया था ''लेखक की सब कहानियों में वही एक-सा मूड ही क्यों है और क्यों वह जिन्दगी के अलग-अलग मूड को अंकित करने में अपने को नहीं रमा पाया।'' (बकलम खुद, 1974, पृ. 40) मोहन राकेश के लिए अपने चरित्रों के साथ कहानीकार की संलग्नता ठीक नहीं है और उनकी कहानियों में व्यक्ति और यथार्थ के स्थान पर भावनाएं और संवेदनही प्रमुख हैं। नामवर ने निर्मल में 'कालातीत दृष्टि' देखी थी और मोहन राकेश ने 'कालातीत क्षण'। नामवर की विशेषता यह है कि वे काल से होड़ लेते शमशेर के भी प्रशंसक हैं और 'कालातीत दृष्टि वाले निर्मल के भी। उनकी आलोचना समय से जुड़ी हैं और समय से परे भी है। उनकी स्थापनाएं आकर्षित करती हैं और विवाद भी उत्पन्न करती हैं। निर्मल की कहानियों को लेकर उनके द्वारा की गयी स्थापनाओं में से एक को सुरेन्द्र चौधरी ने उनके मंतव्य के विरोध में देखा है। वह यह कथन है, ''निर्मल के मानव चरित्र प्राकृतिक वातावरण में किसी पौधे, फूल या बादल की तरह अंकित होते हैं, गोया वे प्रकृति के ही अंग हैं'' (कहानी : नयी कहानी, वही, पृष्ठ 56) सुरेन्द्र चौधरी ने 'मानवीय अस्तित्व की प्रकृति से इस अनुरूपता' को 'एलियनेशन की उस आधुनिक संवेदना' से अलग माना है जिसके लिए निर्मल की प्रशंसा की जाती है। (हिन्दी कहानी : रचना और परिस्थिति, 2009, पृष्ट 112) उन्होंने निर्मल की कहानियों के संसार को 'अनुभवों का पुतलीथर' कहा। उनकी कहानियों के जिस 'एकान्वित प्रभाव की प्रशंसा नामवर ने की, वह अनुभवों के गढऩे से जुड़ी है, सुरेन्द्र चौधरी ने लिखा है ''अनुभव गढऩे की कला कोई पू्रस्त से सीखे।'' (वही) निर्मल वर्मा नयी कहानी में 'आउट साइडर' की तरह हैं। नामवर ने उन्हें केन्द्र में रख दिया। उन्होंने निर्मल की कहानियों में बिम्ब, टेक्स्चर, सिम्फनी की तारीफ की। बिम्ब, ध्वनियां, रंगादि ऐन्द्रिय बोध से जुड़े हैं और यथार्थ का इससे गहरा संबंध नहीं हैं। नामवर ने कविता के, विशेषत: छायावादी कविता के विश्लेषण में इसका उपयोग किया था और निर्मल के यहां भी लगभग ऐसी ही खूबियां उन्होंने देखी - तलाशी; उनका मार्क्सवाद निर्मल की कहानियों के विवेचन में औंधे मुंह जा गिरा था। जिस कहानीकार ने स्थूल यथार्थ की सीमा पार करने की कोशिश की, नामवर उसके साथ हुए सुरेन्द्र चौधरी ने अपना विरोध 'आन्तरिकता' से नहीं, 'आन्तरिक रूप से रिक्त विचारधारा' से माना है। शब्दों के अर्थ-संबंध को लांघ कर शब्दों के मूल (!) को पकडऩे की बात करना आलोचकीय साहस था। मार्क्सवादी दर्शन के सामने ही नहीं, किसी भी 'सुसंगत चिन्तन' में ऐसी पंक्तियां खारजि हो जायेंगी ''चाहे वह भाववादी चिन्तन ही क्यों न हो।'' (वही, पृष्ठ 128)
कहानी की आलोचना चित्रकला और संगीतकला के साथ, उससे जोड़कर नहीं की जा सकती। कविता का अन्य ललित कलाओं से संबंध है, पर कहानी का नहीं। कहानी का सीधा संबंध यथार्थ से हैं। गोगोल रूस के महान यथार्थवादी कथाकार थे और तुर्गनेव ने यह कहा था कि हम सभी गोगोल के 'ओवरकोट' से निकले हैं। प्रेमचंद की कहानियों का महत्व यथार्थ के कारण है। नामवर जिस निर्मल वर्मा के प्रशंसक हैं, उस निर्मल वर्मा को, 'हमेशा दुविधा' होती थी, जब कोई कहानी में 'यथार्थ' की चर्चा करता है। जनवरी 1962 के धर्मयुग के अपने लेख में (नयी कहानी : लेखक के बही खाते से) निर्मल ने 'यथार्थ' को एक पक्षी की तरह झाड़ी में छिपा माना था - 'उसे वहां से जीवित निकाल पाना उतना ही दुर्लभ है, जितना उसके बारे में निश्चित रूप से कुछ कह पाना, जब तक वह वहां छिपा है... तब अगर झाड़ी पर ज्यादा दबाव डालोगे तो वह मर जाएगा, या उड़ जाएगा।' ('नयी कहानी : संदर्भ और प्रकृति', वही, पृ. 180) कथा-साहित्य का जन्म जिस यथार्थवाद से हुआ था, उसे केवल निर्मल ही नहीं, नामवर भी कहानी में मुख्य नहीं मान रहे थे। 'कहानी और फैंटेसी' लेख में नामवर ने व्यंग्य के लहजे में कहा था - 'यथार्थवाद जिन्दाबाद!' कहानी में वर्तमान का महत्व था। पचास के दशक पर बात करते हुए नामवर उस समय के यथार्थ पर, एक नये भारत पर हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं, पर यथार्थ के नाम पर नितान्त वर्तमान से चिपकना उनकी दृष्टि में एक प्रकार का 'कछुआ धर्म' है। मार्क्सवादी आलोचकों ने किसी यथार्थवाद, से पल्ला नहीं झाड़ा था। लुकाच ने यूरोपीय यथार्थवाद को हमारे सामने रखा। नामवर भारतीय यथार्थवाद पर विचार नहीं कर सके। प्रेमचन्द की कहानियों का महत्व उनके यथार्थवाद के कारण है। उनके यहां घटना, चरित्र और समय-समाज के प्रश्न प्रमुख हैं। नामवर ने भी अभी तक ऐसा प्रेमचन्द पर नया मूल्यांकन नहीं किया है कि उसे शिल्प, संवेदना भाषा और बिम्ब से देखा जाये। कहानी की चर्चा में उन्होंने जान बूझकर यथार्थवाद शब्द छोड़ा। ''यथार्थ के गज से कहानी समझाने की कोशिश की जाएगी तो न जाने कितने व्यक्तिगत यथार्थ हैं? दलित यथार्थ है? यथार्थवाद एक सिद्धान्त है। सिद्धान्तों से कहानी नहीं बनती, संवेदना से बनती है। उस संवेदना की कोई जाति नहीं होती। कोई धर्म नहीं होता। कोई मजहब नहीं होता। मानवीय संवेदना कहां किस रूप में दिखाई पड़ती है, उससे जांच होती है कहानी की।'' (हिन्दी कहानी की एक सदी, साहित्य की पहचान; 2012, पृ. 185)
पचास के दशक में, जब नामवर कथालोचना में सक्रिय थे, 'विचारधारा के अंत' के जरिए यथार्थवाद का विरोध किया जा रहा था। साहित्य में यथार्थवाद की अपनी भूमिका और परम्परा थी। आलोचनात्मक और सामाजिक यथार्थवाद ही नहीं, क्रान्तिकारी यथार्थवाद भी था। कला साहित्य के क्षेत्र में इससे पूंजीवादी शक्तियों का खतरा था। यथार्थवादी विचारधारा से लेखकों को अलग करने के लिए, कथा साहित्य को अलग करने के लिए यथार्थवाद के विरुद्ध कला-सिद्धान्त लाये गए, लेखक की यथार्थ दृष्टि और सामाजिक दृष्टि के बदले कला-दृष्टि की बात और वह भी कथा-साहित्य में, न संयोग था, न आकस्मिक थी। स्वतंत्र भारत पूंजीवाद के मार्ग पर चल पड़ा था। नेहरु की मिश्रित अर्थ-व्यवस्था में एक साथ निजी और सार्वजनिक उपक्रम थे। नयी कहानी की समीक्षा में नामवर की प्रगतिशीलता नहीं दिखाई पड़ती है। 'कविता के नये प्रतिमान' (1968) के एक दशक पहले, 'इतिहास और आलोचना' (1957) के बाद नामवर में 'रूपवाद' का तीव्र आकर्षण दिखाई पड़ता है। पश्चिम में कहानी और उपन्यास दोनों को यथार्थवाद से नहीं जोड़ा गया। वहां कहानी की 'नितान्त आत्मपरक, लिरिकल' माना गया था। भारत में यह स्थिति नहीं थी। जहां तक मार्क्सवादी विचारधारा का सवाल है उसमें विचारधारा को रूप-तत्व में समृद्ध-विकसित करने वाले भी रहे हैं। सुरेन्द्र चौधरी ने नामवर की इस कमजोरी - 'रूप-तत्व से मार्क्सवाद को विस्तृत करने' को पहचाना है। वे 1930 के उन दस्तावेजों का जिक्र करते हैं ''जो आना जेगर्स और लुकाच के बीच बहस के मुद्दे बने थे... आना जेगर्स का विचार था कि पश्चिमी रुप तत्व से मार्क्सवाद की विचारधारा को विस्तृत किया जा सकता है। लुकाच ने इसका विरोध किया था। उसके अनुसार पश्चिमी रूपतत्व एक पतनशील व्यवस्था की उपज था और उसकी भूमिका लगभग नगण्य थी।'' (हिन्दी कहानी : रचना और परिस्थिति, 2009, पृ. 223)
'पाठ-प्रक्रिया' शब्द नामवर का दिया हुआ है। उनकी नवीन, मौलिक दृष्टि अनेक बार पाठकों को चकित करती है। हिन्दी में पहली बार उन्होंने कहानी पढऩे की प्रक्रिया पर विचार किया। अंग्रेजी में डा. जानसन ने साधारण पाठक का महत्व पहचाना था। नामवर वर्जीनिया वुल्फ के 'द कॉमन रीडर' से प्रभावित थे। वर्जीनिया वुल्फ ने भी साधारण पाठक पर ध्यान दिया था। नामवर यह जानते थे कि 'क्राफ्ट आफ फिक्शन' का पर्सी ल्युबक ने पाठक के हाथ में सौंपा है। उन्हें इन सबसे दृष्टि मिली और 'हाशिए पर' के पहले लेख 'साधारण पाठक: सहज दृष्टि: कहानी-पाठ की प्रक्रिया' में 'ठोस पाठक' अर्थात 'वास्तविक पाठकों का साहित्यिक समाज' तैयार करने की उन्होंने बात कही। स्वतंत्र भारत में मतदाता महत्वपूर्ण हो गया था। कहानी में पाठक का महत्वपूर्ण होना स्वाभाविक था। नामवर की यह चिन्ता थी कि जिस प्रकार तोल्सतोय, चेखव और तुर्गनेव के कथा-चरित्र पाठकों के जीवन के अंग बन गए, उस प्रकार हमारे यहां के कथा चरित्र पाठकों के जीवन-अंग क्यों नहीं बने? जनवरी 1961 की 'नई कहानियां' में इस लेख का शीर्षक था 'साधारण पाठक: सहज दृष्टि', 'कहानी: नयी कहानी' में इसमें 'कहानी पाठक की प्रक्रिया' जोड़ा गया। कथा-समीक्षा की अगर कोई शास्त्रीय प्रणाली बनी होती, उसकी सैद्धान्तिकी निर्मित हुई होती तो पाठकों का विशेष महत्व नहीं रह जाता। वे एफ.आर. लीविस से प्रभावित थे और लीविस ने 'लिटरेऱी क्रिटिसिज्म एण्ड फिलासफी' में आलोचक का कार्य मूल्यांकन के प्रतिमानों का निश्चित या सूत्रबद्ध करना नहीं माना था। उन्होंने आलोचक को दार्शनिक से और आलोचना-प्रक्रिया को दर्शन से भिन्न माना था। कहानी-पाठ की प्रक्रिया को सामने रखते हुए उन्होंने पुरानी-नयी, देशी-विदेशी कहानियों पर विचार किया। 'हाशिए पर' में उन्होंने जिन अठारह कहानियों पर विचार किया है, वे प्रेमचन्द की 'मुक्तिमार्ग, सुजान भगत', जयशंकर प्रसाद की 'स्वर्ग के खंडहर में' व जैनेन्द्र की 'नीलम देश की राजकन्या', अज्ञेय की 'पठार का धीरज', विष्णु प्रभाकर की 'धरती अब भी घूम रही है', द्विजेन्द्र लाल मिश्र 'निर्गुण'  की 'एक शिल्पहीन कहानी', मार्कण्डेय की 'सतह की बातें', राजेन्द्र यादव की 'अभिमन्यु की आत्महत्या', 'छोटे छोटे ताजमहल', निर्मल वर्मा की 'तीसरा गवाह', रघुवीर सहाय की 'कहानी की कला' 'सेव', उषा प्रियंवदा की 'वापसी', जिन्दगी और गुलाब के फूल, का$फ्का की 'मेटामार्फोसिस', चे$खव की 'अन्ना आन दि नेक' और हेमिंग्वे की 'किलर्स' हैं। नये कहानीकारों में उन्होंने केवल चार राजेन्द्र यादव, मार्कण्डेय, निर्मल वर्मा और उषा प्रियम्वदा की कहानियों का चयन किया। इन सभी कहानियों के अलग-अलग विश्लेषण से उन्होंने कहानी-पाठ की एक 'पद्धति' अपने ढंग से विकसित की। कहानी को कई कोणों से देखा। इस लेखमाला का विशेष महत्व है। नामवर कहानी और नयी कहानी दोनों के प्रमुख और महत्वपूर्ण आलोचक के रूप में सामने आए।
'हाशिए पर' के निबंध लिखते समय वे पूरी तरह कहानी में डूबे हुए थे। केदारनाथ सिंह ने लिखा है कि वे रोजना शाम को कहानी के संबंध में चर्चाएं करते थे और विजय मोहन सिंह के अनुसार 'हाशिए पर' वाले निबंध लिखते समय वे 'बुक वार्म' की तरह पुस्तकालय में पुस्तकें ढूंढ़ते थे। ('नामवर के विमर्श'वही, पृ. 80, 74) 'हाशिए पर' के निबंधों में वे एक साथ सात्र्र, वर्जीनिया वुल्फ, पर्सी ल्युषक, विटगेन्स्टाइन, मार्क्स, का$फ्का, आर्नल्ड केटिन, अरस्तू, ई.एम. फोस्र्टर, मार्क शोरर, ओ'हेनरी, मोपासाँ, हेमिंग्वे, जेम्स ज्वायस, आइज़क बैबेल, बेकन, बर्तोल्त ब्रेख्त, एलेनटेट, विक्टर श्क्लोव्सकी, तोलस्तोय, एडर्विन बेरी बर्गम, फिलिप रैव, टी एस इलियट, प्रोफेसर लेेविस, रिल्के, उमथ चौधरी, जार्ज लुकाच, शेरवुड एंडरसन, डी.एच.लारेंस, रॉब ग्रिए, प्रेमचन्द को उद्धृत करते हैं। केवल मोरिस बोदीं का कहीं कोई जिक्र नहीं है, जिनकी पुस्तक 'कंटेम्पोरेरी शॉर्ट स्टोरीज' से उन्होंने सुरेन्द्र चौधरी के अनुसार 'हाशिए पर' के लगभग सभी सूत्र लिए हैं। ('कहानी: प्रक्रिया और पाठ', पृ. 129) नामवर ने 'पाठक' को इतना अधिक महत्व दिया कि 'कथानक' को एक प्रकार से बहिष्कृत किया और कथानक उनकी दृष्टि में 'पाठक द्वारा सहूलियत के लिए किया गया संक्षेपण' था। ई.एम. फोस्र्टर ने 'आस्पेक्ट्स आफ नावेल' में 'स्टोरी' और 'प्लाट में अंतर किया था। फोस्र्टर की उपन्यास-संबंधी स्थापना को मार्क शोरर ने 'दि स्टोरी: ए क्रिटिकल एन्थोलॉजी' में कहानी पर लागू किया था यह पुस्तक 1961 में प्रकाशित हुई थी। नामवर ने यह किताब उसी समय पढ़ी थी और वे इससे प्रभावित थे। शिवदान सिंह चौहान ने उपन्यास संबंधी फोस्र्टर की स्थापना को कहानी पर लागू करना 'गलत और बेतुका' बताया था, जिसका नामवर ने खंडन किया था और मार्क शोरर को अपने पक्ष में खड़ा किया था। नामवर ने कहानी-संबंधी उस पूर्व धारणा, जिसमें 'कथानक' का अपना महत्व था, प्रहार किया और 'कथानक' से 'रहस्य की ध्वनि' निकलने की बात कही। 'रचनाधर्मी कहानी की संश्लिष्टता' लेख में उन्होंने लिखा - ''कथानक की उद्भावना को साहित्य में काफी छोटा कार्य माना गया है और सृष्टि के उच्चतम स्तर पर वह अवान्तर रहा है'' (कहानी: नयी कहानी, वही, पृष्ठ 109) 'कहानी' में लिखे अपने पूर्व लोगों ने भी कथानक-संबंधी उनकी धारणा थी, वही बाद में और प्रबल रूप में दिखाई पड़ी। नामवर ने 'कथानक' को कहानी का 'कारण-तत्व' नहीं माना। वे जब कहानी में विचार तत्व की प्रमुखता नहीं देखते तो यह विचार उन्हें कहानी को सर्वथा एक भिन्न दृष्टि से देखने की ओर ले जाता है। कहानी में 'कथानक' और 'विचार' को गौण मानने के बाद ही निर्मल की कहानियों की प्रशंसा की जा सकती थी। उन्होंने यह माना कि कहानी-संबंधी प्रचलित धारणा के कारण पाठकों की कहानीकारों की दृष्टि धुंधली हुई। नामवर ने अपने लेखों में इस धुंधली दृष्टि को ठीक किया या कहानी के संबंध में एक अलग धुंधली दृष्टि विकसित की? उनके लिए 'कहानी' में केवल प्रभाव महत्वपूर्ण है। 'प्रभावान्विति' वाला तर्क उनके सामने था। ''कथानक चरित्र, वातावरण आदि संबंधी जाने कितनी ही विशेषताएं हैं, जो जिनका उपयोग उस प्रभाव को व्यक्त करने के लिए किया जाता है, जो प्रबाव कोई कहानी हमारे मन पर छोड़ती है।'' (वही, पृ. 108) कहानी-कला संगीत-कला बन गई।
नामवर ने कथानक का धरातल केवल घटनाओं का धरातल माना, जबकि कथानक का संबंध चरित्र-व्यापारों से भी हैं। मोरिस बोंदी ने अपनी पुस्तक की भूमिका में 'कथानक' को केवल घटनाओं से ही नहीं, चरित्र से भी जोड़ा था। नामवर ने 'हर कहानी को किसी विचार के रूप में निचोड़कर रख लेना हमेशा मुमकिन नहीं' माना है। (कहानी: नयी कहानी, वही, पृष्ठ 113) सुरेन्द्र चौधरी ने यह लिखा है कि नामवर का यह कथन ठीक है, पर 'भावना का क्षेत्र', 'विचारों से नितान्त स्वतंत्र' नहीं है। लियोनार्ड ट्रिलिंग की 'लिबरल इमैजिनेशन' की भूमिका में उधृत गेटे और वडर्स वर्थ का हवाला देते हुए यह कहते है कि 'कहानी में विचार' मानवीय भावात्मक संबंधों के क्षेत्र से भी आ सकते हैं और क्रियात्मक संबंधों के क्षेत्र में भी। ''नामवर के लिए कहानी स्वयं एक प्रक्रिया है, जिससे लेखक लिखते समय गुजरता है और पाठक पढ़ते समय। वे कहानी लिखने की तरह कहानी पढऩे की भी प्रक्रिया मानते हैं, उनके लिए 'पढऩा' एक बड़ी जिम्मेदारी है। वह 'रचनात्मक कार्य' है और 'अनुवाद' भी।'' ''कहानीकार यदि कला-सिद्ध है तो पाठक के लिए चुनौती है कि उस कला की सिद्धि की प्राप्ति में स्वयं कहानीकार से आगे निकल जाये।'' (वही, पृ. 75) नामवर कहानी के विश्लेषण से पाठक के 'सहज बोध' को उद्बुद्ध और प्रबुद्ध करते हैं। उनकी कहानी-आलोचना की पद्धति विश्लेषणात्मक है। यह विश्लेषणात्मक पद्धति छोटी कविताओं के विश्लेषण में अपनाई गई थी। अगर कथा-समीक्षा की पद्धति काव्य-समीक्षा की पद्धति ही है, तो वह भिन्न कैसे हुई? 'कहानी: नयी कहानी' की भूमिका में नामवर ने जनवरी 1962 के 'एसेज इन क्रिटिसिज्म' में 'पत्रिका' के सम्पादक और अंग्रेजी के जागरूक समालोचक एफ. डब्ल्यू. वेटसन एवं बी. शाहेविच द्वारा प्रस्तुत कैथरीन मैन्सफील्ड की कहानी 'मक्खी' का विश्लेषण देखकर संतुष्ट होने की बात कही है। 'कहानी-समीक्षा में काव्य-समीक्षा की पद्धति का बलात् उपयोग करने की उनकी जो आलोचना की गयी थी, उसका उत्तर उन्होने वेटसन और शाहेविच की समीक्षा पद्धति से दिया है। अपने पक्ष और समर्थन में अन्य आलोचकों को ढाल की तरह इस्तेमाल करना अपनी कमजोरी का प्रमाण है। दो भिन्न विधाओं की समीक्षा-पद्धति एक कैसे हो सकती है? नामवर ने यह अनोखा कार्य कहानी से कथानक, घटना, चरित्र, यथार्थ को किनारे कर संभव किया। छोटी कविताओं के लिए कथानक अनिवार्य नहीं होता। वह कहानी के लिए अनिवार्य है। इस अनिवार्यता को हटाकर उन्होंने कविता के साथ कहानी को खड़ा कर दिया। कविता की खूबी, उसकी अनेकार्थता है। नामवर ने कहानी में संकेत और अनेकार्थता को महत्वपूर्ण माना। कहानी का विधागत वैश्ष्टिय है। उसका यथार्थ से अविच्छिन्न संबंध है, जिसे विच्छिन्न किया गया। नामवर की खूबी यह है कि उन्होंने एक साथ 'पश्चिम के फिक्शन क्रिटिसिज्म' और 'न्यू क्रिटिसिज्म' दोनों से सहायता ली। हिन्दी कथालोचना-संबंधी उनकी दृष्टि उन्हीं तक सीमित रह गयी। यह अवश्य स्वीकार किया जाना चाहिए कि उन्होंने कहानी-संबंधी जो एक नयी दृष्टि दी और जिस तरह से कहानी-पाठ को महत्व दिया, उसका निश्चित रूप से महत्व है। वे कहानी के विश्लेषण में नये और मौलिक रहे, पर उस विश्लेषण से स्वतंत्र भारत की कथा-यात्रा का कोई चित्र नहीं उभरता। यह समकालीन यथार्थ को तिलांजलि देकर संभव भी नहीं था। कहानी का 'झूठ' से रिश्ता तब था, जब वह सुनी-सुनाई जाती थी। जासूसी, ऐय्यारी, भूतप्रेत, देव-दानव, परियों-फरिश्तों की कहानियां अवास्तविक थीं। लिखे जाने के बाद कहानी यथार्थ से जुड़ गयी। नामवर ऐन्द्रजालिक कहानियों को 'समय के सिमटते दायरे' को तोड़ते देखते हैं। कहानी उनके लिए समय की कला है। ''समय के साथ कहानी अनेक प्रकार की कलाएं दिखाती है। कभी वर्षों को समेटकर एक क्षण में बांध देती है; कभी क्षण को खोलकर पात्रों में फैला देती है; कभी समय के दायरे को तोड़ती है तो कभी टुकड़ों को जोड़कर एक दायरा बनाती है।'' (वही, पृ. 80) ये कहानी कला की दृष्टि से अधिक विचार करते हैं। रघुवीर सहाय ने लिखा है, जहां अधिक कला होगी, परिवर्तन नहीं होगा। नामवर की कहानी-समीक्षा इस परिवर्तन के विरुद्ध है। कहानी पर अपने पहले लेख के अंत में वे कहानी को 'सामाजिक परिवर्तन के लिए जोरदार साहित्यिक शस्त्र' के रूप में देख रहे थे। नामवर की कथा-समीक्षा ही नहीं, पूरी समीक्षा ही परिवर्तन के विरुद्ध है। सामाजिक-सांस्कृतिक महत्व से अधिक उसका साहित्यिक महत्व है। अपनी कथालोचना के आरंभ में जहां वे कॉडवेल के साथ हैं, वहां बाद में लीविस और 'न्यू क्रिटिसिज़्म' के साथ। यह मार्क्सवादी आलोचक का रूपवादी विकास है। अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने कहानी की दुनिया में 'विचार-धाराओं के अंत' को 'बहुत अच्छी बात' कहा हैं। मार्क्सवाद और मार्क्सवादी विरोध दोनों को विचारधाराएं, मानकर उन्होने यह 'अफसोस' प्रकट किया है कि ''हमारी पहली पीढ़ी के लोगों में से कई लोग इन दोनों में किसी न किसी से आज भी ग्रस्त हैं।'' ('बात बात में बात', 2006, पृ. 257)
'फेंटेसी' उनके लिए 'ऐतिहासिक तथ्य' न होकर 'जीवित सत्य' है। जैनेन्द्र की कहानी 'नीलम देश की राजकन्या' उनके अनुसार वास्तविक फैंटेसी नहीं है। इस कहानी में जैनेन्द्र की दृष्टि आत्मवादी है। कहानी में राजकुमार एक 'वहम' है और ''वहम से पैदा होने वाली फैंटेसी' कला नहीं, बल्कि कला का वहम पैदा करती है।' (कहानी: नयी कहानी, वही, पृ. 85) प्रसाद ने कल्पना शक्ति से स्वर्ग का निर्माण किया और पैनी यथार्थ दृष्टि से उसे नष्ट भी किया अर्थात कहानीकार में कल्पना दृष्टि के साथ 'यथार्थ दृष्टि' का भी होना आवश्यक है। नामवर की कथा-समीक्षा में कई अन्तर्विरोध है। अर्थान्वेषण में वे अकेले और अप्रतिम है, जिससे आलोचक की मौलिकता का पता चलता है। वे मुख्यत: व्यावहारिक समीक्षक हैं। जहां तक किसी कृति को पसंद और नापसंद का सवाल है, उसमें तार्किकता नहीं है। रचना के भीतर से वे अपनी पसंद के स्थलों का चयन करते हैं, उसे विस्तारित कर बाद में औचित्य प्रदान करते है। उनकी आलोचना प्रभाव उत्पन्न करती है, जिसमें एक कौंध और चमक है, वस्तुनिष्ठता नहीं। साधारण जीवन पर उनका ध्यान नहीं है। वे इसके बीच से उद्घाटित होने वाले जीवन-सत्य को रेखांकित करते है। 'हाशिए पर'  लिखे गये लेखों में उन्होंने उन कहानियों पर विचार किया है, जिनकी ओर पाठकों का ध्यान नहीं गया था। जो 'क्लासिक्स' थे, उन पर उनकी नज़र थी और कहानियों के विश्लेषण से उन्होंने यह दिखाया कि कहानी-समीक्षा की एक पद्धति यह है! बेशक, यह एक नयी पद्धति थी, पर कविता में पहले से यह लागू की जा चुकी थी। छायावादी कविता के विवेचन-विश्लेषण में उन्होंने जो पद्धति लागू की, उसका एक बड़ा हिस्सा कहानी के विश्लेषण में भी अपनाया। कहानी उनके लिए एक 'सार्थक घटना' है और कहानी का पहला कार्य इस घटना का अर्थ उद्घाटित करना है। उनके सामने हेमिंग्वे, ज्वाइस, का$फ्का, चेखव, आइजक बैवेल की कहानियां थीं - 'ईसप' के 'फेबुल' से मिलती-जुलती, महत्व कहानी के छोटे होने का नहीं था। 'छोटी है मगर कहानी तो है।' कहानी के 'पिंड' में 'ब्रह्माण्ड' का दर्शन वे कर रहे थे। इस दृष्टि-निर्माण में पश्चिम के कथालोचकों की भी भूमिका थी। अमरीकी समीक्षक एडविन बेरी वर्गम ने चेखव की एक अल्प परिचित कहानी 'अन्ना आन दि नेक' की जो व्याख्या की थी, वह नामवर को पसंद आई थी। बर्गम में इस कहानी के केन्द्रि बिंदु में अन्ना को न रखकर उसके उन दो छोटे भाइयों को रखा था, जो कहानी में केवल दो बार आते हैं और केवल दो-दो शब्द बोलते हैं। कहानी का ऐसा अर्थोद्घाटन मुख्यत: चेखव की कहानियों से आरंभ हुआ था। पश्चिम में आधुनिक कहानी का आरंभ हॉथार्न और एडगर एलेन पो से माना गया है। उन्नीसवीं सदी से इस विधा का आरंभ हुआ था। रुस और फ्रांस के कहानीकारों ने 'कहानी' का आधुनिक रूप स्थिर किया था। पो के यहां कहानी का आदि, मध्य और अंत था, पर चे$खव के यहां नहीं, चेखव ने ही पहली बार कहानियों में 'मूड' को महत्व दिया। ओ'हेनरी प्लॉट के मास्टर थे, पर चे$खव के यहां कहानी के प्लाट का कोई महत्व नहीं था। निर्मल ने चेखव की कहानियों का 'अन्त' देखा। 'कहानी की मृत्यु' की चर्चा निर्मल ने 1962 में की थी। निर्मल ने चेखव की परम्परा से मुक्ति पाने की बात कही- ''प्रश्न चेखव की परम्परा को बढ़ाने का नहीं, उससे मुक्ति पाने का है।'' 'प्रेमचन्द की परम्परा' भी उनके लिए 'सिर्फ एक छाया' थी - 'अप्रासंगिक'। पचास के दशक में कहानी से गोर्की बाहर हो चुके थे और चेखव आ गये थे। चेखव की कहानी 'अन्ना आन दि नेक' की बर्गमीय व्याख्या से प्रभावित होकर नामवर ने लिखा - ''क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि कहानी में जिन चरित्रों का महत्व नगण्य हो और जो कहानी के घटना-विन्यास में कोई भूमिका अदा न करते हों, उन्हीं में कहानी का वक्तव्य निहित हो।'' (कहानी: नयी कहानी, वही, पृ. 115) इसके लिए यह आवश्यक था कि कहानी बार-बार पढ़ी जाए। अब कहानी सामान्य पाठक से दूर विशिष्ट पाठक तक जा पहुंची थी। नामवर का कहानी के मूल पाठ पर बल और उसमें 'गहन अर्थ-संभावना' और 'संकेतिकता की तलाश' मुख्य थी। आलोचक का काम हुआ 'कहानी में स्थूल-सूक्ष्म संवेदनाओं की ओर संकेत दिखाना यह सबके वश की बात नहीं थी, न है। कहानी का अभिप्रेत, मूल आशय को समझने-समझाने में आलोचक की बड़ी भूमिका नहीं थी।' कहानी ही बताएगी कि उसका मूल अभिप्रेत कहां है? नामवर ने लिखा - 'न ये समझने की बातें हैं, न समझाने की।' (वही)
ई.एम. फोस्र्टर ने कहानी-संबंधी कुतूहल को 'हेम' कहा था। नामवर कहानी में 'कुतूहल का तेज' भी देख रहे थे। उसने कहा था कहानी को उन्होंने केवल कहानी न कहकर 'कहानी की एक परिभाषा भी' कहा। जिस 'कुतूहल' से कहानी का जन्म हुआ था, वह 'कहानी-संबंधी बोध का सबसे निचला स्तर' क्यों माना गया? नामवर कहानी में कुतूहल को परिवर्तन में दिलचस्पी और नए की संभावना में विश्वास के रूप में देख रहे थे। कहानी के जितने पक्ष हो सकते हैं, सब पर उनकी नजर थी। उनके सामने अलिफ लैला की शहरजाद थी और निर्मल की लतिका भी। किसी एक दृष्टि से दोनों को ही नहीं, कहानी के इस लम्बे इतिहास को भी देखना असंभव था। 'पठार का धीरज' कहानी को जिस तरह देखा जा सकता था, उस तरह 'किलर्ज़' को नहीं। प्रश्न एक साथ कई थे, कहानी का, नयी कहानी  का, अच्छी कहानी का। क्या यह 'सहयोगी प्रयास' से संभव था? बड़ी बात थी 'कहानी की अचूक पहचान'। ''एक अचूक पहचान के आगे समीक्षा के सैकड़ों सिद्धान्त फीके हैं।'' (वही, पृ. 133) सिद्धान्त को लीविस ने महत्व नहीं दिया था। नामवर कैसे देते? ''सिद्धान्त तो एक पहचान को केवल 'सर्व सामान्य' रूप देने का कार्य करते हैं, ...सिद्धान्त के द्वारा उस पहचान को अधिक से अधिक एक ठोस, वस्तुगत एवं युक्तिसंगत आधार मिलता है।'' (वही) नामवर के पास कभी कोई मानदण्ड नहीं रहा। ''यदि है तो एक प्रयोग की चुनौती।'' (वही, पृ. 134) उनके सामने यह समस्या थी (शायद अब भी हो!) कि अच्छी कहानी का निर्णय कैसे किया जाये? विषय वस्तु, कला-कौशल, सम्पूर्ण प्रभाव ('पड़ा' और 'ग्रहण किया हुआ') में से किसी एक को नहीं लिया जा सकता था। भाषा-शैली की प्रशंसा 'आलोचनात्मक असामथ्र्य' का सूचक है। हेमिंग्वे की कहानी 'किलर्स' की भाषा की प्रशंसा की गयी थी। उन्होने इस भाषा को एक विशेष प्रयोजन से जोड़ा। ''यह आदिम भाषा मनुष्य को नितान्त आदिम स्थितियों में चित्रित करने के लिए है।'' (वही, 121) विषयानुसार कहानियों की चर्चा उनके लिए बेमानी थी। वर्गीकृत कहानियों वर्गीकृत विज्ञापनों की याद दिलाती हैं। कहानियों के वर्ग बनने से पाठकों के भी वर्ग बनते हैं, जिससे कहानीकार 'टाइप' कहानियां लिखने को मजबूर होता है। उस पर पाठक की मांग का असर पड़ता है, जो कहानीकार के लिए घातक है। तब ''कहानी एक भोंड़े यथार्थवाद या यथातथ्यवाद के स्तर पर उतरने के लिए लाचार है।''(वही, 123)
नामवर ने 'हाशिए पर' के सभी निबंधों में कहानियों पर बड़ी गहराई से विचार किया है। उनके इस विचार से कथालोचना के जो सूत्र बनते हैं, उसे उन्होंने सूत्र बद्ध नहीं किया। इस सूत्रबद्धता के वे खिलाफ रहे हैं। कहानी उनके लिए मुख्यत: एक 'कलाकृति' है, जिसे कई कोणों से देखा जाना चाहिए। ये कोण, दृष्टिकोण पूर्ण निर्धारित नहीं हैं। कहानी को लेकर वे कई प्रश्नों से जूझते रहे हैं। कहानी के कई स्तर हैं और सभी स्तर 'परस्पर समानान्तर सहजीवी और संयुक्त' हैं (वही, पृ. 112) अंग्रेजी के प्लाट 'शब्द के 'षडयन्त्र', 'कुचक्र' आदि रहस्यपरक अर्थों की न केवल उन्होंने बात की, बल्कि गंभीर कथाकारों द्वारा 'प्लॉट' के प्रति प्रकट की गयी वितृष्णा का भी उल्लेख किया। यह दूसरी बात है कि ऐसे 'गंभीर कथाकारों' के उन्होंने नाम नहीं बताए। विचार से आरंभ होने वाली कहानियों ने उनके अनुसार गलती की (वही, पृ. 127) और दूसरी ओर 'एक छोटे से विचार-कण में' उन्होने वह 'शक्ति' देखी, ''जैसे एक विशाल खनिज़-राशि में से निकाला हुआ परमाणु।'' (वही, पृष्ठ 124) यह 'विचार' और 'विचार-कण' के बीच का अंतर है। कला और साहित्य के क्षेत्र में 'नवअन्वेषण की वृत्ति' ही नामवर के अनुसार सृजनशीलता है। प्रश्न जीवन और समाज-संबंधी भावबोध भी नवीनता और प्राचीनता का है। 'वापसी' कहानी का भावबोध नया है और 'एक शिल्पहीन कहानी' का पुराना। कहानी में जटिलता जरूरी है। विष्णु प्रभाकर की कहानी 'धरती अब भी घूम रही है' में सब कुछ साफ है। नामवर भावुक एवं भाव-प्रवण कहानियों में भेद करते हैं, कहानियों में 'संयोग-घटित घटनाओं' की सही आलोचना करते हैं, भावुकता को 'एक निश्चित जीवन-दृष्टि का परिणाम' मानते हैं, कहानी के विभिन्न अवयवों के 'आन्तरिक समवाय' को आवश्यक समझते हैं, छोटी-सी घटना में भी 'निरपेक्ष मानवीय सत्य' को उद्घाटित करते हैं, पुरानी जीवन-दृष्टि की तुलना में नयी जीवन-दृष्टि को महत्व देते हैं। वे कहानी का जिस कौशल और खूबी से 'अन्तरंग विश्लेषण' करते हैं, वह अनोखा और अनूठा है। इस अन्तरंग विश्लेषण के लिए कहानी पढऩे की पद्धति को ''परिष्कृत बनाने की आवश्यकता है। मुख्य प्रश्न पद्धति का है प्रतिमान का नहीं... साहित्य-समीक्षा में भी बने-बनाए प्रतिमानों की अपेक्षा पाठ-प्रक्रिया पर जोर देने की ज़रूरत है... एक अरसे से यथाशक्ति मैं वही कार्य कर रहा हूँ और अपने ख्याल से सैद्धान्तिक ढंग से सामान्य बातें न कहते हुए भी सिद्धान्तों के निर्माण में योग दे रहा हूं।'' (वही, पृ. 163) यह सच है कि नामवर ने कहानी-संबंधी पूर्ववर्ती धारणा बदली और कहानी को नये कोणों से देखने की एक नयी दृष्टि दी। यह नयी दृष्टि-कथा-दृष्टि उनकी काव्य-दृष्टि से क्या सचमुच भिन्न है? उन्होंने अपने ढंग से कहानियों को रेखांकित-विश्लेषित किया, पर 'नयी कहानी : नये संदर्भ' (माया, नववर्षांक 1965) लेख जो कहानी-संबंधी उनका अंतिम लेख है  'कहानी: नयी कहानी' का 'प्रतिपत्ति' खंड के आरंभ में आयरिश लेखक फेंक ओ'कोन्नार को उद्वत किया है, जिन्होंने कहानी को 'समाज की सरदों पर लड़ी जाने वाली गुरिल्ला लड़ाई' माना है। हिन्दी में कहानी पर विपुल चर्चा और 'दूसरे देशों में इस विषय पर एकदम सन्नाटा' क्यों था? हिन्दी कहानी पर विपुल चर्चा का मुख्य कारण स्वतंत्र भारत की बदली स्थितियों से था। आजाद भारत में कई परिवर्तन हो रहे थे। इस विविधता को कविता से अधिक कहानी समेट सकती थी। कहानी के इस नये उत्थान का यह एक प्रमुख कारण था। इस अंतिम लेख में नामवर ने 'इतिहास के पूरे परिदृश्य में वस्तु स्थिति को स्पष्ट' किया है। दो वर्ष बाद नामवर कहानी पर यह लेख लिख रहे थे। दिसम्बर 1962 के 'हाशिए पर' अपने स्तंभ के बाद। इसके पहले 1964 में धर्मयुग में प्रतिनिधि नयी कहानियों की एक श्रृंखला प्रकाशित हो चुकी थी। जिसमें पिछले एक दशक के महत्वपूर्ण छब्बीस कथाकारों की कहानियां थी। 1960 से 1964 के बीच नयी कहानी पर कई लेख लिखे जा चुके थे। कई गोष्ठियां हो चुकी थी। बाद में 24, 25, 26 दिसम्बर 1965 को कलकत्ता में भारतीय संस्कृति संसद ने कहानी पर एक बड़ा आयोजन किया था।
नामवर के अंतिम लेख में कहानी-दशक की विस्तृत चर्चा है। कहानी में उन्होने नयी कहानी वाली पीढ़ी के गतिरोध तोड़कर आने की बात कही है। 'पीड़ा भरी प्रतीक्षा' को उन्होंने इस काल की कहानियों का मुख्य स्वर माना और अमरकान्त की 'डिप्टी कलक्टरी' को भी शामिल किया। यह लेख एक प्रकार से नयी कहानी का लेखा जोखा है। इस समय भी वे 'जीवन और यथार्थ' को 'चिर परिचित गोल-मोल शब्द' कह रहे थे। उन्होंने 'नवलेखन के मूल में एक-सी बुनियादी संवेदनाओं' को 'ऐतिहासिक आवश्यकता' माना। कहानी में 'एक रचनात्मक खोज की शुरुआत' हुई थी और आलोचना में भी। नयी कहानी के भावबोध को नामवर 'आजादी के प्रथम आवेग की मनोदशा के पूरे मेले में' देखते हैं। नामवर के इस लेख में दूर-दूर तक शीतयुद्ध की कोई चर्चा नहीं है। नये कहानीकारों में 'विचारधारा मात्र के विरुद्ध प्रतिक्रिया' उन्हें दिखाई पड़ी, पर इस ओर ध्यान नहीं गया कि इस दशक में पूंजीवादी विचारधारा ने किस प्रकार कथा और साहित्य में अपनी पैठ बनाई। नये कहानीकारों द्वारा 'प्रत्यक्ष अनुभव पर अधिक बल' वे देखते हैं और 'राजनीतिक आजादी' से नये कथाकारों की 'मानसिक मुक्ति' को जोड़ते हैं। लेखक के निजी अनुभव की कहानियों में प्रमुखता क्या उसके सामाजिक अनुभव की कमी के कारण नहीं थी? 'नयी कहानी' की पांच त्रयियों की बात की जानी चाहिए। एक मित्र त्रयी कमलेश्वर, राकेश और यादव की थी, जिसने 'जेन्युइन त्रयी-अमरकान्त, शेखर जोशी और भीष्म सहानी को किनारे किया। एक तीसरी त्रयी मार्कण्डेय, रेणु और शिवप्रसाद सिंह की थी, जिन्हें आरंभ में ग्राम-कथाकार कहा गया था। चौथी त्रयी निर्मल, रामकुमार और कृष्ण बालदेव वैद की है और पांचवीं त्रयी मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती और उषा प्रियम्बदा की। कुछ त्रयियां और भी बनाई जा सकती हैं, जो विशेष महत्वपूर्ण नहीं हैं। संभव है, इन पांच त्रयियां की बात नयी कहानी के कुछ आलोचकों को अनुचित लगे, पर देखने की बात यह है कि नामवर निर्मल और मित्र-त्रयी से जुड़े रहे। उन्होंने अन्य कहानीकारों की चर्चा की, उनकी कहानियों की खूबियां बतायीं, जिसे उन्होंने 'नयी कहानी का झंडा बरदार' कहा है। 'हकदार' नहीं, वे मित्र त्रयी ही थे। इनमें नामवर ने 'समझौतावाद' और व्यवसाय वाद देखा। कमलेश्वर 'नई कहानियां' के सम्पादक बन चुके थे। नामवर ने इन 'झंडावरदारों' में 'नये सृजन की संभावना समाप्त' देखी। नामवर की परिन्दे-आलोचना ने बाद में इस मित्र-त्रयी को इकट्ठा किया, फिर 'हाशिए पर' के स्तंभ में भी। नामवर ने कहानी को एक नये कोण से देखा था। वे शिल्प, संवेदना, बिम्ब वातावरण, भाषा  को अलग-अलग न देखकर 'कथ्य की समग्र सम्मिलित इकाई' के रूप में देख रहे थे। उनमें नयी चमक और कौंध थी। स्थिरता का अभाव था। कहानीकारों, पाठकों और सम्पादकों का चमत्कृत होना स्वाभाविक था। ''कथा के क्षेत्र में काव्य-समीक्षा जैसा समृद्ध कोई आलोचना-पद्धति नहीं थी, इसलिए नामवर ने आते ही हम सबको चमत्कृत, मुग्ध कर लिया। उनके शब्द मोहक थे, बातें महीन थीं, दृष्टि तेज थी और अन्दाज नया था, इसलिए सहसा सभी को विश्वास हो गया कि बहुत दिनों बाद या शायद पहली बार कथा-समीक्षा को एक सशक्त कलम मिली है। उन्होंने देखते-देखते हम सबका विश्वास और अन्धश्रद्धा अर्जित कर ली। राजेन्द्र यादव, 'कहानी: स्वरूप और संवेदना; 1968, पृष्ठ 150) नामवर ने नये कहानीकारों में, विशेषत: मित्र त्रयी की कहानियों में 'नयी प्रगतिशीलता' के नाम पर 'फार्मूलाबद्ध और व्यावसायिक लेखन' देखा। उन्होंने इन कहानीकारों को 'अवसरवादी' घोषित किया। ''आज राकेश, कमलेश्वर और यहां तक कि यादव भी वही करने लगे है, जो पन्द्रह-सोलह साल पहले किशनचन्दर, ख्वाजा अहमद अब्बास वगैरह ने शुरु कर दिया था। लक्ष्य वही है, रास्ता चाहे अभी दूसरा हो।'' (कहानी: नयी कहानी, वही, पृष्ठ 90-91) अब वे मुक्तिबोध को याद करने लगे, जिन्होंने अवसरवादी दृष्टि को खत्म करना 'आज की सबसे बड़ी आवश्यकता' कहा था। अब नामवर इन कहानीकारों के 'अनुभववाद' की आलोचना करने लगे, जिसमें 'ज्यादा आगे ले जाने की क्षमता' नहीं है। कहानी से विचार को वे पहले ही अलग कर चुके थे। फिर बच क्या जाता है। क्या नामवर की आलोचना में वह माहौल तैयार नहीं किया, जिससे कहानीकार दिग्भ्रमित हों? ''बहुत शीघ्र ही नामवर के संस्कार और बौद्धिक अपेक्षाओं के अन्तर्विरोध साफ आने नज़र लगे और लगने लगा कि सारी साहित्य-चेतना को फिर एक गलत दिशा दे दी जा रही है... और इस घपले में पूरी की पूरी एक पीढ़ी दिग्भ्रान्त हो उठी।'' (राजेन्द्र यादव, वही) नामवर कहानीकारों में एक वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि नहीं देख रहे थे। क्या यह जीवन-दृष्टि, आलोचना दृष्टि उनकी कथालोचना में दिखाई देती है? वह कहां है? कैसी है? उन्हें इन नये कहानीकारों की 'आस्था', 'कमिटमेंट' आदि की बात 'व्यावसायिक' लगी थी। निर्मल वर्मा का जादू अभी बरकरार था। ''कौन जाने हिन्दी में जिस निर्मल वर्मा और इधर पलायनवादी कहा जा रहा है, वे अन्तत: इन तथाकथित 'सामाजिक कहानीकारों' से ज्यादा सामाजिक और बुनियादी रूप में अपने युग के सच्चे प्रवक्ता प्रमाणित हों, जैसे अंग्रेजी में आल्डअस हक्सले को जेम्स ज्वाइस से अलग किया जाता है, लगभग उसी तरह?'' (कहानी: नयी कहानी, वही, पृ. 193) नामवर के यहां 'सामाजिक दृष्टि' से अधिक महत्वपूर्ण 'सर्जनात्मक दृष्टि' है। यह 'क्रिएटिव विज़न' नये कहानीकारों में से केवल निर्मल वर्मा में था। मित्र त्रयी ने सामाजिकता का प्रश्न नामवर के 'परिन्दे' वाले लेख के बाद सामने रखा। इन कहानीकारों पर अपने इस अंतिम लेख में नामवर ने जमकर प्रहार किया और इनके सामने 'लन्दन की एक रात' कहानी रखी, जिसे पढ़कर ''यह महसूस होता है कि आज का विश्व क्या है, कहां जा रहा है और इस विश्व में हम कहां हैं, हमारी स्थिति क्या है।'' (वही, पृ. 194)
साठ के बाद की कथा-पीढ़ी को नामवर ने निर्मल वर्मा की 'एक शुरुआत' से जोड़ा। इस कथापीढ़ी में उन्होंने छह कथाकारों- रवीन्द्र कालिया, दूधनाथ सिंह, प्रयाग शुक्ल, प्रबोध कुमार, विजय चौहान और काशीनाथ सिंह की एक-एक कहानी का उल्लेख कर इनके द्वारा आज की सामाजिक सतह के नीचे के 'मानव नियति' और मानव स्थिति संबंधी बुनियादी प्रश्नों को उठाने की बात की। अब वे इन नये कहानीकारों के पक्ष में फ्रांसीसी कथाकार 'रॉब ग्रिए' का कथन पेश कर रहे थे। श्रीकान्त वर्मा को भी इन नये कहानीकारों के साथ रखा क्योंकि उनका कहानी-लेखन 59-60 से आरंभ हुआ था। न्याय के लिए इन कहानीकारों पर 'स्वतंत्र विचार अपेक्षित' था, जो उस समय वे न कर सके और न बाद में। उनके अनुसार ''यह भी एक शुरूआत है - संभानना पूर्ण शुरूआत।'' (वही, पृष्ठ 196) 'माया' में इस लेख के प्रकाशन के तुरंत बाद जनवरी 1965 में चंडीगढ़ में एक गोष्ठी हुई थी। कमलेश्वर ने लिखा है ''गोष्ठी के समय उन्होंने चंडीगढ़ कॉफी हाउस के बाहर अंधेरे में यह कहा था। भाई, वह माया वाला लेख तो 'पालिमिक्स' था। सच बात तो यह है कि मोहन राकेश और राजेन्द्र यादव तो चुक गये हैं... उनमें वैचारिक स्पष्टता भी नहीं है, इस दडष्टि से भाई कमलेश्वर तुम ही सबसे ज्यादा सुलझे हुए और हमारे नजदीक हो। इन्द्रनाथ मदान ने सुनकर यह कहा ''नामवर जी, आप यही बात आज ही मोहन राकेश से कह चुके हैं।''('नयी कहानी की भूमिका', 1966, पृष्ठ 107)नामवर की 'एक और शुरुआत' की घोषणा को कमलेश्वर ने 'दलबन्दी का क्रम' कहा, जिसका नुकसान नयी कहानी ने उठाया है।'' (वही, पृ. 141) नामवर के मित्र राजेन्द्र यादव नामवर की दिलचस्पी मुद्दों में कम देखते हैं, उन्हें 'चमत्कारी आलोचक' कहते हैं, पैंतीस वर्ष तक यह नहीं जानने की बात कहते हैं कि वे ''हिन्दी कहानी से आखिर क्या चाहते हैं? कहानी को लेकर उनकी जो धारणाएं तब थीं, वही आज भी हैं।'' वे राजस्थानी कहावत का जिक्र भी करते हैं। ''जन-जन का मन रखती, बेस्या रह गई बांझ।''(कहानी, नामवर सिंह और मुख्य धारा, नामवर के विमर्श, 1995)
क्या सचमुच नामवर ने 'सैपर्स एण्ड माइनर्स' की भूमिका निबाही? क्यों उन्होंने - 'झाड़-जंगल' साफ किया? 'जरूरी पुल' बनाया? क्या उन्होंने कोई 'जोखिम' उठाया? निरन्तर उनकी आलोचना हुई, पर वे केंद्र में बने रहे। क्या वे सचमुच रचनाकारों के 'सहचर' बने? क्या सचमुच उन्होंने कथा-समीक्षा की? कोई पद्धति विकसित की? उनका 'सहयोगी प्रयास' कब तक बना रहा? कथा-पद्धति निकालने की उनकी कोशिश क्यों मान्य नहीं हुई? उनकी कथा-समीक्षा में तेज, चमक, कौंध है, पर इससे विचार दृष्टि, आलोचना-दृष्टि क्या सचमुच बनी? एक दशक (1956-65) की उनकी चिन्तन-यात्रा अन्तर्विरोधों से भरी है। क्या उन्होंने अपनी कथालोचना से पाठकों, कथाकारों और कथालोचकों को कोई दिशा-दृष्टि दी। वे कथालोचकों में विजयमोहन सिंह और विश्वनाथ त्रिपाठी को याद करते हैं, पर उन्हें सुरेन्द्र चौधरी याद नहीं आते, जिन्होंने उनकी तुलना में कथाकारों-कथालोचकों और पाठकों को सही मार्ग दिखाया। 'कहानी: नयी कहानी' के बाद लगभग डेढ़ दशक तक उन्होंने कहानी पर न के बराबर बात की। यह सिलसिला अस्सी के दशक से उनके इण्टरव्यू और व्याख्यानों से आरंभ होता है। इसे भी देखने-समझने की ज़रूरत है।

दो हिस्सों में नामवर सिंह की कथा आलोचना के बाद रविभूषण, देवीशंकर अवस्थी,  विश्वनाथ त्रिपाठी, विजय मोहन सिंह की कथा आलोचना पर भी लिखेंगे। यह जारी रहेगा। सूचनार्थ, विद्वान आलोचक की पहली क़िताब शीघ्र राजकमल से प्रकाशित होगी


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