अवधू सबसे बड़ा चटोरा, परबत पार खीर का सागर वहीं लगा रसखोरा निर्गुन के गुनवान बटोही तिनका मोह बटोरा महामौन में अनहद गरजै उस बीहड़ का छोरा तिरनेतर तिरसूल का धनी लेकर खड़ा कटोरा।
आगे है बबूल का जंगल
मन अघोर कुख्यात कबाड़ी, थके-उनींदे मालकोंस में खेंचत राग पहाड़ी सरहद पै विचारधारा की पतितपावनी झाड़ी आगे है बबूल का जंगल करै शिकार खिलाड़ी परमपूज्य मतिहार हरामी उस्तादों की बाड़ी अर्धनारि दुस्साशन बैठा खींचै सबकी साड़ी जै-जै धुनि चहुँ ओर, अकेले हमने हरकत ताड़ी।
अस उतपाती छोरा
हम अघोर मन बिकट अघोरा, कायनात मधुकरी बिखेरै लिए हाथ में बोरा पंगत में बिचार बड़बोला मारै धनुसटकोरा सुरबिधान बादी प्रातिबादी हर हरकत पै डोरा सब सिन्गार भए बेमतलब अस उतपाती छोरा।
उम्मत हुई अखाड़ा
धरमभेद का कठिन कुल्हाड़ा, कैसी ठोस कौम बंगाली उसे बीच से फाड़ा क्या कश्मीरी क्या मलयाली सबका किया कबाड़ा हम इसराइल हम इसमाइल हम ही खींचें बाड़ा इबराहिम चिल्लाय कपूतो उम्मत हुई अखाड़ा मारें मरें छातियाँ कूटें चौकस चलै नगाड़ा दिल दिमाग़ में बम रक्खे हैं बाहर फैला जाड़ा।
यहाँ नातवां मन है
व्यंग्य शब्द विद्रोह मनन है, घुमड़ै धुआं हवा से पूछै मेरा कहाँ वतन है कोई कहीं आवाज़ दे रहा तिर्यक ताप जलन है बियाबान निर्वेद पुकारै यहाँ नातवां मन है निर्गुन कितै बिसंगत बूझै सगुन बिराट सघन है सुरत-निरत अटपट विचार सब परेशान जीवन है धुक-धुक चक्की चलै जगत की कुंठा-तप ईंधन है।
बानी में सबद की चोट उठै
कविता घुमड़ै भवसिंधु मथै जल में जलजान रहै न रहै सम्मान रहै मनमन्दिर में सर पै भगवान रहै न रहै इन्सान रहै तहज़ीब रहै शातिर ईमान रहै न रहै हाथन में कोऊ काम रहै पोथी में ज्ञान रहै न रहै बकवास रहै आभास रहै तिकड़म अभियान रहै न रहै उतपात रहै प्रतिबाद रहै गुनगान दुकान रहै न रहै सुर के आगे मैदान रहै पुर में श्रीमान रहै न रहै बानी में सबद की चोट उठै काया में पिरान रहै न रहै।
संजय चतुर्वेदी एक बड़े और खोजी चिकित्सक है और पहल से उनकी कविताओं का पुराना रिश्ता रहा है।