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जून 2014

अप्पो दीपो भव!

सुभाष गाताडे


व्याख्यान





स्वामी दयानन्द, विवेकानन्द एवं महात्मा ज्योतिबा फुले के बहाने चन्द बातें

बहुत मुश्किल होता है शुरूआत करना जब आप किसी विषय के मनीषियों एवं विद्यार्थियों के बीच खड़े हो, जिसकी सलाहियत आप में न हो, और आप को कुछ कहने के लिए कह दिया जाए। फिलवक्त मैं अपने आप को इसी स्थिति में पा रहा हूं। मैं बताना चाहता हूं कि जब मुझे पहली दफा इस सेमिनार के आयोजन की खबर मिली तो मैं यह जानकर बहुत उत्साहित हुआ कि दर्शनशास्त्र के दानिशवर इतिहास बन चुके मगर  हमारे वर्तमान को आज भी आलोकित, प्रभावित करने वाले तीन ऐसी शख्सियतों पर - दयानन्द सरस्वती, विवेकानन्द और ज्योतिबा फुले पर - खासकर उनके विचार एवं कार्यों में प्रकट सामाजिक मुक्ति की ज्ञानमीमांसा की पड़ताल करते हुए - बात करने वाले हैं, जिसके बारे में गहराई में जाकर अभी तक ठीक से बात नहीं हो सकी है। मगर जब यह प्रस्ताव भी सामने आया कि इस मसले पर बात भी रखनी हैं तो मैं थोड़ा दुविधा में था। बहरहाल साहस बटोर कर अपनी टिप्पणियों के साथ आप के सामने उपस्थित हूं। मुझे मालूम नहीं कि आने वाले कुछ समय तक चलनेवाला मेरा यह एकालाप कथ्य एवं प्रस्तुति में आप को कैसा लगेगा?

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कल्पना की उड़ान भरना हर व्यक्ति को अच्छा लगता है।
कभी कभी मैं सोचता हूं कि आज से 100 साल बाद जबकि हम सभी - यहां तक कि इस सभागार में मौजूद अधिकतर लोग - बिदा हो चुके होंगे तो आने वाले समय के इतिहासलेखक हमारे इस कालखण्ड के बारे में, जिससे हम गुजर रहे हैं, जिसकी एक एक घटना-परिघटना को लेकर बेहद उद्वेलित दिखते हैं, 'हम' और 'वे' की बेहद संकीर्ण परिभाषा को लेकर अपने पारिवारिक, सामाजिक एवं राजनीतिक फैसले लेते हैं, क्या कहेंगे? आज हमारे लिए जो जीवन-मरण के मसले बने हैं और जिनकी पूर्ति के नाम पर हम किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं, उनके बारे में उनकी क्या राय होगी? क्या वे इस सदी में सामने आये जनसंहारों के अंजामकत्र्ताओं को लेकर उतनी ही अस्पष्टता रखेंगे और कहेंगे कि मारे गए लोग दर्सल खुद ही अपनी मौत के जिम्मेदार थे, जिन्होंने खुद मृत्यु को न्यौता दिया था? क्या वह किसी वैश्विक मानवता के तब लगभग सर्वस्वीकृत फलसफे के तहत इस दौर की घटनाओं को देखेंगे और अपने अपने 'चिरवैरियों' के साथ हमारे रक्तरंजित संग्रामों पर एक अफसोस भरी हँसी हँस देंगे?
स्पष्ट है कि स्थान एवं समय की दूरियां किसी विशाल कालखण्ड की वस्तुनिष्ठ आलोचना करने का मौका प्रदान करती हैं। दरअसल जब हम खुद किसी प्रवाह/धारा का हिस्सा होते हैं तब चाह कर भी बहुत वस्तुनिष्ठ नहीं हो पाते हैं, समुद्र की खतरनाक लगनेवाली लहरों पर सवार तैराक की तुलना में किनारे पर बैठा वह शख्स कई बार अधिक समझदार दिख सकता है। जिसे भले तैरना न आता हो,  मगर जिसके पास लहरों का लम्बा अध्ययन हो।
सौ साल से अधिक वक्त गुजर गया उन्नीसवीं सदी की इस त्रयी के सबसे 'युवा' सदस्य विवेकानन्द का इन्तकाल हुए। इस दौरान निश्चित ही बहुत कुछ बदला है। राजनीतिक आज़ादी मिली है। सामाजिक जीवन ने भी बहुत करवट ली है। बहुत कुछ बदला है।
मगर बहुत कुछ नहीं भी बदला है।
आज जो मुल्क हमारे सामने है उनमें हम इन तीनों शख्सियतों के अक्स को आसानी से देख सकते हैं। निश्चित ही इसके अलावा तमाम अन्य शख्सियतें या तंजीमों/संगठनों के अक्स देखे जा सकते हैं जिन्होंने अवाम की दशा एवं दिशा बदलने के लिए अपने हिसाब से काम किया।
सेमिनार के लिए भेजे गए 'कन्सेप्ट नोट' में इन तीनों के बारे में चन्द बातें लिखी गयी हैं :
विवेकानन्द मानते थे कि लड़ाकू हिन्दुइजम के पुनर्जीवन के जरिए वास्तविक सामाजिक आजादी हासिल हो सकती है। जबकि दयानन्द सरस्वती के बारे में लिखा है कि किस तरह वह 'अतीत को पुनर्जीवित करना चाहते थे', अगर हम अगल बगल देखेंगे तो आसानी से ऐसी ताकतों को हमारे बीच पहचान सकते हैं जो किसी न किसी रूप में विवेकानन्द को आदर्श मान कर चल रही हैं; जो दयानन्द के नक्शेकदम पर चलना चाहते हैं। और ज्योतिबा ने जिस जातिविहीन, अतीत से पूरी तरह विच्छेद करने वाले, स्त्री मुक्ति के लिए प्रयासरत समाज का तसव्वुर किया था, उस धारा के अनुगामी भी मिल जाते हैं।
वैसे इसके पहले कि हम प्रस्तुत विषय की विवेचना करना शुरू कर दें मैं चाहूंगा कि अपने मन की आंखों के सामने सबसे पहले इन तीनों शख्सियतों को लाने की कोशिश करें और यह 'देखने' की कोशिश करें कि स्मृति-विस्मृति के अनवरत जारी द्वंद्व से छन कर इनके बारे में क्या क्या बातें सामने आती हैं?
हमारे मन की आंखों के सामने उस छोटे से मूलशंकर की छवि आती है जो रात में जग रहा है और शिव की मूर्ति पर बेखौफ दौड़ते चूहों को देख रहा है और सवालों का एक छोटा घेरा उसके इर्दगिर्द खड़ा है, यह 'सर्वशक्तिमान' कहा जाने वाला ईश्वर जिसे सभी लोग पूजते हैं, वह अगर खुद की रक्षा नहीं कर पा रहा है तो भक्तों की कहां से कर सकेगा? हम फिर युवा मूलशंकर से भी रूबरू होते हैं जो अपने तमाम प्रश्नों के साथ जगह -जगह दौरे पर निकला है, वहीं उसे अपने गुरू दयानन्द सरस्वती (12 फरवरी 1824-30 अक्टूबर 1883) नाम से सम्बोधित करते हैं। वेद एवं संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान, वैदिक विचारधारा के पुनर्जीवन के लिए प्रयास, संस्थापक आर्य समाज, हिन्दू धर्म में व्याप्त मूर्तिपूजा और कर्मकाण्ड का विरोध। सत्यार्थ प्रकाश नामक ग्रंथ की रचना। और ढेर सारी बातें।
रामकृष्ण परमहंस के परम शिष्य स्वामी विवेकानन्द (12 जनवरी 1863 - 4 जुलाई 1902) का नाम लेने पर 1863 में शिकागो में आयोजित पार्लियामेन्ट आफ वल्र्ड रिलीजन्स में हिन्दु धर्म का परिचय देते हुए उनका बहुचर्चित व्याख्यान याद आता है। पश्चिमी जगत में वेदान्त एवं योग के दर्शनों के प्रसार में उनके योगदान की चर्चा सामने आती है। रामकृष्ण मठ की स्थापना की उनकी पहल, या बर्तानिया की हुकूमत के अन्तर्गत भारत में हिन्दु धर्म के पुनर्जीवन में इनके हस्तक्षेप या जगह-जगह व्याख्यानों का सिलसिला सभी कुछ आंखों के सामने नमूदार हो जाता है। और बमुश्किल 39 साल की उम्र में उनके देहान्त का मंज़र भी सामने आता है।
बहुजनों, शूद्रों अतिशूद्रों की मुक्ति के लिए सत्यशोधक समाज की स्थापना करने वाले महात्मा गोविन्दराव फुले (11 अप्रैल 1827 - 28 नवम्बर 1890) का नाम लेते ही उनकी जीवनसंगिनी सावित्रीबाई फुले की तस्वीर भी सामने आती है और 1848 में लड़कियों के लिए उन्होंने पुणे में खोला पहला स्कूल, अपने घर का कुआं सभी जातियों के लिए खोलने की घटना या इसी वजह से उन्हें घर से बेदखल किए जाने की घटनाएं भी नमूदार हो जाती हैं। कार्यकर्ता, विचारक, सामाजिक क्रान्तिकारी फुले के जीवनपटल से उनकी जीवनसंगिनी सावित्रीबाई फुले (3 जनवरी 1831 - 10 मार्च 1897) को कहीं से अदृश्य नहीं किया जा सकता, यह सच्चाई भी सामने आती है।
19 वीं सदी की इन तीनों शख्सियतों में - जिनमें सबसे युवा विवेकानन्द है - एक साझापन अवश्य दिखता है कि वे सभी अपने उद्देश्य के प्रति पूरी तरह समर्पित हैं और उसकी प्राप्ति के लिए अपनी तमाम बौद्धिक एवं शारीरिक क्षमता उड़ेल दिए हैं। इन तीनों की तुलना करें तो अपने मकसद के प्रचार प्रसार के लिए सबसे दूर भ्रमण के लिए जानेवालों में विवेकानन्द हैं जिसमें वह अमेरिका की भी यात्रा करते हैं। दयानन्द सरस्वती की भ्रमणगाथा भी उतनी ही रोमहर्षक है, बर्तानवी सामराजियों के नियंत्रण में रहने वाले हिन्दोस्तां में वह काफी घूमते दिखते हैं, जगह-जगह शास्त्रार्थ करते भी दिखते हैं और इनमें सबसे कम बाहर जाने वालों में - खासकर अपने प्रांत के बाहर भी - ज्योतिबा फुले दिखते हैं।
वैसे यह कोई जरूरी नहीं कि दुनिया की सैर करने वाला व्यक्ति अपने दृष्टिकोण में भी उतनी ही व्यापकता का परिचय दे और अपने घर तक सीमित रहनेवाला व्यक्ति बहुत तंगनज़र ही हो। दुनिया के दो महान दार्शनिक इमैन्युएल काण्ट औ लुडविग फायरबाख के बारे में - जिनके दार्शनिक अवदानों के बारे में आज भी हम बात करते हैं - यह बहुत मशहूर है कि वे अपने कस्बों या शहरों को छोड़ कर बहुत कम बाहर गए थे।
प्रश्न उठता है कि इन तीन अज़ीम शख्सियतों के चिन्तन में व्याप्त सामाजिक मुक्ति के विचार की ज्ञानमीमांसा कैसे की जा सकती है?
ज्ञानमीमांसा का विचार दर्शन आप सभी मनीषियों और विद्यार्थियों के लिए बेहद आमफहम बात होगी या सामाजिक मुक्ति के मायने भी आप के लिए स्पष्ट होंगे, लेकिन मुझे लगता है कि यह बेहतर होगा कि इन परिभाषाओं के बारे में एक साझी समझदारी बना लें।

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इस गुस्ताखी के लिए मैं माफी चाहूंगा क्योंकि फिलॉसाफी के जानकारों के सामने चन्द लब्ज ज्ञानमीमांसा अर्थात एपिस्टेमोलोजी के रखना चाहता हूं। ग्रीक जुबां में 'एपिस्टेम' अर्थात ''ज्ञान, समझदारी'' और 'लोगोंस' का अर्थ ''का अध्ययन''। दर्शन की वह शाखा जो ज्ञान के स्वरूप एवं दायरे तक सरोकार रखती है, जिसे हम  ''ज्ञान का सिद्धान्त'' भी कहते हैं। वह सवाल उठाती है कि ज्ञान क्या है और उसे कैसे हासिल किया जा सकता है। इस क्षेत्र की अधिकतर बहस ज्ञान के स्वरूप के दार्शनिक विश्लेषण पर केन्द्रित होती है और वह इस बात की पड़ताल करती है कि वह सत्य, विश्वास और जस्टिफिकेशन जैसी धारणाओं के साथ किस तरह का सम्बन्ध रखती है।
हम अपने आप से पूछ सकते हैं कि क्या वास्तविक ज्ञानमीमांसा ऐसे समाजों में मुमकिन भी है जहां हमारे समग्र जीवन का दैवी ताकतों अर्थात divine force द्वारा निर्धारण एक सहजबोध/कॉमन सेन्स बना हो। धर्म, ईश्वर की मौजूदगी, धर्म से जुड़ी संस्थानों का चतुर्विद प्रभाव किसी भूभाग पर काबिज राजा को भी नतमस्तक करने के लिए काफी रहता हो। हम यूरोपीय इतिहास के मध्ययुग के इस प्रसंग को याद कर सकते हैं जब तत्कालीन पोप से असहमति के चलते राजा को मुआफी मांगने के लिए पैदल वैटिकन की यात्रा करनी पड़ी थी।
एक ऐसा समाज जहां हर आम एवं खास तबकों को क्या करना चाहिए, उनकी तौर ए जिन्दगी कैसे होगी, इसके बारे में किसी चर्च से, किसी मनु महाराज के या किसी अन्य पवित्र कही जाने वाली किताब के निर्देश सर आंखों पर माने जाते हों, वहां ज्ञान की वास्तविक मीमांसा की मुश्किलें देखी जा सकती हैं? ऐसे समाज जहां आप को आस्था का भी अधिकार न हो, यह तय हो जाता हो कि आप किस आस्था के हैं वहां क्या किसी बात पर सन्देह करने की गुंजाइश बनती है। और सन्देह तो ज्ञान की पहली सीढ़ी है।
क्या मेरा यह मानना है कि पुराने समय में क्या ऐसे दार्शनिक जनमे ही नहीं, जिन्होंने ज्ञान का अध्ययन नहीं किया था, उसका दार्शनिक विश्लेषण नहीं किया था। ऐसी नामसमझी भरी बात मैं कह सकता हूं। क्या हम अपने यहाँ की समृद्ध परम्पराओं को या पश्चिमी समाजों - खासकर ग्रीक की - ऐसी परम्पराओं को भूल सकते हैं। मैं उन प्रचण्ड कठिनाइयों को बयां कर रहा था जिसका नतीजा यह होता है कि कोई बुद्ध - जिसने ढाई हजार साल पहले 'दुख के भौतिक कारणों की पड़ताल की थी',   जिसने सबकुछ 'अनित्य' होने की बात कही थी, जिसने लोग 'अपने दीपक आप बने' किसी गुरु या किसी पारलौकिक शक्ति पर निर्भर ना रहें, जैसा सन्देश दिया था, उनके गुजर जाने के बाद उनका ही बुत बना दिया जाता है और आंखें खोल कर अपने विवेक का पूर्ण इस्तेमाल करने की उनकी सलाह 'बुद्ध शरणम् गच्छामि' में रूपान्तरित होती दिखती है।
लम्बी चौड़ी बात को मुख्तसर में कह दें तो जिसे कोपर्निकन क्रान्ति- अर्थात पृथ्वी ब्रह्मांड के केन्द्र में नहीं इसका खुलासा जब तक नहीं हुआ, जब तक यह नहीं पता चला कि सूर्य पृथ्वी के चक्कर नहीं लगाता है, पृथ्वी सूर्य के चक्कर लगाती है - के पदचाप नहीं सुनायी दिए तब तक हमारी तमाम बौद्धिक एवं वैचारिक लड़ाइयां धर्मों के आवरण में ही लिप्त थीं। आज एक छोटा बच्चा जानता है कि पृथ्वी सूर्य के इर्दगिर्द घुमती है, मगर उस वक्त अपने गणित के आधार पर उसे प्रमाणित करने वाले ब्रूनो को यही कहने के लिए आग में जलना पड़ा था। कहा जाता है कि अपनी जान बचाने का विकल्प उसके सामने था, बशर्ते वह अपने गणित को खारिज कर देता; मगर उसने धर्म को चुनौती दी थी। धर्म के आवरण को भेदते हुए बिल्कुल सेक्युलर आधारों पर ज्ञान की विवेचना उसके बाद ही शुरू हो सकी है।
आधुनिकता के युगांतरकारी आगमन ने - जिसकी संरचना का बुनियादी घटक विज्ञान है - इस समूचे परिदृश्य को रैडिकल ढंग से बदल दिया है। जैसा कि एक लेख में प्रस्तुत किया गया है।
'विज्ञान यथार्थ की प्रकृति और वस्तुगत ज्ञान की सम्भावना पर जैसी रौशनी डालता है वह पहले सम्भव नहीं थी। न केवल यह प्रकृति का ज्ञान सम्भव बनाता है, बल्कि ज्ञानमीमांसा में क्रांतिकारी परिवर्तन लाता है और समूचे मानव-ज्ञान के लिए एक प्रतिमान प्रस्तुत करता है।' (रवि सिन्हा : आधुनिकता और आधुनिकताएं, सन्धान, अक्टूबर 2001)
सिंहावलोकन करते हुए हम देख सकते है कि एक लम्बा सिलसिला चला है आधुनिकता के सूत्रपात का जो रिनेसां- रिफार्मेशन- एनलाइटनमेण्ट- इण्डस्ट्रियलायजेशन के कड़ी के रूप में सामने आया है। निश्चित ही यह सारे परिवर्तन यूरोप के सामाजिक-सांस्कृतिक शरीर में फलीभूत हुए हों, मगर इस 'यूरोपीय बनावट के अन्दर आधुनिकता वे मूलतत्व देखे जा सकते हैं जो अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक बनावटों में भी कार्यरत हैं और जिन्होंने आधुनिकता के गैरपश्चिमी संस्करणों की रचना में भी केन्द्रीय भूमिका निभाई है।' (वही) इनके आठ प्रधान तत्वों को उसमें चिन्हित किया गया है। (देखें : वही)
1. विज्ञान : कोपरनिकस (1473-1543), केपलर (1571-1642), गैलीलिओ (1564-1642) और न्यूटन (1642-1727) इस  'नयी शुरूआत के महानायक' हैं। विज्ञान कई अन्य कारणों के अलावा अपने दार्शनिक महत्व के लिए भी अहमियत रखता है।
2. तर्कबुद्धि
3. प्रगति की अवधारणा
4. मानवीय कर्तत्व का महत्व
5. आत्मप्रश्नेयता
6. धर्मनिरपेक्षता
7. निजी और सार्वजनिक का भेद
8. न्याय, स्वाधीनता और मुक्ति : ये आधुनिकता के मूल विधान (नार्मेटिव स्ट्रक्चर) के मुख्य लक्ष्य हैं। निश्चय ही आधुनिकता की अब तक की यात्रा इन लक्ष्यों तक सीधे पहुंचने की यात्रा नहीं रही है। 'पूर्वआधुनिक समाज के सन्दर्भ में आधुनिकता के इन दावों की प्रभावोत्पादकता को देखा जा सकता है, जिसके चलते यूरोप में राजनैतिक और सांस्कृतिक ऊर्जा का एक युगान्तरकारी विस्फोट हुआ था।'
अपनी वर्तमान बहस के सन्दर्भ में फिर मुक्ति के हमारे लिए क्या मायने निकलते हैं।
सामान्य अर्थों में देखें तो मुक्ति का अर्थ उन तमाम बन्धनों से मुक्ति, जो किसी व्यक्ति या किसी व्यक्तियों के समूह पर लगे रहते हैं, जो नस्ल, जेण्डर, धर्म, समुदाय, जाति, राष्ट्रीयता, अर्थतंत्र की प्रणाली, यौनिक ओरिएंटेशन आदि तमाम कारकों से निर्धारित होते हैं। मुक्ति का अर्थ ऐसे तमाम बन्धनों से मुक्ति, धार्मिक ग्रंथों के प्राधिकार से मुक्ति, वे तमाम बन्धन/बन्दिशें जो व्यापक जनता के दिलो-दिमाग-शरीर-भौतिक जीवन पर पड़े हैं उनसे मुक्ति, मनुष्य को उसकी अपनी प्रदत्त श्रेणियों (ascriptive category) से हटा कर खालिस मनुष्य की तरह देखने की शुरूआत।
राजनीतिक जीवन के आधुनिक विमर्श में देखें तो जो व्यक्ति की स्वायत्तता, आत्मनिर्णय और उसकी सम्प्रभुता आदि को सुनिश्चित करते हों। किसी बाहरी हस्तक्षेप के बिना अपने जीवन सम्बन्धी निर्णय करने का व्यक्तिगत अधिकार या किसी व्यक्तियों के समूह का अधिकार की गारंटी करते हों।
अगर सामाजिक मुक्ति के हमारे लिए यह मायने हैं तो क्या इन पैमानों के आधार पर हम इन तीनों शख्सियतों के जीवनपटल पर सरसरी निगाह डाल सकते हैं। तय बात है कि अगर हम ठोस तरीके से बात न कर सकें तो बातें अमूर्त धरातल पर रह सकती हैं। उदाहरण के तौर पर मैं अगर पूछूं कि क्या इन तीनों शख्सियतों ने मनुष्य को मनुष्य की तरह देखा था या नहीं, तो उसके उत्तर एक ही किस्म के मिल सकते हैं। इसके बरअक्स हम अगर इनकी पड़ताल कर सकें कि समाज के विभिन्न उत्पीडि़त तबके - फिर इसमें शूद्र/अतिशूद्र से लेकर स्त्रियों तक या 'अन्य' की श्रेणी में शुमार किए जाने वाले समुदाय - सभी को शामिल किया जा सकता है, को लेकर उन्होंने क्या कहा, क्या उनके विचार इन तबकों की वास्तविक मुक्ति का जरिया बने या उन्हें नए मीठे बन्धनों में जकड़े जाने का औजार बने। क्या इन उत्पीडि़त तबकों की जमीनी हकीकत के प्रति अनभिज्ञ रह कर उन्होंने अपने कल्पनालोक से उनकी स्थिति को देखा और कुछ ऐसे नुस्खे सिखाये जो उन्हें अधिक बन्धन में डालने वाले साबित हुए। युगों युगों से मनुष्य के आत्मिक एवं भौतिक जीवन की दशा दिशा को निर्धारित करनेवाली धर्म नामक संस्था के बारे में या ईश्वर की अवधारणा के बारे में उन्होंने क्या कहा! मेरे खयाल से अगर ऐसी पड़ताल हम कर सकें तो मुमकिन है कुछ बातें कही जा सकती हैं, इस जटिल मसले पर रौशनी डाली जा सकती है।

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तत्कालीन भारत नामक भौगोलिक भूभाग के हिसाब से देखें तो 19 वीं सदी happening century है।
दयानन्द, विवेकानन्द और फुले के चिन्तन एवं कार्य की मुख्यत: यही सदी है।
वह औपनिवेशिक हुकूमत का दौर है, जब पूरा मुल्क राजनीतिक-सामाजिक तथा बौद्धिक जगत में मची हलचलों का मंच बना हुआ है।
यही वह दौर है जब एक तरफ जहां औपनिवेशिक शासन के खातमे के लिए राजे रजवाड़ों, आदिवासी समूहों या किसान कारीगर समुदाय की तरफ से व्यापक हलचलें चलीं। वहीं साथ ही साथ सात समुन्दर पार से आये अंग्रेजों की जीत से अचम्भित समाज के अग्रणियों के बीच उनकी जीत के कारणों को जानने के लिए गहन विचारमंथन भी निरंतर जारी रहा। प्रतिरोध और प्रतिक्रिया के इस सिलसिले में किसी किस्म की चीनी दीवार नही थी। एक 'स्पेक्ट्रम' जैसी स्थिति उपस्थित थी जहां अगर एक छोर पर महज प्रतिरोध में लगी ताकतें खड़ी थीं तो दूसरे छोर पर वे विचारक थे जो भारतीय समाज को सड़ांध से निकालने के लिए रास्ते की तलाश में थे जिसने उसे इस दारूण हालत में पहुंचाया था। इनमें वे समाजसुधारक भी शामिल थे जो भारतीय समाज की अपनी कमियों को दूर करने के लिए प्रयासरत थे।
यह सही है कि राजनीतिक विद्रोहियों, नेताओं की अगुआई में चले व्यापक जनान्दोलनों के समानान्तर या कहीं साथ साथ चलीं समाजसुधारकों/सामाजिक विद्रोहियों की दखल ने ही भारतीय समाज को उस मुकाम तक पहुंचाया जहां वह आज खड़ा है। लेकिन यह भी उतना ही सही है कि समाजसुधारकों का काम निश्चित ही उतना आसान नहीं था। राजनीतिक-आर्थिक आन्दोलनों के निशाने पर जहां मुख्यत: बाहरी ताकतें थीं लिहाजा विदेशी बनाम देशी के द्वंद्व के आधार पर व्यापक जनसमुदाय को गोलबंद करना उनके लिए सापेक्षत: आसान साबित हुआ। इसके बरअक्स समाजसुधार के कामों की जटिलता यह थी वहां उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष में संलग्न अपने ही समाज में व्याप्त मध्ययुगीन, तर्कविरोधी, गैरजनतांत्रिक मूल्यों, संस्थाओं के खिलाफ आवाज़ बुलंद करनी थी जिस समूचे काम को भारत के वर्णाश्रम पर टिके विशिष्ट इतिहास ने बेहद जटिल बना दिया था।
लेकिन समाजसुधारकों के विभिन्न प्रयासों की भी अपनी अपनी विशिष्टताएं-भिन्नताएं थीं तथा सभी के लिए रास्ता उतना दुश्कर नहीं था। कुछ कोशिशों में जहां धार्मिक सम्प्रदायों के गठन के जरिये इसे अंजाम दिया जा रहा था तो कहीं उन्हें महज परिवार तक सीमित रखा गया था। लेकिन इन सबमें सबसे रैडिकल हस्तक्षेप उन सामाजिक-सांस्कृतिक विद्रोहियों का था जिन्होंने भारतीय समाजसंरचना में निर्णायक पुरोहितवादी/मनुवादी/मुल्लाकेन्द्रित व्यवस्था को अपना निशाना बनाया अर्थात यहां के व्यापक समाज की पुन:रचना और पुन:संगठन के रूप में इस काम को अपने हाथों में लिया। -'जातिभेद का उन्मूलन' नामक अपनी ऐतिहासिक रचना में डॉ. अम्बेडकर 'परिवारकेन्द्रित' सुधार एवम - समाजकेन्द्रित सुधारों मे मौजूद इसी फर्क की बात करते हैं। कुल मिला कर जहां पहली तथा दूसरी धारा में यहां के समाज में विशेषकर उच्च जातिय तबकों में व्याप्त बुराईयों को दूर करने का लक्ष्य रखा गया मसलन बालविवाह, विधवाविवाह पर रोक आदि प्रथाएं उसके एजेण्डे पर रहीं वहीं तीसरी रैडिकल धारा ने जातिप्रथा की समाप्ति का बीड़ा उठाया, स्त्री मुक्ति के प्रश्न को जुबां दी।
इस तरह जहां पहली दो धाराओं ने जनसमुदाय को एक 'अच्छे हिन्दू' के तौर पर तराशने की कोशिश की और हिन्दू धर्म की स्थापित परम्पराओं या अन्य किसी सुधरी शाखा में उसके आत्मसातीकरण को बढ़ावा दिया, वहीं तीसरी धारा ने अपने अतीत के गौरव की पुनरूत्थानवादी गल्प को खारिज करते हुए तर्कबुद्धि पर खड़े एक नये इन्सान को गढऩे का प्रयास किया। इसके अन्तर्गत तमिलनाडु में खड़े हुए पेरियार रामस्वामी नायकर के नेतृत्ववाले आन्दोलन ने तो ईश्वर को भी नकारा तथा नास्तिकता की हिमायत की। अगर पीछे मुड़ कर देखें तो इस धारा में हमें उन तमाम आधुनिक आन्दोलनों के बीज मिल सकते हैं जो बाद के दिनों में पुष्पित पल्लवित हुए फिर वह चाहे नारी मुक्ति आन्दोलन हो, स्वायत्त दलित आन्दोलन हो या मजदूर आन्दोलन हो। यह अकारण ही नहीं कि सत्यशोधक समाज की कार्यकर्ती ताराबाई शिन्दे को पितृसत्ता को कटघरे में खड़ा करने वाली उसकी रचना 'स्त्री पुरुष तुलना' के चलते पहली नारीवादी सिद्धान्तकार के सम्मान से आज नवाज़ा जा रहा है।


दयानन्द सरस्वती : 'अतीत का पुनर्जीवन'
इस पूरी पृष्ठभूमि में राजाराममोहन रॉय द्वारा स्थापित 'ब्राहमो समाज' जैसे संगठनों से या बंगाल एवं अन्य हिस्सों में उभरे शुरूआती सुधारकों के साथ तुलना करें तो दयानन्द सरस्वती की विचारधारा गुणात्मक तौर पर अलग नहीं दिखती है। फरक महज इतना ही दिखता है कि उनकी बुनियादी दृष्टि अर्थात विजन वैदिक स्वर्णयुग के मिथक पर आधारित थी। प्रचण्ड कल्पनाशक्ति से लैस बुनियादी तौर पर धार्मिक व्यक्ति दयानन्द के मुताबिक आर्यावर्त दरअसल 'सुपरह्यूमन' आर्यों का निवास रहा है, जहां पहले सभ्यता का जन्म हुआ, उनके मुताबिक संस्कृत 'सभी भाषाओं की जननी है और देवों की भी भाषा है'। उनका यह भी कहना था कि 'वेद न केवल सत्य हैं बल्कि उनमें सभी किस्म के सत्य छिपे हैं, यहां तक कि आधुनिक विज्ञान के विचार भी उसमें मिलते हैं।'
1875 में उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश की रचना की थी, जिसमें हिन्दु धर्म एवं समाज के पुनर्जीवन के बारे में दयानन्द के विचार शामिल हैं, इस ग्रंथ की अहमियत देखते हुए उसे 'आर्य समाज आन्दोलन का घोषणापत्र' भी कहा गया।
19 वीं सदी के तमाम समाजसुधारकों की तरह उन्हें भी जाति व्यवस्था की समस्या से रूबरू होना पड़ा, जिसमें उन्होंने एक तरफ हिन्दू धर्म में प्रविष्ट किए भ्रष्टाचरण एवं गलत आचरण का विरोध किया, मगर वर्णव्यवस्था के आदर्शों को स्वीकारा। उनके मुताबिक सामाजिक संगठन के रूप में वर्ण मॉडल आदर्श है बशर्ते उसमें घुसी गन्दगियों को हटाया जाए। उनकी सामाजिक दृष्टि और जाति के प्रति उनका दृष्टिकोण ब्राह्मणवादी विचारधारा में उनकी आस्था से ही तय हुआ था। यह सही बात है कि उन्होंने मूर्तिपूजा का विरोध किया, समकालीन हिन्दु धर्म की अंधश्रद्धामूलक आचारों की मुखालिफत की, मगर सनातन धर्म के प्रति वह तमाम तरीकों से प्रतिबद्ध रहे - जिसका केन्द्रीय पहलू था वेदों की श्रेष्ठता पर उनका यकीन।
कर्म सिद्धान्त के अनुगामी दयानन्द ने कभी जाति पर सीधा हमला नहीं किया, यहां तक कि शूद्रों के प्रति उनका दृष्टिकोण भी अन्तर्विरोधी था और उनका उद्धार करने का उनका सरोकार आधा अधूरा था। सत्यार्थ प्रकाश के पहले संस्करण में वह शूद्रों को स्कूली शिक्षा की हिमायत करते हैं, मगर वेदों को पढऩे की उन्हें अनुमति नहीं देते। उनकी मृत्यु के बाद सत्यार्थ प्रकाश के दूसरे संस्करण में वह शास्त्रों को पढऩे की इजाजत देते हैं, मगर मंत्र संहिता - वैदिक साहित्य का सबसे पवित्र हिस्सा पढऩे से रोकते हैं। उसी तरह, वह शूद्रों को अध्ययन का अधिकार देते हैं, मगर यज्ञोपवित - जिसके बाद कोई द्विज होता है या समाज की भाषा में कहें तो 'शुद्ध आर्य' होता है - का अधिकार नहीं देते हैं। एक दूसरे स्थान पर शूद्रों को सलाह देते हैं कि वह अहंकार, असहमति और ईष्र्या को त्यागकर उच्च तीन वर्णो की सेवा कर अपनी जीविका का पालन करें। सबसे महत्वपूर्ण था कि चातुर्वण्र्य के बाहर स्थित लाखों अंत्यजों और आदिवासियों के लिए उनके पास कोई विचार नहीं था।
दयानन्द के सामाजिक सांस्कृतिक हस्तक्षेप का एक और विवादास्पद हिस्सा था शुद्धि के लिए उन्होंने चलायी मुहिम जिसकी परिणति साम्प्रदायिक टकराव में हुई। वेदों की श्रेष्ठता पर उनके जबरदस्त यकीन की परिणति थी 'नकली' और 'हीन' धर्मों जैसे ईसाइयत, इस्लाम, जैन धर्म और सिख धर्म के खिलाफ उनकी मोर्चाबन्दी। अपने ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश में वह इन तमाम धर्मों के खिलाफ ऐसी तमाम बातें कहते हैं जो निश्चित ही उनके प्रति बेहद असम्मान प्रकट करती हैं। शुद्धि के उनके कार्यक्रम ने हिन्दुओं में भी उच्च और निम्न जातियों के विवाद को पैदा किया क्योंकि शुद्धि के अन्तर्गत शुद्ध आर्यों की तुलना में सभी हीन थे। शुद्धि के बाद लोगों को उसी जाति और वर्ण का मान लिया जाता था। इस सन्दर्भ में हम गांधीजी को उद्धृत कर सकते हैं :
गांधी जी अपने अखबार 'यंग इंडिया' में लिखते हैं -
'मेरे दिल में दयानन्द सरस्वती के लिए भारी सम्मान है। ...उनकी बहादुरी में सन्देह नहीं लेकिन उन्होंने अपने धर्म को तंग बना दिया है। मैंने आर्य समाजियों की सत्यार्थ प्रकाश को पढ़ा है, जब मैं यर्वदा जेल में आराम कर रहा था। मेरे दोस्तों ने इसकी तीन कापियां मेरे पास भेजी थीं। मैंने इतने बड़े रिफार्मर की लिखी इससे अधिक निराशाजनक किताब कोई नहीं पढ़ी। स्वामी दयानन्द ने सत्य और केवल सत्य पर खड़े होने का दावा किया है लेकिन उन्होंने न जानते हुए जैन धर्म, इस्लाम धर्म और ईसाई धर्म और स्वयं हिन्दु धर्म को गलत रूप से प्रस्तुत किया है। जिस व्यक्ति को इन धर्मों का थोड़ा सा भी ज्ञान है वह आसानी से इन गलतियों को मालूम कर सकता है, जिनमें इस उच्च रिफार्मर को डाला गया है। उन्होंने इस धरती पर अत्यन्त उत्तम और स्वतंत्र धर्मों में से एक को तंग बनाने की चेष्टा की है। यद्यपि वे मूर्तिपूजा के विरूद्ध थे लेकिन वे बड़ी बारीकी के साथ मूर्ति पूजा का बोलबाला करने में सफल हुए क्योंकि उन्होंने वेदों के शब्दों की मूर्ति बना दी है और वेदों में हरेक ज्ञान को विज्ञान से साबित करने की चेष्टा की है। ...आप जहां कहीं भी आर्य समाजियों को पाएंगे वहां ही जीवन की सरगम मौजूद होगी। तंग और लड़ाई की आदत के कारण वे या तो धर्मों के लोगों से लड़ते रहते हैं और यदि ऐसा न कर सकें तो एक दूसरे से लड़ते झगड़ते रहते हैं।'
(अखबार प्रताप 4 जून 1924, अखबार यंग इंडिया, अहमदाबाद 29 मई 1920)
अपनी चर्चित किताब 'डिब्राहमनाइजिंग हिस्ट्री' में ब्रजरंजन मणि बताते हैं कि सत्यार्थ प्रकाश में दयानन्द मनु के विचारों का - उनकी बर्बरताओं के साथ - समर्थन करते हैं। किसी व्यक्ति को जिसे वह शैताननुमा समझता है उसे मार डालने को वह प्रोत्साहित करते हैं। एक व्यभिचारी को गर्म लोहे से बने पलंग पर जिन्दा जला देने और व्यभिचारिणी को तमाम लोगों की उपस्थिति में कुत्ते को खिला देने की बात वह करते हैं। मगर बकौल उमा चक्रवर्ती स्त्रियों की यौनिकता के नियंत्रण की चिन्ता में दयानन्द सौम्यता का समूचा आवरण हटा देते हैं। उनके मुताबिक स्त्रीत्व की दयानन्द की कल्पना इस बात से अभिन्न रूप से जुड़ी हुई है कि वह महिलाओं की यौनिकता से किस तरह डील करते हैं।
'दयानन्द के चिन्तन के केन्द्र में उनकी यह समझदारी थी नस्ल का जारी रहना और उसी से सम्बधित उनकी यौनिकता। दयानन्द के लिए मातृत्व ही स्त्री के वजूद का सबसे जरूरी काम है। यहां तक कि आदर्श गर्भधारण के लिए वह कई नियमों का उल्लेख भी करते हैं।' आर्यों की स्वस्थ और शुद्ध नस्ल तैयार हो इसलिए वह आर्य माता के जल्दी स्वस्थ होकर फिर एक बार गर्भधारण के लिए अनुकूल होने के लिए शिशु के लिए (शूद्र) दाई रखने की भी बात करते हैं। उमा पूछती हैं:
'मगर उस दाई का क्या? वह कौन थी? प्रजनन की प्रणाली में उसकी स्थिति क्या है? क्या उसे भी मजबूत सन्तानें नहीं पैदा करनी थीं? स्पष्ट था कि दयानन्द के निर्देश एक तबके की कीमत पर दूसरे तबके के लिए थे। उन्नीसवीं सदी के राष्ट्रवादियों की निगाह में महिलाओं के विशाल हिस्से का अस्तित्व नहीं था। किसी ने भी प्राचीन ग्रंथों को पलट कर यह देखने की कोशिश नहीं की कि वैदिक दासी और उसके जैसों को वेदों के स्वर्णिम युग में क्या अधिकार थे?'
मणि के मुताबिक 'आर्यों की पुनर्नवीन नस्ल के लिए स्त्रियों की यौनिकता के प्रबन्धन के विचार के चलते विधवा पुनर्विवाह के प्रति उनकी समझदारी अस्पष्ट रही। मातृत्व पर जोर देते हुए वह स्त्रियों और पुरुष दोनों के पुनर्विवाह का समर्थन करते हैं बशर्ते पहली शादी से उन्हें कोई संतान नहीं हो। पुनर्विवाह के और यौनिकता के प्रश्न के समाधान के तौर पर वह नियोग का प्रस्ताव भी रखते हैं, जिसके अन्तर्गत प्रजनन के लिए शादी के बिना यौन सम्बन्ध कायम किए जा सकते हैं।' अपनी बातों को पुष्ट करने के लिए उन्होंने तमाम पुराने संस्कृत ग्रंथ पलटे और अपनी सुविधा से उनकी व्याख्या कर यह ऐलान किया कि इस आचरण में कोई अनैतिकता नहीं है क्योंकि शादी और नियोग के पीछे की मुख्य वजह यही है कि स्वस्थ्य एवं मजबूत सन्तानें जनमें। मगर दयानन्द इस बात पर अवश्य जोर देते हैं कि महिला अपने से उच्च वर्ण या समवर्ण के साथ नियोग कर सकती है, किसी भी सूरत में निम्न वर्ण के साथ नहीं।
वैसे अतीत, वर्तमान और भविष्य के सभी ज्ञान का एक अचूक और न समाप्त होने वाले स्त्रोत वेदों में होने की उनकी समझदारी - जिसमें आधुनिक रसायन, इंजिनीयरिंग और यहां तक सैन्य एवं गैरसैन्य विज्ञानों की जानकारी मिल सकती है (बशर्ते हम उसकी व्याख्या का सही तरीका जानते हों) - अपवाद नहीं जान पड़ती। हिन्दू राष्ट्रवाद के कई अन्य हिमायतियों से हम वेदों के प्रति उसी किस्म का आदर देख सकते हैं। उदाहरण के तौर पर विवेकानन्द को ही लें, उनका विश्वास था कि सभी विज्ञानों के बुनियादी सिद्धान्त हम वेदों में ढूंढ सकते हैं। उन्होंने इस पवित्र किताब में डार्विन की भी खोज कर डाली थी।
'उत्क्रान्ति का विचार वेदों में ईसाई युग के पहले से ही मिलता है; लेकिन जब तक डार्विन ने उसकी सच्चाई प्रमाणित नहीं की,उसे महज हिन्दू अंधश्रद्धा कहा गया।' (The Complete works, vol. VII 25 " The idea of evolution was to be found in the Vedas long before the Christian era; but until Darwin said it was true, it was regarded as a mere Hindu  superstition" (The Complete works, vol. VII 25)
अरविन्द घोष (1872-1950) उनसे कई कदम आगे बढ़े दिखते हैं, उन्होंने ऐलान किया कि दयानन्द ने वैदिक ज्ञान की गहराई और व्याप्ति को कम करके आंका:
दयानन्द के विचार में ऐसी कोई अभूतपूर्व बात नहीं है कि वेदों में विज्ञान की सच्चाई और धर्म की सच्चाई शामिल है। मैं खुद अपनी मान्यता जोडूंगा कि वेदों में विज्ञान के ऐसे सत्य मिलते हैं जो विज्ञान के पास भी उपलब्ध नहीं है, और इस सन्दर्भ में, दयानन्द ने वैदिक ज्ञान की गहराई और व्याप्ति को कम करके आंका। (cited in Arvind Sharma 2001:398 quoted in Debrahminising History, Page 2126)

There is then nothing fantastical in 'Dayanand's idea that the Veda contains truths of Science as well as truths of religion I will even add my own conviction that the Veda contains other truths of a science which the modern world does not at all possess, and in that sense, Dayanand has rather understand than overstated the depth and range of the Vedic wisdeom (cited in Arvind Sharma 2001:398 quoted in Debrahminising Histroy, Page 2126)
यह सोचने का सवाल है कि चाहे दयानन्द हों या राजाराममोहन रॉय हों या विवेकानन्द हों उन्होंने जब उनके हिसाब से समयानुकूल धर्म की परिभाषा पेश करने की कोशिश की और उसके लिए 'पवित्र' ग्रंथों का सहारा लिया, और इसमें भी वह बहुत सिलेक्टिव रहे, तब उनकी निगाह इन्हीं 'पवित्र' कहे जाने वाले ग्रंथों में निहित तमाम उन पहलुओं की तरफ क्यों नहीं गयी जो किसी भी मायने में उत्पीडि़त तबकों के हिसाब से दमनकारी थे।
इसमें कोई दो राय नहीं कि अपने विचारों के प्रचार प्रसार के लिए आर्य समाज ने शैक्षिक संस्थानों से लेकर अन्य कल्याणकारी कामों का आगा•ा किया, जिसका मकसद निम्न कही जाने वाली जातियों तक भी पहुंचना था, उन्होंने 'पतित उद्धार' के नाम पर ऐसे संगठनों का भी निर्माण किया, जिनका काफी व्यापक प्रभाव भी रहा; इन शिक्षा संस्थानों से पढ़ लिख कर ऐसे लोग भी सामने आए जिन्होंने जाति के प्रश्न पर आवाज बुलन्द की या तो कम्युनिस्ट आन्दोलन में शामिल हुए; मगर वर्णाश्रम का महिमामण्डन करने वाली और जाति के प्रश्न के प्रति उनके इसी दुविधाग्रस्त विचार के चलते जब पंजाब, तत्कालीन संयुक्त प्रांत जैसे इलाकों में जब दलित तबकों की तरफ से सामाजिक-राजनीतिक अधिकारों के लिए स्वायत्त पहलकदमियां चलीं तो उनका आर्य समाजियों ने विरोध भी किया, यहां तक कि आदि धर्म की नींव डालनेवाले पंजाब के मशहूर दलित नेता मंगू राम और उत्तर प्रदेश के अछूतानन्द जैसे अग्रणी दलित नेताओं को - जो पहले आर्य समाज से ताल्लुक रखते थे - उन्हें उसके अन्दर व्याप्त भेदभाव के चलते उससे बाहर आना पड़ा।
और इसी से जुड़ी यह बात है कि हिन्दु धर्म के पुनर्जीवन में या उसमें सुधार लाने में मुब्तिला यह लोग आखिर उसी धर्म में चली आ रही विद्रोह और प्रतिरोध की श्रमण परम्परा से - जिसकी नुमाइन्दगी बौद्ध, जैन, तमाम सन्त कवि और लोकजीवन में व्याप्त हिन्दु धर्म - क्या परिचित नहीं थे? आखिर क्या वजह रही होगी कि बदलती सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों के साथ प्राचीन ब्राह्मणी मूल्यों और संस्थाओं का समायोजन करने अर्थात उन्हें एडजस्ट करने के लिए उनकी प्रचण्ड व्याकुलता की? आखिर क्यों वे अपने सापेक्षत: प्रगतिशील चिन्तन और आधुनिक विचारों को पुराने ग्रंथों से, बेहद अनैतिहासिक और अतार्किक ढंग से जोडऩे के लिए उत्साहित थे।
इसमें कोई दो राय नहीं कि हिन्दू परम्परा का इतिहास काफी पुराना है, लेकिन क्या साथ में ही यह सच्चाई नहीं कि अन्य कई धर्मों, सम्प्रदायों का भी यहां लम्बा इतिहास रहा है। अगर एक हजार से अधिक सालों से हिन्दोस्तां की सरजमीं पर हम मुसलमानों की उपस्थिति देखते हैं (मुस्लिम अरब व्यापारी यहां आठवीं सदी के बाद आकर बसने लगे), लेकिन इस्लाम आने के पहले भी भारत कोई 'हिन्दू मुल्क' नहीं था। उसके पहले एक सहस्त्राब्द से यहां बौद्ध धर्म एक वर्चस्वशाली धर्म था। अगर हम चीनी विद्वानों के विवरण को देखें ('पैसेज टू चायना' अमत्र्य सेन, न्यूयार्क रिव्यू आफ बुक्स, 2004) तो यह बात साफ उजागर होती है कि वे भारत को 'बौद्ध राज्य' के तौर पर पहचानते थे।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत में जाति प्रथा के जड़ मूल होते जाने के साथ-साथ ब्राह्मणवादी विचारधारा और पुरोहित तबके की जो पकड़ मजबूत होती गयी - जिसमें जाति प्रथा को वेदों एवम स्मृतियों से वैधता हासिल होती थी - उसके खिलाफ विद्रोहों की सामानान्तर धारा यहां हमेशा मौजूद रही है। कभी वह भौतिकतावादी किस्म की चार्वाक परम्परा में उद्घाटित हुई तो कभी बुद्ध के अनित्य के फलसफे से उजागर होती रही। सनातन कहे गये धर्म की आस्था आधारित तमाम विचारधाराओं के खिलाफ - जिन्होंने व्यवस्था के खिलाफ सामाजिक बगावतों को बोथरा करने का काम किया - चार्वाकों/लोकायतों या बौद्ध विचार ने आलोचनात्मक तर्कबुद्धि का इस्तेमाल किया।

4.
'शूद्र क्रान्ति' एवं विवेकानन्द

अगर हम विवेकानन्द पर आएं तो हमें क्या दिखता है? निश्चित ही सामाजिक पृष्ठभूमि में परिवर्तन आए हैं। ज्योतिबा सावित्री फुले, ज्योति थास, नारायण गुरु आदि का सामाजिक मंच पर धमाके के साथ अवतरण हो चुका है।
दयानन्द के लगभग चालीस साल बाद जन्मे विवेकानन्द हिन्दु धर्म के नाम पर उपस्थित तमाम पतनशीलताओं पर जोरदार हमला बोलते हैं। लेकिन उसी के साथ अधिक प्रभावी तरीके से अतीत के गौरव का गुणगान करते दिखते हैं। एक पुनर्नवीन एवं स्पंदित भारत का उनका सपना बकौल सुमित सरकार 'सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रमों की अस्पष्टता, जनसम्पर्क की पद्धतियों या राजनीतिक उद्देश्यों से विहीन' होता है। उन्होंने 'दरिद्रनारायण' को चिन्हित करने की बात अवश्य की, मगर इस सम्बन्ध में सम्भावित कार्यक्रमों के बारे में उन्हें स्पष्टता नहीं थी।
इसमें कोई दोराय नहीं कि उन्होंने 'निम्न' जातियों को दी जा रही प्रताडऩाओं की भत्र्सना की या गरीबों का खून चूसने का भी विरोध करते हैं, मगर जैसा कि ब्रजरंजन मणि लिखते हैं उन्होंने 'दक्षिण के गैरब्राह्मण आन्दोलनों की इस बात के लिए आलोचना की कि वह बहुत जल्दी में है और 'जातियों के बीच विवादों को बढ़ावा दे रहे हैं।'
'जैसा कि मनु कहते हैं, यह सभी विशेषाधिकार और सम्मान ब्राह्मण को दिए हैं, क्योंकि उसके पास ही सद्गुण का खजाना है' (विवेकानन्द 1988-89)'गैरब्राह्मण जातियों को मैं कहता हूं कि जल्दी में मत रहो। तुम अपनी ही गलतियों का खामियाजा भुगत रहे हो। किसने आप को आध्यात्मिकता और संस्कृत शिक्षा की उपेक्षा करने के लिए कहा? अब क्यों इस बात पर गुस्सा करते हो कि किसी अन्य के पास अधिक दिमाग है, अधिक ऊर्जा है, अधिक हिम्मत है? (वही: 87) वह वंचितों को यह भी सलाह देते हैं कि 'अपनी ऊर्जा झगड़ों में व्यय करने के बजाय... अपनी सभी ऊर्जा ब्राह्मण के पास जो संस्कृति है, उसे हासिल करने में लगा दो। आप क्यों नहीं संस्कृत विद्वान बन सकते हो? संस्कृत शिक्षा सभी जातियों तक पहुंचे उसके लिए आप क्यों नहीं लाखों खर्च कर सकते हो? वही (संस्कृत भाषा) भारत में सत्ता का रहस्य है। संस्कृत और प्रतिष्ठा यहां साथ चलते हैं।' ब्रजरंजन मणि पूछते हैं कि संस्कृत के जरिए ब्राह्मण्त्व-प्राप्ति और उत्पीडि़तों की आज़ादी की बात रखने वाले विवेकानन्द शायद इस बात के प्रति अनभिज्ञ थे कि संस्कृत धर्मग्रंथ पढऩे को लेकर स्त्रियों और शूद्रों को मनाही थी।
विवेकानन्द के विपुल लेखन में हम यह भी पाते हैं कि निम्न जातियों की शिक्षा के प्रति उनका क्या नज़रिया था :
'...और यह यूरोपीय अब इन अज्ञानी, निरक्षर निम्न जातियों को शिक्षित कर रहे हैं, जो अपने मोटे कपड़ों में खेतों में मेहनत करते हैं और जो अनार्य नस्ल के हैं। वे हममें से नहीं है। यह हमें कमजोर कर देगा और यूरोपियनों और निम्न जाति के लोगों को लाभान्वित करेगा।'
(विश्वास 1998:251)
इसमें कोई दोराय नहीं कि विवेकानन्द के लेखन में हमें आसन्न शूद्र राज की बात मिलती है जिसके उनके लिए मायने हैं कि 'निम्न' जातियों का उभार 'मगर यह समझना महत्वपूर्ण है कि वह यह मानते थे कि इससे संस्कृति का स्तर नीचे जाएगा' ('...but it is quite significant that he should also think that this represented a general lowering of culture') (अमिया पी सेन, हिन्दू रिवायवलिजम इन इंडिया, 1993:331) वह इस बात का भी प्रतिवाद करते दिखते हैं कि अपने रैडिकल सामाजिक ओरिएन्टेशन का उनका मकसद सामाजिक नहीं धार्मिक एकता था। (वही)
प्राचीन वर्ण संस्कृति पर उनके यकीन के चलते उन्होंने मनु और याज्ञवल्क की सामाजिक-धार्मिक प्रणाली की वापसी की भी बात कही। (अमिया पी. सेन, हिन्दू रिवायवलिजम इन इंडिया, 1993:341)
जाति की उनकी समझदारी काफी समस्याग्रस्त थी, जैसा कि उनके निम्नलिखित वक्तव्यों से स्पष्ट है:
जाति ने एक राष्ट्र के तौर पर हमें जिन्दा रखा है। (Complete Works of Swami Vivekananda, vol II : 489) यह समाज का स्वरूप ही है कि वह समूहों का निर्माण करता है... जाति एक स्वाभाविक प्रणाली है; मैं सामाजिक जीवन में एक काम पूरा कर सकता हूं, और आप दूसरा करते हैं, आप देश का कारोबार सम्भाल सकते हैं और मैं पुराने जूतों के जोड़े ठीक कर सकता हूं, मगर वह कोई वजह नहीं कि आप मुझसे बड़े हों, क्योंकि क्या आप मेरा जूता ठीक कर सकते हैं... जाति अच्छी है। जीवन का वही स्वाभाविक तरीका है। (ibid, vol III : 245-6)
हर जाति, एक अलग जातीय तत्व बनी है। अगर कोई व्यक्ति भारत में लम्बे समय तक रहता है, वह उन विशिष्टताओं के जरिए बता सकता है कि कोई व्यक्ति किस जाति से जुड़ा है। (ibid, Vol VII : 54)
हमें इस सन्दर्भ में इस पक्ष पर भी विचार करना चाहिए कि किस तरह उच्च जातियों के अभिजातों ने आध्यात्मिक गुरु के तौर पर उभर रहे विवेकानन्द का विरोध किया था और किस तरह उनके शूद्र (अर्थात कायस्थ) होने की बात कही थी। मालूम हो कि तत्कालीन बंगाल में कायस्थ जाति - जिसमें विवेकानंद जनमे थे - शूद्रों की श्रेणी में शुमार की जाती थी। विदेश की यात्रा से लौटने के बाद किस तरह उन पर न केवल समुद्रोल्लंघन, म्लेच्छों से संपर्क और प्रतिबंधित अन्न खाने के आरोप लगे थे।
जाति के मसले की तरह स्त्रियों के प्रश्न के प्रति भी विवेकानन्द का रुख भी सन्तुलित नहीं कहा जा सकता।
'वह अन्दर से पितृसत्तात्मक थे। ...और 'महिलाओं को आध्यात्मिक जीवन में एक सकारात्मक बाधा के तौर पर देखते थे, स्त्रीत्व का सबसे उत्तम रूप वह मां में देखते थे,' (अमिया पी सेन, हिन्दू रिवायवलिजम इन इंडिया, सेन 1993:330) स्वायत्तता और selfassertoin की स्त्रियों की आकांक्षाओं के प्रति उनकी असहमति थी - '
'उनके हिसाब से सीता स्त्री गुण का मूर्त रूप थी। भारतीय समाज में महिलाओं की पारम्पारिक स्थिति की हिमायत में वह हिन्दू स्त्रियों के 'सुखी चित्र' खींचने में किसी भी हद तक जा सकते थे।'
मिसाल के तौर पर जहां शिकागो के उनके व्याख्यान की काफी चर्चा होती है, मगर 1895 के उनके दूसरे व्याख्यान की उतनी बात नहीं होती, जो उन्होंने अमेरिका की अपनी यात्रा में दिया था। भारत में महिलाओं की स्थिति पर दिए गए इस व्याख्यान की रिपोर्ट 'डेली स्टेण्डर्ड यूनियन' (जनवरी 21, 1895) में शामिल हुई थी। विषय था 'स्त्रीत्व का आदर्श - हिन्दु मोहम्मदन एण्ड क्रिश्चियन'। (Rewriting History : The Life and Times of Pandita Ramabai, Uma Chakravarty, P 333)
'स्वामीजी के मुताबिक स्त्रीत्व का आदर्श भारत की आर्य नस्ल में केन्द्रित है, जो विश्व इतिहास में सबसे प्राचीन है। इस नस्ल में पुरूष और स्त्रियां पुरोहित थीं, 'सहधर्माचारी/कोरिलिजनिस्ट' थी 'बाद में एक खास पुरोहित तबके के उदय के बाद महिलाओं का पुरोहित वर्ग में स्थान कम होता गया।' ... यहाँ (अमेरिका में) एक पुरूष अपनी पत्नी को अपनी विरासत से बेदखल कर सकता है, लेकिन वहां भारत में मृत पति की समूची सम्पत्ति पत्नी को ही जाती है, व्यक्तिगत सम्पत्ति पूरी तौर पर, रियल प्रापर्टी पूरे जनम के लिए।'
ओकलेण्ड के एक व्याख्यान में उन्होंने कहा कि बालविधवा को पुनर्विवाह के अधिकार से वंचित करने से कोई अधिक कठिनाई नहीं होती। एक सुसंस्कृत एवं सुप्रशिक्षित विधवा जिन्दगी को कठिनाई नहीं समझती क्योंकि वह वैराग्य और भक्ति की जिन्दगी जीती है, जो उसे और उच्च धरातल पर ले जाता है। ...एक दूसरे अवसर पर उन्होंने यह विवादास्पद वक्तव्य भी दिया कि ऊँची जाती की हिन्दू विधवाएं 'पुरूषों की कमी' के चलते शायद पुनर्विवाह नहीं करती हैं। (वही)
वैसे विधवाओं के प्रति नज़रिये में विवेकानन्द एवं बंकिम एक साथ खड़े दिखते हैं जिन्होंने पुनर्विवाह करनेवाली विधवा को 'चरित्रहीन' घोषित किया था। उनका तो यह दावा था कि विधवा की आस्था वह खम्भा है जिस पर सामाजिक संस्थाएं टिकी होती हैं। (वही 331)
भारतीय आध्यात्मिकता से पूरी दुनिया को जीत लेने का उनका दावा था। इस सन्दर्भ में चेन्नई (तत्कालीन मद्रास) का उनका व्याख्यान अक्सर उद्धत किया जाता है।
'हमें चाहिए कि हम बाहर निकलें और शेष दुनिया को अपनी आध्यात्मिकता और दर्शन से जीत लें। इसके अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं है, हमें उसे अंजाम देना ही होगा वरना मौत कबूल करनी होगी।' (Embree and Hay 1991, Vol II : 76)
फिलवक्त हम उनकी आध्यात्मिकता के सारतत्व की अधिक चर्चा नहीं करेंगे जो बुनियादी तौर पर ब्राहमणी धर्म और दर्शन में आलिप्त था। जैसा कि हम ऊपर चर्चा कर चुके हैं कि उन्होंने ब्राह्मणवाद के पहलू को स्वीकारा था। वह जाति का समर्थन करते थे, पुनर्जन्म, मूर्तिपूजा, यहां तक कि ब्राह्मणी धर्मग्रंथों में लिखी हर बात की भी हिमायत करते थे और न ही उनकी धार्मिकता का पितृसत्ता या जाति से कोई विवाद था। इसमें कोई दोराय नहीं कि वर्तमान के बजाय अपने अतीत के महान गौरव पर अपने आप पर अपने आप को केन्द्रित रखनेवाले विवेकानन्द लोगों के सामने हिन्दुधर्म की प्रतिष्ठा, भव्यता का चित्र रखने में या उन्हें प्रभावित करने में सफल होते थे। स्पष्ट था कि इस जोश भरे हिन्दू मनीषी के लिए भारतीय संस्कृति और हिन्दू संस्कृति एक ही थी। यही वह समझदारी थी जिसके चलते ईसाइयत, इस्लाम और बौद्ध धर्म को लेकर उनके विचार बेहद एकांगी थे और उन्हें हीन ढंग से सम्बोधित करने में उन्हें संकोच नहीं होता था।
अमिय सेन अपनी किताब में इस बात का उल्लेख करते हैं कि जब ईसाई मिशनरियों ने जाति और अस्पृश्यता को लेकर आलोचना की तो उन्होंने ईसा मसीह की ऐतिहासिकता पर भी सवाल उठा दिया और यह दावा भी किया कि दरअसल शुरूआती ईसाइयों की हिन्दू जड़ें थीं। (सेन 1993:338) मगर इस्लाम की चर्चा करने में - अन्य गैर हिन्दू धर्मों की तुलना में - वह अधिक आक्रामक होते दिखते हैं। इस्लाम को उन्होंने बुनियादी तौर पर अतार्किक और हिंसक धर्म कहा और मुसलमानों को कसाइयों के तौर पर सम्बोधित किया। एक तरह से देखें तो मुसलमान उनके लिए महज 'विदेशी' नहीं थे बल्कि उनके धर्म की उपस्थिति भी अस्वीकार्य थी।
The more selfish a man, the more immoral he is. And so also with a race. That race which is bound down to itself has been the most cruel and the most wicked in the whole world There has not been a religion that has clung to this dualism more than theat founded by the prophet to Arabia, and there has not been a religion which has shed so much blood and been so cruel to other men In the Quran, there is a doctrine that a man who does not believe these teachings should be killed, it is a mercy to kill him. (Collected Works Vol II : 352)
यह कोई संयोग नहीं जान पड़ता कि कांग्रेस के अन्दर के माडरेट अर्थात नरम तबके को विवेकानन्द नापसन्द करते थे। ऐसे लोग जो कुछ सुधारों को चाहते थे और जो सामाजिक बदलाव और राष्ट्रवाद में कोई अन्तर्विरोध नहीं देखते थे। गोखले और रानडे के बरअक्स वह - राजनीतिक तौर पर रैडिकल और सामाजिक तौर पर प्रतिक्रियावादी - तिलक और अरविन्दो को पसन्द करते थे। 1901 में तिलक की कोलकाता की यात्रा में बेलूर मठ में विवेकानन्द ने उनका गर्मजोशी से स्वागत किया था।
यह वही तिलक थे जिन्हें एक तरफ भारतीय 'असन्तोष का जनक' कहा जाता था, 1908 में उन्हें जब जेल की सज़ा हुई थी तो बम्बई के हजारों मजदूर सड़कों पर उतरे थे, उन्होंने बैरिकेट खड़े किए थे और उपनिवेशवादी पुलिस से मोर्चाबन्दी में 200 से अधिक लोक शहीद हुए थे। यह एक ऐसी घटना थी जिसकी अनुगूंज अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी सुनाई दी थी। यहां तक कि कामरेड लेनिन ने भी इस घटना पर प्रतिक्रिया देते हुए इसे अहम घटना करार दिया था। मगर तिलक के बारे में यह भी रेखांकित करने लायक है कि जनता की गोलबन्दी के नाम पर उन्होंने गणेशोत्सव तथा शिवजयंती जैसे जिन त्यौहारों को मनाना शुरू किया, जिसकी एक प्रतिक्रिया अल्पसंख्यक मत/विचार के अधिक हाशिये पर जाने से हुई। जब शादी की उम्र को बढ़ाने को लेकर अंग्रेज सरकार ने कदम उठाया ताकि बच्चियों को शादी एवं बाद में यातनामयी गृहस्थजीवन न बिताना पड़े - जिसे शारदा एक्ट कहा गया था - तब तिलक ने उसका विरोध किया था; उन्होंने जातिभेद का भाषण में विरोध किया था और जब किसी ज्ञापन पर दस्तखत करने की पारी आयी तो वह चुप हो गए थे। यहां तक कि तिलक और अन्य राष्ट्रवादियों ने 1881-1920 के दरमियान लड़कियों को एवं गैरब्राह्मणों को शिक्षा देने और अनिवार्य शिक्षा को लागू करने का विरोध किया था। (देखें, परिमल राव, 'एजुकेट वूमेन एण्ड लूज नेशनेलिटी : रीडिंग बाल गंगाधर तिलक', क्रिटिकल क्वेस्ट 2010, दिल्ली)। यह बात तो सर्वविदित है कि कांग्रेस की स्थापना के बाद उसके हर सम्मेलन के साथ सोशल कान्फेरेन्स के आयोजन का चल रहा सिलसिला तिलक के हस्तक्षेप के बाद बन्द हुआ था। पुणे में जब सम्मेलन का आयोजन किया जा रहा था तब उन्होंने इस पर आक्षेप उठाया था और परोक्ष रूप से यह चेतावनी भी दी थी कि सम्मेलन को होने नहीं दिया जाएगा। कहा तो यही जाता है कि उन्होंने सम्मेलन के पण्डाल को जला डालने की बात कही थी।

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जिन मानदण्डों के आधार पर हम सामाजिक मुक्ति के बारे में इन तीनों शख्सियतों की तुलना कर रहे हैं, उन्हीं पैमानों पर अगर महात्मा फुले को देखें  तो क्या नज़र आता है। लेकिन पहले फुले के जीवन के अहम पड़ावों का विहंगावलोकन करना समीचीन होगा। 1848 - अपनी पत्नी सावित्रीबाई के सहयोग से भारत में शूद्र अतिशूद्र लड़कियों के लिए पहले स्कूल की स्थापना, 1851 - सभी जाति की कन्याओं के लिए एक अन्य स्कूल, 1855 - कामगार लोगों के लिए रात्रि पाठशाला, 1856 - उनकी 'विभाजक' गतिविधियों के चलते उन पर जानलेवा हमला, 1860 - विधवा पुनर्विवाह की मुहिम, 1863 - विधवाओं के लिए एक आश्रयस्थल की शुरूआत, विधवाओं के केशवपन अर्थात बाल काटे जाने के खिलाफ नाभिकों की हड़ताल का आयोजन, 1868 - अपने घर का कुंआ अस्पृश्यों के लिए खोल देना, 1 जून 1873 - 'गुलामगिरी' उनकी बहुचर्चित किताब का प्रकाशन, 24 सितम्बर 1873 - 'सत्यशोधक समाज' की स्थापना, 1876-82 - पुणे म्युनिसिपल कौन्सिल के नामांकित सदस्य, 1882 - 'स्त्री पुरूष तुलना' की लेखिका एवं सत्यशोधक समाज की कार्यकर्ता ताराबाई शिन्दे की जोरदार हिमायत, जब उनकी उपरोक्त किताब ने रूढि़वादी तबके में जबरदस्त हंगामा खड़ा कर दिया था, 11 मई 1888 - एक विशाल आमसभा में उन्हें 'महात्मा' की उपाधि प्रदान की गयी, 1889 - उनकी आखरी किताब 'सार्वजनिक सत्यधर्म' का प्रकाशन, 28 मई 1890 - पुणे में इन्तकाल।
भारत में अंग्रेजों का शासन शुरू होने से पहले प्रजा को शिक्षा देना सरकार का दायित्व नहीं माना जाता था। महात्मा फुले के जनम से पहले राजसत्ता तथा धार्मिक सत्ता ब्राह्मणों के हाथ में होने के कारण सिर्फ उन्हें ही धार्मिक ग्रंथ पढऩे का अधिकार था। निम्न जाति के जिन व्यक्तियों ने पवित्र ग्रंथ पढऩे का प्रयास किया तो उन व्यक्तियों को मनु के विधान के तहत कठोर सजायें मिली थी। दलितों की स्थिति जानने के लिए पेशवाओं के राज पर नज़र डालें तो दिखेगा कि वहां दलितों को सड़कों पर घूमते वक्त अपने गले में घड़ा बांधना पड़ता था ताकि उनकी थूक भी बाहर न निकले। वे सड़कों पर निश्चित समय में ही निकल सकते थे क्योंकि उनकी छायाओं से भी सवर्णों के प्रदूषित होने का खतरा था। जाहिर सी बात है कि दलितों के लिए शिक्षा के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था। वर्ष 1813 में ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा जारी आदेश के तहत शिक्षा के दरवाजे सभी के लिए खुल गये। वैसे सरकार ने भले ही आदेश जारी किया हो लेकिन जमीनी स्तर पर स्थिति बेहद प्रतिकूल थी। ब्राह्मणों के लिये ही एक तरह से आरक्षित पाठशालाओं में जब अन्य जाति के छात्रों को प्रवेश दिया जाने लगा तब उसका जबरदस्त प्रतिरोध हुआ था।
यह कहना अनुचित नहीं होगा कि 1848 में महिलाओं के लिये खोले अपने पहले स्कूल के जरिये फुले दंपत्ति ने उस सामाजिक विद्रोह का बिगुल फूंका जिसकी प्रतिक्रियायें 21 वीं सदी में भी जोरशोर से सुनायी दे रही है। 1851 तक आते आते महिलाओं, शूद्रों अतिशूद्रों के लिये उनके द्वारा खोले गये स्कूलों की संख्या पांच तक पहुंची थी जिसमें एक स्कूल तो सिर्फ दलित महिलाओं के लिए था। जैसे कि उस समय हालात थे और ब्राह्मणों के अलावा अन्य जातियों में पढऩे लिखनेवालों की तादाद बेहद सीमित थी, उस समय इस किस्म के 'धर्मभ्रष्ट' करने वाले काम के लिए कोई महिला शिक्षिका कहां से मिल पाती। ज्योतिबा ने बेहतर यही समझा कि अपनी खुद की पत्नी को पढ़ लिख कर तैयार किया जाये और इस तरह 17 साल की सावित्रीबाई पहली महिला शिक्षिका बनी। फातिमा शेख नामक दूसरी शिक्षित महिला ने भी इस काम में हाथ बंटाया। इस बात के विस्तृत विवरण छप चुके हैं कि शूद्रों अतिशूद्रों तथा स्त्रियों के लिए स्कूल चलाने के लिए इस दंपत्ति को कितनी प्रताडऩायें झेलनी पड़ी यहां तक कि सनातनियों के प्रभाव में आकर ज्योतिबा के पिता गोविंदराव ने उनको घर से भी निकाला।
सावित्रीबाई एवं जोतिबा की शिक्षा की मुहिम ने किस तरह एक नयी अलख जगायी इसकी झलक 1855 में लिखे एक पत्र से मिलती है। जो उस वक्त 14 साल की मुक्ताबाई ने - जो खुद मांग नामक दलित जाति में जनमी थी - लिखा था और पहली दफा अहमदनगर से प्रकाशित 'ज्ञानोदय' नामक पत्रिका में छपा था। (मांग-महारांच्या दु:खाविषयी, अर्थात 'मांग-महारों के दुख के बारे में, वूमेन राइटिंग इन इंडिया, सम्पादन : सुसी थारू एवं के ललिता, पेज 215, पण्डोरा, 1991) चौदह साल की वह लड़की कहती है कि 'ऐ पढ़े लिखे पंडितों, अपने खोखले ज्ञान की स्वार्थी रटंत बन्द करो और सुनो जो मैं कहना चाहती हूं।'
अगर हम वेदों के आधार पर इन ब्राह्मणों के, महान पेटू लोगों के, तर्कों को खारिज करने की कोशिश करें, जो अपने आप को हमसे श्रेष्ठ मानते हैं और हमसे नफरत करते हैं, तब वह कहते हैं कि वेद उनकी अपनी सम्पत्ति है। जाहिर है कि अगर वेद सिर्फ ब्राह्मणों के लिए ही हैं, तो हमारे लिए नहीं हैं। हे भगवान, हमें अपना सच्चा धर्म बता दो ताकि हम अपनी जिन्दगी उसके हिसाब से जी सकें। वह धर्म, जहां एक व्यक्ति को ही विशेषाधिकार है और बाकी सभी वंचित हैं, इस पृथ्वी से समाप्त हो और हमारे दिमाग में यह कभी न आए कि हम इस धर्म पर गर्व करें।
लेकिन महात्मा फुले ने अपने काम को महज शिक्षा तक सीमित नहीं रखा। उन्होंने कई सारी किताबों के जरिये ब्राह्मणवाद से उत्पीडि़त जनता को शिक्षित जागरूक करने की कोशिश की। 'गुलामगिरी' 'किसान का कोड़ा' 'ब्राह्मण की चालबाजी' आदि उनकी चर्चित किताबें है। अपने रचनात्मक कामों के अन्तर्गत उन्होंने वर्ष 1863 में अपने घर में ही 'बालहत्या प्रतिबंधक गृह' खोला। जानने योग्य है कि विधवा विवाह पर रोक की प्रथा के कारण विशेषकर ब्राह्मण जाति की तमाम महिलाओं को काफी प्रताडऩा झेलनी पड़ती थी। अगर किसी के भुलावे में आकर वे गर्भवती हुईं तो बदनामी से बचने के लिये उन्हें उसके मारने के अलावा कोई चारा नहीं बचता था।
ज्योतिबा-सावित्री ने महिलाओं को इस दुर्दशा से बचाने के लिये अपने घर  में ही ऐसे गृह की स्थापना की। इसको लेकर समूचे पुणे में हैण्डबिल भी बांटे गये थे। बाल विधवाओं के बाल काटने से रोकने के लिए उन्होंने पुणे के नाईयों की एक हड़ताल भी सगंठित की थी।
अपने कार्यों को सुचारू रूप से आगे बढ़ाने के लिए ज्योतिबा ने 1873 में सत्यशोधक समाज की स्थापना की। फुलेकी दृष्टि की व्यापकता का अन्दाज इस बात से भी लग सकता है कि उसकी पहली कार्यकारिणी में हमें हिन्दू धर्म की विभिन्न जातियों के अलावा एक यहूदी और एक मुसलमान भी शामिल दिखता है। उन्हीं दिनों अपने दो मित्रों के साथ मिल कर 1873 में 'दीनबंधु' नामक अखबार का प्रकाशन भी उन्होंने शुरू किया। 'स्त्री पुरुष तुलना' की रचयिता ताराबाई शिन्दे हों या पुणे के सनातनियों से प्रताडि़त पंडिता रमाबाई हों दोनों की मजबूत हिफाजत ज्योतिबा ने की।
जानने योग्य है कि सत्यशोधक समाज के कार्यकर्ता तथा फुले के सहयोगी श्री नारायण मेघाजी लोखंडे ने बम्बई की पहली ट्रेड यूनियन बॉम्बे मिलहैण्डस एसोसिएशन की स्थापना की थी तथा उन्हीं के आन्दोलन की अन्य कार्यकर्ती ताराबाई शिन्दे अपनी किताब 'स्त्री पुरुष तुलना' के चलते एक तरह से पहली नारीवादी सिद्धांतकार मानी गयी हैं। उनके अन्य सहयोगी भालेकर ने ज्योतिबा की ही प्रेरणा से किसानों के संगठन का बीड़ा उठाया।
इस तरह हम देख सकते हैं कि स्त्री शूद्र अतिशूद्र के उत्पीडऩ का प्रश्न रहा हो या उनकी शिक्षा का, जनता को सचेत करने के लिये अखबारों पत्रपत्रिकाओं के प्रकाशन का मामला रहा हो या सेठों और ब्राह्मणों द्वारा साधारण जन के लिये रचे गये छलकपट का सभी की मुखालिफत में वे हमेशा आगे रहे। लेकिन उनका सबसे बड़ा योगदान यही कहा जाएगा कि उन्होंने वर्णाश्रम पर टिकी ब्राह्मणवाद की चौखट को जबरदस्त चुनौती दी और यह साबित किया कि ऊंचनीच अनुक्रम पर टिकी यह प्रणाली इन्सान को जोडऩे वाली नहीं है तोडऩेवाली है। यह स्वाभाविक ही था कि नवोदित उपनिवेशवादी संघर्ष द्वारा गढ़ी जा रही राष्ट्र की अवधारणा उन्होंने प्रश्नों के घेरे में खड़ी की। उनका साफ साफ सवाल था कि जातियों में बंटा यह समाज कैसे एक राष्ट्र हो सकता है।
अगर स्त्री शूद्रों अतिशूद्रों को शिक्षित करने के उनके प्रयासों पर फिर लौटें तो हम पाएंगे कि उन्होंने शोषितों को शिक्षित करने के साथ साथ शिक्षा का एक वैकल्पिक मॉडल भी प्रस्तुत करने की कोशिश की। मेकॉले के शिक्षा की फिल्टर पद्धति के माडल के बरअक्स अर्थात शिक्षा ऊंचे तबकों को प्रदान की जाये तो वह छन छन कर निचले तबकों तक आएगी, महात्मा फुले ने निचले तबकों को सबसे पहले शिक्षित करने पर जोर दिया। आज कल चर्चित 'पड़ोस में स्कूल' (neighbourhood schools) की नीति की भी उन्होंने हिमायत की। यहां तक कि शिक्षा में सरकारी हस्तक्षेप का आग्रह किया। भारतीय जनमानस पर प्रगट रूप से कायम मनु के विधान को चुनौती देते हुए उन्होंने दलितों शोषितों के लिए विशेष अवसर प्रदान करने की भी कोशिश की। उनकी मौत के चन्द साल बाद ही उनकी यह इच्छा कोल्हापुर के महाराजा शाहू महाराज ने पूरी की जो उन्हीं के आंदोलन से जुड़े थे। (1902)
1882 में अंग्रेज सरकार द्वारा शिक्षा संबंधी समस्याओं को जानने के लिए नियुक्त हंटर आयोग के सामने प्रस्तुत करने निवेदन में फुले के इन शिक्षासम्बन्धी विचार और ठोस रूप से मिले दिखते हैं। वे साफ कहते हैं कि 'मेरी राय है कि लोगों को, प्राथमिक शिक्षा कम से कम 12 साल तक अनिवार्य कर देनी चाहिए' उनका यह भी प्रस्ताव था कि ब्राह्मणों द्वारा दलित जातियों की पढ़ाई के रास्ते में खड़ी की जा रही बाधाओं को देखते हुए उनकी बस्ती में अलग स्कूल बनाने चाहिए। शिक्षा तथा अन्य स्थानों पर शोषित तबकों को वरीयता देने की बात करते हुए वे इसमें यह भी लिखते हैं कि अध्यापकों को ठीक तनख्वाह मिलनी चाहिए तभी वे ठीक से पढ़ा पाएंगे। लेकिन उनका सबसे रैडिकल सुझाव शिक्षा के पाठ्यक्रम को लेकर है जो उनके मुताबिक 'महज क्लर्क और शिक्षक तैयार करने की उपयोगिता तक सीमित है'। प्रचलित माध्यमिक शिक्षा को सामान्य लोगों की दृष्टि से अव्यावहारिक और अनुचित घोषित करते हुए उसका विकल्प तलाशने की मांग करते हैं।
उनका साफ मानना था कि शूद्रों अतिशूद्रों को जिन आपदाओं का सामना करना पड़ता है उसकी जड़ में ईश्वर के नाम से रचित या उसके द्वारा प्रेरित धार्मिक किताबों पर अंधविश्वास ही कारण होता है। इसलिए वह अंधश्रद्धा का खातमा करना चाहते थे। स्पष्ट है कि सभी स्थापित धार्मिक और पुरोहित तबकों को यह अंध विश्वास अपने उद्देश्य के लिए उपयोगी दिखता है, जो उसकी हिफाजत की पूरी कोशिश करते हैं। उनका प्रश्न था 'अगर ईश्वर एक ही है, जिसने सभी मानवता को बनाया, तब उसने वेदों को सिर्फ संस्कृत में ही क्यों लिखा जबकि वह समूची मानवता का कल्याण चाहता था? उन सभी के कल्याण का क्या जो यह भाषा समझ नहीं पाते?' फुले का निष्कर्ष है कि यह बात भरोसे लायक नहीं लगती कि सभी धार्मिक किताबें ईश्वर द्वारा रचित हैं। यह बात मान लेना एक तरह से अज्ञान एवं पूर्वाग्रह का परिणाम है। सभी धर्म और धार्मिक किताबें मनुष्य द्वारा निर्मित हैं और वह उन्हीं तबकों के हितसाधन की बात करती हैं, जो इनके माध्यम से अपने हित की पूर्ति चाहते हैं। अपने वक्त में फुले ऐसे एकमात्र समाजशास्त्री और मानवतावादी थे जो ऐसे साहसी विचारों को रख सकते थे। उनकी नज़र में, हर धार्मिक किताब अपने वक्त का उत्पाद होती है और उसमें जो सत्य पेश किए रहते हैं उनमें कोई स्थायी और वैश्विक वैधता नहीं होती। ऐसी किताबें उसके रचयिताओं के पूर्वाग्रहों और स्वार्थों से कभी मुक्त नहीं हो सकती।
आखिर हम ज्योतिबा फुले के योगदान के बारे में यह कह सकते हैं जिन्होंने सामाजिक मुक्ति के क्षेत्र में एक रैडिकल प्रवाह के विकास में अहम भूमिका अदा की।
'सिलेक्टेड रायटिंग्ज आफ ज्योतिराव फुले' के सम्पादकीय में प्रोफेसर गो पु देशपाण्डे हमें बताते हैं
'फुले का फलक व्यापक था, उनका प्रसार विशाल था। उन्होंने अपने वक्त के अधिकतर महत्वपूर्ण प्रश्नों - धर्म, वर्ण व्यवस्था, कर्मकाण्ड, भाषा, साहित्य, ब्रिटिश हुकूमत, मिथक, जेण्डर प्रश्न, कृषि में उत्पादन की परिस्थितियां, किसानों की हालत आदि - को चिन्हित किया और उनको सैद्धान्तिक शक्ल देने की कोशिश की... क्या फुले को फिर समाज सुधारक कहा जा सकता है? इसका जवाब होगा 'नहीं'। एक समाज सुधारक उदार मानवतावादी होता है और फुले क्रान्तिकारी अधिक थे। उनके पास विचारों की समग्र प्रणाली थी, और वह उन प्रारम्भिक विचारकों में से थे, जिन्होंने भारतीय समाज में वर्गों की पहचान की थी। उन्होंने भारतीय समाज के द्वैवर्णिक संरचना का विश्लेषण किया था, और सामाजिक क्रान्ति के लिए शूद्रों-अतिशूद्रों को अग्रणी कारकशक्ति/एजेंसी के तौर पर चिन्हित किया था।' (पेज 20, लेफ्टवर्ड)

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निष्कर्ष के ऐवज में

संस्कृत का एक सुभाषित है 'वादे वादे जायते तत्वबोध:' अर्थात वादविवाद की प्रक्रिया के जरिए हम तत्वबोध हासिल कर सकते हैं। बात करना इस वजह से जरूरी नहीं है क्योंकि हमें बात करने का शगल है उलटे देखने में यही आ रहा है कि ठीक से बातों का आगज़ भी नहीं हुआ है, अभी भी बहुत सारी बातों पर जो कोहरा पड़ा है, जिसे छांटा भी नहीं गया है।
बात करना इस वजह से भी जरूरी है क्योंकि हमारा समाज बेहद आत्ममुग्ध समाज है। अपने आप को विश्वगुरू मानने का वहम रखने वाला।
यही वह स्थिति है जिसके चलते हम अपने पुरखों का या तो गुणगान करते हैं या उन्हें बिल्कुल खारिज कर देते हैं। 21 वीं सदी जो एक नयी सम्भावनाओं की सदी बन कर हमारे सामने उपस्थित है, उसमें हमें अपने इस रवैये को छोडऩा होगा, तभी एक नयी जमीन तोड़ी जा सकती है।
यह कोई जरूरी नहीं कि आप को ऊपर का समूचा विश्लेषण पसन्द हो, लेकिन हमें बहस मुबाहिसा जारी रखना पड़ेगा। और एक निष्कर्ष तक पहुंचना पड़ेगा। एक किस्से के साथ मैं अपना थोड़ा लम्बा हो चला वक्तव्य समाप्त करता हूं।
पिछले दिनों मैं डा. अम्बेडकर के बम्बई के नागरिक अभिनन्दन समारोह का व्याख्यान पढ़ रहा था जो उन्होंने 28 अक्टूबर 1954 को दिया था।
हरेक के गुरू होते हैं, वैसे मेरे भी हैं। मेरे पहले सर्वश्रेष्ठ गुरू बुद्ध हैं। ...आज भी बौद्ध धर्म का प्रभाव मेरे मन पर कायम है और मेरा साफ मानना है कि दुनिया का कल्याण सिर्फ बौद्ध धर्म के जरिए ही हो सकता है।
मेरे दूसरे गुरु कबीर हैं। मुझे लगता है कि कबीर को बुद्ध के दर्शन का मर्म समझ में आया था। मैंने कभी किसी को बड़ा नहीं माना, गांधी को भी मैंने महात्मा कह कर सम्बोधित नहीं किया। क्योंकि कबीर ने कहा है कि 'मानुस होना कठिन है तो साधु कैसे हो सकता है।'
मेरे तीसरे गुरू जोतिबा फुले हैं। गैरब्राह्मणों के असली गुरू वही हैं। दर्जी, कुम्हार, नाई, कोली, महार, मांग, चर्मकार सभी को इन्सानियत की शिक्षा फुले ने ही दी। कोई कहीं भी जाए लेकिन हम जोतिबा के रास्ते पर ही जाएंगे। साथ में भले कार्ल माक्र्स को ले लें या और किसी को अपना लें। मगर जोतिबा का रास्ता हम नहीं छोड़ेंगे।
यह हम सभी के लिए सोचने का मसला है कि शोषितों-उत्पीडि़तों के इस महानायक ने अपने पूर्ववर्ती दयानन्द सरस्वती या विवेकानन्द का नाम लेना मुनासिब नहीं समझा।
आखिर क्या वजह रही होगी इसके पीछे?

(सामाजिक मुक्ति की ज्ञानमीमांसा : विवेकानन्द, ज्योतिबा फुले और दयानन्द सरस्वती के विचारों की आलोचनात्मक समीक्षा विषय पर दर्शन विभाग, मोहनलाल सुखाडिया विश्वविद्यालय, उदयपुर द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में प्रस्तुत व्याख्यान, 21-22 जनवरी 2014)


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