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फरवरी 2014

ज्ञानप्रकाश विवेक की ग़ज़लें

ज्ञानप्रकाश विवेक

आपके जीने का अंदाज़ फ़कीराना था
आपके घर में परिन्दों का दव़ाखाना था

धूपकी एक चटाई वो लिए फिरता था
ठाठ उस शख्स का क्या खूब कबीराना था

तूने भी सर से उठा रक्खी थी दुख की गठरी
मेरे अंदर भी कोई दर्द का तहखाना था

मैं अगर फ़र्श पे कालीन बिछाता यारो!
मेरी आहट को तो बेमौत ही मर जाना था

वेदना! देख, तेरी मैंने पकड़ ली उंगली
कहकहों ने तो तुझे छोड़ के आ जाना था

आज मैं कांच की पौशाक पहनकर आया
आज मुझको किसी चट्टान से टकराना था

चाय भी छोड़ दी उस शख्स ने मेरी यारो!
रेलगाड़ी से उसे दूर कहीं जाना था

आपने मेरे चराग़ों को नसीहत दी है
थोड़ा आदाब हवाओं को भी समझाना था

* * *
खड़ा रहा मैं ज़ेहन में खुमारियां लेकर
कि बस चली गई सारी सवारियां लेकर

झटक रहा था कोई आसमान में बादल
निकल पड़े थे सभी लोग छतरियां लेकर

वो मेरे वास्ते अपने ठहाके छोड़ गया
चला गया मेरे घर से उदासियां लेकर

खड़ा है जश्न मनाता ग़रीब का बच्चा
दुकानदार से दो-चार टाफ़ियां लेकर

तुम उस किसान को थोड़ा-सा कर्ज़ दे देते
हज़ार बार वो आया है अर्ज़ियां लेकर

मिली नहीं मेरी कागज़ की कश्तियां यारो!
मैं लौट आया नदी की तलाशियां लेकर

मुसाफ़िरों का सफ़र शानदार गुज़रेगा
पड़े हैं रास्ते इतनी कहानियां लेकर

किताबें, ऐनकें, मफ़लर, दवाइयां, जूते-
समय खड़ा रहा बूढ़ी निशानियां लेकर

* * *

किसी वहशत की मारी तेज़ आंधी के सताए हैं
कि हम कुछ दूर जाकर घर की जानिब लौट आए हैं

हम अपनी हरकतों से इसकदर बेकैफ़ थे यारो!
कि अपने आप पर हमने कई कर्फ्यू लगाए हैं

शिखर पे जाके हम बैठे तो फिर ये सच समझ आया
कि जीवन के सभी उत्सव तो नीचे छोड़ आए हैं

अब इसके बाद जो अंजाम होगा देखा जाएगा-
तुम्हारे वारदातों के शहर में घर बनाए हैं

मुझे लगता है जैसे अब वहां कोई नहीं रहता
भिखारी भी वहां से हाथ ख़ाली लौट आए हैं

अरे आकाश! आकर देख थोड़ा होसला मेरा-
कि मेरी कहकशां से मैंने कुछ तारे चुराए हैं

* * *

तलातुमो! अभी जल पे है आस्था मुझको
कि ढूंढना है समन्दर में रास्ता मुझको

तमाम दिन मैं गली में भटकता-फिरता रहा
तू एक बार तो खिड़की से देखता मुझको

लिपट गया मेरे पैरों में रास्ता कच्चा
कि फिर वो गांव की चौपाल ले गया मुझको

हरेक नागरिक दूकानदार लगता है-
तुम्हारे शहर ने सचमुच डरा दिया मुझको

दरख़्त काटनेवाले, ये इल्तिजा है मेरी-
मैं घोसला हूं परिन्दे का मत गिरा मुझको

तुम्हारी बज़्म में ऐसा हुआ है हाल मेरा
दिखा गया कोई बाहर का रास्ता मुझको

मुकुट हूं मैं किसी हारे हुए शहंशाह का
समय का देवता ठोकर लगा गया मुझको

* * *

इसीलिए तेरे फ़ानूस हमसे डरते हैं
हमें अदब से सितारे सलाम करते हैं

कुछ इस तरह से इकट्ठे किए हैं दुख हमने
कि जैसे गांव के बूढ़े चिलम को भरते हैं

बड़ी फ़ज़ूल है ये रोकने की ज़िद तेरी
रवां-रवां हैं जो दरिया, कहां ठहरते हैं

अभी दरख़्त से जो आ गिरे हैं सड़कों पर
हम अपनी जेब को उन जामुनों से भरते हैं

हम इस सराय को होटल बना तो दें लेकिन
कई ग़रीब मुसाफ़िर यहां ठहरते हैं

हमारे पास है मिट्टी की इक यही गुल्लक
जो तू कहे तो इसे तेरे नाम करते हैं

* * *

ज़िंदगी में कई प्रपंच रचाए उसने
रोज़ कागज़ के दशानन भी जलाए उसने

मैंने उस शख्स का नायाब करिश्मा देखा
परकटे जितने परिन्दे थे, उड़ाए उसने

आसमां धूप हवा छांव सितारे जुगनू
अपने घर में कई मेहमान बुलाए उसने

आज दिनभर वो रहा भूख से व्याकुल लेकिन
अपने बच्चों के लिए पैसे बचाए उसने

प्यास के मारे हिरन को जो पिलाया पानी
सामने बैठ के आभार जताए उसने

बैठने के लिए मैं ढूंढ रहा था कुर्सी
फर्श पे धूप के अखबार बिछाए उसने

* * *


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