कौन गा रहा है यह गीत
बिफराई ततैया सा झूम गए हैं मेरे शरीर से इसके बोल चीथ रहा पंजों में दबोचकर बनैले जानवर सा मेरी आत्मा को इसका संगीत
कौन गा रहा है यह गीत
कितने स्लो मोशन में बज रहा यह गीत कौन खोल रहा इतने इत्मीनान से अपने घाव के टाँकें बचा नहीं जैसे उसके पास कोई और काम कौन कर रहा सुरों के माध्यम से अपनी नसीब से इतनी मार्मिक जिरह कौन उतरा है इतनी प्राचीन बाबड़ी में बीते हुए समय के सड़ चुके जल से बुझाने अपनी प्यास कौन है आसमान में जर्जर प्रकाश वाले तारे सा देखता पृथ्वी पर पड़ी अपनी निस्पंद देह को इतनी विरक्ति से
कौन गा रहा है यह गीत
सुना है जबसे इसे हो रही मुझे गहरी बैचेनी माथे पर छलछला रहा पसीना और तेज हो गई साँसें दौड़ रहा शरीर का सारा खून हृदय की तरफ विकट संकट में हो जैसे वह छटपटा रही मेरे जीवन के नेपथ्य में सीने को पकड़े कोई परछाईं एक रूलाई की गिरफ्त में आने ही वाला है मेरा कंठ हो रही विचित्र अनुभूतियां कभी लगता रहता हूँ जिस घर में उजड़ा हुआ मकबरा है दरअसल वह प्रेम के किसी शायर का कभी आतंक से खड़े हो रहे हैं शरीर के सारे रोएं देख रहा मानों मुझे अपनी पगड़ी की आंख से खाप पंचायत का कोई मुखिया
कोई गा रहा यह है गीत
कौन है जो अपनी ही आवाज को अपने सिर की तरफ ताने है पिस्तौल सा कौन जा रहा है पूरी दुनिया की तरफ किए अपनी चट्टानी पीठ इतने निस्तेज कदमों से गल गए है किसके हौसले इस कदर जीवन के बर्फीले दर्रो को पार करते-करते कौन दुकानदार है यह ताउम्र दुनिया के मेले में दुकान लगाने के बावजूद हुई नहीं बोहनी तक जिसकी अरे कौन है पटक रहा प्यानो के बटनों पर पागलों की तरह हाथ पटका करता था जैसे जर्मनी का अमर संगीतकार बीथोवेन कुचल दी थी जब ईश्वर ने अपने पैरों तले उसकी श्रवण शक्ति
जब से सुना है यह गीत हो रही विचित्र अनुभूतियाँ कभी लगता है घोड़ा हूँ मैं सजा-धजा ग्लानि में डूबा अपनी राजकुमारी को युद्धभूमि में खो देने के बाद लौटा जो थके कदमों से करता नगर के भद्र जनों के प्रश्नों का सामना कभी नाचता महसूस होता अपने सीने पर किसी न्यायप्रिय शहंशाह का अट्टहास निकला होता है जो उसके कंठ से जीते जी एक युवती को दीवारों के बीच चुनवा देने के बाद
कौन गा रहा है यह गीत
पता ही नहीं चला
पता ही नहीं चला कब बदल गए हमारे रास्ते और मंजिलें मंगल भाई
पता ही नहीं चला
कब शामिल हो गए मेरी भाषा में पिज्जा, ब्रांडेड जीन्स, लैपटाप, शेयर मार्केट तथा डालर जैसे शब्द कब तुम्हारी बोली वाणी का हिस्सा हो गए गरीबी रेखा कार्ड, कंट्रोल की दुकान, मिट्टी का तेल, बोहनी बट्टी, त्यौहारी बाजार जैसे शब्द कब तीन चार कश के बाद मैं एशट्रे में मसलने लगा कीमती सिगरेट कब कानों में खोंचने लगे तुम अधजली बीड़ी कि पी सको कई बार कब लगा लिया मैंने कार में टी.वी. एसी तथा विदेशी म्यूजिक सिस्टम कब चौड़ा करवा लिया तुमने साइकिल का कैरियर लगवा ली उसके हैंडिल में लाइट कब बीतने लगे मेरे गर्मियों के तपते दिन शिमला, कुल्लू, मनाली, कश्मीर तथा डलहौजी में कब जेठ की लू से भरी तुम्हारी दोपहरें गुजरने लगी गुड़ी, अम्बाड़ा राखीकोल, तांबिया तथा उमरेठ के बाजारों में लगाते थे थिगड़ेदार पाल वाली दुकान ऐसा तो नहीं था पहले एक ही मां की कोख से पैदा हुए हम एक ही आंगन में पले बढ़े बचपन में जब फाड़ दी थी बब्बू ने मेरी पतंग कैसे टूट पड़े थे तुम उस पर और बेइमानी से टंगड़ी मार गिरा दिया था श्याम बघेल ने तुम्हें हॉकी के खेल में कैसे गड़ा दिए थे मैंने उसके पैरों पर दांत ज़ाहिर है एक ही मिट्टी से जुड़ी थी हमारी जड़ें
पता ही नहीं चला कब भूल गए मेरे शरीर के जीवाणु रोगों से लडऩे का हुनर कब शिकार हो गया मैं उच्च रक्तचाप, मधुमेह, अनिद्रा और अवसाद का कब घास फूस के बिजूके के मुक्के में तब्दील हो गया मेरा क्रोध और प्रतिरोध कब मेरे जीवन सरोकारों में आ बैठा एक बहेलिया लेकर अपना जाल जड़ ली मैंने अपने हाथ की अंगूठी में हीरे की जगह अपनी ही आत्मा
पता ही नहीं चला कब लौह छड़ों में बदल गई बोझ ढोते ढोते तुम्हारे शरीर की हड्डियां कब सीख ली कुत्ते की तरह जीभ से चाट चाट कर अपने घावों को ठीक करने की कला किस दुकान से खरीद ली गाढ़ी और गहरी नींद कब उतार फेंका अपने आक्रोश की देह से रेशमी लिबास निकलने लगे मुँह से थूक के सच्चे गुस्सैल छींटे कब करियाकर हो गया तुम्हार माथा प्रखर और ज्यादा मनुष्योचित श्रम की धूप में झुलस-झुलस कर
सचमुच पता ही नहीं चला मंगल भाई कब पीछे लग गया बदबू का एक झोंका फूलों और इत्रों की खुशबू में डूबे मेरे उत्सवों के पीछे गटर और कीड़ों से बिलबिलाती नालियों से घिरे घर में रहने के बावजूद कैसे सने हैं जीवन की सुरभि से अभी तक तुम्हारे सारे त्यौहार।
आओ संगीत आओ
आओ संगीत आओ मेरे मस्तिष्क की कोशिकाओं को शक्तिशाली बनाओ सामान्य करो मेरे शरीर के बढ़े हुए रक्तचाप को कम करो देह की अकड़ी हुई मांसपेशियों का तनाव पैदा करो मेरी जीभ की नष्ट हो गई स्वादग्रंथियों में संवेदनशीलता ठीक करो मेरी विकृत वाक्शक्ति को
आओ संगीत आओ
वर्षों से जल रही मेरे कंठ में एक ही प्यास की लौ वर्षों से एक ही घाव मेरे घर का पता वर्षों से एक ही आग के दरिया के चारों ओर घूम रहा कि करूँ तो कैसे करूँ तैर कर पार वर्षों से एक ही ग्लानि को धुन रहा किसी धुनिये सा रेशे-रेशे को देखता छाती पीटता
आओ संगीत आओ
मात्र मुझ पर न खत्म हो तुम्हारी यात्रा लांघों देशों की सरहदें, पार करो महासागर और पहाड़ सोख लो खेतों, कारखानों तथा खदानों में काम करते दुनिया के सारे मजदूरों के माथे का पसीना मदद करो बाढ़, भूकंप से ढह गए घरों को खड़ा करने में पीस डालो बलात्कार के बाद मार डाली गई बेटियों की पिताओं की आँखों में ऊगी अनिन्द्रा की कीलें पाठशालाओं में बच्चों के सिरों पर चट्टान सा लदे ज्ञान को कपास के फूल सा हल्का बनाओ बजो चाहे हिन्दुस्तान के मंदिरों, सऊदी अरब की मस्जिदों या अमेरिका के चर्चों में अफीम का नशा न पैदा करे तुम्हारी धुन फुर्तीले, चौकन्ने और विवेकवान बने रहें मनुष्यों के चेतना के घोड़े
आओ संगीत आओ
सुबह की लालिमा में चमकते पर्वतों के सुनहरे शिखरों, शाम के धुँधलके में लिपटे जंगलों तथा परिन्दों के कलरवों की मायावी दुनिया का रहस्य खोलो ब्रह्माण्ड के हर कण की अस्मिता को रेखांकित करते हुए करो उसकी लय को उद्घाटित बनो न किसी फूहड़ स्पर्धा का हिस्सा, न करो लहू की प्यासी किसी सेना का नेतृत्व साज, साजिन्दे, गायक और श्रोताओं को एकाकार करते हुए आओ करो मनुष्यों को जन्म और मृत्यु के खेल से मुक्त सांप्रदायिकता और नस्लवाद के बीहड़ अंधेरे में भटकते दहशतगर्दों की भ्रमित बेचैन रूह को सुकून के अनगिनत झिलमिलाते जुगनुओं से भर दो
आओ संगीत आओ।
मोहन डहेरिया हिन्दी कविता का एक बहुस्वीकृत चेहरा हैं। 'पहल' के प्रारंभिक दौर में डहेरिया उससे जुड़े और प्रकाशित हुये। कई कविता संग्रह प्रकाशित। |